Thursday, March 30, 2023

कहानी | दो बैलों की कथा | मुंशी प्रेमचंद | Kahani | Do Bailon Ki Katha | Munshi Premchand



कहानी- दो बैलों की कथा

जानवरों में गधा सबसे ज्यादा बुद्धिहीन समझा जाता है। हम जब किसी आदमी को पहले दर्जे का बेवक़ूफ़ कहना चाहते हैं, तो उसे गधा कहते हैं। गधा सचमुच बेवक़ूफ़ है या उसके सीधेपन, उसकी निरापद सहिष्णुता ने उसे यह पदवी दे दी है, इसका निश्चय नहीं किया जा सकता। गाएँ सींग मारती हैं, ब्याई हुई गाय तो अनायास ही सिंहनी का रूप धारण कर लेती है। कुत्ता भी बहुत ग़रीब जानवर है, लेकिन कभी-कभी उसे भी क्रोध आ ही जाता है, किंतु गधे को कभी क्रोध करते नहीं सुना, न देखा। जितना चाहो ग़रीब को मारो, चाहे जैसी ख़राब, सड़ी हुई घास सामने डाल दो, उसके चेहरे पर कभी असंतोष की छाया भी नहीं दिखाई देगी। वैशाख में चाहे एकाध बार कुलेल कर लेता हो, पर हमने तो उसे कभी ख़ुश होते नहीं देखा। उसके चेहरे पर स्थाई विषाद स्थायी रूप से छाया रहता है। सुख-दुःख, हानि-लाभ किसी भी दशा में उसे बदलते नहीं देखा। ऋषियों-मुनियों के जितने गुण हैं, वे सभी उसमें पराकाष्ठा को पहुँच गए हैं, पर आदमी उसे बेवक़ूफ़ कहता है। सद्गुणों का इतना अनादर कहीं नहीं देखा ! 


कदाचित सीधापन संसार के लिए उपयुक्त नहीं है। देखिए न, भारतवासियों की अफ्रीक़ा में क्या दुर्दशा हो रही है? क्यों अमेरिका में उन्हें घुसने नहीं दिया जाता? बेचारे शराब नहीं पीते, चार पैसे कुसमय के लिए बचाकर रखते हैं, जी तोड़कर काम करते हैं, किसी से लड़ाई-झगड़ा नहीं करते, चार बातें सुनकर ग़म खा जाते हैं फिर भी बदनाम हैं। कहा जाता है, वे जीवन के आदर्श को नीचा करते हैं। 

अगर वे ईंट का जवाब पत्थर से देना सीख जाते तो शायद सभ्य कहलाने लगते। जापान की मिसाल सामने है। एक ही विजय ने उसे संसार की सभ्य जातियों में गण्य बना दिया। लेकिन गधे का एक छोटा भाई और भी है, जो उससे कुछ कम ही गधा है। और वह है ’बैल’। जिस अर्थ में हम ’गधा’ का प्रयोग करते हैं, कुछ उसी से मिलते-जुलते अर्थ में ’बछिया के ताऊ’ का भी प्रयोग करते हैं। कुछ लोग बैल को शायद बेवक़ूफ़ों में सर्वश्रेष्ठ कहेंगे, मगर हमारा विचार ऐसा नहीं है। बैल कभी-कभी मारता भी है, कभी-कभी अड़ियल बैल भी देखने में आता है। और भी कई रीतियों से अपना असंतोष प्रकट कर देता है, अतएव उसका स्थान गधे से नीचा है। 

झूरी के पास दो बैल थे- हीरा और मोती। दोनों पछाई जाति के थे। देखने में सुंदर, काम में चौकस, डील में ऊँचे। बहुत दिनों साथ रहते-रहते दोनों में भाईचारा हो गया था। दोनों आमने-सामने या आस-पास बैठे हुए एक-दूसरे से मूक भाषा में विचार-विनिमय किया करते थे। एक-दूसरे के मन की बात को कैसे समझा जाता है, हम कह नहीं सकते। अवश्य ही उनमें कोई ऐसी गुप्त शक्ति थी, जिससे जीवों में श्रेष्ठता का दावा करने वाला मनुष्य वंचित है। दोनों एक-दूसरे को चाटकर और सूँघकर अपना प्रेम प्रकट करते, कभी-कभी दोनों सींग भी मिला लिया करते थे, विग्रह के नाते से नहीं, केवल विनोद के भाव से, आत्मीयता के भाव से, जैसे दोस्तों में घनिष्ठता होते ही धौल-धप्पा होने लगता है। 

इसके बिना दोस्ती कुछ फुसफुसी, कुछ हल्की-सी रहती है, जिस पर ज्यादा विश्वास नहीं किया जा सकता। जिस वक़्त ये दोनों बैल हल या गाड़ी में जोत दिए जाते और गर्दन हिला-हिलाकर चलते, उस समय हर एक की चेष्टा होती कि ज्यादा-से-ज्यादा बोझ मेरी ही गर्दन पर रहे। 

दिन-भर के बाद दोपहर या संध्या को दोनों खुलते तो एक-दूसरे को चाट-चूट कर अपनी थकान मिटा लिया करते, नाँद में खली-भूसा पड़ जाने के बाद दोनों साथ उठते, साथ नाँद में मुँह डालते और साथ ही बैठते थे। एक मुँह हटा लेता तो दूसरा भी हटा लेता था। 

संयोग की बात, झूरी ने एक बार गोईं को ससुराल भेज दिया। बैलों को क्या मालूम, वे कहाँ भेजे जा रहे हैं। समझे, मालिक ने हमें बेच दिया। अपना यूँ बेचा जाना उन्हें अच्छा लगा या बुरा, कौन जाने, पर झूरी के साले गया को घर तक गोईं ले जाने में दाँतों पसीना आ गया। पीछे से हाँकता तो दोनों दाएँ-बाएँ भागते, पगहिया पकड़कर आगे से खींचता तो दोनों पीछे की ओर ज़ोर लगाते। मारता तो दोनों सींग नीची करके हुँकारते। अगर ईश्वर ने उन्हें वाणी दी होती तो झूरी से पूछते-तुम हम ग़रीबों को क्यों निकाल रहे हो? 

हमने तो तुम्हारी सेवा करने में कोई कसर नहीं उठा रखी। अगर इतनी मेहनत से काम न चलता था तो और काम ले लेते। हमें तो तुम्हारी चाकरी में मर जाना क़बूल था। हमने कभी दाने-चारे की शिकायत नहीं की। तुमने जो कुछ खिलाया, वह सिर झुकाकर खा लिया, फिर तुमने हमें इस ज़ालिम के हाथ क्यों बेंच दिया? 

संध्या समय दोनों बैल अपने नए स्थान पर पहुँचे। दिन-भर के भूखे थे, लेकिन जब नाँद में लगाए गए तो एक ने भी उसमें मुँह नहीं डाला। दिल भारी हो रहा था। जिसे उन्होंने अपना घर समझ रखा था, वह आज उनसे छूट गया। यह नया घर, नया गाँव, नए आदमी उन्हें बेगाने-से लगते थे। 

दोनों ने अपनी मूक भाषा में सलाह की, एक-दूसरे को कनखियों से देखा और लेट गए। जब गाँव में सोता पड़ गया तो दोनों ने ज़ोर मारकर पगहा तुड़ा डाले और घर की तरफ़ चले। पगहे बहुत मज़बूत थे। अनुमान न हो सकता था कि कोई बैल उन्हें तोड़ सकेगा, पर इन दोनों में इस समय दूनी शक्ति आ गई थी। एक-एक झटके में रस्सियाँ टूट गईं। 
झूरी प्रातः काल सो कर उठा तो देखा कि दोनों बैल चरनी पर खड़े हैं। दोनों की गरदनों में आधा-आधा गराँव लटक रहा है। घुटने तक पाँव कीचड़ से भरे हैं और दोनों की आँखों में विद्रोहमय स्नेह झलक रहा है। 

झूरी बैलों को देखकर स्नेह से गद्गद हो गया। दौड़कर उन्हें गले लगा लिया। प्रेमालिंगन और चुंबन का वह दृश्य बड़ा ही मनोहर था। 

घर और गाँव के लड़के जमा हो गए। और तालियाँ बजा-बजाकर उनका स्वागत करने लगे। गाँव के इतिहास में यह घटना अभूतपूर्व न होने पर भी महत्त्वपूर्ण थी, बाल-सभा ने निश्चय किया, दोनों पशु-वीरों को अभिनन्दन पत्र देना चाहिए। कोई अपने घर से रोटियाँ लाया, कोई गुड़, कोई चोकर, कोई भूसी। 

एक बालक ने कहा - ’’ऐसे बैल किसी के पास न होंगे।’’ 

दूसरे ने समर्थन किया - ’’इतनी दूर से दोनों अकेले चले आए।’ 

तीसरा बोला - ’बैल नहीं हैं वे, उस जन्म के आदमी हैं।’ 

इसका प्रतिवाद करने का किसी को साहस नहीं हुआ। झूरी की स्त्री ने बैलों को द्वार पर देखा तो जल उठी। बोली - ’कैसे नमक-हराम बैल हैं कि एक दिन भी वहाँ काम न किया, भाग खड़े हुए।’ 
 
झूरी अपने बैलों पर यह आक्षेप न सुन सका - ’नमक हराम क्यों हैं? चारा-दाना न दिया होगा तो क्या करते?’ 

स्त्री ने रोब के साथ कहा - ’बस, तुम्हीं तो बैलों को खिलाना जानते हो, और तो सभी पानी पिला-पिलाकर रखते हैं।’ 

झूरी ने चिढ़ाया - ’चारा मिलता तो क्यों भागते?’ 

स्त्री चिढ़ गई - ’भागे इसलिए कि वे लोग तुम जैसे बुद्धुओं की तरह बैल को सहलाते नहीं, खिलाते हैं तो रगड़कर जोतते भी हैं। ये दोनों ठहरे कामचोर, भाग निकले। अब देखूँ कहाँ से खली और चोकर मिलता है। सूखे भूसे के सिवा कुछ न दूँगी, खाएँ चाहें मरें।’ 

वही हुआ। मजूर की बड़ी ताकीद की गई कि बैलों को खाली सूखा भूसा दिया जाए। 

बैलों ने नाँद में मुँह डाला तो फीका-फीका, न कोई चिकनाहट, न कोई रस! 

क्या खाएँ? आशा-भरी आँखों से द्वार की ओर ताकने लगे। झूरी ने मजूर से कहा - ’थोड़ी-सी खली क्यों नहीं डाल देता बे?’ 

’मालकिन मुझे मार ही डालेगी।’ 

’चुराकर डाल आ।’ 

’ना दादा, पीछे से तुम भी उन्हीं की-सी कहोगे।’ 

दूसरे दिन झूरी का साला फिर आया और बैलों को ले चला। अबकी उसने दोनों को गाड़ी में जोता। 

दो-चार बार मोती ने गाड़ी को खाई में गिराना चाहा, पर हीरा ने संभाल लिया। वह ज्यादा सहनशील था। 

संध्या-समय घर पहुँचकर उसने दोनों को मोटी रस्सियों से बाँधा और कल की शरारत का मज़ा चखाया फिर वही सूखा भूसा डाल दिया। अपने दोनों बैलों को खली चूनी सब कुछ दी। 

दोनों बैलों का ऐसा अपमान कभी न हुआ था। झूरी इन्हें फूल की छड़ी से भी ना छूता था। उसकी टिटकार पर दोनों उड़ने लगते थे। यहाँ मार पड़ी। आहत सम्मान की व्यथा तो थी ही, उस पर मिला सूखा भूसा! 

नाँद की तरफ़ आँखें तक न उठाईं। 

दूसरे दिन गया ने बैलों को हल में जोता, पर इन दोनों ने जैसे पाँव न उठाने की क़सम खा ली थी। वह मारते-मारते थक गया, पर दोनों ने पाँव न उठाया। एक बार जब उस निर्दयी ने हीरा की नाक पर ख़ूब डंडे जमाए तो मोती का ग़ुस्सा क़ाबू से बाहर हो गए। हल लेकर भागा। हल, रस्सी, जुआ, जोत, सब टूट-टाटकर बराबर हो गया। गले में बड़ी-बड़ी रस्सियाँ न होतीं तो दोनों पकड़ाई में न आते। 

हीरा ने मूक-भाषा में कहा-भागना व्यर्थ है।’ 

मोती ने उत्तर दिया - ’तुम्हारी तो इसने जान ही ले ली थी।’ 

हीरा ने कहा - ’अबकी बड़ी मार पड़ेगी।’ 

मोती ने कहा - ’पड़ने दो, बैल का जन्म लिया है तो मार से कहाँ तक बचेंगे?’ 

गया दो आदमियों के साथ दौड़ा आ रहा है, दोनों के हाथों में लाठियाँ हैं। 

मोती बोला - ’कहो तो दिखा दूँ कुछ मज़ा मैं भी, लाठी लेकर आ रहा है।’ 

हीरा ने समझाया - ’नहीं भाई! खड़े हो जाओ।’ 

मोती बोला - ’मुझे मारेगा तो मैं एक-दो को गिरा दूँगा।’ 

हीरा ने कहा - ’नहीं हमारी जाति का यह धर्म नहीं है।’ 

मोती दिल में ऐंठकर रह गया। गया आ पहुँचा और दोनों को पकड़ कर ले चला। कुशल हुई कि उसने इस वक़्त मारपीट न की, नहीं तो मोती भी पलट पड़ता। उसके तेवर देखकर गया और उसके सहायक समझ गए कि इस वक़्त टाल जाना ही भलमनसाहत है। 

आज दोनों के सामने फिर वही सूखा भूसा लाया गया, दोनों चुपचाप खड़े रहे। 

घर में लोग भोजन करने लगे। उस वक़्त छोटी-सी लड़की दो रोटियाँ लिए निकली और दोनों के मुँह में देकर चली गई। उस एक रोटी से इनकी भूख तो क्या शांत होती, पर दोनों के हृदय को मानो भोजन मिल गया। यहाँ भी किसी सज्जन का वास है। लड़की भैरो की थी। उसकी माँ मर चुकी थी। सौतेली माँ उसे मारती रहती थी, इसलिए इन बैलों से उसे एक प्रकार की आत्मीयता हो गई थी। 

दोनों दिन-भर जोते जाते, डंडे खाते, अड़ते, शाम को थान पर बाँध दिए जाते और रात को वही बालिका उन्हें दो रोटियाँ खिला जाती। प्रेम के इस प्रसाद की यह बरकत थी कि दो-दो गाल सूखा भूसा खाकर भी दोनों दुर्बल न होते थे, मगर दोनों की आँखों में रोम-रोम में विद्रोह भरा हुआ था। 

एक दिन मोती ने मूक-भाषा में कहा - ’अब तो नहीं सहा जाता हीरा!’ 

हीरा ने पूछा - ’क्या करना चाहते हो?’ 

मोती ने कहा - ’एकाध को सींगों पर उठाकर फेंक दूँगा।’ 

हीरा ने कहा - ’लेकिन जानते हो, वह प्यारी लड़की, जो हमें रोटियाँ खिलाती है, उसी की लड़की है, जो इस घर का मालिक है, यह बेचारी अनाथ हो जाएगी।’ 

मोती ने कहा - ’तो मालकिन को फेंक दूँ, वही तो इस लड़की को मारती है।’ 

हीरा ने कहा - ’लेकिन औरत जात पर सींग चलाना मना है, यह भूल जाते हो।’ 

मोती बोला - ’तुम तो किसी तरह निकलने ही नहीं देते, तो बताओ, आज रस्सी तुड़ाकर भाग चलें।’ 

हीरा बोला - ’हाँ, यह मैं स्वीकार करता हूँ, लेकिन इतनी मोटी रस्सी टूटेगी कैसे ?’ 

मोती बोला - इसका एक उपाय है, पहले रस्सी को थोड़ा चबा लो। फिर एक झटके में जाती है।’ 

रात को जब बालिका रोटियाँ खिला कर चली गई तो दोनों रस्सियाँ चबाने लगे, पर मोटी रस्सी मुँह में न आती थी। बेचारे बार-बार ज़ोर लगाकर रह जाते थे। 

सहसा घर का द्वार खुला और वही लड़की निकली। दोनों सिर झुकाकर उसका हाथ चाटने लगे। दोनों की पूंछें खड़ी हो गईं। उसने उनके माथे सहलाए और बोली - ’खोल देती हूँ, चुपके से भाग जाओ, नहीं तो ये लोग मार डालेंगे। आज घर में सलाह हो रही है कि इनकी नाकों में नाथ डाल दी जाएँ।’ 

उसने गराँव खोल दिया, पर दोनों चुप खड़े रहे। 

मोती ने अपनी भाषा में पूछा - ’अब चलते क्यों नहीं?’ 

हीरा ने कहा - ’चलें तो, लेकिन कल इस अनाथ पर आफ़त आएगी, सब इसी पर संदेह करेंगे। 

सहसा बालिका चिल्लाई - ’दोनों फूफा वाले बैल भागे जा रहे हैं, ओ दादा! दादा! दोनों बैल भागे जा रहे हैं, ओ दादा! दादा! दोनों बैल भागे जा रहे हैं, जल्दी दौड़ो। 

गया हड़बड़ाकर भीतर से निकला और बैलों को पकड़ने चला। वे दोनों भागे। गया ने पीछा किया, वे और भी तेज़ हुए, गया ने शोर मचाया। फिर गाँव के कुछ आदमियों को भी साथ लेने के लिए लौटा। दोनों मित्रों को भागने का मौक़ा मिल गया। सीधे दौड़ते चले गए। यहाँ तक कि मार्ग का ज्ञान न रहा। जिस परिचित मार्ग से आए थे, उसका यहाँ पता न था। नए-नए गाँव मिलने लगे। तब दोनों एक खेत के किनारे खड़े होकर सोचने लगे, अब क्या करना चाहिए। 

हीरा ने कहा - ’मुझे मालूम होता है, राह भूल गए।’ 

मोती बोला - ’तुम भी बेतहाशा भागे, वहीं उसे मार गिराना था।’ 

हीरा ने कहा ’उसे मार गिराते तो दुनिया क्या कहती? वह अपना धर्म छोड़ दे, लेकिन हम अपना धर्म क्यों छोडें?’ 

दोनों भूख से व्याकुल हो रहे थे। खेत में मटर खड़ी थी। चरने लगे। रह-रहकर आहट ले लेते थे। कोई आता तो नहीं है। 

जब पेट भर गया, दोनों ने आज़ादी का अनुभव किया तो मस्त होकर उछलने-कूदने लगे। पहले दोनों ने डकार ली। फिर सींग मिलाए और एक-दूसरे को ठेलने लगे। मोती ने हीरा को कई क़दम पीछे हटा दिया, यहाँ तक कि वह खाई में गिर गया। तब उसे भी क्रोध आ गया। संभलकर उठा और मोती से भिड़ गया। मोती ने देखा- खेल में झगड़ा हुआ चाहता है तो किनारे हट गया। 

अरे! यह क्या? कोई साँड डौंकता चला आ रहा है। हाँ, साँड ही है। वह सामने आ पहुँचा। दोनों मित्र बग़लें झाँक रहे हैं। साँड पूरा हाथी है। उससे भिड़ना जान से हाथ धोना है, लेकिन न भिड़ने पर भी जान बचती नज़र नहीं आती। इन्हीं की तरफ़ आ भी रहा है। कितनी भयंकर सूरत है! 

मोती ने मूक-भाषा में कहा - ’बुरे फँसे, जान कैसे बचेगी? कोई उपाय सोचो।’ 

हीरा ने चिंतित स्वर में कहा - ’अपने घमंड में फूला हुआ है, आरजू-विनती न सुनेगा।’ 

मोती ने कहा - ’भाग क्यों न चलें?’ 

हीरा ने कहा - ’भागना कायरता है।’ 

मोती फिर बोला - ’तो फिर यहीं मरो। बंदा तो नौ दो ग्यारह होता है।’ 

हीरा बोला - ’और जो दौड़ाए?’ 

मोती ने कहा - ’तो फिर कोई उपाय सोचो जल्द!’ 

हीरा ने कहा - ’उपाय यही है कि उस पर दोनों जने एक साथ चोट करें। मैं आगे से रगेदता हूँ, तुम पीछे से रगेदो, दोहरी मार पड़ेगी तो भाग खड़ा होगा। ज्यों ही मेरी ओर झपटे, तुम बग़ल से उसके पेट में सींग घुसेड़ देना। जान जोखिम है; पर दूसरा उपाय नहीं है। 

दोनों मित्र जान हथेली पर लेकर लपके। साँड को भी संगठित शत्रुओं से लड़ने का तजुरबा न था। 

वह तो एक शत्रु से मल्लयुद्ध करने का आदी था। ज्यों-ही हीरा पर झपटा, मोती ने पीछे से दौड़ाया। साँड उसकी तरफ़ मुड़ा तो हीरा ने रगेदा। साँड चाहता था, कि एक-एक करके दोनों को गिरा ले, पर ये दोनों भी उस्ताद थे। उसे वह अवसर न देते थे। एक बार साँड झल्लाकर हीरा का अंत कर देने के लिए चला कि मोती ने बग़ल से आकर उसके पेट में सींग भोंक दिया। साँड क्रोध में आकर पीछे फिरा तो हीरा ने दूसरे पहलू में सींग चुभा दिया। 

आखिर बेचारा ज़ख्मी होकर भागा और दोनों मित्रों ने दूर तक उसका पीछा किया। यहाँ तक कि साँड बेदम होकर गिर पड़ा। तब दोनों ने उसे छोड़ दिया। दोनों मित्र जीत के नशे में झूमते चले जाते थे। 

मोती ने सांकेतिक भाषा में कहा - ’मेरा जी चाहता था कि बच्चू को मार ही डालूँ।’ 

हीरा ने तिरस्कार किया - ’गिरे हुए बैरी पर सींग न चलाना चाहिए।’ 

मोती ने कहा - ’यह सब ढोंग है, बैरी को ऐसा मारना चाहिए कि फिर न उठे।’ 

हीरा बोला - ’अब घर कैसे पहुँचेंगे यह सोचो।’ 

मोती ने कहा ’पहले कुछ खा लें, तो सोचें।’ 

सामने मटर का खेत था ही, मोती उसमें घुस गया। हीरा मना करता रहा, पर उसने एक न सुनी। अभी दो ही चार ग्रास खाए थे कि आदमी लाठियाँ लिए दौड़ पड़े और दोनों मित्र को घेर लिया, हीरा तो मेड़ पर था निकल गया। मोती सींचे हुए खेत में था। उसके खुर कीचड़ में धंसने लगे। न भाग सका। पकड़ लिया। हीरा ने देखा, संगी संकट में है तो लौट पड़ा। फँसेंगे तो दोनों साथ फँसेंगे। रखवालों ने उसे भी पकड़ लिया। 

प्रातःकाल दोनों मित्र काँजी हौस में बंद कर दिए गए। 

दोनों मित्रों को जीवन में पहली बार ऐसा साबिक़ा पड़ा था कि सारा दिन बीत गया और खाने को एक तिनका भी न मिला। समझ में न आता था, यह कैसा स्वामी है। इससे तो गया फिर भी अच्छा था। यहाँ कई भैंसे थीं, कई बकरियाँ, कई घोड़े, कई गधे, पर किसी के सामने चारा न था, सब ज़मीन पर मुर्दों की तरह पड़े थे। 

कई तो इतने कमज़ोर हो गए थे कि खड़े भी न हो सकते थे। सारा दिन दोनों मित्र फाटक की ओर टकटकी लगाए रहते, पर कोई चारा लेकर आता न दिखाई दिया। तब दोनों ने दीवार की नमकीन मिट्टी चाटनी शुरू की, पर इससे क्या तृप्ति होती। 

रात को भी जब कुछ भोजन न मिला तो हीरा के दिल में विद्रोह की ज्वाला दहक उठी। मोती से बोला - ’अब नहीं रहा जाता मोती! 

मोती ने सिर लटकाए हुए जवाब दिया - ’मुझे तो मालूम होता है कि प्राण निकल रहे हैं।’ 
हीरा ने कहा - ‘इतनी जल्दी हिम्मत न हारो भाई , यहां से भागने का कोई उपाय निकालना चाहिए।’

मोती ने कहा - ’आओ दीवार तोड़ डालें।’ 

हीरा ने कहा - ’मुझसे तो अब कुछ नहीं होगा।’ 

मोती ने कहा - ’बस इसी बूते पर अकड़ते थे!’ 

हीरा ने कहा - ’सारी अकड़ निकल गई।’ 

बाड़े की दीवार कच्ची थी। हीरा मज़बूत तो था ही, अपने नुकीले सींग दीवार में गड़ा दिए और ज़ोर मारा तो मिट्टी का एक चिप्पड़ निकल आया। फिर तो उसका साहस बढ़ा उसने दौड़-दौड़कर दीवार पर चोटें कीं और हर चोट में थोड़ी-थोड़ी मिट्टी गिराने लगा। 

उसी समय काँजी हौस का चौकीदार लालटेन लेकर जानवरों की हाज़िरी लेने आ निकला। हीरा का उद्दंड्डपन्न देखकर उसे कई डंडे रसीद किए और मोटी-सी रस्सी से बाँध दिया। 

मोती ने पड़े-पड़े कहा - ’आखिर मार खाई, क्या मिला?’ 

हीरा ने जबाव दिया - ’अपने बूते-भर ज़ोर तो मार दिया।’ 

मोती ने कहा - ’ऐसा ज़ोर मारना किस काम का कि और बंधन में पड़ गए।’ 

हीरा ने उत्तर दिया - ’ज़ोर तो मारता ही जाऊँगा, चाहे कितने ही बंधन पड़ते जाएँ।’ 

मोती ने कहा - ’जान से हाथ धोना पड़ेगा।’ 

हीरा बोला - ’कुछ परवाह नहीं। यूँ भी तो मरना ही है। सोचो, दीवार ख़ुद जाती तो कितनी जाने बच जातीं। इतने भाई यहाँ बंद हैं। किसी की देह में जान नहीं है। दो-चार दिन यही हाल रहा तो सब मर जाएँगे।’ 

मोती बोला - ’हाँ, यह बात तो है। अच्छा, तो  फिर मैं भी ज़ोर लगाता हूँ।’ 

मोती ने भी दीवार में सींग मारा, थोड़ी-सी मिट्टी गिरी और फिर हिम्मत बढ़ी, फिर तो वह दीवार में सींग लगाकर इस तरह ज़ोर करने लगा, मानो किसी प्रतिद्वंदी से लड़ रहा है। आखिर कोई दो घंटे की ज़ोर-आज़माई के बाद दीवार ऊपर से लगभग एक हाथ गिर गई, उसने दूनी शक्ति से दूसरा धक्का मारा तो आधी दीवार गिर पड़ी। 
दीवार का गिरना था कि अधमरे-से पड़े हुए सभी जानवर चेत उठे, तीनों घोड़ियाँ सरपट भाग निकलीं। फिर बकरियाँ निकलीं, इसके बाद भैंसें भी खिसक गई, पर गधे अभी तक ज्यों के त्यों खड़े थे। 

हीरा ने पूछा - ’तुम दोनों क्यों नहीं भाग जाते?’ 

एक गधे ने कहा - ’जो कहीं फिर पकड़ लिए जाएँ।’ 

हीरा ने कहा - ’तो क्या हरज है, अभी तो भागने का अवसर है।’ 

गधे ने कहा - ’हमें तो डर लगता है। हम यहीं पड़े रहेंगे।’ 

आधी रात से ऊपर जा चुकी थी। दोनों गधे अभी तक खड़े सोच रहे थे कि भागें, या न भागें, और मोती अपने मित्र की रस्सी तोड़ने में लगा हुआ था। जब वह हार गया तो हीरा ने कहा - ’तुम जाओ, मुझे यहीं पड़ा रहने दो, शायद कहीं भेंट हो जाए।’ 

मोती ने आँखों में आँसू लाकर कहा - ’तुम मुझे इतना स्वार्थी समझते हो, हीरा हम और तुम इतने दिनों एक साथ रहे हैं। आज तुम विपत्ति में पड़ गए हो तो मैं तुम्हें छोड़कर अलग हो जाऊँ?’ 

हीरा ने कहा - ’बहुत मार पड़ेगी, लोग समझ जाएँगे, यह तुम्हारी शरारत है।’ 

मोती गर्व से बोला - ’जिस अपराध के लिए तुम्हारे गले में बंधन पड़ा, उसके लिए अगर मुझे मार पड़े, तो क्या चिंता। इतना तो हो ही गया कि नौ-दस प्राणियों की जान बच गई, वे सब तो आशीर्वाद देंगे।’ 

यह कहते हुए मोती ने दोनों गधों को सींगों से मार-मार कर बाड़े से बाहर निकाला और तब अपने बंधु के पास आकर सो रहा। 
भोर होते ही मुंशी और चौकीदार तथा अन्य कर्मचारियों में कैसी खलबली मची, इसके लिखने की ज़रूरत नहीं। बस, इतना ही काफ़ी है कि मोती की ख़ूब मरम्मत हुई और उसे भी मोटी रस्सी से बाँध दिया गया। 

एक सप्ताह तक दोनों मित्र वहाँ बंधे पड़े रहे। किसी ने चारे का एक तृण भी न डाला। हाँ, एक बार पानी दिखा दिया जाता था। यही उनका आधार था। दोनों इतने दुर्बल हो गए थे कि उठा तक नहीं जाता था, ठठरियाँ निकल आईं थीं। एक दिन बाड़े के सामने डुग्गी बजने लगी और दोपहर होते-होते वहाँ पचास-साठ आदमी जमा हो गए। तब दोनों मित्र निकाले गए और उनकी देखभाल होने लगी। लोग  आ -आकर उनकी सूरत देखते और मन फीका करके चले जाते। 

ऐसे मृतक बैलों का कौन ख़रीददार होता? सहसा एक दढ़ियल आदमी, जिसकी आँखें लाल थीं और मुद्रा अत्यंत कठोर, आया और दोनों मित्रों के कूल्हों में उंगली गोदकर मुंशीजी से बातें करने लगा। उसका चेहरा देखकर अंतर्ज्ञान से दोनों मित्रों के दिल काँप उठे। वह कौन है और क्यों टटोल रहा है, इस विषय में उन्हें कोई संदेह न हुआ। दोनों ने एक-दूसरे को भीत नेत्रों से देखा और सिर झुका लिया। 

हीरा ने कहा -’गया के घर से नाहक़ भागे, अब तो जान न बचेगी।’ 
मोती ने अश्रद्धा के भाव से उत्तर दिया - ’कहते हैं, भगवान सबके ऊपर दया करते हैं, उन्हें हमारे ऊपर दया क्यों नहीं आती?’ 

हीरा ने कहा - ’भगवान के लिए हमारा जीना मरना दोनों बराबर है। चलो, अच्छा ही है, कुछ दिन उसके पास तो रहेंगे। एक बार भगवान ने उस लड़की के रूप में हमें बचाया था। क्या अब न बचाएँगे?’ 

मोती बोला - ’यह आदमी छुरी चलाएगा, देख लेना।’ 

हीरा ने कहा - ’तो क्या चिंता है? माँस, खाल, सींग, हड्डी सब किसी के काम आ जाऐंगे।’ 

नीलाम हो जाने के बाद दोनों मित्र उस दढ़ियल के साथ चले। दोनों की बोटी-बोटी काँप रही थी। बेचारे पाँव तक न उठा सकते थे, पर भय के मारे गिरते-पड़ते भागे जाते थे, क्योंकि वह ज़रा भी चाल धीमी हो जाने पर डंडा जमा देता था। 

राह में गाय-बैलों का एक रेवड़ हरे-भरे हार में चरता नज़र आया। सभी जानवर प्रसन्न थे, चिकने, चपल। कोई उछलता था, कोई आनंद से बैठा पागुर करता था कितना सुखी जीवन था इनका, पर कितने स्वार्थी हैं सब। किसी को चिंता नहीं कि उनके दो भाई बधिक के हाथ पड़े कैसे दुःखी हैं। 

सहसा दोनों को ऐसा मालूम हुआ कि यह परिचित राह है। हाँ, इसी रास्ते से गया उन्हें ले गया था। वही खेत, वही बाग़, वही गाँव मिलने लगे, प्रतिक्षण उनकी चाल तेज़ होने लगी। सारी थकान, सारी दुर्बलता ग़ायब हो गई। आह! यह लो! अपना ही हार आ गया। इसी कुएँ पर हम पुर चलाने आया करते थे, हाँ, यही कुआँ है। 

मोती ने कहा - ’हमारा घर नज़दीक आ गया है।’ 
हीरा बोला - ’भगवान की दया है।’ 

मोती ने कहा - ’मैं तो अब घर भागता हूँ।’ 

हीरा बोला - ’यह जाने देगा?’ 

मोती ने कहा - इसे मैं मार गिराता हूँ। 

हीरा बोला - ’नहीं-नहीं, दौड़कर थान पर चलो। वहाँ से हम आगे न जाएँगे।’ 

दोनों उन्मत्त होकर बछड़ों की भांति कुलेलें करते हुए घर की ओर दौड़े। वह हमारा थान है। दोनों दौड़कर अपने थान पर आए और खड़े हो गए। दढ़ियल भी पीछे-पीछे दौड़ा चला आता था। 

झूरी द्वार पर बैठा धूप खा रहा था। बैलों को देखते ही दौड़ा और उन्हें बारी-बारी से गले लगाने लगा। मित्रों की आँखों से आनंद के आँसू बहने लगे। एक झूरी का हाथ चाट रहा था। 

दढ़ियल ने जाकर बैलों की रस्सियाँ पकड़ लीं। झूरी ने कहा - ’मेरे बैल हैं।’ 

दढ़ियल ने कहा - ’तुम्हारे बैल कैसे हैं? मैं मवेशीख़ाने से नीलाम लिए आता हूँ।’ 

झूरी ने कहा - ’’मैं तो समझता हूँ, चुराए लिए जाते हो! चुपके से चले जाओ, मेरे बैल हैं। मैं बेचूँगा तो बिकेंगे। किसी को मेरे बैल नीलाम करने का क्या इख़्तियार हैं?’ 

दढ़ियल बोला - ’जाकर थाने में रपट कर दूँगा।’ 

झूरी ने कहा - ’मेरे बैल हैं। इसका सबूत यह है कि मेरे द्वार पर खड़े हैं। 

दढ़ियल झल्लाकर बैलों को ज़बरदस्ती पकड़ ले जाने के लिए बढ़ा। उसी वक़्त मोती ने सींग चलाया। दढ़ियल पीछे हटा। मोती ने पीछा किया। दढ़ियल भागा। मोती पीछे दौड़ा, गाँव के बाहर निकल जाने पर वह रुका, पर खड़ा दढ़ियल का रास्ता देख रहा था, दढ़ियल दूर खड़ा धमकियाँ दे रहा था, गालियाँ निकाल रहा था, पत्थर फेंक रहा था, और मोती विजयी शूर की भाँति उसका रास्ता रोके खड़ा था। गाँव के लोग यह तमाशा देखते और हँसते थे। जब दढ़ियल हारकर चला गया तो मोती अकड़ता हुआ लौटा। हीरा ने कहा - ’मैं तो डर गया था कि कहीं तुम उसे ग़ुस्से में आकर मार न बैठो।’ 
मोती ने कहा - ‘ अगर वह मुझे पकड़ता तो उसे बेमारे न छोड़ता । 

हीरा ने कहा - ’अब न आएगा।’ 

मोती ने कहा - ’आएगा तो दूर से ही ख़बर लूँगा। देखूँ, कैसे ले जाता है।’ 

हीरा ने कहा - ’जो गोली मरवा दे?’ 

मोती ने कहा - ’मर जाऊँगा, पर उसके काम न आऊँगा।’ 

हीरा ने कहा - ’हमारी जान को कोई जान ही नहीं समझता।’ 

मोती ने कहा - ’इसलिए कि हम इतने सीधे होते हैं।’ 

ज़रा देर में नाँदों में खली भूसा, चोकर और दाना भर दिया गया और दोनों मित्र खाने लगे। झूरी खड़ा दोनों को सहला रहा था। और बीसों लड़के तमाशा देख रहे थे । सारे गांव में उछाह सा मालूम होता था।  

उसी समय मालकिन ने आकर दोनों बैलों के माथे चूम लिए। 

Wednesday, March 22, 2023

कहानी । भिखारिन । रबीन्द्रनाथ टैगोर | Kahani | Bhikarin | Rabindranath Tagore


कहानी- भिखारिन
वीडियो देखें                                    लेखक-  रबीन्द्रनाथ टैगोर

1

अन्धी प्रतिदिन मन्दिर के दरवाजे पर जाकर खड़ी होती, दर्शन करने वाले बाहर निकलते तो वह अपना हाथ फैला देती और नम्रता से कहती- बाबूजी, अन्धी पर दया हो जाए।
वह जानती थी कि मन्दिर में आने वाले सहृदय और श्रध्दालु हुआ करते हैं। उसका यह अनुमान असत्य न था। आने-जाने वाले दो-चार पैसे उसके हाथ पर रख ही देते। अन्धी उनको दुआएं देती और उनको सहृदयता को सराहती। स्त्रियां भी उसके पल्ले में थोड़ा-बहुत अनाज डाल जाया करती थीं।
प्रात: से संध्या तक वह इसी प्रकार हाथ फैलाए खड़ी रहती। उसके पश्चात् मन-ही-मन भगवान को प्रणाम करती और अपनी लाठी के सहारे झोंपड़ी का पथ ग्रहण करती। उसकी झोंपड़ी नगर से बाहर थी। रास्ते में भी याचना करती जाती किन्तु राहगीरों में अधिक संख्या श्वेत वस्त्रों वालों की होती, जो पैसे देने की अपेक्षा झिड़कियां दिया करते हैं। तब भी अन्धी निराश न होती और उसकी याचना बराबर जारी रहती। झोंपड़ी तक पहुंचते-पहुंचते उसे दो-चार पैसे और मिल जाते।
झोंपड़ी के समीप पहुंचते ही एक दस वर्ष का लड़का उछलता-कूदता आता और उससे चिपट जाता। अन्धी टटोलकर उसके मस्तक को चूमती।
बच्चा कौन है? किसका है? कहां से आया? इस बात से कोई परिचय नहीं था। पांच वर्ष हुए पास-पड़ोस वालों ने उसे अकेला देखा था। इन्हीं दिनों एक दिन संध्या-समय लोगों ने उसकी गोद में एक बच्चा देखा, वह रो रहा था, अन्धी उसका मुख चूम-चूमकर उसे चुप कराने का प्रयत्न कर रही थी। वह कोई असाधारण घटना न थी, अत: किसी ने भी न पूछा कि बच्चा किसका है। उसी दिन से यह बच्चा अन्धी के पास था और प्रसन्न था। उसको वह अपने से अच्छा खिलाती और पहनाती।
अन्धी ने अपनी झोंपड़ी में एक हांडी गाड़ रखी थी। संध्या-समय जो कुछ मांगकर लाती उसमें डाल देती और उसे किसी वस्तु से ढांप देती। इसलिए कि दूसरे व्यक्तियों की दृष्टि उस पर न पड़े। खाने के लिए अन्न काफी मिल जाता था। उससे काम चलाती। पहले बच्चे को पेट भरकर खिलाती फिर स्वयं खाती। रात को बच्चे को अपने वक्ष से लगाकर वहीं पड़ रहती। प्रात:काल होते ही उसको खिला-पिलाकर फिर मन्दिर के द्वार पर जा खड़ी होती।

2
काशी में सेठ बनारसीदास बहुत प्रसिध्द व्यक्ति हैं। बच्चा-बच्चा उनकी कोठी से परिचित है। बहुत बड़े देशभक्त और धर्मात्मा हैं। धर्म में उनकी बड़ी रुचि है। दिन के बारह बजे तक सेठ स्नान-ध्यान में संलग्न रहते। कोठी पर हर समय भीड़ लगी रहती। कर्ज के इच्छुक तो आते ही थे, परन्तु ऐसे व्यक्तियों का भी तांता बंधा रहता जो अपनी पूंजी सेठजी के पास धरोहर रूप में रखने आते थे। सैकड़ों भिखारी अपनी जमा-पूंजी इन्हीं सेठजी के पास जमा कर जाते। अन्धी को भी यह बात ज्ञात थी, किन्तु पता नहीं अब तक वह अपनी कमाई यहां जमा कराने में क्यों हिचकिचाती रही।
उसके पास काफी रुपये हो गए थे, हांडी लगभग पूरी भर गई थी। उसको शंका थी कि कोई चुरा न ले। एक दिन संध्या-समय अन्धी ने वह हांडी उखाड़ी और अपने फटे हुए आंचल में छिपाकर सेठजी की कोठी पर पहुंची।
सेठजी बही-खाते के पृष्ठ उलट रहे थे, उन्होंने पूछा- क्या है बुढ़िया?
अंधी ने हांडी उनके आगे सरका दी और डरते-डरते कहा- सेठजी, इसे अपने पास जमा कर लो, मैं अंधी, अपाहिज कहां रखती फिरूंगी?
सेठजी ने हांडी की ओर देखकर कहा-इसमें क्या है?
अन्धी ने उत्तर दिया- भीख मांग-मांगकर अपने बच्चे के लिए दो-चार पैसे संग्रह किये हैं, अपने पास रखते डरती हूं, कृपया इन्हें आप अपनी कोठी में रख लें।
सेठजी ने मुनीम की ओर संकेत करते हुए कहा- बही में जमा कर लो। फिर बुढ़िया से पूछा-तेरा नाम क्या है?
अंधी ने अपना नाम बताया, मुनीमजी ने नकदी गिनकर उसके नाम से जमा कर ली और वह सेठजी को आशीर्वाद देती हुई अपनी झोंपड़ी में चली गई।

3
दो वर्ष बहुत सुख के साथ बीते। इसके पश्चात् एक दिन लड़के को ज्वर ने आ दबाया। अंधी ने दवा-दारू की, झाड़-फूंक से भी काम लिया, टोने-टोटके की परीक्षा की, परन्तु सम्पूर्ण प्रयत्न व्यर्थ सिध्द हुए। लड़के की दशा दिन-प्रतिदिन बुरी होती गई, अंधी का हृदय टूट गया, साहस ने जवाब दे दिया, निराश हो गई। परन्तु फिर ध्यान आया कि संभवत: डॉक्टर के इलाज से फायदा हो जाए। इस विचार के आते ही वह गिरती-पड़ती सेठजी की कोठी पर आ पहुंची। सेठजी उपस्थित थे।
अंधी ने कहा- सेठजी मेरी जमा-पूंजी में से दस-पांच रुपये मुझे मिल जायें तो बड़ी कृपा हो। मेरा बच्चा मर रहा है, डॉक्टर को दिखाऊंगी।
सेठजी ने कठोर स्वर में कहा- कैसी जमा पूंजी? कैसे रुपये? मेरे पास किसी के रुपये जमा नहीं हैं।
अंधी ने रोते हुए उत्तर दिया- दो वर्ष हुए मैं आपके पास धरोहर रख गई थी। दे दीजिए बड़ी दया होगी।
सेठजी ने मुनीम की ओर रहस्यमयी दृष्टि से देखते हुए कहा- मुनीमजी, जरा देखना तो, इसके नाम की कोई पूंजी जमा है क्या? तेरा नाम क्या है री?
अंधी की जान-में-जान आई, आशा बंधी। पहला उत्तर सुनकर उसने सोचा कि सेठ बेईमान है, किन्तु अब सोचने लगी सम्भवत: उसे ध्यान न रहा होगा। ऐसा धर्मी व्यक्ति भी भला कहीं झूठ बोल सकता है। उसने अपना नाम बता दिया। उलट-पलटकर देखा। फिर कहा- नहीं तो, इस नाम पर एक पाई भी जमा नहीं है।
अंधी वहीं जमी बैठी रही। उसने रो-रोकर कहा- सेठजी, परमात्मा के नाम पर, धर्म के नाम पर, कुछ दे दीजिए। मेरा बच्चा जी जाएगा। मैं जीवन-भर आपके गुण गाऊंगी।
परन्तु पत्थर में जोंक न लगी। सेठजी ने क्रुध्द होकर उत्तर दिया- जाती है या नौकर को बुलाऊं।
अंधी लाठी टेककर खड़ी हो गई और सेठजी की ओर मुंह करके बोली- अच्छा भगवान तुम्हें बहुत दे। और अपनी झोंपड़ी की ओर चल दी।
यह अशीष न था बल्कि एक दुखी का शाप था। बच्चे की दशा बिगड़ती गई, दवा-दारू हुई ही नहीं, फायदा क्यों कर होता। एक दिन उसकी अवस्था चिन्ताजनक हो गई, प्राणों के लाले पड़ गये, उसके जीवन से अंधी भी निराश हो गई। सेठजी पर रह-रहकर उसे क्रोध आता था। इतना धनी व्यक्ति है, दो-चार रुपये दे देता तो क्या चला जाता और फिर मैं उससे कुछ दान नहीं मांग रही थी, अपने ही रुपये मांगने गई थी। सेठजी से घृणा हो गई।
बैठे-बैठे उसको कुछ ध्यान आया। उसने बच्चे को अपनी गोद में उठा लिया और ठोकरें खाती, गिरती-पड़ती, सेठजी के पास पहुंची और उनके द्वार पर धरना देकर बैठ गई। बच्चे का शरीर ज्वर से भभक रहा था और अंधी का कलेजा भी।
एक नौकर किसी काम से बाहर आया। अंधी को बैठा देखकर उसने सेठजी को सूचना दी, सेठजी ने आज्ञा दी कि उसे भगा दो।
नौकर ने अंधी से चले जाने को कहा, किन्तु वह उस स्थान से न हिली। मारने का भय दिखाया, पर वह टस-से-मस न हुई। उसने फिर अन्दर जाकर कहा कि वह नहीं टलती।
सेठजी स्वयं बाहर पधारे। देखते ही पहचान गये। बच्चे को देखकर उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ कि उसकी शक्ल-सूरत उनके मोहन से बहुत मिलती-जुलती है। सात वर्ष हुए तब मोहन किसी मेले में खो गया था। उसकी बहुत खोज की, पर उसका कोई पता न मिला। उन्हें स्मरण हो आया कि मोहन की जांघ पर एक लाल रंग का चिन्ह था। इस विचार के आते ही उन्होंने अंधी की गोद के बच्चे की जांघ देखी। चिन्ह अवश्य था परन्तु पहले से कुछ बड़ा। उनको विश्वास हो गया कि बच्चा उन्हीं का है। परन्तु तुरन्त उसको छीनकर अपने कलेजे से चिपटा लिया। शरीर ज्वर से तप रहा था। नौकर को डॉक्टर लाने के लिए भेजा और स्वयं मकान के अन्दर चल दिये।
अंधी खड़ी हो गई और चिल्लाने लगी-मेरे बच्चे को न ले जाओ, मेरे रुपये तो हजम कर गये अब क्या मेरा बच्चा भी मुझसे छीनोगे?
सेठजी बहुत चिन्तित हुए और कहा-बच्चा मेरा है, यही एक बच्चा है, सात वर्ष पूर्व कहीं खो गया था अब मिला है, सो इसे कहीं नहीं जाने दूंगा और लाख यत्न करके भी इसके प्राण बचाऊंगा।
अंधी ने एक जोर का ठहाका लगाया-तुम्हारा बच्चा है, इसलिए लाख यत्न करके भी उसे बचाओगे। मेरा बच्चा होता तो उसे मर जाने देते, क्यों? यह भी कोई न्याय है? इतने दिनों तक खून-पसीना एक करके उसको पाला है। मैं उसको अपने हाथ से नहीं जाने दूंगी।
सेठजी की अजीब दशा थी। कुछ करते-धरते बन नहीं पड़ता था। कुछ देर वहीं मौन खड़े रहे फिर मकान के अन्दर चले गये। अन्धी कुछ समय तक खड़ी रोती रही फिर वह भी अपनी झोंपड़ी की ओर चल दी।
दूसरे दिन प्रात:काल प्रभु की कृपा हुई या दवा ने जादू का-सा प्रभाव दिखाया। मोहन का ज्वर उतर गया। होश आने पर उसने आंख खोली तो सर्वप्रथम शब्द उसकी जबान से निकला, मां।
चहुंओर अपरिचित शक्लें देखकर उसने अपने नेत्र फिर बन्द कर लिये। उस समय से उसका ज्वर फिर अधिक होना आरम्भ हो गया। मां-मां की रट लगी हुई थी, डॉक्टरों ने जवाब दे दिया, सेठजी के हाथ-पांव फूल गये, चहुंओर अंधेरा दिखाई पड़ने लगा।
क्या करूं एक ही बच्चा है, इतने दिनों बाद मिला भी तो मृत्यु उसको अपने चंगुल में दबा रही है, इसे कैसे बचाऊं?
सहसा उनको अन्धी का ध्यान आया। पत्नी को बाहर भेजा कि देखो कहीं वह अब तक द्वार पर न बैठी हो। परन्तु वह वहां कहां? सेठजी ने फिटन तैयार कराई और बस्ती से बाहर उसकी झोंपड़ी पर पहुँचे। झोंपड़ी बिना द्वार के थी, अन्दर गए। देखा अन्धी एक फटे-पुराने टाट पर पड़ी है और उसके नेत्रों से अश्रुधर बह रही है। सेठजी ने धीरे से उसको हिलाया। उसका शरीर भी अग्नि की भांति तप रहा था।
सेठजी ने कहा- बुढ़िया! तेरा बच्च मर रहा है, डॉक्टर निराश हो गए, रह-रहकर वह तुझे पुकारता है। अब तू ही उसके प्राण बचा सकती है। चल और मेरे...नहीं-नहीं अपने बच्चे की जान बचा ले।
अन्धी ने उत्तर दिया- मरता है तो मरने दो, मैं भी मर रही हूं। हम दोनों स्वर्ग-लोक में फिर मां-बेटे की तरह मिल जाएंगे। इस लोक में सुख नहीं है, वहां मेरा बच्चा सुख में रहेगा। मैं वहां उसकी सुचारू रूप से सेवा-सुश्रूषा करूंगी।
सेठजी रो दिये। आज तक उन्होंने किसी के सामने सिर न झुकाया था। किन्तु इस समय अन्धी के पांवों पर गिर पड़े और रो-रोकर कहा- ममता की लाज रख लो, आखिर तुम भी उसकी मां हो। चलो, तुम्हारे जाने से वह बच जायेगा।
ममता शब्द ने अन्धी को विकल कर दिया। उसने तुरन्त कहा- अच्छा चलो।
सेठजी सहारा देकर उसे बाहर लाये और फिटन पर बिठा दिया। फिटन घर की ओर दौड़ने लगी। उस समय सेठजी और अन्धी भिखारिन दोनों की एक ही दशा थी। दोनों की यही इच्छा थी कि शीघ्र-से-शीघ्र अपने बच्चे के पास पहुंच जायें।
कोठी आ गई, सेठजी ने सहारा देकर अन्धी को उतारा और अन्दर ले गए। भीतर जाकर अन्धी ने मोहन के माथे पर हाथ फेरा। मोहन पहचान गया कि यह उसकी मां का हाथ है। उसने तुरन्त नेत्र खोल दिये और उसे अपने समीप खड़े हुए देखकर कहा- मां, तुम आ गईं।
अन्धी भिखारिन मोहन के सिरहाने बैठ गई और उसने मोहन का सिर अपने गोद में रख लिया। उसको बहुत सुख अनुभव हुआ और वह उसकी गोद में तुरन्त सो गया।
दूसरे दिन से मोहन की दशा अच्छी होने लगी और दस-पन्द्रह दिन में वह बिल्कुल स्वस्थ हो गया। जो काम हकीमों के जोशान्दे, वैद्यों की पुड़िया और डॉक्टरों के मिक्सचर न कर सके वह अन्धी की स्नेहमयी सेवा ने पूरा कर दिया।
मोहन के पूरी तरह स्वथ हो जाने पर अन्धी ने विदा मांगी। सेठजी ने बहुत-कुछ कहा-सुना कि वह उन्हीं के पास रह जाए परन्तु वह सहमत न हुई, विवश होकर विदा करना पड़ा। जब वह चलने लगी तो सेठजी ने रुपयों की एक थैली उसके हाथ में दे दी। अन्धी ने मालूम किया, इसमें क्या है।
सेठजी ने कहा-इसमें तुम्हारे धरोहर है, तुम्हारे रुपये। मेरा वह अपराध
अन्धी ने बात काट कर कहा-यह रुपये तो मैंने तुम्हारे मोहन के लिए संग्रह किये थे, उसी को दे देना।
अन्धी ने थैली वहीं छोड़ दी। और लाठी टेकती हुई चल दी। बाहर निकलकर फिर उसने उस घर की ओर नेत्र उठाये उसके नेत्रों से अश्रु बह रहे थे किन्तु वह एक भिखारिन होते हुए भी सेठ से महान थी। इस समय सेठ याचक था और वह दाता थी।

Monday, March 13, 2023

संस्मरण | 'प्रेमघन' की छाया-स्मृति | रामचन्द्र शुक्ल | Sansmaran | Premghan ki Chaya Smriti | Ramchandra Shukla


संस्मरण - 'प्रेमघन' की छाया-स्मृति

मेरे पिताजी फ़ारसी के अच्छे ज्ञाता और पुरानी हिंदी-कविता के बड़े प्रेमी थे। फ़ारसी-कवियों की उक्तियों को हिंदी-कवियों की उक्तियों के साथ मिलाने में उन्हें बड़ा आनंद आता था। वे रात को प्रायः रामचरितमानस और रामचंद्रिका, घर के सब लोगों को एकत्र करके, बड़े चित्ताकर्षक ढंग से पढ़ा करते थे। आधुनिक हिंदी-साहित्य में भारतेंदुजी के नाटक उन्हें बहुत प्रिय थे। उन्हें भी वे कभी-कभी सुनाया करते थे। जब उनकी बदली हमीरपुर ज़िले की राठ तहसील से मिर्ज़ापुर हुई तब मेरी अवस्था आठ वर्ष की थी। उसके पहले ही से भारतेंदु के संबंध में एक अपूर्व मधुर भावना मेरे मन में जगी रहती थी। 'सत्यहरिश्चंद्र' नाटक के नायक राजा हरिश्चंद्र और कवि हरिश्चंद्र में मेरी बाल-बुद्धि कोई भेद नहीं कर पाती थी। 'हरिश्चंद्र' शब्द से दोनों की एक मिली-जुली भावना एक अपूर्व माधुर्य का संचार मेरे मन में करती थी। मिर्ज़ापुर आने पर कुछ दिनों में सुनाई पड़ने लगा कि भारतेंदु हरिश्चंद्र के एक मित्र यहाँ रहते हैं जो हिन्दी के एक प्रसिद्ध कवि हैं और जिनका नाम है उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी। 

भारतेंदु-मंडल की किसी सजीव स्मृति के प्रति मेरी कितनी उत्कंठा रही होगी, यह अनुमान करने की बात है। मैं नगर से बाहर रहता था। एक दिन बालकों की एक मंडली जोड़ी गई। जो चौधरी साहब के मकान से परिचित थे, वे अगुआ हुए। मील-डेढ़-मील का सफ़र तै हुआ। पत्थर के एक बड़े मकान के सामने हम लोग जा खड़े हुए। नीचे का बरामदा ख़ाली था। ऊपर का बरामदा सघन लताओं के जाल से आवृत था। बीच-बीच में खंभे और खुली जगह दिखाई पड़ती थी। उसी ओर देखने के लिए मुझसे कहा गया। कोई दिखाई न पड़ा। सड़क पर कई चक्कर लगे। कुछ देर पीछे एक लड़के ने उँगली से ऊपर की ओर इशारा किया। लता-प्रतान के बीच एक मूर्ति खड़ी दिखाई पड़ी। दोनों कंधों पर बाल बिखरे हुए थे। एक हाथ खंभे पर था। देखते-ही-देखते वह मूर्ति दृष्टि से ओझल हो गई। बस, यही पहली झाँकी थी। 

ज्यों-ज्यों मैं सयाना होता गया, त्यों-त्यों हिंदी के नूतन साहित्य की ओर मेरा झुकाव बढ़ता गया। क्वींस कॉलेज में पढ़ते समय स्वर्गीय बा० रामकृष्ण वर्मा मेरे पिताजी के सहपाठियों में थे। भारतजीवन प्रेस की पुस्तकें प्रायः मेरे यहाँ आया करती थीं; पर अब पिताजी उन पुस्तकों को छिपा कर रखने लगे। उन्हें डर हुआ कि कहीं मेरा चित्त स्कूल की पढ़ाई से हट न जाए—मैं बिगड़ न जाऊँ। उन्हीं दिनों प० केदारनाथजी पाठक ने एक हिंदी पुस्तकालय खोला था। मैं वहाँ से पुस्तकें ला-लाकर पढ़ा करता। एक बार एक आदमी साथ करके मेरे पिताजी ने मुझे एक बरात में काशी भेजा। मैं उसी के साथ घूमता-फिरता चौखंभे की ओर जा निकला। वहीं पर एक घर में से प० केदारनाथजी पाठक निकलते दिखाई पड़े। पुस्तकालय में वे मुझे प्रायः देखा करते थे। इससे मुझे देखते ही वे वहीं खड़े हो गए। बात-ही-बात में मालूम हुआ कि जिस मकान में से ये निकले थे, वह भारतेंदुजी का घर था। मैं बड़ी चाह और कुतूहल की दृष्टि से कुछ देर तक उस मकान की ओर, न जाने किन भावनाओं में लीन होकर, देखता रहा। पाठकजी मेरी यह भावुकता देख बड़े प्रसन्न हुए और बहुत दूर तक मेरे साथ बातचीत करते हुए गए। भारतेंदुजी के मकान के नीचे का यह हृदय-परिचय बहुत शीघ्र गहरी मैत्री में परिणत हो गया। 

16 वर्ष की अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते तो समवयस्क हिंदी-प्रेमियों की एक ख़ासी मंडली मुझे मिल गई जिनमें श्रीयुत काशीप्रसादजी जायसवाल, बा० भगवानदासजी हालना, प० बदरीनाथ गौड़, प० उमाशंकर द्विवेदी मुख्य थे। हिंदी के नए-पुराने लेखकों की चर्चा बराबर इस मंडली में रहा करती थी। मैं भी अब अपने को एक लेखक मानने लगा था। हम लोगों की बातचीत प्रायः लिखने-पढ़ने की हिंदी में हुआ करती, जिसमें 'निस्संदेह' इत्यादि शब्द आया करते थे। जिस स्थान पर मैं रहता था, वहाँ अधिकतर वकील-मुख़्तारों तथा कचहरी के अफ़सरों और अमलों की बस्ती थी। ऐसे लोगों के उर्दू-कानों में हम लोगों की बोली कुछ अनोखी लगती थी। इसी से उन्होंने हम लोगों का नाम 'निस्संदेह लोग' रख छोड़ा था। मेरे मुहल्ले में कोई मुसलमान सब-जज आ गए थे। एक दिन मेरे पिताजी खड़े-खड़े उनके साथ कुछ बातचीत कर रहे थे। इसी बीच मैं उधर जा निकला। पिताजी ने मेरा परिचय देते हुए उनसे कहा—'इन्हें हिंदी का बड़ा शौक़ है।' चट जवाब मिला—'आपको बताने की ज़रूरत नहीं। मैं तो इनकी सूरत देखते ही इस बात से वाक़िफ़ हो गया।' मेरी सूरत में ऐसी क्या बात थी, यह इस समय नहीं कह सकता। आज से तीस वर्ष पहले की बात है। 

चौधरी साहब से तो अब अच्छी तरह परिचय हो गया था। अब उनके यहाँ मेरा जाना एक लेखक की हैसियत से होता था। हम लोग उन्हें एक पुरानी चीज़ समझा करते थे। इस पुरातत्व की दृष्टि में प्रेम और कुतूहल का एक अद्भुत मिश्रण रहता था। यहाँ पर यह कह देना आवश्यक है कि चौधरी साहब एक ख़ासे हिंदुस्तानी रईस थे। बसंत-पंचमी, होली इत्यादि अवसरों पर उनके यहाँ ख़ूब नाच रंग और उत्सव हुआ करते थे। उनकी हर एक अदा से रियासत और तबीयतदारी टपकती थी। कंधों तक बाल लटक रहे हैं। आप इधर से उधर टहल रहे हैं। एक छोटा-सा लड़का पान की तश्तरी लिए पीछे-पीछे लगा हुआ है। बात की काट-छाँट का क्या कहना है! जो बातें उनके मुँह से निकलती थीं, उनमें एक विलक्षण वक्रता रहती थी। उनकी बातचीत का ढंग उनके लेखों के ढंग से एक दम निराला होता था। नौकरों तक के साथ उनका संवाद सुनने लायक होता था। अगर किसी नौकर के हाथ से कभी कोई गिलास वग़ैरा गिरा तो उनके मुँह से यही निकलता कि 'कारे बचा त नाहीं।' उनके प्रश्नों के पहले 'क्यों साहब' अक्सर लगा रहता था। 

वे लोगों को प्रायः बनाया करते थे, इससे उनसे मिलने वाले लोग भी उन्हें बनाने की फ़िक्र में रहा करते थे। मिर्ज़ापुर में पुरानी परिपाटी के एक बहुत ही प्रतिभाशाली कवि रहते थे जिनका नाम था—वामनाचार्य गिरि। एक दिन वे सड़क पर चौधरी साहब के ऊपर एक कवित्त जोड़ते चले जा रहे थे। अंतिम चरण रह गया था कि चौधरी साहब अपने बरामदे में कंधों पर बाल छिटकाए खंभे के सहारे खड़े दिखाई पड़े। चट कवित्त पूरा हो गया और वामनजी ने नीचे से वह कवित्त ललकारा, जिसका अंतिम अंश था—'खंभा टेकि खड़ी जैसे नारि मुग़लाने की।' 

एक दिन कई लोग बैठे बातचीत कर रहे थे कि इतने में एक पंडितजी आ पहुँचे। चौधरी साहब ने पूछा—'कहिए क्या हाल है?' पंडितजी बोले—'कुछ नहीं, आज एकादशी थी, कुछ जल खाया है और चले आ रहे हैं।' प्रश्न हुआ—'जल ही खाया है कि कुछ फलाहार भी पिया है।' 

एक दिन चौधरी साहब के एक पड़ोसी उनके यहाँ पहुँचे। देखते ही सवाल हुआ—'क्यों साहब, एक लफ़्ज़ मैं अक्सर सुना करता हूँ; पर उसका ठीक अर्थ समझ में न आया। आख़िर घनचक्कर के क्या मानी हैं, उसके क्या लक्षण हैं?' पड़ोसी महाशय बोले—'वाह, यह क्या मुश्किल बात है। एक दिन रात को सोने के पहले काग़ज़-क़लम लेकर सबेरे से रात तक जो-जो काम किए हों, सब लिख जाइए और पढ़ जाइए।' 

मेरे सहपाठी पंडित लक्ष्मीनारायण चौबे, बा० भगवानदास हालना, बाबू भगवानदास मास्टर (इन्होंने उर्दू-बेगम नाम की एक बड़ी ही विनोदपूर्ण पुस्तक लिखी थी, जिसमें उर्दू की उत्पत्ति, प्रचार, आदि का वृत्तांत एक कहानी के ढंग पर दिया गया था) इत्यादि कई आदमी गर्मी के दिनों में छत पर बैठे चौधरी साहब से बातचीत कर रहे थे। चौधरी साहब के पास ही एक लैंप जल रहा था। लैंप की बत्ती एक बार भभकने लगी। चौधरी साहब नौकरों को आवाज़ देने लगे। मैंने चाहा कि बढ़कर बत्ती नीचे गिरा दूँ, पर पंडित लक्ष्मीनारायण ने तमाशा देखने के विचार से मुझे धीरे से रोक लिया। चौधरी साहब कहते जा रहे हैं—'अरे, जब फूट जाई तबै चलत जाबह।' अंत में चिमनी ग्लोब के सहित चकनाचूर हो गई; पर चौधरी साहब का हाथ लैंप की तरफ़ न बढ़ा। 

उपाध्यायजी नागरी को भाषा का नाम मानते थे और बराबर नागरी भाषा लिखा करते थे। उनका कहना था कि नागर अपभ्रंश से जो शिष्ट लोगों की भाषा विकसित हुई, वही नागरी कहलाई। इसी प्रकार वे मिर्ज़ापुर न लिखकर मीरजापुर लिखा करते थे, जिसका अर्थ वे करते थे लक्ष्मीपुर= मीर = समुद्र + जा=पुत्री + पुर। 

Friday, March 10, 2023

नज़्म | देख बहारें होली की | नज़ीर अकबराबादी | Najm | Dekh Baharein Holi Ki | Nazeer Akbarabadi


नज़्म - देख बहारें होली की

जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की 
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की 
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की 
ख़ुम, शीशे, जाम, झलकते हों तब देख बहारें होली की 
महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की 


हो नाच रंगीली परियों का बैठे हों गुल-रू रंग-भरे 
कुछ भीगी तानें होली की कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग-भरे 
दिल भूले देख बहारों को और कानों में आहंग भरे 
कुछ तबले खड़कें रंग-भरे कुछ ऐश के दम मुँह-चंग भरे 
कुछ घुंघरू ताल छनकते हों तब देख बहारें होली की 


सामान जहाँ तक होता है उस इशरत के मतलूबों का 
वो सब सामान मुहय्या हो और बाग़ खिला हो ख़्वाबों का 
हर आन शराबें ढलती हों और ठठ हो रंग के डूबों का 
इस ऐश मज़े के आलम में एक ग़ोल खड़ा महबूबों का 
कपड़ों पर रंग छिड़कते हों तब देख बहारें होली की 


गुलज़ार खिले हों परियों के और मज्लिस की तय्यारी हो 
कपड़ों पर रंग के छींटों से ख़ुश-रंग अजब गुल-कारी हो 
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हों, और हाथों में पिचकारी हो 
उस रंग-भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो 
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की 


उस रंग-रंगीली मज्लिस में वो रंडी नाचने वाली हो 
मुँह जिस का चाँद का टुकड़ा हो और आँख भी मय के प्याली हो 
बद-मसत बड़ी मतवाली हो हर आन बजाती ताली हो 
मय-नोशी हो बेहोशी हो ''भड़वे'' की मुँह में गाली हो 
भड़वे भी, भड़वा बकते हों तब देख बहारें होली की 


और एक तरफ़ दिल लेने को महबूब भवय्यों के लड़के 
हर आन घड़ी गत भरते हों कुछ घट घट के कुछ बढ़ बढ़ के 
कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के कुछ होली गावें अड़ अड़ के 
कुछ लचके शोख़ कमर पतली कुछ हाथ चले कुछ तन भड़के 
कुछ काफ़िर नैन मटकते हों तब देख बहारें होली की 


ये धूम मची हो होली की और ऐश मज़े का झक्कड़ हो 
उस खींचा-खींच घसीटी पर भड़वे रंडी का फक्कड़ हो 
माजून, शराबें, नाच, मज़ा, और टिकिया सुल्फ़ा कक्कड़ हो 
लड़-भिड़ के 'नज़ीर' भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़-पत्थड़ हो 
जब ऐसे ऐश महकते हों तब देख बहारें होली की 

Wednesday, March 1, 2023

कहानी | राजकुमारी हिमांगिनी | महावीर प्रसाद द्विवेदी | Kahani | Rajkumari Himangini | Mahavir Prasad Dwivedi


कहानी - राजकुमारी हिमांगिनी

पर्वत के सबसे ऊंचे शिखर पर राजकुमारी हिमांगिनी ने अपना घर बनाया। संसार के साधारण जीवों के पास रहना, या उनके साथ हंसना-खेलना उसे जरा भी पसंद न आया।

‘‘सुंदरता और गोरेपन में मैं अपना सानी नहीं रखती; फिर मैं राजकुमारिका हूं। तब भला क्यों मैं मामूली लोगों के पास बैठना पसंद करूं? संसारी जीवों की संगति मुझे जरूर अपवित्र कर डालेगी।’’ इस तरह अपने मन में सोच-विचारकर वह पहाड़ों की तरफ चली। वहां सबसे ऊंचे पहाड़ की चोटी पर वह जा बैठी। वहां रहते उसे कई युग बीत गए। अपनी चमक-दमक और रूप-रंग के गर्व से फूली नहीं समाई।

चिरकाल तक वह वहीं सर्वांग शीतल अवयवों और सुंदरता के मद से मतवाली रही।उसका समय का रूप सफेद कमल के समान सुंदर वस्त्र धारण किए हुए नई वधू के रूप को भी मात करता था। पर वहां एकांत में अकेली रहते-रहते वह ऊब उठी। धीरे-धीरे उसे दूसरे की संगति की चाहत हुई। कुछ दिनों में, क्रम-क्रम से, उसकी उत्सुकता बढ़ गई। उसने विवाह करना चाहा। पर उसके पाणिग्रहण का सौभाग्य प्राप्त हो किसे? उसे खुद ही न मालूम था कि कौन ऐसा भाग्यवान् युवक है जिसे उसका यौवन-रत्न प्राप्त हो सकेगा। मारूत महाराज, पवन देव, झकोर सिंह इत्यादि राजों और राजकुमारों ने उसके साथ अनेक प्रेमलाप किए; हर प्रयत्न से उसका चित्त अपनी ओर आकर्षित करना चाहा, पर सब व्यर्थ हुआ। उनमें से एक को उसने पसंद न किया। उसकी समझ में उन सबका प्रेम दो ही चार दिनों का था। ऐसे कच्चे प्रेमियों को कौन कुमारिका अपना सर्वस्व दे डालने का साहस करेगी?

जलदेन्द्र बहादुर सिंह तक हिमांगिनी के प्रेम के भिखारी हुए। उन्होंने उसके पास कई दूतियां भी भेजीं। उन्होंने उसकी विरह-कथा की कहानियां, खूब नमक-मिर्च लगाकर, कही। वे अपने साथ पहनने-ओढ़ने की कुछ चीजें भी उपहार के तौर पर लाईं। उनको हिमांगिनी अब तक धारण किए हुए हैं। पर जलदेन्द्र भी उसे पसंद न आए। पुरुषत्व के गुणों की उनमें जरा कमी नजर आई। पुरुष वह है जिसमें शक्ति भी हो, कठोरता भी हो, धैर्य भी हो और समय पर दुःख, क्लेश या दूसरों की दो-चार बातें सहने का भी सामर्थ्य हो। इन सब गुणों के न होने से हिमांगिनी ने उसकी भी प्रार्थना स्वीकार न की। क्या करे? बेचारी चुपचाप अपने घर बैठी रही। उसका भव्य वेश, उसका रूप-लावण्य और उसका गर्वव्यंजक चेहरा देखने लायक था। पर यौवन की ऊष्मा उसमें न थी; उसका बदन ठंडी बर्फ के समान ठंडा था। इसी से उसे देखकर तबीयत खुश नहीं होती थी; जान पड़ता था कि उसका शरीर निर्जीव है।

यथासमय वसंत ऋतु आई। बादल जहां के तहां उड़ गए। आसपास साफ हो गया। इतने में अनायास एक बड़ा ही सुरूपवान् और गौरवर्ण युवा पहाड़ की चोटी पर दिखाई दिया। अहा, उसकी मुसकान जादू से भरी हुई थी। उसे देखते हिमांगिनी का दिल हाथ से जाता रहा। जानते हो वह कौन था? उस नवयुवक का नाम था भुवन भास्कर सिंह। राजकुमारी हिमांगिनी ने अभी अच्छी तरह उसे देखा भी न था कि वह उसके हाथ बिक-सी गई। अपना शरीर, उसका मन, अपना प्राण, अपना सर्वस्व, सभी उसने उसे दे डाला। प्रेमोन्माद की गर्मी से व्याकुल होकर वह सहसा पीली पड़ गई। ऐसा पीलापन उसमें पहले कभी नहीं देखा गया था। पाण्डु और कमला रोग का रोगी भी इतना पीला नहीं पड़ जाता। उसका पत्थर के समान सख्त कलेजा भीतर-ही-भीतर पिघल उठा। उसकी आंखों से आंसू की झड़ी लग गई। उसकी अजब हालत हो गई। एक प्रकार के आतंक, भय और घबराहट ने उसको घेर लिया। वह कांपने-सी लगी। उसके सजीव होने और चलने-फिरने की शक्ति रखने का यह पहला चिह्न था।

हिमांगिनी ने अपने पीले और मुरझाए हुए चेहरे को ऊपर उठाया और कांपते हुए होंठों के बीच से निकलनेवाली लड़खड़ाती हुई आवाज से उस नवयुवक से उसने वार्तालाप आरंभ किया। प्रेम-विह्वल होने पर बलवान् पुरुषों की भी अक्ल ठिकाने नहीं रहती। फिर अबला स्त्रियों की क्या कथा? इस अवसर पर संकोच और सलज्जता ने हिमांगिनी को प्रगल्भता के भरोसे अपने घर का रास्ता लिया। तब प्रगल्भता के समझाने-बुझाने पर उसे बोलने का साहस हो आया। उसने मुसकुराते हुए भुवन भास्कर से इस प्रकार प्रार्थना की-

‘‘हे मनोहरी युवक, तुम चाहे जो हो; तुमने मेरे धैर्य का सर्वथा नाश कर दिया। मुझे यहां रहते अनेक युग हो गए। अब तक मैं यहीं एकांत में चुपचाप अपनी आयु क्षीण करती रही। मैं आज तक यह न जान सकी कि किस तरह अपनी उम्र आराम से काटूं। आज तुम्हारे सुंदर मुख-कमल की ओर एक ही बार निहारने से मैंने यह चीज पा ली जिसकी खोज मुझे हजारों वर्ष से थी। मैं आपकी हो चुकी। मैंने इसी क्षण से अपना हृदय आपको दे डाला। मैं अपना सर्वस्व आपको अर्पण कर चुकी। मुझ पर अब आप दया करें। मेरी तरफ सकरुण दृष्टि से देखिए। मैं एक अनाथ, निराश्रय, निराश चिर-कुमारिका हूं। मेरा जीवन आज तक बिलकुल ही नीरस, निष्फल और कड़वा रहा। अब आप उसे सरस, सफल और मधुर कर देने की कृपा कीजिए।’’

यह सुनकर भुवन भास्कर ने शिष्टता और प्रेमपूर्ण कोमल वचनों से इस प्रकार उत्तर दिया-

‘‘स्वच्छ, निष्कलंक और सुंदर कुमारिके। तुम्हारी कांति, तुम्हारे रूप-रंग और तुम्हारे टटकेपन ने मुझे प्रसन्न किया; तुम्हारे एकांतवास ने मुझे खिन्न किया; पर तुम्हारे ठंडे और कठोर स्वभाव ने मुझे मार ही डाला। आज तक तुमने अपना जीवन उदासीनता और एकांतवास में बुरी तरह काटा। प्रेम और जीवन के तत्त्व पर तुमने जरा भी विचार नहीं किया। उदासीनता और एकांतवास को तुमने इसलिए स्वीकार किया कि प्रेम से तुम पीड़ित आ गई थी; या जीवन से तुम निराश हो गई थी। घमंड में आकर तुमने एकांतवास पसंद किया। दुनिया की नाट्यशाला में होनेवाले हजारों तरह के प्रेम-पूर्ण अभिनयों से दूर भागकर यहां, इस पहाड़ की चोटी पर, सबसे अलग रहने के इरादे से, तुम आ बैठी। क्या तुम नहीं जानती कि पहाड़ों का प्रेम वृक्ष के मधुर फल चखने को नहीं मिलते? प्रेम में उष्णता है; तुममें शीतलता। प्रेम प्रवाही है-वह बहकर अपने पात्र तक पहुंचता है। तुम जड़ हो, हजार प्रयत्न करने पर भी तुम अपनी जगह नहीं छोड़ती। फिर, तुम्हीं कहो, इस दशा में, किस प्रकार तुम किसी की प्रेमपात्र हो सकती हो?

‘‘अगर तुम मेरी वधू होना चाहती हो, मेरे प्रेम की प्रियतम पात्र बनना चाहती हो; तो तुम भी मेरे समान हो जाओ। उस उष्णता प्राप्त करो; अपने कड़ेपन को छोड़ी; प्रवाही बन जाओ; इन सुनसान पहाड़ों से नीचे उतरकर बस्ती में चलो। यदि तुम मेरे सुख-दुःख में शामिल होने की इच्छा रखती हो तो जो काम मैं करता हूं वही तुम भी करना सीखो। मैं आकाश को प्रकाशित करता हूं; तुम पृथ्वी को अपने लावण्य से प्रकाशित करती हुईं उसमें नरमी पैदा करो। उसे सरसब्ज और उपजाऊ बनाओ। तुमने अपने पास जो अनमोल चीजें छिपा रखी हैं उनको, राह में, जो कोई तुम्हें मिले, उसे, परोपकार करने के इरादे से, देती जाओ। सांसारिक भार को उठा लो। उसके सुख-दुःख में और हानि-लाभ में शामिल हो जाओ। सबसे हेल-मेल रखो और अपने पवित्र आचरण से सबको पवित्र करो।’’

इस प्रकार सम्भाषण करके भुवन भास्कर ने कुमारी हिमांगिनी का चुंबन बड़े ही प्रेम से किया। उसके स्पर्श से हिमांगिनी को परमानंद हुआ और वह तत्काल अपने प्रेमी की आज्ञा पालन करने के लिए प्रस्तुत हो गई। वह वहां से कूद पड़ी और ऊंची-ऊची पहाड़ियों और घाटियों को पार करके पहाड़ के नीचे उतर आई। वहां से वह उछलती-कूदती आगे बढ़ी। उसने अपने दिल में ठान लिया कि जब तक मैं सागर सिंह के दर्शन न कर लूंगी तब तक मैं हरगिज बीच में कहीं न ठहरूंगी।

हिमांगिनी ने अपना प्रण पूरा कर दिखाया, इसलिए उस पर प्रसन्न होकर सायंकाल, सागर सिंह के यहां आकर भुवन भास्कर ने यथाविधि उसका पाणिग्रहण किया। तब से हिमांगिनी वहीं रहने लगी। हर रोज रात को, अपनी प्रेमी भुवन भास्कर से मिलकर परमानंद का अनुभव करने लगी।

निबंध | कवि और कविता | महावीर प्रसाद द्विवेदी | Nibandh | Kavi aur Kavita | Mahavir Prasad Dwivedi

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