Monday, February 28, 2022

कहानी। पूस की रात। Poos ki Raat | मुंशी प्रेमचंद | Munshi Premchand


                                  1
हल्कू ने आकर स्त्री से कहा, ‘सहना आया है, लाओ, जो रुपए रखे हैं, उसे दे दूं, किसी तरह गला तो छूटे.’

मुन्नी झाड़ू लगा रही थी. पीछे फिरकर बोली, ‘तीन ही तो रुपए हैं, दे दोगे तो कम्मल कहां से आवेगा? माघ-पूस की रात हार में कैसे कटेगी? उससे कह दो, फसल पर दे देंगे. अभी नहीं.’

हल्कू एक क्षण अनिश्चित दशा में खड़ा रहा. पूस सिर पर आ गया, कम्मल के बिना हार में रात को वह किसी तरह नहीं जा सकता. मगर सहना मानेगा नहीं, घुड़कियां जमावेगा, गालियां देगा. बला से जाड़ों में मरेंगे, बला तो सिर से टल जाएगी. यह सोचता हुआ वह अपना भारी- भरकम डील लिए हुए (जो उसके नाम को झूठ सिद्ध करता था) स्त्री के समीप आ गया और ख़ुशामद करके बोला, ‘ला दे दे, गला तो छूटे. कम्मल के लिए कोई दूसरा उपाय सोचूंगा.’

मुन्नी उसके पास से दूर हट गई और आंखें तरेरती हुई बोली, ‘कर चुके दूसरा उपाय! जरा सुनूं तो कौन-सा उपाय करोगे? कोई खैरात दे देगा कम्मल?  न जाने कितनी बाकी है, जो किसी तरह चुकने ही नहीं आती. मैं कहती हूं, तुम क्यों नहीं खेती छोड़ देते? मर-मर काम करो, उपज हो तो बाकी दे दो, चलो छुट्टी हुई. बाकी चुकाने के लिए ही तो हमारा जनम हुआ है. पेट के लिए मजूरी करो. ऐसी खेती से बाज आए. मैं रुपए न दूंगी, न दूंगी.’

हल्कू उदास होकर बोला, ‘तो क्या गाली खाऊं?’

मुन्नी ने तड़पकर कहा, ‘गाली क्यों देगा, क्या उसका राज है?’

मगर यह कहने के साथ ही उसकी तनी हुई भौहें ढीली पड़ गईं. हल्कू के उस वाक्य में जो कठोर सत्य था, वह मानो एक भीषण जंतु की भांति उसे घूर रहा था.

उसने जाकर आले पर से रुपए निकाले और लाकर हल्कू के हाथ पर रख दिए. फिर बोली, ‘तुम छोड़ दो अबकी से खेती. मजूरी में सुख से एक रोटी तो खाने को मिलेगी. किसी की धौंस तो न रहेगी. अच्छी खेती है! मजूरी करके लाओ, वह भी उसी में झोंक दो, उस पर धौंस.’

हल्कू ने रुपए लिए और इस तरह बाहर चला मानो अपना हृदय निकालकर देने जा रहा हो. उसने मजूरी से एक-एक पैसा काट-कपटकर तीन रुपए कम्मल के लिए जमा किए थे. वह आज निकले जा रहे थे. एक-एक पग के साथ उसका मस्तक अपनी दीनता के भार से दबा जा रहा था.

                                     2

पूस की अंधेरी रात! आकाश पर तारे भी ठिठुरते हुए मालूम होते थे. हल्कू अपने खेत के किनारे ऊख के पतों की एक छतरी के नीचे बांस के खटोले पर अपनी पुरानी गाढ़े की चादर ओढ़े पड़ा कांप रहा था. खाट के नीचे उसका संगी कुत्ता जबरा पेट मे मुंह डाले सर्दी से कूं-कूं कर रहा था. दो में से एक को भी नींद न आती थी. हल्कू ने घुटनियों कों गरदन में चिपकाते हुए कहा, ‘क्यों जबरा, जाड़ा लगता है? कहता तो था, घर में पुआल पर लेट रह, तो यहां क्या लेने आए थे? अब खाओ ठंड, मैं क्या करूं? जानते थे, मै यहां हलुवा-पूरी खाने आ रहा हूं, दौड़े-दौड़े आगे-आगे चले आए. अब रोओ नानी के नाम को. जबरा ने पड़े-पड़े दुम हिलाई और अपनी कूं-कूं को दीर्घ बनाता हुआ एक बार जम्हाई लेकर चुप हो गया. उसकी श्वान-बुध्दि ने शायद ताड़ लिया, स्वामी को मेरी कूं-कूं से नींद नहीं आ रही है. हल्कू ने हाथ निकालकर जबरा की ठंडी पीठ सहलाते हुए कहा, ‘कल से मत आना मेरे साथ, नहीं तो ठंडे हो जाओगे. यह रांड पछुआ न जाने कहां से बरफ लिए आ रही है. उठूं, फिर एक चिलम भरूं. किसी तरह रात तो कटे! आठ चिलम तो पी चुका. यह खेती का मजा है! और एक-एक भगवान ऐसे पड़े हैं, जिनके पास जाड़ा जाए तो गरमी से घबड़ाकर भागे. मोटे-मोटे गद्दे, लिहाफ- कम्मल. मजाल है, जाड़े का गुजर हो जाय. तकदीर की खूबी! मजूरी हम करें, मजा दूसरे लूटें!’ हल्कू उठा, गड्ढे में से ज़रा-सी आग निकालकर चिलम भरी. जबरा भी उठ बैठा. हल्कू ने चिलम पीते हुए कहा, ‘पिएगा चिलम, जाड़ा तो क्या जाता है, जरा मन बदल जाता है.’ जबरा ने उसके मुंह की ओर प्रेम से छलकती हुई आंखों से देखा. हल्कू, ‘आज और जाड़ा खा ले. कल से मैं यहां पुआल बिछा दूंगा. उसी में घुसकर बैठना, तब जाड़ा न लगेगा.’ जबरा ने अपने पंजे उसकी घुटनियों पर रख दिए और उसके मुंह के पास अपना मुंह ले गया. हल्कू को उसकी गर्म सांस लगी. चिलम पीकर हल्कू फिर लेटा और निश्चय करके लेटा कि चाहे कुछ हो अबकी सो जाऊंगा, पर एक ही क्षण में उसके हृदय में कम्पन होने लगा. कभी इस करवट लेटता, कभी उस करवट, पर जाड़ा किसी पिशाच की भांति उसकी छाती को दबाए हुए था. जब किसी तरह न रहा गया तो उसने जबरा को धीरे से उठाया और उसक सिर को थपथपाकर उसे अपनी गोद में सुला लिया. कुत्ते की देह से जाने कैसी दुर्गंध आ रही थी, पर वह उसे अपनी गोद मे चिपटाए हुए ऐसे सुख का अनुभव कर रहा था, जो इधर महीनों से उसे न मिला था. जबरा शायद यह समझ रहा था कि स्वर्ग यहीं है, और हल्कू की पवित्र आत्मा में तो उस कुत्ते के प्रति घृणा की गंध तक न थी. अपने किसी अभिन्न मित्र या भाई को भी वह इतनी ही तत्परता से गले लगाता. वह अपनी दीनता से आहत न था, जिसने आज उसे इस दशा को पहुंचा दिया. नहीं, इस अनोखी मैत्री ने जैसे उसकी आत्मा के सब द्वार खोल दिए थे और उनका एक-एक अणु प्रकाश से चमक रहा था. सहसा जबरा ने किसी जानवर की आहट पाई. इस विशेष आत्मीयता ने उसमे एक नई स्फूर्ति पैदा कर दी थी, जो हवा के ठंडे झोकों को तुच्छ समझती थी. वह झपटकर उठा और छपरी से बाहर आकर भूंकने लगा. हल्कू ने उसे कई बार चुमकारकर बुलाया, पर वह उसके पास न आया. हार में चारों तरफ दौड़-दौड़कर भूंकता रहा. एक क्षण के लिए आ भी जाता, तो तुरंत ही फिर दौड़ता. कर्तव्य उसके हृदय में अरमान की भांति ही उछल रहा था.

                                      3

एक घंटा और गुजर गया. रात ने शीत को हवा से धधकाना शुरू किया. हल्कू उठ बैठा और दोनों घुटनों को छाती से मिलाकर सिर को उसमें छिपा लिया, फिर भी ठंड कम न हुई. ऐसा जान पड़ता था, सारा रक्त जम गया है, धमनियों में रक्त की जगह हिम बह रहा है. उसने झुककर आकाश की ओर देखा, अभी कितनी रात बाक़ी है! सप्तर्षि अभी आकाश में आधे भी नहीं चढ़े. ऊपर आ जाएंगे तब कहीं सबेरा होगा. अभी पहर से ऊपर रात है.

हल्कू के खेत से कोई एक गोली के टप्पे पर आमों का एक बाग़ था. पतझड़ शुरू हो गई थी. बाग़ में पत्तियों को ढेर लगा हुआ था. हल्कू ने सोचा, ‘चलकर पत्तियां बटोरूं और उन्हें जलाकर ख़ूब तापूं. रात को कोई मुझे पत्तियां बटोरते देख तो समझे कोई भूत है. कौन जाने, कोई जानवर ही छिपा बैठा हो, मगर अब तो बैठे नहीं रहा जाता.’

उसने पास के अरहर के खेत में जाकर कई पौधे उखाड़ लिए और उनका एक झाड़ू बनाकर हाथ में सुलगता हुआ उपला लिए बगीचे की तरफ़ चला. जबरा ने उसे आते देखा तो पास आया और दुम हिलाने लगा.

हल्कू ने कहा, ‘अब तो नहीं रहा जाता जबरू. चलो बगीचे में पत्तियां बटोरकर तापें. टांठे हो जाएंगे, तो फिर आकर सोएंगें. अभी तो बहुत रात है.’

जबरा ने कूं-कूं करके सहमति प्रकट की और आगे-आगे बगीचे की ओर चला.

बगीचे में ख़ूब अंधेरा छाया हुआ था और अंधकार में निर्दय पवन पत्तियों को कुचलता हुआ चला जाता था. वृक्षों से ओस की बूंदे टप-टप नीचे टपक रही थीं.

एकाएक एक झोंका मेहंदी के फूलों की ख़ुशबू लिए हुए आया.

हल्कू ने कहा, ‘कैसी अच्छी महक आई जबरू! तुम्हारी नाक में भी तो सुगंध आ रही है?’

जबरा को कहीं ज़मीन पर एक हड्डी पड़ी मिल गई थी. उसे चिंचोड़ रहा था.

हल्कू ने आग ज़मीन पर रख दी और पत्तियां बटोरने लगा. ज़रा देर में पत्तियों का ढेर लग गया. हाथ ठिठुरे जाते थे. नंगे पांव गले जाते थे. और वह पत्तियों का पहाड़ खड़ा कर रहा था. इसी अलाव में वह ठंड को जलाकर भस्म कर देगा.

थोड़ी देर में अलाव जल उठा. उसकी लौ ऊपर वाले वृक्ष की पत्तियों को छू-छूकर भागने लगी. उस अस्थिर प्रकाश में बगीचे के विशाल वृक्ष ऐसे मालूम होते थे, मानो उस अथाह अंधकार को अपने सिरों पर संभाले हुए हों अंधकार के उस अनंत सागर मे यह प्रकाश एक नौका के समान हिलता, मचलता हुआ जान पड़ता था.

हल्कू अलाव के सामने बैठा आग ताप रहा था. एक क्षण में उसने दोहर उताकर बगल में दबा ली, दोनों पांव फैला दिए, मानो ठंड को ललकार रहा हो, तेरे जी में जो आए सो कर. ठंड की असीम शक्ति पर विजय पाकर वह विजय-गर्व को हृदय में छिपा न सकता था.

उसने जबरा से कहा, ‘क्यों जब्बर, अब ठंड नहीं लग रही है?’

जब्बर ने कूं-कूं करके मानो कहा अब क्या ठंड लगती ही रहेगी?

‘पहले से यह उपाय न सूझा, नहीं इतनी ठंड क्यों खाते.’

जब्बर ने पूंछ हिलाई.

‘अच्छा आओ, इस अलाव को कूदकर पार करें. देखें, कौन निकल जाता है. अगर जल गए बच्चा, तो मैं दवा न करूंगा.’

जब्बर ने उस अग्निराशि की ओर कातर नेत्रों से देखा!

मुन्नी से कल न कह देना, नहीं तो लड़ाई करेगी.

यह कहता हुआ वह उछला और उस अलाव के ऊपर से साफ़ निकल गया. पैरों में ज़रा लपट लगी, पर वह कोई बात न थी. जबरा आग के गिर्द घूमकर उसके पास आ खड़ा हुआ.

हल्कू ने कहा, ‘चलो-चलो इसकी सही नहीं! ऊपर से कूदकर आओ.’ वह फिर कूदा और अलाव के इस पार आ गया.

                                      4

पत्तियां जल चुकी थीं. बगीचे में फिर अंधेरा छा गया था. राख के नीचे कुछ-कुछ आग बाक़ी थी, जो हवा का झोंका आ जाने पर ज़रा जाग उठती थी, पर एक क्षण में फिर आंखें बंद कर लेती थी.

हल्कू ने फिर चादर ओढ़ ली और गर्म राख के पास बैठा हुआ एक गीत गुनगुनाने लगा. उसके बदन में गर्मी आ गई थी, पर ज्यों-ज्यों शीत बढ़ती जाती थी, उसे आलस्य दबाए लेता था.

जबरा जोर से भूंककर खेत की ओर भागा. हल्कू को ऐसा मालूम हुआ कि जानवरों का एक झुंड खेत में आया है. शायद नीलगायों का झुंड था. उनके कूदने-दौड़ने की आवाज़ें साफ़ कान में आ रही थीं. फिर ऐसा मालूम हुआ कि खेत में चर रही हैं. उनके चबाने की आवाज़ चर-चर सुनाई देने लगी.

उसने दिल में कहा, ‘नहीं, जबरा के होते कोई जानवर खेत में नहीं आ सकता. नोच ही डाले. मुझे भ्रम हो रहा है. कहां! अब तो कुछ नहीं सुनाई देता. मुझे भी कैसा धोखा हुआ!’

उसने ज़ोर से आवाज़ लगाई, ‘जबरा, जबरा.’

जबरा भूंकता रहा. उसके पास न आया.

फिर खेत के चरे जाने की आहट मिली. अब वह अपने को धोखा न दे सका. उसे अपनी जगह से हिलना ज़हर लग रहा था. कैसा दंदाया हुआ था. इस जाड़े-पाले में खेत में जाना, जानवरों के पीछे दौड़ना असह्य जान पड़ा. वह अपनी जगह से न हिला.

उसने ज़ोर से आवाज़ लगाई, ‘लिहो-लिहो! लिहो!’

जबरा फिर भूंक उठा. जानवर खेत चर रहे थे. फसल तैयार है. कैसी अच्छी खेती थी, पर ये दुष्ट जानवर उसका सर्वनाश किए डालते हैं.

हल्कू पक्का इरादा करके उठा और दो-तीन क़दम चला, पर एकाएक हवा का ऐसा ठंडा, चुभने वाला, बिच्छू के डंक का-सा झोंका लगा कि वह फिर बुझते हुए अलाव के पास आ बैठा और राख को कुरेदकर अपनी ठंडी देह को गर्माने लगा.

जबरा अपना गला फाड़ डालता था, नीलगायें खेत का सफाया किए डालती थीं और हल्कू गर्म राख के पास शांत बैठा हुआ था. अकर्मण्यता ने रस्सियों की भांति उसे चारों तरफ़ से जकड़ रखा था.

उसी राख के पास गर्म ज़मीन पर वह चादर ओढ़ कर सो गया.

सबेरे जब उसकी नींद खुली, तब चारों तरफ़ धूप फैल गई थी और मुन्नी कह रही थी, ‘क्या आज सोते ही रहोगे? तुम यहां आकर रम गए और उधर सारा खेत चौपट हो गया.’

हल्कू ने उठकर कहा, ‘क्या तू खेत से होकर आ रही है?’

मुन्नी बोली, ‘हां, सारे खेत का सत्यानाश हो गया. भला, ऐसा भी कोई सोता है. तुम्हारे यहां मड़ैया डालने से क्या हुआ?’

हल्कू ने बहाना किया, ‘मैं मरते-मरते बचा, तुझे अपने खेत की पड़ी है. पेट में ऐसा दरद हुआ कि मैं ही जानता हूं!’

दोनों फिर खेत के डांड़ पर आए. देखा, सारा खेत रौंदा पड़ा हुआ है और जबरा मड़ैया के नीचे चित लेटा है, मानो प्राण ही न हों.

दोनों खेत की दशा देख रहे थे. मुन्नी के मुख पर उदासी छाई थी, पर हल्कू प्रसन्न था.

मुन्नी ने चिंतित होकर कहा, ‘अब मजूरी करके मालगुजारी भरनी पड़ेगी.’

हल्कू ने प्रसन्न मुख से कहा, ‘रात को ठंड में यहां सोना तो न पड़ेगा.’


कहानी। कफ़न। Kafan | मुंशी प्रेमचंद | Munshi Premchand


                                    1

झोपड़े के द्वार पर बाप और बेटा दोनों एक बुझे हुए अलाव के सामने चुपचाप बैठे हुए हैं और अन्दर बेटे की जवान बीबी बुधिया प्रसव-वेदना में पछाड़ खा रही थी. रह-रहकर उसके मुंह से ऐसी दिल हिला देने वाली आवाज़ निकलती थी, कि दोनों कलेजा थाम लेते थे. जाड़ों की रात थी, प्रकृति सन्नाटे में डूबी हुई, सारा गांव अन्धकार में लय हो गया था.

घीसू ने कहा-मालूम होता है, बचेगी नहीं. सारा दिन दौड़ते हो गया, जा देख तो आ.

माधव चिढ़कर बोला-मरना ही तो है जल्दी मर क्यों नहीं जाती? देखकर क्या करूं?

‘तू बड़ा बेदर्द है बे! साल-भर जिसके साथ सुख-चैन से रहा, उसी के साथ इतनी बेवफाई!’

‘तो मुझसे तो उसका तड़पना और हाथ-पांव पटकना नहीं देखा जाता.’

चमारों का कुनबा था और सारे गांव में बदनाम. घीसू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम करता. माधव इतना काम-चोर था कि आधे घण्टे काम करता तो घण्टे भर चिलम पीता. इसलिए उन्हें कहीं मज़दूरी नहीं मिलती थी. घर में मुठ्ठी-भर भी अनाज मौजूद हो, तो उनके लिए काम करने की कसम थी. जब दो-चार फाके हो जाते तो घीसू पेड़ पर चढ़कर लकड़ियां तोड़ लाता और माधव बाज़ार से बेच लाता और जब तक वह पैसे रहते, दोनों इधर-उधर मारे-मारे फिरते. गांव में काम की कमी न थी. किसानों का गांव था, मेहनती आदमी के लिए पचास काम थे. मगर इन दोनों को उसी वक़्त बुलाते, जब दो आदमियों से एक का काम पाकर भी सन्तोष कर लेने के सिवा और कोई चारा न होता. अगर दोनों साधु होते, तो उन्हें सन्तोष और धैर्य के लिए, संयम और नियम की बिलकुल ज़रूरत न होती. यह तो इनकी प्रकृति थी. विचित्र जीवन था इनका! घर में मिट्टी के दो-चार बर्तन के सिवा कोई सम्पत्ति नहीं. फटे चीथड़ों से अपनी नग्नता को ढांके हुए जिये जाते थे. संसार की चिन्ताओं से मुक्त कर्ज से लदे हुए. गालियां भी खाते, मार भी खाते, मगर कोई ग़म नहीं. दीन इतने कि वसूली की बिलकुल आशा न रहने पर भी लोग इन्हें कुछ-न-कुछ कर्ज दे देते थे. मटर, आलू की फसल में दूसरों के खेतों से मटर या आलू उखाड़ लाते और भून-भानकर खा लेते या दस-पांच ऊख उखाड़ लाते और रात को चूसते. घीसू ने इसी आकाश-वृत्ति से साठ साल की उम्र काट दी और माधव भी सपूत बेटे की तरह बाप ही के पद-चिह्नों पर चल रहा था, बल्कि उसका नाम और भी उजागर कर रहा था. इस वक़्त भी दोनों अलाव के सामने बैठकर आलू भून रहे थे, जो कि किसी खेत से खोद लाये थे. घीसू की स्त्री का तो बहुत दिन हुए, देहान्त हो गया था. माधव का ब्याह पिछले साल हुआ था. जब से यह औरत आयी थी, उसने इस खानदान में व्यवस्था की नींव डाली थी और इन दोनों बे-गैरतों का दोजख भरती रहती थी. जब से वह आयी, यह दोनों और भी आरामतलब हो गये थे. बल्कि कुछ अकड़ने भी लगे थे. कोई कार्य करने को बुलाता, तो निब्र्याज भाव से दुगुनी मजदूरी मांगते. वही औरत आज प्रसव-वेदना से मर रही थी और यह दोनों इसी इन्तजार में थे कि वह मर जाए, तो आराम से सोयें.

घीसू ने आलू निकालकर छीलते हुए कहा-जाकर देख तो, क्या दशा है उसकी? चुड़ैल का फिसाद होगा, और क्या? यहां तो ओझा भी एक रुपया मांगता है!

माधव को भय था, कि वह कोठरी में गया, तो घीसू आलुओं का बड़ा भाग साफ़ कर देगा. बोला-मुझे वहां जाते डर लगता है.

‘डर किस बात का है, मैं तो यहां हूं ही.’

‘तो तुम्हीं जाकर देखो न?’

‘मेरी औरत जब मरी थी, तो मैं तीन दिन तक उसके पास से हिला तक नहीं; और फिर मुझसे लजाएगी कि नहीं? जिसका कभी मुंह नहीं देखा, आज उसका उघड़ा हुआ बदन देखूं! उसे तन की सुध भी तो न होगी? मुझे देख लेगी तो खुलकर हाथ-पांव भी न पटक सकेगी!’

‘मैं सोचता हूं कोई बाल-बच्चा हुआ, तो क्या होगा? सोंठ, गुड़, तेल, कुछ भी तो नहीं है घर में!’

‘सब कुछ आ जाएगा. भगवान् दें तो! जो लोग अभी एक पैसा नहीं दे रहे हैं, वे ही कल बुलाकर रुपये देंगे. मेरे नौ लड़के हुए, घर में कभी कुछ न था; मगर भगवान् ने किसी-न-किसी तरह बेड़ा पार ही लगाया.’

जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछ बहुत अच्छी न थी, और किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे, कहीं ज़्यादा सम्पन्न थे, वहां इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी. हम तो कहेंगे, घीसू किसानों से कहीं ज़्यादा विचारवान् था और किसानों के विचार-शून्य समूह में शामिल होने के बदले बैठकबाज़ों की कुत्सित मण्डली में जा मिला था. हां, उसमें यह शक्ति न थी, कि बैठकबाज़ों के नियम और नीति का पालन करता. इसलिए जहां उसकी मण्डली के और लोग गांव के सरगना और मुखिया बने हुए थे, उस पर सारा गांव उंगली उठाता था. फिर भी उसे यह तसकीन तो थी ही कि अगर वह फटेहाल है तो कम-से-कम उसे किसानों की-सी जी-तोड़ मेहनत तो नहीं करनी पड़ती, और उसकी सरलता और निरीहता से दूसरे लोग बेजा फायदा तो नहीं उठाते! दोनों आलू निकाल-निकालकर जलते-जलते खाने लगे. कल से कुछ नहीं खाया था. इतना सब्र न था कि ठण्डा हो जाने दें. कई बार दोनों की जबानें जल गयीं. छिल जाने पर आलू का बाहरी हिस्सा जबान, हलक और तालू को जला देता था और उस अंगारे को मुंह में रखने से ज्यादा खैरियत इसी में थी कि वह अन्दर पहुंच जाए. वहां उसे ठण्डा करने के लिए काफ़ी सामान थे. इसलिए दोनों जल्द-जल्द निगल जाते. हालांकि इस कोशिश में उनकी आंखों से आंसू निकल आते.

घीसू को उस वक्त ठाकुर की बरात याद आयी, जिसमें बीस साल पहले वह गया था. उस दावत में उसे जो तृप्ति मिली थी, वह उसके जीवन में एक याद रखने लायक बात थी, और आज भी उसकी याद ताजी थी, बोला-वह भोज नहीं भूलता. तब से फिर उस तरह का खाना और भरपेट नहीं मिला. लड़की वालों ने सबको भर पेट पूड़ियां खिलाई थीं, सबको! छोटे-बड़े सबने पूड़ियां खायीं और असली घी की! चटनी, रायता, तीन तरह के सूखे साग, एक रसेदार तरकारी, दही, चटनी, मिठाई, अब क्या बताऊं कि उस भोज में क्या स्वाद मिला, कोई रोक-टोक नहीं थी, जो चीज चाहो, मांगो, जितना चाहो, खाओ. लोगों ने ऐसा खाया, ऐसा खाया, कि किसी से पानी न पिया गया. मगर परोसने वाले हैं कि पत्तल में गर्म-गर्म, गोल-गोल सुवासित कचौड़ियां डाल देते हैं. मना करते हैं कि नहीं चाहिए, पत्तल पर हाथ रोके हुए हैं, मगर वह हैं कि दिये जाते हैं. और जब सबने मुंह धो लिया, तो पान-इलायची भी मिली. मगर मुझे पान लेने की कहां सुध थी? खड़ा हुआ न जाता था. चटपट जाकर अपने कम्बल पर लेट गया. ऐसा दिल-दरियाव था वह ठाकुर!

माधव ने इन पदार्थों का मन-ही-मन मजा लेते हुए कहा-अब हमें कोई ऐसा भोज नहीं खिलाता.

‘अब कोई क्या खिलाएगा? वह जमाना दूसरा था. अब तो सबको किफायत सूझती है. सादी-ब्याह में मत खर्च करो, क्रिया-कर्म में मत खर्च करो. पूछो, गरीबों का माल बटोर-बटोरकर कहां रखोगे? बटोरने में तो कमी नहीं है. हां, खर्च में किफायत सूझती है!’

‘तुमने एक बीस पूरियां खायी होंगी?’

‘बीस से ज्यादा खायी थीं!’

‘मैं पचास खा जाता!’

‘पचास से कम मैंने न खायी होंगी. अच्छा पका था. तू तो मेरा आधा भी नहीं है.’

आलू खाकर दोनों ने पानी पिया और वहीं अलाव के सामने अपनी धोतियां ओढ़कर पांव पेट में डाले सो रहे. जैसे दो बड़े-बड़े अजगर गेंडुलिया मारे पड़े हों.

और बुधिया अभी तक कराह रही थी.

                                         2

सबेरे माधव ने कोठरी में जाकर देखा, तो उसकी स्त्री ठण्डी हो गयी थी. उसके मुंह पर मक्खियां भिनक रही थीं. पथराई हुई आंखें ऊपर टंगी हुई थीं. सारी देह धूल से लथपथ हो रही थी. उसके पेट में बच्चा मर गया था.

माधव भागा हुआ घीसू के पास आया. फिर दोनों जोर-जोर से हाय-हाय करने और छाती पीटने लगे. पड़ोस वालों ने यह रोना-धोना सुना, तो दौड़े हुए आये और पुरानी मर्यादा के अनुसार इन अभागों को समझाने लगे.

मगर ज़्यादा रोने-पीटने का अवसर न था. कफ़न की और लकड़ी की फिक्र करनी थी. घर में तो पैसा इस तरह ग़ायब था, जैसे चील के घोंसले में मांस?

बाप-बेटे रोते हुए गांव के ज़मींदार के पास गये. वह इन दोनों की सूरत से नफ़रत करते थे. कई बार इन्हें अपने हाथों से पीट चुके थे. चोरी करने के लिए, वादे पर काम पर न आने के लिए. पूछा-क्या है बे घिसुआ, रोता क्यों है? अब तो तू कहीं दिखलाई भी नहीं देता! मालूम होता है, इस गांव में रहना नहीं चाहता.

घीसू ने ज़मीन पर सिर रखकर आंखों में आंसू भरे हुए कहा,‘सरकार! बड़ी विपत्ति में हूं. माधव की घरवाली रात को गुजर गयी. रात-भर तड़पती रही सरकार! हम दोनों उसके सिरहाने बैठे रहे. दवा-दारू जो कुछ हो सका, सब कुछ किया, मुदा वह हमें दगा दे गयी. अब कोई एक रोटी देने वाला भी न रहा मालिक! तबाह हो गये. घर उजड़ गया. आपका गुलाम हूं, अब आपके सिवा कौन उसकी मिट्टी पार लगाएगा. हमारे हाथ में तो जो कुछ था, वह सब तो दवा-दारू में उठ गया. सरकार ही की दया होगी, तो उसकी मिट्टी उठेगी. आपके सिवा किसके द्वार पर जाऊं.’

ज़मींदार साहब दयालु थे. मगर घीसू पर दया करना काले कम्बल पर रंग चढ़ाना था. जी में तो आया, कह दें, चल, दूर हो यहां से. यों तो बुलाने से भी नहीं आता, आज जब गरज पड़ी तो आकर ख़ुशामद कर रहा है. हरामखोर कहीं का, बदमाश! लेकिन यह क्रोध या दण्ड देने का अवसर न था. जी में कुढ़ते हुए दो रुपये निकालकर फेंक दिए. मगर सान्त्वना का एक शब्द भी मुंह से न निकला. उसकी तरफ़ ताका तक नहीं. जैसे सिर का बोझ उतारा हो.

जब ज़मींदार साहब ने दो रुपये दिये, तो गांव के बनिये-महाजनों को इनकार का साहस कैसे होता? घीसू जमींदार के नाम का ढिंढोरा भी पीटना जानता था. किसी ने दो आने दिये, किसी ने चारे आने. एक घण्टे में घीसू के पास पांच रुपये की अच्छी रकम जमा हो गयी. कहीं से अनाज मिल गया, कहीं से लकड़ी. और दोपहर को घीसू और माधव बाज़ार से कफ़न लाने चले. इधर लोग बांस-वांस काटने लगे.

गांव की नर्मदिल स्त्रियां आ-आकर लाश देखती थीं और उसकी बेकसी पर दो बूंद आंसू गिराकर चली जाती थीं.

                                           3

बाज़ार में पहुंचकर घीसू बोला,‘लकड़ी तो उसे जलाने-भर को मिल गयी है, क्यों माधव!’

माधव बोला,‘हां, लकड़ी तो बहुत है, अब कफन चाहिए.’

‘तो चलो, कोई हलका-सा कफन ले लें.’

‘हां, और क्या! लाश उठते-उठते रात हो जाएगी. रात को कफन कौन देखता है?’

‘कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते जी तन ढांकने को चीथड़ा भी न मिले, उसे मरने पर नया कफन चाहिए.’

‘कफन लाश के साथ जल ही तो जाता है.’

‘और क्या रखा रहता है? यही पांच रुपये पहले मिलते, तो कुछ दवा-दारू कर लेते.’

दोनों एक-दूसरे के मन की बात ताड़ रहे थे. बाज़ार में इधर-उधर घूमते रहे. कभी इस बजाज की दुकान पर गये, कभी उसकी दुकान पर! तरह-तरह के कपड़े, रेशमी और सूती देखे, मगर कुछ जंचा नहीं. यहां तक कि शाम हो गयी. तब दोनों न जाने किस दैवी प्रेरणा से एक मधुशाला के सामने जा पहुंचे. और जैसे किसी पूर्व निश्चित व्यवस्था से अन्दर चले गये. वहां जरा देर तक दोनों असमंजस में खड़े रहे. फिर घीसू ने गद्दी के सामने जाकर कहा-साहूजी, एक बोतल हमें भी देना.

उसके बाद कुछ चिखौना आया, तली हुई मछली आयी और दोनों बरामदे में बैठकर शान्तिपूर्वक पीने लगे.

कई कुज्जियां ताबड़तोड़ पीने के बाद दोनों सरूर में आ गये.

घीसू बोला,‘कफन लगाने से क्या मिलता? आखिर जल ही तो जाता. कुछ बहू के साथ तो न जाता.’

माधव आसमान की तरफ देखकर बोला, मानों देवताओं को अपनी निष्पापता का साक्षी बना रहा हो,‘दुनिया का दस्तूर है, नहीं लोग बाभनों को हजारों रुपये क्यों दे देते हैं? कौन देखता है, परलोक में मिलता है या नहीं!’

‘बड़े आदमियों के पास धन है, फूंकें. हमारे पास फूंकने को क्या है?’

‘लेकिन लोगों को जवाब क्या दोगे? लोग पूछेंगे नहीं, कफन कहां है?’

घीसू हंसा,‘अबे, कह देंगे कि रुपये कमर से खिसक गये. बहुत ढूंढ़ा, मिले नहीं. लोगों को विश्वास न आएगा, लेकिन फिर वही रुपये देंगे.’

माधव भी हंसा-इस अनपेक्षित सौभाग्य पर. बोला,‘बड़ी अच्छी थी बेचारी! मरी तो खूब खिला-पिलाकर!’

आधी बोतल से ज्यादा उड़ गयी. घीसू ने दो सेर पूड़ियां मंगाई. चटनी, अचार, कलेजियां. शराबखाने के सामने ही दूकान थी. माधव लपककर दो पत्तलों में सारे सामान ले आया. पूरा डेढ़ रुपया ख़र्च हो गया. सिर्फ़ थोड़े से पैसे बच रहे.

दोनों इस वक़्त इस शान में बैठे पूड़ियां खा रहे थे जैसे जंगल में कोई शेर अपना शिकार उड़ा रहा हो. न जवाबदेही का खौफ था, न बदनामी की फ़िक्र. इन सब भावनाओं को उन्होंने बहुत पहले ही जीत लिया था.

घीसू दार्शनिक भाव से बोला,‘हमारी आत्मा प्रसन्न हो रही है तो क्या उसे पुन्न न होगा?’

माधव ने श्रद्धा से सिर झुकाकर तसदीक़ की-जरूर-से-जरूर होगा. भगवान्, तुम अन्तर्यामी हो. उसे बैकुण्ठ ले जाना. हम दोनों हृदय से आशीर्वाद दे रहे हैं. आज जो भोजन मिला वह कभी उम्र-भर न मिला था.

एक क्षण के बाद माधव के मन में एक शंका जागी. बोला,‘क्यों दादा, हम लोग भी एक-न-एक दिन वहां जाएंगे ही?’

घीसू ने इस भोले-भाले सवाल का कुछ उत्तर न दिया. वह परलोक की बातें सोचकर इस आनन्द में बाधा न डालना चाहता था.

‘जो वहां हम लोगों से पूछे कि तुमने हमें कफन क्यों नहीं दिया तो क्या कहोगे?’

‘कहेंगे तुम्हारा सिर!’

‘पूछेगी तो जरूर!’

‘तू कैसे जानता है कि उसे कफन न मिलेगा? तू मुझे ऐसा गधा समझता है? साठ साल क्या दुनिया में घास खोदता रहा हूं? उसको कफ़न मिलेगा और बहुत अच्छा मिलेगा!’

माधव को विश्वास न आया. बोला,‘कौन देगा? रुपये तो तुमने चट कर दिये. वह तो मुझसे पूछेगी. उसकी मांग में तो सेंदुर मैंने डाला था. कौन देगा, बताते क्यों नहीं?’

‘वही लोग देंगे, जिन्होंने अबकी दिया. हां, अबकी रुपये हमारे हाथ न आएंगे.’

‘ज्यों-ज्यों अंधेरा बढ़ता था और सितारों की चमक तेज़ होती थी, मधुशाला की रौनक भी बढ़ती जाती थी. कोई गाता था, कोई डींग मारता था, कोई अपने संगी के गले लिपटा जाता था. कोई अपने दोस्त के मुंह में कुल्हड़ लगाये देता था.

वहां के वातावरण में सरूर था, हवा में नशा. कितने तो यहां आकर एक चुल्लू में मस्त हो जाते थे. शराब से ज़्यादा यहां की हवा उन पर नशा करती थी. जीवन की बाधाएं यहां खींच लाती थीं और कुछ देर के लिए यह भूल जाते थे कि वे जीते हैं या मरते हैं. या न जीते हैं, न मरते हैं.

और यह दोनों बाप-बेटे अब भी मजे ले-लेकर चुसकियां ले रहे थे. सबकी निगाहें इनकी ओर जमी हुई थीं. दोनों कितने भाग्य के बली हैं! पूरी बोतल बीच में है.

भरपेट खाकर माधव ने बची हुई पूड़ियों का पत्तल उठाकर एक भिखारी को दे दिया, जो खड़ा इनकी ओर भूखी आंखों से देख रहा था. और देने के गौरव, आनन्द और उल्लास का अपने जीवन में पहली बार अनुभव किया.

घीसू ने कहा,‘ले जा, खूब खा और आशीर्वाद दे! जिसकी कमाई है, वह तो मर गयी. मगर तेरा आशीर्वाद उसे जरूर पहुंचेगा. रोयें-रोयें से आशीर्वाद दो, बड़ी गाढ़ी कमाई के पैसे हैं!’

माधव ने फिर आसमान की तरफ़ देखकर कहा,‘वह बैकुण्ठ में जाएगी दादा, बैकुण्ठ की रानी बनेगी.’

घीसू खड़ा हो गया और जैसे उल्लास की लहरों में तैरता हुआ बोला,‘हां, बेटा बैकुण्ठ में जाएगी. किसी को सताया नहीं, किसी को दबाया नहीं. मरते-मरते हमारी जिन्दगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गयी. वह न बैकुण्ठ जाएगी तो क्या ये मोटे-मोटे लोग जाएंगे, जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं, और अपने पाप को धोने के लिए गंगा में नहाते हैं और मन्दिरों में जल चढ़ाते हैं?’

श्रद्धालुता का यह रंग तुरन्त ही बदल गया. अस्थिरता नशे की खासियत है. दु:ख और निराशा का दौरा हुआ.

माधव बोला,‘मगर दादा, बेचारी ने जिन्दगी में बड़ा दु:ख भोगा. कितना दु:ख झेलकर मरी!’

वह आंखों पर हाथ रखकर रोने लगा. चीखें मार-मारकर.

घीसू ने समझाया,‘क्यों रोता है बेटा, खुश हो कि वह माया-जाल से मुक्त हो गयी, जंजाल से छूट गयी. बड़ी भाग्यवान थी, जो इतनी जल्द माया-मोह के बन्धन तोड़ दिये.’

और दोनों खड़े होकर गाने लगे-

‘ठगिनी क्यों नैना झमकावे! ठगिनी.’

पियक्कड़ों की आंखें इनकी ओर लगी हुई थीं और यह दोनों अपने दिल में मस्त गाये जाते थे. फिर दोनों नाचने लगे. उछले भी, कूदे भी. गिरे भी, मटके भी. भाव भी बताये, अभिनय भी किये. और आख़िर नशे में मदमस्त होकर वहीं गिर पड़े.

Sunday, February 27, 2022

निबंध। धोखा। Dhokha | प्रतापनारायण मिश्र | Pratapnarayan Mishra


इन दो अक्षरों में भी न जाने कितनी शक्ति है कि इनकी लपेट से बचना यदि निरा असंभव न हो तो भी महाकठिन तो अवश्य है । जबकि भगवान रामचंद्र ने मारीच राक्षस को सुवर्ण-मृग समझ लिया था, तो हमारी आपकी क्या सामर्थ्य है , जो धोखा न खायें? वरंच ऐसी कथाओं से विदित होता है कि स्वयं ईश्वर भी केवल निराकार निर्विकार ही रहने की दशा में इससे पृथक रहता है , सो भी एक रीति से नहीं रहता,क्योंकि उसके मुख्य कार्यों में से एक काम सृष्टि का उत्पादन करना है । उसके लिए उसे अपनी माया का आश्रय लेना पड़ता है ; और माया ,भ्रम ,छल इत्यादि धोखे ही के पर्याय हैं । इस रीति से यदि यह कहें कि ईश्वर भी धोखे से अलग नहीं , तो अयुक्त न होगा, क्योंकि ऐसी दशा में यदि वह धोखा खाता नहीं ,तो धोखे से काम अवश्य लेता है; जिसे दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि माया का प्रपंच फैलाता है व धोखे की टट्टी खड़ी करता है । 

     अतः सबसे पृथक रहने वाला ईश्वर भी ऐसा नहीं है , जिसके विषय में यह कहने का स्थान हो कि वह धोखे से अलग है; वरंच धोखे से पूर्ण उसे कह सकते हैं; क्योंकि वेदों में उसे ‘आश्चर्योस्य वक्ता’ ‘चित्रंदेवानामुदगादनीक’ इत्यादि कहा है और आश्चर्य तथा चित्रत्व को मोटी भाषा में धोखा ही कहते हैं अथवा अवतार-धारण की दशा में उसका नाम मायावपुधारी होता है , जिसका अर्थ है -धोखे का पुतला। और सच भी यही है। जो सर्वथा निराकार होने पर भी मत्स्य,कच्छपादि रूपों में प्रकट होता है और शुद्ध निर्विकार कहलाने पर भी नाना प्रकार की लीला किया करता है ,वह धोखे का पुतला नहीं है तो क्या है? हम आदर के मारे उसे भ्रम से रहित कहते हैं , पर जिसके विषय में कोई निश्चयपूर्वक ‘इदमित्थं’ कही नहीं सकता ,जिसका सारा भेद स्पष्ट रूप से कोई जान ही नहीं सकता ,वह निर्भ्रंम या भ्रमरहित क्योंकर कहा जा सकता है ? शुद्ध निर्भ्रंम वह कहलाता है , जिसके विषय में भ्रम का आरोप भी न हो सके; पर उसके तो अस्तित्व तक में नास्तिकों को संदेह और आस्तिकों को निश्चित ज्ञान का अभाव रहता है , फिर वह निर्भ्रंम कैसा ?और जब वही भ्रम से पूर्ण है ,तब उसके बनाए संसार में भ्रम अर्थात धोखे का अभाव कहाँ ?

   वेदांती लोग जगत को मिथ्या भ्रम समझते हैं । यहाँ तक कि एक महात्मा ने किसी जिज्ञासु को भलीभाँति समझा दिया था कि विश्व में जो कुछ है और जो कुछ होता है , सब भ्रम है ; किंतु यह समझने के कुछ ही दिन उपरांत उनके किसी प्रिय व्यक्ति का प्रणांत हो गया , जिसके शोक में वह फूट-फूटकर रोने लगे । इस पर शिष्य ने आश्चर्य में आकर पूछा कि आप तो सब बातों को भ्रमात्मक मानते हैं , फिर जान -बूझकर रोते क्यों हैं ? इसके उत्तर में उन्होंने कहा कि रोना भी भ्रम ही है । सच है।

भ्रमोत्पादक भ्रम स्वरूप भगवान के बनाए हुए भव (संसार) में जो कुछ है,भ्रम ही है। जब तक भ्रम है,तभी तक संसार है,वरंच संसार का स्वामी भी तभी तक है , फिर कुछ भी नहीं और कौन जाने , हो तो हमें उससे कोई काम नहीं । परमेश्वर सबका भरम बनाए रखे , इसी में सब कुछ है। जहाँ भ्रम खुल गया ,वहाँ लाख की भलमंसी खाक में मिल जाती है । जो लोग पूरे ब्रह्मज्ञानी बनकर संसार को सचमुच माया की कल्पना मान बैठते हैं ,वे अपनी भ्रमात्मक बुद्धि से चाहे अपने तुच्छ जीवन को साक्षात सर्वेश्वर मान के सर्वथा सुखी हो जाने का धोखा खाया करें , पर संसार के किसी काम के नहीं रह जाते हैं , वरंच निरे अकर्ता,अभोक्ता बनने की उमंग में अकर्मण्य और ‘नारि-नारि सब एक हैं जस मेहरि तस माय’ इत्यादि सिद्धांतों के माने अपना तथा दूसरों का जो अनिष्ट न कर बैठें ,वही थोड़ा है ; क्योंकि लोक और परलोक का मजा भी धोखे ही में पड़े रहने से प्राप्त होता है । बहुत ज्ञान छाँटना सत्यानाश की जड़ है । ज्ञान की दृष्टि से देखें ,तो आपका शरीर मल-मूत्र ,मांस-मज्जा ,घृणास्पद पदार्थों का विकार मात्र है,पर हम उसे प्रीति का पात्र समझते हैं और दर्शन ,स्पर्शनादि से आनंद लाभ करते हैं । 

    हमको वास्तव में इतनी जानकारी भी नहीं है कि हमारे सिर में कितने बाल हैं व एक मिट्टी के गोले का सिरा कहाँ पर है किंतु आप हमें बड़ा भारी विज्ञ और सुलेखक समझते हैं तथा हमारी लेखनी या जिह्वा की कारीगरी देख-देखकर सुख प्राप्त करते हैं।विचार कर देखिए तो धन-जन इत्यादि पर किसी का कोई स्वत्व नहीं है ; इस क्षण हमारे काम आ रहे हैं,क्षण ही भर के उपरांत न जाने किसके हाथ में व किस दशा में पड़ के हमारे पक्ष में कैसे हो जाएँ,और मान भी लें कि इनका वियोग कभी न होगा ,तो भी हमें क्या? आखिर एक दिन मरना है और ‘मुँदि गईं आँखें तब लाखें केहि काम की ।’ पर यदि हम ऐसा कर सबसे संबंध तोड़ दें,तो सारी पूँजी गँवा कर निरे मूर्ख कहलावें; स्त्री-पुत्रादि का प्रबंध न करके उनका जीवन नष्ट करने का पाप मुड़ियावें । ‘ना हम काहू के कोऊ ना हमारा’ का उदाहरण बनके सब प्रकार सुख-सुविधा,सुयश से वंचित रह जावें। इतना ही नहीं,वरंच और भी सोचकर देखिए,तो किसी को कुछ भी खबर नहीं है कि मरने के पीछे जीव की क्या दशा होगी। 

    बहुतेरों का सिद्धांत यह भी है कि दशा किसकी होगी,जीव तो कोई पदार्थ ही नहीं है। घड़ी के जब तक सब पुरजे दुरूस्त हैं और ठीक-ठीक लगे हुए हैं, तभी तक उसमें खट-खट ,टन-टन,की आवाज आ रही है ,जहाँ उसके पुरजों का लगाव बिगड़ा ,वहीं न उसकी गति है,न शब्द है। ऐसे ही शरीर का क्रम जब तक ठीक-ठीक बना हुआ है ,मुख से शब्द और मन से भाव तथा इंद्रियों से कर्म का प्राकटय होता रहता है। 

जहाँ इसके क्रम में व्यतिक्रम हुआ,वहीं सब खेल बिगड़ गया ,बस फिर कुछ नहीं, कैसा जीव?कैसी आत्मा?

एक रीति से यह कहना झूठ भी नहीं जान पड़ता,क्योंकि जिसके अस्तित्व का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है, उसके विषय में अंततोगत्वा यों ही कहा जा सकता है। इसी प्रकार स्वर्ग-नर्कादि के सुख-दुखादि का होना भी नास्तिकों ही के मत से नहीं, किंतु बड़े-बड़े आस्तिकों के सिद्धांत से भी ‘अविदित सुख दुख निर्विशेष स्वरूप’ के अतिरिक्त कुछ समझ में नहीं आता।

    स्कूल में हमने भी सारा भूगोल और खगोल पढ़ डाला है, पर नर्क और बैकुंठ का पता कहीं नहीं पाया। किंतु भय और लालच को छोड़ दें, तो बुरे कामों से घृणा और सत्कर्मों से रूचि न रखकर भी तो अपना अथवा पराया अनिष्ट ही करेंगे । ऐसी-ऐसी बातें सोचने से गोस्वामी तुलसीदास का ‘गो गोचर जहँ लगि मन जाई, सो सब माया जानेहु भाई’ और श्री सूरदासजी का ‘माया मोहनी मनहन’ कहना प्रत्यक्षतया सच्चा जान पड़ता है। फिर हम नहीं जानते कि धोखे को लोग क्यों बुरा समझते हैं ? धोखा खानेवाला मूर्ख और धोखा देने वाला ठग क्यों कहलाता है? जब सब कुछ धोखा-ही-धोखा है और धोखे से अलग रहना ईश्वर की भी सामर्थ्य से दूर है तथा धोखे ही के कारण संसार का चर्खा पिन्न-पिन्न चला जाता है, नहीं तो ढिच्चर-ढिच्चर होने लगे, वरंच रहा न जाए , तो फिर इस शब्द का स्मरण व श्रवण करते ही आपकी नाक-भौंह क्यों सिकुड़ जाती हैं?

इसके उत्तर में हम तो यही कहेंगे कि साधारणतः जो धोखा खाता है,वह अपना कुछ-न-कुछ गँवा बैठता है; और जो धोखा देता है उसकी एक-न-एक दिन कलई खुले बिना नहीं रहती है और हानि सहना व प्रतिष्ठा खोना दोनों बातें बुरी हैं, जो बहुधा इसके संबंध में ही हो जाया करती है। 

   इसी साधारण श्रेणी के लोग धोखे को अच्छा नहीं समझते , यद्यपि इससे बच नहीं सकते, क्योंकि जैसे काजल की कोठरी में रहने वाला बेदाग नहीं रह सकता, वैसे ही भ्रमात्मक भवसागर में रहने वाले अल्प सामर्थ्यी जीव का भ्रम से सर्वथा बचा रहना असंभव है और जो जिससे बच नहीं सकता, उसकी निंदा करना नीति विरूद्ध है। पर क्या कीजिएगा, कच्ची खोपड़ी के मनुष्य को प्राचीन प्राज्ञगण अल्पज्ञ कह गए हैं जिनका लक्षण ही है कि आगा-पीछा सोचे बिना जो मुँह पर आवे, कह डालना और जो जी में समावे कर उठना,नहीं तो कोई काम व वस्तु वास्तव में भली अथवा बुरी नहीं होती, केवल उसके व्यवहार का नियम बनने-बिगड़ने से बनाव-बिगाड़ हो जाया करता है । 

    परोपकार को कोई बुरा नहीं कह सकता , पर किसी को सब कुछ उठा दीजिए, तो क्या भीख माँग के प्रतिष्ठा,अथवा चोरी करके धर्म खोइएगा व भूखों मरके आत्महत्या के पापभागी होइएगा! यों ही किसी को सताना अच्छा नहीं कहा जाता है, पर यदि कोई संसार का अनिष्ट करता हो, उसे राज से दंड दिलवाइए व आप ही उसका दमन कर दीजिए तो अनेक लोगों के हित का पुण्य-लाभ होगा। 

   घी बड़ा पुष्टिकारक होता है, पर दो सेर पी लीजिए तो उठने-बैठने की शक्ति न रहेगी, और संखिया , सींगिया आदि प्रत्यक्ष विष हैं, किंतु उचित से शोधकर सेवन कीजिए तो बहुत से रोग-दोष दूर हो जाएँगे । यही लेखा धोखे का भी है। दो-एक बार धोखा खाके धोखेबाजों की हिकमतें सीख लो, और कुछ अपनी ओर से झपकी-फूँदनी जोड़कर ‘उसी की जूती उसी का सर’ कर दिखाओ, तो बड़े भारी अनुभवशील, वरंच, ‘गुरू गुड़ ही रहा चेला शक्कर हो गया’ का जीवित उदाहरण कहलाओगे। यदि इतना न हो,सके तो उसे पास न फटकने दो तो भी भविष्य के लिए हानि और कष्ट से बच जाओगे। 

    यों ही किसी को धोखा देना हो, तो रीति से दो कि तुम्हारी चालबाजी कोई भाँप न सके और तुम्हारा बलि-पशु यदि किसी कारण से तुम्हारे हथकंडे ताड़ भी जाए तो किसी से प्रकाशित करने के काम का न रहे। फिर बस, अपनी चतुरता के मधुर फल को मूर्खों के आँसू या गुरूघंटालों के धन्यवाद की वर्षा के जल से धो, स्वादुपूर्वक खाओ। इन दोनों रीतियों से धोखा बुरा नहीं है। अगले लोग कह गए हैं कि आदमी कुछ खोके सीखता है , अर्थात खोए बिना अकल नहीं आती और बेईमानी तथा नीतिकशलता में इतना ही भेद है कि जाहिर हो जाए, तो बेईमानी कहलाती है और छिपी रहे, तो बुद्धिमानी है।

 हमें आशा है कि इतना लिखने से आप धोखे का तत्व यदि निरे खेत के धोखे न हों, मनुष्य हों तो समझ गए होंगे पर अपनी ओर से इतना और समझा देना भी हम उचित समझते हैं कि धोखा खा के धोखेबाज को पहिचानना साधारण समझ वालों का काम है। इस से जो लोग अपनी भाषा ,भोजन ,भेष भाव और भ्रातृत्व को छोड़ कर आप से भी छुड़वाना चाहते हों । उनको समझे रहिए कि स्वयं धोखा खाए हुए हैं और दूसरों को धोखा देना चाहते हैं। इससे ऐसों से बचना परम कर्तव्य है, और जो पुरूष एवं पदार्थ अपने न हों व देखने में चाहे जैसे सुशील और सुंदर हों, पर विश्वास के पात्र नहीं हैं, उनसे धोखा हो जाना असंभव नहीं है। बस इतना स्मरण रखिएगा तो धोखे से उत्पन्न होने वाली विपत्तियों से बचे रहिएगा। नहीं तो हमें क्या अपनी कुमति का फल अपने ही आंसुओं से धो और खा ,क्योंकि जो हिंदू हो कर ब्रह्मवाक्य नहीं मानता वह धोखा खाता है । 


निबंध। धर्म और समाज। Dharm aur Samaj | चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ | Chandradhar Sharma Guleri


समाज के लिए धर्म की आवश्यकता है या नहीं ? इस प्रश्न पर कुछ अपने विचार प्रकट करना ही आज इस लेख का उद्देश्य है । प्राचीन और नवीन अथवा पूर्व और पश्चिम इन दोनों के संघर्ष से यह प्रश्न उत्पन्न हुआ है । पूर्वी सभ्यता सदा से धर्म की पक्षपातिनी रही है और उसने धर्म को समाज में सबसे ऊँचा स्थान दिया है । पश्चिमी सभ्यता इस समय चाहे उसकी विरोधिनी न हो , पर उससे उदासीन अवश्य है और कम-से-कम समाज की उन्नति के लिये वह उसे आवश्यक नहीं समझती । उसकी सम्मति में बिना धर्म का आश्रय लिये भी नैतिक बल के सहारे मनुष्य अपनी वैयक्तिक और सामाजिक उन्नति कर सकते हैं । 

यद्यपि पहले पश्चिम भी धर्म का ऐसा ही अनन्य भक्त था जैसा कि इस समय भारतवर्ष । पर मध्यकाल में कई शताब्दी तक वहाँ धर्म के कारण बड़ी अशांति मची रही । धर्ममद से उन्मत्त होकर समाज ने बड़े-बड़े विद्वानों और संशोधकों के साथ वह सलूक किया जो लुटेरे मालदारों के साथ करते हैं । 50 वर्ष तक लगातार जारी रहने वाला यूरोप का धर्मयुद्ध प्रसिद्ध ही है । 

इस्लाम ने जो सलूक ईसाइयों के साथ किया उसको जाने दीजिए ,क्योंकि वह एक भिन्न धर्म था । ईसाई धर्म की ही दो शाखाओं ने , जिसका नाम कैथलिक और प्रोटेस्टेन्ट है, एक दूसरे के साथ जैसे-जैसे अत्याचार और अमानुषिक बर्ताव किये हैं ,उन पर अब तक यूरोप का इतिहास रूधिर के आँसू बहा रहा है । इसलिये अब इस सभ्यता और उन्नति के युग में पश्चिम निवासियों को यदि धर्म पर वह श्रद्धा नहीं है जो उनके पूर्वजों की थी तो वह सकारण है । यद्यपि पूर्वापेक्षा अब उनके धर्म का भी बहुत कुछ संस्कार हो गया है । और शिक्षा की उन्नति के साथ-साथ ,जिसमें यूरोप और अमेरिका ने सबसे अधिक भाग लिया है ,उनके धर्म में भी सहिष्णुता , स्वतन्त्रता और उदारता की मात्रा बढ़ गई है ,तथापि धर्मवाद के परिणामस्वरूप जो कड़वे फल उनको चखने पड़े हैं ,उन्होंने उनको धर्म की सीमा नियत कर देने के लिये बाधित किया , तदनुसार उन्होंने धर्म की अबाध सत्ता से अपने समाज को मुक्त कर दिया । अब वहाँ यही नहीं कि समाज की शासन सत्ता में धर्म कुछ विक्षेप नहीं डाल सकता ,किन्तु व्यक्ति स्वातन्त्र्य और सामाजिक प्रबंध में भी कुछ हस्तक्षेप नहीं कर सकता और बहुत -सी बातों के समान धर्म भी एक व्यक्तिगत बात मानी जाती है , जिसका जी चाहे , किसी धर्म को माने , न चाहे न माने ं मानने से कोई विशेष स्वत्व पैदा नहीं होते , न मानने से कोई हानि नहीं होती । 

यह तो रही पश्चिम की धार्मिक अवस्था ,अब रहा पूर्व । यद्यपि पूर्व में सर्वत्र ही धर्म का प्राधान्य है तथापि भारतवर्ष में तो उसका एकाधिपत्य राज्य है ।

 यद्यपि वहाँ की शासन सत्ता पश्चिमी लोगों के हाथ में होने से अब उसमें वह हस्तक्षेप नहीं कर सकता ,तथापि भारतीय समाजों में और उनकी विविध शाखाओं में उसका अप्रतिबन्ध अधिकार है। हम जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त चाहे किसी दशा में रहें , कुछ करें ,धार्मिक बन्धन से मुक्त नहीं हो सकते । 

हमको केवल अपने पूजा-पाठ या संस्कारों में ही धर्म की आवश्यकता नहीं, किन्तु हमारा काम चाहे वह सामाजिक हो या व्यक्तिगत , धर्म के बंधन से जकड़ा हुआ है । यहाँ तक कि हमारा खाना-पीना ,जाना-आना , सोना -जागना और देना-लेना इत्यादि सभी बातों में धर्म छाप लगी हुई है । हम हिन्दू होकर सब कुछ छोड़ सकते हैं पर धर्म को किसी अवस्था में नहीं छोड़ सकते । हमारे पूर्वज धर्म को ही अपना जीवनसर्वस्व मानते थे और यही उपदेश शास्त्रों में वे हमको भी कर गये हैं । मनु लिखता है - 

   धर्मएव हतो हन्ति धर्मारक्षति रक्षितः । 

    तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मानोधर्मो हतोऽवधीत् ।। 

प्राचीन आर्य लोग धर्म को केवल परलोक का ही साधन नहीं मानते थे ,किन्तु इस लोक का बड़े-से-बड़ा सुख भी धर्म के बिना उनकी दृष्टि में हेय था । त्रिवर्ग में जिसका सम्बन्ध संसार से है , धर्म ही सबसे पहला और मुख्य माना गया है । 

कणाद तो अपने वैशेषिक दर्शन में अभ्युदय की नींव भी धर्म पर रखता है । यथा - 

 यतोऽभ्युदय निःश्रेयससिद्धिः सधर्मः । 

अतएव हम अपने शास्त्रों को मानते हुए और पूर्वजों पर श्रद्धा रखते हुए किसी दशा में धर्म की उपेक्षा नहीं कर सकते । 

पश्चिम की शिक्षा का प्रभाव जिन लोगों पर पड़ा है , वे चाहे हमारे स्वदेशी बान्धव ही क्यों न हों , हमको भी यह सलाह देते हैं कि हम भी यदि इस जातीय उन्नति की दौड़ में भाग लेना चाहते हैं तो धर्म की कोई ऐसी सीमा नियत कर दें , जिससे आगे यह अपने पैर न फैला सके । उनका यह कथन है कि जब तक हमारे हर एक काम में धर्म का पचड़ा लगा हुआ है ,हम समय की गति के साथ नहीं चल सकते और न अपना कोई जातीय आदर्श बना सकते हैं । जो लोग हमको यह सलाह देते हैं ,हम उनके सदभाव में कोई सन्देह नहीं कर सकते और यह भी हम मानते हैं कि देशहित की प्रेरणा से ही वे यह सलाह हमको देते हैं । पर हाँ , यह हम अवश्य कहेंगे कि वर्तमान धार्मिक अवस्था के विकृत स्वरूप को देखकर और हमारे धर्म के वास्तविक तत्व पर गम्भीर दृष्टि डालकर ही यह सम्मति दी जाती है । यदि धर्म को उनके वास्तविक रूप में देखा जाए तो वह कदापि उपेक्षणीय नहीं हो सकता । 

यद्यपि विदेशियों के संसर्ग से या हमारे दौर्भाग्य से यहाँ भी धर्म का विधेय वह नहीं रहा , जो प्राचीन काल में था । हमें यह कहने में कुछ भी संकोच नहीं है कि सभ्यता के आदि गुरू आर्यों का धर्म मतवाद से सर्वथा पृथक है । 

इस मतवाद को धर्म समझने का यूरोप में यह परिणाम हुआ कि वह राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्र से ही अलग नहीं किया गया , किन्तु मानसिक और नैतिक उच्चभावों की रीति के लिये भी अनावश्यक समझा गया । उसका सम्बन्ध केवल उपासनालयों से रह गया और वह भी रविवार के दिन घंटे-दो घंटे के लिये  बहुत से स्वतन्त्रता देवी के उपासक तो इससे भी मुक्त हो गये । हम उनकी बुद्धिमत्ता की प्रशंसा करते हैं , यदि वे ऐसा न करते और हमारी तरह से अपनी विचारशक्ति को कल्पना शक्ति के अधीन कर देते तो आज उनके देश में विद्या और बुद्धि का विकास ,कला -कौशल की यह उन्नति और उद्योग तथा व्यवसाय का यह प्रभाव देखने में न आता । यदि हमारे धर्म की भी ऐसी ही अवस्था हो और वह वास्तव में मतवाद का प्रवर्तक हो , तब तो हमको भी कृतज्ञता के साथ उनकी यह सलाह मान लेनी चाहिए और यदि ऐसा नहीं है तो हमें धर्म का वास्तविक तत्व उन्हें समझाना चाहिए । 

हम यहाँ पर कह देना चाहते हैं कि मत या सम्प्रदाय के अर्थ में धर्म शब्द का प्रयोग करना भी हमने अधिकतर विदेशियों ही से सीखा है , जब विदेशी भाषाओं के ‘मज़हब’ ,‘रिलीजन’ शब्द यहाँ प्रचलित हुए, तब भूल से या स्पर्धा से हम उनके स्थान में ‘धर्म ’ शब्द का प्रयोग करने लगे । परन्तु हमारे प्राचीन ग्रन्थों में ,जो विदेशियों के आने के पूर्व रचे गये थे , कहीं पर भी ‘धर्म’ शब्द मत ,विश्वास या सम्प्रदाय के अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ ,प्रत्युत उनमें सर्वत्र स्वभाव और कर्तव्य इन दो ही अर्थों में इसका प्रयोग पाया जाता है। प्रत्येक पदार्थ में उसकी जो सत्ता है, जिसको ‘स्वभाव ’ भी कहते हैं , वही उसका धर्म है । जैसे वृक्ष का धर्म ‘जड़ता’ और पशु का धर्म ‘पशुता’ कहलाती है ,ऐसे ही मनुष्य का ‘धर्म’ मनुष्यता है । वह मनुष्यता किस वस्तु पर अवलम्बित है । इसमें किसी का मतभेद नहीं हो सकता कि मनुष्यता का आधार बुद्धि है । बुद्धि की दो शाखाएं हैं , एक कल्पना शक्ति , दूसरी विचारशक्ति । कल्पना शक्ति सन्देहात्मक और विचारशक्ति निर्णयात्मक । बिना सन्देह के किसी बात का निर्णय नहीं हो सकता । अतएव अपनी कल्पना शक्ति से सन्देह उठाकर पुनः विचारशक्ति से उसका निर्णय करने में जो समर्थ है , वही मनुष्य है । संसार में सिवाय असभ्य और वन्य लोगों के और कौन ऐसा मनुष्य होगा , जिसको ऐसे धर्म की आवष्यकता न होगी ,जो उसको मनुष्य बनाता है । 

यह तो हुआ सामान्य धर्म , अब रहा विशेष धर्म , इसी का दूसरा नाम कर्तव्य भी है । मनुष्य चाहे किसी दशा में हो , उसका कुछ-न-कुछ कर्त्तव्य होता है । यदि राजा राजधर्म का ,प्रजा प्रजाधर्म का ,स्वामी प्रभुधर्म का , सेवक सेवाधर्म का , पिता पितृधर्म का , पुत्र पुत्रधर्म का ,पति पतिधर्म का ,स्त्री स्त्रीधर्म का ,गृहस्थ गृहस्थधर्म का और यति यतिधर्म का साधन न करें तो फिर संसार में कोई मर्यादा रहे ,न व्यवस्था।  

संसार में शान्ति और व्यवस्था तभी रह सकती है ,जब प्रत्येक मनुष्य कर्त्तव्य के अनुरोध से अपने-अपने धर्म का पालन करें । 

 अतएव इसमें कुछ भी अत्युक्ति नहीं कि धर्म ही संसार की प्रतिष्ठा का कारण है । धर्म के इसी महत्व को लक्ष्य में रखकर ‘तैत्तिरीयारण्यक’ में कहा गया है - 

 धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा ,लोके धर्मिष्ठं प्रजा उपसर्पन्ति 

  धर्मेण पापमपनुदन्ति धर्मे सर्व प्रतिष्ठितम् ।।

अब हम कुछ प्रमाण भी जिनमें ‘धर्म’ शब्द प्रस्तुत अर्थ में प्रयुक्त हुआ है ,उद्धृत करते हैं । ‘महाभारत’ में धर्म का निर्वचन इस प्रकार किया गया है - 

धारणाद्धर्ममित्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः । 

यत्स्याद्धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः ।।



धात्वर्थ में भी इसी की पुष्टि होती है , क्योंकि ‘धृ’ धातु धारण के अर्थ में है । 

       

 यो ध्रियते दधाति वा सद्धर्मः । 



जो धारण किया हुआ प्रत्येक पदार्थ को धारण करता है , वह धर्म है । अग्नि में यदि उसका धर्म तेज न रहे फिर कोई उसे ‘अग्नि’ नहीं कहता , ऐसे ही मनुष्य यदि अपने धर्म को त्याग दे तो फिर केवल आकृति और बनावट उसकी मनुष्यता की रक्षा नहीं कर सकती । उपनिशदों में ,जहाँ धर्मंचर , ‘धर्मानप्रमदितव्यम्’ इत्यादि वाक्य आते हैं , वहाँ भी इससे कर्तव्य या सदाचार का ही ग्रहण होता है । मनु ने धर्म के धृत्यादि जो दस लक्षण बतलाये है । और जिनको धारण करके एक नास्तिक भी धर्मात्मा बन सकता है , उनमें मतवाद का गन्ध तक नहीं है । गीता में भी - 

श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठिनात् ।



इत्यादि वाक्यों में ‘धर्म’ शब्द कर्तव्य का ही सूचक है , क्योंकि मनुष्य के लिये प्रत्येक दशा में अपने कर्तव्य का पालन करना ही सर्वोपरि धर्म है , अपने कर्तव्य से उदासीन होकर दूसरों का अनुकरण करना , चाहे वे अपने से श्रेष्ठ भी हों, अनधिकार चर्चा है । जब मनुष्य के आचार या कर्तव्य का नाम धर्म है ,तब यदि हमारे पूजनीय पूर्वजों ने उसकी मनुष्य की प्रत्येक दशा से (चाहे वह आत्मिक हो या सामाजिक या वैयक्तिक) सम्बन्ध किया तो इससे उनका यह अभिप्राय कदापि नहीं हो सकता था कि उन्होंने हमको मतवाद के जाल में फँसाने के लिये धर्म की टट्टी खड़ी की । उन्होंने तो हमारे मनुष्यत्व की रक्षा के लिये ही प्रत्येक कार्य में इसका आयोजन किया था । 

  अब प्रश्न यह होता है कि जब धर्म मत से पृथक् है तो फिर मतवाद में या भ्रमात्मक विश्वासों में उसका पर्यवसान क्योंकर हुआ ? इसका कारण चाहें कुछ हो , पर इसमें सन्देह नहीं कि हमारे दौर्भाग्य से इस समय हमारी धार्मिक अवस्था वह नहीं है , जो उपनिषदों और दर्शनों के समय थी । उस समय सैद्धान्तिक भेद भी हमारे धर्म को कुछ हानि नहीं पहुँचा सकता था, पर आजकल आंशिक भेद को भी हमारा कोमल धर्म सहन नहीं कर सकता । उस समय हिन्दू धर्म इतना उदार था कि वह बौद्ध और जैन जैसे निरीश्वरवादी मतों को भी अपने क्रोड़ में स्थान दे सकता था , पर आजकल का हिन्दू धर्म साकारवादी और निराकारवादियों को मिलकर नहीं रहने देता । पहले का हिन्दू धर्म सदाचारी को धर्मात्मा और ज्ञानी को मोक्ष का अधिकारी (चाहे वह कोई हो ) मानता था, पर आजकल का हिन्दू धर्म अपने लक्ष्य से ही च्युत होकर या तो मतमतान्तर के शुष्कवाद विवाद में या पुरानी लकीर को पीटने में अपनी शक्ति का दुरूपयोग कर रहा है । संसार के और समस्त विषयों में हम विचारशक्ति का उपयोग कर सकते हैं , पर केवल धर्म ही एक ऐसा सुरक्षित विषय है कि जिसमें आँखें बन्द करके दूसरों के पीछे चलना चाहिए । यदि इसकी कोई सीमा नियत होती ,तब भी गनीमत थी , पर अब इस दशा में जबकि इसकी अबाध सत्ता है , कोई भी विषय हमारे लिये ऐसा नहीं रह जाता , जिसमें हम स्वच्छंद विचरण कर सकें । धर्म के नाम से अब तक हमारे समाज में जैसे-जैसे अनर्थ और अत्याचार हो रहे हैं ,उनके कारण हमारे करोड़ों भाई ओर बहन मनुश्य होते हुए पशु -जीवन व्यतीत कर रहे हैं । इस बीसवीं सदी में जबकि अन्य देशवासी राष्ट्र ही नहीं किन्तु राष्ट्रसंघ और साम्राज्य की स्थापना कर रहे हैं , भारतवर्ष यदि समाज संगठन के भी अयोग्य है तो उसका कारण भ्रमात्मक संस्कार ही हैं ।

हम मानते हैं कि जैसा धर्म का दुरूपयोग आजकल भारतवर्ष में हो रहा है , और ऐसा कहीं देखने में न आवेगा । परन्तु अब प्रश्न यह है कि धर्म का प्रयोग अन्यथा किया जा रहा है , क्या इसलिये हम धर्म को ही छोड़ दें ? यदि कोई मनुष्य अपनी मूर्खता से अग्नि में हाथ जला लेता है तो क्या उसे यह उपदेश करना ठीक होगा कि वह अग्नि से कभी कोई काम न ले या कि उसे अग्नि से काम लेने की तरकीब सिखाना ठीक होगा । इसका उत्तर प्रत्येक बुद्धिमान मनुष्य यही देगा कि दूसरी बात ही होनी चाहिए ।

     यद्यपि आधुनिक शिक्षा और समय के प्रभाव से आजकल धार्मिक क्षेत्र में भी असन्तोष और हलचल मची हुई है और प्रत्येक धर्म के अग्रणी और शिक्षित पुरूष यह अनुभव करने लगे हैं कि अब बीसवीं शताब्दी की जनता को इस प्रकाश के युग में केवल धर्म के नाम से रूढ़ि का दास नहीं बनाया जा सकता और न इस बढ़ते हुए हेतुवाद के प्रवाह को ही रोका जा सकता है । 

तथापि वे - 

  न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्म सगिनाम्।  



इस नीति का अनुसरण करते हुए धर्म के विषय में स्पष्टवादिता से काम नहीं ले सकते । इतना ही नहीं, बहुत से शिक्षित ऐसे भी मिलेंगे जो अपने समाज को प्रसन्न करने के लिए या उसका विश्वासभाजन बनने के लिए उसके भ्रमात्मक विश्वासों पर तर्क और विज्ञान की कलई चढ़ाने लगते हैं । जिस देश में नैतिक बल की यह दुर्दशा हो और जहाँ मान के भूखे शिक्षित लोग अशिक्षितों से मानभिक्षा की याचना करें , वहाँ यदि धर्म का ऐसा दुरूपयोग हो रहा है तो इसमें आश्चर्य ही क्या है परन्तु प्रश्न ये है , जब तक धर्म के सूर्य में अन्धविश्वास का यह ग्रहण लगा हुआ है ,क्या हम अपने उद्देश्य और लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं ? हमारे देश के नेता राजनैतिक स्वतंत्रता के लिये तो फड़फड़ा रहे हैं , पर यह धार्मिक परतन्त्रता जो हमें खुली हवा में साँस भी नहीं लेने देती , उनकी दृष्टि में जरा भी नहीं खटकती । क्या इसीलिये कि यह फाँसी हमने अपने आप लगाई है , इसकी मौत मीठी है ? 

    हमारा वक्तव्य केवल यह है कि यदि धर्म हमारा स्वभाव या कर्तव्य का बोधक है ,जैसा कि हम अपना अभिप्राय प्रकट कर चुके हैं ,तब तो वह हमसे और हम उससे किसी दशा में भी पृथक नहीं हो सकते। क्योंकि प्रत्येक पदार्थ की सत्ता उसके धर्म पर अवलम्बित होती है और ऐसे धर्म की आवश्यकता न केवल समाज को है , किन्तु प्रत्येक व्यक्ति को है । जहाँ राष्ट्र या समाज अपने उस स्वाभाविक धर्म का पालन करें ,वहाँ कोई व्यक्ति भी उसकी उपेक्षा न करें इस दशा से धर्म की व्यापकता या अवाध सत्ता किसी को अवांछनीय नहीं हो सकती और यदि यह हमारा भ्रम है और वास्तव में धर्म का अभिधेय जैसा कि आजकल माना जा रहा है , मतमतान्तर के काल्पनिक सिद्धान्त और भ्रमात्मक विश्वास हैं तो हम निःसंकोच अपने देशवासियों से यह प्रार्थना करेंगे कि जिस प्रकार पश्चिमवासियों ने धर्म की सीमा नियत करके अपने सामाजिक ,राजनैतिक ,आर्थिक और औद्योगिक क्षेत्रों से उसका प्रतिबंध हटा दिया है ,ऐसा ही हमको भी करना चाहिए ,अन्यथा ये भ्रमात्मक विश्वास अपने साथ हमको भी ले डूबेंगे - आप डूबन्ते बामना ले डूबे जजमान । 

Saturday, February 26, 2022

निबंध। चिंता। Chinta | प्रतापनारायण मिश्र | Pratapnarayan Mishra

 
इन दो अक्षरों में भी न जाने कैसी प्रबल शक्ति है कि जिसके प्रभाव से मनुष्य का जन्म ही कुछ का कुछ हो जाता है यद्यपि साधारणतः चित्त का स्वभाव है कि प्रत्येक समय किसी न किसी विषय का चिन्तन किया ही करता है। जिन्हें ईश्वर ने सब कुछ दे रक्खा है, जिनको लोग समझते हैं कि किसी बात की चिंता नहीं है ,वे भी अपने मनोविनोद या अपनी समझ के अनुसार जीवन की सार्थकता के चिन्तन में लगे रहते हैं। कमरा यों सजना चाहिए, बाग में इस रीति की क्यारी होनी चाहिए,खाने पहिनने को अमुक भोजन वस्त्र बनवाने चाहिए, फलाने दोस्त को इस प्रकार खुश करना चाहिए, फलाने दुश्मन को यों नीचा दिखाना चाहिए इत्यादि सब चिंता ही के रूप हैं। यहाँ तक कि जब हम संसार के सब कामों से छुट्टी लेकर रात्रि के समय मृत्यु का सा अनुभव करके एक प्रकार के जड़वत बन जाते हैं, हाथ पांव इत्यादि से कुछ काम नहीं ले सकते, तब भी चिंतादेवी हमें एक दूसरी सृष्टि मे ला डालती हैं। स्वप्नावस्था में हम यह नहीं जान सकते कि इस समय हम जो कुछ कर धर या देख सुन रहे हैं वह सब मिथ्या कल्पना है। बिलायती दिमाग वाले लोग कहते हैं कि स्वप्न का कुछ फल नहीं होता पर यदि उन्हें विचारशक्ति से जान पहिचान हो तो सोच सकते हैं कि प्रत्यक्ष फल तो यही है सोता हुआ पुरूष खाट पर पड़े-पड़े ,कहाँ-कहाँ फिरता रहता है ,क्या-क्या देखता रहता है, कैसे सुख दुःखादि का अनुभव करता है।
 यह निरा निष्फल कैसे कहा जा सकता है। इसके अतिरिक्त हमारे पूर्वजों ने जो बातें निश्चित की हैं वह कभी झूठ नहीं हो सकती। हमने तथा हमारे बहुत से विद्याबुद्धि विशारद मित्रों ने स्वयं सैकड़ों बार अनुभव किया है कि जो स्वप्न हाल की देखी सुनी बातों पर देखे जाते हैं उन्हें छोड़ कर और जितने आकस्मातिक सपने हैं ,सबका फल अवश्य होता है। जिसे विश्वास न हो वह आप इस बात को ध्यान में रख के परीक्षा कर ले कि जब कभी सपने में भोजन किए जाएँगे,तब दो ही चार दिन अथवा एक ही दो सप्ताह के उपरांत कोई न कोई रोग अवश्य सतावैगा, जब कभी तामे के पात्र अथवा मुद्रा देखने में आवैंगी तब षीघ्र ही किसी प्रिय व्यक्ति की मृत्यु के वियोग से अवश्य रोना पड़ेगा, जब नदी में स्नान करने वा तैरने का स्वपन देख पड़ेगा तो वर्तमान रोग को शीघ्र ही मुक्ति हो जाएगी, सपने में जो रोवेगा वह जागकर कुछ ही काल में प्रसन्नतापूर्वक हंसेगा अवश्य तथा जो स्वप्न में हंसेगा वह जागृत अवस्था में रोए बिना न रहेगा। ऐसे-ऐसे अनेक सपने हैं जिनका वृतांत ग्रंथों में लिखा हुआ है और फल अवश्य होता है। पर कोई हठतः न माने तो बात ही न्यारी है । हमारे पाठक कहते होंगे आज क्या भांग खा के लिखने बैठे हैं जो अंट की संट हांक रहे हैं। पर यह विचार कर देखेंगे तो जान जायेंगे कि स्वप्न भी चिन्ताशक्ति की लीलाएं हैं और यह वह शक्ति है जिसका अवरोध करना मनुष्य के पक्ष में इतना दुसाध्य है कि असाध्य कहना भी अत्युक्ति न समझनी चाहिए। वह चाहे जागने में अपना प्राबल्य दिखलावै चाहे सोते में किन्तु परवेश सब अवस्था में कर देती है जिसके प्रभाव से हम सोते में भी मारे-मारे फिरते हैं और जिन पुरूषों तथा पदार्थों का अस्तित्व नहीं है उनका संसर्ग प्राप्त करके मुंदी हुई शक्तिहीन आंखों से आंसू बहाते अथवा नाना घटनाएं देखते हैं ,बंद मुंह से बातें करते और टट्ठा मारते हैं, बरंच कभी -कभी उसी की प्रेरणा से मृतकवत् पड़े हुए भी सचमुच खटिया छोड़ भागते हैं, उसकी जागृत दशा वाली, हाथ पांव चलाते हुए चेतनावस्था वाली प्रबलता का क्या ही कहना है । परमेश्वर न करे कि किसी के चित्त में प्रबल रूप से कोई चिंता आधिपत्य जमा ले। जो उसकी लपेट में आ जाता है वह अपने सुख और स्वतंत्रता से सर्वथा जाता रहता है। यों धन बलादि का अभाव न होने पर नहाने खाने घूमने आदि की साधारण चिंता बहुधा रहा ही करती है। इससे उनके द्वारा कोई विशेष कष्ट या हानि नहीं जान पड़ती ,बरंच उनका नाम चित्त का जातिस्वभाव मात्र है। पर सूक्ष्म विचार से देखिए तो थोड़ा बहुत स्वच्छन्दता का नाश वे भी करती ही रहती हैं। मिठाई खाने को जी चाहेगा और लाने वाले सेवक किसी दूसरे काम को गए होंगे तो हमें झख मार के हलवाई की दुकान पर जाना पड़ेगा अथवा नौकर राम की मार्ग प्रतीक्षा में दूसरी बातों से विवशतः मन हटाना पड़ेगा। 

यह छोटे रूप की कायिक या मानसिक पराधीनता वा गुलामी नहीं है तो क्या है? तिसमें भी जब हमें कोई असाधारण चिंता आ घेरती है तब तो हम सचमुच उसके क्रीतदास , काष्ट पुत्तलक वा यों कहो कि बलिपशु हो ही जाते हैं। यदि हमसे कोई पूछे कि वह कौन सी निर्दयिनी है जो बड़े-बड़े महाराजों का साधारण सेवकों की चिरौरी के लिए विवश करती है, बड़े-बड़े योद्धाओं को उठने -बैठने के काम नहीं रखती ,सुखा के कांटा बना देती है ,बड़े-बड़े पंडितों की विद्या भुला कर बुद्धि हर लेती है, तो हम छुटते ही यह उत्तर देंगे कि उसका नाम चिंता है। बहुत से बुद्धिमानों का सिद्धांत है कि अच्छे कामों तथा अच्छी बातों की चिंता से शरीर और मन की हानि नहीं होती । उनका यह कथन लोकोपकारक होने से आदरणीय है और अनेकांश में परिणाम के लिए सत्य भी है पर हम पूछते हैं ,आपने किस ईश्वरभक्त ,देशभक्त ,सद्गुणानुरक्त को हष्ट -पुष्ट और मनमौजी देखा है? ऋषियों, सत्कवियों और फिलासफरों के जितने साक्षात् वा चित्रगत स्वरूप देखे होंगे किसी की हड्डियों पर दो अंगुल मांस न पाया होगा। उनके चरित्रों में कभी न सुना होगा कि ठीक समय खाते और नींद भर सोते थे। यह माना कि वह अपने काल्पनिक आनंद के आगे संसार के सुख दुःखादि को तुच्छ समझते हैं, पर सांसारिक विषयों से रंजेपुंजे बहुधा नहीं ही होते, पुष्कल धन और बल का अभाव ही रहता है क्योंकि उनका हृदय चिंता की एक मूर्ति का मंदिर है जिस की स्तुति में हमारे अनुभवशील महात्माओं का वाक्य है कि ‘चिंता चिता समाख्याता तस्मात् चिंता गरीयसी’ (लिखने में भी एक बिंदु अधिक होता है इसी से), चिता दहति निर्जीवं चिंता जीवयतुम् तनुम् ।’ सच तो यह है कि जिसे शीघ्र चिता पर पहुँचना होता है वा यों कहो कि जीते ही जी चिता पर सोना होता है वही इसके चंगुल में फंसता है। यह यदि अच्छे रूप की हुई तो चंदनादि की चिता की बहिन समझनी चाहिए, जिसकी सुगंध से दूसरों को अवश्य सुख मिलता है और शास्त्र के अनुसार चाहे सोने वाली आत्मा भी कोई अच्छी गति पाती हो पर भस्म हो जाने में कुछ भी संदेह नहीं है और यदि कुत्सित रीति की हुई तो आत्मा अवश्य उसी नर्क में जीते मरते बनी रहती है, जिस नर्क में नील आदि कुकाष्ट की चिता में जलने वाले जाते हैं और ऐसों के द्वारा दूसरों का यदि दैवयोग से अनिष्ट न भी हो तथापि हित होना तो सम्भव नहीं होता । क्योंकि बुरे वृक्ष का फल अच्छा हो यह सम्भव नहीं है। और चिंता की बुराई में कहीं प्रमाण नहीं ढूंढ़ना है, सहृदयमात्र उसकी साक्षी दे सकते हैं। ऊपर से दाद में भी खाज यह है कि उस के लिए कारण अथवा आधार की भी कमी नहीं। चित्त सलामत हो तो समस्त सृष्टि के जड़- चेतन दृश्य-अदृश्य अवयवमात्र चिंता का उत्पादन अथच उत्तेजन करने भर को बहुत हैं। 

 परमात्मा न करे कि किसी को अन्न वस्त्र की चिंता का सामना करना पड़े जैसे कि आज के दिन हमारे बहुसंख्यक देशभाइयों को करना पड़ता है। ऐसी दशा में मनुष्य जो कुछ न कर उठावै वही थोड़ा है। संभ्रम रक्षा की चिंता उस से भी बुरी होती है,जिसके कारण न्याय धर्म और गौरव सब आले पर धर के लोग केवल इस उद्योग में लग जाते हैं कि कल ही चाहे भून चबान का सुभीता न रहे, मरने पर चाहे नर्ककुण्ड से कभी न निकाले जाएँ, पर आज तो किसी तरह चार जने की दृष्टि में बात रह जानी चाहिए। इस से भी घृणित चिंता आज कल के बाबू साहबों की है जो स्वयं उदाहरण बन कर चाहते हैं कि देश का देश अपनी भाषा, भोजन, भेष-भाव और भ्रातृत्व को तिलांजली दे के शुद्ध काले रंग का गोरा साहब बन जाए, स्त्रियों का पतिव्रत और पुरूषों का आर्यत्व कहीं ढूँढ़े न मिले, वेद भी अंग्रेजी स्वरों में पढ़ा जाए तथा विलायती ही कारीगरियों की किताब समझी जाए । ईश्वर भी हमारे कानून का पाबंद बनाया जाए,नहीं तो देश की उन्नति ही न होगी। इधर हमारी सी तबियत वालों को यह चिंता लगी रहती है कि जगदीश्वर के लिए कल प्रलय करना अभीष्ट हो तो आज कर दें पर हमारे भारतीय भाइयों का निजत्व बनाए रक्खे। उन्नति और अवनति कालचक्र की गति से सभी को हुवा करती है पर गधे पर चढ़ बैकुन्ठ जाना भी अच्छा नहीं। कहाँ तक कहिए जिसे जिस प्रकार की चिंता सताती होगी, उसका जी ही जानता होगा

कि यह कैसी बुरी व्याधि है। जब परलोक और परब्रह्म प्राप्ति तक की चिंता हमें दुनिया के काम का नहीं रखती, शरीर तक का स्वत्व छुड़वा के जंगल पहाड़ों में जा पड़ने को विवश करती है तब सांसारिक चिंता के विषय में हम क्यों न कहें कि राम ही बचावै इसकी झपेट से। जिन अप्राणियों को सोचने समझने की शक्ति नहीं होती, जिन पशुओं तथा पुरूषों को भय निद्रादि के अतिरिक्त और कोई काम नहीं सूझता वे उनसे हजार दरजे अच्छे होते हैं जिन्हें अपनी या पराई फिकर चढ़ी ही रहती हो। इस छूत से केवल सच्चे प्रेमी ही बच सकते हैं जिन्होंने सचमुच अपना चित्त किसी दूसरे को देकर कह दिया है कि लो अब इस दिल को तुम्हीं आग लगाओ साहब! फिर वह क्यों न निश्चिन्त हो जाएं- “जब अड्डा ही न रहेगा तो बैठोगे काहे पर’ । अथवा पूरे विरक्त ,जिन्होंने मन को सचमुच मार लिया है, वे भी चाहे बचे रहते हों पर जिन्हें जगत् से कुछ भी संबंध है वे कदापि नहीं बचते और बचें तो जड़ता का लांक्षण लगता है इस से और भी आफत है। गुड भरा हंसिया न निगलते बने न उगलते बने। फिर क्यों न कहिए कि चिंता बड़ी ही बुरी बला है। यदि संगीत साहित्यादि की शरण ले के इसे थोड़ा बहुत भुलाए रहो तौ तो कुशल है नहीं तो यह आई और सब तरह से मरण हुआ। इसलिए इससे जहाँ तक हो बचे ही रहना चाहिए। बचने में यदि हानि या कष्ट हो तो भी डरना उचित नहीं बरंच कठिन व्याधि की निवृत्यथ कड़ औषधि के सेवन समान समझना योग्य है। बचने का एक लटका हमारा भी सीख रक्खो तो पेट पड़े गुन ही देगा, अर्थात् जिस काम को किए बिना भविष्यत् में हानि की आशंका हो उसकी पूर्ति का यत्न करते रहो पर तद्वियिनी चिंता को पास न आने दो। इस रीति से भी बहुत कुछ बचाव रहेगा। 

Thursday, February 24, 2022

कहानी। बलि का बकरा। Bali ka Bakra | शरतचंद्र चट्टोपाध्याय | Sharad Chandra Chattopadhyaye


लोग उसे लालू के नाम से पुकारते थे, लेकिन उसका घर का नाम कुछ और भी था. तुम्हें यह पता होगा कि ’लाल’ शब्द का अर्थ प्रिय होता है. यह नाम उसका किसने रखा था, यह मैं नहीं जानता; लेकिन देखा ऐसा गया है कि कोई-कोई व्यक्ति यों ही सबके प्रिय बन जाते हैं. लालू भी ऐसा ही व्यक्ति था.

स्कूल से पास होकर हम कॉलेज में दाखिल हो गए. लालू ने कहा, ‘भाई! अब मैं रोजगार करूँगा.’

इसके बाद अपनी माँ से दस रुपए माँगकर उसने ठेकेदारी का काम करना शुरू कर दिया. हम लोगों ने हँसकर उसका मजाक उड़ाते हुए कहा, ‘दस रुपए से भला कहीं रोजगार होता है. अगर इतनी पूंजी से रोजगार होता तो सब कर लेते.’

लालू ने कहा, ‘मेरे लिए इतना ही काफी है.’

वह सबके लिए प्रिय था, इसलिए उसे काम मिलते देर न लगी. कॉलेज से लौटते वक्त रोजाना हम उसे रास्ते में सिर पर छाता लगाए हुए कुछ मजदूरों के बीच अपने काम में संलग्न पाते थे. हम लोगों को देखते ही चिढ़ाते हुए वह कह उठता था, ‘अरे जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाकर जाओ, वरना ’परसेंटेज’ में कमी आ जाएगी!’

गाँव की पाठशाला में जब हम एक साथ पढ़ते थे, तभी से वह मिस्त्री का काम करने में चतुर था.

उसके बस्ते में एक नहनी, एक छुरी, एक छोटी हथौड़ी, एक घोड़े की नाल और एक छैनी हर वक्त रखी रहती थी. इन चीजों का संग्रह उसने कब और कैसे किया, यह मैं नहीं जानता; लेकिन ऐसा कोई कार्य नहीं बचा था, जिसे वह इन सामग्रियों से न कर सके. स्कूल के सभी साथियों का छाता मरम्मत, स्लेट का फ्रेम ठीक करना, खेलकूद के समय पाजामा या कमीज को सी देना, इसी तरह वह बहुत से काम किया करता था. किसी भी कार्य के लिए ’इनकार’ उसने कभी नहीं किया. इसके अतिरिक्त भी नाना प्रकार की चीजें बनाया करता था. एक बार ’छठ’ के मेले के समय दो आने का रंगीन कागज और मिट्टी के प्याले खरीदकर न जाने क्या-क्या बनाकर उसने गंगा के किनारे बैठकर उन खिलौनों को ढाई रुपए में बेचा था. उस मुनाफे की रकम में से उसने हम लोगों को ’चिनिया बादाम’ खिलाया था.

इसी तरह दिन गुजरते गए और हम क्रमशः बड़े होते गए. जिमनास्टिक खेल लालू सबसे अधिक तेज खेलता था. उसके बदन में जैसी ताकत थी वैसा ही साहस था. डरने का नाम उसने कभी नहीं सुना था. कोई भी आकर बुलाए, उसके यहाँ चला जाता था. प्रत्येक की विपदा के समय सबसे पहले वह जाकर हाजिर होता था. अगर उसमें कोई ऐब था तो एक यही था कि मौका पाने पर डराया करता था. चाहे कोई भी क्यों न हो, बच्चा-बूढ़ा, उसके लिए सब बराबर थे.

हम तो समझ ही नहीं पाते थे; लेकिन वह न जाने कैसे ऐसे विचित्र उपायों को खोज डालता था. आज उसकी एक कहानी सुना ही दूँ.

पड़ोस के मनोहर चटर्जी के यहाँ काली की पूजा हो रही थी. ठीक अर्द्धरात्रि के समय बकरा-बलिदान होना था, लेकिन बलि देने वाले लोहार का कहीं भी पता नहीं था. देर होते देख कई व्यक्ति उसके यहाँ गए तो देखा, लोहार के पेट में काफी दर्द है और आने में बिलकुल असमर्थ है. लौटकर आकर लोगों ने खबर दी. खबर पाते ही सब के सब सिर पर हाथ रखकर बैठ गए. इधर बिना बलिदान किए पूजा अधूरी रह जाएगी. अब इतनी रात को दूसरे आदमी की तलाश कहाँ की जाए. इस साल अब देवी-पूजा ठीक ढंग से नहीं हो पाएगी. तभी किसी ने कहा, ‘अरे भाई, लालू यह काम कर सकता है. इस तरह न जाने कितने बकरों को वह काट चुका है.’

इतना कहना था कि कुछ लोग लालू के घर उसे बुलाने के लिए दौड़ पड़े. लालू उस समय सो रहा था. उठकर बोला, ‘नहीं.’

‘नहीं? अरे बेटा, मना मत करो. चले चलो, वरना देवी की पूजा संपन्न न होने से गाँव का सत्यानाश हो जाएगा.

लालू ने कहा, ‘होने दो. बलिदान कार्य बचपन में मैंने किया था, लेकिन अब नहीं करूँगा.’

जो लोग बुलाने आए, काफी मान-मनौवल करने लगे, क्योंकि बलिदान के मुहूर्त में अब केवल 15 मिनट बाकी थे. इसके बाद बलिदान देना, न देना बराबर होगा. महाकाली के प्रकोप से सर्वनाश हो जाएगा.

तभी लालू के पिता ने आकर कहा, ‘ये चारों तरफ से निराश होकर आए हैं. गाँव के कल्याण के लिए तुम्हें जाना चाहिए, जाओ.’ इस आदेश को अस्वीकार कर दे, इतनी हिम्मत लालू में नहीं थी. फिर उसे चटर्जी साहब के यहाँ जाना पड़ा.

लालू को अपने यहाँ देखकर चटर्जी महाशय प्रसन्न हो उठे. इधर बलिदान का समय नजदीक आता जा रहा था. जल्दी से बकरा लाकर उसे माला-सिंदूर पहनाया गया, फिर कठघरे में उसका सिर रख दिया गया. पूजा देखने के लिए आई हुई भीड़ ’जय काली माता की जय’ का नारा लगाने लगी. उसी के बीच में देखते-ही-देखते खच्च से आवाज हुई और एक निरीह-बेजान जीव का धड़ सिर से अलग होकर नीचे गिर पड़ा. खून के धार से धरती लाल हो उठी. लालू ने कुछ देर के लिए अपनी आँखें बंद कर ली. पुनः कुछ देर के लिए शंख ध्वनि, घंटे की आवाज रुक गई. दूसरा बकरा आया, उसे भी पहले की तरह माला-फूल और सिंदूर लगाया गया.

इसके बाद भक्तों द्वारा ’जय काली माता की’ आवाज गूंजी और लालू का दाव एक बार पुनः ऊपर उठा और फिर एक बार आखिरी बार तड़फड़ाते हुए बकरा समस्त भक्तों के विरुद्ध न जाने कौन सी फरियाद करते हुए शांत हो गया. उसके खून से लाल मिट्टी फिर भीग उठी.

बाहर शहनाई बज रही थी, आँगन में बहुत से व्यक्ति जमा थे. सामने गलीचों के ऊपर मनोहर चटर्जी आँखें बंद करके इष्टनाम जप रहे थे. तभी लालू एकाएक भयंकर रूप से गरज उठा-कोलाहल वाद्य ध्वनि सबकुछ एकबारगी रुक गई. सब की कौतूहल भरी निगाहें लालू की तरफ घूम गईं.

लालू ने बड़ी बड़ी आँखें नचाते हुए कहा, ‘और बकरा कहाँ है?’

घर के भीतर से किसी ने डरते हुए पूछा, ‘और बकरा? दो ही का तो बलिदान होने वाला था.’

लालू ने खून से लथपथ दाव को ऊपर की ओर तीन-चार बार घुमाते हुए भीषण गर्जन करते हुए कहा, ‘और बकरा नहीं है? यह नहीं हो सकता. मेरे सिर पर खून चढ़ गया है, लाओ बकरा, वरना मैं आज जिसे देखूँगा, उसी का बलिदान करूंगा, नर बलि-जय भवानी की! जय माता काली!’ यह कहता हुआ वह इधर-से-उधर उछलने लगा. इधर उसके हाथ का दाव लाठी की तरह भनाभन घूम रहा था. उस समय लालू का रंग-ढंग देखकर वहाँ की जो हालत हुई, उसका वर्णन करना मुश्किल है, सभी एक साथ बाहर को दौड़ पड़े.

कहीं लालू उन्हें पकड़कर बलि पर न चढ़ा दे. इस भगदड़ के कारण वहाँ की हालत बहुत ज्यादा खराब हो गई. कोई उधर गिरा तो कोई इधर. कोई मुंह के बल गिरा तो कोई सिर के बल. कोई किसी के हाथ के नीचे से भाग रहा है तो कोई किसी की टाँग के नीचे से, यह सब कांड कुछ देर तक होता रहा, फिर सब शांत हो गया.

लालू गरज उठा, ‘मनोहर चटर्जी कहाँ हैं? पुरोहित कहाँ गया?’

पुरोहित महाशय दुबले पतले थे और इसी भगदड़ के समय काली देवी की प्रतिमा के पीछे जाकर छिप गए. गुरुदेव महाशय कुशासन पर बैठे माला जप रहे थे, हालात देखकर वे भी एक बड़े खंभे की आड़ में जा छिपे, लेकिन मनोहर चटर्जी अपनी भारी-भरकम तोंद लेकर भागने से लाचार रहे. लालू ने आगे बढ़कर उनका एक हाथ कसकर पकड़ते हुए कहा, ‘चलो, अब तुम्हारी बलि दूँ!’

एक तो कसकर उसने हाथ पकड़ रखा था, दूसरे हाथ में दाव देखकर चटर्जी के प्राण सूख गए. रोते हुए विनती करते हुए बोले, ‘लालू बेटा! जरा शांत होकर देख, मैं बकरा नहीं हूँ, आदमी हूँ. रिश्ते के नाते में मैं तेरा ताऊ लगता हूँ. तेरे पिताजी मेरे छोटे भाई की तरह हैं.’

‘यह सब मैं नहीं जानता, इस वक्त मुझे खून चाहिए.

चलो, तुम्हारा बलिदान करूंगा. जगदंबा की यही इच्छा है.’

चटर्जी फफककर रोते हुए बोले, ‘नहीं बेटा! माँ की यह इच्छा नहीं है. वे तो जग जननी हैं.’

‘वे जगजननी हैं, इसका पता है तुम्हें? अब फिर बकरा बलिदान करोगे? मुझे बलिदान देने के लिए अब बुलाओगे?’

चटर्जी ने रोते-रोते कहा, ‘नहीं बेटा! अब बलिदान कभी नहीं कराऊँगा, मैं काली माता के सामने कसम खाता हूँ, आज से मेरे यहाँ कभी बलिदान नहीं होगा.’

‘ठीक कह रहे हो न?’

‘हाँ बेटा! ठीक कह रहा हूँ. अब कभी नहीं कराऊँगा, मेरा हाथ छोड़ दे बेटा, पाखाने जाऊँगा.’

लालू ने हाथ छोड़ते हुए कहा, ‘अच्छा जाओ, तुम्हें छोड़े दे रहा हूँ, लेकिन पुरोहित कहाँ गया? और गुरुदेव? वह कहाँ गया?’ कहता हुआ वह एक बार फिर गरज उठा. फिर कमरे में से इधर-उधर टहलते हुए बरामदे के करीब आ गया.

उसका भयंकर रूप देखकर खंभे की आड़ से गुरुदेव और प्रतिमा की आड़ से पुरोहितजी दोनों एक साथ करुण स्वर में दो प्रकार की आवाजों में चीख उठे.

दोनों का स्वर दो ढंग का ऐसा बेसुरा हो गया कि लालू अपने को संभाल नहीं पाया. हो-होकर हंसते हुए दाव एक ओर फेंककर भाग खड़ा हुआ.

तब यह किसी को समझते देर न लगी कि लालू ने यह सब ढोंग किया था, सचमुच उसके ऊपर काली माता सवार नहीं हुई थीं. यह कांड लोगों को डराने के लिए ही उसने किया.

थोड़ी देर बाद पुनः भक्तों की भीड़ जुट गई. अभी पूजा पूरी नहीं हुई थी. थोड़ी देर में महाकलरव के साथ पूजा समारोह शुरू हो गया.

मनोहर चटर्जी ने नाराज होकर कहा, ‘कल ही कमबख्त ललुवा को पचास जूते उसके बाप से लगवाऊँगा.’

लेकिन उसे जूते नहीं खाने पड़े. सवेरा होने के पहले ही वह गाँव से गायब हो गया. एक हफ्ते के बाद वह एक दिन शाम के समय मनोहर चटर्जी के यहाँ जाकर उनसे माफी माँग आया. बाप की नाराजगी भी दूर हो गई; लेकिन इससे एक फायदा यह हुआ कि उस घटना के बाद मनोहर चटर्जी के यहाँ फिर कभी बलिदान नहीं हुआ


निबंध | कवि और कविता | महावीर प्रसाद द्विवेदी | Nibandh | Kavi aur Kavita | Mahavir Prasad Dwivedi

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी निबंध - कवि और कविता यह बात सिद्ध समझी गई है कि कविता अभ्यास से नहीं आती। जिसमें कविता करने का स्वाभाविक माद्द...