Saturday, July 29, 2023

Hindi Quiz | आपहुदरी | भोलाराम का जीव | जामुन का पेड़


👉निम्नलिखित प्रश्न यू॰जी॰सी॰ नेट के पाठ्यक्रम में शामिल तीन रचनाओं (आपहुदरी, भोलाराम का जीव और जामुन का पेड़) पर आधारित हैं। जो विभिन्न परीक्षाओं में पूंछे जा चुके हैं।

 

1➤ आपहुदरी किस प्रकार की रचना है ?






2➤ आपहुदरी के संबंध में सत्य नहीं है ?






3➤ आपहुदरी का प्रकाशन कब हुआ था ?






4➤ ‘आपहुदरी’ किस भाषा का शब्द है ?






5➤ ‘आपहुदरी’ में लेखिका पर किसका प्रभाव है ?






6➤ रमणिका गुप्ता का वास्तविक नाम क्या है ?






7➤ आपहुदरी आत्मकथा के आधार पर रमणिका गुप्ता का प्रारंभिक प्रेम निम्नलिखित में से किस पात्र से हुआ था ?






8➤ रमणिका गुप्ता का जन्म किस राज्य में हुआ था ?






9➤ आपहुदरी की लेखिका किस पुस्तक को पढ़ने के बाद पूजा-पाठ कर्मकाण्डों पर विश्वास कम करने लगीं ?






10➤ आपहुदरी में लेखिका ने किस पंजाबी कुप्रथा का वर्णन किया है ?






11➤ ‘आपहुदरी एक दिलचस्प और दिलकश आत्मकथा है।’ किसका कथन है ?






12➤ भोलाराम का जीव किस विधा की रचना है ?






13➤ ‘भोलाराम का जीव’ की शुरूआत कहां से होती है ?






14➤ ‘भोलाराम का जीव’ की कथावस्तु है ?






15➤ ‘भोलाराम का जीव’ के संदर्भ में सही नहीं है ?






16➤ ‘जामुन का पेड़’ के लेखक हैं ?






17➤ ‘जामुन का पेड़’ किस विधा की रचना है ?






18➤ ‘जामुन का पेड़’ की विषय वस्तु आधारित है ?






19➤ ‘जामुन का पेड़’ का नायक किन दो विभागों की कार्यशैली से जूझ रहा है ?






20➤ जामुन के पेड़ से दबे शायर के शायरी- संग्रह का नाम था ?






Friday, July 28, 2023

लघु कथा | कैदी | ओ. हेनरी | Laghu Katha | Kaidi | O. Henry


लघु कथा - कैदी

जीवन के सुख-दुख का प्रतिबिंब मनुष्य के मुखड़े पर सदैव तैरता रहता है, लेकिन उसे ढूँढ़ निकालने की दृष्टि केवल चित्रकार के पास होती है। वह भी एक चित्रकार था। भावना और वास्वविकता का एक अद्भुत सामंजस्य होता था उसके बनाए चित्रों में।

एक बार उसके मन में आया कि ईसा मसीह का चित्र बनाया जाए। सोचते-सोचते एक नया प्रसंग उभर आया। उसके मस्तिष्क में छोटे-से ईसा को एक शैतान हंटर से मार रहा है, लेकिन न जाने क्यों ईसा का चित्र बन ही नहीं रहा था। चित्रकार की आँखों में ईसा की जो मूर्ति बनी थी, उसका मानव रूप में दर्शन दुर्लभ ही था। बहुत खोजा, मगर वैसा तेजस्वी मुखड़ा उसे कहीं नहीं मिला।

एक दिन उद्यान में टहलते समय उसकी दृष्टि अनाथालय के आठ वर्ष के बालक पर पड़ी। बहुत भोला था। ठीक ईसा की तरह, सुंदर और निष्पाप। उसने बालक को गोद में उठा लिया और शिक्षक से आदेश लेकर अपने स्टूडियो में ले आया। अपूर्व उत्साह से उसने कुछ ही मिनटों में चित्र बना डाला। चित्र पूरा कर वह बालक को अनाथालय पहुँचा आया।

अब ईसा के साथ शैतान का चित्र बनाने की समस्या उठ खड़ी हुई। वह एक क्रूर चेहरे की खोज में निकल पड़ा। दिन की कौन कहे, महीनों बीत गए। शराबखानों, वेश्याओं के मोहल्ले, गुंडों के अड्डों की खाक छानी। चौदह वर्ष पूर्व बनाया गया चित्र अभी तक अधूरा पड़ा हुआ था। अचानक एक दिन जेल से निकलते एक कैदी से उसकी भेंट हुई। साँवला रंग, बढ़े हुए केश, दाढ़ी और विकट हँसी। चित्रकार खुशी से उछल पड़ा। दो बोतल शराब के बदले कैदी को चित्र बन जाने तक रुकने के लिए राजी कर लिया।

बड़ी लगन से उसने अपना अधूरा चित्र पूरा किया। ईसा को हंटर से मारने वाले शैतान का उसने हूबहू चित्र उतार लिया।

’महाशय जरा मैं भी चित्र देखूँ।’ कैदी बोला। चित्र देखते ही उसके माथे पर पसीने की बूँदे उभर आईं। वह हकलाते हुए बोला, ’क्षमा कीजिए। आपने मुझे अभी तक पहचाना नहीं। मैं ही आपका ईसा मसीह हूँ। चौदह वर्ष पूर्व आप मुझे अनाथालय से अपने स्टूडियो में लाए थे। मुझे देखकर ही आपने ईसा का चित्र बनाया था।’

यह सुनकर कलाकार हतप्रभ रह गया।

Sunday, July 16, 2023

कहानी | हरिचरण | शरतचंद्र चट्टोपाध्याय | Kahani | Haricharan | Sarat Chandra Chattopadhyay


कहानी - हरिचरण

बहुत पहले की बात है। लगभग दस-बारह वर्ष हो गए होंगे। दुर्गादास बाबू तब तक वकील नहीं बने थे। दुर्गादास बंद्योपाध्याय को शायद तुम ठीक से पहचानते नहीं हो, मैं जानता हूं उन्हें। आइए, उनसे परिचय करा देता हूं।

बचपन में कहीं से एक अनाथ कायस्थ बालक ने रामदास बाबू के घर में आश्रय लिया था। सब कहते, लड़का बड़ा होनहार है, सुंदर बुद्धिमान नौकर। दुर्गादास बाबू के पिता का स्नेही भृत्य।

वह सारा काम निपटा दिया करता। गाय को चारा देने से लेकर बाबू की तेल-मालिश तक, सब वह स्वयं ही करना चाहता। हमेशा व्यस्त रहने में ही उसे खुशी मिलती।

लड़के का नाम हरिचरण था। घर की मालकिन अकसर उसे देखकर चकित होती। कभी-कभार टोक भी देती, ‘हरि, दूसरे नौकर भी हैं। तुम बच्चे हो, इतना काम क्यों करते हो?’

हरि में एक और कमी कह सकते हैं। वह हंसना बहुत पसंद करता था। हंसकर उत्तर देता, ‘मां, हम गरीब हैं। हमेशा काम करना पड़ेगा और वैसे भी बैठकर क्या होगा?’

इस तरह काम करते हुए स्नेह की गोद में पलता हरिचरण का एक वर्ष व्यतीत हुआ।

सुरो रामदास की छोटी बेटी है। उम्र अभी लगभग पांच-छह वर्ष। हरिचरण के साथ उसकी बड़ी आत्मीयता है। जब उसे दूध पिलाना होता तो उसकी मां को हमेशा बड़ी परेशानी होती। अथक प्रयत्न के बाद भी जब वह अपनी बेटी को दूध पीने के लिए नहीं मना पाती तो हरिचरण की बातों का ही उस पर असर होता। अब छोड़ो, यह सब। बेकार की बातें बहुत हुईं। असल मुद्दे पर आता हूं। सुनो! शायद सूरो के हृदय में हरिचरण के प्रति प्रेम का अंकुर फूटने लगा था।

दुर्गादास बाबू की उम्र जब बीस वर्ष की थी, तब की घटना सुनाता हूं। वह उन दिनों कलकत्ते में पढ़ा करता था। घर आने के लिए स्टीमर पर दक्षिण की ओर जाना पड़ता था। उसके बाद भी लगभग दस-बारह कोस पैदल चलना होता। राह इतनी सुगम्य नहीं थी। इस कारण दुर्गादास बाबू घर बहुत कम आते।

इन दिनों वह बी.ए. पास होकर घर लौटे हैं। मां अत्यंत व्यस्त थी। उन्हें अच्छी तरह खिलाना-पिलाना, देखभाल करना जैसे पूरे घर में उमड़ पड़ा था। दुर्गादास ने पूछा, ‘मां, यह लड़का कौन है?’

‘यह एक कायस्थ का बेटा है। मां-बाप नहीं है इसलिए तुम्हारे पिता ने उसे रखा है। नौकर का सारा काम कर लेता है और निहायत ही शांत-प्रकृति का है। किसी बात पर भी क्रोधित नहीं होता। आह! मां-बाप हैं नहीं, उस पर छोटा-सा बालक। मैं उससे बहुत स्नेह करती हूं।’ दुर्गादास बाबू को हरिचरण का यही परिचय मिला।

जो भी हो, आजकल हरिचरण का काम बहुत बढ़ गया है, पर इससे वह तनिक भी असंतुष्ट नहीं है। छोटे बाबू (दुर्गादास) को स्नान कराना, आवश्यकतानुसार घड़े में जल भरकर लाना, ठीक समय पर पान उपलब्ध कराना, उपयुक्त अवसरानुसार हुक्के का प्रबंध इत्यादि में वह अत्यंत पटु था। दुर्गादास बाबू भी अकसर सोचते, लड़का निहायत ही ‘इंटेलिजेंट’ है। अतः कपड़े धोना, तंबाकू सजाना जैसे काम हरिचरण के न करने पर और किसी का काम उन्हें पसंद नहीं आता।

कुछ समझ नहीं पाता हूं। कहां का पानी कहां जाकर खड़ा होता है। ये सब बातें सबके लिए समझ पाना संभव नहीं, आवश्यकता भी नहीं और मेरा भी फिलासफी लेकर डील करने का उद्देश्य नहीं है। फिर भी आपसे दो बातें कहने में हानि क्या है?

आज दुर्गादास बाबू को एक भव्य रात्रिभोज का निमंत्रण है। घर में नहीं खाएंगे, संभवतः देर रात से लौटेंगे। सो, हरिचरण से कह गए कि सब काम निपटाने के बाद उसका बिस्तर व्यवस्थित कर रखे।

अब हरिचरण की सुनें। दुर्गादास बाबू बाहर के बैठक में रात को सोते हैं। इसका कारण कोई नहीं जानता। मुझे लगता है कि पत्नी के मायके में रहने के कारण ही उन्हें बाहर के कमरे में सोना अच्छा लगता है। रात को सोते समय हरिचरण उनके पांव दबाता है और जब वे गहरी नींद में चले जाते हैं तो वह साथ के कमरे में सोने चला जाता है।

उस दिन शाम को हरिचरण के सिर में दर्द शुरू हुआ। उसने जान लिया कि अब बुखार आने में देर नहीं। पहले भी बीच-बीच में उसे बुखार होता रहता है। अतः वह इसके लक्षणों से परिचित है। वह अधिक देर तक न बैठ सका और अपने कमरे में जाकर सो गया। छोटे बाबू का बिस्तर नहीं लग पाया है, इसका भान भी न रहा। रात को सबने भोजन किया पर हरिचरण भोजन के लिए नहीं आया। मालकिन देखने आई। वह सो रहा था। उसके शरीर पर हाथ रखा तो वह बहुत गर्म था। वह समझ गई कि उसे बुखार हुआ है। अतः उसे विरक्त किए बिना वहां से चली आई।

रात का दूसरा पहर था। भोज खाकर जब दुर्गादास बाबू घर लौटे तो देखा कि उसका बिस्तर तैयार नहीं है। एक तो नींद सता रही थी, उस पर सारी राह यह सोचते आए थे कि घर पहुंचते ही चित्त हो जाऊंगा और हरिचरण उसके पांव दबाकर सारी थकान मिटा देगा। इसी सुखानुभूति की अल्पतंद्रा में सुबह हो जाएगी। हताश होकर वे चिल्ला उठे, ‘हरिचरण, ओ हरि, हरे’ इत्यादि कहते हुए शोर मचाने लगे। पर कहां था हरि? वह ज्वरपीडि़त संज्ञाहीन पड़ा हुआ था। तब दुर्गादास बाबू को ख्याल आया, कम्बख्त सो गया होगा। कमरे में जाकर देखा तो सचमुच।

अधिक सहन नहीं कर पाए। जोर से उसे बालों से पकड़कर खींचते हुए बिठाने की कोशिश की पर वह फिर से निढाल होकर बिस्तर पर गिर पड़ा। तब क्रोधाग्नि में झुलसे दुर्गादास को हित-अहित का ज्ञान न रहा और हरि की पीठ पर जूता पहने ही आघात किया। उस भीषण चोट से हरिचरण की चेतना लौटी और वह उठकर बैठ गया। दुर्गादास बाबू ने कहा, ‘तो ज़नाब, मजे से सो रहे हैं। बिस्तर क्या मैं स्वयं लगांऊगा?’ कहते हुए उनका क्रोध और भड़का, ‘हाथ में थामे बेंत से उसकी पीठ पर दो-तीन जड़ दिए।

उस रात जब हरि उसके पांव दबा रहा था, तब शायद एक बूंद आंसू दुर्गादास बाबू के पांव पर गिरा था। फिर तो सारी रात दुर्गादास बाबू सो नहीं पाए। वह एक बूंद आंसू बहुत गर्म महसूस हुआ था। दुर्गादास बाबू हरिचरण को बहुत प्यार करते थे। उसकी नम्रता के लिए वे ही क्यों, वह सबका प्रिय पात्र था। विशेषकर इस महीने भर की घनिष्टता में वह उनका और भी अधिक प्रिय हो उठा था।

रात में कई बार दुर्गादास बाबू को लगा कि एक बार देख आएं, कितनी चोट लगी है, कितनी सूजन हुई है? पर वह एक नौकर है, अच्छा नहीं लगेगा। कई बार मन में आया कि एक बार पूछकर आएं, ‘बुखार कम हुआ क्या?’ पर उससे लज्जा महसूस होती। सुबह हरिचरण मुंह धोकर पानी ले आया, तंबाकू सजाया। दुर्गादास बाबू काश तब भी अगर कह पाते, आहा! वह तो बालक है, अब भी तेरह वर्ष का नहीं हुआ। बालक समझकर भी अपने पास खींचकर देखते, बेंत के आघात से कितना रक्त जमा है, जूते से कितना सूजा है? बालक ही तो है, लज्जा की क्या बात है?

नौ बजे के लगभग कहीं से एक तार आया। उससे दुर्गादास बाबू का मन विचलित हो उठा। खोलकर देखा, पत्नी बीमार है। उनका हृदय बैठ गया। उसी दिन कलकत्ता लौटना पड़ा। गाड़ी में बैठते हुए सोचा—भगवान। समझूंगा प्रायश्चित हुआ।

प्रायः महीना हो गया। दुर्गादास बाबू का चेहरा आज प्रफुल्ल है। उनकी पत्नी बच गई।

घर से आज एक पत्र आया। उनके छोटे भाई का था। नीचे पुनश्चः करके लिखा हुआ था—‘बड़े दुःख की बात है। कल सुबह दस दिन ज्वर से भुगतते हुए हमारे हरिचरण की मृत्यु हो गई। मरने से पहले उसने कई बार आपको देखना चाहा था।

आह! बिना मां-बाप का अनाथ।

धीरे-धीरे दुर्गादास बाबू ने उस पत्र को चिंदी-चिंदी कर फेंक दिया।

Monday, July 3, 2023

कहानी | यह मेरी मातृभूमि है | मुंशी प्रेमचंद | Kahani | Yeh Meri Matrabhoomi Hai | Munshi Premchand


कहानी - यह मेरी मातृभूमि है
 
आज पूरे 60 वर्ष के बाद मुझे मातृभूमि-प्यारी मातृभूमि के दर्शन प्राप्त हुए हैं। जिस समय मैं अपने प्यारे देश से विदा हुआ था और भाग्य मुझे पश्चिम की ओर ले चला था उस समय मैं पूर्ण युवा था। मेरी नसों में नवीन रक्त संचारित हो रहा था। हृदय उमंगों और बड़ी-बड़ी आशाओं से भरा हुआ था। मुझे अपने प्यारे भारतवर्ष से किसी अत्याचारी के अत्याचार या न्याय के बलवान हाथों ने नहीं जुदा किया था। अत्याचारी के अत्याचार और कानून की कठोरताएँ मुझसे जो चाहे सो करा सकती हैं मगर मेरी प्यारी मातृभूमि मुझसे नहीं छुड़ा सकतीं। वे मेरी उच्च अभिलाषाएँ और बड़े-बड़े ऊँचे विचार ही थे जिन्होंने मुझे देश-निकाला दिया था।
मैंने अमेरिका जा कर वहाँ खूब व्यापार किया और व्यापार से धन भी खूब पैदा किया तथा धन से आनंद भी खूब मनमाने लूटे। सौभाग्य से पत्नी भी ऐसी मिली जो सौंदर्य में अपना सानी आप ही थी। उसकी लावण्यता और सुन्दरता की ख्याति तमाम अमेरिका में फैली। उसके हृदय में ऐसे विचार की गुंजाइश भी न थी जिसका सम्बन्ध मुझसे न हो मैं उस पर तन-मन से आसक्त था और वह मेरी सर्वस्व थी। मेरे पाँच पुत्र थे जो सुन्दर हृष्ट-पुष्ट और ईमानदार थे। उन्होंने व्यापार को और भी चमका दिया था। मेरे भोले-भाले नन्हे-नन्हे पौत्र गोद में बैठे हुए थे जब कि मैंने प्यारी मातृभूमि के अंतिम दर्शन करने को अपने पैर उठाये। मैंने अनंत धन प्रियतमा पत्नी सपूत बेटे और प्यारे-प्यारे जिगर के टुकड़े नन्हे-नन्हे बच्चे आदि अमूल्य पदार्थ केवल इसीलिए परित्याग कर दिया कि मैं प्यारी भारत-जननी का अंतिम दर्शन कर लूँ। मैं बहुत बूढ़ा हो गया हूँ दस वर्ष के बाद पूरे सौ वर्ष का हो जाऊँगा। अब मेरे हृदय में केवल एक ही अभिलाषा बाकी है कि मैं अपनी मातृभूमि का रजकण बनूँ।
यह अभिलाषा कुछ आज ही मेरे मन में उत्पन्न नहीं हुई बल्कि उस समय भी थी जब मेरी प्यारी पत्नी अपनी मधुर बातों और कोमल कटाक्षों से मेरे हृदय को प्रफुल्लित किया करती थी। और जब कि मेरे युवा पुत्र प्रातःकाल आ कर अपने वृद्ध पिता को सभक्ति प्रणाम करते उस समय भी मेरे हृदय में एक काँटा-सा खटखता रहता था कि मैं अपनी मातृभूमि से अलग हूँ। यह देश मेरा देश नहीं है और मैं इस देश का नहीं हूँ।
मेरे पास धन था पत्नी थी लड़के थे और जायदाद थी मगर न मालूम क्यों मुझे रह-रह कर मातृभूमि के टूटे झोंपड़े चार-छै बीघा मौरूसी जमीन और बालपन के लँगोटिया यारों की याद अक्सर सता जाया करती। प्रायः अपार प्रसन्नता और आनंदोत्सवों के अवसर पर भी यह विचार हृदय में चुटकी लिया करता था कि यदि मैं अपने देश में होता।

जिस समय मैं बम्बई में जहाज से उतरा मैंने पहिले काले कोट-पतलून पहने टूटी-फूटी अँग्रेजी बोलते हुए मल्लाह देखे। फिर अँग्रेजी दूकान ट्राम और मोटरगाड़ियाँ दीख पड़ीं। इसके बाद रबरटायरवाली गाड़ियों की ओर मुँह में चुरट दाबे हुए आदमियों से मुठभेड़ हुई। फिर रेल का विक्टोरिया टर्मिनस स्टेशन देखा। बाद में मैं रेल में सवार होकर हरी-भरी पहाड़ियों के मध्य में स्थित अपने गाँव को चल दिया। उस समय मेरी आँखों में आँसू भर आये और मैं खूब रोया क्योंकि यह मेरा देश न था। यह वह देश न था जिसके दर्शनों की इच्छा सदा मेरे हृदय में लहराया करती थी। यह तो कोई और देश था। यह अमेरिका या इंगलैंड था मगर प्यारा भारत नहीं था।
रेलगाड़ी जंगलों पहाड़ों नदियों और मैदानों को पार करती हुई मेरे प्यारे गाँव के निकट पहुँची जो किसी समय में फूल पत्तों और फलों की बहुतायत तथा नदी-नालों की अधिकता से स्वर्ग की होड़ कर रहा था। मैं उस गाड़ी से उतरा तो मेरा हृदय बाँसों उछल रहा था-अब अपना प्यारा घर देखूँगा-अपने बालपन के प्यारे साथियों से मिलूँगा। मैं इस समय बिलकुल भूल गया था कि मैं 90 वर्ष का बूढ़ा हूँ। ज्यों-ज्यों मैं गाँव के निकट आता था मेरे पग शीघ्र-शीघ्र उठते थे और हृदय में अकथनीय आनंद का श्रोत उमड़ रहा था। प्रत्येक वस्तु पर आँखें फाड़-फाड़ कर दृष्टि डालता। अहा ! यह वही नाला है जिसमें हम रोज घोड़े नहलाते थे और स्वयं भी डुबकियाँ लगाते थे किंतु अब उसके दोनों ओर काँटेदार तार लगे हुए थे। सामने एक बँगला था जिसमें दो अँग्रेज बंदूकें लिये इधर-उधर ताक रहे थे। नाले में नहाने की सख्त मनाही थी।
गाँव में गया और निगाहें बालपन के साथियों को खोजने लगीं किन्तु शोक ! वे सब के सब मृत्यु के ग्रास हो चुके थे। मेरा घर-मेरा टूटा-फूटा झोंपड़ा-जिसकी गोद में मैं बरसों खेला था जहाँ बचपन और बेफिक्री के आनंद लूटे थे और जिसका चित्र अभी तक मेरी आँखों में फिर रहा था वही मेरा प्यारा घर अब मिट्टी का ढेर हो गया था।
यह स्थान गैर-आबाद न था। सैकड़ों आदमी चलते-चलते दृष्टि आते थे जो अदालत-कचहरी और थाना-पुलिस की बातें कर रहे थे उनके मुखों से चिंता निर्जीवता और उदासी प्रदर्शित होती थी और वे अब सांसारिक चिंताओं से व्यथित मालूम होते थे। मेरे साथियों के समान हृष्ट-पुष्ट बलवान लाल चेहरे वाले नवयुवक कहीं न देख पड़ते थे। उस अखाड़े के स्थान पर जिसकी जड़ मेरे हाथों ने डाली थी अब एक टूटा-फूटा स्कूल था। उसमें दुर्बल तथा कांतिहीन रोगियों की-सी सूरतवाले बालक फटे कपड़े पहिने बैठे ऊँघ रहे थे। उनको देख कर सहसा मेरे मुख से निकल पड़ा कि नहीं-नहीं यह मेरा प्यारा देश नहीं है। यह देश देखने मैं इतनी दूर से नहीं आया हूँ-यह मेरा प्यारा भारतवर्ष नहीं है।
बरगद के पेड़ की ओर मैं दौड़ा जिसकी सुहावनी छाया में मैंने बचपन के आनंद उड़ाये थे जो हमारे छुटपन का क्रीड़ास्थल और युवावस्था का सुखप्रद वासस्थान था। आह ! इस प्यारे बरगद को देखते ही हृदय पर एक बड़ा आघात पहुँचा और दिल में महान् शोक उत्पन्न हुआ। उसे देख कर ऐसी-ऐसी दुःखदायक तथा हृदय-विदारक स्मृतियाँ ताजी हो गयीं कि घंटों पृथ्वी पर बैठे-बैठे मैं आँसू बहाता रहा। हाँ ! यही बरगद है जिसकी डालों पर चढ़ कर मैं फुनगियों तक पहुँचता था जिसकी जटाएँ हमारा झूला थीं और जिसके फल हमें सारे संसार की मिठाइयों से अधिक स्वादिष्ट मालूम होते थे। मेरे गले में बाँहें डाल कर खेलनेवाले लँगोटिया यार जो कभी रूठते थे कभी मनाते थे कहाँ गये हाय बिना घरबार का मुसाफिर अब क्या अकेला ही हूँ क्या मेरा कोई भी साथी नहीं इस बरगद के निकट अब थाना था और बरगद के नीचे कोई लाल साफा बाँधे बैठा था। उसके आस-पास दस-बीस लाल पगड़ीवाले करबद्ध खड़े थे ! वहाँ फटे-पुराने कपड़े पहने दुर्भिक्षग्रस्त पुरुष जिस पर अभी चाबुकों की बौछार हुई थी पड़ा सिसक रहा था। मुझे ध्यान आया कि यह मेरा प्यारा देश नहीं है कोई और देश है। यह योरोप है अमेरिका है मगर मेरी प्यारी मातृभूमि नहीं है-कदापि नहीं है।

इधर से निराश हो कर मैं उस चौपाल की ओर चला जहाँ शाम के वक्त पिता जी गाँव के अन्य बुजुर्गों के साथ हुक्का पीते और हँसी-कहकहे उड़ाते थे। हम भी उस टाट के बिछौने पर कलाबाजियाँ खाया करते थे। कभी-कभी वहाँ पंचायत भी बैठती थी जिसके सरपंच सदा पिता जी ही हुआ करते थे। इसी चौपाल के पास एक गोशाला थी जहाँ गाँव भर की गायें रखी जाती थीं और बछड़ों के साथ हम यहीं किलोलें किया करते थे। शोक ! कि अब उस चौपाल का पता तक न था। वहाँ अब गाँवों में टीका लगाने की चौकी और डाकखाना था।
उस समय इसी चौपाल से लगा एक कोल्हवाड़ा था जहाँ जाड़े के दिनों में ईख पेरी जाती थी और गुड़ की सुगंध से मस्तिष्क पूर्ण हो जाता था। हम और हमारे साथी वहाँ गंडरियों के लिए बैठे रहते और गंडरियाँ करनेवाले मजदूरों के हस्तलाघव को देख कर आश्चर्य किया करते थे। वहाँ हजारों बार मैंने कच्चा रस और पक्का दूध मिला कर पिया था और वहाँ आस-पास के घरों की स्त्रियाँ और बालक अपने-अपने घड़े ले कर आते थे और उनमें रस भर कर ले जाते थे। शोक है कि वे कोल्हू अब तक ज्यों के त्यों खड़े थे किन्तु कोल्हवाड़े की जगह पर अब एक सन लपेटनेवाली मशीन लगी थी और उसके सामने एक तम्बोली और सिगरेटवाले की दूकान थी। इन हृदय-विदारक दृश्यों को देखकर मैंने दुखित हृदय से एक आदमी से जो देखने में सभ्य मालूम होता था पूछा महाशय मैं एक परदेशी यात्री हूँ। रात भर लेट रहने की मुझे आज्ञा दीजिएगा इस आदमी ने मुझे सिर से पैर तक गहरी दृष्टि से देखा और कहने लगा कि आगे जाओ यहाँ जगह नहीं है। मैं आगे गया और वहाँ से भी यही उत्तर मिला आगे जाओ। पाँचवीं बार एक सज्जन से स्थान माँगने पर उन्होंने एक मुट्ठी चने मेरे हाथ पर रख दिये। चने मेरे हाथ से छूट पड़े और नेत्रों से अविरल अश्रु-धारा बहने लगी। मुख से सहसा निकल पड़ा कि हाय ! यह मेरा देश नहीं है यह कोई और देश है। यह हमारा अतिथि-सत्कारी प्यारा भारत नहीं है-कदापि नहीं।
मैंने एक सिगरेट की डिबिया खरीदी और एक सुनसान जगह पर बैठकर सिगरेट पीते हुए पूर्व समय की याद करने लगा कि अचानक मुझे धर्मशाला का स्मरण हो आया जो मेरे विदेश जाते समय बन रही थी मैं उस ओर लपका कि रात किसी प्रकार वहीं काट लूँ मगर शोक ! शोक ! ! महान् शोक ! ! ! धर्मशाला ज्यों की त्यों खड़ी थी किंतु उसमें गरीब यात्रियों के टिकने के लिए स्थान न था। मदिरा दुराचार और द्यूत ने उसे अपना घर बना रखा था। यह दशा देख कर विवशतः मेरे हृदय से एक सर्द आह निकल पड़ी और मैं जोर से चिल्ला उठा कि नहीं नहीं नहीं और हजार बार नहीं है -यह मेरा प्यारा भारत नहीं है। यह कोई और देश है। यह योरोप है अमेरिका है मगर भारत कदापि नहीं है।

अँधेरी रात थी। गीदड़ और कुत्ते अपने-अपने कर्कश स्वर में उच्चारण कर रहे थे। मैं अपना दुखित हृदय ले कर उसी नाले के किनारे जा कर बैठ गया और सोचने लगा-अब क्या करूँ ! फिर अपने पुत्रों के पास लौट जाऊँ और अपना यह शरीर अमेरिका की मिट्टी में मिलाऊँ। अब तक मेरी मातृभूमि थी मैं विदेश में जरूर था किंतु मुझे अपने प्यारे देश की याद बनी थी पर अब मैं देश-विहीन हूँ। मेरा कोई देश नहीं है। इसी सोच-विचार में मैं बहुत देर तक घुटनों पर सिर रखे मौन रहा। रात्रि नेत्रों में ही व्यतीत की। घंटेवाले ने तीन बजाये और किसी के गाने का शब्द कानों में आया। हृदय गद्गद हो गया कि यह तो देश का ही राग है यह तो मातृभूमि का ही स्वर है। मैं तुरंत उठ खड़ा हुआ और क्या देखता हूँ कि 15-20 वृद्धा स्त्रियाँ सफेद धोतियाँ पहिने हाथों में लोटे लिये स्नान को जा रही हैं और गाती जाती हैं:
हमारे प्रभु अवगुन चित्त न धरो...
मैं इस गीत को सुन कर तन्मय हो ही रहा था कि इतने में मुझे बहुत से आदमियों की बोलचाल सुन पड़ी। उनमें से कुछ लोग हाथों में पीतल के कमंडलु लिये हुए शिव-शिव हर-हर गंगे-गंगे नारायण-नारायण आदि शब्द बोलते हुए चले जाते थे। आनंददायक और प्रभावोत्पादक राग से मेरे हृदय पर जो प्रभाव हुआ उसका वर्णन करना कठिन है।
मैंने अमेरिका की चंचल से चंचल और प्रसन्न से प्रसन्न चित्तवाली लावण्यवती स्त्रियों का आलाप सुना था सहर्षों बार उनकी जिह्वा से प्रेम और प्यार के शब्द सुने थे हृदयाकर्षक वचनों का आनंद उठाया था मैंने सुरीले पक्षियों का चहचहाना भी सुना था किंतु जो आनंद जो मजा और जो सुख मुझे इस राग में आया वह मुझे जीवन में कभी प्राप्त नहीं हुआ था। मैंने खुद गुनगुना कर गायाः
हमारे प्रभु अवगुन चित न धरो...
मेरे हृदय में फिर उत्साह आया कि ये तो मेरे प्यारे देश की ही बातें हैं। आनंदातिरेक से मेरा हृदय आनंदमय हो गया। मैं भी इन आदमियों के साथ हो लिया और 6 मील तक पहाड़ी मार्ग पार करके उसी नदी के किनारे पहुँचा जिसका नाम पतित-पावनी है जिसकी लहरों में डुबकी लगाना और जिसकी गोद में मरना प्रत्येक हिंदू अपना परम सौभाग्य समझता है। पतित-पावनी भागीरथी गंगा मेरे प्यारे गाँव से छै-सात मील पर बहती थी। किसी समय में घोड़े पर चढ़ कर गंगा माता के दर्शनों की लालसा मेरे हृदय में सदा रहती थी। यहाँ मैंने हजारों मनुष्यों को इस ठंडे पानी में डुबकी लगाते हुए देखा। कुछ लोग बालू पर बैठे गायत्री-मंत्र जप रहे थे। कुछ लोग हवन करने में संलग्न थे। कुछ माथे पर तिलक लगा रहे थे और कुछ लोग सस्वर वेदमंत्र पढ़ रहे थे। मेरा हृदय फिर उत्साहित हुआ और मैं जोर से कह उठा- हाँ हाँ यही मेरा प्यारा देश है यही मेरी पवित्र मातृभूमि है यही मेरा सर्वश्रेष्ठ भारत है और इसी के दर्शनों की मेरी उत्कट इच्छा थी तथा इसी की पवित्र धूलि के कण बनने की मेरी प्रबल अभिलाषा है।

मैं विशेष आनंद में मग्न था। मैंने अपना पुराना कोट और पतलून उतार कर फेंक दिया और गंगा माता की गोद में जा गिरा जैसे कोई भोलाभाला बालक दिन भर निर्दय लोगों के साथ रहने के बाद संध्या को अपनी प्यारी माता की गोद में दौड़ कर चला आये और उसकी छाती से चिपट जाय। हाँ अब मैं अपने देश में हूँ। यह मेरी प्यारी मातृभूमि है। ये लोग मेरे भाई हैं और गंगा मेरी माता है।
मैंने ठीक गंगा के किनारे एक छोटी-सी कुटी बनवा ली है। अब मुझे सिवा राम-नाम जपने के और कोई काम नहीं है। मैं नित्य प्रातः-सायं गंगा-स्नान करता हूँ और मेरी प्रबल इच्छा है कि इसी स्थान पर मेरे प्राण निकलें और मेरी अस्थियाँ गंगा माता की लहरों की भेंट हों।
मेरी स्त्री और मेरे पुत्र बार-बार बुलाते हैं मगर अब मैं यह गंगा माता का तट और अपना प्यारा देश छोड़ कर वहाँ नहीं जा सकता। अपनी मिट्टी गंगा जी को ही सौंपूँगा। अब संसार की कोई आकांक्षा मुझे इस स्थान से नहीं हटा सकती क्योंकि यह मेरा प्यारा देश और यही प्यारी मातृभूमि है। बस मेरी उत्कट इच्छा यही है कि मैं अपनी प्यारी मातृभूमि में ही अपने प्राण विसर्जन करूँ।

निबंध | कवि और कविता | महावीर प्रसाद द्विवेदी | Nibandh | Kavi aur Kavita | Mahavir Prasad Dwivedi

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी निबंध - कवि और कविता यह बात सिद्ध समझी गई है कि कविता अभ्यास से नहीं आती। जिसमें कविता करने का स्वाभाविक माद्द...