Friday, September 23, 2022

कहानी | रुपा | सुभद्राकुमारी चौहान | Kahani | Rupa | Subhadra Kumari Chauhan


 
असमय की घंटी ने सभी को बेचैन-सा कर दिया । अभी आधा घंटा भी नहीं हुआ, मैट्रन जेल बंद करके गई है । फिर तुरंत ही वह घंटी कैसे? जेल-जीवन से घबराई हुई बहनों ने सोचा, शायद उनकी ही रिहाई का फरमान आया हो, जिनके मुलाकाती बहुत दिनों से न आए थे, उन्होंने अंदाज लगाया शायद उनसे कोई मिलने आया है । जिन्हें किसी तरह के सामान की प्रतीक्षा थी उन्होंने समझा, उनका सामान ही आया होगा ।

मेरी तीन साल की बेटी ममता दौड़ती हुई आई, और मेरे गले में लिपटकर बोली, अम्मा उठो चलो ! घंटी बजी है । फाटक खुलेगा । आज तो हम लोग भी छूटने वाले हैं ।

मैं अच्छी तरह जानती थी कि उसकी आशा कितनी निराधार है, फिर भी उसका मन रखने के लिए उसके साथ फाटक की ओर चल पड़ी ।

जमादारिन जल्दी-जल्दी अपना पल्ला संभालती हुई आई; ताला खोलकर उसने फाटक खोल दिया । असिस्टेंट जेलर के साथ एक चौबीस-पच्चीस साल की स्त्री अंदर आई और एक तरफ चुपचाप खड़ी हो गई । उसके साफ कपड़े और गंभीर मुद्रा से बहुत-सी बहनों ने अंदाज लगाया कि यह भी शायद राजबन्दिनी है । जेलर ने जमादारिन को बुलाया और उसे धीरे-धीरे समझाकर चला गया ।

जमादारिन ताला बन्द करके अंदर आई । अपनी हाथ की छड़ी से उस नई आई हुई स्त्री को मारती हुई बोली, चल हरामजादी ! बच्चे को मारना ही था तो उसे पैदा क्यों किया था ।

मार से वह स्त्री तिलमिला-सी उठी, फिर भी जमादारिन के आगे-आगे, जल्दी-ज़ल्दी चल पड़ी । शायद इस डर से कि कहीं दूसरा प्रहार भी न हो जाये । परंतु जमादारिन को इतने ही से संतोष कैसे हो जाता? उसने और भी जोर से मारते हुए और अश्लील गालियाँ देते हुए कहा, आँख दिखाती है रंडी ! देख तो नम्बरदारिन, उधेड़ ले चमड़ी, राँड की और गुनहखाने में बन्द कर दे ।

अब मुझसे न सहा गया । मैंने कहा, जमादारिन, मैट्रन ऐसा करे तो करे, पर तुम बाल-बच्चे वाली स्त्री ठहरीं, तुम किसी पर बिना जाने क्यों हाथ उठाती हो ।

जमादारिन का स्वर उसी समय बदल गया । उसने मुझे देखा ही न था; नहीं तो शायद इस बेरहमी से न मारती । बोली, आप नहीं जानतीं बहन जी, यह खूनी औरत है, अपने बच्चे को मार डाला है इसने ।

मैंने कहा, उसके अपराध की सजा तो कानून से छोटी सजा से लेकर फांसी तक की हो सकती है । तुम्हारा काम तो उसे अपनी देख-रेख में बन्द रखना भर है । तुम वही करो । सजा का काम देने वालों पर छोड़ दो ।

वह गुनहखाने में बन्द कर दी गई । सब लोग अपने-अपने काम में लग गए मगर मुझे उस औरत की याद न भूली । मैं उस गुनहखाने की तरफ गई । लकड़ी का दरवाजा खुला था । वह छड़ के दरवाजे में बन्द थी । मैं अंदर आँगन में गई तो देखा, वह औरत अभी उसी प्रकार बैठी थी, रोटी और दाल उसने छुई भी न थी । मैंने उससे पूछा, तुमने खाया क्यों नहीं?" खाना खा लो ।

उसने मेरी तरफ देखा । फिर उसकी आँखों में आँसू भर आए । मेरा भी जी भर आया । मैंने कहा, तुम रोयो मत, वर्ना मैं भी तुम्हारे साथ रोऊँगी । खाना खा लो, फिर मुझसे बतलायो कि तुम क्यों पकड़कर लाई गई हो । सचमुच तुमने...पर विश्वास नहीं होता कि कोई माँ अपने बच्चे को मार सकती है ।

अब वह फूट पड़ी । रोते-रोते बोली, कोई माँ मारे चाहे न मारे, मैंने तो अपनी बच्ची को मार डाला है बहन जी! यह बात सच है ।

-कैसे? मैंने आश्चर्य से पूछा।

-कैसे मारा, क्या बताऊँ...और वह फूट-फूट कर रोने लगी । मैं उसके पास बड़ी देर तक खड़ी रही । बहुत बार उससे खाने को कहा, पर उसने न तो खाया और न यही बतलाया कि उसने अपने बच्चे को क्यों और कैसे मारा । मैंने सोचा, इसके पास से जाऊँ तो शायद यह खाना खा ले और कुछ आराम भी कर ले । मैं अपने ओठे पर आकर लेट गई, और वहाँ कुछ देर तक पड़ी रही । एकाएक फाटक की घंटी बजी ओर फाटक खुला । मैंने देखा कि दो स्त्रियाँ रुपा को कहीं लिए जा रही हैं । पास ही खड़ी हुई कैदिन ने पूछा, रूपा को कहां लिए जा रहे हैं ये लोग?

वह धीरे-धीरे बोली, खूनी औरत है न इसलिए फांसी वार्ड में ले जा रहे हैं।

रूपा चली गई । पर मुझे उसका रोना, उसकी विषादभरी आँखें, उसका चेहरा भूलता न था । मन कहता था कि वह हत्यारिन नहीं है, पर मेरी आंखों के सामने वह फांसी वार्ड में गई, हत्या के जुर्म में पकड़कर आई, फिर अविश्वास के लिए कहां जगह थी?

धीरे-धीरे मैं रूपा को भूल चली थी । एक दिन अखबार के एक समाचार ने उस याद को ताजा कर दिया । समाचार था, ...गांव में रूपा नाम की स्त्री अपनी छह साल की बच्ची को लेकर कुएँ में कूद पड़ी...खबर होते ही गाँव वाले आ गए और माँ-बेटी को कुएँ से निकाला । बच्ची तो मर चुकी थी लेकिन रूपा को कोई हानि न पहुंची थी और वह बच्ची की हत्या करने के अपराध में पकड़कर जबलपुर सेंट्रल जेल में लाई गई । बच्ची को लेकर वह कुएँ में क्यों कूदी इसका कारण अज्ञात है ।

मैंने अखबार पढ़ा और जान गई कि हत्यारिन रुपा है । मेरे रहते ही दो महीने बाद एक रोज आजन्म कारावास का दंड लेकर रूपा फिर जेल में आ गई । दयालु मजिरट्रेट ने उसे फांसी न देकर आजन्म कारावास की सजा दी थी ।

रुपा सब स्त्रियों के साथ जेल में काम करती, मगर चेहरे पर विषाद की छाया बनी ही रहती । एक दिन मैं बीमार पड़ी और वह मेरे पास सेवा-सुश्रूषा के लिए भेजी गई । मैं करीब-करीब दो महीने बीमार रही । अस्पताल में मैं अकेली अपनी बच्ची के साथ रहती थी । रुपा दिन-रात मेरे पास रहती । मेरी बच्ची को वह बहुत ज्यादा प्यार करने लगी थी । बच्ची भी उसे घड़ी भर न छोड़ती थी । आश्चर्य तो यह था कि मेरी बच्ची साफ-साफ बोल न पाती थी, फिर भी रूपा उसकी सब बातें समझ लेती थी । एक दिन किसी ने बच्ची ममता को साफ न बोलने के लिए चिढ़ा दिया था और बेचारी उदास होकर सो गई थी । इसी चिंता में मुझे नींद न आ रही थी । जेल में एक बच्चा और था । उसे जेलवासिनी बहनें बहुत प्यार से रखतीं, उसके साथ खेलतीं, बातें करतीं, पर ममता साफ न बोल पाती थी, इसलिए उससे कोई न बोलता, उसे प्यार न करता, यहां तक कि खेलने के लिए सुंदर-सुंदर खिलौने, फल, मिठाई उस बच्चे को दिए जाते और ममता खड़ी-खड़ी टुकुर-टुकुर देखा करती और फिर रोती हुई दौड़कर मेरे पास आती और कहती, अम्मा ! भाभी ने बाबा को तस्वीर की किताब दी है, मिठाई दी है । अम्मा मुझे भी तस्वीर की किताब मंगा दो ।

जेल में वे चीजें मैं कैसे उसी समय मंगाकर दे सकती थी? कम-से-कम मेरे साथ तो जेल में यही होता था कि एक चीज पंद्रह दिन पहले कहने पर मिलती थी । ऐसी बातें प्राय: हो जाया करती थीं और इन्हीं कारणों से मैं बहुत दुखी रहा करती थी । उस दिन भी ऐसा ही कोई कारण था और मैं सो न सकी थी । रूपा मेरे पास आई बोली, हाथ-पैर दबा दूँ बहन जी? आपको नींद नहीं आती ।

मेरे बहुत रोकने पर भी रुपा मेरे पैर दबाने लगी । मैंने उसका हाथ पकड़कर उसे अपने पास बिठा लिया और कहा, रूपा आज तुम मुझे बताओ कि तुम बच्ची को लेकर कुएँ में क्यों कूदी थीं?

वह बैठ गई । उसके चेहरे का विषाद कुछ गहरा हो गया, बोली, बहन जी ! मेरी गोपा इसी तरह थी, जैसी आपकी ममता है । आपने बम्बई जाकर सैंकडों रुपए खर्च करके ममता का मुंह ठीक करवा लिया है, पर मेरे पास रुपया कहां से आता । गोपा का बाप कहता था, खूब रुपया कमाकर अपनी गोपा को बम्बई ले जाकर आपरेश्न करा देंगे, तब सब ठीक हो जाएगा । और इसलिए खूब रुपया कमाने के लिए वह लड़ाई पर चला गया । तबसे उसकी कोई खबर नहीं मिली । इधर मैं अकेली और जरा-सी गोपा, जहां मेहनत-मजूरी को जाती वहीं बच्चे और कभी बड़े-बड़े लोग तक गोपा को साफ न बोलने पर चिढ़ाया करते । लड़की चिढ़ती, दिन भर रोती, मैं उसका मुंह पकड़ती । बिना मेहनत-मजूरी के काम न चलता और जहाँ जाती वहीं यह बात होती । जिस दिन मै कुएं में कूदी थी, उसके एक दिन पहले मैं एक जगह मजूरी के लिए गई थी । ऊपर मैं कुछ काम कर रही थी और वहीं जीने पर गोपा एक लड़की लिए बैठी थी । नीचे मुहल्ले भर के दस-बारह लडके-लडकियाँ.. उसे चिढ़ा रहे थे । वह कभी इसे, कभी उसे मारने दौडती पर वे थे दस-बारह और गोपा अकेली । मैंने देखा । मुझे बड़ा क्रोध आ गया । गोपा को मैंने गोद में उठा लिया और पास ही जो लड़का उसकी चोटी खींच रहा था, उसे हलके से पीठ पर मार दिया । बस फिर इसी बात को लेकर उन लोगों से कहा-सुनी हो गई । अब मुझे काम भी न मिलता । पैसों की तंगी होने लगी । इधर बच्चे गोपा को और ज्यादा चिढ़ाकर तंग करने लगे । सोचा अभी छोटी है, समझती कम है, जब बड़ी होगी तब गोपा को कितना बुरा लगेगा, मेरी गोपा दुखी हो जाया करेगी और कहीं मैं मर गई तो...फिर बहन जी। मेरे मरने के बाद गोपा की जो दुर्दशा होगी उसे सोचकर मैं पागल हो गई और उस दुर्दशा तक गोपा न पहुंच सके, इसलिए...

आगे वह कुछ न कह सकी । पास ही पड़ी हुई ममता को मैंने और पास खींचकर छाती से लगा लिया । मेरी छाया मुझसे बात कर रही थी ।


(यह कहानी ‘सीधे-साधे चित्र’ कहानी संग्रह में संकलित है। जिसका प्रकाशन सन् 1947 में हुआ था। यह सुभद्राकुमारी चौहान का तीसरा और अंतिम कहानी संग्रह है।)


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