हिन्दी सिनेमा और स्त्री चिंतन पर चर्चा करने से पहले मैं आप लोगों को फ्लैशबैक में ले जाना चाहूंगा। जब ‘दादा साहेब फाल्के’ भारतीय सिनेमा की पहली फीचर फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ बना रहे थे। यह एक मूक फिल्म थी। इसमें उन्हें राजा हरिश्चन्द्र की पत्नी ‘तारामती’ के रोल के लिए एक स्त्री पात्र की आवश्यकता थी। काफी खोजबीन के बाद भी जब वह इसमें सफल न हो सके ,तब मजबूरन एक ‘अन्ना सालुंके’ नामक व्यक्ति ने यह भूमिका निभाई थी। यानी भारतीय समाज ने सिनेमा को सहज स्वीकार नहीं किया था। और उस समय स्त्रियों की स्थिति यह थी कि उनकी सारी अभिलाषाएं एक चहारदीवारी में कैद थीं। वह चाहते हुए भी अपने जीवन के फैसले नहीं ले सकती थीं। रीति-रिवाजों के नाम पर उन पर जो नियम थोपे जाते थे। उससे उनके सांस लेने के अतिरिक्त सारे अधिकार छीन लिए गए थे।
उस समय की परिस्थिति में स्त्रियों की दयनीय दशा को दीपा मेहता की फिल्म ‘वॉटर’ में देखा जा सकता है। इसकी कहानी सन् 1930 के आसपास की है। तब विधवाओं को सामान्य जीवन जीने का अधिकार नहीं था। पति की मृत्यु के पश्चात उन्हें विधवा आश्रमों में रहना पड़ता था। जहां उन्हें जीवन जीने के साधनों को जुटाने के लिए अनाचार करने के लिए विवश किया जाता था। वह पुरूष सत्ता के हाथों की कठपुतली मात्र थीं। ऐसी स्थिति में उनमें से कोई विद्रोह की सोंच तक नहीं सकता था। वहां रहने वाली एक छोटी बच्ची जब उन विधवाओं से पूंछती है कि विधवा आदमियों को कहां रखा जाता है? इसपर सभी उसे उलाहना देते हैं और डांटकर चुप करा देते हैं। इस तरह की न जाने कितनी चिंगारियां हैं जो जलने से पहले ही समाप्त हो जाती हैं। सिर्फ पुरूष सत्ता ही नहीं कुछ स्त्रियां भी इस तरह के विरोध को स्वीकार नहीं करतीं। उस आश्रम में जब एक वृद्ध महिला की मृत्यु हो जाती है। तब वहां खड़ी एक औरत हाथ जोड़कर प्रार्थना करती है कि ‘हे भगवान, अगले जन्म में इसे आदमी बनाकर भेजना।’ इससे पता चलता है कि वे सब अपने स्त्री जीवन को किस तरह ढो रही थीं।
स्वतन्त्रता के बाद इस तरह की सोंच में परिवर्तन आने शुरू हो गए। दबे पांव ही सही लेकिन रीति-रिवाजों और रूढ़िवादी सोंच को चुनौतियां मिलने लगीं। ‘बासु चटर्जी’ की फिल्म ‘रजनी गंधा’ में इसके दर्शन होते हैं। यह फिल्म मन्नू भण्डारी की कहानी ‘यही सच है’ पर आधारित है। जिसमें दीपा नाम की एक लड़की दिल्ली में अपने भईया-भाभी के यहां रहकर पी॰एच॰डी॰ कर रही है। यहीं उसे संजय नाम के एक युवक से प्रेम हो जाता है। दोनों शादी करना चाहते हैं। लेकिन इसी बीच उसे नौकरी के इंटरव्यू के लिए मुंबई जाना पड़ता है। जहां उसकी मुलाकात अपने पूर्व प्रेमी ‘नवीन’ से होती है। दोनों एक दूसरे के करीब आते हैं। उसे नवीन से फिर प्यार हो जाता है। लेकिन संकोचवश उससे इज़हार नहीं कर पाती। वह अपना प्रेमी चुनने के लिए स्वतन्त्र है। लेकिन उसके अन्दर उत्पन्न हुए द्वन्द उसकी इच्छाओं को बाहर नहीं आने देते। वह अन्दर ही अन्दर घुटती रहती है और अन्त में जब दिल्ली जाकर संजय से मिलती है। तब अपनी आत्मा की आवाज़ को नज़अंदाज करते हुए ,उसे गले लगाकर कहती है कि ‘यही सच है’। इस पर कुमुद शर्मा लिखती हैं- “पुरूष प्रेम और एक अदद पति उसके जीवन-मरण का प्रश्न बना रहता है। इस सोंच के कारण उसकी स्वतन्त्रता इस विशिष्ट व्यवस्था की सीमाओं के भीतर ही रह जाती है। ये स्त्रियां पितृसत्ता के शोषण दुश्चक्र को ध्वस्त करने में असफल रहती हैं।”
भले ही यह पितृसत्ता में व्याप्त सोंच को बदलने का एक असफल प्रयास हो लेकिन इससे यह तो पता चलता है कि विद्रोह की चिंगारियां निकलनी शुरू हो गई थीं। आगे चलकर इसी चिंगारी ने मशाल का रूप धारण कर लिया । स्त्रियों ने चौखटों को लांघना शुरू कर दिया। और वे उन क्षेत्रों में भी धाक जमाने लगीं जहां सिर्फ पुरूषों का ही अधिकार समझा जाता था। इसका उदाहरण हमें गुलज़ार की फिल्म ‘आंधी’ में देखने को मिलता है। यह फिल्म कमलेश्वर के उपन्यास ‘काली आंधी’ पर आधारित है। इस फिल्म की नायिका ‘आरती देवी’ एक अमीर बिजनेसमैन की इकलौती संतान हैं। उसका अब तक का जीवन ऐशो- आराम से गुज़रा है। लेकिन वह प्यार करती है एक ऐसे मिडिल क्लॉस व्यक्ति से जिसकी एक छोटी सी दुनिया है। उसे पता है कि वहां उसे वे सारी सुख-सुविधाएं नहीं मिलेंगी जो अपने पिता के यहां मिलती हैं। इसके बावजूद वह उससे विवाह करना चाहती है। उसके पिता इसका विरोध करते हैं लेकिन उसे कुछ फर्क नहीं पड़ता। वह अपने फैसले पर अडिग रहती है। शादी के बाद वह अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती है। उसकी कुछ महत्वाकांक्षाएं हैं, जिन्हें पूरा करने के लिए वह राजनीति में जाना चाहती है। लेकिन उसका पति इसका विरोध करता है ,वह चाहता हे कि उसकी पत्नी गृहणी बनकर ही रहे। यहां जब दो विचारों में टकराव होता है। तब आरती घर छोड़ने का फैसला कर लेती है। वह अपने आपको पूरी तरह से राजनीति में झोंक देती है। इस तपस्या का परिणाम यह निकलता है कि वह एक सफल नेत्री बनकर उभरती है और लोग उसे अपना आदर्श मानने लगते हैं।
स्वतन्त्रता के बाद समाज में स्त्रियों की स्थिति में काफी सुधार हुआ। अब वे पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ती हुई नज़र आने लगीं। चूंकि सिनेमा समाज का ही दर्पण है। इसलिए इसमें भी हमें यह बदलाव देखने को मिलने लगे। वर्तमान समय में सिनेमा का स्वरूप पूरी तरह से बदल चुका है। इसमें नई-नई तकनीकों का प्रयोग होने लगा है और इसका क्षेत्र भी बहुत अधिक विस्तृत हो गया है। वैशवीकरण ने पूरे विश्व के सिनेमा को एक मंच पर लाकर खड़ा कर दिया है। इस बदलाव का असर यह हुआ कि अब स्त्रियां बढ़-चढ़कर इसमें हिस्सा लेने लगी हैं। अब हमें सिनेमा में वह अबला नारी नज़र नहीं आती जो हमेशा अपनी परिस्थितियों का रोना रोती रहती थी। बल्कि अब वह इनसे मुकाबला करना सीख चुकी है। ‘अकीरा’ और ‘मर्दानी’ के रूप में इसका उदाहरण हमारे सामने आता है। ‘अकीरा’ में जहां नायिका अकेले ही पूरे सिस्टम से भिड़ जाती है। वहीं ‘मर्दानी’ में अपनी सूझबूझ से एक लेडी पुलिस ऑफिसर खतरनाक अपराधियों को भी ढूंढ़ निकालती है। अभी तक बड़े पर्दे पर जिन एक्शन सीनस् में हम सिर्फ पुरूषों को ही देखा करते थे। उन्हें लड़कियां भी करती नज़र आ रही है। जिन्हें देखकर दर्शक ताली बजाने को मजबूर हो जाते हैं। हिन्दी सिनेमा के इस वर्तमान दौर पर गीतकार स्वानंद किरकिरे लिखते हैं- “इस समय हिन्दी सिनेमा में एक कमाल का वक्त आया हुआ है। एक निहायत बेबाक पीढ़ी उभरकर आई है। परंपरा से जुड़ी किसी भी चीज को लेकर इनमें किसी भी तरह का डर या खौफ नहीं है और न ही कोई बोझ।”
स्त्रियों का यह बदलता स्वरूप न सिर्फ सिनेमा के लिए बल्कि समाज के लिए भी एक शुभ संकेत है। क्योंकि एक स्वस्थ समाज का निर्माण तभी हो सकता है। जब उसमें स्त्री और पुरूष दोनों का समान योगदान हो। इस दृष्टि से सिनेमा ने लोगों को जागरूक करने का भी कार्य किया है। इसलिए यह आवश्यक है कि इसे हेय दृष्टि से देखने के बजाए हमें प्रोत्साहित करना चाहिए ताकि इसके सकारात्मक पक्ष को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाया जा सके।