Tuesday, March 1, 2022

निबंध। साहित्य जन समूह के हृदय का विकास है। Sahitya Jansamooh ke hirday ka vikas hai | बालकृष्ण भट्ट | Balkrishna Bhatt


प्रत्येक देश का साहित्य उस देश के मनुष्यों के हृदय का आदर्श रूप है । जो जाति जिस समय जिस भाव से परिपूर्ण या परिप्लुत रहती है वे सब उसके भाव उस समय के साहित्य की समालोचना से अच्छी तरह प्रकट हो सकते हैं । मनुष्य का मन जब शोक-संकुल ,क्रोध से उद्दीप्त , या किसी प्रकार की चिंता से दोचित्ता रहता है तब उसकी मुखच्छवि तमसाच्छन्न ,उदासीन और मलिन रहती है ; उस समय उसके कंठ से जो ध्वनि निकलती है वह भी या तो फुटही ढोल समान बेसुरी ,बेताल ,बेलय या करूणापूर्ण , गद्गद् तथा विकृत -स्वर -संयुक्त होती है । वही जब चित्त आनंद की लहरी से उद्वेलित हो नृत्य करता है और सुख की परंपरा में मग्न रहता है उस समय मुख विकसित कमल-सा प्रफुल्लित -नेत्र मानों हँसता -सा ,और अंग-अंग चुस्ती और चालाकी से फिरहरी की तरह फरका करते हैं; कंठ -ध्वनि भी तब बसंत -मदमत्त कोकिला के कंठ -रव से भी अधिक मीठी और सोहावनी मन को भाती है । मनुष्य के संबंध में इस अनुल्लंघनीय प्राकृतिक नियम का अनुसरण प्रत्येक देश का साहित्य भी करता है , जिसमें कभी तो क्रोधपूर्ण भयंकर गर्जन , कभी तो प्रेम का उच्छवास ,कभी तो शोक और परितापजनित हृदय-विदारी करूणा -निस्वन , कभी तो वीरता गर्व से बाहुबल के दर्प में भरा हुआ सिंहनाद , कभी तो भक्ति के उन्मेष से चित्त की द्रवता का परिणाम अश्रुपात आदि अनेक प्रकार के प्राकृतिक भावों का उद्गार देखा जाता है ।  इसलिए साहित्य यदि जन-समूह (छंजपवद) के चित्त का चित्रपट कहा जाए तो संगत है । किसी देश का इतिहास पढ़ने से केवल बाहरी हाल हम उस देश का जान सकते है,पर साहित्य के अनुशीलन से कौम के सब समय-समय के आभ्यन्तरिक भाव हमें परिस्फुट हो सकते हैं । 

 हमारे पुराने आर्यों का साहित्य वेद है । उस समय आर्यों की शैशवावस्था थी , बालकों के समान जिनका भाव , भोलापन ,उदार भाव, निष्कपट व्यवहार , वेद के साहित्य को एक विलक्षण तथा पवित्र माधुर्य प्रदान करते हैं । वेद जिन महापुरूषों के हृदय का विकास था वे लोग मनु और याज्ञवल्क्य के समान समाज के आभ्यन्तरिक भेद , वर्ण-विवेक आदि के झगड़ों में पड़ समाज की उन्नति या अवनति की तरह-तरह की चिंता में नहीं पड़े थे ; कणाद या कपिल के समान अपने -अपने शास्त्र के मूलभूत बीजसूत्रों को आगे कर प्राकृतिक पदार्थों के तत्त्व की छान में दिन-रात नहीं डूबे रहते थे ; न कालिदास , भवभूति ,श्रीहर्ष आदि कवियों के संप्रदाय के अनुसार वे लोग कामिनी के विभ्रम -विलास और लावण्य -लीला -लहरी में गोते मार- मार प्रमत्त हुए थे । प्रातः काल उदयोन्मुख सूर्य की प्रतिभा देख उनके सीधे-सादे चित्त ने बिना कुछ विशेष छानबीन किए इसे अज्ञात और अजेय शक्ति समझ लिया । इसके द्वारा वे अनेक प्रकार का लाभ देख कानन -स्थित-विहंग -कूजन समान कलकल रव से प्रकृति प्रभात वंदना का साम गाने लगे , जल-भार - नत श्यामला मेघमाला का नवीन सौंदर्य देख पुलकित गात्र हो कृतज्ञता -सूचक उपहार की भाँति स्तोत्र का पाठ करने लगे ; वायु जब प्रबल वेग से बहने लगी तो उसे भी एक ईश्वरीय शक्ति समझ उसको शांत करने को वायु की स्तुति करने लगे इत्यादि । वे ही सब ़ऋक् और साम की पावन ़ऋचाएँ हो गईं । उस समय अब के समान राजनीतिक अत्याचार कुछ न था इसी से उनका साहित्य राजनीति की कुटिल उक्ति युक्ति से मलिन नहीं हुआ था । नए आए हुए आर्यों की नूतन ग्रंथित समाज के संस्थापना में सब तरह की अपूर्णता थी सही पर सबका निर्वाह अच्छी तरह हो जाता था ; किसी को किसी कारण से किसी प्रकार का अस्वास्थ्य न था ; आपस में एक -दूसरे के साथ अब का सा बनावट का कुटिल बर्ताव न था । इसलिए उस समय के उनके साहित्य वेद में भी कृत्रिम भक्ति, कृत्रिम सौहार्द , कपट वृत्ति ,बनावट और चुनाचुनी ने स्थान नहीं पाया । उन आर्यां का धर्म अब के समान गला घोंटने वाला न था । सब के साथ सब की खान-पान द्वारा सहानुभूति रहती थी । उनके बीच धार्मिक मनुष्य अब के धर्मध्वजियों के समान दांभिक बन महाव्याधि सदृश लोगों के लिए गलग्रह न थे । सिधाई ,भोलापन और उदार -भाव उनके साहित्य के एक-एक अक्षर से टपक रहा है । एक बार महात्मा ईसा एक सुकुमारमति बालक को अपने गोद में बैठाकर अपने शिष्यों की ओर इशारा करके बोले कि जो कोई छोटे बालकों के समान भोला न बने उसका स्वर्ग के राज्य में कुछ अधिकार नहीं है। हम भी कहते हैं जो सुकुमार -चित्त वेद-भाषी इन आर्यों की तरह पद-पद में ईश्वर का भय रख , प्राकृतिक पदार्थों के सौंदर्य पर मोहित हो , बालकों के समान सरलमति न हो उसका स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना अति दुष्कर है । 

इन्हीं प्राकृतिक पदार्थों का अनुशीलन करते-करते इन आर्यां को ईश्वर के विषय में जो-जो भाव उदय हुए वे ही सब एक नए प्रकार के साहित्य उपनिशद के नाम से कहलाए । जब इन आर्यों का समाज अधिक बढ़ा और लोगों की रीति-नीति और बर्ताव में विभिन्नता होती गई तब सबों को  एकता के सूत्र में बद्ध रखने के लिए और अपने-अपने गुण कर्म से लोग चल-विचल हो सामाजिक नियमों को जिसमें किसी प्रकार की हानि न पहुँचाएँ इसलिए स्मृतियों के साहित्य का जन्म हुआ । मनु, अत्रि ,हारीत ,याज्ञवल्क्य आदि ने अपने-अपने नाम की संहिता बना विविध प्रकार के राजनीतिक , सामाजिक और धर्म-संबंधी विषयों का सूत्रपात किया । इन्हीं के समकालीन गौतम ,कणाद , कपिल , जैमिनी ,पतंजलि आदि हुए जिन्होंने अपने-अपने सोचने का परिणाम रूप दर्शन शास्त्रों की बुनियाद डाली । यहाँ तक जो साहित्य हुए यद्यपि वेद की भाषा का अनुकरण उनमें होता गया परंतु नित्य-नित्य उनकी भाषा अधिक-अधिक सरल , कोमल और परिष्कृत होती गई ; तथापि इनकी गणना वैदिक भाषा में ही की जाती है । 

इन स्मृतियों और आर्य ग्रंथों की भाषा को हम वैदिक और आधुनिक संस्कृत के बीच की भाषा कह सकते हैं । अब से संस्कृत के दो खंड होते चले जो वेद तथा लोक के नाम से कहे जाते है। । पाणिनी के सूत्रों में, जो संस्कृत पाठियों के लिए कामधेनु का काम दे रहे हैं और जिनसे वैदिक और लौकिक सब प्रयोग सिद्ध होते हैं , लोक और वेद की निरख अच्छी तरह की गई है । और इसी वेद और लोक के अलग-अलग भेद से साबित होता है कि संस्कृत किसी समय प्रचलित भाषा थी जो लोगों के बोल-चाल के बर्ताव में लाई जाती थी । 

    वेद के उपरांत रामायण और महाभारत साहित्य के बड़े-बड़े अंग समझे गए । रामायण के समय भारतीय सभ्यता का प्रेमोच्छवास -परिप्लावित नूतन यौवन था ; किंतु महाभारत के समय भारतीय सभ्यता क्षतिग्रस्त हो वार्द्धक्य भाव को पहुँच गई थी । रामायण के प्रधान पुरूष रघुकुलावतंस श्री रामचंद्र थे और भारत के प्रधान पुरूष बुद्धि की तीक्ष्णता के रूप , कूट-युद्ध विशारद ,भगवान् वासुदेव श्रीकृष्ण या उनके हाथ की कठपुतली युधिष्ठिर थे । रामायण के समय से भारत के समय में लोगों के हृद्गत भाव में कितना अंतर हो गया था कि रामायण में दो प्रतिद्वंद्वी भाई इस बात के लिए विवाद कर रहे थे कि यह समस्त राज्य और राज्य -सिंहासन हमारा नहीं है यह सब तुम्हारे हाथ में रहे , अंत में रामचंद्र ने भरत को विवाद में पराभूत कर समस्त साम्राज्य उनके हस्तगत कर आप आनंद निर्भर-चित्त हो सस्त्रीक बनवासी हुए । वहीं महाभारत में दो दायाद भाई इस बात के लिए कलह करने पर सन्नद्ध हुए कि जितने में सुई का अग्रभाग ढंक जाए इतनी पृथ्वी भी बिना युद्ध के हम न देंगे “सूच्यग्रं नैव दास्यामि बिना युद्धेन केशव ” । परिणाम में एक भाई दूसरे पर जयलाभ कर तथा जंघा में गदाघात और मसत्क पर पदाघात से उसे बध कर भाई  के राज्य सिंहासन पर आरूढ़ हो सुख में फूल अनेक तरह के यज्ञ और दान में प्रवृत्त हुआ । रामायण और महाभारत के आचार्य क्रम से कविकुलगुरू वाल्मीकि और व्यास थे । पृथ्वी के और -और देशों में इनके समान या इनसे बढ़कर कवि नहीं हुए ऐसा नहीं है । यूनान देश में होमर , रूम देश में वरजिल , इटली में डेंटी , इंग्लैंड में चासर और मिलटन अपनी-अपनी असाधारण प्रतिभा से मनुष्य जाति का गौरव बढ़ाने में कुछ कम न थे । परंतु विचित्र कल्पना और प्रकृति के यथार्थ अनुकरण में चिरंतन वृद्ध वाल्मीकि के समान होमर तथा मिल्टन किसी अंश में नहीं बढ़ने पाए , जिनकी कविता के प्रधान नायक श्री रामचंद्र आर्य जाति के प्राण , दया के अमृतसागर , गांभीर्य और पौरूष दर्प की मानों सजीव प्रतिकृति थे । वे प्रीति और समभाव से महानीच जाति चांडाल तक को गले से लगाते थे । 

उन्होंने लंकेश्वर से प्रबल प्रतिद्वंद्वी शत्रु को भी कभी तृण के बराबर भी नहीं समझा। स्वर्णमंडित सिंहासन और तपोवन में पर्णकुटी उन्हें एक-सी सुखकारी हुई । उनके स्मितपूर्वाभिभाषित्व और उनकी बोलचाल की मुखमाधुरी पर मोहित हो दंडकारण्य की असभ्य -जाति ने भी अपने को उनका दास माना । अहा! धन्य श्री रामचंद्र का अलौकिक माहात्म्य , धन्य वाल्मीकि की कल्पना -सरसी जिसमें ऐसे-ऐसे स्वर्णकमल प्रस्फुटित हुए । 

 काल के परिवर्तन की कैसी महिमा है जो अपने साथ ही साथ मानुषी प्रकृति के परिवर्तन पर भी बहुत कुछ असर पैदा कर देता है । वाल्मीकि ने जिन-जिन बातों को अवगुण समझ अपनी कल्पना के प्रधान नायक रामचंद्र में बरकाया था वे ही सब व्यास के समय गुण हो गईं , जिनकी कविता का मुख्य लक्ष्य यही था कि अपना मान ,अपना गौरव ,अपना प्रभुत्व जहाँ तक हो सके न जाने पावे । भारत के हर एक प्रसंग का तोड़ अंत में इसी बात पर है । शत्रु - संहार और निज कार्य-साधन निमित्त व्यास ने महाभारत में जो-जो उपदेश दिए हैं और राजनीति की काट-ब्योंत जैसी -जैसी दिखाई है उसे सुन बिस्मार्क सरीखे इस समय के राजनीति के मर्म में कुशल राजपुरूषों की अकिल भी चरने चली जाती होगी। इससे निश्चय होता है कि प्रभुत्व और स्वार्थ -साधन तथा प्रवंचना परवश भारतवर्ष उस समय कहाँ तक उदार भाव , समवेदना आदि उत्तम गुणों से विमुख हो गया था । युधिष्ठिर धर्म के अवतार और सत्यवादी प्रसिद्ध हैं , पर उनकी सत्यवादिता निज कार्य -साधन के समय सब खुल गई । ‘अश्वत्थामा हतः नरो वा कुंजरो वा’ इत्यादि कितने उदाहरण इस बात के हैं विस्तारभय से नहीं लिखते । 

    महाभारत के उपरांत भारत और का और हो गया । इसकी दशा के परिवर्तन के साथ ही साथ इसके साहित्य में भी बड़ा परिवर्तन हो गया । उपरांत बौद्धों का ज़ोर हुआ । ये सब वेद और ब्राह्मणों के बड़े विरोधी थे । वेद की भाषा संस्कृत थी इसलिए इन्होंने संस्कृत को बिगाड़ प्राकृत भाषा जारी की । तब से संस्कृत सर्वसाधारण के बोलचाल की भाषा न रही । फिर भी संस्कृत -भाषी उस समय बहुत से लोग थे , जिन्होंने इस नई भाषा को प्राकृत नाम दिया जिसके अर्थ ही यह हैं कि प्राकृत अर्थात नीचों की भाषा । अतएव संस्कृत नाटकों में नीच पात्र की भाषा प्राकृत और उत्तम पात्र ब्राह्मण या राजा आदि की भाषा संस्कृत रखी गई है । कुछ काल उपरांत यह भाषा भी बहुत उन्नति को पहुंची । शौरसेनी , महाराष्ट्री , मागधी ,अर्धमागधी ,पैशाची आदि इसके अनेक भेद हैं इसमें भी बहुत से साहित्य के ग्रंथ बने । गुणाढय कवि का आर्यावद्ध लक्षश्लोक का ग्रंथ बृहत्कथा प्राकृत ही में है । सिवा इसके शालिवाहन -सप्तशती आदि कई एक उत्तम प्राकृत के ग्रंथ और भी मिलते हैं । 

नंद और चंद्रगुप्त के समय इस भाषा की बड़ी उन्नति की गई । जैनियों के सब ग्रंथ प्राकृत ही में हैं ; उनके स्तोत्र पाठ आदि भी सब इसी में हैं । इससे मालूम होता है कि प्राकृत किसी समय वेद की भाषा के समान पवित्र समझी गई थी । 

     संस्कृत यद्यपि बोलचाल की भाषा इस समय न रह गई थी , पर हर एक विषय के ग्रंथ इसमें एक से एक बढ़-चढ़कर बनते गए । और साहित्य की तो यहाँ तक तरक्की हुई कि कालिदास आदि कवियों की उक्तियुक्ति से मुकाबिले वेद के भद्दा और रूखा साहित्य अत्यंत फीका मालूम होने लगा । कालिदास की एक-एक उपमा पर और भवभूति ,भारवि ,श्रीहर्ष ,बाण की एक-एक छटा पर वेद का उमदा से उमदा सूक्त ,जिनमें हमारे पुराने आर्यां ने मरपच साहित्य की बड़ी भारी कारीगरी दिखलाई है , न्यौछावर हैं । संस्कृत के साहित्य के लिए विक्रमादित्य का समय ‘अगस्टन पीरियड’ कहलाता है अर्थात उस समय संस्कृत ,जहाँ तक उसके लिए परिष्कृत होना संभव था , अपनी पूर्ण सीमा तक पहुँच गई थी । यद्यपि भारवि ,माघ ,मयूर प्रभृति कई एक उत्तम कवि धाराधिपति भोजराज के समय तक और उनके उपरांत भी जगन्नाथ पंडितराज तक बराबर होते ही गए किंतु संस्कृत की परिष्कृत होने की सामग्री उस समय तक पूरी हो चुकी थी ।

भोज का समय तो यहाँ तक कविता की उन्नति का था कि एक-एक श्लोक के लिए असंख्य इनाम राजा भोज कवियों को देते थे । वेद का साहित्य उस समय यहाँ तक दब गया था कि छांदस मूर्ख की एक पदवी रक्खी गई थी । केवल पाठ-मात्र वेद जानने वाले छांदस कहलाते थे और वे अब तक भी निरे मूर्ख होते आए हैं । 

बौद्धों के उच्छेद के उपरांत एक ज़माना पुराण के साहित्य का भी हिन्दुस्तान में हुआ । उस समय बहुत से पुराण , उप-पुराण और संहिताएँ दो ही चार सौ वर्ष के हेर-फेर में रची गईं । अब हम लोगों में जो धर्म-शिक्षा ,समाज-शिक्षा और रीति-नीति प्रचलित है वह सब शुद्ध वैदिक एक भी नहीं है । थोड़े से ऐसे लोग हैं जो अपने को स्मार्त मानते हैं ,उनमें तो अलबत्ता अधिकांश वेदोक्त कर्म का यत्किंचित् प्रचार पाया जाता है । सो भी केवल नाममात्र को , पुराण उस में भी बीच-बीच आ घुसा है । हमारी विद्यमान छिन्न-भिन्न दशा ,जिसके कारण हज़ार -हज़ार चेष्टा करने पर भी जातीयता हमारे में आती ही नहीं , सब पुराण ही की कृपा है । जब तक शुद्ध वैदिक साहित्य हम लोगों में प्रचलित था तब तक जातीयता के दृढ़ नियमों में ज़रा भी अंतर नहीं होने पाया था । पुराणों के साहित्य के प्रचार से एक बड़ा लाभ भी हुआ कि वेद के समय की बहुत -सी घिनौनी रीतियों और रस्मों को , जिनके नाम लेने से भी हम घिना उठते हैं और उन सब महाघोर हिंसाओं को , जिनके सबब से अपने अहिंसा धर्म के प्रचार करने में बौद्धों को सुविधा हुई थी , पुराणकर्ताओं ने उठाकर शुद्ध सात्विकी धर्म को विशेष स्थापित किया । अनेक मतमतांतरों का प्रचार भी पुराणों ही की करतूत है । पुराण वाले तो पंचायतन पूजन ही तक से संतोष करके रह गए। तंत्रों ने बड़ा संहार किया । उन्होंने अनेक क्षुद्र देवता भैरों , काली , डाकिनी ,शाकिनी ,भूत ,प्रेत तक के पूजन को फैला दिया । मद्य -मांस के प्रचार को , जिसे बौद्धों ने तमोगुणी और मलिन समझ उठा दिया था ,तांत्रिकों ने फिर बहाल किया । पर बलवीर्य की पुष्टता से , जो मांसाहार का प्रधान लाभ था ,ये लोग फिर भी वंचित ही रहे । निःसंदेह तांत्रिकों की कृपा न होती तो हिंदुस्तान ऐसा जल्द न डूबता । वेद के अधिकारी शुद्ध ब्राह्मण के लिए तांत्रिक दीक्षा या तंत्र-मंत्र अति निषिद्ध हैं । ब्राह्मण तंत्र के पठन-पाठन से बहुत जल्द पतित हो सकता है यह जो किसी स्मृतिकार का मत है हमें भी कुछ-कुछ सयुक्तिक मालूम होता है । बहुत से पुराण तन्त्रों के बाद बने । उनमें भी तांत्रिकों का सिद्धांत पुष्ट किया गया है । 

  हम ऊपर लिख आए हैं कि हिंदू जाति में कौमियत के छिन्न-भिन्न होने का सूत्रपात पुराणों के द्वारा हुआ और तंत्रों ने उसे बहुत पुष्ट किया । शैव , शाक्त ,वैष्णव ,जैन ,बौद्ध इत्यादि अनेक जुदे-जुदे फिरके हो गए जिनमें इतना दृढ़ विरोध कायम हुआ कि एक-दूसरे के मुँह देखने के रवादार न हुए 

तब परस्पर का एका और सहानुभूति कहाँ रही । जब समस्त हिंदू जाति की एक वैदिक संप्रदाय न रही तो वही मसल चरितार्थ हुई कि “एक नारि जब दो से फँसी जैसे सत्तर वैसे अस्सी ” । हमारी एक हिन्दू जाति के असंख्य टुकड़े होते-होते यहाँ तक खंड हुए कि अब तक नए-नए धर्म और मत-प्रवर्तक होते ही जाते हैं । ये टुकड़े जितना वैष्णवों में अधिक हैं उतना शैव-शाक्तों में नहीं और आपस में एक दूसरे के साथ मेल और खान -पान जितना कम इनमें है उतना औरों में नहीं । राम के उपासक कृष्ण के उपासक से लड़ते हैं , कृष्ण के उपासक रामोपासकों से इत्तिफाक नहीं रखते । कृष्णोपासकों में भी सत्यानासिन अनन्यता ऐसी आड़े आई है कि यह इनके आपस ही में बड़ा खटपट लगाए रहती है । 

    प्राकृत के उपरांत हमारे देश के साहित्य के दो नमूने और मिलते हैं : एक पद्मावत और दूसरा पृथ्वीराज रासो । पद्मावत की कविता में तो किसी कदर कुछ थोड़ा-सा रस है भी पर पृथ्वीराज रासो में तारीफ के लायक कौन - सी बात है यह हमारी समझ में बिलकुल नहीं आती । प्राकृत से उतरते -उतरते हमारी विद्यमान हिंदी इस शकल में कैसे आई ,इस बात का पता अलबत्ता रासो से लगता है । मतमतांतर के साथ ही साथ हमारी भाषा भी गुजराती ,मरहठी , बंगाली इत्यादि के भेद से प्रत्येक प्रांत की जुदी-जुदी भाषा हो गई । इन एकदेशी भाषाओं में बंगाली सबसे अधिक कोमल , मधुर और सरस है । 

मराठी महाकठोर और कर्णकटु , तथा पंजाबी निहायत भद्दी ,कठोर और रूखापन में उर्दू की छोटी बहन है। अब अपनी हिंदी की ओर आइये । इसमें संदेह नहीं विस्तार में हिंदी अपनी बहिनों में सबसे बड़ी है । ब्रजभाषा ,बुंदेलखंडी , बैसवारे की तथा भोजपुरी इत्यादि इसके कई एक अवांतर भेद हैं  ।ब्रजभाषा में यद्यपि कुछ मिठास है पर यह इतनी जनानी बोली है कि इसमें सिवाय श्रंगार के दूसरा रस आ ही नहीं सकता । जिस बोली को कवियों ने अपने लिए चुन रक्खा है वह बुंदेलखंड की बोली है । इसमें अब प्रकार के काव्य और सब रस समा सकते हैं । अपनी-अपनी पसंद निराली होती है ‘भिन्नरूचिर्हि लोकः’ । हमें बैसवारे की मर्दानी बोली सबसे अधिक भली मालूम होती है । दूसरी भाषाएँ जैसे मराठी ,गुजराती ,बंगला की अपेक्षा कविता के अंश में हिंदी का साहित्य बहुत बढ़ा हुआ है तथा संस्कृत से कुछ ही न्यून है। किंतु गद्य -रचना ‘प्रोज़’ हिंदी का बहुत ही कम और पोच है । सिवाय एक प्रेमसागर -सी दरिद्र रचना के ,इसमें और कुछ हुई नहीं जिसे हम इसके साहित्य के भंडार में शामिल करते । दूसरे उर्दू इसकी ऐसी रेढ़ मारे हुए है कि शुद्ध हिंदी तुलसी , सूर इत्यादि कवियों की पद्य -रचना के अतिरिक्त और कहीं मिलती ही नहीं । प्रसंग प्राप्त अब हमें यहाँ उर्दू के साहित्य की समालोचना का भी अवसर प्राप्त हुआ है किंतु यह विषय अत्यंत ऊब पैदा करने वाला हो गया इससे इसे यहीं समाप्त करते हैं । उर्दू की समालोचना  फिर कभी करेंगे । 


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