Thursday, June 30, 2022

कहानी। Kahani | जादू । Jadoo | मुंशी प्रेमचंद | Munshi Premchand


 नीला,‘‘तुमने उसे क्यों लिखा?’’

मीना,‘‘किसको?’’

‘‘उसी को!’’

‘‘मैं नहीं समझती!’’

‘‘ख़ूब समझती हो! जिस आदमी ने मेरा अपमान किया, गली-गली मेरा नाम बेचता फिरा, उसे तुम्हारा मुंह लगाना उचित है?’’

‘‘तुम ग़लत कहती हो!’’

‘‘तुमने उसे ख़त नहीं लिखा?’’

‘‘कभी नहीं.’’

‘‘तो मेरी ग़लती थी क्षमा करो. मेरी बहन न होती, तो मैं तुमसे यह सवाल भी न पूछती.’’

‘‘मैंने किसी को ख़त नहीं लिखा.’’

‘‘मुझे यह सुनकर ख़ुशी हुई.’’

‘‘तुम मुस्कराती क्यों हो?’’

‘‘मैं?’’

‘‘जी हां, आप!’’

‘‘मैं तो ज़रा भी नहीं मुस्कराई.’’

‘‘मैंने अपनी आंखों देखा.’’

‘‘अब मैं कैसे तुम्हें विश्वास दिलाऊं?’’

‘‘तुम आंखों में धूल झोंकती हो.’’

‘‘अच्छा मुस्कराई. बस, या जान लोगी?’’

‘‘तुम्हें किसी के ऊपर मुस्कराने का क्या अधिकार है?’’

‘‘तेरे पैरों पड़ती हूं नीला, मेरा गला छोड़ दे. मैं बिल्कुल नहीं मुस्कराई.’’

‘‘मैं ऐसी अनीली नहीं हूं.’’

‘‘यह मैं जानती हूं.’’

‘‘तुमने मुझे हमेशा झूठी समझा है.’’

‘‘तू आज किसका मुंह देखकर उठी है?’’

‘‘तुम्हारा.’’

‘‘तू मुझे थोड़ी संखिया क्यों नहीं दे देती?’’

‘‘हां, मैं तो हत्यारन हूं ही.’’

‘‘मैं तो नहीं कहती.’’

‘‘अब और कैसे कहोगी, क्या ढोल बजाकर? मैं हत्यारन हूं, मदमाती हूं, दीदा-दिलेर हूं, तुम सर्वगुणागरी हो, सीता हो, सावित्री हो. ख़ुश?’’

‘‘लो कहती हूं, मैंने उसे पत्र लिखा फिर तुमसे मतलब? कौन होती हो मुझसे पूछनेवाली?’’

‘‘अच्छा किया लिखा, सचमुच मेरी बेवकूफ़ी थी कि मैंने तुमसे पूछा.’’

‘‘हमारी ख़ुशी, हम जिसको चाहेंगे ख़त लिखेंगे. जिससे चाहेंगे बोलेंगे. तुम कौन होती हो रोकने वाली? तुमसे तो मैं नहीं पूछने जाती. हां, रोज़ तुम्हें पुलिन्दों पत्र लिखते देखती हूं.’’

‘‘जब तुमने शर्म ही भून खाई, तो जो चाहो करो अख़्तियार है.’’

‘‘और तुम कब से बड़ी लज्जावती बन गईं? सोचती होगी, अम्मा से कह दूंगी, यहां इस की परवाह नहीं है. मैंने उन्हें पत्र भी लिखा, उनसे पार्क में मिली भी. बातचीत भी की. जाकर अम्मा से, दादा से, सारे मुहल्ले से कह दो.’’

‘‘जो जैसा करेगा, आप भोगेगा, मैं क्यों किसी से कहने जाऊं?’’

‘‘ओ हो, बड़ी धैर्यवाली, यह क्यों नहीं कहती, अंगूर खट्टे हैं?’’

‘‘जो तुम कहो, वही ठीक है.’’

‘‘दिल में जली जाती हो.’’

‘‘मेरी बला जले.’’

‘‘रो दो ज़रा.’’

‘‘तुम ख़ुद रोओ, मेरा अंगूठा रोए.’’

‘‘उन्होंने एक रिस्टवाच भेंट दी है, दिखाऊं?’’

‘‘मुबारक़! मेरी आंखों का सनीचर दूर होगा‍.’’

‘‘मैं कहती हूं, तुम इतनी जलती क्यों हो?’’

‘‘अगर मैं तुमसे जलती हूं तो मेरी आंखें पट्टम हो जाएं.’’

‘‘तुम जितना जलोगी, मैं उतना ही जलाऊंगी.’’

‘‘मैं जलूंगी ही नहीं.’’

‘‘जल रही हो साफ़’’

‘‘कब संदेशा आएगा?’’

‘‘जल मरो.’’

‘‘पहले तेरी भांवरें देख लूं.’’

‘‘भांवरों की चाट तुम्हीं को रहती है.’’

‘‘तो क्या बिना भांवरों का ब्याह होगा?’’

‘‘ये ढकोसले तुम्हें मुबारक़. मेरे लिए प्रेम काफ़ी है.’’

‘‘तो क्या तू सचमुच...’’

‘‘मैं किसी से नहीं डरती.’’

‘‘यहां तक नौबत पहुंच गई! और तू कह रही थी, मैंने उसे पत्र नहीं लिखा!’’

‘‘क्यों अपने दिल का हाल बतलाऊं?’’

‘‘मैं तो तुझसे पूछती न थी, मगर तू आप-ही-आप बक चली.’’

‘‘तुम मुस्कराई क्यों?’’

‘‘इसलिए कि यह शैतान तुम्हारे साथ भी वही दगा करेगा, जो उसने मेरे साथ किया और फिर तुम्हारे विषय में भी वैसी ही बातें कहता फिरेगा. और फिर तुम मेरी तरह रोओगी.’’

‘‘तुमसे उन्हें प्रेम नहीं था?’’

‘‘मुझसे! मेरे पैरों पर सिर रखकर रोता और कहता कि मैं मर जाऊंगा, ज़हर खा लूंगा.’’

‘‘सच कहती हो?’’

‘‘बिल्कुल सच.’’

‘‘यह तो वह मुझसे भी कहते हैं.’’

‘‘सच?’’

‘‘तुम्हारे सिर की कसम.’’

‘‘और मैं समझ रही थी, अभी वह दाने बिखेर रहा है.’’

‘‘क्या वह सचमुच.’’

‘‘पक्का शिकारी है.’’

मीना सिर पर हाथ रखकर चिंता में डूब गई.


Monday, June 27, 2022

ग़ज़ल । मिट गया जब मिटाने वाला फिर सलाम आया तो क्या आया । Mit Gaya Jab Mitane Wala Phir Salam Aya To Kya Aya | दिल शाहजहाँपुरी | Dil Shahjahanpuri


मिट गया जब मिटाने वाला फिर सलाम आया तो क्या आया
दिल की बरबादी के बाद उन का पयाम आया तो क्या आया

छूट गईं नबज़ें उम्मीदें देने वाली हैं जवाब
अब उधर से नामाबर लेके पयाम आया तो क्या आया

आज ही मिलना था ए दिल हसरत-ए-दिलदार में
तू मेरी नाकामीयों के बाद काम आया तो क्या आया


काश अपनी ज़िन्दगी में हम ये मंज़र देखते
अब सर-ए-तुर्बत कोई महशर-खिराम आया तो क्या आया
(तुर्बत = मक़बरा; महशर = क़यामत; खिराम = चलने का तरीका)

सांस उखड़ी आस टूटी छा गया जब रंग-ए-यास
नामबार लाया तो क्या ख़त मेरे नाम आया तो क्या आया

मिल गया वो ख़ाक में जिस दिल में था अरमान-ए-दीद
अब कोई खुर्शीद-वश बाला-इ-बाम आया तो क्या आया

                                        (खुर्शीद-वश = महबूब)


Friday, June 24, 2022

कविता। रोअहूं सब मिलिकै। Roahun Sab Milike | भारतेंदु हरिश्चंद्र | Bhartendu Harishchandra


 

रोअहू सब मिलिकै आवहु भारत भाई।

हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई॥ धु्रव॥

सबके पहिले जेहि ईश्वर धन बल दीनो।

सबके पहिले जेहि सभ्य विधाता कीनो॥

सबके पहिले जो रूप रंग रस भीनो।

सबके पहिले विद्याफल जिन गहि लीनो॥

अब सबके पीछे सोई परत लखाई।

हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई॥

जहँ भए शाक्य हरिचंदरु नहुष ययाती।

जहँ राम युधिष्ठिर बासुदेव सर्याती॥

जहँ भीम करन अर्जुन की छटा दिखाती।

तहँ रही मूढ़ता कलह अविद्या राती॥

अब जहँ देखहु दुःखहिं दुःख दिखाई।

हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई॥

लरि बैदिक जैन डुबाई पुस्तक सारी।

करि कलह बुलाई जवनसैन पुनि भारी॥

तिन नासी बुधि बल विद्या धन बहु बारी।

छाई अब आलस कुमति कलह अंधियारी॥

भए अंध पंगु सेब दीन हीन बिलखाई।

हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई॥

अँगरेराज सुख साज सजे सब भारी।

पै धन बिदेश चलि जात इहै अति ख़्वारी॥

ताहू पै महँगी काल रोग बिस्तारी।

दिन दिन दूने दुःख ईस देत हा हा री॥

सबके ऊपर टिक्कस की आफत आई।

हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई॥


कविता। हिमाद्रि तुंग शृंग से । Himadri Tung Shrang Se | जयशंकर प्रसाद | Jaishankar Prasad


 

हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती

स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती

'अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़- प्रतिज्ञ सोच लो,

प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो!'


असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी

सपूत मातृभूमि के- रुको न शूर साहसी!

अराति सैन्य सिंधु में, सुवाडवाग्नि से जलो,

प्रवीर हो जयी बनो - बढ़े चलो, बढ़े चलो!


कविता। सब जीवन बीता जाता है। Sab Jeewan Beeta Jata Hai | जयशंकर प्रसाद | Jaishankar Prasad


 

सब जीवन बीता जाता है

धूप छाँह के खेल सदॄश

सब जीवन बीता जाता है


समय भागता है प्रतिक्षण में,

नव-अतीत के तुषार-कण में,

हमें लगा कर भविष्य-रण में,

आप कहाँ छिप जाता है

सब जीवन बीता जाता है


बुल्ले, नहर, हवा के झोंके,

मेघ और बिजली के टोंके,

किसका साहस है कुछ रोके,

जीवन का वह नाता है

सब जीवन बीता जाता है


वंशी को बस बज जाने दो,

मीठी मीड़ों को आने दो,

आँख बंद करके गाने दो

जो कुछ हमको आता है


सब जीवन बीता जाता है.


कविता। आत्‍मकथ्‍य। Atmakathya | जयशंकर प्रसाद | Jaishankar Prasad


 

मधुप गुन-गुनाकर कह जाता कौन कहानी अपनी यह,

मुरझाकर गिर रहीं पत्तियाँ देखो कितनी आज घनी।

इस गंभीर अनंत-नीलिमा में असंख्‍य जीवन-इतिहास

यह लो, करते ही रहते हैं अपने व्‍यंग्‍य मलिन उपहास

तब भी कहते हो-कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती।

तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे-यह गागर रीती।

किंतु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करने वाले-

अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरने वाले।

यह विडंबना! अरी सरलते हँसी तेरी उड़ाऊँ मैं।

भूलें अपनी या प्रवंचना औरों की दिखलाऊँ मैं।

उज्‍ज्‍वल गाथा कैसे गाऊँ, मधुर चाँदनी रातों की।

अरे खिल-खिलाकर हँसतने वाली उन बातों की।

मिला कहाँ वह सुख जिसका मैं स्‍वप्‍न देकर जाग गया।

आलिंगन में आते-आते मुसक्‍या कर जो भाग गया।

जिसके अरूण-कपोलों की मतवाली सुन्‍दर छाया में।

अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में।

उसकी स्‍मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पंथा की।

सीवन को उधेड़ कर देखोगे क्‍यों मेरी कंथा की?

छोटे से जीवन की कैसे बड़े कथाएँ आज कहूँ?

क्‍या यह अच्‍छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ?

सुनकर क्‍या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्‍मकथा?

अभी समय भी नहीं, थकी सोई है मेरी मौन व्‍यथा।



कविता। अरुण यह मधुमय देश हमारा । Arun Yeh Madhumay Desh Humara | जयशंकर प्रसाद | Jaishankar Prasad


 

अरुण यह मधुमय देश हमारा।

जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।।

सरल तामरस गर्भ विभा पर, नाच रही तरुशिखा मनोहर।

छिटका जीवन हरियाली पर, मंगल कुंकुम सारा।।

लघु सुरधनु से पंख पसारे, शीतल मलय समीर सहारे।

उड़ते खग जिस ओर मुँह किए, समझ नीड़ निज प्यारा।।

बरसाती आँखों के बादल, बनते जहाँ भरे करुणा जल।

लहरें टकरातीं अनन्त की, पाकर जहाँ किनारा।।

हेम कुम्भ ले उषा सवेरे, भरती ढुलकाती सुख मेरे।

मंदिर ऊँघते रहते जब, जगकर रजनी भर तारा।।


कविता। भारत महिमा । Bharat Mahima | जयशंकर प्रसाद | Jaishankar Prasad


 

हिमालय के आँगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार

उषा ने हँस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक-हार


जगे हम, लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक

व्योम-तम पुँज हुआ तब नष्ट, अखिल संसृति हो उठी अशोक


विमल वाणी ने वीणा ली, कमल कोमल कर में सप्रीत

सप्तस्वर सप्तसिंधु में उठे, छिड़ा तब मधुर साम-संगीत


बचाकर बीज रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत

अरुण-केतन लेकर निज हाथ, वरुण-पथ पर हम बढ़े अभीत


सुना है वह दधीचि का त्याग, हमारी जातीयता विकास

पुरंदर ने पवि से है लिखा, अस्थि-युग का मेरा इतिहास


सिंधु-सा विस्तृत और अथाह, एक निर्वासित का उत्साह

दे रही अभी दिखाई भग्न, मग्न रत्नाकर में वह राह


धर्म का ले लेकर जो नाम, हुआ करती बलि कर दी बंद

हमीं ने दिया शांति-संदेश, सुखी होते देकर आनंद


विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम

भिक्षु होकर रहते सम्राट, दया दिखलाते घर-घर घूम


यवन को दिया दया का दान, चीन को मिली धर्म की दृष्टि

मिला था स्वर्ण-भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी सृष्टि


किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं

हमारी जन्मभूमि थी यहीं, कहीं से हम आए थे नहीं


जातियों का उत्थान-पतन, आँधियाँ, झड़ी, प्रचंड समीर

खड़े देखा, झेला हँसते, प्रलय में पले हुए हम वीर


चरित थे पूत, भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा संपन्न

हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न


हमारे संचय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव

वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा मे रहती थी टेव


वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान

वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य-संतान


जियें तो सदा इसी के लिए, यही अभिमान रहे यह हर्ष

निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष


कविता। तुम कनक किरन । Tum Kanak Kiran | जयशंकर प्रसाद | Jaishankar Prasad


 

तुम कनक किरन के अंतराल में

लुक छिप कर चलते हो क्यों ?


नत मस्तक गवर् वहन करते

यौवन के घन रस कन झरते

हे लाज भरे सौंदर्य बता दो

मोन बने रहते हो क्यो?


अधरों के मधुर कगारों में

कल कल ध्वनि की गुंजारों में

मधु सरिता सी यह हंसी तरल

अपनी पीते रहते हो क्यों?


बेला विभ्रम की बीत चली

रजनीगंधा की कली खिली

अब सांध्य मलय आकुलित दुकूल

कलित हो यों छिपते हो क्यों?


कविता। दो बूँदें । Do Boondein | जयशंकर प्रसाद | Jaishankar Prasad


 

शरद का सुंदर नीलाकाश

निशा निखरी, था निर्मल हास

बह रही छाया पथ में स्वच्छ

सुधा सरिता लेती उच्छ्वास

पुलक कर लगी देखने धरा

प्रकृति भी सकी न आँखें मूँद

सु शीतलकारी शशि आया

सुधा की मनो बड़ी सी बूँद!


कविता। बीती विभावरी जाग री । Beeti Vibhawari Jaag Ri | जयशंकर प्रसाद | Jaishankar Prasad


 

बीती विभावरी जाग री!

अम्बर पनघट में डुबो रही
तारा-घट ऊषा नागरी!

खग-कुल कुल-कुल-सा बोल रहा
किसलय का अंचल डोल रहा
लो यह लतिका भी भर ला‌ई-
मधु मुकुल नवल रस गागरी

अधरों में राग अमंद पिए
अलकों में मलयज बंद किए
तू अब तक सो‌ई है आली
आँखों में भरे विहाग री!

कविता। आह ! वेदना मिली विदाई । Ah! Vedana Mili Vidai | जयशंकर प्रसाद | Jaishankar Prasad


 

आह! वेदना मिली विदाई

मैंने भ्रमवश जीवन संचित,

मधुकरियों की भीख लुटाई


छलछल थे संध्या के श्रमकण

आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण

मेरी यात्रा पर लेती थी

नीरवता अनंत अँगड़ाई


श्रमित स्वप्न की मधुमाया में

गहन-विपिन की तरु छाया में

पथिक उनींदी श्रुति में किसने

यह विहाग की तान उठाई


लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी

रही बचाए फिरती कब की

मेरी आशा आह! बावली

तूने खो दी सकल कमाई


चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर

प्रलय चल रहा अपने पथ पर

मैंने निज दुर्बल पद-बल पर

उससे हारी-होड़ लगाई


लौटा लो यह अपनी थाती

मेरी करुणा हा-हा खाती

विश्व! न सँभलेगी यह मुझसे

इसने मन की लाज गँवाई


कविता। चित्राधार । Chitradhar | जयशंकर प्रसाद | Jaishankar Prasad


 

कानन-कुसुम -


पुन्य औ पाप न जान्यो जात।

सब तेरे ही काज करत है और न उन्हे सिरात ॥

सखा होय सुभ सीख देत कोउ काहू को मन लाय।

सो तुमरोही काज सँवारत ताकों बड़ो बनाय॥

भारत सिंह शिकारी बन-बन मृगया को आमोद।

सरल जीव की रक्षा तिनसे होत तिहारे गोद॥

स्वारथ औ परमारथ सबही तेरी स्वारथ मीत।

तब इतनी टेढी भृकुटी क्यों? देहु चरण में प्रीत॥


छिपी के झगड़ा क्यों फैलायो?

मन्दिर मसजिद गिरजा सब में खोजत सब भरमायो॥

अम्बर अवनि अनिल अनलादिक कौन भूमि नहि भायो।

कढ़ि पाहनहूँ ते पुकार बस सबसों भेद छिपायो॥

कूवाँ ही से प्यास बुझत जो, सागर खोजन जावै-

ऐसो को है याते सबही निज निज मति गुन गावै॥

लीलामय सब ठौर अहो तुम, हमको यहै प्रतीत।

अहो प्राणधन, मीत हमारे, देहु चरण में प्रीत॥


ऐसो ब्रह्म लेइ का करिहैं?

जो नहि करत, सुनत नहि जो कुछ जो जन पीर न हरिहै॥

होय जो ऐसो ध्यान तुम्हारो ताहि दिखावो मुनि को।

हमरी मति तो, इन झगड़न को समुझि सकत नहि तनिको॥

परम स्वारथी तिनको अपनो आनंद रूप दिखायो।

उनको दुख, अपनो आश्वासन, मनते सुनौ सुनाओ॥

करत सुनत फल देत लेत सब तुमही, यहै प्रतीत।

बढ़ै हमारे हृदय सदा ही, देहु चरण में प्रीत॥


और जब कहिहै तब का रहिहै।

हमरे लिए प्रान प्रिय तुम सों, यह हम कैसे सहिहै॥

तव दरबारहू लगत सिपारत यह अचरज प्रिय कैसो?

कान फुकावै कौन, हम कि तुम! रुचे करो तुम तैसो॥

ये मन्त्री हमरो तुम्हरो कछु भेद न जानन पावें।

लहि 'प्रसाद' तुम्हरो जग में, प्रिय जूठ खान को जावें॥


Wednesday, June 22, 2022

कहानी। राही । Rahi | सुभद्राकुमारी चौहान | Subhadra Kumari Chauhan



- तेरा नाम क्या है?

- राही

- तुझे किस अपराध में सजा हुई?

- चोरी की थी ,सरकार.

- चोरी ? क्या चुराया था?

- नाज की गठरी.

- कितना अनाज था?

- होगा पाँच-छः सेर.

- और सजा कितने दिन की है?

- साल भर की.

- तो तूने चोरी क्यों की ? मजदूरी करती तब भी दिन भर में तीन-चार आने पैसे मिल जाते.

- हमें मजदूरी नहीं मिलती सरकार . हमारी जाति माँगरोरी है. हम केवल मांगते-खाते है.

- और भीख न मिले तो ?

- तो फिर चोरी करते है. उस दिन घर में खाने को नहीं था. बच्चे भूख से तड़प रहे थे. बाजार में बहुत देर तक माँगा. बोझा ढ़ोने के लिए टोकरा लेकर भी बैठी रही. पर कुछ नही मिला. सामने किसी का बच्चा रो रहा था. उसे देखकर मुझे अपने भूखे बच्चे की याद आ गई. वहीं पर किसी की अनाज की गठरी रखी हुई थी. उसे लेकर भागी ही थी कि पुलिस ने पकड़ लिया.

   अनीता ने एक ठंडी सांस ली. बोली - फिर तूने कहा नहीं कि बच्चे भूखे थे, इसलिए चोरी की. संभव है इस बात से मजिस्ट्रेट कम सजा देता.

- हम गरीबों की कोई नहीं सुनता सरकार! बच्चे आये थे कचहरी में. मैंने सब कुछ कहा, पर किसी ने नहीं सुना. राही ने कहा.

- अब तेरे बच्चे किसके पास है? उनका बाप है ? उनका बाप है ? अनीता ने पूछा.

राही की आँखों में आँसू आ गए. वह बोली - उनका बाप मर गया सरकार! जेल में उसे मारा था. और वही अस्पताल में वह मर गया. अब बच्चों का कोई नहीं है.

- तो तेरे बच्चों का बाप भी जेल में ही मरा. वह क्यों जेल आया था ? अनीता ने प्रश्न किया.

- उसे तो बिना कसूर के ही पकड़ लिया था,सरकार, राही ने कहा- ताड़ी पीने को गया था. दो चार दोस्त उसके साथ थे. मेरे घरवाले का एक वक्त पुलिसवाले के साथ झगड़ा हो गया था. उसी का उसने बदला लिया. 109 में उसका चलान करके साल भर की सजा दिला दी. वहीं वह मर गया.

     अनीता ने एक दीर्घ निःश्वास के साथ कहा- अच्छा जा, अपना काम कर. राही चली गई. 

अनीता सत्याग्रह करके जेल में आई थी. पहले उसे ‘बी’ क्लास दिया गया था. फिर उसके घरवालों ने लिखा-पढ़ी करके उसे ‘ए’ क्लास दिलवा दिया.

      अनीता के सामने आज एक प्रश्न था ? वह सोच रही थी, कि देश की दरिद्रता और इन निरीह गरीबों के कष्टों को दूर करने का कोई उपाय नहीं है ? हम सभी परमात्मा के संतान हैं. एक ही देश के निवासी. कम से कम हम सबको खाने-पहनने का समान अधिकार तो है ही ? फिर यह क्या बात है कि कुछ लोग तो बहुत आराम से रहते है और कुछ लोग पेट के अन्न के लिए चोरी करते हैं ? उसके बाद विचारक के अदूरदर्शिता के कारण या सरकारी वकील के चातुर्यपूर्ण ज़िरह के कारण छोटे-छोटे बच्चों की माताएँ जेल भेज दी जाती है. उनके बच्चे भूखों मरने के लिए छोड़ दिए जाते हैं. एक ओर तो यह कैदी है, जो जेल आकर सचमुच जेल जीवन के कष्ट उठाती है,

और दूसरी ओर हैं हम लोग जो अपनी देशभक्ति और त्याग का ढिंढोरा पीटते हुए जेल आते हैं. हमें  आमतौर से दूसरे कैदियों के मुकाबले अच्छा बर्ताव मिलता है, फिर भी हमें संतोष नहीं होता. हम जेल आकर ‘ए’ और ‘बी’ क्लास के लिए झगड़ते हैं. जेल आकर ही हम कौन-सा बड़ा त्याग कर देते हैं ? जेल में हमें कौन सा कष्ट रहता है ? सिवा इसके कि हमारे माथे पर नेतृत्व की सील लग जाती है. हम बड़े अभिमान के साथ कहते हैं, ‘यह हमारी चौथी जेल यात्रा है’, ‘यह हमारी पांचवी जेल यात्रा है,’ और अपनी जेल यात्रा के किस्से बार-बार सुना-सुनाकर आत्म गौरव का अनुभव करते हैं; तात्पर्य यह है कि हम जितने बार जेल जा चुके होते है, उतनी ही सीढ़ी हम देशभक्ति और त्याग से दूसरों से ऊपर उठ जाते हैं और इसके बल पर जेल से छूटने के बाद, कांग्रेस को राजकीय सत्ता मिलते ही,हम मिनिस्टर, स्थानीय संस्थाओं के मेंबर और क्या-क्या हो जाते हैं. 

   अनीता सोच रही थी- कल तक जो खद्दर भी नहीं पहनते थे, बात-बात पर काँग्रेस का मजाक उड़ाते थे, काँग्रेस के हाथों में थोड़ी शक्ति आते ही वे काँग्रेस भक्त बन गए. खद्दर पहनने लगे, यहाँ तक कि जेल में भी दिखाई पड़ने लगे. वास्तव में यह देशभक्ति है या सत्ताभक्ति!

अनीता के विचारों का तांता लगा हुआ था. वह दार्शनिक हो रही थी. उसे अनुभव हुआ जैसे कोई भीतर-ही -भीतर उसे काट रहा हो. अनीता की विचारावली अनीता को ही खाये जा रही थी . 

उसे बार-बार यह लग रहा था कि उसकी देशभक्ति सच्ची देशभक्ति नहीं वरन् मज़ाक है. उसे आत्मग्लानि हुई और साथ-ही-साथ आत्मानुभूति भी. अनीता की आत्मा बोल उठी -वास्तव में सच्ची देशभक्ति तो इन गरीबों के कष्ट-निवारण में है.

ये कोई दूसरे नहीं, हमारी ही भारतमाता की संतानें हैं. इन हज़ारों, लाखों भूखे-नंगे भाई-बहिनों की यदि हम कुछ भी सेवा कर सकें, थोड़ा भी कष्ट-निवारण कर सकें तो सचमुच हमने अपने देश की कुछ सेवा की. हमारा वास्तविक देश तो देहातों में ही है. किसानों की दुर्दशा से हम सभी थोड़े -परिचित हैं, पर इन गरीबों के पास न घर है, न द्वार. अशिक्षा और अज्ञान का इतना गहरा पर्दा इनकी आंखों पर है कि होश संभालते ही माता पुत्री को और सास बहू को चोरी की शिक्षा देती है. और उनका यह विश्वास है कि चोरी करना और भीख मांगना ही उनका काम है. इससे अच्छा जीवन बिताने की वह कल्पना ही नहीं कर सकते. आज यहां डेरा डाल के रहे तो कल दूसरी जगह चोरी की. बचे तो बचे, नहीं तो फिर साल दो साल के लिए जेल. क्या मानव जीवन का यही लक्ष्य है? लक्ष्य है भी अथवा नहीं ? यदि नहीं है तो विचारादर्श की उच्च सतह पर टिके हुए हमारे जन-नायकों और युग-पुरूषों की हमें क्या आवश्यकता ? इतिहास, धर्म-दर्शन, ज्ञान-विज्ञान का कोई अर्थ नहीं होता ? पर जीवन का लक्ष्य है, अवश्य है. 

संसार की मृगमरीचिका में हम लक्ष्य को भूल जाते हैं. सतह के ऊपर तक पहुंच पानेवाली कुछेक महान आत्माओं को छोड़कर सारा जन-समुदाय संसार में अपने को खोया हुआ पाता है, कर्त्तव्याकर्त्तव्य का उसे ध्यान नहीं, सत्यासत्य की समझ नहीं, अन्यथा मानवीयता से बढ़कर कौन -सा मानव धर्म है? पतित मानवता को जीवन-दान देने की अपेक्षा भी कोई महत्तर पुण्य है? राही जैसी भोली-भाली किन्तु गुमराह आत्माओं के कल्याण की साधना जीवन की साधना होनी चाहिए. 

सत्याग्रही की यह प्रथम प्रतिज्ञा क्यों न हो? 

देशभक्ति का यही मापदंड क्यों न बने? अनीता दिन भर इन्हीं विचारों में डूबी रही. शाम को भी वह इसी प्रकार कुछ सोचते -सोचते सो गई. 

रात में उसने सपना देखा कि जेल से छुटकर वह इन्हीं मांगरोरी लोगों के गांव में पहुंच गई है. वहां उसने एक छोटा-सा आश्रम खोल दिया है. उसी आश्रम में एक तरफ छोटे-छोटे बच्चे पढ़ते हैं और स्त्रियां सूत काटती हैं. दूसरी तरफ मर्द कपड़ा बुनते हैं और रूई धुनकते हैं. शाम को रोज़ उन्हें धार्मिक पुस्तकें पढ़कर सुनाई जाती हैं और देश में कहां क्या हो रहा है, यह सरल भाषा में समझाया जाता है. वहीं भीख मांगने और चोरी करनेवाले आदर्श ग्रामवासी हो चले हैं. रहने के लिए उन्होंने छोटे-छोटे घर बना लिए हैं. 

राही के अनाथ बच्चों को अनीता अपने साथ रखने लगी है. अनीता यही सुख-स्वपन देख रही थी. रात में वह देर से सोई थी. सुबह सात बजे तक उसकी नींद न खुल पाई. अचानक स्त्री जेलर ने आकर उसे जगा दिया और बोली- आप घर जाने के लिए तैयार हो जाइए. आपके पिता बीमार हैं. आप बिना शर्त छोड़ी जा रही हैं. अनीता अपने स्वपन को सच्चाई में परिवर्तित करने की एक मधुर कल्पना ले घर चली गई.


(यह कहानी ‘सीधे-साधे चित्र’ कहानी संग्रह में संकलित है। जिसका प्रकाशन सन् 1947 में हुआ था। यह सुभद्राकुमारी चौहान का तीसरा और अंतिम कहानी संग्रह है।)


Monday, June 6, 2022

लघुकथा। न्याय घंटा। Nyaye Ghanta | चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ | Chandradhar Sharma Guleri


दिल्ली में अनंगपाल नामी एक बड़ा राय था . उसके महल के द्वार पर पत्थर के दो सिंह थे . इन सिंहों के पास उसने एक घंटी लगवाई कि जो न्याय चाहें उसे बजा दें, जिस पर राय उसे बुलाता , पुकार सुनता और न्याय करता . एक दिन एक कौआ आकर घंटी पर बैठा और घंटी बजाने लगा. राय ने पूछा - इसकी क्या पुकार है ?

यह बात अनजानी नहीं है कि कौए सिंह के दाँतों में से माँस निकाल लिया करते हैं . पत्थर के सिंह षिकार नहीं करते तो कौए को अपनी नित्य जीविका कहाँ से मिले ?

राय को निष्चय हुआ कि कौए की भूख की पुकार सच्ची है क्योंकि वह पत्थर के सिंहों के पास आन बैठा था . राय ने आज्ञा दी कि कई भेड़े-बकरे मारे जाएँ, जिससे कौए को दिन का भोजन मिल जाए .

Wednesday, June 1, 2022

कहानी। घीसू । Gheesu | जयशंकर प्रसाद | Jaishankar Prasad


सन्ध्या की कालिमा और निर्जनता में किसी कुएं पर नगर के बाहर बड़ी प्यारी स्वर-लहरी गूंजने लगती. घीसू को गाने का चसका था, परन्तु जब कोई न सुने. वह अपनी बूटी अपने लिए घोंटता और आप ही पीता!

जब उसकी रसीली तान दो-चार को पास बुला लेती, वह चुप हो जाता. अपनी बटुई में सब सामान बटोरने लगता और चल देता. कोई नया कुआं खोजता, कुछ दिन वहां अड्डा जमता.

सब करने पर भी वह नौ बजे नन्दू बाबू के कमरे में पहुंच ही जाता. नन्दू बाबू का भी वही समय था, बीन लेकर बैठने का. घीसू को देखते ही वह कह देते-आ गए, घीसू!

हां बाबू, गहरेबाजों ने बड़ी धूल उड़ाई-साफे का लोच आते-आते बिगड़ गया! कहते-कहते वह प्रायः अपने जयपुरी गमछे को बड़ी मीठी आंखों से देखता और नन्दू बाबू उसके कन्धे तक बाल, छोटी-छोटी दाढ़ी, बड़ी-बड़ी गुलाबी आंखों को स्नेह से देखते. घीसू उनका नित्य दर्शन करने वाला, उनकी बीन सुननेवाला भक्त था. नन्दू बाबू उसे अपने डिब्बे से दो खिल्ली पान की देते हुए कहते-लो, इसे जमा लो! क्यों, तुम तो इसे जमा लेना ही कहते हो न?

वह विनम्र भाव से पान लेते हुए हंस देता-उसके स्वच्छ मोती-से दांत हंसने लगते.

घीसू की अवस्था पचीस की होगी. उसकी बूढ़ी माता को मरे भी तीन वर्ष हो गए थे.

नन्दू बाबू की बीन सुनकर वह बाज़ार से कचौड़ी और दूध लेता, घर जाता, अपनी कोठरी में गुनगुनाता हुआ सो रहता.

उसकी पूंजी थी एक सौ रुपये. वह रेजगी और पैसे की थैली लेकर दशाश्वमेध पर बैठता, एक पैसा रुपया बट्टा लिया करता और उसे बारह-चौदह आने की बचत हो जाती थी.

गोविन्दराम जब बूटी बनाकर उसे बुलाते, वह अस्वीकार करता. गोविन्दराम कहते-बड़ा कंजूस है. सोचता है, पिलाना पड़ेगा, इसी डर से नहीं पीता.

घीसू कहता-नहीं भाई, मैं सन्ध्या को केवल एक ही बार पीता हूं.

गोविन्दराम के घाट पर बिन्दो नहाने आती, दस बजे. उसकी उजली धोती में गोराई फूटी पड़ती. कभी रेजगी पैसे लेने के लिए वह घीसू के सामने आकर खड़ी हो जाती, उस दिन घीसू को असीम आनन्द होता. वह कहती-देखो, घिसे पैसे न देना.

वाह बिन्दो! घिसे पैसे तुम्हारे ही लिए हैं? क्यों?

तुम तो घीसू ही हो, फिर तुम्हारे पैसे क्यों न घिसे होंगे?-कहकर जब वह मुस्करा देती; 

तो घीसू कहता-बिन्दो! इस दुनिया में मुझसे अधिक कोई न घिसा; इसीलिए तो मेरे माता-पिता ने घीसू नाम रक्खा था.

बिन्दो की हंसी आंखों में लौट जाती. वह एक दबी हुई सांस लेकर दशाश्वमेध के तरकारी-बाज़ार में चली जाती.

बिन्दो नित्य रुपया नहीं तुड़ाती; इसीलिए घीसू को उसकी बातों के सुनने का आनन्द भी किसी-किसी दिन न मिलता. तो भी वह एक नशा था, जिससे कई दिनों के लिए भरपूर तृप्ति हो जाती, वह मूक मानसिक विनोद था. घीसू नगर के बाहर गोधूलि की हरी-भरी क्षितिज-रेखा में उसके सौन्दर्य से रंग भरता, गाता, गुनगुनाता और आनन्द लेता. घीसू की जीवन-यात्रा का वही सम्बल था, वही पाथेय था.

सन्ध्या की शून्यता, बूटी की गमक, तानों की रसीली गुन्नाहट और नन्दू बाबू की बीन, सब बिन्दो की आराधना की सामग्री थी. घीसू कल्पना के सुख से सुखी होकर सो रहता.

उसने कभी विचार भी न किया था कि बिन्दो कौन है? किसी तरह से उसे इतना तो विश्वास हो गया था कि वह एक विधवा है; परन्तु इससे अधिक जानने की उसे जैसे आवश्यकता नहीं.

रात के आठ बजे थे, घीसू बाहरी ओर से लौट रहा था. सावन के मेघ घिरे थे, फूही पड़ रही थी. घीसू गा रहा था-‘‘निसि दिन बरसत नैन हमारे’’

सड़क पर कीचड़ की कमी न थी. वह धीरे-धीरे चल रहा था, गाता जाता था. सहसा वह रुका. एक जगह सड़क में पानी इकट्ठा था. छींटों से बचने के लिए वह ठिठक कर-किधर से चलें-सोचने लगा. पास के बगीचे के कमरे से उसे सुनाई पड़ा-यही तुम्हारा दर्शन है-यहां इस मुंहजली को लेकर पड़े हो. मुझसे....

दूसरी ओर से कहा गया-तो इसमें क्या हुआ! क्या तुम मेरी ब्याही हुई हो, जो मैं तुम्हे इसका जवाब देता फिरूं?-इस शब्द में भर्राहट थी, शराबी की बोली थी.

घीसू ने सुना, बिन्दो कह रही थी-मैं कुछ नहीं हूं लेकिन तुम्हारे साथ मैंने धरम बिगाड़ा है सो इसीलिए नहीं कि तुम मुझे फटकारते फिरो. मैं इसका गला घोंट दूंगी और-तुम्हारा भी....बदमाश....

ओहो! मैं बदमाश हूं! मेरा ही खाती है और मुझसे ही... ठहर तो, देखूं किसके साथ तू यहां आई है, जिसके भरोसे इतना बढ़-चढक़र बातें कर रही है! पाजी...लुच्ची...भाग, नहीं तो छुरा भोंक दूंगा!

छुरा भोंकेगा! मार डाल हत्यारे! मैं आज अपनी और तेरी जान दूंगी और लूंगी-तुझे भी फांसी पर चढ़वाकर छोड़ूंगी!

एक चिल्लाहट और धक्कम-धक्का का शब्द हुआ. घीसू से अब न रहा गया, उसने बगल में दरवाज़े पर धक्का दिया, खुला हुआ था, भीतर घूम-फिरकर पलक मारते-मारते घीसू कमरे में जा पहुंचा. बिन्दो गिरी हुई थी और एक अधेड़ मनुष्य उसका जूड़ा पकड़े था. घीसू की गुलाबी आंखों से ख़ून बरस रहा था. उसने कहा- हैं! यह औरत है...इसे...

मारनेवाले ने कहा-तभी तो, इसी के साथ यहां तक आई हो! लो, यह तुम्हारा यार आ गया.

बिन्दो ने घूमकर देखा-घीसू! वह रो पड़ी.

अधेड़ ने कहा-ले, चली जा, मौज कर! आज से मुझे अपना मुंह मत दिखाना!

घीसू ने कहा-भाई, तुम विचित्र मनुष्य हो. लो, चला जाता हूं. मैंने तो छुरा भोंकने इत्यादि और चिल्लाने का शब्द सुना, इधर चला आया. मुझसे तुम्हारे झगड़े से क्या सम्बन्ध!

मैं कहां ले जाऊंगा भाई! तुम जानो, तुम्हारा काम जाने. लो, मैं जाता हूं-कहकर घीसू जाने लगा.

बिन्दो ने कहा-ठहरो!

घीसू रुक गया.

बिन्दो चली, घीसू भी पीछे-पीछे बगीचे के बाहर निकल आया. सड़क सुनसान थी. दोनों चुपचाप चले.

गोदौलिया चौमुहानी पर आकर घीसू ने पूछा-अब तो तुम अपने घर चली जाओगी!

कहां जाऊंगी! अब तुम्हारे घर चलूंगी.

घीसू बड़े असमंजस में पड़ा. उसने कहा-मेरे घर कहां? नन्दू बाबू की एक कोठरी है, वहीं पड़ा रहता हूं, तुम्हारे वहां रहने की जगह कहां!

बिन्दो ने रो दिया. चादर के छोर से आंसू पोंछती हुई, उसने कहा-तो फिर तुमको इस समय वहां पहुंचने की क्या पड़ी थी. मैं जैसा होता, भुगत लेती! तुमने वहां पहुंच कर मेरा सब चौपट कर दिया-मैं कहीं की न रही!

सड़क पर बिजली के उजाले में रोती हुई बिन्दो से बात करने में घीसू का दम घुटने लगा. उसने कहा-तो चलो.

दूसरे दिन, दोपहर को थैली गोविन्दराम के घाट पर रख कर घीसू चुपचाप बैठा रहा. गोविन्दराम की बूटी बन रही थी. उसने कहा-घीसू, आज बूटी लोगे?

घीसू कुछ न बोला.

गोविन्दराम ने उसका उतरा हुआ मुंह देखकर कहा-क्या कहें घीसू! आज तुम उदास क्यों हो?

क्या कहूं भाई! कहीं रहने की जगह खोज रहा हूं-कोई छोटी-सी कोठरी मिल जाती, जिसमें सामान रखकर ताला लगा दिया करता.

गोविन्दराम ने पूछा-जहां रहते थे?

वहां अब जगह नहीं है. इसी मढ़ी में क्यों नहीं रहते! ताला लगा दिया करो, मैं तो चौबीस घण्टे रहता नहीं.

घीसू की आंखों में कृतज्ञता के आंसू भर आये.

गोविन्द ने कहा-तो उठो, आज तो बूटी छान लो.

घीसू पैसे की दूकान लगाकर अब भी बैठता है और बिन्दो नित्य गंगा नहाने आती है. वह घीसू की दूकान पर खड़ी होती है, उसे वह चार आने पैसे देता है. अब दोनों हंसते नहीं, मुस्कराते नहीं.

घीसू का बाहरी ओर जाना छूट गया है. गोविन्दराम की डोंगी पर उस पार हो आता है, लौटते हुए बीच गंगा में से उसकी लहरीली तान सुनाई पड़ती है; किन्तु घाट पर आते-आते चुप.

बिन्दो नित्य पैसा लेने आती. न तो कुछ बोलती और न घीसू कुछ कहता. घीसू की बड़ी-बड़ी आंखों के चारों ओर हलके गड्ढे पड़ गए थे, बिन्दो उसे स्थिर दृष्टि से देखती और चली जाती. दिन-पर-दिन वह यह भी देखती कि पैसों की ढेरी कम होती जाती है. घीसू का शरीर भी गिरता जा रहा है.

फिर भी एक शब्द नहीं, एक बार पूछने का काम नहीं.

गोविन्दराम ने एक दिन पूछा-घीसू, तुम्हारी तान इधर नहीं सुनाई पड़ी.

उसने कहा-तबीयत अच्छी नहीं है.

गोविन्द ने उसका हाथ पकड़कर कहा-क्या तुम्हें ज्वर आता है?

नहीं तो, यों ही आजकल भोजन बनाने में आलस करता हूं, अन्ड-बन्ड खा लेता हूं.

गोविन्दराम ने पूछा-बूटी छोड़ दिया, इसी से तुम्हारी यह दशा है.

उस समय घीसू सोच रहा था-नन्दू बाबू की बीन सुने बहुत दिन हुए, वे क्या सोचते होंगे!

गोविन्दराम के चले जाने पर घीसू अपनी कोठरी में लेट रहा. उसे सचमुच ज्वर आ गया.

भीषण ज्वर था, रात-भर वह छटपटाता रहा. बिन्दो समय पर आई, मढ़ी के चबूतरे पर उस दिन घीसू की दूकान न थी. वह खड़ी रही. फिर सहसा उसने दरवाज़ा ढकेल कर भीतर देखा-घीसू छटपटा रहा था! उसने जल पिलाया.

घीसू ने कहा-बिन्दो. क्षमा करना; मैंने तुम्हें बड़ा दुःख दिया. अब मैं चला. लो, यह बचा हुआ पैसा! तुम जानो भगवान्....कहते-कहते उसकी आंखें टंग गई. बिन्दों की आंखों से आंसू बहने लगे.

वह गोविन्दराम को बुला लाई.

बिन्दो अब भी बची हुई पूंजी से पैसे की दूकान करती है. उसका यौवन, रूप-रंग कुछ नहीं रहा. बच रहा-थोड़ा सा पैसा और बड़ा सा पेट-और पहाड़-से आनेवाले दिन!

निबंध | कवि और कविता | महावीर प्रसाद द्विवेदी | Nibandh | Kavi aur Kavita | Mahavir Prasad Dwivedi

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी निबंध - कवि और कविता यह बात सिद्ध समझी गई है कि कविता अभ्यास से नहीं आती। जिसमें कविता करने का स्वाभाविक माद्द...