Saturday, September 17, 2022

निबंध | शिवशंभु के चिट्ठे | बालमुकुंद गुप्त | Nibandh | Shivshambhu ke Chitthe | Balmukund Gupt



1. बनाम लार्ड कर्जन


माई लार्ड! लड़कपन में इस बूढ़े भंगड़ को बुलबुल का बड़ा चाव था। गाँव में कितने ही शौकीन बुलबुलबाज थे। वह बुलबुलें पकड़ते थे, पालते थे और लड़ाते थे, बालक शिवशम्भु शर्मा बुलबुलें लड़ाने का चाव नहीं रखता था। केवल एक बुलबुल को हाथ पर बिठाकर ही प्रसन्न होना चाहता था। पर ब्राह्मण कुमार को बुलबुल कैसे मिले? पिता को यह भय कि बालक को बुलबुल दी तो वह मार देगा, हत्या होगी। अथवा उसके हाथ से बिल्ली छीन लेगी तो पाप होगा। बहुत अनुरोध से यदि पिता ने किसी मित्र की बुलबुल किसी दिन ला भी दी तो वह एक घण्टे से अधिक नहीं रहने पाती थी। वह भी पिता की निगरानी में।


सराय के भटियारे बुलबुलें पकड़ा करते थे। गाँव के लड़के उनसे दो-दो तीन-तीन पैसे में खरीद लाते थे। पर बालक शिवशम्भु तो ऐसा नहीं कर सकता था। पिता की आज्ञा बिना वह बुलबुल कैसे लावे और कहाँ रखे? उधर मन में अपार इच्छा थी कि बुलबुल जरूर हाथ पर हो। इसी से जंगल में उड़ती बुलबुल को देखकर जी फड़क उठता था। बुलबुल की बोली सुनकर आनन्द से हृदय नृत्य करने लगता था। कैसी-कैसी कल्पनाएं हृदय में उठती थीं। उन सब बातों का अनुभव दूसरों को नहीं हो सकता। दूसरों को क्या होगा? आज यह वही शिवशम्भु है, स्वयं इसी को उस बालकाल के अनिर्वचनीय चाव और आनन्द का अनुभव नहीं हो सकता।


बुलबुल पकड़ने की नाना प्रकार की कल्पनाएं मन ही मन में करता हुआ बालक शिवशम्भु सो गया। उसने देखा कि संसार बुलबुलमय है। सारे गांव में बुलबुलें उड़ रही है। अपने घर के सामने खेलने का जो मैदान है, उसमें सैकड़ों बुलबुल उड़ती फिरती है। फिर वह सब ऊंची नहीं उड़तीं। बहुत नीची नीची उड़ती है। उनके बैठने के अड्डे भी नीचे नीचे है। वह कभी उड़ कर इधर जाती हैं और कभी उधर, कभी यहां बैठती है और कभी वहाँ, कभी स्वयं उड़कर बालक शिवशम्भु के हाथ की उंगलियों पर आ बैठती है। शिवशम्भु आनन्द में मस्त होकर इधर-उधर दौड़ रहा है। उसके दो तीन साथी भी उसी प्रकार बुलबुलें पकड़ते और छोड़ते इधर उधर कूदते फिरते है।


आज शिवशम्भु की मनोवांछा पूर्ण हुई। आज उसे बुलबुलों की कमी नहीं है। आज उसके खेलने का मैदान बुलबुलिस्तान बन रहा है। आज शिवशम्भु बुलबुलों का राजा ही नहीं, महाराजा है। आनन्द का सिलसिला यहीं नहीं टूट गया। शिवशम्भु ने देखा कि सामने एक सुन्दर बाग है। वहीं से सब बुलबुलें उड़कर आती हैं। बालक कूदता हुआ दौड़कर उसमें पहुँचा। देखा, सोने के पेड़ पत्ते और सोने ही के नाना रंग के फूल हैं। उन पर सोने की बुलबुलें बैठी गाती हैं और उड़ती फिरती हैं। वहीं एक सोने का महल है। उसपर सैकड़ों सुनहरी कलश हैं। उनपर भी बुलबुलें बैठी हैं। बालक दो तीन साथियों सहित महल पर चढ़ गया। उस समय वह सोने का बागीचा सोने के महल और बुलबुलों सहित एक बार उड़ा। सब कुछ आनन्द से उड़ता था, बालक शिवशम्भु भी दूसरे बालकों सहित उड़ रहा था। पर यह आमोद बहुत देर तक सुखदायी न हुआ। बुलबुलों का ख्याल अब बालक के मस्तिष्क से हटने लगा। उसने सोचा- हैं! मैं कहाँ उड़ा जाता हूँ? माता पिता कहाँ? मेरा घर कहाँ? इस विचार के आते ही सुखस्वप्न भंग हुआ। बालक कुलबुलाकर उठ बैठा। देखा और कुछ नहीं, अपना ही घर और अपनी ही चारपाई है। मनोराज्य समाप्त हो गया।


आपने माई लार्ड! जबसे भारतवर्ष में पधारे हैं, बुलबुलों का स्वप्न ही देखा है या सचमुच कोई करने के योग्य काम भी किया है? खाली अपना खयाल ही पूरा किया है या यहाँ की प्रजा के लिये भी कुछ कर्तव्य पालन किया? एक बार यह बातें बड़ी धीरता से मन में विचारिये। आपकी भारत में स्थिति की अवधि के पांच वर्ष पूरे हो गये अब यदि आप कुछ दिन रहेंगे तो सूद में, मूलधन समाप्त हो चुका। हिसाब कीजिये नुमायशी कामों के सिवा काम की बात आप कौन सी कर चले हैं और भड़कबाजी के सिवा ड्यूटी और कर्तव्य की ओर आपका इस देश में आकर कब ध्यान रहा है? इस बार के बजट की वक्तृता ही आपके कर्तव्य काल की अंतिम वक्तृता थी। जरा उसे पढ़ तो जाइये फिर उसमें आपकी पांच साल की किस अच्छी करतूत का वर्णन है। आप बारम्बार अपने दो अति तुम तराक से भरे कामों का वर्णन करते हैं। एक विक्टोरिया मिमोरियल हाल और दूसरा दिल्ली-दरबार। पर जरा विचारिये तो यह दोनों काम "शो” हुए या "ड्यूटी"? विक्टोरिया मिमोरियलहाल चंद पेट भरे अमीरों के एक दो बार देख आने की चीज होगा उससे दरिद्रों का कुछ दु:ख घट जावेगा या भारतीय प्रजा की कुछ दशा उन्नत हो जावेगी, ऐसा तो आप भी न समझते होंगे।


अब दरबार की बात सुनिये कि क्या था? आपके खयाल से वह बहुत बड़ी चीज था। पर भारत वासियों की दृष्टि में वह बुलबुलों के स्वप्न से बढ़कर कुछ न था। जहाँ-जहाँ से वह जुलूस के हाथी आये, वहीं-वहीं सब लौट गये। जिस हाथी पर आप सुनहरी झूलें और सोने का हौदा लगवाकर छत्र-धारण-पूर्वक सवार हुए थे, वह अपने कीमती असबाब सहित जिसका था, उसके पास चला गया। आप भी जानते थे कि वह आपका नहीं और दर्शक भी जानते थे कि आपका नहीं। दरबार में जिस सुनहरी सिंहासन पर विराजमान होकर आपने भारत के सब राजा महाराजाओं की सलामी ली थी, वह भी वहीं तक था और आप स्वयं भली-भांति जानते हैं कि वह आपका न था। वह भी जहाँ से आया था वहीं चला गया। यह सब चीजें खाली नुमायशी थीं। भारतवर्ष में वह पहले ही से मौजूद थीं। क्या इन सबसे आपका कुछ गुण प्रकट हुआ? लोग विक्रम को याद करते हैं या उसके सिंहासन को, अकबर को या उसके तख्त को? शाहजहाँ की इज्जत उसके गुणों से थी या तख्तेताऊस से? आप जैसे बद्धिमान पुरुष के लिये यह सब बातें विचारने की हैं।


चीज वह बनना चाहिये जिसका कुछ देर कयाम हो। माता-पिता की याद आते ही बालक शिवशम्भु का सुखस्वप्न भंग हो गया। दरबार समाप्त होते ही वह दरबार-भवन, वह एम्फीथियेटर तोड़कर रख देने की वस्तु हो गया। उधर बनाना, इधर उखाड़ना पड़ा। नुमायशी चीजों का यही परिणाम है। उनका तितलियों का सा जीवन होता है। माई माई लार्ड! आपने कछाड़ के चायवाले साहबों की दावत खाकर कहा था कि यह लोग यहां नित्य हैं और हम लोग कुछ दिन के लिये। आपके वह "कुछ दिन" बीत गये। अवधि पूरी हो गई। अब यदि कुछ दिन और मिलें तो वह किसी पुराने पुण्य के बल से समझिये। उन्हीं की आशा पर शिवशम्भु शर्मा यह चिट्ठा आपके नाम भेज रहा है, जिससे इन माँगे दिनों में तो एक बार आपको अपने कर्तव्य का खयाल हो।


जिस पद पर आप आरूढ़ हुए वह आप का मौरूसी नहीं- नदीनाव संयोग की भांति है। आगे भी कुछ आशा नहीं कि इस बार छोड़ने के बाद आप का इससे कुछ संबंध रहे। किंतु जितने दिन आपके हाथ में शक्ति है, उतने दिन कुछ करने की शक्ति भी है। जो कुछ आपने दिल्ली आदि में कर दिखाया उसमें आपका कुछ भी न था, पर वह सब कर दिखाने की शक्ति आप में थी। उसी प्रकार जाने से पहले, इस देश के लिये कोई असली काम कर जाने की शक्ति आप में है। इस देश की प्रजा के हृदय में कोई स्मृति-मंदिर बना जाने की शक्ति आपमें है। पर यह सब तब हो सकता है, कि वैसी स्मृति की कुछ कदर आपके हृदय में भी हो। स्मरण रहे धातु की मूर्तियों के स्मृति चिह्न से एक दिन किले का मैदान भर जायगा। महारानी का स्मृति-मंदिर मैदान की हवा रोकता था या न रोकता था, पर दूसरों की मूर्तियाँ इतनी हो जावेंगी कि पचास-पचास हाथ पर हवा को टकराकर चलना पड़ेगा। जिस देश में लार्ड लैंसडौन की मूर्ति बन सकती है, उसमें और किस किसकी मूर्ति नहीं बन सकती? माई लार्ड! क्या आप भी चाहते हैं कि उसके आसपास आप की एक वैसी ही मूर्ति खड़ी हो?


यह मूर्तियाँ किस प्रकार के स्मृति चिह्न हैं? इस दरिद्र देश के बहुत-से धन की एक ढेरी है, जो किसी काम नहीं आ सकती। एक बार जाकर देखने से ही विदित होता है कि वह कुछ विशेष पक्षियों के कुछ देर विश्राम लेने के अड्डे से बढ़कर कुछ नहीं है। माई माई लार्ड! आपकी मूर्ति की वहाँ क्या शोभा होगी? आइये मूर्तियाँ दिखावें। वह देखिये एक मूर्ति है, जो किले के मैदान में नहीं है, पर भारत वासियों के हृदय में बनी हुई है। पहचानिये, इस वीर पुरुष ने मैदान की मूर्ति से इस देश के करोड़ों गरीबों के हृदय में मूर्ति बनवाना अच्छा समझा। यह लार्ड रिपन की मूर्ति है। और देखिये एक स्मृति मंदिर, यह आपके पचास लाख के संगमर्मर वाले से अधिक मजबूत और सैकड़ो गुना कीमती है। यह स्वर्गीया विक्टोरिया महारानी का सन् 1858 ई. का घोषणापत्र है। आपकी यादगार भी यहीं बन सकती है, यदि इन दो यादगारों की आपके जीमें कुछ इज्जत हो।


मतलब समाप्त हो गया। जो लिखना था, वह लिखा गया। अब खुलासा बात यह है कि एक बार 'शो' और 'ड्यूटी' का मुकाबिला कीजिये। 'शो' को 'शो' ही समझिये। 'शो' ड्यूटी नहीं है! माई लार्ड! आपके दिल्ली-दरबार की याद कुछ दिन बाद उतनी ही रह जावेगी जितनी शिवशम्भु शर्मा के सिर में बालकपन के उस सुखस्वप्न की है।


2. श्रीमान्-का स्वागत्


जो अटल है, वह टल नहीं सकती। जो होनहार है, वह होकर रहती है। इसी से फिर दो वर्ष के लिये भारत के वैसराय और गवर्नर जनरल होकर लार्ड कर्जन आते हैं। बहुत से विघ्नों को हटाते और बाधाओं को भगाते फिर एक बार भारत भूमि में आपका पदार्पण होता है। इस शुभ यात्रा के लिये वह गत नवम्बर को सम्राट एडवर्ड से भी विदा ले चुके है। दर्शन में अब अधिक विलम्ब नहीं है।


इस समय भारतवासी यह सोच रहे हैं कि आप क्यों आते है और आप यह जानते भी हैं कि आप क्यों आते हैं। यदि भारत वासियों का बस चलता तो आपको न आने देते और आपका बस चलता तो और भी कई सप्ताह पहले आ विराजते। पर दोनों ओर की बाग किसी और ही के हाथ में हैं। निरे बेबश भारतवासियों का कुछ बस नहीं है और बहुत बातों पर बस रखने वाले लार्ड कर्जन को भी बहुत बातों में बेबश होना पड़ता है। इसी से भारतवासियों को लार्ड कर्जन का आना देखना पड़ता है और उक्त श्रीमान को अपने चलने में विलम्ब देखना पड़ा। कवि कहता है


"जो कुछ खुदा दिखाये, सो लाचार देखना।"


अभी भारतवासियों को बहुत कुछ देखना है और लार्ड कर्जन को भी बहुत कुछ। श्रीमान को नये शासन काल के यह दो वर्ष निसंदेह देखने की वस्तु होंगे। अभी से भारतवासियों की दृष्टियाँ सिमटकर उस ओर जा पड़ी हैं। यह जबरदस्त द्रष्टा लोग अब बहुत काल से केवल निर्लिप्त निराकार तटस्थ द्रष्टा की अवस्था में अतृप्त लोचन से देख रहे हैं और न जाने कब तक देखे जावेंगे। अथक ऐसे हैं कि कितने ही तमाशे देख गये, पर दृष्टि नहीं हटाते हैं। उन्होंने पृथ्वीराज, जयचंद की तबाही देखी, मुसलमानों की बादशाही देखी। अकबर, बीरबल, खानखाना

और तानसेन देखे, शाहजहानी तख्तताऊस और शाही जुलूस देखे। फिर वही तख्त नादिर को उठाकर ले जाते देखा। शिवाजी और औरंगजेब देखे, क्लाइव हेस्टिंग्स से वीर अंग्रेज देखे। देखते-देखते बड़े शौक से लार्ड कर्जन का हाथियों का जुलूस और दिल्ली-दरबार देखा। अब गोरे पहलवान मिस्टर सेण्डोका छातीपर कितने ही मन बोझ उठाना देखने को टूट पड़ते हैं। कोई दिखाने वाला चाहिये भारतवासी देखने को सदा प्रस्तुत हैं। इस गुण में वह मोंछ मरोड़कर कह सकते हैं कि संसार में कोई उनका सानी नहीं। लार्ड कर्जन भी अपनी शासित प्रजा का यह गुण जान गये थे, इसी से श्रीमान् ने लीलामय रुप धारण करके कितनी ही लीलाएं दिखाई।


इसी से लोग बहुत कुछ सोच विचार कर रहे हैं कि इन दो वर्षों में भारत प्रभु लार्ड कर्जन और क्या-क्या करेंगे। पिछले पांच साल से अधिक समय में श्रीमान् ने जो कुछ किया, उसमें भारतवासी इतना समझने लगे हैं कि श्रीमान् की रुचि कैसी है और कितनी बातों को पसंद करते हैं। यदि वह चाहें तो फिर हाथियों का एक बड़ा भारी जुलूस निकलवा सकते हैं। पर उसकी वैसी कुछ जरूरत नहीं जान पड़ती। क्योंकि जो जुलूस वह दिल्ली में निकलवा चुके हैं, उसमें सबसे ऊंचे हाथी पर बैठ चुके हैं, उससे ऊंचा हाथी यदि सारी पृथ्वी में नहीं तो भारतवर्ष में तो और नहीं है। इसी से फिर किसी हाथी पर बैठने का श्रीमान् को और क्या चाव हो सकता है? उससे ऊंचा हाथी और नहीं है। ऐरावत का केवल नाम है, देखा किसी ने नहीं है। मेमथ की हड्डियां किसी-किसी अजायब खाने में उसी भांति आश्चर्य की दृष्टि से देखी जाती हैं, जैसे श्रीमान् के स्वदेश के अजायबखाने में कोई छोटा मोटा हाथी। बहुत लोग कह सकते हैं कि हाथी की छोटाई-बड़ाई पर बात नहीं, जुलूस निकले तो फिर भी निकल सकता है। दिल्ली नहीं तो कहीं और सही। क्योंकि दिल्ली में आतशबाजी खूब चल चुकी थी, कलकत्ते में फिर चलाई गई। दिल्ली में हाथियों की सवारी हो चुकने पर भी कलकत्ते में रोशनी और घोडागाड़ी का तार जमा था। कुछ लोग कहते हैं कि जिस काम को लार्ड कर्जन पकड़ते है, पूरा करके छोड़ते है। दिल्ली दरबार में कुछ बातों की कसर रह गयी थी। उदयपुर के महाराणा न तो हाथियों के जुलूस में साथ चल सके न दरबार में हाजिर होकर सलामी देने का मौका उनको मिला। इसी प्रकार बड़ोदा नरेश हाथियों के जुलूस में शामिल न थे। वह दरबार में भी आये तो बड़ी सीधी सादी पोशाक में। इतनी सीधी सादी में जितनी से आज कलकत्ते में फिरते हैं। वह ऐसा तुमतराक और ठाठ-बाठ का समय था कि स्वयं श्रीमान् वैसराय को पतलून तक कारचोबी की पहनना और राजा महाराजों को काठ की तथा ड्यूक आफ कनाट को चांदी की कुरसी पर बिठाकर स्वयं सोने के सिंहासन पर बैठना पड़ा था। उस मौके पर बड़ौदा नरेश का इतनी सफाई और सादगी से निकल जाना एक नई आन था। इसके सिवा उन्होंने झुक के सलाम नहीं किया था, बड़ी सादगी से हाथ मिलाकर चल दिये थे। यह कई एक कसरें ऐसी हैं, जिनके मिटाने को फिर दरबार हो सकता है। फिर हाथियों का जुलूस निकल सकता है।


इन लोगों के विचार में कलाम नहीं। पर समय कम है, काम । बहुत होंगे। इसके सिवा कई राजा महाराजा पहले दरबार ही में खर्च से इतने दब चुके हैं कि श्रीमान् लार्ड कर्जन के बाद यदि दो वैसराय और आवें और पांच-पांच की जगह सात-सात साल तक शासन करें, तब तक भी उनका सिर उठाना कठिन है। इससे दरबार या हाथियों के जुलूस की फिर आशा रखना व्यर्थ है। पर सुना है कि अब के विद्या का उद्धार श्रीमान् जरूर करेंगे। उपकार का बदला देना महत् पुरुषों का काम है। विद्या ने आपको धनी किया है, इससे आप विद्या को धनी किया चाहते हैं। इसी से कंगालों से छीनकर आप धनियों को विद्या देना चाहते हैं। इससे विद्या का वह कष्ट मिट जावेगा जो उसे कंगाल को धनी बनाने में होता है। नींव पड़ चुकी है, नमूना कायम होने में देर नहीं। अब तक गरीब पढ़ते थे, इससे धनियों की निन्दा होती थी कि वह पढ़ते नहीं। अब गरीब न पढ़ सकेंगे, इससे धनी पढ़े न पढ़े उनकी निन्दा न होगी। इस तरह लार्ड कर्जन की कृपा उन्हें बेपढ़े भी शिक्षित कर देगी। 


और कई काम हैं, कई कमीशनों के काम का फैसिला करना है, कितनी ही मिशनों की कारवाई का नतीजा देखना है। काबुल है, काश्मीर है, काबुल में रेल चल सकती है, काश्मीर में अंग्रेजी बस्ती बस सकती है। चाय के प्रचार की भांति मोटरगाड़ी के प्रचार की इस देश में बहुत जरूरत है। बंगदेश का पार्टीशन भी एक बहुत जरूरी काम है। सबसे जरूरी काम विक्टोरिया मिमोरियल हाल है। सन् 1858 ई. की घोषणा अब भारतवासियों को अधिक स्मरण रखने की जरूरत न पड़ेगी। श्रीमान् स्मृति मंदिर बनवाकर स्वर्गीया महारानी विक्टोरिया का ऐसा स्मारक बनवा देंगे, जिसको देखते ही लोग जान जावेंगे कि महारानी वह थीं जिनका यह स्मारक है।


बहुत बातें हैं। सब को भारतवासी अपने छोटे दिमागों में नहीं ला सकते। कौन जानता है कि श्रीमान् लार्ड कर्जन के दिमाग में कैसे-कैसे आली खयाल भरे हुए हैं। आपने स्वयं फरमाया थी कि बहुत बातों में हिन्दुस्थानी अंग्रेजों का मुकाबिला नहीं कर सकते। फिर लार्ड कर्जन तो इंग्लैंड के रत्न हैं। उनके दिमाग की बराबरी कर गुस्ताखी करने की यहां के लोगों को यह बूढ़ा भंगड़ कभी सलाह नहीं दे सकता। श्रीमान् कैसे आली दिमाग शासक हैं, यह बात उनके उन लगातार कई व्याख्यानों से टपकी पड़ती हैं, जो श्रीमान्ने विलायत में दिये थे और जिनमें विलायत वासियों को यह समझाने की चेष्टा की थी कि हिन्दुस्थान क्या वस्तु है? आपने साफ दिखा दिया था कि विलायतवासी यह नहीं समझ सकते कि हिन्दुस्थान क्या है। हिन्दुस्थान को श्रीमान् स्वयं ही समझे हैं। विलायत वाले समझते तो क्या समझते? विलायत में उतना बड़ा हाथी कहाँ जिस पर वह चंवर छत्र लगाकर चढ़े थे? फिर कैसे समझा सकते कि वह किस उच्च श्रेणी के शासक हैं? यदि कोई ऐसा उपाय निकल सकता, जिससे वह एक बार भारत को विलायत तक खींच ले जा सकते तो विलायतवालों को समझा सकते कि भारत क्या है और श्रीमान् का शासन क्या? आश्चर्य नहीं, भविष्य में ऐसा कुछ उपाय निकल आवे। क्योंकि विज्ञान अभी बहुत कुछ करेगा।


भारतवासी जरा भय न करें, उन्हें लार्ड कर्जन के शासन में कुछ करना न पड़ेगा। आनन्द ही आनन्द है। चैन से भंग पियो और मौज उड़ाओ। नजीर खूब कह गया है-


कुंडी के नकारे पे खुतके का लगा डंका।

नित भंग पीके प्यारे दिन रात बजा डंका।।

पर एक प्याला इस बूढ़े ब्राह्मण को देना भूल न जाना।


3. वैसराय का कर्तव्य


माई लार्ड! आपने इस देश में फिर पदार्पण किया, इससे यह भूमि कृतार्थ हुई। विद्वान बुद्धिमान और विचारशील पुरुषों के चरण जिस भूमि पर पड़ते हैं, वह तीर्थ बन जाती है। आप में उक्त तीन गुणों के सिवा चौथा गुण राजशक्ति का है। अत: आपके श्रीचरण-स्पर्श से भारत भूमि तीर्थ से भी कुछ बढ़कर बन गई। आप गत मंगलवार को फिर से भारत के राजसिंहासन पर सम्राट के प्रतिनिधि बनकर विराजमान हुए। भगवान आपका मंगल करे और इस पतित देश के मंगल की इच्छा आपके हृदय में उत्पन्न करे।


बम्बई में पांव रखते ही आपने अपने मन की कुछ बात कह डाली हैं। यद्यपि बम्बई की म्यूनिसिपलिटी ने वह बातें सुनने की इच्छा अपने अभिनन्दन पत्र में प्रकाशित नहीं की थी, तथापि आपने बेपूछे ही कह डालीं। ठीक उसी प्रकार बिना बुलाये यह दीन भंगड़ ब्राह्मण शिवशम्भु शर्मा तीसरी बार अपना चिट्ठा लेकर आपकी सेवामें उपस्थित है। इसे भी प्रजा का प्रतिनिधि होने का दावा है। इसी से यह राज प्रतिनिधि के सम्मुख प्रजा का कच्चा चिट्ठा सुनाने आया है। आप सुनिये न सुनिये, यह सुनाकर ही जावेगा।


अवश्य ही इस देश की प्रजाने इस दीन ब्राह्मण को अपनी सभा में बुलाकर कभी अपने प्रतिनिधि होने का टीका नहीं किया और न कोई पट्टा लिख दिया है। आप जैसे बाजाब्ता राज-प्रतिनिधि हैं वैसा बाजाब्ता शिवशम्भु प्रजा का प्रतिनिधि नहीं है आपको सम्राट ने बुलाकर अपना वैसराय फिर से बनाया। विलायती गजट में खबर निकली। वही खबर तार द्वारा भारत में पहुंची। मार्ग में जगह-जगह स्वागत हुआ। बम्बई में स्वागत हुआ। कलकत्ते में कई बार गजट हुआ। रेल से उतरते और राजसिंहासन पर बैठते समय दो बार सलामी की तोपें सर हुईं। कितने ही राजा, नवाब, बेगम आपके दर्शनार्थ बम्बई पहुंचे। बाजे बजते रहे, फौजें सलामी देती रहीं। ऐसी एक भी सनद प्रजा-प्रतिनिधि होने की शिवशम्भु के पास नहीं है। तथापि वह इस देश की प्रजा का यहां के चिथड़ा-पोश कंगालों का प्रतिनिधि होने का दावा रखता है। क्योंकि उसने इस भूमि में जन्म लिया है। उसका शरीर भारत की मट्टी से बना है और उसी मट्टी में अपने शरीर की मट्टी को एक दिन मिला देने का इरादा रखता है। बचपन में इसी देश की धूल में लोटकर बड़ा हार इसी भूमि के अन्न-जल से उसकी प्राणरक्षा होती है।

 इसी भूमि से कुछ आनन्द हासिल करने को उसे भंग की चन्द पत्तियां मिल जाती है। गांव में उसका कोई झोंपड़ा नहीं है। जंगल में खेत नहीं है। एक पत्तीपर भी उसका अधिकार नहीं है। पर इस भूमि को छोड़कर उसका संसार में कहीं ठिकाना भी नहीं है। इस भूमि पर उसका जरा स्वत्व न होने पर भी इसे वह अपनी समझता है।


शिवशम्भु को कोई नहीं जानता। जो जानते हैं, वह संसार में एकदम अनजान हैं। उन्हें कोई जानकर भी जानना नहीं चाहता। जानने की चीज शिवशम्भु के पास कुछ नहीं है। उसके कोई उपाधि नहीं, राजदरबार में उसकी पूछ नहीं। हाकिमों से हाथ मिलाने की उसकी हैसियत नहीं, उनकी हां में हां मिलाने की उसे ताब नहीं। वह एक कपर्दक-शून्य घमण्डी ब्राह्मण है। हे राजप्रतिनिधि। क्या उसकी दो चार बातें सुनियेगा?


आपने बम्बई में कहा है कि भारतभूमि को मैं किस्सा-कहानी की भूमि नहीं, कर्तव्यभूमि समझता हूं। उसी कर्तव्य के पालन के लिये आपको ऐसे कठिन समय में भी दूसरी बार भारत में आना पड़ा। माई लार्ड! इस कर्तव्य भूमि को हम लोग कर्मभूमि कहते है। आप कर्तव्य-पालन करने आये हैं और हम कर्मो का भोग भोगने। आपके कर्तव्य-पालन की अवधि है, हमारे कर्मभोग की अवधि नहीं। आप कर्तव्य-पालन करके कुछ दिन पीछे चले जावेंगे। हमें कर्म के भोग भोगते-भोगते यहीं समाप्त होना होगा और न जाने फिर भी कब तक वह भोग समाप्त होगा। जब थोड़े दिन के लिए आपका इस भूमि से स्नेह है तो हम लोगों का कितना भारी स्नेह होना चाहिए, यह अनुमान कीजिये। क्योंकि हमारा इस भूमि से जीने-मरने का साथ है।


माई लार्ड! यद्यपि आपको इस बात का बड़ा अभिमान है कि अंग्रेजों में आपकी भांति भारतवर्ष के विषय में शासन नीति समझने-वाला और शासन करने वाला नहीं है। यह बात विलायत में भी आपने कई बार हेर-फेर लगाकर कही और इस बार बम्बई में उतरते ही फिर कही। आप इस देश में रहकर 72 महीने तक जिन बातों की नीव डालते रहे, अब उन्हें 24 मास या उससे कम में पूरा कर जाना चाहते है। सरहदों पर फौलादी दीवार बना देना चाहते हैं, जिससे इस देश की भूमि को कोई बाहरी शत्रु उठाकर अपने घर में न लेजावे। अथवा जो शान्ति आपके कथनानुसार धीरे-धीरे यहां संचित हुई है, उसे इतना पक्का कर देना चाहते हैं कि आपके बाद जो वैसराय आपके राजसिंहासन पर बैठे उसे शौकीनी और खेल-तमाशे के सिवा दिन में और नाच, बाल या निद्रा के सिवा रातको कुछ करना न पड़ेगा। पर सच जानिये कि आपने इस देश को कुछ नहीं समझा, खाली समझने की शेखी में रहे और आशा नहीं कि इन अगले कई महीनों में भी कुछ समझें। किन्तु इस देश ने आपको खूब समझ लिया और अधिक समझने की जरूरत नहीं रही। यद्यपि आप कहते हैं, कि यह कहानी का देश नहीं कर्तव्यका देश है, तथापि यहां की प्रजाने समझ लिया है कि आपका कर्तव्य ही कहानी है। एक बड़ा सुन्दर मेल हुआ था, अर्थात आप बड़े घमण्डी शासक हैं और यहां की प्रजा के लोग भी बड़े भारी घमण्डी। पर कठिनाई इसी बात की है कि दोनों का घमण्ड दो तरह का है। आपको जिन बातों का घमण्ड है, उनपर यहां के लोग हँस पड़ते हैं। यहां के लोगों को जो घमण्ड है, उसे आप समझते नहीं और शायद समझेंगे भी नहीं।


जिन आडम्बरों को करके आप अपने मन में बहुत प्रसन्न होते हैं या यह समझ बैठते हैं कि बड़ा कर्तव्य-पालन किया, वह इस देश की, प्रजा की दृष्टि में कुछ भी नहीं है। वह इतने आडम्बर देख सुन चुकी और कल्पना कर चुकी है कि और किसी आडम्बर का असर उस पर नहीं हो सकता। आप सरहद को लोहे की दीवार से मजबूत करते हैं। यहां की प्रजाने पढ़ा है कि एक राजा ने पृथ्वी को काबू में करके स्वर्ग में सीढ़ी लगानी चाही थी। आप और लार्ड किचनर मिलकर जो फौलादी दीवार बनाते हैं, उससे बहुत मजबूत एक दीवार लार्ड केनिंग बना गये थे। आपने भी बम्बई की स्पीच में केनिंग का नाम लिया है। आज 46 साल हो गये, वह दीवार अटल अचल खड़ी हुई है। वह स्वर्गीया महाराणी का घोषणापत्र है, जो 1 नवम्बर 1858 ई. को केनिंग महोदय ने सुनाया था। वही भारतवर्ष के लिये फौलादी दीवार है। वही दीवार भारत की रक्षा करती है। उसी दीवार को भारतवासी अपना रक्षक समझते हैं। उस दीवार के होते आपके या लार्ड किचनर के कोई दीवार बनाने की जरूरत नहीं है। उसकी आड में आप जो चाहे जितनी मजबूत दीवारों की कल्पना कर सकते हैं। आडम्बर से इस देश का शासन नहीं हो सकता। आडम्बर का आदर इस देश की कंगाल प्रजा नहीं कर सकती। आपने अपनी समझ में बहुत-कुछ किया, पर फल यह हुआ कि विलायत जाकर वह सब अपने ही मुंह से सुनाना पड़ा। कारण यह कि करने से कहीं अधिक कहने का आपका स्वभाव है। इससे आपका करना भी कहे बिना प्रकाशित नहीं होता। यहां की अधिक प्रजा ऐसी है जो अबतक भी नहीं जानती कि आप यहां के वैसराय और राजप्रतिनिधि हैं और आप एक बार विलायत जाकर फिर से भारत में आये हैं। आपने गरीब प्रजा की ओर न कभी दृष्टि खोलकर देखा, न गरीबों ने आपको जाना। अब भी आपकी बोतों से आपकी वह चेष्टा नहीं पायी जाती। इससे स्मरण रहे कि जब अपने पद को त्यागकर आप फिर स्वदेश में जावेंगे तो चाहे आपको अपने कितने ही गुण कीर्तन करने का अवसर मिले, यह तो कभी न कह सकेंगे कि कभी भारत की प्रजाका मन भी अपने हाथ में किया था।


यह वह देश है, जहां की प्रजा एक दिन पहले रामचन्द्र के राजतिलक पाने के आनन्द में मस्त थी और अगले दिन अचानक रामचन्द्र बन को चले तो रोती-रोती उनके पीछे जाती थी। भरत को उस प्रजा का मन प्रसन्न करने के लिये कोई भारी दरबार नहीं करना पड़ा, हाथियों का जुलूस नहीं निकलना पड़ा, बरंच दौड़कर बन में जाना पड़ा और रामचन्द्र को फिर अयोध्या में लाने का यत्न करना पड़ा। जब वह न आये तो उनकी खड़ाऊं को सिरपर धरकर अयोध्या तक आये और खड़ाउओं को राजसिंहासन पर रखकर स्वयं चौदह साल तक वल्कल धारण करके उनकी सेवा करते रहे। तब प्रजा ने समझा कि भरत अयोध्या का शासन करने के योग्य है।


माई लार्ड! आप वत्कृता देने में बड़े दक्ष हैं। पर यहां वत्कृता कुछ और ही वजन है। सत्यवादी युधिष्ठिर के मुख से जो निकल जाता था, वही होता था। आयु भर में उसने एक बार बहुत भारी पोलिटिकल जरूरत पड़ने से कुछ सहज-सा झूठ बोलने की चेष्टा की थी। वही बात महाभारत में लिखी हुई है। जब तक महाभारत है, वह बात भी रहेगी। एक बार अपनी वत्कृताओं से इस विषय को मिलाइये और फिर विचारिये कि इस देश की प्रजा के साथ आप किस प्रकार अपना कर्तव्यपालन करेंगे। साथ ही इस समय इस अधेड़ भंगड़ ब्राह्मण को अपनी भांग बूटी की फिकर करने के लिये आज्ञा दीजिये।


भारतमित्र, 17 सितम्बर, 1904 ई.


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