Saturday, February 26, 2022

निबंध। चिंता। Chinta | प्रतापनारायण मिश्र | Pratapnarayan Mishra

 
इन दो अक्षरों में भी न जाने कैसी प्रबल शक्ति है कि जिसके प्रभाव से मनुष्य का जन्म ही कुछ का कुछ हो जाता है यद्यपि साधारणतः चित्त का स्वभाव है कि प्रत्येक समय किसी न किसी विषय का चिन्तन किया ही करता है। जिन्हें ईश्वर ने सब कुछ दे रक्खा है, जिनको लोग समझते हैं कि किसी बात की चिंता नहीं है ,वे भी अपने मनोविनोद या अपनी समझ के अनुसार जीवन की सार्थकता के चिन्तन में लगे रहते हैं। कमरा यों सजना चाहिए, बाग में इस रीति की क्यारी होनी चाहिए,खाने पहिनने को अमुक भोजन वस्त्र बनवाने चाहिए, फलाने दोस्त को इस प्रकार खुश करना चाहिए, फलाने दुश्मन को यों नीचा दिखाना चाहिए इत्यादि सब चिंता ही के रूप हैं। यहाँ तक कि जब हम संसार के सब कामों से छुट्टी लेकर रात्रि के समय मृत्यु का सा अनुभव करके एक प्रकार के जड़वत बन जाते हैं, हाथ पांव इत्यादि से कुछ काम नहीं ले सकते, तब भी चिंतादेवी हमें एक दूसरी सृष्टि मे ला डालती हैं। स्वप्नावस्था में हम यह नहीं जान सकते कि इस समय हम जो कुछ कर धर या देख सुन रहे हैं वह सब मिथ्या कल्पना है। बिलायती दिमाग वाले लोग कहते हैं कि स्वप्न का कुछ फल नहीं होता पर यदि उन्हें विचारशक्ति से जान पहिचान हो तो सोच सकते हैं कि प्रत्यक्ष फल तो यही है सोता हुआ पुरूष खाट पर पड़े-पड़े ,कहाँ-कहाँ फिरता रहता है ,क्या-क्या देखता रहता है, कैसे सुख दुःखादि का अनुभव करता है।
 यह निरा निष्फल कैसे कहा जा सकता है। इसके अतिरिक्त हमारे पूर्वजों ने जो बातें निश्चित की हैं वह कभी झूठ नहीं हो सकती। हमने तथा हमारे बहुत से विद्याबुद्धि विशारद मित्रों ने स्वयं सैकड़ों बार अनुभव किया है कि जो स्वप्न हाल की देखी सुनी बातों पर देखे जाते हैं उन्हें छोड़ कर और जितने आकस्मातिक सपने हैं ,सबका फल अवश्य होता है। जिसे विश्वास न हो वह आप इस बात को ध्यान में रख के परीक्षा कर ले कि जब कभी सपने में भोजन किए जाएँगे,तब दो ही चार दिन अथवा एक ही दो सप्ताह के उपरांत कोई न कोई रोग अवश्य सतावैगा, जब कभी तामे के पात्र अथवा मुद्रा देखने में आवैंगी तब षीघ्र ही किसी प्रिय व्यक्ति की मृत्यु के वियोग से अवश्य रोना पड़ेगा, जब नदी में स्नान करने वा तैरने का स्वपन देख पड़ेगा तो वर्तमान रोग को शीघ्र ही मुक्ति हो जाएगी, सपने में जो रोवेगा वह जागकर कुछ ही काल में प्रसन्नतापूर्वक हंसेगा अवश्य तथा जो स्वप्न में हंसेगा वह जागृत अवस्था में रोए बिना न रहेगा। ऐसे-ऐसे अनेक सपने हैं जिनका वृतांत ग्रंथों में लिखा हुआ है और फल अवश्य होता है। पर कोई हठतः न माने तो बात ही न्यारी है । हमारे पाठक कहते होंगे आज क्या भांग खा के लिखने बैठे हैं जो अंट की संट हांक रहे हैं। पर यह विचार कर देखेंगे तो जान जायेंगे कि स्वप्न भी चिन्ताशक्ति की लीलाएं हैं और यह वह शक्ति है जिसका अवरोध करना मनुष्य के पक्ष में इतना दुसाध्य है कि असाध्य कहना भी अत्युक्ति न समझनी चाहिए। वह चाहे जागने में अपना प्राबल्य दिखलावै चाहे सोते में किन्तु परवेश सब अवस्था में कर देती है जिसके प्रभाव से हम सोते में भी मारे-मारे फिरते हैं और जिन पुरूषों तथा पदार्थों का अस्तित्व नहीं है उनका संसर्ग प्राप्त करके मुंदी हुई शक्तिहीन आंखों से आंसू बहाते अथवा नाना घटनाएं देखते हैं ,बंद मुंह से बातें करते और टट्ठा मारते हैं, बरंच कभी -कभी उसी की प्रेरणा से मृतकवत् पड़े हुए भी सचमुच खटिया छोड़ भागते हैं, उसकी जागृत दशा वाली, हाथ पांव चलाते हुए चेतनावस्था वाली प्रबलता का क्या ही कहना है । परमेश्वर न करे कि किसी के चित्त में प्रबल रूप से कोई चिंता आधिपत्य जमा ले। जो उसकी लपेट में आ जाता है वह अपने सुख और स्वतंत्रता से सर्वथा जाता रहता है। यों धन बलादि का अभाव न होने पर नहाने खाने घूमने आदि की साधारण चिंता बहुधा रहा ही करती है। इससे उनके द्वारा कोई विशेष कष्ट या हानि नहीं जान पड़ती ,बरंच उनका नाम चित्त का जातिस्वभाव मात्र है। पर सूक्ष्म विचार से देखिए तो थोड़ा बहुत स्वच्छन्दता का नाश वे भी करती ही रहती हैं। मिठाई खाने को जी चाहेगा और लाने वाले सेवक किसी दूसरे काम को गए होंगे तो हमें झख मार के हलवाई की दुकान पर जाना पड़ेगा अथवा नौकर राम की मार्ग प्रतीक्षा में दूसरी बातों से विवशतः मन हटाना पड़ेगा। 

यह छोटे रूप की कायिक या मानसिक पराधीनता वा गुलामी नहीं है तो क्या है? तिसमें भी जब हमें कोई असाधारण चिंता आ घेरती है तब तो हम सचमुच उसके क्रीतदास , काष्ट पुत्तलक वा यों कहो कि बलिपशु हो ही जाते हैं। यदि हमसे कोई पूछे कि वह कौन सी निर्दयिनी है जो बड़े-बड़े महाराजों का साधारण सेवकों की चिरौरी के लिए विवश करती है, बड़े-बड़े योद्धाओं को उठने -बैठने के काम नहीं रखती ,सुखा के कांटा बना देती है ,बड़े-बड़े पंडितों की विद्या भुला कर बुद्धि हर लेती है, तो हम छुटते ही यह उत्तर देंगे कि उसका नाम चिंता है। बहुत से बुद्धिमानों का सिद्धांत है कि अच्छे कामों तथा अच्छी बातों की चिंता से शरीर और मन की हानि नहीं होती । उनका यह कथन लोकोपकारक होने से आदरणीय है और अनेकांश में परिणाम के लिए सत्य भी है पर हम पूछते हैं ,आपने किस ईश्वरभक्त ,देशभक्त ,सद्गुणानुरक्त को हष्ट -पुष्ट और मनमौजी देखा है? ऋषियों, सत्कवियों और फिलासफरों के जितने साक्षात् वा चित्रगत स्वरूप देखे होंगे किसी की हड्डियों पर दो अंगुल मांस न पाया होगा। उनके चरित्रों में कभी न सुना होगा कि ठीक समय खाते और नींद भर सोते थे। यह माना कि वह अपने काल्पनिक आनंद के आगे संसार के सुख दुःखादि को तुच्छ समझते हैं, पर सांसारिक विषयों से रंजेपुंजे बहुधा नहीं ही होते, पुष्कल धन और बल का अभाव ही रहता है क्योंकि उनका हृदय चिंता की एक मूर्ति का मंदिर है जिस की स्तुति में हमारे अनुभवशील महात्माओं का वाक्य है कि ‘चिंता चिता समाख्याता तस्मात् चिंता गरीयसी’ (लिखने में भी एक बिंदु अधिक होता है इसी से), चिता दहति निर्जीवं चिंता जीवयतुम् तनुम् ।’ सच तो यह है कि जिसे शीघ्र चिता पर पहुँचना होता है वा यों कहो कि जीते ही जी चिता पर सोना होता है वही इसके चंगुल में फंसता है। यह यदि अच्छे रूप की हुई तो चंदनादि की चिता की बहिन समझनी चाहिए, जिसकी सुगंध से दूसरों को अवश्य सुख मिलता है और शास्त्र के अनुसार चाहे सोने वाली आत्मा भी कोई अच्छी गति पाती हो पर भस्म हो जाने में कुछ भी संदेह नहीं है और यदि कुत्सित रीति की हुई तो आत्मा अवश्य उसी नर्क में जीते मरते बनी रहती है, जिस नर्क में नील आदि कुकाष्ट की चिता में जलने वाले जाते हैं और ऐसों के द्वारा दूसरों का यदि दैवयोग से अनिष्ट न भी हो तथापि हित होना तो सम्भव नहीं होता । क्योंकि बुरे वृक्ष का फल अच्छा हो यह सम्भव नहीं है। और चिंता की बुराई में कहीं प्रमाण नहीं ढूंढ़ना है, सहृदयमात्र उसकी साक्षी दे सकते हैं। ऊपर से दाद में भी खाज यह है कि उस के लिए कारण अथवा आधार की भी कमी नहीं। चित्त सलामत हो तो समस्त सृष्टि के जड़- चेतन दृश्य-अदृश्य अवयवमात्र चिंता का उत्पादन अथच उत्तेजन करने भर को बहुत हैं। 

 परमात्मा न करे कि किसी को अन्न वस्त्र की चिंता का सामना करना पड़े जैसे कि आज के दिन हमारे बहुसंख्यक देशभाइयों को करना पड़ता है। ऐसी दशा में मनुष्य जो कुछ न कर उठावै वही थोड़ा है। संभ्रम रक्षा की चिंता उस से भी बुरी होती है,जिसके कारण न्याय धर्म और गौरव सब आले पर धर के लोग केवल इस उद्योग में लग जाते हैं कि कल ही चाहे भून चबान का सुभीता न रहे, मरने पर चाहे नर्ककुण्ड से कभी न निकाले जाएँ, पर आज तो किसी तरह चार जने की दृष्टि में बात रह जानी चाहिए। इस से भी घृणित चिंता आज कल के बाबू साहबों की है जो स्वयं उदाहरण बन कर चाहते हैं कि देश का देश अपनी भाषा, भोजन, भेष-भाव और भ्रातृत्व को तिलांजली दे के शुद्ध काले रंग का गोरा साहब बन जाए, स्त्रियों का पतिव्रत और पुरूषों का आर्यत्व कहीं ढूँढ़े न मिले, वेद भी अंग्रेजी स्वरों में पढ़ा जाए तथा विलायती ही कारीगरियों की किताब समझी जाए । ईश्वर भी हमारे कानून का पाबंद बनाया जाए,नहीं तो देश की उन्नति ही न होगी। इधर हमारी सी तबियत वालों को यह चिंता लगी रहती है कि जगदीश्वर के लिए कल प्रलय करना अभीष्ट हो तो आज कर दें पर हमारे भारतीय भाइयों का निजत्व बनाए रक्खे। उन्नति और अवनति कालचक्र की गति से सभी को हुवा करती है पर गधे पर चढ़ बैकुन्ठ जाना भी अच्छा नहीं। कहाँ तक कहिए जिसे जिस प्रकार की चिंता सताती होगी, उसका जी ही जानता होगा

कि यह कैसी बुरी व्याधि है। जब परलोक और परब्रह्म प्राप्ति तक की चिंता हमें दुनिया के काम का नहीं रखती, शरीर तक का स्वत्व छुड़वा के जंगल पहाड़ों में जा पड़ने को विवश करती है तब सांसारिक चिंता के विषय में हम क्यों न कहें कि राम ही बचावै इसकी झपेट से। जिन अप्राणियों को सोचने समझने की शक्ति नहीं होती, जिन पशुओं तथा पुरूषों को भय निद्रादि के अतिरिक्त और कोई काम नहीं सूझता वे उनसे हजार दरजे अच्छे होते हैं जिन्हें अपनी या पराई फिकर चढ़ी ही रहती हो। इस छूत से केवल सच्चे प्रेमी ही बच सकते हैं जिन्होंने सचमुच अपना चित्त किसी दूसरे को देकर कह दिया है कि लो अब इस दिल को तुम्हीं आग लगाओ साहब! फिर वह क्यों न निश्चिन्त हो जाएं- “जब अड्डा ही न रहेगा तो बैठोगे काहे पर’ । अथवा पूरे विरक्त ,जिन्होंने मन को सचमुच मार लिया है, वे भी चाहे बचे रहते हों पर जिन्हें जगत् से कुछ भी संबंध है वे कदापि नहीं बचते और बचें तो जड़ता का लांक्षण लगता है इस से और भी आफत है। गुड भरा हंसिया न निगलते बने न उगलते बने। फिर क्यों न कहिए कि चिंता बड़ी ही बुरी बला है। यदि संगीत साहित्यादि की शरण ले के इसे थोड़ा बहुत भुलाए रहो तौ तो कुशल है नहीं तो यह आई और सब तरह से मरण हुआ। इसलिए इससे जहाँ तक हो बचे ही रहना चाहिए। बचने में यदि हानि या कष्ट हो तो भी डरना उचित नहीं बरंच कठिन व्याधि की निवृत्यथ कड़ औषधि के सेवन समान समझना योग्य है। बचने का एक लटका हमारा भी सीख रक्खो तो पेट पड़े गुन ही देगा, अर्थात् जिस काम को किए बिना भविष्यत् में हानि की आशंका हो उसकी पूर्ति का यत्न करते रहो पर तद्वियिनी चिंता को पास न आने दो। इस रीति से भी बहुत कुछ बचाव रहेगा। 

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