प्रेमाश्रम

 16.

प्रेमशंकर यहाँ दो सप्ताह ऐसे रहे, जैसे कोई जल्द छूटने वाला कैदी। जरा भी जी न लगता था। श्रद्धा की धार्मिकता से उन्हें जो आघात पहुँचा था उसकी पीड़ा एक क्षण के लिए भी शान्त न होती थी। बार-बार इरादा करते कि फिर अमेरिका चला जाऊँ और फिर जीवन पर्यन्त आने का नाम न लूँ। किन्तु यह आशा कि कदाचित् देश और समाज की अवस्था का ज्ञान श्रद्धा में सद् विचार उत्पन्न कर दे, उसका दामन पकड़ लेती थी। दिन-के-दिन दीवानखाने में पड़े रहते, न किसी से मिलना, न जुलना, कृषि-सुधार के इरादे स्थगित हो गये। उस पर विपत्ति यह भी कि ज्ञानशंकर बिरादरी वालों के षड्यन्त्रों के समाचार ला-लाकर उन्हें और भी उद्विग्न करते रहते थे। एक दिन खबर लाए कि लोगों ने एक महती सभा करके आपको समाज-च्युत करने का प्रस्ताव पास कर दिया। दूसरे दिन ब्राह्मणों की एक सभा की खबर लाये, जिसमें उन्होंने निश्चय किया था कि कोई प्रेमशंकर के घर पूजा-पाठ करने न जाये। इसके एक दिन पीछे श्रद्धा के पुरोहित जी ने आना छोड़ दिया। ज्ञानशंकर बातों-बातों में यह भी जता दिया करते थे कि आपके कारण मैं बदनाम हो रहा हूँ और शंका है कि लोग मुझे भी त्याग दें। भाई के साथ तो यह व्यवहार था, और विरादरी के नेताओं के पास आकर प्रेमशंकर के झूठे आक्षेप करते, वह देवताओं को गालियाँ देते हैं, कहते हैं, मांस सब एक है, चाहे किसी का हो। खाना खाकर कभी हाथ-मुँह तक नहीं धोते, कहते हैं, चमार भी कर्मानुसार ब्राह्मण हो सकता है। यह बातें सुन-सुन कर बिरादरी वालों की द्वेषाग्नि और भी भड़कती थी, यहाँ तक कि कई मनचले नवयुवक तो इस पर उद्यत थे कि प्रेमशंकर को कहीं अकेले पा जायें तो उनकी अच्छी तरह खबर लें। ‘तिलक’ एक स्थानीय पत्र था। उसमें इस विषय पर खूब जहर उगला जाता था। ज्ञानशंकर नित्य वह पत्र लाकर अपने भाई को सुनाते और यह सब केवल इस लिए कि वह निराश और भयभीत होकर यहाँ से भाग खड़े हों और मुझे जायदाद में हिस्सा न देना पड़े। प्रेमशंकर साहस और जीवट के आदमी थे, इन घमकियों की उन्हें परवाह न थी, लेकिन उन्हें मंजूर न था। की मेरे कारण ज्ञानशंकर पर आँच आये। श्रद्धा की ओर से भी उनका चित्त फटता जाता था। इस चिन्तामय अवस्था का अन्त करने के लिए वह कही अलग जाकर शान्ति के साथ रहना और अपने जीवनोद्देश्य को पूरा करना चाहते थे। पर जायँ कहाँ? ज्ञानशंकर से एक बार लखनपुर में रहने की इच्छा प्रकट की थी, पर उन्होंने इतनी आपत्तियाँ खड़ी की, कष्टों और असुविधाओं का एक ऐसा चित्र खींचा कि प्रेमशंकर उनकी नीयत को ताड़ गये। वह शहर के निकट ही थोड़ी सी ऐसी जमीन लेना चाहते थे, जहाँ एक कृषिशाला खोल सकें। इसी धुन में नित्य इधर-उधर चक्कर लगाया करते थे। स्वभाव में संकोच इतना कि किसी से अपने इरादे जाहिर न करते। हाँ, लाला प्रभाशंकर का पितृवत प्रेम और स्नेह उन्हें अपने मन के विचार उनसे प्रकट करने पर बाध्य कर देता था। लाला जी को जब अवकाश मिलता, वह प्रेमशंकर के पास आ बैठते और अमेरिका के वृत्तान्त बड़े शौक से सुनते। प्रेमशंकर दिनों-दिन उनकी सज्जनता पर मुग्ध होते जाते थे। ज्ञानशंकर तो सदैव उनका छिद्रान्वेषण किया करते पर उन्होंने भूलकर भी ज्ञानशंकर के खिलाफ जबान नहीं खोली। वह प्रेमशंकर के विचारों से सहमत न होते थे, यही सलाह दिया करते थे कि कहीं सरकारी नौकरी कर लो।


एक दिन प्रेमशंकर को उदास और चिंतित देखकर लाला जी बोले– क्या यहाँ जी नहीं लगता?


प्रेम– मेरा विचार है कि कहीं अलग मकान लेकर रहूँ। यहाँ मेरे रहने से सबको कष्ट होता है।


प्रभा– तो मेरे घर उठ चलो, वह भी तुम्हारा ही घर है। मैं भी कोई बेगाना नहीं हूँ वहाँ तुम्हें कोई कष्ट न होगा। हम लोग इसे अपना धन्य भाग समझेंगे कहीं नौकरी के लिए लिखा?


प्रेम– मेरा इरादा नौकरी करने का नहीं है।


प्रभा– आखिर तुम्हें नौकरी से इतनी नफरत क्यों है? नौकरी कोई बुरी चीज है?


प्रेम– जी नहीं, मैं उसे बुरा नहीं कहता। पर मेरा मन उससे भागता है।


प्रभा– तो मन को समझाना चाहिए न? आज सरकारी नौकरी का जो मान-सम्मान है, वह और किसका है? और फिर आमदनी अच्छी, काम कम, छुट्टी ज्यादा। व्यापार में नित्य हानि का भय, जमींदारी में नित्य अधिकारियों की खुशामद और असामियों के बिगड़ने का खटका, नौकरी इन पेशों से उत्तम है। खेती-बारी का शौक उस हालत में भी पूरा हो सकता है। यह तो रईसों के मनोरंजन की सामग्री है। अन्य देशों के हालात तो नहीं जानता, पर यहाँ किसी रईस के लिए खेती करना अपमान की बात है। मुझे भूखों मरना कबूल है, पर दूकानदारी या खेती कबूल नहीं है।


प्रेम– आपका कथन सत्य है, पर मैं अपने मन से मजबूत हूँ। मुझे थोड़ी-सी जमीन की तलाश है, पर इधर कहीं नजर नहीं आती।


प्रभा– अगर किसी पर मन लगा है तो करके देख लो। क्या करूँ, मेरे पास शहर के निकट जमीन नहीं है, नहीं तुम्हें हैरान न होना पड़ता। मेरे गाँव में करना चाहो तो जितनी जमीन चाहो उतनी मिल सकती है, मगर दूर है।


इसी हैस-बैस में चैत का महीना गुजर गया। प्रेमशंकर में कृषि-प्रयोगशाला की आवश्यकता की ओर रईसों का ध्यान आकर्षित करने के लिए समाचार पत्रों में कई, विद्वतापूर्ण लेख छपवाये। इन लेखों का बड़ा आदर हुआ। उन्हें पत्रों में उद्धत किया, उन पर टीकाएँ कीं और कई अन्य भाषा में उनके अनुवाद भी हुए। इसका फल यह हुआ कि ताल्लुकेदार एसोसिएशन ने अपने वार्षिकोत्सव के अवसर पर प्रेमशंकर को कृषि-विषयक एक निबंध पढ़ने के लिए आमंत्रित किया। प्रेमशंकर आनन्द से फूले न समाए। बड़ी खोज और परिश्रम से एक निबन्ध लिखा और लखनऊ आ पहुँचे। कैसरबाग में इस उत्सव के लिए एक विशाल पण्डाल बनाया गया था। राय कमलाचन्द इस सभा के मन्त्री चुने गये थे। मई का महीना था। गरमी खूब पड़ने लगी थी। मैदान में भी सन्ध्या समय तक चला करती थी। घर में बैठना नितान्त दुस्सह था। रात में आठ बजे प्रेमशंकर राय साहब के निवास स्थान पर पहुँचे। राय साहब ने तुरन्त उन्हें अन्दर बुलाया वह इस समय अपने दीवानखाने के पीछे की ओर एक छोटी-सी कोठरी में बैठे हुए थे। ताक पर एक धुँधला-सा दीपक जल रहा था। गर्मी इतनी थी कि जान पड़ता था अग्निकुण्ड है। पर इस आग की मिट्टी में राय साहब एक मोटा ऊनी कम्बल ओढ़े हुए थे। उनके मुख पर विलक्षण तेज था और नेत्रों से दिव्य प्रकाश प्रस्फुटित हो रहा था। प्रतिभा और सौम्य की सजीव मूर्ति मालूम होते थे। उनका शारीरिक गठन और दीर्घ काया किसी पहलवान को भी लज्जित कर सकता था। उनके गले में एक रुद्राक्ष की माला थी, बगल में एक चाँदी का प्याला और गडुआ रखा हुआ था। तख्ते पर एक ओर दो मोटे-ताजे जवान बैठे पंजा लड़ा रहे थे और उसकी दूसरी ओर तीन कोमलांगी रमणियाँ वस्त्राभूषणों से सजी हुई विराज रही थीं इन्द्र का अखाड़ा था, जिसमें इन्द्र, काले देव और अप्सराएँ सभी अपना-अपना पार्ट खेल रहे थे।


प्रेमशंकर को देखते ही राय साहब ने उठकर बड़े तपाक से उनका स्वागत किया, उनके बैठने के लिए कुर्सी मँगाई और बोले, क्षमा कीजिए, मैं इस समय देवोपासना कर रहा हूं, पर आपसे मिलने के लिए ऐसा उत्कंठित था कि एक क्षण का विलम्ब भी न सह सका। आपको देखकर चित्त प्रसन्न हो गया। संसार ईश्वर का विराट् स्वरूप है। जिसने संसार को देख लिया, उसने ईश्वर के विराट स्वरूप का दर्शन कर लिया। यात्रा अनुभूत ज्ञान प्राप्त करने का सर्वोत्तम साधन है। कुछ जलपान के लिए मँगाऊँ?


प्रेम– जी नहीं, अभी जलपान कर चुका हूं।


राय साहब– समझ गया, आप भी जवानी में बूढ़े हो गये। भोजन-आहार का यही पथ्यापथ्य विचार बुढ़ापा है। जवान वह है जो भोजन के उपरान्त फिर भोजन करे, ईंट-पत्थर तक भक्षण कर ले। जो एक बार जलपान करके फिर नहीं खा सकता, जिसके लिए कुम्हड़ा बादी है, करेला गर्म, कटहल गरिष्ठ, उसे मैं बूढ़ा ही समझता हूँ। मैं सर्वभक्षी हूँ और इसी का फल है कि साठ वर्ष की आयु होने पर भी मैं जवान हूँ।


यह कहकर राय साहब ने लोटा मुँह से लगाया और कई घूँट गट-गट पी गये, फिर प्याले में से कई चमचे निकालकर खाए और जीभ चटकाते हुए बोले– यह न समझिए कि मैं स्वादेन्द्रिय का दास हूँ। मैं इच्छाओं का दास नहीं, स्वामी बनकर रहता हूँ यह दमन करने का साधन मात्र है। तैराक वह है जो पानी में गोते लगाये। योद्धा वह है जो मैदान में उतरे। बवा से भागकर बवा से बचने का कोई मूल्य नहीं। ऐसा आदमी बवा की चपेट में आकर फिर नहीं बच सकता। वास्तव में रोग-विजेता वही है जिसकी स्वाभाविक अग्नि, जिसकी अन्तरस्थ ज्वाला, रोग-कीटों को भस्म कर दे। इस लोटे में आग की चिनगारियाँ हैं, पर मेरे लिए शीतल जल है। इस प्याले में वह पदार्थ है, जिसका एक चमचा किसी योगी को भी उन्मत्त कर सकता है, पर मेरे लिए सूखे साग के तुल्य है; मैं शिव और शक्ति का उपासक हूँ। विष को दूध-घी समझता हूँ। हमारी आत्मा ब्रह्मा का ज्योतिस्वरूप है। उसे मैं देश तथा इच्छाओं और चिन्ताओं से मुक्त रखना चाहता हूँ। आत्मा के लिए पूर्ण अखण्ड स्वतन्त्रता सर्वश्रेष्ठ वस्तु है। मेरे किसी काम का कोई निर्दिष्ट समय नहीं। जो इच्छा होती है, करता हूँ आपको कोई कष्ट तो नहीं है। , आराम से बैठिए।


प्रेम– बहुत आराम से बैठा हूँ।


राय साहब– आप इस त्रिमूर्ति को देखकर चौंकते होंगे। पर मेरे लिए यह मिट्टी के खिलौने हैं। विषयायुक्त आँखें इनके रूप-लावण्य पर मिटती हैं, मैं उस ज्योति को देखता हूँ जो इनके घट में व्याप्त है। बाह्य रूप कितना ही सुन्दर क्यों न हो, मुझे विचलित नहीं कर सकता। वह भकुएँ हैं, जो गुफाओं और कन्दराओं में बैठकर तप और ध्यान के स्वांग भरते हैं। वह कायर हैं, प्रलोभनों से मुँह छिपाने वाले, तृष्णाओं से जान बचाने वाले। वे क्या जानें कि आत्मा-स्वातन्त्र्य क्या वस्तु है? चित्त की दृढ़ता और मनोबल का उन्हें अनुभव ही नहीं हुआ। वह सूखी पत्तियाँ हैं जो हवा के एक झोंके से जमीन पर गिर पड़ती हैं। योग कोई दैहिक क्रिया नहीं है, आत्म-शुद्धि, मनोबल और इन्द्रिय दमन ही सच्चा योग, सच्ची तपस्या है। वासनाओं में पड़कर अविचलित रहना ही सच्चा वैराग्य है। उत्तम पदार्थों का सेवन कीजिए; मधुर गान का आनन्द उठाइए, सौन्दर्य की उपासना कीजिए; परन्तु मनोवृत्तियों का दास न बनिए; फिर आप सच्चे वैरागी हैं (दोनों पहलवानों से) पण्डा जी! तुम बिल्कुल बुद्धू ही रहे, यह महाश्य अमेरिका का भ्रमण कर आये हैं, हमारे दामाद हैं। इन्हें कुछ अपनी कविता सुनाओ, खूब फड़कते हुए कवित्त हों।


दोनों पण्डे खड़े हो गये और स्वर मिलाकर एक कवित्त पढ़ने लगे। कवित्त क्या था, अपशब्दों का पोथा और अश्लीलता का अविरल प्रवाह था। एक-एक शब्द बेहयायी और बेशर्मी में डूबा हुआ था। मुँहफूट भाँड़ भी लज्जास्पद अंगों का ऐसा नग्न ऐसा घृणोत्पादक वर्णन न कर सकते होंगे। कवि ने समस्त भारतवर्ष के कबीर और फाग का इत्र, समस्त कायस्थ समाज की वैवाहिक गजलों का सत, समस्त भारतीय नारि-वृन्दा की प्रथा-प्रणीत गलियों का निचोड़ और समस्त पुलिस विभाग के करमचारियों के अपशब्दों का जौहर खींचकर रख दिया था और वह गन्दे कवित्त इन पण्डों के मुँह से ऐसी सफाई से निकल रहे थे, मानो फूल झड़ रहे हैं। राय साहब मूर्तिवत् बैठे थे, हँसी का तो कहना क्या, ओठों पर मुस्कुराहट का चिह्न भी न था। तीनों वेश्याओं ने शर्म से सिर झुका लिया, किन्तु प्रेमाशंकर हँसी को रोक न सके। हँसते-हँसते उनके पेट में बल पड़ गये।


पण्डों के चुप होते ही सामाजियों का आगमन हुआ। उन्होंने अपने साज मिलाए, तबले पर थाप पड़ी, सारंगियों ने स्वर मिलाया और तीनों रमणियां ध्रुपद अलापने लगीं। प्रेमशंकर को स्वर लालित्य का वही आनन्द मिल रहा था जो किसी गँवार को उज्जवल रत्नों के देखने से मिलता है। इस आनन्द में रसज्ञता न थी; किन्तु मर्मज्ञ राय साहब मस्त हो-होकर झूम रहे थे और कभी-कभी स्वयं गाने लगते थे।


आधी रात तक मधुर अलाप की तानें उठती रहीं। जब प्रेमशंकर ऊँघ-ऊँघ कर गिरने लगे तब सभा विसर्जित हुई। उन्हें राय साहब की बहुज्ञता और प्रतिभा पर आश्चर्य हो रहा था, इस मनुष्य में कितना बुद्धि चमत्कार, कितना आत्मबल, कितनी सिद्धि, कितनी सजीविता है और जीवन का कितना विलक्षण आदर्श!


दूसरे दिन प्रेमशंकर सोकर उठे तो आठ बजे थे। मुँह-हाथ धोकर बरामदे में टहलने लगे कि सामने से राय साहब एक मुश्की घोड़े पर सवार आते दिखाई दिए। शिकारी वस्त्र पहने हुए थे। कन्धे पर बन्दूक थी। पीछे-पीछे शिकारी कुत्तों का झुण्ड चला आ रहा था। प्रेमशंकर को देखकर बोले– आज किसी भले आदमी का मुँह देखा था। एक वार भी खाली नहीं गया। निश्चय कर लिया था कि जलपान के समय तक लौट आऊँगा। आप कुछ अनुमान कर सकते हैं कितनी दूर से आ रहा हूँ? पूरे बीस मील का धावा किया है। तीन घण्टे से ज्यादा कभी नहीं सोता। मालूम है न आज तीन बजे से जलसा शुरू होगा।


प्रेम– जी हाँ, डेलिगेट लोग (प्रतिनिधिगण) आ गये होंगे?


राय– (हँसकर) मुझे अभी तक कुछ खबर नहीं और मैं ही स्वागतकारिणी समिति का प्रधान हूँ। मेरे मुख्तार साहब ने सब प्रबन्ध कर दिया होगा। अभी तक मैंने कुछ भी नहीं सोचा कि वहाँ क्या कहूँगा? बस मौके पर जो मुँह में आयेगा, बक डालूँगा।


प्रेम– आपकी सूझ बहुत अच्छी होगी?


राय– जी हाँ, मेरे एसोसिएशन में ऐसा कोई नहीं है, जिसकी सूझ अच्छी न हो। इस गुण में एक से एक बढ़कर हैं। कोषाध्यक्ष को आय-व्यय का पता नहीं, पर सभा के सामने वह पूरा ब्योरा दिखा देंगे। यही हाल औरों का भी है। जीवन इतना अल्प है कि आदमी को अपने ही ढोल पीटने से छुट्टी नहीं मिलती, जाति का मंजीरा कौन बजाये?


प्रेम– ऐसी संस्थाओं से देश का क्या उपकार होगा?


राय– उपकार क्यों नहीं, क्या आपके विचार में जाति का नेतृत्व निरर्थक वस्तु है? आजकल तो यही उपाधियों का सदर दरवाजा हो रहा है। सरल भक्तों का श्रद्धास्पद बनना क्या कोई मामूली बात है? बेचारे जाति के नाम पर मरनेवाले सीधे-सादे लोग दूर-दूर से हमारे दर्शनों को आते हैं। हमारी गाड़ियाँ खींचते हैं, हमारी पदरज को माथे पर चढ़ाते हैं। क्या यह कोई छोटी बात है? और फिर हममें कितने ही जाति के सेवक ऐसे भी हैं जो सारा हिसाब मन में रखते हैं, उनसे हिसाब पूछिए तो वह अपनी तौहीन समझेंगे और इस्तीफे की धमकी देंगे। इसी संस्था के सहायक मन्त्री की वकालत बिल्कुल नहीं चलती; पर अभी उन्होंने बीस हजार का एक बँगला मोल लिया है। जाति से ऐसे भी लेना है, वैसे भी लेना है, चाहे इस बहाने से लीजिए, चाहे उस बहाने से लीजिये!


प्रेम– मुझे अपना निबन्ध पढ़ने का समय कब मिलेगा?


राय– आज तो मिलेगा नहीं। कल गार्डन पार्टी है। हिज एक्सेलेन्सी और अन्य अधिकारी वर्ग निमन्त्रित हैं। सारा दिन उसी तैयारी में लग जायेगा। परसों सब चिड़ियाँ उड़ जायेंगी, कुछ इने-गिने लोग रह जायेंगे, तब आप शौक से अपना लेख सुनाइएगा।


यही बातें हो रही थीं कि राजा इन्द्रकुमार सिंह का आगमन हुआ। राय साहब ने उनका स्वागत करके पूछा– नैनीताल कब तक चलिएगा।


राजा साहब– मैं तो सब तैयारियाँ करके चला हूँ। यहीं से हिज एक्सेलेन्सी के साथ चला जाऊँगा। क्या मिस्टर ज्ञानशंकर नहीं आये?


प्रेम– जी नहीं, उन्हें अवकाश नहीं मिला।


राजा– मैंने समाचार-पत्रों में आपके लेख देखे थे। इसमें सन्देह नहीं कि आप कृषि-शास्त्र के पण्डित हैं, पर आप जो प्रस्ताव कर रहे हैं वह यहाँ के लिए कुछ बहुत उपयुक्त नहीं जान पड़ता। हमारी सरकार ने कृषि की उन्नति के लिए कोई बात उठा नहीं रखी। जगह-जगह पर प्रयोगशालाएँ खोलीं, सस्ते दामों में बीज बेचती हैं, कृषि संबंधी आविष्कारों का पत्रों द्वारा प्रचार करती है। इस काम के लिए कितने ही निरीक्षक नियुक्त किए हैं, कृषि के बड़े-बड़े कॉलेज खोल रक्खे हैं? पर उनका फल कुछ न निकला। जब वह करोड़ो रुपये व्यय करके कृत-कार्य न हो सकी तो आप दो लाख की पूँजी से क्या कर लेंगे? आपके बनाए हुए यन्त्र कोई सेंत भी न लेगा। आपकी रासायनिक खादें पड़ी सड़ेंगी। बहुत हुआ, आप पाँच-सात सैकड़े मुनाफे दे देंगे। इससे क्या होता है? जब हम दो-चार कुएँ, खोदवाकर, पटवारी से मिलकर, कर्मचारियों का सत्कार करके आसानी से अपनी आमदनी बढ़ा सकते हैं, तो यह झंझट कौन करे।


प्रेम– मेरा उद्देश्य कोई व्यापार खोलना नहीं है। मैं तो केवल कृषि की उन्नति के लिए धन चाहता हूँ। सम्भव है आगे चलकर लाभ हो, पर अभी तो मुनाफे की कोई आशा नहीं।


राजा– समझ गया, यह केवल पुण्य-कार्य होगा।


प्रेम– जी हाँ, यही मेरा उद्देश्य है। मैंने अपने उन लेखों में और इस निबन्ध में भी यही बात साफ-साफ कह दी है।


राजा– तो फिर आपने श्रीगणेश करने में भूल की। आपको पहले इस विषय में लाट साहब की सहानुभूति प्राप्त करनी चाहिए थी। तब दो कि जगह आपको दस लाख बात की बात में मिल जाते। बिना सरकारी प्रेरणा के यहाँ ऐसे कामों में सफलता नहीं होती। यहाँ आप जितनी संस्थाएँ देख रहे हैं, उनमें किसी का जन्म स्वाधीन रूप से नहीं। यहाँ की यही प्रथा है। राय साहब यदि आपको हिज एक्सेलेन्सी से मिला दें और उनकी आप पर कृपादृष्टि हो जाये तो कल ही रुपये का ढेर लग जाये।


राय– मैं बड़ी खुशी से तैयार हूँ।


प्रेम– मैं इस संस्था को सरकारी सम्पर्क से अलग रखना चाहता हूँ।


राजा– ऐसी दशा में आप इस एसोसिएशन से सहायता की आशा न रखें कम-से-कम मेरा यही विचार है; क्यों राय साहब?


राय– आपका कहना यथार्थ है।


प्रेम– तो फिर मेरा निबन्ध पढ़ना व्यर्थ है।


राजा– नहीं, व्यर्थ नहीं है। सम्भव है, आप इसके द्वारा आगे चलकर सरकारी सहायता पा सकें। हाँ, राय साहब, प्रधान जी का जुलूस निकालने की तैयारी हो रही है न? वह तीसरे पहर की गाड़ी से आनेवाले हैं।


प्रेमशंकर निराश हो गये। ऐसी सभी में अपना निबन्ध पढ़ना अन्धों के आगे रोना था। वह तीन दिन लखनऊ रहे और एसोसिएशन के अधिवेशन में शरीक होते रहे, किन्तु न तो अपना लेख पढ़ा और न किसी ने उनसे पढ़ने के लिए जोर दिया। वहाँ तो सभी अधिकारियों के सेवा-सत्कार में ऐसे दत्तचित्त थे, मानो बारात आयी हो। बल्कि उनका वहाँ रहना सबको अखरता था। सभी समझते थे कि यह महाशय मन में हमारा तिरस्कार कर रहे हैं। लोगों को किसी गुप्त रीति से यह भी मालूम हो गया था कि यह स्वराज्यवादी हैं। इस कारण से किसी ने उनसे निबन्ध पढ़ने के लिए आग्रह नहीं किया, यहाँ तक कि गार्डन पार्टी में उन्हें निमन्त्रण भी न दिया। यह रहस्य लोगों पर उनके आने के एक दिन पीछे खुला था; नहीं तो कदाचित् उनके पास लेख पढ़ने को आदेश-पत्र भी न भेजा जाता। प्रेमशंकर ऐसी दशा में वहाँ क्योंकर ठहरते? चौथे दिन घर चले आये। दो-तीन दिन तक उनका चित्त बहुत खिन्न रहा, किन्तु इसलिए नहीं कि उन्हें आशातीत सफलता न हुई, बल्कि इसलिए कि उन्होंने सहायता के लिए रईसों के सामने हाथ फैला कर अपने स्वाभिमान की हत्या की। यद्यपि अकेले पड़े-पड़े उनका जी उकताता था, पर इसके साथ ही यह अवस्था आत्म-चिन्तन के बहुत अनुकूल थी। निःस्वार्थ सेवा करना मेरा कर्त्तव्य है। प्रयोगशाला स्थापित करके मैं कुछ स्वार्थ भी सिद्ध करना चाहता था। कुछ लाभ होता, कुछ नाम होता। परमात्मा ने उसी का मुझे दण्ड दिया है। सेवा का क्या यही एक साधन है? मैं प्रयोगशाला के ही पीछे क्यों पड़ा हुआ हूँ? बिना प्रयोगशाला के भी कृषि-संबंधी विषयों का प्रचार किया जा सकता है। रोग-निवारण क्या सेवा नहीं है? इन प्रश्नों ने प्रेमशंकर के सदुत्साह तो उत्तेजित को उत्तेजित कर दिया। वह प्रायरू घर से निकल जाते और आस-पास के देहातों में जा कर किसानों से खेती-बारी के विषय में वार्तालाप करते। उन्हें अब मालूम हुआ कि यहाँ के किसानों को जितना मूर्ख समझा जाता है, वे उतने मूर्ख नहीं हैं! उन्हें किसानों से कितनी ही नई बातों का ज्ञान हुआ। शनैः-शनैः वह दिन-दिन भर घर से बाहर रहने लगे। कभी-कभी दूर के देहातों में चले जाते; दो-दो तीन दिन तक न लौटते।


जेठ का महीना था। आकाश से आग बरसती थी। राज्यधिकारी वर्ग पहाड़ों पर ठण्डी हवा खा रहे थे। भ्रमण करने वाले कर्मचारियों के दौरे भी बन्द थे; पर प्रेमशंकर की तातील न थी। उन्हें बहुधा दोपहर का समय पेड़ों की छाँह में काटना पड़ता, कभी दिन का दिन निराहार बीत जाता, पर सेवा की धुन ने उन्हें शारीरिक सुखों से विरक्त कर दिया था। किसी गाँव में हैजा फैलने की खबर मिलती, कहीं कीड़े ऊख के पौधे का सर्वनाश किये डालते थे। कहीं आपस में लठियाव होने का समाचार मिलता। प्रेमशंकर डाकियों की भांति इन सभी स्थानों पर जा पहुँचते और यथासाध्य कष्ट-निवारण का प्रयास करते। कभी-कभी लखनपुर तक का धावा मारते। जब आषाढ़ में मेह बरसता तो प्रेमशंकर को अपने काम में बड़ी असुविधा होने लगी। वह एक विशेष प्रकार के धानों का प्रचार करना चाहते थे। तरकारियों के बीज भी वितरण करने के लिए मँगा रखे थे। उन्हें बोने और उपजाने की विधि बतलानी भी जरूरी थी। इसलिए उन्होंने शहर से चार-पाँच मील पर वरुणा किनारे हाजीगंज में रहने का निश्चय किया। गाँव से बाहर फूस का एक झोंपड़ा पड़ गया। दो-तीन खाटें आ गयीं। गाँववालों की उन पर असीम भक्ति थी। उनके निवास को लोगों ने अहोभाग्य समझा। उन्हें सब लोग अपना रक्षक, अपना इष्टदेव समझते थे और उनके इशारे पर जान देने को तैयार रहते थे।


यद्यपि प्रेमशंकर को यहाँ बड़ी शान्ति मिलती थी, पर श्रद्धा की याद कभी-कभी विकल कर देती थी। वह सोचते, यदि वह भी मेरे साथ होती तो कितने आनन्द से जीवन व्यतीत होता। उन्हें यह ज्ञात हो गया था कि ज्ञानशंकर ने ही मेरे विरुद्ध उनके कान भरे हैं, अतएव उन्हें अब उस पर क्रोध के बदले दया आती थी। उन्हें एक बार उससे मिलने और उसके मनोगत भावों को जानने की बड़ी आकांक्षा होती थी। कई बार इरादा किया कि एक पत्र लिखूँ पर यह सोचकर कि जवाब दे या न दे, टाले जाते थे। इस चिन्ता के अतिरिक्त अब धनाभाव से भी कष्ट होता था। अमेरिका से जितने रुपये लाये थे, वह इन चार महीनों में खर्च हो गये थे और यहाँ नित्य ही रुपयों का काम लगा रहता था। किसानों से अपनी कठिनाइयाँ बयान करते हुए इन्हें संकोच होता था। वह अपने भोजनादि का बोझ भी उन पर डालना पसन्द न करते थे और न शहर के किसी रईस से ही सहायता माँगने का साहस होता था। अन्त में उन्होंने निश्चय किया कि ज्ञानशंकर से अपने हिस्से का मुनाफा माँगना चाहिए। उन्हें मेरे हिस्से की पूरी रकम उड़ा जाने का क्या अधिकार है? श्रद्धा के भरण-पोषण के लिए वह अधिक-से-अधिक मेरा आधा हिस्सा ले सकते हैं। तभी भी मुझे एक हजार के लगभग मिल जायेंगे। इस वक्त काम चलेगा, फिर देखा जायेगा। निस्सन्देह इस आमदनी पर मेरा कोई हक नहीं है, मैंने उसका अर्जन नहीं किया; लेकिन मैं उसे अपने भोग-विलास के निमित्त तो नहीं चाहता, उसे लेकर परमार्थ में खर्च करना आपत्तिजनक नहीं हो सकता। पहले प्रेमशंकर की निगाह इस तरफ कभी नहीं गयी थी। वह इन रुपयों को ग्रहण करना अनुचित समझते थे। पर अभाव बहुधा सिद्धान्तों और धारणाओं का बाधक हो जाता है। सोचा था कि पत्र में सब कुछ साफ-साफ लिख दूँगा, मेरी कुछ सहायता करेंगे। भावों को केवल इतना लिखा कि मुझे रुपयों की बड़ी जरूरत है। आशा है, मेरी कुछ सहायता करेंगे। भावों के लेखबद्ध करने में हम बहुत विचारशील हो जाते हैं।


ज्ञानशंकर को यह पत्र मिला तो जामे से बाहर हो गये। श्रद्धा को सुनाकर बोले, यह तो नहीं होता कि कोई उद्यम करें, बैठे-बैठे सुकीर्ति का आनन्द उठाना चाहते हैं। जानते होंगे कि यहाँ रुपये बरस रहे हैं। बस बिना हर्रे-फिटकरी के मुनाफा हाथ आ जाता है। और यहाँ अदालत के खर्च के मारे कचूमर निकला जाता है। एक हजार रुपये कर्ज ले कर खर्च कर चुका और अभी पूरा साल पड़ा है। एक बार हिसाब-किताब देख लें तो आँखें खुल जायें; मालूम हो जायें की जमींदारी परोसा हुआ थाल नहीं है। सैकड़ों रुपये साल कर्मचारियों की नजर-नियाज में उड़ जाते हैं।


यह कहते हुए उसी गुस्से में पत्र का उत्तर लिखने नीचे गये। उन्हें अपनी अवस्था और दुर्भाग्य पर क्रोध आ रहा था। राय कमलानन्द की चेतावनी बार-बार याद आती थी। वही हुआ, जो उन्होंने कहा था।


सन्ध्या हो गई थी। आकाश पर काली घटा छाई थी। प्रेमशंकर सोच रहे थे, बड़ी देर हुई, अभी तक आदमी जवाब देकर नहीं लौटा। कहीं पानी न बरसने लगे, नहीं तो इस वक्त आ भी न सकेगा, देखूँ क्या जवाब देते हैं? सूखा जवाब तो क्या देंगे, हाँ, मन में अवश्य झुँझलाएँगे। अब मुझे भी निस्संकोच होकर लोगों से सहायता माँगनी चाहिए। अपने बल पर यह बोझ मैं नहीं सम्भाल सकता। थोड़ी सी जमीन मिल जाती, मैं स्वयं कुछ पैदा करने लगता तो यह दशा न रहती जमीन तो यहाँ बहुत कम है। हाँ, पचास बीघे का यह ऊसर अलबत्ता है, लेकिन ज़मींदार साहब से सौदा पटना कठिन है। वह ऊसर के लिए २०० रुपये बीघे नजराना माँगेंगे। फिर इसकी रेह निकालने और पानी के निकास नालियाँ बनाने में हजारों का खर्च है। क्या बताऊँ, ज्ञानू ने मेरे सारे मंसूबे चौपट कर दिये, नहीं लखनपुर यहाँ से कौन बहुत दूर था? मैं पन्द्रह बीस बीघे की सीर भी कर लेता तो मुझे किसी की मदद की दरकार न होती।


यह इन्हीं विचारों में डूबे थे कि सामने से एक इक्का आता हुआ दिखाई दिया। पहले तो कई आदमियों ने इक्केवान को ललकारा। क्यों खेत में इक्का लाता है? आँखें फूटी हुई हैं? देखता नहीं, खेत बोया हुआ है? पर जब इक्का प्रेमशंकर के झोंपड़े की ओर मुड़ा तो लोग चुप हो गये। इस पर लाला प्रभाशंकर और उनके दोनों लड़के पद्मशंकर और तेजशंकर बैठे हुए थे। प्रेमशंकर ने दौड़कर उनका स्वागत किया। प्रभाशंकर ने उन्हें छाती से लगा लिया और पूछा, अभी तुम्हारा आदमी ज्ञानू का जवाब लेकर तो नहीं आया?


प्रेम– जी नहीं, अभी तो नहीं आया, देर बहुत हुई


प्रभा– मेरे ही हाथ बाजी रही। मैं उसके एक घण्टा पीछे चला हूँ। यह लो, बड़ी बहू ने यह लिफाफा और सन्दूकची तुम्हारे पास भेजी है। मगर यह तो बताओ, यह बनवास क्यों कर रहे हो? तुम्हारे एक छोड़ दो-दो घर हैं। उनमें न रहना चाहो तो तुम्हारे कई मकान किराये पर उठे हुए हैं, उनमें से जिसे कहो खाली करा दूँ। आराम से शहर में रहो। तुम्हें इस दशा में देखकर मेरा हृदय फटा जाता है। यह फूस का झोंपड़ा, बीहड़ स्थान, न कोई आदमी न आदमजाद! मुझसे तो यहाँ एक क्षण भी न रहा जाये। हफ्तों घर की सुधि नहीं लेते। मैं तुम्हें यहाँ न रहने दूँगा। हम तो महल में रहे और तुम यों बनवास करो। (सजल नेत्र होकर) यह सब मेरा दुर्भाग्य है। मेरे कलेजे के टुकड़े हुए जाते हैं। भाई साहब जब तक जीवित रहे, मं  अपने ऊपर गर्व करता था। समझता था कि मेरी बदौलत एका बना हुआ है। लेकिन उनके उठते ही घर की श्री उठ गई। मैं दो-चार साल भी उस मेल को न निभा सका। वह भाग्यशाली थे, मैं अभागा हूँ और क्या कहूँ।


प्रेमशंकर ने बड़ी उत्सुकता से लिफाफा खोला और पढ़ने लगे। लाला जी की तरफ उनका ध्यान न था।


‘प्रिय प्राणपति,

दासी का प्रणाम स्वीकार कीजिए। आप जब तक विदेश में थे, वियोग के दुःख को धैर्य के साथ सहती रही, पर आपका यह एकान्त निवास नहीं सहा जाता। मैं यहाँ आपसे बोलती न थी, आपसे मिलती न थी, पर आपको आँखों से देखती तो थी, आपकी कुछ सेवा तो कर सकती थी। आपने यह सुअवसर भी मुझसे छीन लिया। मुझे तो संसार की हँसी का डर था, आपको भी संसार की हँसी का डर है? मुझे आपसे मिलते हुए अनिष्ट की आशंका होती है। धर्म को तोड़कर कौन प्राणी सुखी रह सकता है? आपके विचार तो ऐसे नहीं, फिर आप क्यों मेरी सुधि नहीं लेते?


यहाँ लोग आपके प्रायश्चित करने की चर्चा कर रहे हैं। मैं जानती हूँ, आपको बिरादरी का भय नहीं है, पर यह भी जानती हूँ कि आप मुझ पर दया और प्रेम रखते हैं। क्या मेरी खातिर इतना न कीजिएगा? – मेरे धर्म को न निभाइएगा?


इस सन्दूकची में मेरे कुछ गहने और रुपये हैं–  गहने अब किसके लिए पहनूँ? कौन देखेगा? यह तुच्छ भेंट है, उसे स्वीकार कीजिए। यदि आप ने लेंगे, तो समझूँगी कि आपने मुझसे नाता तोड़ दिया।


आपकी अभागिनी,

श्रद्धा।


प्रेमशंकर के मन में पहले विचार हुआ कि सन्दूकची को वापस कर दूँ और लिख दूँ कि मुझे तुम्हारी मदद की जरूरत नहीं। क्या मैं ऐसा निर्लज्ज हो गया कि जो स्त्री मेरे साथ इतनी निष्ठुरता से पेश आये उसी के सामने मदद के लिए हाथ फैलाऊँ? लेकिन एक ही क्षण में यह विचार पलट गया। उसके स्थान पर यह शंका हुई कि कहीं इसके मन में कुछ और तो नहीं ठान ली है? यह पत्र किसी विषम संकल्प का सूचक तो नहीं है? वह आस्थिर चित्त होकर इधर-उधर टहलने लगे। सहसा लाला प्रभाशंकर से बोले– आपको तो मालूम होगा ज्ञानशंकर का बर्ताव उसके साथ कैसा है?


प्रभा– बेटा, यह बात मुझसे मत पूछो। हाँ, इतना कहूँगा कि तुम्हारे यहाँ रहने से बहुत दुखी है। तुम्हें मालूम है कि उसको तुमसे कितना प्रेम है। तुम्हारे लिए उसने बड़ी तपस्या की है। उसके ऊपर तुम्हारी अकृपा नितान्त अनुचित है।


प्रेम– मुझे वहाँ रहने में कोई उज्र नहीं है। हाँ, ज्ञानशंकर के कुटिल व्यवहार से दुःख होता है और फिर वहाँ बैठकर यह काम न होगा। किसानों के साथ मैं उनकी जितनी सेवा कर सकता हूँ, अलग रहकर नहीं कर सकता। आपसे केवल प्रार्थना करता हूँ कि आप उसे बुलाकर उसकी तस्कीन कर दीजिएगा। मेरे विचार से उसका व्यवहार कितना ही अनुचित क्यों न हो, पर मैं उसे निरपराध समझता हूँ। यह दूसरों के बहकाने का फल है। मुझे शंका होती है कि वह जान पर न खेल जाये।


प्रभा– मगर तुम्हें वचन देना होगा कि सप्ताह में कम-से-कम एक बार वहाँ अवश्य जाया करोगे।


प्रेम– इसका पक्का वादा करता हूँ।


प्रभाशंकर ने लौटना चाहा, पर प्रेमशंकर ने उन्हें साग्रह रोक लिया। हाजीगंज में एक सज्जन ठाकुर भवानीसिंह रहते थे। उनके यहाँ भोजन का प्रबन्ध किया गया। पूरियाँ मोटी थीं और भाजी भी अच्छी न बनी थी; किन्तु दूध बहुत स्वादिष्ट था। प्रभाशंकर ने मुस्कुराकर कहा– यह पूरियाँ हैं या लिट्टी? मुझे तो दो-चार जिन भी खानी पड़ें तो काम तमाम हो जाये। हाँ, दूध की मलाई अच्छी है।


प्रेम– मैं तो यहाँ रोटियाँ बना लेता हूँ। दोपहर को दूध पी लिया करता हूँ।


प्रभा– तो यह कहो तुम योगाभ्यास कर रहे हो। अपनी रुचि का भोजन न मिले तो फिर जीवन का सुख ही क्या रहा?


प्रेम– क्या जाने, मैं तो रोटियों से ही सन्तुष्ट हो जाता हूँ। कभी-कभी तो मैं शाक या दाल भी नहीं बनाता। सूखी रोटियाँ बहुत मीठी लगती हैं। स्वास्थ्य के विचार से भी रूखा-सूखा भोजन उत्तम है।


प्रभा– यह सब नये जमाने के ढकोसले हैं। लोगों की पाचान शक्ति निर्बल हो गयी है। इसी विचार से अपने को तस्कीन दिया करते हैं। मैंने तो आजीवन चटपटा भोजन किया है, पर कभी कोई शिकायत नहीं हुई।


भोजन करने के बाद कुछ इधर-उधर की बातें होने लगीं। लाला जी थके थे, सो गये, किन्तु दोनों लड़कों को नींद नहीं आती थी। प्रेमशंकर बोले, क्यों तेजशंकर, क्या नींद नहीं आती? मैट्रिक में हो न? इसके बाद क्या करने का विचार है?


तेजशंकर– मुझे क्या मालूम? दादा जी की जो राय होगा, वही करूँगा?


प्रेम– और तुम क्या करोगे पद्मशंकर?


पद्म– मेरा तो पढ़ने में जी नहीं लगता। जी चाहता है, साधू हो जाऊँ।


प्रेम– (मुस्करा कर) अभी से?


पद्म– जी हाँ, खूब पहाड़ों पर विचरूँगा। दूर-दूर के देशों की सैर करूँगा। भैया भी तो साधु होने को कहते हैं।


प्रेम– तो तुम दोनों साधु हो जाओगे और गृहस्थी का सारा बोझ चाचा साहब के सिर पर छोड़ दोगे।


तेज– मैंने कब साधु होने को कहा पद्मू? झूठ बोलते हो।


पद्म– रोज तो कहते हो, इस वक्त लजा रहे हो।


तेज– बड़े झूठे हो।


पद्म– अभी तो कल ही कह रहे थे कि पहाड़ों पर जाकर योगियों से मन्त्र जगाना सीखेंगे।


प्रेम– मन्त्र जगाने से क्या होगा?


पद्म– वाह! मन्त्र में इतनी शक्ति है कि चाहें तो अभी गायब हो जायँ, जमीन में गड़ा हुआ धन देख लें। एक मन्त्र तो ऐसा है कि चाहें तो मुरदों को जिला दें। बस, सिद्धि चाहिए। खूब चैन रहेगा। यहाँ तो बरसों पढ़ेंगे, तब जाकर कहीं नौकरी मिलेगी। और वहाँ तो एक मन्त्र भी सिद्ध हो गया तो फिर चाँदी ही चाँदी है।


प्रेम– क्यों जी तेजू, तुम भी इन मिथ्या बातों पर विश्वास करते हो?


तेज– जी नहीं, यह पद्म यों ही बाही-तबाही बकता फिरता है, लेकिन इतना कह सकता हूँ कि आदमी मन्त्र जगाकर बड़े-बड़े काम कर सकता है। हाँ, डर न जाये, नहीं तो जान जाने का डर रहता है।


प्रेम– यह सब गपोड़ा है। खेद है, तुम विज्ञान पढ़कर इन गपोड़ों पर विश्वास करते हो। संसार में सफलता का सबसे जगाता हुआ मन्त्र अपना उद्योग, अध्यवसाय और दृढ़ता है, इसके सिवा और सब मन्त्र झूठे हैं।


दोनों लड़कों ने इसका कुछ उत्तर न दिया। उसके मन में मन्त्र की बात बैठ गयी थी। और तर्क द्वारा उन्हें कायल करना कठिन था।


इनके सो जाने के बाद प्रेमशंकर ने सन्दूकची खोलकर देखा। गहने सभी सोने के थे। रुपये गिने तो पूरे तीन हजार थे। इस समय प्रेमशंकर के सम्मुख श्रद्धा एक देवी का रूप में खड़ी मालूम होती थी। उसकी मुखश्री एक विलक्षण ज्योति से प्रदीप्त थी। त्याग और अनुराग की विशाल मूर्ति थी, जिसके कोमल नेत्रों में भक्ति और प्रेम की किरणें प्रस्फुटित हो रही थीं। प्रेमशंकर का हृदय विह्वल हो गया। उन्हें अपनी निष्ठुरता पर बड़ी ग्लानि उत्पन्न हुई। श्रद्धा की भक्ति के सामने अपनी कटुता और अनुदारता अत्यन्त निन्द्य प्रतीत होने लगी। उन्होंने संदूकची बन्द करके खाट के नीचे रख दी और लेटे तो सोचने लगे, इन गहनों को क्या करूँ? कुल सम्पत्ति पाँच हजार से कम की नहीं है। इसे मैं ले लूँ तो श्रद्धा निरवलम्ब हो जायेगी। लेकिन मेरी दशा सदैव ऐसी ही थोड़े रहेगी। अभी ऋण समझकर ले लूँ, फिर कभी सूद समेत चुका दूँगा। पचीस वर्ष ऊसर लूँ तो दो-ढाई हजार में तय हो जाये। एक हजार खाद डालने और रेह निकालने में लग जायेंगे। एक हजार में बैलों की गोइयाँ और दूसरी सामग्रियाँ आ जायेंगी। दस बीघे में एक सुन्दर बाग लगा दूँ, पन्द्रह बीघे में खेती करूँ। दो साल तो चाहे उपज कम हो, लेकिन आगे चलकर दो-ढाई हजार वार्षिक की आय होने लगेगी। अपने लिए मुझे २०० रुपये साल भी बहुत हैं, शेष रुपये अपने जीवनोद्देश्य के पूरे करने में लगेंगे। सम्भव है, तब तक कोई सहायक भी मिल जाये। लेकिन उस दशा में कोई सहायता भी न करे तो मेरा काम चलता रहेगा। हाँ, एक बात का ध्यान ही न रहा। मैं यह ऊसर ले लूँ तो फिर इस गाँव में गोचर भूमि कहाँ रहेगी? यह ऊसर तो यहाँ के पशुओं का मुख्य आधार है। नहीं इसके लेने का विचार छोड़ देना चाहिए। अब तो हाथ में रुपये आ गये हैं। कहीं न कहीं जमीन मिल ही जायेगी। हाँ, अच्छी जमीन होगी तो इतने रुपयों में दस बीघे से ज्यादा न मिल सकेगी। दस बीघे में मेरा काम कैसे चलेगा?


प्रेमशंकर इसी उधेड़-बुन में पड़े हुए थे। मूसलाधार मेघ बरस रहा था। सहसा उनके कानों में बादलों के गर्जन की-सी आवाज आने लगी, लेकिन जब देर तक इस ध्वनि का तार न टूटा, मानो किसी बड़े पुल पर रेलगाड़ी चली जा रही हो। और थोड़ी देर में गाँव की ओर से आदमियों के चिल्लाने और रोने की आवाजें आने लगीं, तो वह घबड़ाकर उठे और गाँव की तरफ नजर दौड़ायी। गाँव में हलचल मची हुई थी। लोग हाथों में सन और अरहर के डण्ठलों की मशालें लिए इधर-उधर दौड़ते फिरते थे। कुछ लोग मशालें लिये नदी की तरफ दौड़ते जाते थे। एक क्षण में मशालों का प्रतिबिम्ब-सा दीखने लगा, जैसे गाँव में पानी लहरें मार रहा हो। प्रेमशंकर समझ गये कि बाढ़ आ गयी।


अब विलम्ब करने का समय न था वह तुरन्त गाँव की तरफ चले। लेकिन थोड़ी ही दूर चलकर वह घुटनों तक पानी में पहुँचे। बहाव में इतना वेग था कि उनके पाँव मुश्किल से संभल सकते थे। कई बर वह गड्ढो में गिरते बचे। जल्दी में जल थाहने के लिए कोई लकड़ी भी न ले सके थे। जी चाहता था कि गाँव में उड़कर जा पहुँचूँ और लोगों की यथासाध्य मदद करूँ; लेकिन यहाँ एक-एक पग रखना दुस्तर था। चारों तरफ घना अन्धेरा, ऊपर मूसलाधार वर्षा, नीचे वेगवती लहरों का सामना, राह-बाट का कहीं पता नहीं। केवल मशालों को देखते चले जाते थे। कई बार घरो के गिरने का धमाका सुनायी दिया। गाँव के निकट पहुँचे तो हाहाकार मचा हुआ था। गाँच के समस्त प्राणी– युवा, वृद्ध, बाल मन्दिर के चबूतरे पर खड़े यह विध्वंसकारी मेघलीला देख रहे थे। प्रेमशंकर को देखते ही लोग चारों ओर आकर खड़े हो गये। स्त्रियाँ रोने लगीं।


प्रेमशंकर– बाढ़ क्या अबकी ही आयी है या और भी कभी आयी थी?


भवानीसिंह– हर दूसरे-तीसरे साल आ जाती है। कभी-कभी तो साल में दो-दो बेर आ जाती है।


प्रेमशंकर– इसके रोकने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया?


भवानीसिंह– इसका एक ही उपाय है। नदी के किनारे बाँध बना दिया जाये। लेकिन कम से कम तीन हजार का खर्च है, वह हमारे किये नहीं हो सकता। इतनी सामर्थ्य ही नहीं। कभी बाढ़ आती है, कभी सूखा पड़ता है। धन कहाँ से आये?


प्रेमशंकर– ज़मींदार से इस विषय में तुम लोगों ने कुछ नहीं कहा?


भवानी– उनके कभी दर्शन ही नहीं होते; किससे कहें? सेठ जी ने यह गाँव उन्हें पिण्ड-दान में दे दिया था; बस, आप तो गया जी में बैठे रहते हैं। साल में दो बार उनका मुंशी आकर लगान वसूल कर ले जाता है। उससे कहो तो कहता है, हम कुछ नहीं जानते, पण्डा जी जानें। हमारे सिर पर चाहे जो पड़े, उन्हें अपने काम से काम है।


प्रेमशंकर– अच्छा इस वक्त क्या उपाय करना चाहिए? कुछ बचा या सारा डूब गया?


भवानी– अँधेरे में सब कुछ सूझ तो नहीं पड़ता, लेकिन अटकल से जान पड़ता है कि घर एक भी नहीं बचा। कपड़े-लत्ते, बर्तन-भाँड़े, खाट-खटोले सब बह गये। इतनी मुहलत ही नहीं मिली कि अपने साथ कुछ लाते। जैसे बैठे थे वैसे ही उठकर भागे। ऐसी बाढ़ कभी नहीं आयी थी जैसे आँधी आ जाये, बल्कि आँधी का हाल भी कुछ पहले मालूम हो जाता है, यहाँ तो कुछ पता ही नहीं चला।


प्रेमशंकर– मवेशी भी बह गये होंगे?


भवानी– राम जाने, कुछ तुड़ाकर भागे होंगे, कुछ बह गये होंगे, कुछ बदन तक पानी में डूब गये होंगे। पानी दस-पाँच अंगुल और चढ़ा तो उनका भी पता न लगेगा।


प्रेमशंकर– कम से कम उनकी रक्षा तो करनी चाहिए।


भवानी– हमें तो असाध्य जान पड़ता है।


प्रेमशंकर– नहीं हिम्मत न हारो। भला कुछ कितने मर्द यहाँ होंगे?


भवानी–  (आँखों से गिनकर) यही कोई चालीस-पचास।


प्रेम– तो पाँच-पाँच आदमियों की एक-एक टुकड़ी बना लो और सारे गाँव का एक चक्कर लगाओ। जितने जानवर मिलें उन्हें बटोर लो और मेरे झोंपड़े के सामने ले चलो। वहाँ जमीन बहुत ऊँची है, पानी नहीं जा सकता। मैं भी तुम लोगों के साथ चलता हूँ। जो लोग इस काम के लिए तैयार हों, सामने निकल आयें।


प्रेमशंकर के उत्साह ने लोगों को उत्साहित किया। तुरन्त पचास-साठ आदमी निकल आये। सबके हाथों में लाठियाँ थीं। प्रेमशंकर को लोगों ने रोकना चाहा, लेकिन वह किसी तरह न माने। एक लाठी हाथ में ले ली और आगे-आगे चले। पग-पग पर बहते हुए झोंपड़ों, गिरे हुए वृक्षों तथा बहती हुई चारपाइयों से टकराना पड़ता था। गाँव का नाम-निशान भी न था। गाँववालों के अपने-अपने घरों का भी पता न चलता था। जहाँ-तहाँ भैंसों और बैलों के डकारने की आवाज सुन पड़ती थी। कहीं-कहीं पशु बहते हुए भी मिलते थे। यह रक्षक दल सारी रात पशुओं के उद्धार का प्रयत्न करता रहा। उनका साहस अदम्य और उद्योग अविश्रान्त था। प्रेमशंकर अपनी टुकड़ी के साथ बारी-बारी से अन्य दलों की सहायता करते रहते थे। उनका धैर्य और परिश्रम देखकर निर्बल हृदय वाले भी प्रोत्साहित हो जाते थे। जब दिन निकला और प्रेमशंकर अपने झोंपड़े पर पहुँचे तब दो सौ से अधिक पशुओं को आनन्द से बैठे जुगाली करते हुए देखा, लेकिन इतनी कड़ी मेहनत कभी न की थी। ऐसे थक गये थे कि खड़ा होना मुश्किल था। अंग-अंग में पीड़ा हो रही थी। आठ बजते-बजते उन्हें ज्वर हो आया। लाला प्रभाशंकर ने यह वृत्तान्त सुना तो असन्तुष्ट होकर बोले– बेटा परमार्थ करना बहुत अच्छी बात है, लेकिन इस तरह प्राण देकर नहीं। चाहे तुम्हें अपने प्राण का मूल्य इन जानवरों से कम जान पड़ता हो, लेकिन हम ऐसे-ऐसे लाखों पशुओं का तुम्हारे ऊपर बलिदान कर सकते हैं। श्रद्धा सुनेगी तो न जाने उसका क्या हाल होगा? यह कहते-कहते उनकी आँखें भर आयी।


तीन दिन तक प्रेमशंकर ने सिर न उठाया और न लाला प्रभाशंकर उनके पास से उठे। उनके सिरहाने बैठे हुए कभी विनयपत्रिका के पदों का पाठ करते, कभी हनुमान चालीसा का पाठ पढ़ते। हाजीपुर में दो ब्राह्मण भी थे। वह दोनों झोंपड़े में बैठे दुर्गा पाठ किया करते। अन्य लोग तरह तरह-तरह की जड़ी बूटियाँ लाते। आस-पास के देहातों में भी जो उनकी बीमारी की खबर पाता, दौड़ा हुआ देखने आता। चौथे दिन ज्वर उतर गया, आकाश भी निर्मल हो गया और बाढ़ उतर गयी।


प्रभात का समय था। लाला प्रभाशंकर ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर घर चले गये थे। प्रेमशंकर अपनी चारपाई पर तकिये के सहारे बैठे हुए हाजीपुर की तरफ चिन्तामय नेत्रों से देख रहे थे। चार दिन पहले जहाँ एक हरा-भरा लहलहाता हुआ गाँव था, जहाँ मीलों तक खेतों में सुखद हरियाली छाई हुई थी, जहाँ प्रातःकाल गाय-भैसों के रेवड़ के रेवड़ चरते दिखाई देते थे, जहाँ झोंपड़ों से चक्कियों की मधुर ध्वनि उठती थी और बाल वृद्ध मैदानों में खेलते-कूदते दिखायी देते थे, वहाँ एक निर्जन मरुभूमि थी। गाँव के अधिकांश प्राणी दूसरे गाँव में भाग गये थे और कुछ लोग प्रेमशंकर के झोंपड़े के सामने सिरकियाँ डाले पड़े थे। न किसी के पास अन्न था, न वस्त्र, बड़ा शोकमय दृश्य था। प्रेमाशंकर सोचने लगे, कितनी विषम समस्या है! इन दीनों का कोई सहायक नहीं। आये दिन इन पर यही विपत्ति पड़ा करती है। और ये बेचारे इसका निवारण नहीं कर सकते। साल-दो साल में जो कुछ तन पेट काटकर संचय करते हैं। वह जलदेव को भेंट देते हैं। कितना धन, कितने जीव इस भँवर में समा जाते हैं, कितने घर मिट जाते हैं, कितनी गृहस्थियों का सर्वनाश हो जाता है और यह केवल इसलिए कि इनको गाँव के किनारे एक सुदृढ़ बाँध बनाने का साहस नहीं है। न इतना धन है, न वह सहमति और सुसंगठन है जो धन का अभाव होने पर भी बड़े-बड़े कार्य सिद्ध कर देता है। ऐसा बाँध यदि बन जाये तो उससे इसी गाँव की नहीं, आस-पास के कई गाँवों की रक्षा हो सकती है। मेरे पास इस समय चार-पाँच हजार रुपये हैं। क्यों न इस बाँध में हाथ लगा दूँगा। गाँव के लोग धन न दे सकें, मेहनत तो कर सकते हैं। केवल उन्हें संगठित करना होगा। दूसरे गाँव के लोग भी निस्सन्देह इस काम में सहायता देंगे। ओह, कहीं यह बाँध तैयार हो जाये तो इन गरीबों का कितना कल्याण हो!


यद्यपि प्रेमशंकर बहुत अशक्त हो रहे थे, पर इस विचार ने उन्हें इतना उत्साहित किया कि तुरन्त उठ खड़े हुए और लोगों के बहुत रोकने पर भी हाथ में डण्डा लेकर नदी की ओर बाँध-स्थल पर निरीक्षण करने चल खड़े हुए। जेब में पेंसिल और कागज भी रख लिया। कई आदमी साथ हो लिए। नदी के किनारे बहुत देर तक रस्सी से नाप-नाप कर कागज पर बाँध का नक्शा खींचते और उसकी लम्बाई-चौड़ाई, गर्भ आदि का अनुमान करते रहे। उन्हें उत्साह के वेग में यह काम सहज जान पड़ता था, केवल काम छेड़ देने की जरूरत थी। उन्होंने वहीं खड़े-खड़े निश्चय किया कि वर्षा समाप्त होते ही श्रीगणेश कर दूँगा। ईश्वर ने चाहा तो जाड़े में बांध तैयार हो जायेगा। बाँध के साथ-साथ गाँव को भी पुनर्जीवित कर दूँगा। बाढ़ का भय तो न रहेगा, दीवारें मजबूत बनाऊँगा और उस पर फूस की जगह खपरैला का छाज रखूँगा।


भवानसिंह ने कहा– बाबू जी, यह काम हमारे मान का नहीं है।


प्रेमशंकर– है क्यों नहीं; तुम्हीं लोगों से यह पूरा कराऊँगा। तुमने इसे असाध्य समझ लिया, इसी कारण इतनी मुसीबतें झेलते हो।


भवानी– गाँव में आदमी कितने हैं?


प्रेम– दूसरे गाँव वाले तुम्हारे मदद करेंगे, काम शुरू तो होने दो।


भवानी– जैसा बाँध आप सोच रहे हैं, पाँच-छह हजार से कम में न बनेगा।


प्रेम– रुपयों की कोई चिन्ता नहीं। कार्तिक आ रहा है, बस काम शुरू कर दो। दो-तीन महीने में बाँध तैयार हो जायेगा। रुपयों का प्रबन्ध जो कुछ मुझसे हो सकेगा मैं कर दूँगा।


भवानी– आपका ही भरोसा है।


प्रेम– ईश्वर पर भरोसा रखो।


भवानी– मजदूरों की मदद मिल जाये तो अगहन में ही बाँध तैयार हो सकता है।


प्रेम– इसका मैं वचन दे सकता हूँ। यहाँ साठ-सत्तर बीघे का अच्छा चक निकल आयेगा।


भवानी– तब हम आपका झोंपड़ा भी यहीं बना देंगे। वह जगह ऊँची है, लेकिन कभी-कभी वहाँ भी बाढ़ आ जाती है।


प्रेम– तो आज ही भागे हुए लोगों को सूचना दे दो और पड़ोस के गाँव में भी खबर भेज दो।


17.


गायत्री उन महिलाओं में थी जिनके चरित्र में रमणीयता और लालित्य के साथ पुरुषों का साहस और धैर्य भी मिला होता है। यदि वह कंघी और आईने पर जान देती थी तो कच्ची सड़कों के गर्द और धूल से भी न भागती थी। प्यानों पर मोहित थी तो देहातियों के बेसुरे अलाप का आनन्द भी उठा सकती थी। सरस साहित्य पर मुग्ध होती थी तो खसरा और खितौनी से भी जी न चुराती थी। लखनऊ से आये हुए उसे दो साल हो गये। लेकिन एक दिन भी अपने विशाल भवन में आराम से न बैठी। कभी इस गाँव जाती, कभी उस छावनी में ठहरती, कभी तहसील आना पड़ता, कभी सदर जाना पड़ता, बार-बार अधिकारियों से मिलने की जरूरत पड़ती। उसे अनुभव हो रहा था कि दूसरों पर शासन करने के लिए स्वयं झुकना पड़ता है। उसके इलाके में सर्वत्र लूट मची हुई थी, कारिन्दे असामियों को नोचे खाते थे। सोचती, क्या इन सब मुख्तारों और कारिन्दों को जवाब दे दूँ? मगर काम कौन करेगा? और यही क्या मालूम है कि इनकी जगह जो नये लोग आयेंगे, वे इनसे ज्यादा नेकनीयत होंगे? मुश्किल तो यह है कि प्रजा को इस अत्याचार से उतना कष्ट भी नहीं होता, जितना मुझे होता है। कोई शिकायत नहीं करता, कोई फरियाद नहीं करता, उन्हें अन्याय सहने की ऐसा अभ्यास हो गया है कि वह इसे भी जीवन की एक साधारण दशा समझते हैं। उससे मुक्त होने का कोई यत्न भी हो सकता है, इसका उन्हें ध्यान भी नहीं होता।


इतना ही नहीं था। प्रजा गायत्री की सचेष्टाओं को सन्देह की दृष्टि से देखती थी। उनको विश्वास ही न होता था कि उनकी भलाई के लिए कोई ज़मींदार अपने नौकरों को दण्ड दे सकता है। वर्तमान अन्याय उनका ज्ञात विषय था, इसका उन्हें भय न था। सुधार के मन्तव्यों से भयभीत होते थे, यह उनके लिए अज्ञात विषय था। उन्हें शंका होती थी कि कदाचित् यह लोगों को निचोड़ने की कोई विधि है। अनुभव भी इस शंका को पुष्ट करता था। गायत्री का हुक्म था कि किसानों को नाम-मात्र सूद पर रुपये उधार दिये जायँ, लेकिन कारिन्दे महाजनों से भी ज्यादा सूद लेते थे। उनसे ताकीद कर दी थी कि बखारों से असामियों को अष्टांश पर अनाज दिया जाये। लेकिन वहाँ अष्टांश न देकर लोग दूसरों से सवाई-डेवढ़े पर अनाज लाते थे। वह अपने इलाके भर में सफाई का प्रबन्ध भी करना चाहती थी। गोबर बटोरने के लिए गाँव से बाहर खत्ते बनवा दिये थे। मोरियों को साफ करने के लिए भंगी लगा दिये थे। लेकिन प्रजा इसे ‘मुदाखतल बेजा’ समझती थी और डरती थी कि कहीं रानी साहिबा हमारे घूरों और खत्तों पर तो हाथ नहीं बढ़ रही हैं।


जाड़ों के दिन थे। गायत्री राप्ती नदी के किनारे के गाँव का दौरा कर रही थी। अबकी बाढ़ में कई गाँव डूब गये थे। कृषकों ने छूट की प्रार्थना की थी। सरकारी कर्मचारियों ने इधर-उधर देखकर लिख दिया था, छूट की जरूरत नहीं है। गायत्री अपनी आँखों से इन ग्रामों की दशा देखकर यह निर्णय करना चाहती थी कि कितनी छूट होनी चाहिए। सन्ध्या हो गयी थी। वह दिन-भर की थकी-माँदी बिन्दापुर की छावनी में उदास पड़ी हुई थी। सारा मकान खण्डहर हो गया था। इस छावनी की मरम्मत के लिए उसने कारिन्दों को सैकड़ों रुपये दिए थे। लेकिन उसकी दशा देखने से ज्ञात होता था कि बरसों से खपरैल भी नहीं बदला गया। दीवारें गिर गयी थीं, कड़ियों के टूट जाने से जगह-जगह छत बैठ गई थी। आँगन में कूड़े के ढेर लगे हुए थे। यहाँ के कारिन्दों को वह बहुत ईमानदार समझती थी। उसके कुटिल व्यवहार पर चित्त बहुत खिन्न हो रहा था। सामने चौकी पर पूजा के लिए आसन बिछा हुआ था, लेकिन उसका उठने का जी न चाहता था कि इतने में एक चपरासी ने आकर कहा– सरकार, कानूनगो साहब आये हैं।


गायत्री उठकर आसन पर जा बैठी और इस भय से की कहीं कानूनगो साहब चले न जाये, शीघ्रता से सन्ध्या समाप्त की और परदा कराके कानूनगो साहब को बुलाया।


गायत्री– कहिए खाँ साहब! मिजाज तो अच्छा है? क्या आजकल पड़ताल हो रही है?


कानूनगो– जी हाँ, आजकल हुजूर के ही इलाके का दौरा कर रहा हूँ।


गायत्री– आपके विचार में बाढ़ से खेती को कितना नुकसान हुआ?


कानूनगो– अगर सरकारी तौर पर पूछती हैं तो रुपये में एक आना, निज के तौर पर पूछती हैं तो रुपये में बारह आने।


गायत्री– आप लोग यह दोरंगी चाल क्यों चलते हैं? आप जानते नहीं कि इसमें प्रजा का कितना नुकसान होता है?


कानूनगो– हुजूर यह न पूछें? दो रंगी चाल न चलें और असली बात लिख दें तो एक दिन में नालायक बनाकर निकाल दिये जायँ। हम लोगों से सच्चा हाल जानने के लिए तहकीकात नहीं करायी जाती, बल्कि उसको छिपाने के लिए। पेट की बदौलत सब कुछ करना पड़ता है।


गायत्री– पेट को गरीबों की हाय से भरना तो अच्छा नहीं। अगर आप अपनी तरफ से प्रजा की कुछ भलाई न कर सकें तो कम से कम अपने हाथों उनका अहित तो न करना चाहिए। इलाके का क्या हाल है?


कानूनगो– आपको सुनकर रंज होगा। सारन में हुजूर की कई बीघे सीर असामियों ने जोत ली है, जगराँव के ठाकुरों ने हुजूर के नये बाग को जोतकर खेत बना लिया है, और मेड़े खोद डाली हैं। जब तक फिर से पैमाइश न हो कुछ पता नहीं चल सकता कि आपकी कितनी जमीन उन्होंने खायी है।


गायत्री– क्या वहाँ का कारिन्दा सो रहा है? मेरा तो इन झगड़ों से नाकोदम है।


कानूनगो– हुजूर की जानिब से पैमाइश की एक दरख्वास्त पेश हो जाये, बस, बाकी काम मैं कर लूँगा। हाँ, सदर कानूनगो साहब की कुछ खातिर करनी पड़ेगी। मैं तो हुजूर का गुलाम हूँ, ऐसी सलाह हरगिज न दूँगा जिससे हुजूर को नुकसान हो। इतनी अर्ज और करूँगा कि हुजूर एक मैनेजर रख लें। गुस्ताखी माफ, इतने बड़े इलाके का इन्तजाम करना हुजूर का काम नहीं है।


गायत्री– मैनेजर रखने की तो मुझे फिक्र है, लेकिन लाऊ कहाँ से? कहीं वह महाशय भी कारिन्दों से मिल गये तो रही-सही बात भी बिगड़ जायेगी। उनका यह अन्तिम आदेश था कि मेरी प्रजा को कोई कष्ट न होने पाये। उसी आज्ञा का पालन करने के लिए मैं यों अपनी जान खपा रही हूँ। आपकी दृष्टि में कोई ऐसा ईमानदार और चतुर आदमी हो, जो मेरे सिर यह भार उतार ले तो बतलाइए।


कानूनगो– बहुत अच्छा, मैं खयाल रखूँगा। मेरे एक दोस्त हैं। ग्रेजुएट, बड़े लायक और तजुरबेकार। खानदानी आदमी हैं। मैं उनसे जिक्र करूँगा। तो मुझे क्या हुक्म होता है? सदर कानूनगो साहब से बातचीत करूँ?


गायत्री– जी हाँ, कह तो रही हूँ। वही लाला साहब हैं न? लेकिन वह तो बेतरह मुँह फैलाते हैं।


कानूनगो– हुजूर खातिर जमा रखें, मैं उन्हें सीधा कर लूँगा। औरों के साथ चाहे वह कितना मुँह फैलाएँ, यहाँ उनकी दाल न गलने पायेगी। बस हुजूर के पाँच सौ रुपये खर्च होंगे। इतने में ही दोनों गाँवों की पैमाइश करा दूँगा।


गायत्री– (मुस्कुराकर) इसमें कम-से-कम आधा तो आपके हाथ जरूर लगेगा।


कानूनगो– मुआजल्लाह, जनाब यह क्या फरमाती हैं? मैं मरते दम तक हुजूर को मुगालता न दूँगा। हाँ, काम पूरा हो जाने पर हुजूर जो कुछ अपनी खुशी से अदा करेंगी वह सिर आँखों पर रखूँगा।


गायत्री– तो यह कहिए, पाँच सौ के ऊपर कुछ और भी आपको भेंट करना पड़ेगा। मैं इतना महँगा सौदा नहीं करती।


यही बातें हो रही थीं कि पण्डित लेखराज जी का शुभागमन हुआ। रेशमी अचकन, रेशमी पगड़ी, रेशमी चादर, रोशमी धोती, पाँव में दिल्ली का सलेमशाही कामदार जूता, माथे पर चन्द्रबिन्दु, अधरों पर पान की लाली, आँखों पर सुनहरी ऐनक; केवड़ों में बसे हुए आकर कुर्सी पर बैठ गये।


गायत्री– पण्डित जी महाराज को पालागन करती हूँ।


लेखराज– आशीर्वाद! आज तो सरकार को बहुत कष्ट हुआ।


गायत्री– क्या करूँ, मेरे पुरखों ने भी बिना खेत की खेती, बिना जमीन की जमींदारी बिना धन की महाजनी प्रथा निकाली होती, तो मैं आपकी ही तरह चैन करती।


लेखराज–  (हँसकर) कानूनगो साहब! आप सुनते हैं सरकार की बातें ऐसी चुन कर कह देती हैं कि उसका जवाब ही न बन पड़े। सरकार को परमात्मा ने रानी बनाया है, हम तो सरकार के द्वार के भिक्षुक हैं। सरकार ने धर्मशाला के शिलारोपण का शुभमुहूर्त पूछा था वह मैंने विचार कर लिया है। इसी पक्ष की एकादशी को प्रातःकाल सरकार के हाथ से नींव पर जानी चाहिए।


गायत्री– यह सुकीर्ति मेरे भाग्य में नहीं लिखी है। आपने किसी रईस को अपने हाथों सार्वजनिक इमारतों का आधार रखते देखा है? लोग अपने रहने के मकानों की नींव अधिकारियों से रखवाते हैं। मैं इस प्रथा को क्योंकर तोड़ सकती हूँ? जिलाधीश को शिलारोपण के लिए निमंत्रित करूँगी। उन्हीं के नाम पर नामकरण होगा। किसी ठीकेदार से भी आपने बातचीत की?


लेखराज– जी हाँ, मैंने एक ठीकेदार को ठीक कर लिया है। सज्जन पुरुष है। इस शुभ कार्य को बिना लाभ के करना चाहता है। केवल लागत-मात्र लेगा।


गायत्री– आपने उसे नक्शा दिखा दिया है न? कितने पर काम का ठीका लेना चाहता है?


लेखराज– वह कहता है दूसरा ठीकेदार जितना माँगे उससे मुझे सौ रुपये कम दिये जायँ।


गायत्री– तो अब एक-दूसरा ठीकेदार लगाना पड़ा। वह कितना तखमीना करता है?


लेखराज– उसके हिसाब से 60 हजार पड़ेंगे। माल-मसाला अब अव्वल दर्जे का लगायेगा। 6 महीने में काम पूरा कर लेगा।


गायत्री ने इस मकान का नक्शा लखनऊ में बनवाया था। वहाँ इसका तखमीना 40 हजार किया गया था। व्यंग भाव से बोली–  तब तो वास्तव में आपका ठीकेदार बड़ा सज्जन पुरुष है। इसमें कुछ-न-कुछ तो आपके ठाकुर जी पर जरूर ही चढ़ाये जायेंगे।


लेखराज– सरकार तो दिल्लगी करती हैं। मुझे सरकार से यूँ ही क्या कम मिलता है कि ठीकेदार से कमीशन ठहराता? कुछ इच्छा होगी तो माँग लूँगा, नीयत क्यों बिगाड़ूँ?


गायत्री– मैं इसका जवाब एक सप्ताह में दूँगी।


कानूनगो– और मुझे क्या हुक्म होता है? पण्डितजी, आपने भी तो देखा होगा, सारन और जगराँव में हुजूर की कितनी जमीन दब गयी है?


पण्डित– जी हाँ, क्यों नहीं, सौ बीघे से कम न दबी होगी।


गायत्री– मैं जमीन देखकर आपको इत्तला दूँगी। अगर आपस में समझौते से काम चल जाये तो रार बढ़ाने की जरूरत नहीं।


दोनों महानुभाव निराश होकर विदा हुए। दोनों मन-ही-मन गायत्री को कोस रहे थे। कानूनगो ने कहा– चालाक औरत है, बड़ी मुश्किल से हत्थे पर चढ़ती है। लेखराज बोले, एक-एक पैसा दाँत से पकड़ती है। न जाने बटोरकर क्या करेगी? कोई आगे पीछे भी तो नहीं है।


अँधेरा हो चला था। गायत्री सोच रही थी, इन लुटेरों से क्योंकर बचूँ? इनका बस चले तो दिनदहाड़े लूट लें। इतने नौकर हैं, लेकिन ऐसा कोई नहीं, जिसे इलाके की उन्नति का ध्यान हो। ऐसा सुयोग्य आदमी कहाँ मिलेगा? मैं अकेली ही कहाँ-कहाँ दौड़ सकती हूँ। ठीके पर दे दूँ तो इससे अधिक लाभ हो सकता है। सब झंझटों से मुक्त हो जाऊँगी, लेकिन असामी मर मिटेंगे। ठीकेदार इन्हें पीस डालेगा। कृष्णार्पण कर दूँ, तो भी वही हाल होगा, कहीं ज्ञानशंकर राजी हो जाये तो इलाके के भाग जग उठें। कितने अनुभवशील पुरुष हैं, कितने मर्मज्ञ, कितने सूक्ष्मदर्शी। वह आ जायें तो इन लुटेरों से मेरा गला छूट जाये। सारा इलाका चमन हो जाये। लेकिन मुसीबत तो यह है कि उनकी बातें सुनकर मेरी भक्ति और धार्मिक विश्वास डावाँडोल हो जाते हैं। अगर उनके साथ मुझे दो-चार महीने और लखनऊ रहने का अवसर मिलता तो मैं अब तक फैशनेबुल लेडी बन गई होती। उनकी वाणी में विचित्र प्रभाव है। मैं तो उनके सामने बावली-सी हो जाती हूँ। वह मेरा इतना अदब करते थे। उनके स्वभाव में थोड़ी सी उच्छृंखलता अवश्य है, लेकिन मैं भी तो भी तो परछाईं की तरह उनके पीछे-पीछे लगी रहती थी, छेड़-छाड़ किया करती थी। न जाने उनके मन में मेरी ओर से क्या-क्या भावनाएँ उठीं हों। पुरुषों में बड़ा अवगुण है कि हास्य और विनोद की कुवृत्तियों से अलग नहीं रख सकते। इसका पवित्र आनन्द उठाना उन्हें आता ही नहीं। स्त्री ज़रा हँसकर बोली और उन्होंने समझा कि मुझ पर लट्टू हो गयी। उन्हें जरा-सी उँगली पकड़ने को मिल जाये फिर तो पहुँचा पकड़ते देर नहीं लगती। अगर ज्ञानशंकर यहाँ आने पर तैयार हो गये तो उन्हें यहीं रखूँगी। यहीं से वह इलाके का प्रबन्ध करेंगे। जब कोई विशेष काम होगा तो शहर जायेंगे। वहाँ भी मैं उनसे दूर-दूर रहूँगी। भूल कर भी घर में न बुलाऊँगी। नहीं अब उन्हें उतनी धृष्टता का साहस ही न होगा। बेचारा कितना लज्जित था, मेरे सामने ताक न सकता था। स्टेशन पर मुझे विदा करने आया था, मगर दूर बैठा रहा, जबान तक न खोली।


गायत्री इन्हीं विचारों में मग्न थी कि एक चपरासी ने आज की डाक उसके सामने रख दी। डाक घर यहाँ से तीन कोस पर था। प्रतिदिन एक बेगार डाक लेने जाया करता था।


गायत्री ने पूछा– वह आदमी कहाँ है? क्यों रे अपनी मजूरी पा गया?


बेगार– हाँ सरकार, पा गया।


गायत्री– कम तो नहीं है?


बेगार– नहीं सरकार, खूब खाने को मिल गया।


गायत्री– कल तुम जाओगे कि कोई दूसरा आदमी ठीक किया जाये?


बेगार– सरकार मैं तो हाजिर ही हूँ, दूसरा क्यों जायेगा?


गायत्री चिट्ठियाँ खोलने लगी। अधिकांश चिट्ठियाँ सुगन्धित तेल और अन्य औषधियों के विज्ञापनों की थीं। गायत्री ने उन्हें उठाकर रद्दी को टोकरी में डाल दिया। एक पत्र राय कमलाचन्द का था। इसे उसने बड़ी उत्सुकता से खोला और पढ़ते ही उसकी आँखें आनन्दपूर्ण गर्व से चमक उठीं, मुखमण्डल नव पुष्प के समान खिल गया। उसने तुरन्त वह पैकेट खोला जिसे वह अब तक किसी औषधालय का सूची-पत्र समझ रही थी। पूर्व पृष्ठ खोलते ही। उसे अपना चित्र दिखाई दिया। पहले लेख का शीर्षक था ‘गायत्री देवी’। लेखक का नाम था ज्ञानशंकर बी० ए०। गायत्री अंग्रेजी कम जानती थी। लेकिन स्वाभाविक बुद्धिमता से वह साधारण पुस्तकों का आशय समझ लेती थी। उसने बड़ी उत्सुकता से लेख को पढ़ना शुरू किया और यद्यपि बीस पृष्ठों से कम न थे, पर उसे आध ही घण्टें में ही सारा लेख समाप्त कर दिया और तब गौरवोन्मत्त नेत्रों से इधर-उधर देखकर एक लम्बी साँस ली। ऐसा आनन्दोन्माद उसे अपने जीवन में शायद ही प्राप्त हुआ हो। उसका मान-प्रेम कभी इतना उल्लसित न हुआ था। ज्ञानशंकर ने गायत्री के चरित्र, उसके सद्गुणों और सत्कार्यों की इतनी कुशलता से उल्लेख किया था कि शक्ति की जगह लेख में ऐतिहासिक गम्भीरता का रंग आ गया था। इसमें सन्देह नहीं कि एक-एक शब्द से श्रद्धा टपकती थी, किन्तु वाचक को यह विवेक-हीन प्रशंसा नहीं, ऐतिहासिक उदारता प्रतीत होती थी। इस शैली पर वाक्य नैपुण्य सोने में सुगन्ध हो गया था। गायत्री बार-बार आईने में अपना स्वरूप देखती थी, उसके हृदय में एक असीम उत्साह प्रवाहित हो रहा था; मानों वह विमान पर बैठी हुई स्वर्ग को जा रही हो। उसकी धमनियों में रक्त की जगह उच्च भावों का संचार होता हुआ जान पड़ता था। इस समय उसके द्वार पर भिक्षुओं की एक सेना भी होती तो निहाल हो जाती। कानूनगो साहब अगर आ जाते तो पाँच सौ के बदले पाँच हजार ले भागते और पण्डित लेखराज का तखमीना दूना भी होता तो स्वीकार कर लिया जाता। उसने कई दिन से यहाँ कारिन्दे से बात न की थी, उससे रूठी हुई थी। इस समय उसे अपराधियों की भाँति खड़े देखा तो प्रसन्न मुख होकर बोली, कहिए, मुंशीजी आजकल तो कच्चे घड़े की खूब छनती होगी।


मुंशीजी धीरे-धीरे सामने आकर बोले– हुजूर जनेऊ की सौगन्ध है, जब से सरकार ने मना कर दिया मैंने उसकी सूरत तक न देखी।


यह कहते हुए उन्होंने अपने साहित्य प्रेम का परिचय देने के लिए पत्रिका उठा ली और पन्ने उलटने लगे। अकस्मात् गायत्री का चित्र देखकर उछल पड़े। बोले– सरकार, यह तो आपकी तस्वीर है। कैसा बनाया है कि अब बोली, अब बोली, क्या कुछ सरकार का हाल भी लिखा है?


गायत्री ने बेपरवाही से कहा, हाँ तस्वीर है तो हाल क्यों न होगा? करिन्दा दौड़ा हुआ बाहर गया और खबर सुनायी। कई कारिन्दे और चपरासी भोजन बना रहे थे, कोई भंग पीस रहा था, कोई गा रहा था। सब-के-सब आकार तस्वीर पर टूट पड़े। छीना-झपटी होने लगी, पत्रिका के कई पन्ने फट गये। यों गायत्री किसी को अपनी किताबें छूनें नहीं देती थी, पर इस समय जरा भी न बोली।


एक मुँह लगे चपरासी ने कहा– सरकार कुछ हम लोगों को भी सुना दें।


गायत्री– यह मुझसे न होगा। सारा पोथा भरा हुआ है, कहाँ तक सुनाऊँगी? दो-चार दिन में इसका अनुवाद हिन्दी पत्र में छप जायेगा, तब पढ़ लेना।


लेकिन जब आदमियों ने एक स्वर होकर आग्रह करना शुरू किया तो गायत्री विवश हो गयी। इधर-उधर से कुछ अनुवाद करके सुनाया। यदि उसे अँग्रेजी की अच्छी योग्यता होती तो कदाचित् वह अक्षरशः सुनाती।


एक कारिन्दे ने कहा, पत्रवालों के न जाने यह सब हाल कैसे मिल जाते हैं।


दूसरे कारिन्दे ने कहा– उनके गोइन्दे सब जगह बिचरते रहते हैं। कहीं कोई बात हो, चट उनके पास पहुँच जाती है।


गायत्री को इन वार्ताओं में असीम आनन्द आ रहा था। प्रातःकाल उसने ज्ञानशंकर को एक विनयपूर्ण पत्र लिखा। इस लेख की चर्चा न करके केवल अपनी विडम्बनाओं का वृत्तान्त लिखा और साग्रह निवेदन किया कि आप आकर मेरे इलाके का प्रबन्ध अपने हाथ में लें, इस डूबती हुई नौका को पार लगाएँ। उसका मनोमालिन्य मिट गया था। खुशामद अभिमान का सिर नीचा कर देती है। गायत्री अभिमान की पुतली थी। ज्ञानशंकर ने अपने श्रद्धावास से उसे वशीभूत कर लिया।


18.


ज्ञानशंकर को गायत्री का पत्र मिला तो फूले न समाये। हृदय में भाँति-भाँति की मनोहर सुखद कल्पनाएँ तरंगे मारने लगीं। सौभाग्य देवी जीवन-संकल्प की भेंट लिये उनका स्वागत करने को तैयार खड़ी थी। उनका मधुर स्वप्न इतनी जल्दी फलीभूत होगा उसकी उन्हें आशा न थी। विधाता ने एक बड़ी रियासत के स्वामी बनने का अवसर प्रदान कर दिया था। यदि अब भी वह इससे लाभ ना उठा सकें। तो उसका दुर्भाग्य।


किन्तु गोरखपुर जाने के पहले लखनपुर की ओर से निश्चिन्त हो जाना चाहते थे। जब से प्रेमशंकर ने उनसे अपने हिस्से का नफा माँगा था उनके मन में नाना प्रकार की शंकाएँ उठ रही थीं। लाला प्रभाशंकर का वहाँ आना-जाना और भी खटकता था। उन्हें सन्देह होता था कि वह बुड्ढा घाघ अवश्य कोई न कोई दाँव खेल रहा है। यह पितृवत् प्रेम अकारण नहीं। प्रेमशंकर चतुर हों, लोकिन इस चाणक्य के सामने अभी लौंडे हैं। इनकी कुटिल कामना यही होगी कि उन्हें फोड़कर लखनपुर के आठ आने अपने लड़कों के नाम हिब्बा करा लें या किसी दूसरे महाजन के यहाँ बय कराके बीच में दस-पाँच हजार की रकम उड़ा लें। जरूर यही बात है, नहीं तो जब अपनी ही रोटियों के लाले पड़े हैं तो यह पकवान बन-बन कर न जाते। अब तो श्रद्धा ही मेरी हारी हुई बाजी का फर्जी है। अब उसे यह पढ़ाऊँ कि तुम अपने गुजारे के लिए आधा लखनपुर अपने नाम करा लो। उनकी कौन चलाये; अकेले हैं ही, न जाने कब कहाँ चल दें तो तुम कहीं की न रहो। यह चाल सीधी पड़ जाये तो अब भी लखनपुर अपना हो सकता है। श्रद्धा को तीर्थयात्रा करने के लिए भेज दूँगा। एक न एक दिन मर ही जायेगी। जीती भी रही तो हरद्वार में बैठी गंगा स्नान करती रहेगी। लखनपुर की ओर से मुझे कोई चिन्ता न रहेगी।


यों निश्चय करके ज्ञानशंकर अन्दर गये; दैवयोग से श्रद्धा उनकी इच्छानुसार अपने कमरे में अकेली बैठी हुई मिल गयी। माया को कई दिन से ज्वर आ रहा था, विद्या अपने कमरे में बैठी हुई उसे पंखा झल रही थी।


ज्ञानशंकर चारपाई पर बैठकर श्रद्धा से बोले– चाचा साहब की धूर्तता! वह तो मैं पहले ही ताड़ गया था कि यह महाशय कोई न कोई स्वाँग रच रहे हैं। सुना लखनपुर के बय करने की बातचीत हो रही है।


श्रद्धा– (विस्मति होकर) तुमसे किसने कहा? चचा साहब को मैं इतना नीच नहीं समझती। मुझे पूरा विश्वास है कि वह केवल प्रेमवश वहाँ आते-जाते हैं।


ज्ञान– यह तुम्हारा भ्रम है। यह लोग ऐसे निःस्वार्थ प्रेम करने वाले जीव नहीं हैं। जिसने जीवन-पर्यन्त दूसरों को ही मूँडा हो वह अब अपना गँवाकर भला क्या प्रेम करेगा? मतलब कुछ और ही है। भैया का माल है, चाहे बेचें या रखें, चाहे चचा साहब को दे दें या लुटा दें, इसका उन्हें पूरा अधिकार है, मैं बीच में कूदनेवाला कौन होता हूँ? इतना अवश्य है कि तुम फिर कहीं की न रहोगी।


श्रद्धा– अगर तुम्हारा ही कहना ठीक हो तो इसमें क्या बस है?


ज्ञान– बस क्यों नहीं है? आखिर तुम्हारे गुजारे का भार तो उन्हीं पर है। तुम आठ आने लखनपुर अपने नाम लिखा सकती हो। भैया को कोई आपत्ति नहीं हो सकती। तुम्हें संकोच हो तो मैं स्वयं जाकर उसने मामला तै कर सकता हूँ। मुझे विश्वास है कि भैया इनकार न करेंगे और करें तो भी मैं उन्हें कायल कर सकता हूँ। जब गाँव तुम्हारे नाम हो जायेगा तब उन्हें बय करने का अधिकार न रहेगा और चचा साहब की दाल भी न गलेगी।


श्रद्धा विचारों में डूब गयी। जब उसने कई मिनट तक सिर न उठाया तब ज्ञानशंकर ने पूछा, क्या सोचती हो? इसमें कोई हर्ज है? जायदाद नष्ट हो जाये, वह अच्छा है या घर में बनी रहे, वह अच्छा है?


अब श्रद्धा ने सिर उठाया और गौरव-पूर्ण भाव से बोली– मैं ऐसा नहीं कर सकती। उनकी जो इच्छा हो वह करें, चाहे अपना हिस्सा बेच दें या रखें। वह स्वयं बुद्धिमान हैं जो उचित समझेंगे वह करेंगे, मैं उनके पाँव में बेड़ी क्यों डालूँ!


ज्ञानशंकर ने रुष्ट होकर उत्तर दिया, लेकिन यह सोचा है कि जायदाद निकल गयी तो तुम्हारा निर्वाह क्योंकर होगा? वह कल ही फिर अमेरिका की राह लें तो?


श्रद्धा– मेरी कुछ चिन्ता न करो! वह मेरे स्वामी हैं, जो कुछ करेंगे। उसी में मेरी भलाई है। मुझे विश्वास ही नहीं होता कि वह मुझे निरवलम्ब छोड़ जायेंगे।


ज्ञान– तुम्हारी जैसी इच्छा। मैंने ऊँच-नीच सुझा दिया, अगर पीछे से कोई बात बने-बिगड़े तो मेरे सिर दोष न रखना।


ज्ञानशंकर बाहर आये, उनका चित्त उद्विग्न हो रहा था। श्रद्धा के सन्तोष और पतिभक्ति ने उन्हें एक नई उलझन में डाल दिया। यह तो उन्हें मालूम था कि श्रद्धा मेरे प्रस्ताव को सुगमता से स्वीकार न करेगी, लेकिन उसमें इतना दृढ़ त्याग-भाव है इसका उन्हें पता न था। अपने मानव-प्रकृति ज्ञान पर उन्हें घमण्ड था, श्रद्धा के त्याग भाव ने उसे चूर कर दिया। ओह! स्त्रियाँ कितनी अविवेकिनी होती हैं। मैंने महीनों इसे तोते का भाँति पढ़ाया, उसका यह फल! वह अपने कमरे में देर तक बैठे सोचते रहे कि क्योंकर यह गुत्थी सुलझे? वह आज ही इस दुविधा का अन्त करना चाहते थे। यदि वह श्रद्धा का भार मुझ पर छोड़ना चाहते हैं, तो उन्हें लखनपुर उसके नाम लिखना पड़ेगा। मैं उन्हें मजबूर करूँगा। खूब खुली-खुली बातें होंगी। इसी असमंजस में वह घर से निकले और हाजीपुर की ओर चले। रास्ते-भर वह इसी चिन्ता में पड़े रहे। यह संकोच भी होता था कि इतने दिनों के बाद मिलने भी चला तो स्वार्थ-वश होकर। जब से प्रेमशंकर हाजी-पुर रहने लगे थे, ज्ञानबाबू ने एक बार भी वहाँ जाने का कष्ट न उठाया था कभी-कभी अपने घर पर ही उनसे मुलाकत हो जाती थी। मगर इधर तीन-चार महीनों से दोनों भाइयों से भेंट ही न हुई थी।


ज्ञानशंकर हाजीपुर पहुँचे, तो शाम हो गयी थी। पूस का महीना था। खेतों में चारों ओर हरियाली छायी हुई थी। सरसों, मटर, कुसुम, अल्सी के नीले-पीले फूल अपनी छटा दिखा रहे थे। कहीं चंचल तोतों के झुंड थे, कहीं उचक्के कौव के गोल। जगह-जगह पर सारस के जोड़े अहिंसापूर्ण विचार में मग्न खड़े थे। युवतियाँ सिरों पर घड़े रखे नदी से पानी ला रही थीं, कोई खेत में बथुआ का साग तोड़ रही थी, कोई बैलों को खिलाने के लिए हरियाली का गट्ठा सिर पर रखे चली आती थी। सरल शान्तिमय जीवन का पवित्र दृश्य था। शहर की चिल्ल-पों, दौड़ धूम के सामने यह शान्ति अतीव सुखद प्रतीत होती थी।


ज्ञानशंकर एक आदमी के साथ प्रेमशंकर के झोंपड़े में आये तो वहाँ सुरम्य शोभा देखकर चकित हो गये। नदी के किनारे एक ऊँचे और विस्तृत टीलें पर लताओं और बेलों से सजा हुआ ऐसा जान पड़ता था, मानो किसी उच्चात्मा का सन्तोषपूर्ण हृदय है। झोंपड़े के सामने जहाँ तक निगाह जाती थी, प्रकृति की पुष्पित और पल्लवित छटा दिखाई देती थी। प्रेमशंकर झोंपड़े के सामने खड़े बैलों को चारा डाल रहे थे। ज्ञानशंकर को देखते ही बड़े प्रेम से गले मिले और घर का कुशल-समाचार पूछने के बाद बोले, तुम तो जैसे भूल ही गये। इधर आने की कसम खा ली।


ज्ञानशंकर ने लज्जित होकर कहा– यहाँ आने का विचार तो कई दिन से था, पर अवकाश ही नहीं मिलता था। इसे अपने दुर्भाग्य के सिवा और क्या कहूँ, आप मुझसे इतने समीप हैं, फिर भी हमारे बीच में सौ कोस का अन्तर है। यह मेरी नैतिक दुर्बलता और बिरादरी का लिहाज है। मुझे बिरादरी के हाथों जितने कष्ट झेलने पड़े, वह मैं ही जानता हूँ। यह स्थान तो बड़ा रमणीक है। यह खेत किसके हैं?


प्रेमशंकर– इसी गाँव के असामियों के हैं। तुम्हें तो मालूम होगा, सावन में यहाँ बाढ़ आ गयी थी। सारा गाँव डूब गया था, कितने ही बैल बह गये, यहाँ तक कि झोंपड़ों का भी पता न चला। तब से लोगों को सहकारिता की जरूरत मालूम होने लगी है। सब असामियों ने मिलकर बाँध बना लिया है और यह साठ बीघे का चक निकल आया। इसके चारों ओर ऊँची मेड़े खींच दी हैं। जिसके जितने बीघे खेत हैं, उसी परते से बीज और मजदूरी ली जायेगी। उपज भी उसी परते से बाँट दी जायेगी। मुझे लोगों ने प्रबन्धकर्ता बना रखा है। इस ढंग से काम करने से बड़ी किफायत होती है। जो काम दस मजूर करते थे वही काम छह-सात मजूरों से पूरा हो जाता है। जुताई और सिंचाई भी उत्तम रीति से हो सकती है। तुमने गायत्री देवी का वृत्तान्त खूब लिखा है, मैं पढ़कर मुग्ध हो गया।


ज्ञानशंकर– उन्होंने मुझे अपनी रियासत का प्रबन्ध करने को बुलाया है। मेरे लिए यह बड़ा अच्छा अवसर है। लेकिन जाऊँ कैसे? माया और उनकी माँ को तो साथ ले जा सकता हूँ, किन्तु भाभी किसी तरह जाने पर राजी नहीं हो सकतीं। शिकायत नहीं करता, लेकिन चाची से आजकल उनका बड़ा मेलजोल है। चाची और उनकी बहू दोनों ही उनके कान भरती हैं। उनका सरल स्वभाव है। दूसरों की बातों में आ जाती हैं। आजकल दोनों महिलाएँ उन्हें दम दे रही हैं कि लखनपुर का आधा हिस्सा अपने नाम करा लो। कौन जाने, तुम्हारे पति फिर विदेश की राह लें तो तुम कहीं की न रहो। चचा साहब भी उसी गोष्ठी में हैं। आज ही कल में वह लोग यह प्रस्ताव आपके सामने लायेंगे। इसलिए आप से मेरी विनीत प्रार्थना है कि इस विषय में आप जो करना चाहते हों उससे मुझे सूचित कर दें। आपके ही फैसले पर मेरे जीवन की सारी आशाएँ निर्भर हैं। यदि आपने हिस्से को बय करने का निश्चय कर लिया हो, तो मैं अपने लिए कोई और राह निकालूँ।


प्रेमशंकर– चचा साहब के विषय में तुम्हें जो सन्देह है वह सर्वथा निर्मूल है। उन्होंने आज तक कभी मुझसे तुम्हारी शिकायत नहीं की। उनके हृदय में सन्तोष है और चाहे उनकी अवस्था अच्छी न हो, पर वह उससे असन्तुष्ट नहीं जान पड़ते। रहा लखनपुर के सम्बन्ध में मेरा इरादा। मैं यह सुनना ही नहीं चाहता कि मैं उस गाँव का ज़मींदार हूँ। तुम मेरी ओर से निश्चिंत रहो। यही समझ लो कि मैं हूँ ही नहीं। मैं अपने श्रम की रोटी खाना चाहता हूँ। बीच का दलाल नहीं बनना चाहता। अगर सरकारी पत्रों में मेरा नाम दर्ज ही हो गया हो तो मैं इस्तीफा देने को तैयार हूँ। तुम्हारी भाभी के जीवन-निर्वाह का भार तुम्हारे ऊपर रहेगा। मुझसे भी जो कुछ बन पड़ेगा तुम्हारी सहायता करता रहूँगा।


ज्ञानशंकर भाई की बातें सुनकर विस्मित हो गये। यद्यपि इन विचारों में मौलिकता न थी। उन्होंने साम्यवाद के ग्रन्थों में इसका विवरण देखा था, लेकिन उनकी समझ में यह केवल मानव-समाज का आदर्श-मात्र था। इस आदर्श को व्यावहारिक रूप में देख कर उन्हें आश्चर्य हुआ। वह अगर इस विषय पर तर्क करना चाहते तो अपनी सबल युक्तियों से प्रेमशंकर को निरुत्तर कर देते। लेकिन यह समय इन विचारों के समर्थन करने का था, न कि अपनी वाक्पटुता दिखाने का। बोले, भाई साहब! यह समाज-संगठन का महान् आदर्श है, और मुझे गर्व है कि आप केवल विचार से नहीं व्यवहार से भी उसके भक्त हैं। अमेरिका की स्वतन्त्र भूमि में इन भावों का जाग्रत होना स्वाभाविक है। यहाँ तो घर से बाहर निकलने की नौबत ही नहीं आयी। आत्म-बल और बुद्धि-सामर्थ्य से भी वंचित हूँ। मेरे संकल्प इतने पवित्र और उत्कृष्ट क्योंकर हो सकते हैं, मेरी संकीर्ण दृष्टि में तो यही जमींदारी, जिसे आप (मुस्कराकर) बीच की दलाली समझतें हैं, जीवन का सर्वश्रेष्ठ रूप है। हाँ, सम्भव है आगे चलकर आपके सत्संग से मुझमें भी सद्विचार उत्पन्न हो जायँ।


प्रेम– तुम अपने ही मन में विचार करो। यह कहाँ का न्याय है कि मिहनत तो कोई करे, उसकी रक्षा का भार किसी दूसरे पर हो, और रुपये उगाहें हम?


ज्ञान– बात तो यथार्थ है, लेकिन परम्परा से यह परिपाटी ऐसी चली आती है। इसमें किसी प्रकार का संशोधन करने का ध्यान ही नहीं होता।


प्रेम– तो तुम्हारा गोरखपुर जाने का कब तक इरादा है?


ज्ञान– पहले आप मुझे इसका पूरा विश्वास दिला दें कि लखनपुर के सम्बन्ध में आपने जो कहा है वह निश्चयात्मक है।


प्रेम– उसे तुम अटल समझो। मैंने तुमसे एक बार अपने हिस्से का मुनाफा माँगा था। उस समय मेरे विचार पक्के न थे। मेरा हाथ भी तंग था। उस पर मैं बहुत लज्जित हूँ। ईश्वर ने चाहा तो अब तुम मुझे इस प्रतिज्ञा पर दृढ़ पाओगे।


ज्ञान– तो होली तक गोरखपुर चला जाऊँगा। कोई हर्ज न हो तो आप भी घर चलें। माया आपको बहुत पूछा करता है।


प्रेम– आज तो अवकाश नहीं, फिर कभी आऊँगा।


ज्ञानशंकर यहाँ से चले तो उनका चित्त बहुत प्रसन्न था। बहुत दिनों के बाद मेरे मन की अभिलाषा पूरी हुई! अब मैं पूरे लखनपुर का स्वामी हूँ। यहाँ अब कोई मेरा हाथ पकड़ने वाला नहीं। जो चाहूँ निर्विघ्न कर सकता हूँ। भैया के बचन पक्के हैं, अब वह कदापि दुलख नहीं सकते। वह इस्तीफा लिख देते तो बात और पक्की हो जाती, लेकिन इस पर जोर देने से मेरी क्षुद्रता प्रकट होगी। अभी इतना ही बहुत है, आगे चल कर देखा जायेगा।


19.


ज्ञानशंकर लगभग दो बरस से लखनपुर पर इजाफा लगान करने का इरादा कर रहे थे, किन्तु हमेशा उनके सामने एक-न-एक बाधा आ खड़ी होती थी। कुछ दिन तो अपने चचा से अलग होने में लगे। जब उधर से बेफिक्र हुए तो लखनऊ जाना पड़ा। इधर प्रेमशंकर के आ जाने से एक नई समस्या उपस्थित हो गयी। इतने दिनों के बाद अब उन्हें मनोनीत सुअवसर हाथ लगा। कागज-पत्र पहले से ही तैयार थे। नालिशों के दायर होने में विलम्ब न हुआ।


लखनपुर के लोग मुचलके के कारण बिगड़े हुए थे ही, यह नयी विपत्ति सिर पर पड़ी तो और झल्ला उठे। मुचलके की मियाद इसी महीने से समाप्त होने वाली थी। वह स्वछन्दता से जवाबदेही कर सकते थे। सारे गाँव में एका हो गया। आग-सी लग गयी। बूढ़े कादिर खाँ भी, जो अपनी सहिष्णुता के लिए बदनाम थे, धीरता से काम न ले सके। भरी हुई पंचायत में, जो जमींदारी का विरोध करने के उद्देश्य से बैठी थी, बोले– इसी धरती पर सब कुछ होता है और सब कुछ इसी में समा जाता है। हम भी इसी धरती पर पैदा हुए हैं और एक दिन इसी में समा जायेंगे। फिर यह चोट क्यों सहें? धरती के लिए ही छत्रधारियों के सिर गिर जाते हैं, हम भी अपना सिर गिरा देंगे। इस काम में सहायता करना गाँव के सब प्राणियों का धर्म है, जिससे जो कुछ हो सके, दे। सब लोगों ने एक स्वर से कहा, हम सब तुम्हारे साथ हैं, जिस रास्ते कहोगे चलेंगे और इस धरती पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देंगे।


निस्सन्देह गाँव वालों को मालूम था कि ज़मींदार को इजाफा करने का पूरा अधिकार है, लेकिन वह यह भी जानते थे यह अधिकार उसी दशा में होता है, जब ज़मींदार अपने प्रयत्न से भूमि की उत्पादक शक्ति बढ़ा दे। इस निर्मूल इजाफे को सभी अनर्थ समझते थे।


ज्ञानशंकर ने गाँव में यह एका देखा तो चौंके; लेकिन कुछ तो अपने दबाव और कुछ हाकिम परगना मिस्टर ज्वालासिंह के सहवासी होने के कारण उन्हें अपनी सफलता में विशेष संशय न था। लेकिन जब दावे की सुनवाई हो चुकने के बाद जवाबदेही शुरू हुई तो ज्ञानशंकर को विदित हुआ कि मैं अपनी सफलता को जितना सुलभ समझता था उससे कहीं अधिक कष्टसाध्य है। ज्वालासिंह कभी-कभी ऐसे प्रश्न कर बैठते और आसामियों के प्रति ऐसा दया-भावप्रकट करते कि उनकी अभिरुचि का साफ पता चल जाता था। दिनों-दिन अवस्था ज्ञानशंकर के विपरीत होती जाती थी। वह स्वयं तो कचहरी न जाते, लेकिन प्रतिदिन का विवरण बड़े ध्यान से सुनते थे। ज्वालासिंह पर दाँत पीसकर रह जाते थे। ये महापुरुष मेरे सहपाठियों में है। हम यह बरसों तक साथ-साथ खेले हैं। हँसी दिल्लगी, धौल-धप्पा सभी कुछ होता था। आज जो जरा अधिकार मिल गया तो ऐसे तोते की भाँति आँखें फेर लीं मानों कभी का परिचय ही नहीं है।


अन्त में जब उन्होंने देखा कि अब यत्न न किया तो काम बिगड़ जायेगा। तब उन्होंने एक दिन ज्वालासिंह से मिलने का निश्चय किया। कौन जाने मुझ पर रोब जमाने के लिए ही यह जाल फैला रहे हों। यद्यपि यह जानते थे कि ज्वालासिंह किसी मुकदमे की जाँच की अवधि में वादियों से बहुत कम मिलते थे तथापि स्वार्थपरता की धुन में उन्हें इसका भी ध्यान न रहा। सन्ध्या समय उनके बँगले पर जा पहुँचे।


ज्वालासिंह को इन दिनों सितार का शौक हुआ था। उन्हें अपनी शिक्षा में यह विशेष त्रुटि जान पड़ती थी। एक गत बजाने की बार-बार चेष्टा करते, पर तारों का स्वर न मिलता था। कभी यह कील घुमाते, कभी वह कील ढीली करते कि ज्ञानशंकर ने कमरे में प्रवेश किया। ज्वालासिंह ने सितार रख दिया और उनसे गले मिलकर बोले– आइए, भाई जान, आइए। कई दिनों से आपकी याद आ रही थी। आजकल तो आपका लिटलेरी उमंग बढ़ा हुआ है। मैंने गायत्री देवी पर आपका लेख देखा। बस, यही जी चाहता था। आपकी कलम चूम लूँ। यहाँ सारी कचहरी में उसी की चर्चा है। ऐसा ओज, ऐसा प्रसादगुण, इतनी प्रतिभा, इतना प्रवाह बहुत कम किसी लेख में दिखाई देता है। कल मैं साहब बहादुर से मिलने गया था। उनकी मेज पर वही पत्रिका पड़ी थी। जाते-ही-जाते, उसी लेख की चर्चा छेड़ दी। वे लोग बड़े गुणग्राही होते हैं। यह कहाँ से ऐसे चुने हुए शब्द और मुहावरे लाकर रख देते हैं, मानो किसी ने सुन्दर फूलों का गुलदस्ता सजा दिया हो!


ज्वालासिंह की प्रशंसा उस रईस की प्रशंसा थी जो अपने कलावन्त के मधुर गान पर मुग्ध हो गया हो। ज्ञानशंकर ने सकुचाते हुए पूछा– साहब क्या कहते थे?


ज्वाला– पहले तो पूछने लगे, यह है कौन आदमी? जब मैंने कहा, यह मेरे सहपाठी और साथ के खिलाड़ी हैं तब उसे और भी दिलचस्पी हुई। पूछे क्या करते हैं, कहाँ रहते हैं? मेरी समझ में देहातों के बैंकों के सम्बन्ध में आपने जो रिमार्क किये हैं उनका उन पर बड़ा असर हुआ।


ज्ञान– (मुस्कराकर) भाई जान, आपसे क्या छिपाएँ। वह टुकड़ा मैंने एक अँगरेजी पत्रिका से कुछ काँट-छाँट कर नकल कर लिया था। (सावधन होकर) कम-से-कम यह विचार मेरे न थे।


ज्वाला– आपको हवाला देना चाहिए था।


ज्ञान– विचारों पर किसी का अधिकार नहीं होता। शब्द तो अधिकांश मेरे ही थे।


ज्वाला– गायत्री देवी तो बहुत प्रसन्न हुई होंगी। कुछ वरदान देंगी या नहीं?


ज्ञान– उनका एक पत्र आया है। अपने इलाके का प्रबन्ध मेरे हाथों में देना चाहती है।


ज्वाला– वाह, क्या कहने! वेतन भी 500 रु. से कम न होगा।


ज्ञान– वेतन का तो जिक्र न था। शायद इतना न दे सकें।


ज्वाला– भैया, अगर वहाँ 300 रु. भी मिलें तो आप हम लोगों से अच्छे रहेंगे। खूब सैर-सपाटे कीजिए, मोटर दौड़ाते फिरिए, और काम ही क्या है? हम लोगों की भाँति कागज का पुलिन्दा तो सिर पर लादकर न लाना पड़ेगा। वहाँ कब तक जाने का विचार है?


ज्ञान– जाने को तो मैं तैयार हूँ, लेकिन जब आप गला छोड़ें।


ज्वालासिंह ने बात काटकर कहा, फैमिली को भी साथ ले जाइएगा न? अवश्य ले जाइए। मैंने भी एक सप्ताह हुए स्त्री को बुला लिया है। इस ऊजड़ में भूत की तरह अकेला पड़ा रहता था।


ज्ञान– अच्छा तो भाभी आ गयीं? बड़ा आनन्द रहेगा। कॉलेज में तो आप परदे के बड़े विरोधी थे?


ज्वाला– अब भी हूँ, पर विपत्ति यह है कि अन्य पुरुष के सामने आते हुए उनके प्राण निकल से जाते हैं। अरदली और नौकर से निस्संकोच बाते करती हैं, लेकिन मेरे मित्रों की परछाई से भी भागती हैं। खींच-खाँच के लाऊँ भी तो सिर झुकाकर अपराधियों की भाँति खड़ी रहेंगी।


ज्ञान– अरे, तो क्या मेरी गिनती उन्हीं मित्रों में है?


ज्वाला– अभी तो आपसे भी झिझकेंगी। हाँ, आपसे दो-चार बार मुलाकात हो, आपके घर की स्त्रियाँ भी आने लगें तो सम्भव है संकोच न रहे। क्यों न मिसेज ज्ञानशंकर को यहाँ भेज दीजिए? गाड़ी भेज दूँगा। आपकी वाइफ को तो कोई आपत्ति न होगी?


ज्ञान– जी नहीं, वह बड़े शौक से आयेंगी।


ज्ञानशंकर को अपने मुकदमें के सम्बन्ध में और कुछ कहने का अवसर न मिला, लेकिन वहाँ से चले तो बहुत खुश थे। स्त्रियों के मेल-जोल से इन महाशय की नकेल मेरे हाथों में आ जायगी। जिस कल को चाहूँ घुमा सकता हूँ। उन्हें अब अपनी सफलता पर कोई संशय न रहा। लेकिन जब घर पर आकर उन्होंने विद्या से यह चर्चा की तो वह बोली, मुझे तो वहाँ जाते झेंप होती है, न कभी की जान-पहचान, न रीति न व्यवहार। मैं वहाँ जाकर क्या बातें करूँगी। गूँगी बनी बैठी रहूँगी। तुमने मुझसे न पूछा न ताछा वादा कर आये!


ज्ञान– मिसेज ज्वालासिंह बड़ी मिलनसार हैं। तुम्हें बड़ा आनन्द आयेगा।


विद्या– अच्छा, और मुन्नी को( छोटी लड़की का नाम था) क्या करूँगी? यह वहाँ रोये-चिल्लाये और उन्हें बुरा लगे तो?


ज्ञान– महरी को साथ लेते जाना। वह लड़की को बाहर बगीचे में बहलाती रहेगी।


विद्या बहुत कहने-सुनने के अन्त में जाने पर राजी हो गयी। प्रातःकाल ज्वालासिंह की गाड़ी आ गयी। विद्या बड़े ठाट से उनके घर गयी। दस बजते-बजते लौटी। ज्ञानशंकर ने बड़ी उत्सुकता से पूछा, कैसी मिलीं?


विद्या– बहुत अच्छी तरह! स्त्री क्या हैं देवी हैं। ऐसी हँसमुख, स्नेहमयी स्त्री तो मैंने देखी ही नहीं। छोड़ती ही न थीं। बहुत जिद की तो आने दिया। मुझे विदा करने लगीं तो उनकी आँखों से आँसू निकलने लगे। मैं भी रो पड़ी। उर्दू, अँगरेजी सब पढ़ी हुई थीं। बड़ा सरल स्वभाव है। महरियों तक को तो तू नहीं कहतीं। शीलमणि नाम है।


ज्ञान– कुछ मेरी भी चर्चा हुई?


विद्या– हाँ, हुई क्यों नहीं? कहती थीं, मेरे बाबू जी के पुराने दोस्त हैं। तुम्हें उस दिन चिक की आड़ से देखा था। तुम्हारी अचकन उन्हें पसन्द नहीं। हँसकर बोली, अचकन क्या पहनते हैं, मुसलमानों का पहनावा है। कोट क्यों नहीं पहनते?


ज्ञानशंकर की आशा उद्दीत्त हुई, लेकिन जब मुकदमा फिर तारीख पर पेशी हुआ तो ज्वालासिंह के व्यवहार में जरा भी अन्तर न था। बार-बार मुद्दई के गवाहों से अविश्वास सूचक प्रश्न करते, मुद्दई के वकील के प्रश्नों पर शंकाएँ करते। ज्ञानशंकर ने यह समाचार सुना तो चकित हो गये। यह तो विचित्र आदमी है। इधर भी चलता है, उधर भी मुझे नचाना चाहता है। यह पद पाकर दोरंगी चाल चलना सीख गया है। जी में आया, चल कर साफ-साफ कह दूँ, मित्रों से यह कपट अच्छा नहीं। या तो दुश्मन बन जाओ या दोस्त बने रहो। यह क्या कि मन में कुछ और मुख में कुछ और। इसी असमंजस में एक सप्ताह गुजर गया। दूसरी तारीख निकट आती जाती थी। ज्ञानशंकर का मन बहुत उद्विग्न था। उन्होंने मन में निश्चय कर लिया था कि इन्होंने फिर दोरंगी चाल चली तो अपना मुकदमा किसी दूसरे इजलास में उठा ले जाऊँगा। दबूँ क्यों?


लेकिन जब दूसरी तारीख को ज्वालासिंह ने लखनपुर जाकर मौके की जाँच करने के लिए फिर तारीख बढ़ा दी तो ज्ञानशंकर झुँझला उठे। क्रोघ में भरे हुए विद्या से बोले– देखी तुमने इनकी शरारत? अब मौके की जाँच करने जा रहे हैं! अब नहीं रहा जाता। जाता हूँ, जरा दो-दो बातें कर आऊँ।


विद्या– तुम इतना अधीर क्यों हो रहे हो? क्या जाने वह दूसरों को दिखाने के लिए यह स्वाँग भर रहे हों। अपनी बदनामी को सभी डरते हैं।


ज्ञान– तो आखिर कब तक मैं फैसले का इन्तजार करता रहूँ? यहाँ बैठे-बैठे कई सौ रुपये महीने की हानि हो रही है।


ज्ञानशंकर ने कभी तक विद्या से गायत्री के अनुरोध की जरा भी चर्चा न की थी। इस समय सहसा मुँह से बात निकल गयी। विद्या ने चौंककर पूछा– हानि कैसी हो रही है?


ज्ञानशंकर ने देखा, अब बातें बनाने से काम न चलेगा और फिर कब तक छिपाऊँगा। बोले– मुझे याद आता है, मैंने तुमसे गायत्री देवी के पत्र का जिक्र किया था। उन्होंने मुझे अपनी रियासत का मैनेजर बनाने का प्रस्ताव किया है और जल्द बुलाया है।


विद्या– तुमने स्वीकार भी कर लिया?


ज्ञान– क्यों न करता, क्या कोई हानि थी?


विद्या– जब तुम्हें स्वयं इतनी मोटी-सी बात भी नहीं सूझती तो मैं और क्या कहूँ। भला सोचो तो दुनिया क्या कहेगी। लोग यही समझेंगे कि अबला विधवा है, नातेदार जमा होकर लूट खाते हैं। तुम चाहे कितने ही निःस्पृह भाव से काम करो, लेकिन बदनामी से न बच सकोगे, अभी वह तुम्हारी बड़ी साली हैं, तुमसे कितना प्रेम करती हैं, तुम्हारा कितना सत्कार करती हैं। कितनी ही बार तुम्हारी चारपाई तक बिछा दी है। इस उच्चासन से गिरकर अब तुम उनके नौकर हो जाओगे और मुझे भी बहिन के पद से गिराकर नौकरानी बना दोगे। मान लिया कि वह भी तुम्हारी खातिर करेंगी, लेकिन मृदुभाव कहाँ? लोग तुम्हारी जा-बेजा शिकायते करेंगे। मुलाहिजे के मारे वह तुमसे कुछ न कह सकेंगी। मैं तुम्हें नौकरी के विचार से जाने की सलाह न दूँगी।


ज्ञान– कह चुकीं या और कहना है?


विद्या– कहने-सुनने की बात नहीं है, मुझे तुम्हारा वहाँ जाना सर्वथा अनुचित जान पड़ता है।


ज्ञान– अच्छा तो अब मेरी बात सुनो। मुझे वर्तमान और भविष्य की अवस्था का विचार करके यही उचित जान पड़ता है कि इस असवर को हाथ से न जाने दूँ। जब मैं जी तोड़कर काम करूँगा, दो की जगह एक खर्च करूँगा, एक ही जगह दो जमा करके दिखाऊँगा, तो गायत्री बावली नहीं है कि अनायास मुझ पर संदेह करने लगें। और फिर मैं केवल नौकरी के इरादे से नहीं जाता, मेरे विचार कुछ और ही हैं।


विद्या ने सशंक दृष्टि से ज्ञानशंकर को देखकर पूछा– और क्या विचार है?


ज्ञान– मैं इस समृद्धिपूर्ण रियासत को दूसरे के हाथ में नहीं देखना चाहता। गायत्री के बाद जब उस पर दूसरों का ही अधिकार होगा तो मेरा क्यों न हो?


विद्या ने कुतूहल से देखकर कहा– तुम्हारा क्या हक है?


ज्ञान– मैं अपना हक जमाना चाहता हूँ। अब मैं चलता हूँ, ज्वालासिंह से निबटता आऊँ।


विद्या– उनसे क्या निबटोगे? उन्होंने कोई रिश्वत ली है?


ज्ञान– तो फिर इतना मित्रभाव क्यों दिखाते हैं?


विद्या– यह उनकी सज्जनता है। यह आवश्यक नहीं कि वह आपके मित्र हों तो आपके लिए दूसरों पर अन्याय करें।


ज्ञान– यही बात मैं उनके मुँह से सुनना चाहता हूँ। इसका मुँहतोड़ जवाब मेरे पास है।


विद्या– अच्छा तो जाओ, जो जी में आये करो। फिर मुझसे क्यों सलाह लेते हो?


ज्ञान– तुमसे सलाह नहीं लेता, तुममें इतनी ही बुद्धि होती तो फिर रोना काहे का था? स्त्रियाँ बड़े-बड़े काम कर दिखाती हैं। तुमसे इतना भी न हो सका कि शीलमणि से इस मुकदमें के सम्बन्ध में कुछ बाचचीत करतीं, तुम्हारी तो जरा-जरा सी बात में मान हानि होने लगती है।


विद्या– हाँ, मुझसे यह सब नहीं हो सकता। अपना स्वभाव ही ऐसा नहीं है।


ज्ञान– क्यों, इसमें क्या हर्ज था, अगर तुम एक बार हँसी-हँसी में कह देतीं कि तुम्हारे बाबूजी हमारी हजारों रुपयें साल की क्षति कराये देते हैं। जरा उनको समझा क्यों नहीं देतीं?


विद्या– मुझे यह बातें बनानी नहीं आतीं, क्या करूँ? मैं इस विषय में शीलमणि से कुछ नहीं कह सकती।


ज्ञान– चाहे दावा खारिज हो जाय?


विद्या– चाहे जो कुछ हो।


ज्ञानशंकर बाहर आये तो सामने एक नयी समस्या आ खड़ी हुई। विद्या को कैसे राजी करूँ? मानता हूँ कि सम्बन्धियों के यहाँ नौकरी से कुछ हेठी अवश्य होती है। लेकिन इतनी नहीं कि उसके लिए कोई चिरकाल के मंसूबों को मिटा दे। विद्या की यह बुरी आदत है कि जिस बात पर अड़ जाती है उसे किसी तरह से नहीं छोड़ती। मैं उधर चला जाऊँ और इधर यह रायसाहब से मेरी शिकायत कर दे तो बना-बनाया काम बिगड़ जाय। अब यह पहले की-सी सरला नहीं है। इसमें दिनों-दिन आत्म-सम्मान की मात्रा बढ़ती जाती है। इसे नाराज करने का यह अवसर नहीं।


यह इस चिन्ता में बैठे हुए थे कि शीलमणि की सवारी आ पहुँची। ज्ञानशंकर ने निश्चय किया, स्वयं चलकर उससे अपना समाचार कहूँ। अभी तीनों महिलाएँ कुशल समाचार ही पूछ रही थीं कि वह कुछ झिझकतें हुए ऊपर आये और कमरे के द्वार पर चिलमन के सामने खड़े होकर शीलमणि से बोले– भाभी जी को प्रणाम करता हूँ।


विद्या उनका आशय समझ गयी। लज्जा से उसका मुखमण्डल अरुण वर्ण हो गया। वह वहाँ से उठकर ज्ञानशंकर को अवेहलनापूर्ण नेत्रों से देखते हुए दूसरे कमरे में चली गयी। श्रद्धा, मध्यस्थ का काम देने के लिए रह गयी।


ज्ञानशंकर बोले– भाई साहब तो पर्दे के भक्त नहीं हैं, और जब हम लोगों में इतनी घनिष्ठता हो गयी है तो यह हिसाब उठ जाना चाहिए। मुझे आपसे कितनी ही बातें कहनी हैं। परमात्मा ने आपको शील और विनय के गुणों से विभूषित किया है, इसीलिए मुझे आपसे निज के मामलों में जबान खोलने का साहस हुआ है। मुझे विश्वास है कि आप उसकी अवज्ञा न करेंगी। मेरा इजाफा लगान का मुकदमा भाई साहब के इजलास में दो महीनों से पेश है। उनका इतना अदब करता हूँ कि इस विषय में उनसे कुछ कहते हुए संकोच होता है। यद्यपि मुझे वह भाई समझते हैं, लेकिन किसी कारण से उन्हें भ्रम होता हुआ जान पड़ता है कि मेरा दावा झूठा है और मुझे भय है कि कहीं वह खारिज न कर दें। इसमे सन्देह नहीं कि दावे को खारिज करने का उन्हें बहुत दुःख होगा, लेकिन शायद उन्हें अब तक मेरी वास्तविक दशा का ज्ञान नहीं है। वह यह नहीं जानते कि इससे मेरा कितना अपमान और कितना अनिष्ट होगा। आजकल की जमींदारी एक बला है। जीवन की सामग्रियाँ दिनों-दिन महँगी होती जाती हैं और मेरी आमदनी आज भी वही है जो तीस वर्ष पहले थी। ऐसी अवस्था में मेरे उद्धार का इसके सिवा और क्या उपाय है कि असामियों पर इजाफा लगान करूँ। अन्न मोतियों के मोल बिक रहा है। कृषकों की आमदनी दुगनी, बल्कि तिगुनी हो गयी है। यदि मैं उनकी बढ़ी हुई आमदनी में से एक हिस्सा माँगता हूँ तो क्या अन्याय करता हूँ? अगर मेरी जीत हुई तो सहज में ही मेरी आमदनी एक हजार बढ़ जायेगी। हार हुई तो असामियों की निगाह में गिर जाऊँगा। वह शेर हो जायेंगे और बात-बात पर मुझसे उलझेंगे। तब मेरे लिए इसके सिवा और मार्ग न रहेगा कि जमींदारी से इस्तीफा दे दूँ और मित्रों के सिर जा पड़ूँ। (मुस्कराकर) आप ही के द्वार पर अड्डा जमाऊँगा और यदि आप मार-मार कर हटायें, तो हटने का नाम न लूँगा।


शीलमणि ने यह विवरण ध्यानपूर्वक सुना और श्रद्धा से बोली–  आप बाबू जी से कह दें, मुझे यह सुनकर बड़ा खेद हुआ। आपने पहले इसका जिक्र क्यों नहीं किया? विद्या ने भी इसकी चर्चा नहीं की, नहीं तो अब तक आपकी डिगरी हो गयी होती। किन्तु आप निश्चिन्त रहें। मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि अपनी ओर से आपकी सिफारिश करने में कोई बात उठा न रखूँगी।


ज्ञान– मुझे आपसे ऐसी ही आशा थी। दो-चार दिन में भाई साहब मौका देखने जायेंगे। इसलिए उनसे जल्द ही इसकी चर्चा कर दें।


शील– मैं आज जाते ही कहूँगी। आप इत्मीनान रखें।


20.


प्रभात का समय था। चैत का सुखद पवन प्रवाहित हो रहा था। बाबू ज्वालासिंह बरामदे में आरामकुर्सी पर लेटे हुए घोड़े का इन्तजार कर रहे थे। उन्हें आज मौका देखने के लिए लखनपुर जाना था, किन्तु मार्ग में एक बड़ी बाधा खड़ी हो रही थी। कल सन्ध्या समय शीलमणि ने उनसे ज्ञानशंकर के मुकदमें की बात कही की और तभी से वह बड़े असमंजस में पड़े हुए थे। सामने एक जटिल समस्या थी, न्याय या प्रणय, कर्त्तव्य या स्त्री की मान रक्षा। वह सोचते थे, मुझसे बड़ी भूल हुई कि इस मुकदमें को अपने इजलास में रखा। लेकिन मैं यह क्या जानता था कि ज्ञानशंकर यह कूटनीति ग्रहण करेंगे। बड़ा स्वार्थी मनुष्य है। इसी अभिप्राय से उसने स्त्रियों से मेल-जोल बढ़ाया।


शीलमणि यह चालें क्या जाने, शील में पड़कर वचन दे आयी। अब यदि उसकी बात नहीं रखता तो वह रो-रो कर जान ही दे देगी। उसे क्या मालूम कि इस अन्याय से मेरी आत्मा को कितना दुःख होगा। अभी तक जितनी गवाहियाँ सामने आयी हैं उनसे तो यही सिद्ध होता है कि ज्ञानशंकर ने असामियों को दबाने के लिए यह मुकदमा दायर किया है और कदाचित बात भी यही है। यह बड़ा ही बना हुआ आदमी है। लेख तो ऐसा लिखता है कि मानो दीन-रक्षा के भावों में पगा हुआ है, किन्तु पक्का मतलबी है। गायत्री की रियासत का मैनेजर हो जायगा तो अन्धेर मचा देगा। नहीं, मुझसे यह अन्याय न हो सकेगा, देखकर मक्खी नहीं निगली जायेगी। शीलमणि रूठेगी तो रूठे। उसे स्वयं समझाना चाहिए था कि मुझे ऐसा वचन देने का कोई अधिकार नहीं था। लेकिन मुश्किल तो यह है कि वह केवल रो रोकर ही मेरा पिण्ड न छोड़ेगी। बात-बात पर ताने देगी। कदाचित मैके की तैयारी भी करने लगे। यही उसकी बुरी आदत है कि या तो प्रेम और मृदुलता के देवी बन जायेगी या बिगड़ेगी तो भालों से छेदने लगेगी। ज्ञानशंकर ने मुझे ऐसे संकट में डाल रखा है कि उससे निकलने का कोई मार्ग ही नहीं दिखता।


ज्वालासिंह इसी हैस-बैस में पड़े हुए थे कि अचानक ज्ञानशंकर सामने पैरगाड़ी पर आते दिखायी दिये। ज्वालासिंह तुरन्त कुर्सी से उठ खड़े हुए और साईस को जोर से पुकारा कि घोड़ा ला। साईस घोड़े को कसे हुए तैयार खड़ा था। यह हुक्म पाते ही घोड़ा सामने लाकर खड़ा कर दिया। ज्वालासिंह उस पर कूदकर सवार हो गये। ज्ञानशंकर ने समीप आकर कहा– कहिए भाई साहब, आज सबेरे-सबेरे कहाँ चले?


ज्वाला– जरा लखनपुर जा रहा हूँ। मौका देखना है?


ज्ञान– धूप हो जायेगी।


ज्वाला– कोई परवाह नहीं।


ज्ञान– मैं भी साथ चलूँ?


ज्वाला– मुझे रास्ता मालूम है।


यह कहते हुए उन्होंने घोड़े को एड़ लगायी और हवा हो गये। ज्ञानशंकर समझ गये कि मेरा मन्त्र अपना काम कर रहा है। यह अकृपा इसी का लक्षण है। ऐसा न होता तो आज भी मीठी-मीठी बातें होतीं। चलूँ, जरा शीलमणि को और पक्का कर आऊँ। यह इरादा करके वह ज्वालासिंह के कमरे जा बैठे। अरदली ने कहा, सरकार बाहर गये हैं।


ज्ञान– मैं जानता हूँ। मुझसे मुलाकात हो गयी। जरा घर में मेरी इत्तला कर दो।


अरदली– सरकार का हुक्म नहीं है।


ज्ञान– मुझे पहचानते हो या नहीं?


अरदली– पहचानता क्यों नहीं हूँ।


ज्ञान– तो चौखट पर जाकर कहते क्यों नहीं?


अरदली– सरकार ने मना कर दिया है।


ज्ञानशंकर को अब विश्वास हो गया कि मेरी चाल ठीक पड़ी, ज्वालासिंह ने अपने को पक्षपात-रहित सिद्ध करने के लिए ही यह षड्यन्त्र रचा है। यह सोच ही रहे थे कि शीलमणि से क्योंकर मिलूँ कि इतने में महरी किसी काम से बाहर आयी और ज्ञानशंकर को देखते ही जाकर शीलमणि से कहा। शीलमणि ने तुरन्त उनके लिए पान भेजा और उन्हें दीवानखाने में बैठाया। एक क्षण के बाद वह खुद जाकर पर्दे की आड़ में खड़ी हो गयी और महरी से कहलाया, मैंने बाबू जी से आपकी सिफारिश कर दी है।


ज्ञानशंकर ने धन्यवाद देते हुए कहा– मुझे अब आप ही का भरोसा है।


शीलमणि बोली– आप घबरायें नहीं, मैं उन्हें एकदम चैन न लेने दूँगी। ज्ञानशंकर ने ज्यादा ठहरना उचित न समझा। खुशी-खुशी विदा हुए।


उधर बाबू ज्वालासिंह ने घोड़ा दौड़ाया तो चार मील पर रुके। उन्हें एक सिगार पीने की इच्छा हुई। जेब से सिगार-केस निकाला, लेकिन देखा तो दियासलाई न थी। उन्हें सिगार से बड़ा प्रेम था। अब क्या हो? इधर-उधर निगाह दौड़ायी तो सामने कुछ दूरी पर एक बहली जाती हुई दिखाई थी। घोड़े को बढ़ाकर बहली के पास आ पहुँचे। देखा तो उस पर प्रेमशंकर बैठे हुए थे। ज्वालासिंह का उनसे परिचय था। कई बार उनकी कृषि शाला की सैर करने गये थे और उनके सरल, सन्तोषमय जीवन का आदर करते थे। पूछा, कहिए महाशय, आज इधर कहाँ चले?


प्रेम– जरा लखनपुर जा रहा हूँ, और आप?


ज्वाला–  मैं भी वही चलता हूँ।


प्रेम– अच्छा साथ हुआ। क्या कोई मुकदमा है?


ज्वालासिंह ने सिगार जलाकर मुकदमें का वृत्तान्त कह सुनाया।


प्रेमशंकर गौर से सुनते रहे, फिर बोले– आपने उन्हें समझाया नहीं कि गरीबों को क्यों तंग करते हो?


ज्वाला– मैं इस विषय में उनसे क्योंकर कुछ कहता? हाँ, स्त्रियों में जो बातें हुई उनसे मालूम होता है कि वह अपने जरूरतों से मजबूत हैं, उनका खर्च नहीं चलता।


प्रेम– दो हजार साल की आमदनी तीन-चार प्राणियों के लिए तो कम नहीं होती।


ज्वाला– लेकिन इसमें आधा तो आपका है।


प्रेम– जी नहीं, मेरा कुछ नहीं है। मैंने उनसे साफ-साफ कह दिया है कि मैं इस जायदाद में हिस्सा नहीं लेना चाहता।


ज्वालासिंह–  (आश्चर्य से) क्या आपने उनके नाम हिब्बा कर दिया?


प्रेम– जी नहीं, लेकिन हिब्बा ही समझिए। मेरा सिद्धान्त है कि मनुष्य को अपनी मेहनत की कमाई खानी चाहिए। यही प्राकृतिक नियम है। किसी को यह अधिकार नहीं है कि वह दूसरों की कमाई को अपनी जीवन-वृत्ति का आधार बनाये।


ज्वाला– तो यह कहिए कि आप जमींदारी के पेशे को ही बुरा समझते हैं।


प्रेम– हाँ, मैं इसका भक्त नहीं हूँ। भूमि उसकी है जो उसको जोते। शासक को उसकी उपज में भाग लेने का अधिकार इसलिए है कि वह देश में शान्ति और रक्षा की व्यवस्था करता है, जिसके बिना खेती हो ही नहीं सकती। किसी तीसरे वर्ग का समाज में कोई स्थान नहीं है।


ज्वाला– महाशय इन विचारों से तो आप देश में क्रान्ति मचा देंगे। आपके सिद्धान्त के अनुसार हमारे बड़े-बड़े जमींदारों, ताल्लुकेदारों और रईसों का समाज में कोई स्थान ही नहीं दिया। सब के सब डाकू हैं।


प्रेम– इसमें इनका कोई दोष नहीं, प्रथा का दोष है। इस प्रथा के कारण देश की कितनी आत्मिक और नैतिक अवनति हो रही है, इसका अनुमान नहीं किया जा सकता। हमारे समाज का वह भाग जो बल, बुद्धि, विद्या में सर्वोपरि है, जो हृदय और मस्तिष्क के गुणों से अलंकृत है, केवल इसी प्रथा के वश आलस्य विलास और अविचार के बन्धनों में जकड़ा हुआ है।


ज्वालासिंह– कहीं आप इन्हीं बातों का प्रचार करने तो लखनपुर नहीं जा रहे हैं कि मुझे पुलिस की सहायता न माँगनी पड़े।


प्रेम– हाँ, शान्ति भंग कराने का अपराध मुझ पर हो तो जरूर पुलिस की सहायता लीजिए।


ज्वालासिंह– मुझे अब आप पर कड़ी निगाह रखनी पड़ेगी। मैं भी छोटा-मोटा ज़मींदार हूँ। आपसे डरना चाहिए। इस समय लखनपुर ही जाइएगा या आगे जाने का इरादा है?


प्रेम– इरादा तो यहीं से लौट आने का है, आगे जैसी जरूरत हो। इधर-आस-पास के देहातों में एक महीने से प्लेग का प्रकोप हो रहा है। कुछ दवाएँ साथ लेता आया हूँ जरूरत होगी तो उसे बाँट दूँगा, कौन जाने मेरे ही हाथों दो-चार जानें बच जायें।


इसी प्रकार बातें करते हुए दोनों आदमी लखनपुर पहुँचे। गाँव खाली पड़ा था। लोग बागों में झोंपड़ियाँ डाले पड़े थे। इस छोटी-सी बस्ती में खूब चहल-पहल थी। उन दारुण दुःखों का चिह्न कहीं न दिखाई देता था, जिनसे लोगों के हृदय विदीर्ण हो गये थे। छप्परों के सामने महुए सुखाये जा रहे थे। चक्कियों की गरज, छाछ की तड़प, ओखली और मूसल की धमक उस जीवन-संग्राम की सूचना दे रही थी जो प्लेग के भीषण हत्याकांड की भी परवाह न करता था। लड़के आमों पर ढेले चला रहे थे। कोई स्त्री बरतन माँजती थी, कोई पड़ोसी के घर से आग लिये आती थी। कोई आदमी निठल्ला बैठा नजर न आता था।


प्रेमशंकर तो बस्ती में आते ही बहली से उतर पड़े और एक झोपड़े के सामने खाट पर बैठ गये। ज्वालासिंह घोड़े से न उतरे। खाट पर बैठना अपमान की बात थी। जोर से बोले– कहाँ है मुखिया? जाकर पटवारी को बुला लाये; हम मौका देखना चाहते हैं।


यह हुक्म सुनते ही कई आदमी झोंपड़ी से मरीजों को छोड़-छोड़कर निकल आये। चारों ओर भगदड़-सी पड़ गयी। दो-तीन आदमी चौपाल की तरफ कुर्सी लेने दौड़े दो-तीन आदमी पटवारी की तलाश में भागे और गाँव के मान्य गण जवालासिंह को घेरकर खड़े हो गये। प्रेमशंकर की ओर किसी ने ध्यान भी न दिया। इतने में कादिर खाँ अपनी झोपड़ी से निकले और सुक्खू के कान में कुछ कहा। सुक्खू ने दुखरन भगत से कानाफूसी की, तब बिसेसर साह से सायँ-सायँ बातें हुईं, मानों लोग किसी महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर विचार कर रहे हों दस मिनट के बाद सूक्खू चौधरी एक थाल लिये हुए आये। उसमें अक्षत, दही और कुछ रुपये रखे हुए थे। गाँव के पुरोहित जी ने प्रेमशंकर के माथे पर दही-चावल का टीका लगाया और थाल उनके सामने रख दिया।


ज्वालासिंह कुर्सी पर बैठते हुए बोले– लीजिए, आपकी तो बोहनी हो गयी, घाटे में तो हम ही रहे। उस पर भी आप जमींदारी पेशे की निन्दा करते हैं।


प्रेमशंकर ने कहा– देवी के नाम से ईट-पत्थर भी तो पूजे जाते हैं।


कादिर खाँ– हम लोगों के धन भाग थे कि दोनों मालिकों के एक साथ दर्शन हो गये।


प्रेम– यहाँ बीमारी कुछ कम हुई या अभी वही हाल है?


कादिर– सरकार, कुछ न पूछिए, कम तो न हुई और बढ़ती जाती है। कोई दिन नागा नहीं जाता कि एक न एक घर पर विजली न गिरती हो। नदी यहाँ से छह कोस है। कभी-कभी तो दिन में दो-दो तीन-तीन बेर जाना पड़ता है। उस पर कभी आँधी, कभी पानी, कभी आग। खेतों में अनाज सड़ा जाता है। कैसे काटें कहाँ रखे? बस, भोर को घरों में एक बेर चूल्हा जलता है। फिर दिन भर कहीं आग नहीं जलती। चिलम को तरसकर रह जाते हैं हुजूर, रोते नहीं बनता, दुर्दशा हो रही थी। उस पर मालिकों की निगाह भी टेढ़ी हो गयी है। सौ काम छोड़कर कचहरी दौड़ना पड़ता है। कभी-कभी तो घर में लाश छोड़कर जाना पड़ता है। क्या करें, जो सिर पर पड़ी है उसे झेलते हैं। हुजूर का एक गुलाम था। अच्छा पट्ठा था। सारी गृहस्थी सँभाले हुए था। तीन घड़ी में चल बसा। मुँह से बोल तक न निकली। सूक्खू चौधरी का तो घर ही सत्यानाश हो गया। बस, अब अकेले इन्हीं का दम रहा गया है। बेचारे डपटसिंह का छोटा लड़का कल मरा है, आज बड़ा लड़का बीमार है। अल्ला ही बचाये तो बचे। जुबान बन्द हो गयी है। लाल-लाल आँखें निकाले खाट पर पड़ा हाथ-पैर पटक रहा है। कहाँ तक गिनायें, खुदा रसूल, देवी-देवता सभी की मन्नतें मानते हैं पर कोई नहीं सुनता। अब तक तो जैसे बन पड़ा मुकदमें बाजी की उजरदारी की। अब वह हिम्मत भी नहीं रही किसके लिए यह सब करें? इतने पर भी मालिकों को दया नहीं आती।


प्रेमशंकर-जरा मैं डपटसिंह के लड़के को देखना चाहता हूँ।


कादिर– हाँ हुजूर, चलिए मैं चलता हूँ।


ज्वालासिंह– जरा सावधान रहिएगा, यह रोग संक्रामक होता है।


प्रेमशंकर ने इसका कुछ उत्तर न दिया। औषधियों का बैग उठाया और कादिर खाँ के पीछे-पीछे चले। डपटसिंह के झोंपड़े पर पहुँचे तो आदमियों की बड़ी भीड़ लगीं हुई थी। एक आम के पेड़ के नीचे रोगी की खाट पड़ी हुई थी। डपटसिंह और उनके छोटे भाई झपटसिंग सिरहाने खड़े पंखे झल रहे थे। दो स्त्रियाँ पायते की ओर खड़ी रो रही थीं। प्रेमशंकर को देखते ही दोनों अन्दर चली गयीं। दोनों भाइयों ने उनकी ओर दीन भाव से देखा और अलग हट गये। उन्होंने उष्णता-मापक यन्त्र से देखा तो रोग का ज्वर १०७ दरजे पर था। त्रिदोष के लक्षण प्रकट थे। समझ गये कि यह अब दम भर का मेहमान है। अभी वह बेग से औषधि निकाल ही रहे थें। कि मरीज एक बार जोर से चीख मार कर उठा और फिर खाट पर गिर पड़ा। आँखें पथरा गयीं। स्त्रियों में पिट्टस पड़ गयी। डपटसिंह शोकातुर होकर मृत शरीर से लिपट गया और रोकर बोला– बेटा! हाय बेटा!


यह कहते-कहते उसकी आँखें रक्त वर्ण हो गयीं उन्माद-सा छा गया, गीली लकड़ी पहली आँच में रसती है दूसरी आँच में जलकर भस्म हो जाती है। डपटसिंह शोक-सन्ताप से विह्वल हो गया। खड़े होकर बोला– कोई इस घर में आग क्यों नहीं लगा देता? अब इसमें क्या रखा है? कैसी दिल्लगी है! बाप बैठा रहे और बेटा चल दे! इन्हीं हाथों से मैंने इसे गोद में खिलाया था। इन्हीं हाथों से चिता की गोद में कैसे बैठा दूँ, कैसा रुलाकर चल दिया मानो हमसे कोई नाता ही नहीं है। कहता था, दादा तुम बूढ़ें हुए, अब बैठे-बैठे राम-राम करो, हम तुम्हारी परवस्ती करेंगे। मगर दोनों के दोनों चल दिये। किसी के मुँख पर दया न आयी! लो राम-राम करता हूँ। अब परवस्ती करो कि बातों के ही धनी थे?


यह कहते-कहते वह शव के पास से हटकर दूसरे पेड़ के नीचे जा बैठे। एक क्षण के बाद फिर बोले– अब इस माया-जाल को तोड़ दूँगा। बहुत दिन इसने मुझे उँगलियों पर नचाया। अब मैं इसे नचाऊँगा। तुम दोनों चल दिये बहुत अच्छा हुआ। मुझे माया-जाल से छुड़ा दिया। इस माया के कारण कितने पाप किये, कितने झूठ बोले, कितनों का गला दबाया, कितनों के खेत काटे। अब सब पाप दोष का कारण मिट गया। वह मरी हुई माया सामने पड़ी है। कौन कहता है मेरा बेटा था? नहीं, मेरा दुश्मन था, मेरे गले का फन्दा था, मेरे पैरों की बेड़ी था फन्दा छूट गया, बेड़ी कट गयी। लाओ, इस घर में आग लगा दो, सब कुछ भस्म कर दो। बलराज, खड़ा आँसू क्या बहाता है? कहीं आग नहीं है? लाके लगा दे।


सब लोग खड़े रो रहे थे। प्रेमशंकर भी करुणातुर हो गये। डपटसिंह के पास जाकर बोले– ठाकुर धीरज धरो। संसार का यही दस्तूर है। तुम्हारी यह दशा देखकर बेचारी स्त्रियाँ और भाई रो रहे हैं। उन्हें समझाओ।


डपटसिंह ने प्रेमशंकर को उन्मत्त नेत्रों से देखा और व्यंग्य भाव से बोले– ओहो, आप तो हमारे मालिक हैं। क्या जाफा वसूल करने आये हैं? उसी से लीजिए जो वहाँ धरती पर पड़ा हुआ है, वह आपकी कौड़ी-कौड़ी चुका देगा। गौस खाँ से कह दीजिए, उसे पकड़ ले जायें, बाँधे, मारें मैं न बोलूँगा। मेरा खेती-बारी से घर द्वार से इस्तीफा है।


कादिर खाँ ने कहा– भैया डपट, दिल मजबूत करो। देखते हो, घर-घर यही आग लगी हुई है मेरे सिर भी तो यही विपत्ति पड़ी है। इस तरह दिल छोटा करने से काम न चलेगा, उठो। कुछ कफन-कपड़े की फिकिर करो, दोपहर हुआ जाता है।


डपटसिंह को होश आ गया। होश के साथ आँसू भी आये। रोकर बोले, दादा, तुम्हारा-सा कलेजा कहाँ ले लायें? किसी तरह धीरज नहीं होता। हाय! दोनों के दोनों चल दिये, एक भी बुढ़ापे का सहारा न रहा। सामने यह लाश देखकर ऐसा जी चाहता है गले पर गँडासा मार लूँ। दादा, तुम जानते हो कि कितना सुशील लड़का था। अभी उस दिन मुग्दर की जोड़ी के लिए हठ कर रहा था। मैंने सैकड़ों गालियाँ दीं मारने उठा। बेचारे ने जबान तक न हिलायी। हाँ, खाने-पीने को तरसता रह गया। उसकी कोई मुराद पूरी न हुई। न भर पेट खा सका, न तन-भर पहन सका। धिक्कार है मेरी जिन्दगानी पर! अब यह घर नहीं देखा जा सकता। झपट, अपना घर-द्वार सँभालो, मेरे भाग्य में ठोकर खाना लिखा हुआ है। भाई लोग! राम-राम मालिक को राम, सरकार को राम-राम! अब यह अभागा देश से जाता है, कही-सुनी माफ करना!


यह कहकर डपटसिंह उठकर कदम बढ़ाते हुए एक तरफ चले। जब कई आदमियों ने उन्हें पकड़ना चाहा तो वह भागे। लोगों ने उनका पीछा किया, पर कोई उनकी गर्द को भी न पहुँचा। जान पड़ता था हवा में उड़े जाते हैं। लोगों के दम फूल गये, कोई यहाँ रहा, कोई वहाँ गिरा अकेले बलराज ने उनका पीछा न छोड़ा, यहाँ तक कि डपटसिंह बेदम होकर जमीन पर गिर पड़े। बलराज दौड़कर उनकी छाती से लिपट गया और तब अपने अँगोछे से उन्हें हवा करने लगा। जब उन्हें होश आया तो हाथ पकड़े हुए घर लाया।


ज्वालासिंह की करुणा भी जाग्रत हो गयी। प्रेमशंकर से बोले– बाबू साहब, बड़ा शोकमय दृश्य है।


प्रेमशंकर– कुछ न पूछिए, कलेजा मुँह को आया जाता है


कई आदमी बाँस काटने लगे, लेकिन तीसरे पहर तक लाश न उठी। प्रेमशंकर ने कादिर से पूछा– देर क्यों हो रही है!


कादिर– हुजूर, क्या कहें? घर में रुपये नहीं है। बेचारा डपट रुपये के लिए इधर-उधर दौड़ रहा है, लेकिन कहीं नहीं मिलते। हमारी जो दशा है सरकार, हमीं जानते हैं। जाफा लगान के मुकदमें ने पहली ही हाँडी तावा गिरों रखवा लिया था। इस बीमारी ने रही सही कसर पूरी कर दी। अब किसी के घर में कुछ नहीं रहा। प्रेमशंकर ने ठंडी साँस लेकर ज्वालासिंह से कहा– देखी आपने इनकी हालत? घर में कौड़ी कफन को नहीं।


ज्वालासिंह– मुझे अफसोस आता है कि इनसे पिछले साल मुचलका क्यों लिया! मैं अब तक न जानता था कि इनकी दशा इतनी हीन है।


प्रेम– मुझे खेद है कि मकान से कुछ रुपये लेकर न चला।


ज्वाला– रुपये मेरे पास हैं, पर मुझे देते हुए संकोच होता है। शायद इन्हें बुरा लगे? आप लेकर दे दे, तो अच्छा हो।


प्रेमशंकर ने 20 रुपये का नोट ले लिया और कादिर खाँ को चुपके से दे दिया एक आदमी तुरन्त कफन लेने को दौड़ा। लाश उठाने की तैयारी होने लगी। स्त्रियों में फिर कोहराम मचा। जब तक शव घर में रहता है, घरवालों को कदाचित कुछ आशा लगी रहती है। उसका घर से उठना पार्थिव वियोग का अन्त है। वह आशा के अन्तिम सूत्र को तोड़ देता है।


तीसरे पहर लाश उठी। सारे गाँव के पुरुष साथ चले। पहले कादिर खाँ ने कन्धा दिया। ज्वालासिंह को सरकारी काम था, वह लौट पड़े। लेकिन प्रेमशंकर ने दो-चार दिन वहाँ रहने का निश्चय किया।


21.


एक पखवारा बीत गया। सन्ध्या समय था। शहर में बर्फ की दूकानों पर जमघट होने लगा था। हुक्के और सिगरेट से लोगों को अरुचि होती जाती थी। ज्वालासिंह लखनपुर से मौके की जाँच करके लौटे थे और कुर्सी पर बैठे ठंडा शर्बत पी रहे थे कि शीलमणि ने आकर पूछा, दोपहर को कहाँ रह गये थे?


ज्वाला– बाबू प्रेमशंकर का मेहमान रहा। वह अभी देहात में ही हैं।


शील– अभी तक बीमारी का जोर कम नहीं हुआ।


ज्वाला– नहीं अब कम हो रहा है। वह पूरे पन्द्रह दिन से देहातों में दौरे कर रहे हैं। एक दिन भी आराम से नहीं बैठे। गाँव में जनता उनको पूजती है। बड़े-बड़े हाकिम का भी इतना सम्मान न होगा। न जाने इस तपन में उनसे कैसे वहाँ रहा जाता है। न पंखा न टट्टी, न शर्बत, न बर्फ। बस, पेड़ के नीचे एक झोंपड़े में पड़े रहते हैं। मुझसे तो वहाँ एक दिन भी न रहा जाये।


शील– परोपकारी पुरुष जान पड़ते हैं। क्या हुआ, तुमने मौका देखा?


ज्वाला– हाँ, खूब देखा। जिस बात का सन्देह था वही सच्ची निकली। ज्ञानशंकर का दावा बिल्कुल निस्सार है। उसके मुख्तार और चपरासियों ने मुझे बहुत-कुछ चकमा देना चाहा, लेकिन मैं इन लोगों के हथकंडों को खूब जान गया हूँ। बस, हाकिमों को धोखा देकर अपना मतलब निकाल लेते हैं। जरा इस भलमनसाहत को देखो कि असामियों के तो जान के लाले पड़े हुए हैं और इन्हें अपने प्याले-भर खून की धुन सवार है। इतना भी नहीं हो सकता कि जरा गाँव में जाकर गरीबों की तसल्ली तो करते। इन्हीं का भाई है कि जमींदारी पर लात मारकर दीनों की निःस्वार्थ सेवा कर रहा है, अपनी जान हथेली पर लिये फिरता है और एक यह महापुरुष हैं कि दीनों की हत्या करने से भी नहीं हिचकते। मेरी निगाह में तो अब इनकी आधी इज्जत भी नहीं रही, खाली ढोल है।


शील– तुम जिनकी बुराई करने लगते हो, उसकी मिट्टी पलीद कर देते हो। मैं भी आदमी पहचानती हूँ। ज्ञानशंकर देवता नहीं, लेकिन जैसे सब आदमी होते हैं वैसे ही वह भी हैं। ख्वामख्वाह दूसरों से बुरे नहीं।


ज्वाला– तुम उन्हें जो चाहो कहो पर मैं तो उन्हें क्रूर और दुरात्मा समझता हूँ।


शील– तब तुम उनका दावा अवश्य ही खारिज कर दोगे?


ज्वाला– कदापि नहीं, मैं यह सब जानते हुए भी उन्हीं की डिग्री करूँगा, चाहे अपील से मेरा फैसला मन्सूख हो जाये।


शील– (प्रसन्न होकर) हाँ, बस मैं भी यही चाहती हूँ, तुम अपनी-सी कर दो, जिससे मेरी बात बनी रहे।


ज्वाला– लेकिन यह सोच लो कि तुम अपने ऊपर कितना बड़ा बोझ ले रही हो। लखनपुर में प्लेग का भयंकर प्रकोप हो रहा है। लोग तबाह हुए जाते हैं, खेत काटने की भी किसी को फुरसत नहीं मिलती। कोई घर ऐसा नहीं, जहाँ से शोक-विलाप की आवाज न आ रही हो। घर के घर अँधेरे हो गये, कोई नाम लेनेवाला भी न रहा। उन गरीबों में अब अपील करने की सामर्थ्य नहीं। ज्ञानशंकर डिग्री पाते ही जारी कर देंगे। किसी के बैल नीलाम होंगे, किसी के घर बिकेंगे, किसी की फसल खेत में खड़ी-खड़ी कौड़ियों के मोल नीलाम हो जायेगी। यह दीनों की हाय किस पर पड़ेगी? यह खून किसी की गर्दन पर होगा? मैं बदमामी से नहीं डरता लेकिन अन्याय और अनर्थ से मेरे प्राण काँपते हैं।


शीलमणि यह व्याख्यान सुनकर काँप उठी। उनके इस मामले को इतना महत्त्वपूर्ण न समझा था। उनका मौन-व्रत टूट गया, बोली– यदि यह हाल है तो आप वही कीजिए जो न्याय और सत्य कहे। मैं गरीबों की आह नहीं लेना चाहती। मैं क्या जानती थी कि जरा-से दावे का यह भीषण परिणाम होगा?


ज्वालासिंह के हृदय पर से एक बोझ-सा उतर गया। शीलमणि को अब तक वह न समझ थे। बोले, विद्यावती के सामने कौन-सा मुँह लेकर जाओगी?


शीलमणि– विद्यावती ऐसे क्षुद्र विचारों की स्त्री नहीं है और अगर वह इस तरह मुझसे रूठ भी जाये तो मुझे चिन्ता नहीं। मैत्री के पीछे क्या गरीबों का गला काट लिया जाय? मैं तो समझती हूँ, वह ज्ञानशंकर से चिढ़ती है। जब कभी उन्होंने मुझसे इस दावे की चर्चा की है वह मेरे पास से उठ कर चली गई है। उनकी मायालिप्सा उसे एक आँख नहीं भाती। दावा खारिज होने की खबर सुनकर मन में प्रसन्न होगी।


ज्वाला– उस पर आपका दावा है कि गायत्री के इलाके का प्रबन्ध करेंगे। उसकी इनसे एक दिन भी न निभेगी। वह बड़ी दयावती है।


शीलमणि– दावा खारिज करने पर वह अपील कर दें तो?


ज्वाला– हाँ, बहुत सम्भव है, अवश्य करेंगे।


शील– और वहाँ से इनका दावा बहाल हो सकता है?


ज्वाला– हाँ, हो सकता है।


शील– तब तो वह गरीब खेतिहरों को और भी पीस डालेंगे।


ज्वाला– हाँ, यह तो उनकी प्रकृति ही है।


शील– तुम खेतिहरों की कुछ मदद नहीं कर सकते?


ज्वाला– न, यह मेरे अख्तियार से बाहर है।


शील– किसानों को कहीं से धन की सहायता मिल जाय तब तो वह न हारेंगे?


ज्वाला– हार-जीत तो हाकिम के निश्चय पर निर्भर है। हाँ, उन्हें मदद मिल जाय तो वह अपने मुकदमें की पैरवी अच्छी तरह कर सकेंगे।


शील– तो तुम कुछ रुपये क्यों नहीं दे देते?


ज्वाला– वाह, जिस अन्याय से भागता हूँ, वही करूँ।


शील– प्रेमशंकर जी बड़े दयालु हैं। उनके पास रुपये हों तो वह खेतिहारों की मदद करें।


ज्वाला– मेरे विचार से वह इस न्याय के लिए अपने भाई से बैर न करेंगे।


इतने में बाहर कई मित्र आ गये। ग्वालियर का एक नामी जलतरंगिया आया हुआ था। क्लब में उसका गाना होने वाला था। लोग क्लब चल दिये।


दूसरी तारीख पर ज्ञानशंकर का मुकदमा पेश हुआ। ज्वालासिंह ने फैसला सुना दिया। उनका दावा खारिज हो गया। ज्ञानशंकर उस दिन स्वयं कचहरी में मौजूद थे। यह फैसला सुना तो दाँत पीसकर रह गये। क्रोध में भरे हुए घर आये और विद्या पर जले दिल के फफोले फोड़े। आज बहुत दिनों के बाद लाला प्रभाशंकर के पास गये और उनसे भी एक असद्वव्यवहार का रोना रो आये। एक सप्ताह तक यही क्रम चलता रहा। शहर में ऐसा कोई परिचित आदमी न था, जिससे उन्होंने ज्वालासिंह के कपट व्यवहार की शिकायत न की हो। यहाँ तक कि रिश्वत का दोषारोपण करने में भी संकोच न किया। और उन्हें शब्दाघातों से ही तस्कीन न हुई। कलम की तलवार से भी चोंटे करनी शुरू कीं। कई दैनिक पत्रों में ज्वालासिंह की खबर ली। जिस पत्र में देखिए उसी में उनके विरुद्ध कालम-के-कालम भरे रहते थे एंग्लो-इण्डियन पत्रों को हिन्दुस्तानियों की अयोग्यता पर टिप्पणी करने का अच्छा अवसर हाथ आया। एक महीने तक यही रौला मचा रहा। ज्वालासिंह के जीवन का कोई अंग कलंक और अपवाद से न बचा। एक सम्पादक महाशय ने तो यहाँ तक लिख मारा कि उनका मकान शहर भर के रसिक-जनों का अखाड़ा है। ज्ञानशंकर के रचना कौशल ने उनके मनोमालिन्य के साथ मिलकर ज्वालासिंह को अत्याचार और अविचार का काला देव बना दिया। बेचारे लेखों को पढ़ते थे और मन-ही-मन ऐंठकर रह जाते थे। अपनी सफाई देने का अधिकार न था। कानून उनका मुँह बन्द किए हुए था। मित्रों में ऐसा कोई न था जो पक्ष में कलम उठाता। पत्रों में मिथ्यावादिता पर कुढ़-कुढ़ कर रह जाते थे, जो सत्यासत्य का निर्णय किये बिना अधिकारियों पर छींटे उड़ाने में ही अपना गौरव समझते थे। घर से निकलना मुश्किल हो गया। शहर में जहाँ देखिए यही चर्चा थी। लोग उन्हें आते-जाते देखकर खुले शब्दों में उनका उपहास करते थे। अफसरों की निगाह भी बदल गयी। जिलाधीश से मिलने गये। उसने कहला भेजा, मुझे फुरसत नहीं है। कमिश्नर एक बंगाली सज्जन थे। उनके पास फरियाद करने गये। उन्होंने सारा वृत्तांत बड़ी सहानुभूति के साथ सुना, लेकिन चलते समय बोले, यह असम्भव है कि इस हलचल का आप पर कोई असर न हो। मुझे शंका है कि कहीं यह प्रश्न व्यवस्थापक सभा में न उठ जाये। मैं यथाशक्ति आप पर आँच न आने दूँगा। लेकिन आपको न्यायोचित समर्थन करने के लिए कुछ नुकसान उठाने पर तैयार रहना चाहिए, क्योंकि सन्मार्ग फूलों की सेज नहीं है।


एक दिन ज्वालासिंह इन्हीं चिन्ताओं में मग्न बैठे हुए थे कि प्रेमशंकर आये। ज्वालासिंह दौड़कर उनके गले लिपट गये। आँखें सजल हो गयीं, मानो आपने किसी परम हितैषी से भेंट हुई हो। कुशल समाचार के बाद पूछा, देहात से कब लौटे?


प्रेमशंकर– आज ही आया हूँ। पूरे डेढ़ महीने लगे गये। दो-तीन दिन का इरादा करके घर से चला था। हाजीगंज वाले बार-बार बुलाने न जाते तो मैं जेठ भर वहाँ और रहता।


ज्वाला– बीमारी की क्या हालत है?


प्रेमशंकर– शान्त हो गयी है। यह कहिए समाचार-पत्रों में क्या हरबोंग मचा हुआ है? मैंने तो आज देखा। दुनिया में क्या हो रहा है। इसकी कुछ खबर ही न थी। यह मण्डली तो बेतरह आपके पीछे पड़ी हुई है।


ज्वाला– उनकी कृपा है और कहूँ?


प्रेम– मैं तो देखते ही समझ गया कि यह ज्ञानशंकर के दावे को खारिज कर देने का फल है।


ज्वाला– बाबू ज्ञानशंकर से कभी ऐसी आशा न थी कि मुझे अपना कर्त्तव्य पालन करने का यह दण्ड दिया जायेगा। अगर वह केवल मेरी न्याय और अधिकार-सम्बन्धी बातों पर आघात करते तब भी मुझे खेद न होता। मुझे अत्याचारी कहते, जुल्मी कहते, निरंकुश सिद्ध करते-हम इन आपेक्षों के आदी होते हैं। दुःख इस बात का है कि मेरे चरित्र को कलंकित किया गया है। मुझे अगर किसी बात का घमण्ड है तो वह अपने आचरण का है। मेरे कितने ही रसिक मित्र वैरागी कहकर चिढ़ाते हैं। यहाँ मैं कभी थियेटर देखने नहीं गया, कभी मेला तमाशा तक नहीं देखा। बाबू ज्ञानशंकर इस बात से भली-भाँति परिचित हैं। लेकिन मुझे सारे शहर के छैलों का नेता बनाने में उन्हें लेश-मात्र भी संकोच न हुआ। इन आक्षेपों से मुझे इतना दुःख हुआ है कि उसे प्रकट नहीं कर सकता। कई बार मेरी इच्छा हुई कि विष खा लूँ। आपसे मेरा परिचय बहुत थोड़ा है, लेकिन मालूम नहीं क्यों जी चाहता है कि आपके सामने हृदय निकालकर रख दूँ। मैंने कई बार जहर खाने का इरादा किया, किन्तु यह सोचकर कि कदाचित् इससे इन आक्षेपों की पुष्टि हो जायेगी, रुक गया। यह भय भी था कि शीलमणि रो-रो कर प्राण न त्याग दे। सच पूछिए, तो उसी के श्रद्धामय प्रेम ने अब तक मेरी प्राण-रक्षा की है, अगर वह एक क्षण के लिए भी मुझसे विमुख हो जाती तो मैं अवश्य ही आत्म-घात कर लेता। ज्ञानशंकर मेरे स्वभाव को जानते हैं। मैं और वह बरसों तक भाइयों की भाँति रहे हैं। उन्हें मालूम है कि मरे हृदय में मर्मस्थान कहाँ है। इसी स्थान को उन्होंने अपनी कलम से बेधा और मेरी आत्मा को सदा के लिए निर्बल बना दिया।


प्रेम– मैं तो आपको यही सलाह दूँगा कि इन पत्रों पर मान-हानि का अभियोग चलाइए। इसके सिवा अपने को निर्दोष सिद्ध करने का कोई उपाय नहीं है। मुझे इसकी जरा भी परवाह नहीं कि ज्ञानशंकर पर इसका क्या असर पड़ेगा। उन्हें अपने कर्मों का दंड मिलना चाहिए। मैं स्वयं सहिष्णुता का भक्त हूँ लेकिन यह असंभव है कि कोई चरित्र पर मिथ्या कलंक लगाये और मैं मौन धारण किये बैठा रहूँ। आप वकीलों से सलाह ले कर अवश्य मान-हानि का मुकदमा चलाइए।


ज्वालासिंह कुछ सोचकर बोले– और भी बदनामी होगी।


प्रेम– कदापि नहीं। आपको इन मिथ्याक्षेपों का प्रतिवाद करने का अवसर मिलेगा और जनता की दृष्टि मंन आपका सम्मान बढ़ जायेगा। ऐसी दशा में आपका चुप रह जाना अक्षम्य ही नहीं, दूषित है। यह न समझिए कि मुझे ज्ञानशंकर से द्वेष या अपवाद से प्रेम है। इस मामले को केवल सिद्धान्त की निष्पक्ष दृष्टि से देखता हूँ। मान रक्षा हमारा धर्म है।


ज्वाला– मैं नतीजे को सोचकर कातर हो जाता हूँ। बाबू ज्ञानशंकर का फँस जाना निश्चित है। मुमकिन है, जेल की नौबत आये। वह आत्मिक कष्ट मेरे लिए इससे कहीं असह्य होगा। जिससे बरसों तक भ्रातृवत् प्रेम रहा, जिससे दाँत काटी रोटी थी उससे मैं इतना कठोर नहीं हो सकता। मैं तो इस विचार-मात्र ही से काँप उठता हूँ। इन आक्षेपों से मेरी केवल इतनी हानि होगी कि यहाँ से तबदील हो जाऊँगा या अधिक से अधिक पदच्युत हो जाऊँगा, परन्तु ज्ञानशंकर तबाह हो जायेंगे। मैं अपने दुरावेशों को पूरा करने के लिए उनके परिवार का सर्वनाश नहीं कर सकता।


प्रेमशंकर ने ज्वालासिंह को श्रद्धापूर्ण नेत्रों से देखा। इस आत्मोत्सर्ग के सामने उनका सिर झुक गया, हृदय सदनुराग से परिपूर्ण हो गया। ज्वालासिंह के पैरों पर गिर पड़े और सजल नेत्र होकर बोले, भाई जी, आपको परमात्मा ने देव-स्वरूप बनाया है। मुझे अब तक न मालूम था कि आपके हृदय में ऐसे पवित्र और निर्मल भाव छिपे हुए हैं।


ज्वालासिंह झिझककर पीछे हट गये और बोले– भैया, ईश्वर के लिए वह अन्याय न कीजिए। मैं तो अपने को इस योग्य भी नहीं पाता कि आपके चरणारविन्द अपने माथे से लगाऊँ। आप मुझे काँटों में घसीट रहे हैं।


प्रेमशंकर– यदि आपकी इच्छा हो तो मैं उन्हीं पत्रों में इन आक्षेपों का प्रतिवाद कर दूँ।


ज्वालासिंह वास्तव में प्रतिवाद की आवश्यकता को स्वीकार करते थे, किन्तु इस भय से कि कहीं मेरी सम्मति मुझे उस उच्च पद से गिरा न दे, जो मैंने अभी प्राप्त किया है, इनकार करना ही उचित जाना पड़ा। बोले– जी नहीं, इसकी भी जरूरत नहीं।


प्रेमशंकर के चले जाने के बाद ज्वालासिंह को खेद हुआ कि प्रतिवाद का ऐसा उत्तम अवसर हाथ से निकल गया। अगर इनके नाम से प्रतिवाद निकलता तो वह सारा मिथ्या-जाल मकड़ी के जालों के सदृश कट जाता। पर अब तो जो हुआ सो हुआ। एक साधु पुरुष के हृदय में स्थान तो मिल गया।


प्रेमशंकर घर तक जाने का विचार करके हाजीपुर से चले थे। महीनों से घर से कुशल-समाचार न मिला था, लेकिन यहाँ से उठे तो नौ बज गये थे, जेठ की लू चलने लगी थी। घर से हाजीपुर लौट जाना दुस्तर था। इसलिए किसी दूसरे का इरादा करके लौट पड़े।


लेकिन ज्ञानशंकर को चैन कहाँ। उन्हें ज्यों ही मालूम हुआ कि भैया देहात से लौट आये है, वह उनसे मिलने के लिए उत्सुक हो गये। ज्वालासिंह को उनकी नजरों में गिराना आवश्यक था। सन्ध्या समय था। प्रेमशंकर अपने झोंपड़े के सामने वाले गमलों में पानी दे रहे थे। कि ज्ञानशंकर आ पहुँच और बोले– क्या मजूर कहीं चला गया है क्या?


प्रेमशंकर– मैं भी तो मजूर ही हूँ। घर पर सब कुशल है न?


ज्ञान– जी हाँ, सब आपकी दया है। आपके यहाँ तो कई हलवाहे होंगे। क्या वह इतना भी नहीं कर सकते कि इन गमलों को सींच दें? आपको व्यर्थ कष्ट उठाना पड़ता है।


प्रेम– मुझे उनसे काम लेने का कोई अधिकार नहीं है। वह मेरे निज के नौकर नहीं है। मैं तो केवल यहाँ का निरीक्षक हूँ और फिर मैंने अमेरिका में तो हाथों से बर्तन धोये हैं। होटलों की मेजें साफ की हैं, सड़कों पर झाड़ू दी है, यहाँ आकर मैं कोई और तो नहीं हो गया। मैंने यहाँ कोई खिदमतगार नहीं रखा है। अपना सब काम कर लेता हूँ।


ज्ञान– तब तो आपने हद कर दी। क्या मैं पूछ सकता हूँ कि आप क्यों अपनी आत्मा को इतना कष्ट देते हैं।


प्रेम– मुझे कोई कष्ट नहीं होता। हाँ, इसके विरुद्ध आचरण करने में अलबत्ता कष्ट होगा। मेरी आदत ऐसी ही पड़ गयी है।


ज्ञान– यह तो आप मानते हैं कि आत्मिक उन्नति की भिन्न कक्षाएँ होती हैं।


प्रेम– मैंने इस विषय में कभी विचार नहीं किया और न अपना कोई सिद्धान्त स्थिर कर सकता हूँ। उस मुकदमे की अपील अभी दायर की या नहीं?


ज्ञान– जी हाँ दायर कर दी। आपने ज्वालासिंह की सज्जनता देखी? यह महाशय मेरे बनाये हुए हैं। मैंने ही इन्हें रटा-रटा कर किसी तरह बी.ए. कराया। अपना हर्ज करता था, पर पहले इनकी कठिनाइयों को दूर कर देता था। इस नेकी का इन्होंने यह बदला दिया। ऐसा कृतघ्न मनुष्य मैंने नहीं देखा।


प्रेम– पत्रों में उनके विरुद्ध जो लेख छपे थे। वह तुम्हीं ने लिखे थे?


ज्ञान– जी हाँ! जब वह मेरे साथ ऐसा व्यवहार करते हैं, तब मैं क्यों उनसे रियायत करूँ?


प्रेम– तुम्हारा व्यव्हार बिलकुल न्याय-विरुद्ध था। उन्होंने जो कुछ किया, न्याय समझ कर किया। उनका उद्देश्य तुम्हें नुकसान पहुँचाना न था। तुमने केवल उनका अनिष्ट करने के लिए यह आक्षेप किया।


ज्ञान– जब आपस में अदावत हो गयी तब सत्यता का विववेचन कौन करता है? धर्म-युद्ध का समय अब नहीं रहा।


प्रेम– तो यह सब तुम्हारी मिथ्या कल्पना है?


ज्ञान– जी हाँ, आपके सामने लेकिन दूसरों के सामने...


प्रेम– (बात काटकर) वह मानहानि का दावा कर दें तो?


ज्ञान– इसके लिए बड़ी हिम्मत चाहिए और उनमें हिम्मत का नाम नहीं। यह सब रोब-दाब दिखाने के ही है। अपील का फैसला मेरे अनुकूल हुआ, तो अभी उनकी और खबर लूँगा। जाते कहाँ हैं? और कुछ न हुआ तो बदनामी के साथ तबदील तो हो ही जायेंगे। अबकी तो आपने लखनपुर की खूब सैर की, असामियों ने मेरी खूब शिकायत की होगी?


प्रेम– हाँ, शिकायत सभी कर रहे हैं।


ज्ञान– लड़ाई-दंगे का तो कोई भय नहीं है?


प्रेम– मेरे विचार में तो इसकी संभावना नहीं है।


ज्ञान– अगर उन्हें मालूम हो जाये कि इस विषय में हम लोगों के मतभेद हैं-और यह स्वाभाविक ही है; क्योंकि आप अपने मनोगत छिपा नहीं सकते– तो वह और भी शेर हो जायेंगे।


प्रेम–  (हँसकर) तो इससे हानि क्या होगी?


ज्ञान– आपके सिद्धान्त के अनुसार तो कोई हानि न होगी, पर मैं कहीं का नहीं रहूँगा। इस समय मेरे हित के लिए यह अत्यावश्यक है कि आप उधर आना-जाना कम कर दें।


प्रेम– क्या तुम्हें संदेह है कि मैं असामियों को उभाड़कर तुमसे लड़ाता हूँ? मुझे तुमसे कोई दुश्मनी नहीं है? मैं लखनपुर के ही नहीं, सारे देश के कृषकों से सहानुभूति है। लेकिन इसका यह आशय नहीं कि मुझे जमींदारों से कोई द्वेष है, हाँ अगर तुम्हारी यही इच्छा है कि मैं उधर न जाऊं तो यही सही। अब में कभी न जाऊँगा।


ज्ञानशंकर को इत्मीनान तो हुआ, पर वह इसे प्रकट न कर सके मन में लज्जित थे। अपने भाई की रजोवृत्ति के सामने उन्हें अपनी तमोवृत्ति बहुत निष्कृष्ट प्रतीत होती थी। वह कुछ देर तक कपास और मक्का के खेतों को देखते रहे, जो यहाँ बहुत पहले ही बो दिये गये थे। फिर घर चले आये। श्रद्धा के बारे में न प्रेमशंकर ने कुछ पूछा और न उन्होंने कुछ कहा। श्रद्धा अब उनकी प्रेयसी नहीं, उपास्य देवी थी।


दूसरे दिन दस बजे डाकिये ने उन्हें एक रजिस्टर्ड लिफाफा दिया। उन्होंने विस्मित होकर लिफाफे को देखा। पता साफ लिखा हुआ था। खोला तो ५०० रु. का एक करेन्सी नोट निकला। एक पत्र भी था, जिसमें लिखा हुआ था–


‘लखनपुर वालों की सहायता के लिए यह रुपये आपके पास भेजे जाते हैं। यह आप अपील की पैरवी करने के लिए उन्हें दे दें। इस कष्ट के लिए क्षमा कीजिएगा।’


प्रेमशंकर सोचने लगे, इसका भेजने वाला कौन है? यहाँ, मुझे कौन जानता है। कौन मेरे विचारों से अवगत है? किसे मुझ पर इतना विश्वास है? इन सब प्रश्नों का उत्तर मिलता था, ‘ज्वालासिंह’ किन्तु मन इस उत्तर को स्वीकार न करता था।


अब उन्हें यह चिन्ता लगी कि यह रुपये क्योंकर भेजूँ? ज्ञानशंकर को मालूम हो गया तो वह समझेंगे मैंने स्वयं असामियों को सहायता दी है। उन्हें कभी विश्वास न आयेगा कि यह किसी अन्य व्यक्ति की अमानत है। यदि असामियों को न दूँ तो महान् विश्वासघात होगा। इसी हैस-बैस में शाम हो गयी और लाला प्रभाशंकर का शुभागमन हुआ।


22.


ज्ञानशंकर को अपील के सफल होने का पूरा विश्वास था। उन्हें मालूम था कि किसानों में धनाभाव के कारण अब बिल्कुल दम नहीं है। लेकिन जब उन्होंने देखा, काश्तकारों की ओर से भी मुकदमें की पैरवी उत्तम रीति से की जा रही है तो उन्हें अपनी सफलता में कुछ-कुछ सन्देह होने लगा। उन्हें विस्मय होता था कि इनके पास रुपये कहाँ से आ गये? गौस खाँ तो कहता था कि बीमारी ने सभी को मटियामेट कर दिया है, कोई अपील पैरवी करने भी न जायेगा, एकतरफा डिगरी होगी। यह कायापलट क्योंकर हुई? अवश्य इनको कहीं-न-कहीं से मदद मिली है। कोई महाजन खड़ा हो गया है। शहर में तो कोई ऐसा नहीं दीख पड़ता, लखनपुर ही के आस-पास का होगा। खैर, अभी तो रहस्य खुलेगा, तब बच्चू से समझूँगा। फैसले के दिन वह स्वयं कचहरी गये। अपील खारिज हो गयी। सबसे पहले गौस खाँ सामने आये। उनसे डपटकर बोले– क्यों जनाब, आप तो फरमाते थे इन सबों के पास कौड़ी कफन को नहीं है, यह वकील क्या यों ही आ गया?


गौस खाँ ने भी गरम होकर कहा– मैंने हुजूर से बिलकुल सही अर्ज किया था, लेकिन मैं क्या जनता था कि मालिकों में ही इतनी निफाक है। मुझे पता लगता है कि हुजूर के बड़े भाई साहब ने एक हफ्ता हुआ कादिर को अपील की पैरवी के लिए एक हजार रुपये दिये हैं।


ज्ञानशंकर स्तम्भित हो गये। एक क्षण के बाद बोले, बिलकुल झूठ है।


गौस खाँ– हर्गिज नहीं। मेरे चपरासियों ने कादिर खाँ को अपनी जबान से यह कहते सुना है। उससे पूछा जाय तो वह आपसे भी साफ-साफ कह देगा, या आप अपने भाई से खुद पूछ सकते हैं।


ज्ञानशंकर निरुत्तर हो गये। उसी समय पैरगाड़ी सँभाली, झल्लाते हुए घर आये और श्रद्धा से तीव्र स्वर में बोले, भाभी तुमने देखी भैया की कारामात! आज पता चला कि आपने लखनपुर वालों को अपील की पैरवी करने के लिए एक हजार दिये हैं। इसका फल हुआ कि मेरी अपील खारिज हो गयी, महीनों की दौड़-धूप और हजारों रुपयों पर पानी फिर गया। एक हजार सालाना का नुकसान हुआ और रोब-दाब बिल्कुल मिट्टी में मिल गया। मुझे उनसे ऐसी कूटनीति की आशंका न थी। अब तुम्हीं बताओ उन्हें दोस्त समझूँ या दुश्मन?


श्रद्धा ने संशयात्मक भाव से कहा– तुम्हें किसी ने बहका दिया होगा। भला उनके पास इतने रुपये कहाँ होंगे?


ज्ञान– नहीं, मुझे पक्की खबर मिली है। जिन लोगों ने रुपये पाये हैं वे खुद अपनी जबान से कहते हैं।


श्रद्धा– तुमसे तो उन्होंने वादा किया था कि लखनपुर से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है, मैं वहाँ कभी न जाऊँगा।


ज्ञान– हाँ, कहा तो था और मैंने उन पर विश्वास कर लिया था, लेकिन आज विदित हुआ कि कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सारे संसार के मित्र होते हैं, पर अपने घर के शत्रु। जरूर इसमें चचा साहब का भी हाथ है।


श्रद्धा– पहले उनसे पूछ तो लो। मुझे विश्वास नहीं आता कि उनके पास इतने रुपये होंगे।


ज्ञान– उनकी कपट-नीति ने मेरे सारे मनूसबों को मिट्टी में मिला दिया। जब उनको मुझसे इतना वैमनस्य है तो मैं नहीं समझता कि मैं उन्हें अपना भाई कैसे समझूँ? बिरादरी वालों ने उनका जो तिरस्कार किया वह असंगत नहीं था विदेश-निवास आत्मीयता का नाश कर देता है।


श्रद्धा– तुम्हें भ्रम हुआ है।


ज्ञान– फिर वही बच्चों की-सी बातें करती हो। तुम क्या जानती हो कि उनके पास रुपये थे या नहीं?


श्रद्धा-तो जरा वहाँ तक चले ही क्यों नहीं जाते?


ज्ञान– अब नहीं जा सकता। मुझे उनकी सूरत से घृणा हो गयी। उन्होंने असामियों का पक्ष लिया है तो मैं भी दिखा दूँगा कि मैं क्या कर सकता हूँ। ज़मींदार के बावन हाथ होते हैं। लखनपुर वालों को ऐसा कुचलूँगा कि उनकी हड्डियों का पता न लगेगा। भैया के मन की बात मैं जानता हूँ। तुम सरल स्वाभावा हो, उनकी तह तक नहीं पहुँच सकती। उनका उद्देश्य इसके सिवा और कुछ नहीं है कि मुझे तंग करें, असामियों को उभाड़कर मुसल्लम गाँव हथिया लें और हम-तुम कहीं के न रहें। अब उन्हें खूब पहचान गया। रँगे हुए सियार हैं– मन में और– मुँह में और। और फिर जिसने अपना धर्म खो दिया वह जो कुछ न करे वह थोड़ा है। इनसे तो बेचारा ज्वालासिंह फिर भी अच्छा है। उसने जो कुछ किया न्याय समझकर किया, मेरा अहित न करना चाहता था। एक प्रकार से मैंने उसके साथ बड़ा अन्याय किया, उसे देश भर में बदनाम कर दिया। उन बातों को याद करने से ही दुःख होता है।


श्रद्धा– उनकी तो यहाँ से बदली हो गयी। शीलमणि की महरी आज आयी थी। कहती थी, तीन-चार दिन में चले जायेंगे। दर्जा भी घटा दिया गया है।


ज्ञानशंकर ने चौंककर कहा– सच!


श्रद्धा– शीलमणि कल आने वाली है। विद्या बड़े संकोच में पड़ी हुई है।


ज्ञान– मुझसे बड़ी भूल हुई। इसका शोक जीवन-पर्यन्त रहेगा। मुझे तो अब इसका विश्वास हो जाता है कि भैया ने उनके कान भी भर दिये थे। जिस दिन वह मौका देखने गये थे उसी दिन भैया भी लखनपुर पहुँचे। बस, इधर तो ज्वालासिंह को पट्टी पढ़ायी उधर गाँव वालों को पक्का-पोढ़ा कर दिया। मैं कभी कल्पना भी न कर सकता था कि वह इतनी दूर की कौड़ी लायेंगे, नहीं तो मैं पहले से ही चौकन्ना रहता।


श्रद्धा ने ज्ञानशंकर को अनादर की दृष्टि से देखा और वहाँ से उठ कर चली गयी। दूसरे दिन शीलमणि आयी और दिन भर वहाँ रही। चलते समय विद्या और श्रद्धा से गले मिलकर खूब रोयी।


ज्वालासिंह पाँच दिन और रहे। ज्ञानशंकर रोज उनसे मिलने का विचार करते, लेकिन समय आने पर कातर हो जाते थे। भय होता, कहीं उन्होंने उन आक्षेपूर्ण लेखों की चर्चा छेड़ दी तो क्या जवाब दूँगा? धाँधली तो कर सकता हूँ, साफ मुकर जाऊँ कि मैंने कोई लेख नहीं लिखा, मेरे नाम से तो कोई लेख छपा नहीं किन्तु शंका होती थी कि कहीं इस प्रपंच से ज्वालासिंह की आँखों में और न गिर जाऊँ।


पाँचवे दिन ज्वालासिंह यहाँ से चले। स्टेशन पर मित्र जनों की अच्छी संख्या थी। प्रेमशंकर भी मौजूद थे। ज्वालासिंह मित्रों के साथ हाथ मिला-मिलाकर विदा होते थे। गाड़ी के छूटने में एक-दो मिनट ही बाकी थे कि इतने में ज्ञानशंकर लपके हुए प्लेटफार्म पर आये और पीछे की श्रेणी में खड़े हो गये। आगे बढ़कर मिलने की हिम्मत न पड़ी। ज्वालासिंह ने उन्हें देखा और गाड़ी से उतरकर उनके पास आये और गले से लिपट गये। ज्ञानशंकर की आँखों से आँसू बहने लगे। ज्वालासिंह रोते थे कि चिरकाल की मैत्री का ऐसा शोकमय अन्त हुआ, ज्ञानशंकर रोते थे कि हाय! मेरे हाथों ऐसे सच्चे, निश्छल, निःस्पृह मित्र का अमंगल हुआ!


गार्ड ने झण्डी दिखाई तो ज्ञानशंकर ने कम्पित स्वर में कहा– , भाई जान, मैं अत्यन्त लज्जित हूँ।


ज्वालासिंह बोले– उन बातों को भूल जाइए।


ज्ञान– ईश्वर ने चाहा तो इसका प्रतिकार कर दूँगा।


ज्वाला– कभी-कभी पत्र के इस सदव्यवहार पर कुतूहल हुआ। उनके विचार में उस घाव का भरना दुस्तर था। उससे ज्यादा आश्चर्य प्रेमशंकर को हुआ, जो ज्ञानशंकर को उससे कहीं असज्जन समझते थे, जितने वह वास्तव में थे।


23.


अपील खारिज होने के बाद ज्ञानशंकर ने गोरखपुर की तैयारी की। सोचा, इस तरह तो लखनपुर से आजीवन गला न छूटेगा, एक-न-एक उपद्रव मचा ही रहेगा। कहीं गोरखपुर में रंग जम गया तो दो-तीन बरसों में ऐसे कई लखनपुर हाथ आ जायँगे। विद्या भी स्थिति का विचार करके सहमत हो गयी। उसने सोचा, अगर दोनों भाइयों में यों ही मनमुटाव रहा तो अवश्य ही बँटवारा हो जायेगा और तब एक हजार सालाना आमदनी में निर्वाह न हो सकेगा। इनसे और काम तो हो सकेगा नहीं। बला से जो काम मिलता है वही सही। अतएव जन्माष्टमी के उत्सव के बाद ज्ञानशंकर गोरखपुर जा पहुँचे। प्रेमशंकर से मुलाकात न की।


प्रभात का समय था। गायत्री पूजा पर थी कि दरबान ने ज्ञानशंकर के आने की सूचना दी। गायत्री ने तत्क्षण तो उन्हें अन्दर न बुलाया, हाँ जो पूजा नौ बजे समाप्त होती थी, वह सात ही बजे समाप्त कर दी। तब अपने कमरे में आकर उसने एक सुन्दर साड़ी पहनी, बिखरे हुए केश सँवारे और गौरव के साथ मसनद पर जा बैठी। लौंडी को इशारा किया कि ज्ञानशंकर को बुला लाय। वह अब रानी थी। यह उपाधि उसे हाल से ही प्राप्त हुई थी। वह ज्ञानशंकर से यथोचित आरोह से मिलना चाहती थी।


ज्ञानशंकर बुलाने की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्हें यहाँ का ठाट-बाट देखकर विस्मय हो रहा था। द्वार पर दो दरबान वरदी पहने टहल रहे थे। सामने की अंगनाई में एक घण्टा लटका हुआ था। एक ओर अस्तबल में कई बड़ी रास के घोड़े बँधे हुए थे। दूसरी ओर एक टीन के झोंपड़े में दो हवा गाड़ियाँ थीं। दालान में पिंजड़े लटकते थे, किसी में मैना थी किसी में पहाड़ी श्यामा, किसी में सफेद तोता। विलायती खरहे अलग कटघरे में पले हुए थे। भवन के सम्मुख ही एक बँगला था, जो फर्श और मेज-कुर्सियों से सजा हुआ था। यही दफ्तर था। यद्यपि अभी बहुत सबेरा था, पर कर्मचारी लोग अपने-अपने काम में लगे हुए थे। जिस कमरे में वह स्वयं बैठे हुए थे। वह दीवानखाना था। उसकी सजावट बड़े सलीके के साथ की गयी थी। ऐसी बहुमूल्य कालीनें और ऐसे बड़े-बड़े आईने उसकी निगाह से न गुजरे थे।


कई दलानों और आँगनों से गुजरने के बाद जब वह गायत्री की बैठक में पहुँचे तब उन्हें अपने सम्मुख विलायसमय सौन्दर्य की एक अनुपम मूर्ति नजर आयी जिसके एक-एक अंग से गर्व और गौरव आभासित हो रहा था। यह वह पहले की-सी प्रसन्न मुख सरल प्रकृति विनय पूर्ण गायत्री न थी।


ज्ञानशंकर ने सिर झुकाये सलाम किया और कुर्सी पर बैठ गये। लज्जा ने सिर न उठाने दिया। गायत्री ने कहा, आइए महाशय, आइए! क्या विद्या छोड़ती ही न थी? और तो सब कुशल है?


ज्ञान– जी हाँ, सब लोग अच्छी तरह हैं। माया तो चलते समय बहुत जिद कर रहा था कि मैं भी मौसी के घर चलूँगा, लेकिन अभी बुखार से उठे हुए थोड़े ही दिन हुए हैं, इसी कारण साथ न लाया। आपको नित्य याद करता है।


गायत्री– मुझे भी उसकी प्यारी-प्यारी भोली सूरत याद आती है। कई बार इच्छा हुई कि चलूँ, सबसे मिल जाऊँ, पर रियासत के झमेले से फुरसत ही नहीं मिलती। यह बोझ आप सँभालें तो मुझे जरा साँस लेने का अवकाश मिले। आपके लेख का तो बड़ा आदर हुआ। (मुस्कराकर) खुशामद करना कोई आप से सीख ले।


ज्ञान– जो कुछ था वह मेरी श्रद्धा का अल्पांश था।


गायत्री ने गुणज्ञता के भाव से मुस्कराकर कहा– जब थोड़ा-सा पाप बदनाम करने को पर्याप्त हो तो अधिक क्यों किया जाये? कार्तिक में हिज एक्सेलेन्सी यहाँ आने वाली हैं। उस अवसर पर मेरे उपाधि-प्रदान का जलसा करना निश्चय किया है। अभी तक केवल गजट में सूचना छपी है। अब दरबार में मैं यथोचित समारोह और सम्मान के साथ उपाधि से विभूषित की जाऊँगी।


ज्ञान– तब तो अभी से दरबार की तैयारी होनी चाहिए।


गायत्री– आप बहुत अच्छे अवसर पर आये। दरबार के मंडप में अभी से हाथ लगा देना चाहिए। मेहमानों का ऐसा सत्कार किया जाय कि चारों ओर धूम मच जाय। रुपये की जरा भी चिन्ता मत कीजिए। आप ही इस अभिनय के सूत्रधार हैं, आपके ही हाथों इसका सूत्रपात होना चाहिए। एक दिन मैंने जिलाधीश से आपका जिक्र किया था। पूछने, लगे, उनके राजनीतिक विचार कैसे हैं। मैंने कहा, बहुत ही विचारशील, शान्त प्रकृति के मनुष्य हैं। यह सुनकर बहुत खुश हुए और कहा, वह आ जायँ तो एक बार जल्से के सम्बन्ध में मुझसे मिल लें।


इसके बाद गायत्री ने इलाके की सुव्यवस्था और अपने संकल्पों की चर्चा शुरू की। ज्ञानशंकर को उसके अनुभव और योग्यता पर आश्चर्य हो रहा था। उन्हें भय होता कि कदाचित मैं इन कार्यों को उत्तम रीति से सम्पादन न कर सकूँ। उन्हें देहाती बैंकों का बिलकुल ज्ञान न था। निर्माण कार्य से परिचित न थे, कृषि के नये आविष्कारों से कोरे थे, किन्तु इस समय अपनी अयोग्यता प्रकट नितान्त अनुचित था। वह गायत्री की बातों पर ऐसी मर्मज्ञता से सिर हिलाते थे और बीच-बीच में टिप्पणियाँ करते थे, मानो इन विषयों में पारंगत हो। उन्हें अपनी बुद्धिमत्ता और चातुर्य पर भरोसा था। इसके बल पर वह कोई काम हाथ में लेते हुए न हिचकते थे।


ज्ञानशंकर को दो-चार दिन भी शान्ति से बैठकर काम को समझने का अवसर न मिला। दूसरे ही दिन दरबार की तैयारियों में दत्तचित्त होना पड़ा। प्रातः काल से सन्ध्या तक सिर उठाने की फुरसत न मिलती। बार-बार अधिकारियों से राय लेनी पड़ती, सजावट की वस्तुओं को एकत्र करने के लिए बार-बार रईसों की सेवा में दौड़ना पड़ता। ऐसा जान पड़ता था कि यह कोई सरकारी दरबार है लेकिन कर्त्तव्यशील उत्साहित पुरुष थे। काम से घबराते न थे। प्रत्येक काम को पूरी जिम्मेदारी से करते थे। वह संकोच और अविश्वास जो पहले किसी मामले में अग्रसर न होने देता था, अब दूर होता जाता था। उनकी अध्यवसायशीलता पर लोग चकित हो जाते थे। दो महीनों के अविश्रान्त उद्योग के बाद दरबार का इन्तजाम पूरा हो गया। जिलाधीश ने स्वयं आकर देखा और ज्ञानशंकर की तत्परता और कार्यदक्षता की खूब प्रशंसा की। गायत्री से मिले तो ऐसे सुयोग्य मैनेजर की नियुक्ति पर उसे बधाई दी। अभिनन्दन पत्र की रचना का भार भी ज्ञानशंकर पर ही था। साहब बहादुर ने उसे पढ़ा तो लोट-पोट हो गये और नगर के मान्य जनों से कहा, मैंने किसी हिन्दुस्तानी की कलम में यह चमत्कार नहीं देखा।


अक्टूबर मास की 15 तारीख दरबार के लिए नियत थी। लोग सारी रात जागते रहे। प्रातःकाल से सलामी की तोपें दगने लगीं, अगर उस दिन की कार्यवाही का संक्षिप्त वर्णन किया जाय तो एक ग्रन्थ बन जाय। ऐसे अवसरों पर उपन्यास अपनी कल्पना को समाचार-पत्रों के संवाददाताओं के सुपुर्द कर देता है। लेडियों के भूषणालंकारों की बहार, रईसों की सजधज की छटा देखनी हो, दावत की चटपटी, स्वाद युक्त सामग्रियों का मजा चखना हो और शिकार के तड़प-झड़प का आनन्द उठाना हो तो अखबारों के पन्ने उलटिए। वहाँ आपको सारा विवरण अत्यन्त सजीव, चित्रमय शब्दों में मिलेगा, प्रेसिडेन्ट रूजेवेल्ट शिकार खेलने अफ्रीका गये थे तो सम्वाददाताओं की एक मण्डली उनके साथ गयी थी। सम्राट जार्ज पंचम जब भारत वर्ष आये थे तब संवाददाताओं की एक पूरी सेना उनके जुलूस में थी। यह दरबार इतना महत्त्वपूर्ण न था, तिस पर भी पत्रों में महीनों तक इसकी चर्चा होती रही। हम इतना ही कह देना काफी समझते हैं कि दरबार विधिपूर्वक समाप्त हुआ, कोई त्रुटि न रही, प्रत्येत कार्य निर्दिष्ट समय पर हुआ। किसी प्रकार की अव्यवस्था न होने पायी। इस विलक्षण सफलता का सेहरा ज्ञानशंकर के सिर था। ऐसा मालूम होता था। कि सभी कठपुतलियाँ उन्हीं के इशारे पर नाच रहीं हैं। गर्वनर महोदय ने विदाई के समय उन्हें धन्यवाद दिया। चारों तरफ वाह-वाह हो गयी।


सन्ध्या समय था। दरबार समाप्त हो चुका था। ज्ञानशंकर नगर के मान्य जनों के साथ गवर्नर को स्टेशन तक विदा करके लौटे थे और एक कोच पर आराम से लेटे सिगार पी रहे थे। आज उन्हें सारा दिन दौड़ते गुजरा था, जरा भी दम लेने का अवकाश न मिला था। वह कुछ अलसाये हुए थे, पर इसके साथ ही हृदय पर वह उल्लास छाया हुआ था जो किसी आशातीत सफलता के बाद प्राप्त होता है। वह इस समय जब अपने कृत्यों का सिंहावलोकन करते थे तो उन्हें अपनी योग्यता पर स्वयं आश्चर्य होता था। अभी दो-ढाई मास पहले मैं क्या था? एक मामूली आदमी, केवल दो हजार सालाना का ज़मींदार! शहर में कोई मेरी बात भी न पूछता था, छोटे-छोटे अधिकारियों से भी दबता था और उनकी खुशामद करता था। अब यहाँ के अधिकारी वर्ग मुझसे मिलने की अभिलाषा रखते हैं। शहर के मान्य गण अपना नेता समझते हैं। बनारस में तो सारी उम्र बीत जाती, तब भी यह सम्मान-पद न प्राप्त होता। आज गायत्री का मिजाज भी आसमान पर होगा। मुझे जरा भी आशा न थी कि वह इस तरह बेधड़क मंच पर चली आयेगी वह मंच पर आयी तो सारा दरबार जगमगाने लगा था। उसके कुंदन वर्ण पर अगरई साड़ी कैसी छटा दिखा रही थी, उसके सौंदर्य आभा ने रत्नों की चमक-दमक को भी मात कर दिया था। विद्या इससे कहीं रूपवती है, लेकिन उसमें यह आकर्षण कहाँ, यह उत्तेजक शक्ति कहाँ, वह सगर्विता कहाँ, यह रसिकता कहाँ? इसके सम्मुख आकर आँखों पर, चित्त पर, जबान पर काबू रखना कठिन हो जाता है। मैंने चाहा था कि इसे अपनी ओर खींचूँ, इससे मान करूँ किन्तु कोई शक्ति मुझे बलात् उसकी ओर खींचे लिए जाती है। अब मैं रुक नहीं सकता। कदाचित वह मुझे अपने समीप आते देखकर पीछे हटती है; मुझसे स्वामिनी और सेवक के अतिरिक्त और कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहती। वह मेरी योग्यता का आदर करती है और मुझे अपनी सम्मान तृष्णा का साधन मात्र बनाना चाहती है। उसके हृदय में अब अगर कोई अभिलाषा है तो वह सम्मान-प्रेम है। यही अब उसके जीवन का मुख्य उद्देश्य है। मैं इसी आवाहन करके यहाँ पहुँचा हूँ और इसी की बदौलत एक दिन मैं उसके हृदय से प्रेम का बीच अंकुरित कर सकूँगा।


ज्ञानशंकर इन्हीं विचारों में मग्न थे। कि गायत्री ने अन्दर बुलाया और मुस्कराकर कहा, आज के सारे आयोजन का श्रेय आपको है। मैं हृदय से आपकी अनुगृहीत हूँ। साहब बहादुर ने चलते समय आपकी बड़ी प्रशंसा की। आपने मजूरों की मजूरी तो दिला दी है? मैं इस आयोजन में बेगार लेकर किसी को दुखी नहीं करना चाहती।


ज्ञान– जी हाँ, मैंने मुख्तार से कह दिया था।


गायत्री– मेरी ओर से प्रत्येक मजदूर को एक-एक रुपया दिला दीजिए।


ज्ञान– पाँच सौ मजूरों से कम न होंगे।


गायत्री– कोई हर्ज नहीं, ऐसे अवसर रोज नहीं आया करते। जिस ओवर-सियर ने पण्डाल बनवाया है, उसे १०० रु, इनाम दे दीजिए।


ज्ञान– वह शायद स्वीकार न करे।


गायत्री– यह रिश्वत नहीं, इनाम है। स्वीकार क्यों न करेगा? फर्राशों-आतशवाजों को भी कुछ मिलना चाहिए।


ज्ञान– तो फिर हलवाई और बावर्ची, खानसामे और खिदमतगार क्यों छोड़े जायँ।


गायत्री– नहीं, कदारि नहीं, उन्हें 20-20 रुपये से कम न मिले।


ज्ञान–  (हंसकर) मेरी सारी मितव्ययिता निष्फल हो गयी।


गायत्री– वाह, उसी की बदौलत तो मुझे हौसला हुआ। मजूर को मजूरी कितनी ही दीजिए खुश नहीं होगा, लेकिन इनाम पाकर खुशी से फूल उठता है। अपने नौकरों को भी यथायोग्य कुछ न कुछ दिलवा दीजिए।


ज्ञान– जी हाँ, जब बाहरवाले लूट मचायें तो घरवाले क्यों गीत गायें?


गायत्री– नहीं घरवालों को पहला हक है जो आठों पहर के गुलाम हैं। सब आदमियों को यहीं बुलाइए, मैं अपने हाथ से उन्हें इनाम दूँगी। इसमें उन्हें विशेष आनन्द मिलेगा।


ज्ञान– घण्टों की झंझट है। बारह बज जायँगे।


गायत्री– यह झंझट नहीं है। यह मेरी हार्दिक लालसा है। अब मुझे कई बड़े-बड़े अनुष्ठान करने हैं। यह मेरे जड़ाऊ कंगन हैं। यह विद्या के भेंट हैं, कल इसका पारसल भेज दीजिए और 500 रुपये नकद।


ज्ञान– (सिर झुकाकर) इसकी क्या जरूरत है? कौन सा मौका है?


गायत्री– और कौन सा मौका है? मेरे लड़के-लड़कियाँ भी तो नहीं हैं कि उनके विवाह में दिल के अरमान निकालूँगी। यह कंगन उसे पसन्द भी था। पिछले साल इटली से मँगवाया था। अब आपसे भी मेरी एक प्रार्थना है। आप मुझसे छोटे हैं। आप भी अपना हक वसूल कीजिए और निर्दयता के साथ।


ज्ञानशंकर ने शर्माते हुए कहा– मेरे लिए आपकी कृपा-दृष्टि ही काफी है। इस अवसर पर मुझे जो कीर्ति प्राप्त हुई है वही मेरा इनाम है।


गायत्री– जी नहीं, मैं न मानूँगी। इस समय संकोच छोड़िए और सूद खाने वालों की भाँति कठोर बन जाइए। यह आपकी कलम है, जिसने मुझे इस पद पर पहुँचाया है, नहीं तो जिले में मेरी जैसी कितनी ही स्त्रियाँ हैं, कोई उनकी बात भी नहीं पूछता। इस कलम की यथायोग्य पूजा किये बिना मुझे तस्कीन न होगी।


ज्ञान– इसकी जरूरत तो तब होती जब मुझे उससे कम आनन्द प्राप्त होता, जितना आपको हो रहा है।


गायत्री– मैं यह तर्क-वितर्क एक भी न सुनूँगी। आप स्वयं कुछ नहीं कहते इसलिए आपकी ओर से मैं ही कहे देती हूँ। आप अपने लिए बनारस में अपने घर से मिला हुआ एक सुन्दर बँगला बनवा लीजिए। चार कमरे हों और चारों तरफ बरामदों पर विलायती खपरैल हों और कमरों पर लदाव की छत। छत पर बरासात के लिए एक हवादार कमरा बना लीजिए। खुश हुए?


ज्ञानशंकर के कृतज्ञतापूर्ण भाव से देखकर कहा, खुश तो नहीं हूँ अपने ऊपर ईर्ष्या होती है।


गायत्री– बस, दीपमालिका से आरम्भ कर दीजिए। अब बतलाइए, माया को क्या दूँ?


ज्ञान– माया तो अभी कुछ चाहिए। उसका इनाम अपने पास अमानत रहने दीजिए।


गायत्री– आप नौ नकद न तेरह उधार वाली मसल भूल जाते हैं।


ज्ञान– अमानत पर तो कुछ न कुछ ब्याज मिलता है।


गायत्री– अच्छी बात है, पर इस समय उसके लिए कलकत्ता के किसी कारखाने से एक छोटा-सा टंडम मँगा दीजिए और मेरा टाँघन जो ताँगे में चलता है बरसात भेज दीजिए। छोटी लड़की के लिए हार बनवा दीजिए। जो 500 रुपये से कम का न हो।


ज्ञानशंकर यहाँ से चले तो पैर धरती पर न पड़ते थे। बँगले की अभिलाषा उन्हें चिरकाल से थी। वह समझते थे, यह मेरे जीवन का मधुर स्वप्न ही रहेगी, लेकिन सौभाग्य की एक दृष्टि ने यह चिरसंचित अभिलाषा पूर्ण कर दी।


आरम्भ उतसाहवर्द्धक हुआ, देखें अन्त क्या होता है?


24.


आय में वृद्धि और व्यय में कमी, यह ज्ञानशंकर के सुप्रबन्ध का फल था। यद्यपि गायत्री भी सदैव किफायत कर निगाह रखती थी, पर उनकी किफायत अशर्फियों की लूट और कोयलों पर मोहर को चरितार्थ करती थी। ज्ञानशंकर ने सारी व्यवस्था ही पलट दी। कारिन्दों की बेपरवाही से इलाके में जमीन के बड़े-बड़े टुकड़े परती पड़े थे। हजारों बीघे की सीर होती थी, पर अनाज का कहीं पता न चलता था, सब का सब सिपाही प्यादों की खुराक में उठ जाता था। पटवारी की साजिश और कारिन्दों की बेईमानी से कितनी ही उर्वरा भूमि ऊसर दिखाई जाती थी। सीर की सारी आमदनी राज्यधिकारियों के आदर-सत्कार्य के लिए भेंट उन्हें बड़ा गोल-माल दिखाई दिया। बहुत दिनों से इजाफा लगान न हुआ था। खेतों की जमाबन्दी भी किसी निश्चित नियत के अधीन न थी। हजारों रुपये प्रति वर्ष बट्टा खाते चले जाते थे। बड़े-बड़े टुकड़े मौरूसी हो गये थे। ज्ञानशंकर ने इन सभी मामलों की छानबीन शुरू की। सारे इलाके में हलचल मच गयी। गायत्री के पास शिकायतें पहुँचने लगीं और यद्यपि गायत्री असामियों के साथ नर्मी का बर्ताव करना पसन्द करती थी, जब ज्ञानशंकर ने हिसाब का ब्यौरा समझाया तो उसकी आँखें खुल गयीं। हजार से ज्यादा ऐसे असामी थे, जिन पर तत्काल बेदखली न दायर की जाती तो वे सदा के लिए ज़मींदार के काबू से बाहर हो जाते और २० हजार सालाना की क्षति होती। इजाफा लगान से आमदनी सवाई हुई जाती है। जिस रियासत से दो लाख सलाना भी न निकला था, उससे बिना अड़चन के तीन लाख की निकासी होती नजर आती थी। ऐसी दशा में गायत्री अपने सुयोग्य मैनेजर से क्यों न सहमत होती?


तीन वर्ष तक सारी रियासत में हाहाकार मचा रहा। ज्ञानशंकर को नाना प्रकार के प्रलोभन दिये गये, यहाँ तक कि मार डालने की धमकियाँ भी दी गयीं, पर वह अपने कर्मपथ से न हटे। यदि वह चाहते तो इन परिस्थितियों को अपरिमित धन संचय का साधन बना सकते थे, पर सम्मान और अधिकार ने अब उन्हें क्षुद्रताओं से निवृत्त कर दिया था।


किन्तु जो मंसूबे बाँधकर यहाँ आये थे वे अभी तक होते नजर न आते थे। गायत्री उनका लिहाज करती थी, प्रत्येक विषय में उन्हीं की सलाह पर चलती थी, लेकिन इसके साथ ही वह उनसे कुछ खिंची रहती थी। उन्हें प्रायः नित्य ही उससे मिलने का अवसर प्राप्त होता था। वह इलाके के दूरवर्ती स्थानों से भी मोटर पर लौट आया करते थे, लेकिन यह मुलाकात कार्य-सम्बन्धी होती थी। यहाँ प्रेम-दर्शन का मौका न मिलता, दो-चार लौंडियाँ खड़ी ही रहतीं, निराश होकर लौट आते थे। वह आग जो उन्होंने हाथ सेंकने के लिए जलायी थी, अब उनके हृदय को भी गरम करने लगी थी। उनकी आँखें गायत्री के दर्शनों की भूख रहती थीं, उसका मधुर भाषण सुनने के लिए विकल। यदि किसी दिन मजबूर होकर उन्हें देहात में ठहरना पड़ता या किसी कारण गायत्री से भेंट न होती तो उस अफीमची की भाँति अस्थिर चित्त हो जाते थे, जिसे समय पर अफीम न मिले।


एक दिन गायत्री ने प्रातःकाल ज्ञानशंकर को अन्दर बुलाया। आजकल मकान की सफाई और सुफेदी हो रही थी। दीपावलिका का उत्सव निकट था। गायत्री बगीचे में बैठी हुई चिड़ियों को दाना चुना रही थी। कोई लौड़ी न थी। ज्ञानशंकर का हृदय चिड़ियों की भाँति फुदकने लगा। आज पहली बार उन्हें ऐसा अवसर मिला। गायत्री ने उन्हें देखकर कहा, आज आपको बहुत जरूरी काम तो नहीं है? मैं आपसे एक खास मामले में कुछ राय लेना चाहती हूँ।


ज्ञानशंकर– कुछ हिसाब-किताब देखना था, लेकिन कोई ऐसा जरूरी काम नहीं है।


गायत्री– मेरे स्वामी ने अन्तिम समय मुझे वसीयत की थी कि अपने बाद यह इलाका धर्मार्पण कर देना और इसकी निगरानी और प्रबन्ध के लिए ट्रस्ट बना देना। मेरी अब इच्छा होती है कि उनकी वसीयत पूरी कर दूँ। जिन्दगी का कोई भरोसा नहीं, न जाने कब सन्देश आ पहुँचे। कहीं बिना लिखा-पड़ी किये मर गयी तो रियासत का बाँट बखरा हो जायेगा और वसीयत पानी की रेखा की भाँति मिट जायगी। मैं चाहती हूँ कि आप इस समस्या को हल कर दें इससे अच्छा अवसर फिर न मिलेगा।


ज्ञानशंकर की आँखों के सामने अँधेरा छा गया। उनकी अभिलाषाओं के त्रिभुज का आधार ही लुप्त हुआ जाता था। बोले, वसीयत लेख-बद्ध हो गयी है?


गायत्री– उनकी इच्छा मेरे लिए हजारों लेखों से अधिक मान्य है। यदि उन्हें मेरी फ़िक्र न होती तो अपने जीवनकाल में ही रियासत को धर्मार्पण कर जाते। केवल मान रखने के लिए उन्होंने इस विचार को स्थगित कर दिया। जब उन्हें मेरा इतना लिहाज था तो मैं भी उनकी इच्छा को देववाणी समझती हूँ


ज्ञानशंकर समझ गये कि इस समय कूटनीति से काम लेने की आवश्यकता है। अनुमोदन से विरोध का काम लेना चाहिए। बोले, अवश्य लेकिन पहले यह निश्चय कर लेना चाहिए कि परमार्थ का स्वरूप क्या होगा?


गायत्री– आप इस सम्बन्ध में लखनऊ जाकर पिता जी से मिलिए। अपने बड़े भाई साहब से राय लीजिए।


प्रेमशंकर की चर्चा सुनते ही ज्ञानशंकर के तेवरों पर बल पड़ गये। उनकी ओर से इनके हृदय में गाँठ-सी पड़ गयी थी। बोले, राय साहब से सम्मति लेनी तो आवश्यक है, वह बुद्धिमान् हैं, लेकिन भाई साहब को मैं कदापि इस योग्य नहीं समझता। जो मनुष्य इतना विचारहीन हो कि अपनी स्त्री को त्याग दे, मिथ्या सिद्धान्त-प्रेम के घमण्ड में बिरादरी का अपमान करे, और अपनी असाधुता को प्रजा-भक्ति का रंग देकर भाई की गर्दन पर छुरी चलाने में संकोच न करे, उससे इस धार्मिक विषय में कुछ पूछना व्यर्थ है। उनकी बदौलत मेरी एक हजार सलाना की हानि हो गयी और तीन साल गुजर जाने पर भी गाँव में शान्ति नहीं होने पायी, बल्कि उपद्रव बढ़ता ही चला जाता है। श्रद्धा इन्हीं अविचारों के कारण उनके घृणा करती है।


गायत्री– मेरी समझ में तो यह श्रद्धा का अन्याय है। जिस पुरुष के साथ विवाह हो गया, उसके साथ निर्वाह करना प्रत्येक कर्मनिष्ठ नारी का धर्म है।


ज्ञान– चाहे पुरुष नास्तिक और विधर्मी हो जाये?


गायत्री– हाँ, मैं तो ऐसा ही समझती हूँ। विवाह स्त्री-पुरुष के अस्तित्व को संयुक्त कर देता है। उनकी आत्माएँ एक-दूसरे में समाविष्ट हो जाती हैं।


ज्ञान– पुराने जमाने में लोगों के विचार ऐसे रहे हों, पर नया युग इसे नहीं मानता। वह स्त्री को सम्पूर्ण स्वाधीन ठहराता है। वह मनसा, वाचा कर्मणा किसी के अधीन नहीं है। परमात्मा से आत्मा का जो घनिष्ठ सम्बन्ध है उसके सामने मानवकृत सम्बन्ध की कोई हस्ती नहीं हो सकती। पश्चिम के देशों में आये दिन धार्मिक मतभेद के कारण तलाक होते रहते हैं।


गायत्री– उन देशों की बात न चलाइए, वहाँ के लोग विवाह को केवल सामाजिक बन्धन समझते हैं। आपने ही एक बार कहा था कि वहाँ कुछ ऐसे लोग भी हैं जो विवाह संस्कार को मिथ्या समझते हैं। उनके विचार में स्त्री-पुरुषों की अनुमति ही विवाह है, लेकिन भारतवर्ष में कभी इन विचारों का आदर नहीं हुआ।


ज्ञान– स्मृतियों में तो इसकी व्यवस्था स्पष्ट रूप से की गयी है।


गायत्री– की गयी है, मुझे मालूम है, लेकिन अभी उसका प्रचार नहीं हुआ। और क्यों होता जब कि हमारे यहाँ स्त्री-पुरुष दोनों एक साथ रहकर मतानुसार परमात्मा की उपासना कर सकते हैं पुरुष वैष्वण है, स्त्री शैव है पुरुष आर्य समाज में हैं, स्त्री अपने पुरातन सनातन धर्म को मानती है, वह ईश्वर को भी नहीं मानता, स्त्री ईंट और पत्थरों तक की पूजा-अर्चना करती है। लेकिन इन भेदों के पीछे पति-पत्नी में अलगाव नहीं हो जाता। ईश्वर वह कुदिन यहाँ न लाये जब लोगों में विचार स्वातन्त्र्य का इतना प्रकोप हो जाये।


ज्ञान– इसका कारण यही है कि हम भीरु प्रकृति के हैं, यथार्थ का सामना न करके मिथ्या आदर्श-प्रेम की आड़ में अपनी कमजोरी छिपाते हैं।


गायत्री– मैंने आपका आशय नहीं समझा।


ज्ञान– मेरा आशय केवल यही है कि लोक-निन्दा के भय से अपने प्रेम या अरुचि को छिपाना अपनी आत्मिक स्वाधीनता को खाक में मिलाना है। मैं उस स्त्री को सराहनीय नहीं समझता जो एक दुराचारी पुरुष से केवल भक्ति करती है कि वह उसका पति है। वह अपने उस जीवन की, जो सार्थक हो सकता है, नष्ट कर देती है। यही बात पुरुषों पर भी घटित हो सकती है। हम संसार में रोने और झींकने के लिए ही नहीं आये हैं और न आत्म-दमन हमारे जीवन का ध्येय है।


गायत्री– तो आपके कथन का निष्कर्ष यह है कि हम अपनी मनोवृत्तियों का अनुसरण करें, जिस ओर इच्छाएँ ले जायँ उसी ओर आँखें बन्द किये चले जायँ। उसके दमन की चेष्टा न करें। आपने पहले भी एक बार यही विचार प्रकट किया था। तब से मैंने इस पर अच्छी तरह गौर किया है, लेकिन हृदय इसे किसी भाँति स्वीकार नहीं करता। इच्छाओं को जीवन का आधार बनाना बालू की दीवार बनाना है। धर्म-ग्रन्थों में आत्म-दमन और संयम की अखंड महिमा कही की है, बल्कि इसी के मुक्ति का साधन बताया गया है। इच्छाओं और वासनाओं को ही मानव-पतन का मुख्य कारण सिद्ध किया गया है और मेरे विचार में यह निर्विवाद है। ऐसी दशा में पश्चिम वालों का अनुसरण करना नादानी है। प्रथाओं की गुलामी इच्छाओं की गुलामी से श्रेष्ठ है।


ज्ञानशंकर को इस कथन में बड़ा आनन्द आ रहा था। इससे उन्हें गायत्री के हृदय के भेद्य और अभेद्य स्थलों का पता मिल रहा था, जो आगे चलकर उनकी अभीष्ट-सिद्धि में सहायक हो सकता था। वह कुछ उत्तर देना ही चाहते थे कि एक लौंडी ने तार का लिफाफा लाकर उसके सामने रख दिया। ज्ञानशंकर ने चौंककर लिफाफा खोला। लिखा था, ‘जल्द आइए, लखनपुर वालों से फौजदारी होने का भय है।'


ज्ञानशंकर ने अन्यमनस्क भाव से लिफाफे को जमीन पर फेंक दिया। गायत्री ने पूछा, घर पर तो सब कुशल है न?


ज्ञानशंकर– लखनपुर से आया है, वहाँ फौजदारी हो गयी है। इस गाँव ने मेरी नाक में दम कर दिया। सब ऐसे दुष्ट हैं कि किसी तरह काबू में नहीं आते। यह सब भाई साहब की करतूत है।


गायत्री– तब तो आपको जाना पड़ेगा। कहीं मामला तूल न पकड़ गया हो।


ज्ञान– अबकी हमेशा के लिए निपटारा कर दूँगा। या तो गाँव से इस्तीफा दे दूँगा या सारे गाँव को ही जला दूँगा। वे लोग भी क्या याद करेंगे कि किसी से पाला पड़ा था!


गायत्री– लौटते हुए माया को जरूर लाइएगा, उसे देखने को बहुत जी चाहता है। विद्या को भी घसीट लायें तो क्या कहना! मैं तो लिखते-लिखते हैरान हो गयी।


ज्ञान– यही वही प्रथा की गुलामी है, जिसका आप बखान करती हैं। बहिन के घर जाने का साधारणतः रिवाज नहीं है? वह इसे क्योंकर तोड़ सकती है! कदाचित् इसी कारण आप भी वहाँ नहीं जा सकतीं।


गायत्री– (लजाकर) मैं इन बातों का परवाह नहीं करती, लेकिन यहाँ तो आप देखते हैं सिर उठाने की फुरसत नहीं।


ज्ञान– यही बहाना वह भी कर सकती है।


गायत्री– खैर वह न आये न सही, लेकिन माया को जरूर लाइएगा और वहाँ का समाचार लिखते रहिएगा। अवकाश मिलते ही चले आइएगा।


गायत्री का अन्तिम वाक्य ऐसा अकांक्षा-सूचक था कि ज्ञानशंकर के हृदय में गुदगुदी सी पैदा हो गयी। उन्हें यहाँ रहते तीन साल से ऊपर हो गये थे, कितनी ही बार बनारस आये, लेकिन गायत्री ने कभी लौटने के लिए ऐसा भावपूर्ण आग्रह न किया था। दिल ने कहा, शायद मेरा जादू कुछ असर करने लगा। बोले, तब भी दो सप्ताह से कम क्या लगेंगे।


गायत्री चिन्तित स्वर से बोली– दो सप्ताह?


ज्ञानशंकर को अपने विचार की पुष्टि हो गयी। नौ बजे वह डाकगाड़ी से रवाना हुए और ५ बजते-बजते बनारस पहुँच गये।


25


जिस समय ज्ञानशंकर की अपील खारिज हुई, लखनपुर के लोगों पर विपत्ति की घटा छायी हुई थी। कितने ही घर प्लेग से उजड़ गये। कई घरों में आग लग गयी। कई चोरियाँ हुईं। उन पर दैविक घटना अलग हुई, कभी आँधी आती कभी पानी बरसता। फाल्गुन के महीने में एक दिन ओले पड़ गये। सारी खेती नष्ट हो गयी। कब गाँववालों के लिए कोई सहारा न था। बिसेसर साह ने भी ज़मींदार के मुकाबले में सहायता देने से इनकार किया। स्त्रियों के गहने पहले ही निकल चुके थे। अब सुक्खू चौधरी के सिवा और कोई न था। जो अपील की पैरवी कर सकता था। लोग भाग्य पर भरोसा किये बैठे थे। किसी की दशा में प्रेमशंकर के भेजे हुए रुपयों ने बड़ा काम किया। मुर्दे जाग पड़े। कादिर खाँ दृढ़ प्रतिज्ञ होकर उठ खड़ा हुआ और जी तोड़कर मुकदमे की पैरवी करने लगा। लेकिन किसानों की नैतिक विजय वास्तविक पराजय से कम न थी। ज्ञानशंकर असामियों को इस दुस्साहस का दंड देने के लिए उधार खाए बैठे थे। अभी गाँव के लोग झोपड़ी में ही थे कि गौस खाँ अपने तीनों चपरासियों के लिए हुए आए और झोंपड़े में आग लगवा दी। बाग की भूमि ज़मींदार की थी। असामियों को वहाँ झोपड़े बनवाने का कोई अधिकार न था। चपरासियों में दो बिलकुल नये थे– फैज और कर्तार। दोनों लकड़ी चलाने में कुशल थे, कई बार सजा पाए हुए। उनके हृदय में दया और शील का नाम न था पुराने आदमियों में केवल बिन्दा महाराज अपनी कुटिल नीति की बदौलत रह गये थे। अभी तक ताऊन की ज्वाला शान्त न हुई थी कि लोगों को विवश होकर बस्ती में आना पड़ा, जिसका फल यह हुआ कि दूसरे ही दिन ठाकुर डपटसिंह प्लेग के झोंके में आ गये और कल्लू अहीर मरते-मरते बच गया। जितनी आरजू मिन्नत हो सकती थी वह सब्र की गयी, लेकिन अत्याचारियों पर कुछ असर न हुआ। झपट तो मर जाने के लिए तैयार हुआ। लट्ठ चलाकर बोला, गौस को आज जीता न छोड़ूँगा। अब क्या भय है? लेकिन कादिर खाँ उसके पैरों पर गिर पड़ा और समझा-बुझाकर घर लौटाया।


लखनपुर में एक बहुत बड़ा तालाब था। गाँव भर के पशु उसमें पानी पीते थे। नहाने-धोने का काम भी उससे चलता था।


जून का महीना था, कुओं का पानी पाताल तक चला गया था। आस-पास के सब गढ़े और तालाब सूख गये थे। केवल इसी बड़े तालाब में पानी रह गया था। ठीक उसी समय गौस खाँ ने उस तालाब का पानी रोक दिया। दो चपरासी किनारे आकर डट गये और पशुओं को मार-मार कर भगाने लगे। गाँव वालों ने सुना तो चकराये। क्या सचमुच ज़मींदार तालाब का पानी भी बन्द कर देगा। यह तालाब सारे गाँव का जीवन स्रोत था। लोगों को कभी स्वप्न में भी अनुमान न हुआ था कि ज़मींदार इतनी जबरदस्ती कर सकता है, उसका चिरकाल से इस पर अधिकार था। पर आज उन्हें ज्ञात हुआ कि इस जल पर हमारा स्वत्व नहीं है। यह ज़मींदार की कृपा थी कि वह इतने दिनों तक चुप रहा; किन्तु चिरकालीन कृपा भी स्वत्व का रूप धारण कर लेती हैं। गाँव के लोग तुरन्त तालाब के तट पर जमा हो गये और चपरासियों से वाद-विवाद करने लगे। कादिर खाँ ने देखा बात बढ़ा चाहती है तो वहाँ से हट जाना उचित समझा। जानते थे कि मेरे पीछे और लोग टल जायेंगे। किन्तु दो ही चार पग चले थे कि सहसा सुक्खू चौधरी ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोले, कहाँ जाते हो कादिर भैया! जब तक यहाँ कोई निबटारा न हो जाय, तुम जाने न पाओगे। जब जा-बेजा हर एक मामले में इसी तरह दबना है, तो गाँव से सरगना काहे को बनते हो?


कादिर खाँ– तो क्या कहते हो लाठी चलाऊँ?


सुक्खू– और लाठी है किस दिन के लिए?


कादिर– किसके बूते पर लाठी चलेगी? गाँव में रह कौन गया है? अल्लाह ने पट्ठो को चुन लिया।


सुक्खू– पट्ठे नहीं हैं न सही, बूढ़े तो हैं? हम लोग की जिन्दगानी किस रोज काम आयेगी?


गौस खाँ को जब मालूम हुआ कि गाँव के लोग तालाब के तट पर जमा हैं तो वह भी लपके हुए आ पहुँचे और गरजकर बोले, खबरदार! कोई तालाब की तरफ कदम न रखे। सुक्खू आगे बढ़ आये और कड़ककर बोले, किसकी मजाल है जो तालाब का पानी रोके! हम और हमारे पुरुखा इसी से अपना निस्तार करते चले आ रहे हैं। ज़मींदार नहीं ब्रह्मा आकर कहें तब भी इसे न छोड़ेंगे, चाहे इसके पीछे सरबस लुट जाये।


गौस खाँ ने सुक्खू चौधरी को विस्मित नेत्रों से देखा और कहा, चौधरी, क्या इस मौके पर तुम भी दगा दोगे? होश में आओ।


सुक्खू– तो क्या आप चाहते हैं कि जमींदारी की खातिर अपने हाथ कटवा लूँ? पैरों में कुल्हाड़ी मार लूँ? खैरख्वाही के पीछे अपना हक नहीं छोड़ सकता।


करतार चपरासी ने हँसी करते हुए कहा, अरे तुमका का परी है, है कोऊ आगे-पीछे? चार दिन में हाथ पसारे चले जैहो। ई ताल तुमरे सँग न जाई।


वृद्धाजन मृत्यु का व्यंग्य नहीं सह सकते। सुक्खू ऐंठकर बोले– क्या ठीक है कि हम ही पहले चले जायेंगे? कौन जाने हमसे पहले तुम्हीं चले जाओ। जो हो, हम तो चले जायेंगे, पर गाँव तो हमारे साथ न चला जायेगा?


गौस खाँ– हमारे सलूकों का यही बदला है?


सुक्खू– आपने हमारे साथ सलूक किये हैं तो हमने भी आपके साथ सूलक किये हैं और फिर कोई सलूक के पीछे अपने हक-पद को नहीं छोड़ सकता।


फैजू– तो फौजदारी करने का अरमान है?


सुक्खू– तो फौजदारी क्यों करें, क्या हाकिम का राज नहीं है? हाँ, जब हाकिम न सुनेगा तो जो तुम्हारे मन में है वह भी हो जायेगा। यह कहकर सुक्खू ताल के किनारे से चले आये और उसी वक्त बैलगाड़ी पर बैठकर अदालत चले। दूसरे दिन दावा दायर हो गया।


लाला मौजीलाल पटवारी की साक्षी पर हार-जीत निर्भर थी। उनकी गवाही गाँव वालों के अनुकूल हुई। गौस खाँ ने उसे फोड़ने में कोई कसर न उठा रखी, यहाँ तक कि मार-पीट की भी धमकी दी। पर मौजीलाल का इकलौता बेटा इसी ताऊन में मर चुका था। इसे वह अपने पूर्व संचित पापों का फल समझते थे। सन्मार्ग से विचलित न हुए। बेलाग साक्षी दी। सुक्खू चौधरी की डिगरी हो गयी और यद्यपि उनके कई सौ रुपये खर्च हुए पर गाँव में उनकी खोई प्रतिष्ठा फिर जम गयी। धाक बैठ गयी। सारा गाँव उनका भक्त हो गया। इस विजय का आनन्दोत्सव मनाया गया। सत्यनारायण की कथा हुई, ब्राह्मणों का भोज हुआ और तालाब के चारों ओर पक्के घाट की नींव पड़ गयी। गौस खाँ के भी सैकड़ों रुपये खर्च हो गये। ये काँटे उन्होंने ज्ञानशंकर से बिना पूछे ही बोये थे। इसलिए इसका फल भी उन्हीं को खाना पड़ा। हराम का धन हराम की भेंट हो गया।


गौस खाँ यह चोट खाकर बौखला उठे। सुक्खू चौधरी उनकी आँखों में काँटे की तरह खटकने लगा। दयाशंकर इस हल्के से बदल गये थे। उनकी जगह पर नूर आलम के एक दूसरे महाशय नियुक्त हुए थे। गौस खाँ ने इनके राह-रस्म पैदा करना शुरू किया। दोनों आदमियों में मित्रता हो गयी और लखनपुर पर नयी-नयी विपत्तियों का आक्रमण होने लगा।


वर्षा के दिन थे। किसानों को ज्वार और बाजरे की रखवाली से दम मारने का अवकाश न मिलता। जिधर देखिए हा-हू की ध्वनि आती थी। कोई ढोल बजाता था, कोई टीन के पीपे पीटता था। दिन को तोतों के झुंड टूटते थे, रात को गीदड़ के गोल; उस पर धान की क्यारियों में पौधे बिठाने पड़तें थे। पहर रात रहे ताल में जाते और पहर रात गये आते थे। मच्छरों के डंक से लोगों की देह में छालें पड़ जाते थे। किसी का घर गिरता था, किसी के खेत में मेड़े कटी जाती थीं। जीवन-संग्राम की दोहाई मची हुई थी। इसी समय दारोगा नूर आलम ने गाँव में छापा मारा। सुक्खू चौधरी ने कभी कोकीन का सेवन नहीं किया था, उसकी सूरत नहीं देखी थी, उसका नाम नहीं सुना था, लेकिन उनके घर में एक तोला कोकीन बरामद हुई। फिर क्या था, मुकदमा तैयार हो गया। माल के निकलने की देर थी, हिरासत में आ गये। उन्हें विश्वास हो गया कि मैं बरी न हो सकूँगा। उन्होंने स्वयं कई आदमियों को इसी भाँति सजा दिलायी थी। हिरासत में आने के एक क्षण पहले वह घर से गये और एक हाँडी लिये हुए आये। गाँव के सब आदमी जमा थे। उनसे बोले, भाइयो, राम-राम! अब तुमसे बिदा होता हूँ। कौन जाने फिर भेंट हो या न हो! बूढ़े आदमी की जिन्दगानी का क्या भरोसा ऐसे ही भाग होंगे तो भेंट होगी। इस हाँडी में पाँच हजार रुपये हैं यह कादिर भाई को सौंपता हूँ। तालाब का घाट बनवा देना। जिन लोगों पर मेरा जो कुछ आता है वह सब छोड़ता हूँ। यह देखो, सब कागज-पत्र अब तुम्हारे सामने फाड़े डालता हूँ। मेरा किसी के यहाँ कुछ बाकी नहीं।, सब भर पाया।


दरोगा जी वहीं उपस्थित थे। रुपयों की हाँडी देखते ही लार टपक पड़ी। सुक्खू को बुलाकर कान में कहा, कैसे अहमक हो कि इतने रुपये रखकर भी बचने की फिक्र नहीं करते?


सुक्खू-अब बचकर क्या करना है ! क्या कोई रोने वाला बैठा है?


नूर आलम– तुम इस गुमान में होगे कि हाकिम को तुम्हारे बुढ़ापे पर तरस आ जायेगी। और वह तुमको बरी कर देगा। मगर इस धोखे में न रहना। यह डटकर रिपोर्ट लिखूँगा और ऐसी मोतबिर शहादत पेश करूँगा कि कोई बैरिस्टर भी जबान ना खोल सकेगा। मैं दयाशंकर नहीं हूँ, मेरा नाम नूर आलम है। चाहूँ तो एक बार खुदा को भी फँसा दूँ।


सुक्खू ने फिर उदासीन भाव से कहा, आप जो चाहें करें। अब जिन्दगी में कौन-सा सुख है कि किसी का ठेंगा सिर पर लूँ? गौस खाँ का दया-स्रोत्र उबल पड़ा। फैजू और कर्तार भी बुलबुला उठे और बिन्दा महाराज तो हाँडी की ओर टकटकी लगाये ताक रहे थे।


सब ने अलग-अलग और फिर मिलकर सुक्खू को समझाया; लेकिन वह टस से मस न हुए। अन्त में लोगों ने कादिर को घेरा। नूर आलम ने उन्हें अलग से जाकर कहा, खाँ साहब, इस बूढ़े को जरा समझाओ क्यों जान देने पर तुला हुआ है? दो साल से कम की सजा न होगी। अभी मामला मेरे हाथ में है। सब कुछ हो सकता है। हाथ से निकल गया तो कुछ न होगा। मुझे उसके बुढ़ापे पर तरस आता है।


गौस खाँ बोले– हाँ, इस वक्त इस पर रहम करना चाहिए। अब की ताऊ ने बेचारे का सत्यानाश कर दिया।


कादिर खाँ जाकर सुक्खू को समझाने लगे। बदनामी का भय दिखाया, कारावास की कठिनाइयाँ बयान कीं, किन्तु सुक्खू जरा भी न पसीजा। जब कादिर खाँ ने बहुत आग्रह किया और गाँव के सब लोग एक स्वर से समझाने लगे तो सुक्खू उदासीन भाव से बोला, तुम लोग मुझे क्या समझाते हो? मैं कोई नादान बालक नहीं हूँ। कादिर खाँ से मेरी उम्र दो-ही-चार दिन कम होगी। इतनी बड़ी जिन्दगानी अपने बन्धुओं को बुरा करने में कट गयी। मेरे दादा मरे तो घर में भूनी भाँग तक न थी। कारिन्दों से मिल कर मैं आज गाँव का मुखिया बन बैठा हूँ। चार आदमी मुझे जानते हैं और मेरा आदर करते हैं, पर अब आँखों के सामने से परदा हट गया। उन कर्मों का फल कौन भोगेगा? भोगना तो मुझी को है, चाहे यहाँ भोगूँ, चाहे नरक में। यह सारी हाँडी मेरे पापों से भरी हुई है। इसी ने मेरे कुल का सर्वनाश कर दिया। कोई एक चुल्लू पानी देने वाला न रहा। यह पाप की कमाई पुण्य कार्य में लग जाय तो अच्छा है। घाट बनवा देना, अगर कुछ और लगे तो अपने पास से लगा देना। मैं जीता बचा तो कौड़ी-कौड़ी चुका दूँगा।


दूसरे दिन सुक्खू का चालान हुआ। फैजू और कर्तार ने पुलिस की ओर से साक्षी दी। माल बरामद हो ही गया था। कई हजार रुपयों का घर से निकलना पुष्टिकारक प्रमाण हो गया। कोई वकील भी न था। पूरे दो साल की सजा हो गयी। निरपराध निर्दोष सुक्खू गौस खाँ के वैमनस्य और ईर्ष्या का लक्ष्य बन गया।


सारा गाँव थर्रा उठा। इजाफा लगान के खारिज होने में लोगों ने समझा था कि अब किसी बात की चिन्ता न रही। मानो ईश्वर ने अभय प्रदान कर दिया। पर अत्याचार के ये नये कथकंडे देख कर सबके प्राण सूख गये। जब सुक्खू चौधरी जैसा शक्तिशाली मनुष्य दम-के-दम में तबाह हो गया तो दूसरों का कहना ही क्या? किन्तु गौस खाँ को अब भी सन्तोष न हुआ। उनकी यह लालसा कि सारा गाँव मेरा गुलाम हो जाय, मेरे इशारे पर नाचे, अभी तक पूरी न हुई थी। मौरूसी काश्तकारों में अभी तक कई आदमी बचे हुए थे। कादिर खाँ अब भी था, बलराज और मनोहर अब भी आँखों में खटकते थे। यह सब इस बाग के काँटे थे। उन्हें निकाले बिना सैर करने का आनन्द कहाँ?


लखनपुर शहर से दस मील की दूरी पर था। हाकिम लोग आते और जाते यहाँ जरूर ठहरते। अगहन का महीना लगा ही था कि पुलिस के एक बड़े अफसर का लश्कर आ पहुँचा। तहसीलदार स्वयं रसद का प्रबन्ध करने के लिए आये। चपरासियों की एक फौज साथ थी। लश्कर में सौ सवा-सौ आदमी थे। गाँव के लोगों ने यह जमघट देखा तो समझा कि कुशल नहीं है। मनोहर ने बलराज को ससुराल भेज दिया और ससुराल वालों को कहला भेजा कि इसे चार-पाँच दिन न आने देना। लोग अपनी लकड़ियाँ और भूसा उठा-उठाकर घरों में रखने लगे। लेकिन बोवनी के दिन थे; इतनी फुरसत किसे थी?


प्रातःकाल बिसेसर साह की दूकान खोल ही रहे थे कि अरदली के दस-बारह चपरासी दुकान पर आ पहुँचे। बिसेसर ने आटे-दाल के बोरे खोल दिये; जिन्सें तौली जाने लगीं। दोपहर तक यही ताँता लगा रहा। घी के कनस्तर खाली हो गये। तीन पड़ाव के लिए जो सामग्री एकत्र की थी, अभी समाप्त हो गयी। बिसेसर के होश उड़ गये। फिर आदमी मंडी दौड़ाये। बेगार की समस्या इससे कठिन थी। पाँच बड़े-बड़े घोड़ों के लिए हरी घास छीलना सहज नहीं था। गाँव के सब चमार इस काम में लगा दिये गये। कई नोनिये पानी भर रहे थे। चार आदमी नित्य सरकारी डाक लेने के लिए सदर दौड़ाये जाते थे। कहारों को कर्मचारियों की खिदमत से सिर उठाने की फुरसत न थी। इसलिए जब दो बजे साहब ने हुक्म दिया कि मैदान में घास छीलकर टेनिस कोर्ट तैयार किया जाय तो वे लोग भी पकड़े गये जो अब तक अपनी वृद्धावस्था या जाति सम्मान के कारण बचे हुए थे। चपरासियों ने पहले दुखरन भगत को पकड़ा। भगत ने चौंककर कहा, क्यों मुझसे क्या काम है? चपरासी ने कहा, चलो लश्कर में घास छीलनी है।


भगत– घास चमार छीलते हैं, यह हमारा काम नहीं है।


इस पर चपरासी ने उनकी गरदन पकड़कर आगे धकेला और कहा चलते हो या यहाँ कानून बघारते हो?


भगत– अरे तो ऐसा क्या अन्धेर है? अभी ठाकुर जी का भोग तक नहीं लगा।


चपरासी– एक दिन में ठाकुर जी भूखों न मर जायेंगे।


भगत ने वाद-विवाद करना उचित न समझा, सिपाहियों के बीच से निकल गये और भीतर जाकर किवाड़ बन्द कर दिये। सिपाहियों ने धड़ाधड़ किवाड़ पीटना शुरू किया। एक सिपाही ने कहा, लगा दें आग, वहीं भुन जाये। दुखरन ने भीतर से कहा, बैठो भोग लगाकर आ रहा हूँ। चपरासियों ने खपरैल फोड़ने शुरू किए। इतने में कई चपरासी कादिर खाँ आदि को साथ लिये आ पहुँचे। डपटसिंह पहर रात रहे घर से गायब हो गये थे। कादिर ने कहा, भगत घर में क्यों घुसे बैठे हो? चलो; हम लोग भी चलते हैं। भगत ने द्वार खोला और बाहर निकल आये। कादिर हँसकर बोले– आज हमारी-तुम्हारी बाजी है। देखें कौन ज्यादा घास छीलता है। भगत ने कुछ उत्तर न दिया। सब लश्कर के मैदान में आये और घास छीलने लगे।


मनोहर ने कहा– खाँ साहब के कारण हम भी चमार हो गये।


दुखरन्– भगवान् की इच्छा। जो कभी न किया, वह आज करना पड़ा।


कादिर– ज़मींदार के असामी नहीं हो? खेत नहीं जोतते हो?


मनोहर– खेत जोतते हैं तो उसका लगान नहीं देते हैं? कोई भकुआ एक पैसा भी तो नहीं छोड़ता।


कादिर– इन बातों में क्या रखा है? गुड़ खाया है तो कान छिदाने पड़ेंगे। कुछ और बातचीत करो। कल्लू, अबकी तुम ससुराल में बहुत दिन तक रहे। क्या-क्या मार लाये?


कल्लु– मार लाया? यह कहो जान लेकर आ गया। यहाँ से चला तो कुल साढ़े तीन रुपये पास थे। एक रुपये की मिठाई ली, आठ आने रेल का किराया दिया, दो रुपये पास रख लिये। वहाँ पहुँचते ही बड़े साले ने अपना लड़का लाकर मेरी गोद में रख दिया। बिना कुछ दिये उसे गोद में कैसे लेता? कमर से एक रुपया निकालकर उसके हाथ में रख दिया। रात को गाँव भर की औरतों ने जमा होकर गाली गायीं। उन्हें भी कुछ नेग-दस्तूर मिलना ही चाहिए था। एक ही रुपये की पूँजी थी, वह उनकी भेंट की। न देता तो नाम हँसाई होती। मैंने समझा, यहाँ रुपयों का काम ही क्या है और चलती बेर कुछ न कुछ बिदाई मिल ही जायेगी। आठ दिन चैन से रहा। जब चलने लगा तो सामने एक मटका खाँड़, एक टोकरी ज्वार की बाल और एक थैली में कुछ खटाई भर कर दी। पहुँचाने के लिए एक आदमी साथ कर दिया। बस बिदाई हो गयी। अब बड़ी चिन्ता हुई कि घर तक कैसे पहुँचूँगा? जान न पहचान, माँगूँ किससे? उस आदमी के साथ टेसन तक आया। इतना बोझ लेकर पैदल घर तक आना कठिन था। बहुत सोचते-समझते सूझी कि चलकर ज्वार की बाल कहीं बेच दूँ। आठ आने भी मिल जायेंगे। तो काम चल जायेगा। बाजार में आकर एक दूकानदार से पूछा, बालें लोगे? उसने दाम पूछा। मेरे मुँह से निकला दाम तो मैं नहीं जानता, आठ आने दो, ले लो। बनिये ने समझा चोरी का माल है। थैला पटका, बालें रखवा लीं और कहा चुपके से चले जाओ, नहीं तो चौकीदार को बुलाकर थाने भिजवा दूँगा तो भैया क्या करता? सब कुछ वहीं छोड़कर भागा। दिन भर का भूखा-प्यासा पहर रात घर आया। कान पकड़े कि अब ससुराल न जाऊँगा।


कादिर– तुम तो सस्ते ही छूट गये। एक बेर मैं भी ससुराल गया था। जवानी की उमर थी। दिन-भर धूप में चला तो रतौंधी हो गयी। मगर लाज के मारे किसी से कहा तक नहीं। खाना तैयार हुआ तो साली दालान में बुलाकर भीतर चली गयी। दालान में अँधेरा था। मैं उठा तो कुछ सूझा ही नहीं कि किधर जाऊँ। न किसी को पुकारते बने, न पूछते। इधर-उधर टटोलने लगा। वहीं एक कोने में मेढ़ा बँधा हुआ था। मैं उसके ऊपर जा पहुँचा। वह मेरे पैर के नीचे से झपटकर ऊपर उठा और मुझे एक ऐसा सींग मारा कि मैं दूर जा गिरा। यह धमाका सुनते वही साली दौड़ी हुई आयी और अन्दर ले गयी। आँगन में मेरे ससुर और दो-तीन बिरादर बैठे हुए थे। मैं भी जा बैठा। पर सूझता न था कि क्या करूँ। सामने खाना रखा था। इतने में मेरी सास कड़े-छड़े पहने छन-छन करती हुई दाल की रकाबी में घी डालने आयी। मैंने छन-छन की आवाज सुनी तो रोंगटे खड़े हो गये। अभी तक घुटों में दर्द हो रहा था। समझा कि शायद मेढ़ा छूट गया। खड़ा होकर लगा पैंतरे बदलने। सास को भी एक घूँसा लगाया। घी की प्याली उनके हाथ से छूट पड़ी। वह घबड़ा के भागीं। लोगों ने दौड़कर मुझे पकड़ा और पूछने लगे, क्या हुआ, क्या हुआ? शरम के मारे मेरी जबान बन्द हो गयी। कुछ बोली ही न निकली। साला दौड़ा हुआ गया और एक मौलवी को लिवा आया। मौलवी ने देखते ही कहा, इस पर सईद मर्द सवार है। दुआ-ताबीज होने लगी। घर में किसी ने खाना न खाया। सास और ससुर मेरे सिरहाने बैठे बड़ी देर तक रोते रहे और मुझे बार-बार हँसी आये। कितना ही रोकूँ हँसी न रुके। बारे मुझे नींद आ गयी। भोरे उठ कर मैंने किसी से कुछ न पूछा न ताछा, सीधे घर की राह ली। दुखरन भगत, अपनी ससुराल की बात तुम भी कहो।


दुखरन– मुझे इस बखत मसखरी नहीं सूझती। यही जी चाहता है कि सिर पटक कर मर जाऊँ।


मनोहर– कादिर भैया, आज बलराज होता तो खून-खराबी हो जाती। उससे यह दुर्गत न देखी जाती।


कादिर– फिर वह दुखड़ा ले बैठे। अरे जो अल्लाह को यहीं मंजूर होता कि हम लोग इज्जत-आबरू से रहें तो कास्तकार क्यों बनाता? ज़मींदार न बनाता, चपरासी न बनाता, थाने का कान्सटेबिल न बनाता कि बैठे-बैठे दूसरों पर हुकुम चलाया करते? नहीं तो यह हाल है कि अपना कमाते हैं, अपना खाते हैं, फिर भी जिसे देखो धौंस जमाया करता है। सभी की गुलामी करनी पड़ती है। क्या ज़मींदार, क्या सरकार, क्या हाकिम सभी की निगाह हमारे ऊपर टेढ़ी है। और शायद अल्लाह भी नाराज हैं। नहीं तो क्या हम आदमी नहीं हैं। कि कोई हमसे बड़ा बुद्धिमान है? लेकिन रो कर क्या करें? कौन सुनता है? कौन देखता है? खुदा ताला ने आँखें बन्द कर लीं। जो कोई भलामानुष दरद बूझाकर हमारे पीछे खड़ा भी हो जाता है तो बेचारे की जान भी आफत में फँस जाती है। उसे तंग करने के लिए, फँसाने के लिए तरह-तरह के कानून गढ़ लिए जाते हैं। देखते तो हो, बलराज के अखबार में कैसी-कैसी बातें लिखी रहती हैं। यह सब अपनी तकदीर की खूबी है।


यह कहते-कहते कादिर खाँ रो पड़े। वह हृदय-ताप जिसे वह हास्य और प्रमोद से दबाना चाहते थे, प्रज्वलित हो उठा। मनोहर ने देखा तो उसकी आँखें रक्तपूर्ण हो गयीं– पददलित अभिमान की मूर्ति की तरह।


चारों में से कोई न बोला। सब के सब सिर झुकाये चुपचाप घास छीलते रहे, यहाँ तक कि तीसरा पहर हो गया। सारा मैदान साफ हो गया। सबने खुरपियाँ रख दीं और कमर सीधी करने के लिए जरा लेट गये। बेचारे समझते थे कि गला छूट गया, लेकिन इतने में तहसीलदार साहब ने आकर हुक्म दिया, गोबर लाकर इसे लीप दो, खूब चिकना कर दो, कोई कंकड़-पत्थर न रहने पाये। कहाँ हैं नाजिर जी, इन सबको डोल रस्सी दिलवा दीजिए।


नाजिर जी ने तुरन्त डोल और रस्सी मँगाकर रख दी। कादिर खाँ ने डोल उठाया और कुएँ की तरफ चले, लेकिन दुखरन भगत ने घर का रास्ता लिया तहसीलदार ने पूछा, इधर कहाँ?


दुखरन ने उद्दण्डता से कहा– घर जा रहा हूँ।


तहसीलदार– और लीपेगा कौन?


दुखरन– जिसे गरज होगी वह लीपेगा।


तहसीलदार– इतने जूते पड़ेंगे कि दिमाग की गरमी उतर जायेगी।


दुखरन– आपका अख्तियार है– जूते मारिये चाहें फाँसी दीजिए, लेकिन लीप नहीं सकता।


कादिर– भगत, तुम कुछ न करना। जाओ, बैठे ही रहना। तुम्हारे हिस्से का काम मैं कर दूँगा।


दुखरन– मैं तो अब जूते खाऊँगा। जो कसर है वह भी पूरी हो जाये।


तहसीलदार– इस पर शामत सवार है। है कोई चपरासी, जरा लगाओ तो बदमाश को पचास जूते, मिजाज ठंडा हो जाये!


यह हुक्म पाते ही एक चपरासी ने लपककर भगत को इतने जोर से धक्का दिया कि वह जमीन पर गिर पड़े और जूते लगाने लगा। भगत् जड़वत् भूमि पर पड़ रहे। संज्ञा शून्य हो गये, उनके चेहरे पर क्रोध या ग्लानि का चिह्न भी न था। उनके मुख से हाय तक न निकलती थी। दीनता ने समस्त चैतन्य शक्तियों का हनन कर दिया था। कादिर खाँ कुएँ पर से दौड़े हुए आये और उस निर्दय चपरासी के सामने सिर झुककर बोले, सेख जी, इनके बदले मुझे जितना चाहिए मार लीजिए, अब बहुत हो गया।


चपरासी ने धक्का देकर कादिर खाँ को ढकेल दिया और फिर जूता उठाया कि अकस्मात् सामने से एक इक्के पर प्रेमशंकर और डपटसिंह आते दिखाई दिये। प्रेमशंकर पर हृदय-विदारक दृश्य देखने ही इक्के से कूद पड़े और दौड़े हुए चपरासी के पास आ कर बोले, खबरदार जो फिर हाथ चलाया।


चपरासी सकते में आ गया। कल्लू, मनोहर सब डोल-रस्सी छोड़-छाड़ कर दौड़े और उन्हें सलाम कर खड़े हो गये। प्रेमशंकर के चारों ओर एक जमघट सा हो गया। तहसीलदार ने कठोर स्वर में पूछा, आप कौन हैं? आपको सरकारी काम में मुदाखिलत करने का क्या मजाल है?


प्रेमशंकर– मुझे नहीं मालूम था कि गरीबों को जूते लगवाना भी सरकारी काम है। इसने क्या खता की थी, जिसके लिए आपने यह सजा तजवीज की?


तहसीलदार– सरकारी हुक्म की तामील से इन्कार किया। इससे कहा गया था कि इस मैदान को गोबर से लीप दे, पर इसने बदजबानी की।


प्रेम– आपको मालूम नहीं था कि यह ऊँची जाति का काश्तकार है? जमीन लीपना या कूड़ा फेंकना इनका काम नहीं है।


तहसीलदार– जूते की मार सब कुछ करा लेती है।


प्रेमशंकर का रक्त खौल उठा, पर जब्त से काम लेकर बोले, आप जैसे जिम्मेदार ओहदेदार की जबान से यह बात सुनकर सख्त अफसोस होता है।


मनोहर आगे बढ़कर बोला, सरकार, आज जैसी दुर्गति हुई है वह हम जानते हैं। एक चमार बोला, दिन भर घास छीला, अब कोई पैसा ही नहीं देता। घंटों से चिल्ला रहे हैं।


तहसीलदार ने क्रोधोन्मत्त होकर कहा, आप यहाँ से चले जायँ, वरना आपके हक में अच्छा न होगा। नाजिर जी, आप मुँह क्या देख रहे हैं? चपरासियों से कहिए, इन चमारों की अच्छी तरह खबर लें। यही इनकी मजदूरी है।


चपरासियों ने बेगारों को घेरना शुरू किया। कान्स्टेबलों ने भी बन्दूकों के कुन्दे चलाने शुरू किये। कई आदमियों को चोट आ गयी। प्रेमशंकर ने जोर से कहा, तहसीलदार साहब, मैं आपसे मिन्नत करता हूँ कि चपरासियों को मारपीट करने से मना कर दें, वरना इन गरीबों का खून हो जायेगा।


तहसीलदार– आपके ही इशारों से इन बदमाशों ने सरकशी अख्तियार की है। इसके जिम्मेदार आप हैं। मैं समझ गया, आप किसी किसान-सभा से ताल्लुक रखते हैं।


प्रेमशंकर ने देखा तो लखनपुर वालों के चेहरे रोष से विकृत हो रहे थे। प्रतिक्षण शंका होती थी कि इनमें से कोई प्रतिकार न कर बैठे। प्रति क्षण समस्या जटिलतर होती जाती थी। तहसीलदार और अन्य कर्मचारियों से मनुष्यता और दयालुता की अब कोई आशा न रही। तुरन्त अपने कर्तव्य का निश्चय कर लिया। गाँव वालों की ओर रुख करके बोले, तहसीलदार साहब का हुक्म मानो। एक आदमी भी यहाँ से न जाय। आदमियों को मुँहमाँगी मजूरी दी जायेगी। इसकी कुछ चिन्ता मत करो।


यह शब्द सुनते ही सारे आदमी ठिठक गये और विस्मित हो कर प्रेमशंकर की ओर ताकने लगे। सरकारी कर्मचारियों को भी आश्चर्य हुआ। मनोहर और कुछ कुल्लू कुएँ की तरफ चले। चमारों ने गोबर बटोरना शुरू किया। डपटसिंह भी मैदान से ईंट-पत्थर उठा-उठा कर फेंकने लगे। सारा काम ऐसी शान्ति से होने लगा, मानो कुछ हुआ ही न था। केवल दुखरन भगत अपनी जगह से न हिले।


प्रेमशंकर ने तहसीलदार से कहा, आपकी इजाजत हो तो यह आदमी अपने घर जाय। इसे बहुत चोट आ गयी है।


तहसीलदार ने कुछ सोचकर कहा, हाँ, जा सकता है।


भगत चुपके से उठे और धीरे-धीरे घर की ओर चले। इधर दम के दम में आदमियों ने मैदान लीप-पोत कर तैयार कर दिया। सब ऐसा दौड़-दौड़ कर उत्साह से काम कर रहे थे मानो उनके घर बरात आयी हो।


सन्ध्या हो गयी थी। प्रेमशंकर जमीन पर बैठे हुए विचारों में मग्न थे– कब तक गरीबों पर यह अन्याय होगा? कब उन्हें मनुष्य समझा जायेगा? हमारा शिक्षित समुदाय कब अपने दीन भाइयों की इज्जत करना सीखेगा? कब अपने स्वार्थ के लिए अपने अफसरों की नीच खुशामद करना छोड़ेगा।


इतने में तहसीलदार साहब सामने आकर खड़े हो गये और विनय भाव से बोले, आपको यहाँ तकलीफ हो रही है, मेरे खेमे में तशरीफ ले चलिए। माफ कीजिएगा, मैंने आपको पहचाना न था। गरीबों के साथ हमदर्दी देखकर। आपकी तारीफ करने को जी चाहता है। आप बड़े खुशनसीब हैं कि खुदा ने आपको ऐसा दर्दमन्द दिल अता फरमाया है। हम बदनसीबों की जिन्दगी तो अपनी तनपरवरी में ही गुजरती है। क्या करूँ? अगर अभी साफ कह दूँ कि बेगार में मजदूर नहीं मिलते तो नालायक समझा जाऊँ। आँखों से देखता हूँ कि मजदूरों को आठ आने रोज मिलते हैं, पर इन साहब बहादुर से इतनी मजूरी माँगूँ तो यह हर्गिज न देंगे। सरकार ने कायदे बहुत अच्छे बनाये हैं, लेकिन ये हुक्काम उनकी परवा ही नहीं करते। कम-से-कम 50) के मिट्टी के बर्तन उठे होंगे। लकड़ी, भूसा पुआल सैकड़ों मन खर्च हो गये। कौन इनकी कीमत देता है? अगर कायदे पर अमल करने लगूँ तो एक लमहे भर रहना दुश्वार हो जाय और अकेला कर ही क्या सकता हूँ? मेरे और भाई भी तो हैं। उनकी सख्तियाँ आप देखें तो दाँतों तले उँगली दबा लें। खुदा ने जिसके घर में रूखी रोटियां भी दी हों, वह कभी यह मुलाजमत न करे। आइए; बैठिए, आपको सैकड़ों दास्तानें सुनाऊँ, जिनमें तहसीलदारों को कायदे के मुताबिक अमल करने के लिए जहन्नुम में भेज दिया गया है। मेरे ऊपर खुद एक बार गुजर चुकी है।


प्रेमशंकर को तहसीलदार से सहानुभूति हो गयी। समझ गये कि यह बेचारे विवश हैं। मन में लज्जित हुए कि मैंने अकारण ही इनसे अविनय की। उनके साथ खेमे में चले गये। वहाँ बहुत देर तक बातें होती रहीं। तहसीलदार साहब बड़े साधु सज्जन निकले अधिकार-विषयक घटनायें समाप्त हो चुकीं तो अपनी पारिवारिक कठिनाइयों का बयान करने लगे। उनके तीन पुत्र कॉलेज में पढ़ते थे। दो लड़कियां विधवा हो गयी थीं एक विधवा बहिन और उसके बच्चों का भार भी सिर पर था। 200 रुपये में बड़ी मुश्किल से गुजर होता था। अतएव जहाँ अवसर और सुविधा देखते थे, वहाँ रिश्वत लेने में उज्र न था। उन्होंने यह वृत्तान्त ऐसे सरल और नम्र भाव से कहा कि प्रेमशंकर को उनसे स्नेह-सा हो गया। वहाँ से उठे तो 8 बज चुके थे, चौपाल की तरफ जाते हुए दुखरन भगत के द्वार पर पहुँचे तो एक विचित्र दृश्य देखा। गाँव के कितने ही आदमी जमा थे। और भगत उनके बीच में खड़े हाथ में शालिग्राम की मूर्ति लिए उन्मत्तों की भाँति बहक-बहक कर कह रहे थे– यह शालिग्राम है। अपने भक्तों पर बड़ी दया रखते हैं? सदा उनकी रक्षा किया करते हैं। इन्हें मोहनभोग बहुत अच्छा लगता है। कपूर और धूप की महक बहुत अच्छी लगती है। पूछो, मैंने इनकी कौन सेवा नहीं की? आप सत्तू खाता था, बच्चे चबेना चबाते थे, इन्हें मोहनभोग का भोग लगाता था। इनके लिए जाकर कोसों से फूल और तुलसीदल लाता था। अपने लिए तमाखू चाहे न रहे, पर इनके लिए कपूर और धूप की फिकिर करता था। इनका भोग लगा के तब दूसरा काम करता था। घर में कोई मरता ही क्यों न हो, पर इनकी पूजा-अर्चना किये बिना कभी न उठता था। कोई दिन ऐसा न हुआ कि ठाकुरदारे में जाकर चरणामृत न पिया हो, आरती न ली हो, रामायण का पाठ न किया हो। यह भगती और सर्धा क्या इसलिए कि मुझ पर जूते पड़ें, हकनाहक मारा जाऊँ, चमार बनूँ? धिक्कार मुझ पर जो फिर ऐसे ठाकुर का नाम लूँ, जो इन्हें अपने घर में रखूँ, और फिर इनकी पूजा करूँ! हाँ, मुझे धिक्कार है! ज्ञानियों ने सच कहा है कि यह अपने भगतों के बैरी हैं, उनका अपमान कराते हैं, उनकी जड़े खोदते हैं, और उससे प्रसन्न रहते हैं जो इनका अपमान करे। मैं अब तक भूला हुआ था। बोलो मनोहर, क्या कहते हो, इन्हें कुएँ में फेंकूँ या घूरे पर डाल दूँ, जहाँ इन पर रोज मनों कूड़ा पड़ा करे या राह में फेंक दूँ जहाँ सबेरे से साँझ तक इन पर लातें पड़ती रहें?


मनोहर– भैया तुम जानकर अनजान बनते हो। वह संसार के मालिक हैं, उनकी महिमा अपरम्पार है।


कादिर– कौन जानता है, उनकी क्या मरजी है? बुराई से भलाई करते हैं। इतना मन न छोटा करो।


दुखरन– (हँसकर) यह सब मन को समझाने का ढकोसला है। कादिर मियाँ, यह पत्थर का ढेला है, निरा मिट्टी का पिंडी। मैं अब तक भूल में पड़ा हुआ था। समझता था, इसकी उपासना करने से मेरे लोक-परलोक दोनों बन जाएँगे। आज आँखों के सामने वह परदा हट गया। यह निरा मिट्टी का ढेला है। यह लो महाराज, जाओ जहाँ तुम्हारा जी चाहे! तुम्हारी यही पूजा है। तीस साल की भगती का तुमने मुझे जो बदला दिया है, मैं भी तुम्हें उसी का बदला देता हूँ।


यह कहकर भगत ने शालिग्राम की प्रतिमा को जोर से एक ओर फेंक दिया। न जाने कहाँ जाकर गिरी। फिर दौड़े हुए घर में गये पिटारी लिये हुए बाहर निकले। मनोहर लपका कि पिटारी उनके हाथ से छीन लूँ। लेकिन भगत ने उसे अपनी ओर आते देखकर फुर्ती से पिटारी खोली और उसे हवा में उछाल दी। सभी सामग्रियाँ इधर-उधर फैल गयीं। तीस वर्ष की धर्म-निष्ठा और आत्मिक श्रद्धा नष्ट हो गयी। धार्मिक विश्वास की दीवार हिल गयी। और उसकी ईंट बिखर गयीं।


कितना हृदय-विदारक दृश्य था। प्रेमशंकर का हृदय गद्गद हो गया। भगवान्! इस असभ्य, अशिक्षित और दरिद्र मनुष्य का इतना आत्माभिमान? इसे अपमान ने इतना मर्माहत कर दिया! कौन कहता है, गँवारों में भावना निर्जीव हो जाती है? कितना दारुण आघात है जिसने भक्ति, विश्वास तथा आत्मगौरव को नष्ट कर डाला!


प्रेमशंकर सब आदमियों के पीछे खड़े थे। किसी ने उन्हें नहीं देखा। वह वहीं से चौपाल चले गये। वहाँ पलंग बिछा तैयार था। डपटसिंह चौका लगाते थे, कल्लू पानी भरते थे। उन्हें देखते ही गौस खाँ झुककर आदाब-अर्ज बजा लाये और कुछ सकुचाते हुए बोले, हुजूर को तहसीलदार साहब के यहाँ बड़ी देर हो गयी।


प्रेमशंकर– हाँ, इधर-उधर की बातें करने लगे। क्यों, यहाँ कहार नहीं है क्या? ये लोग क्यों पानी भर रहे हैं? उसे बुलाइए, मुनासिब मजदूरी दी जायगी।


गौस खाँ– हुजूर, कहार तो चार घर थे, लेकिन सब उजड़ गये। अब एक आदमी भी नहीं है।


प्रेमशंकर– यह क्यों?


गौस खाँ– अब हूजूर से क्या बतलाऊँ, हमीं लोगों की शरारत और जुल्म से। यहाँ हमेशा तीन-चार चपरासी रहते हैं। एक-एक के लिए एक-एक खिदमतगार चाहिए। और मेरे लिए तो जितने खिदमतगार हों उतने थोड़े हैं। बेचारे सुबह से ही पकड़ लिए जाते थे, शाम को छुट्टी मिलती थी। कुछ खाने को पा गये, नहीं तो भूखे ही लौट जाते थे। आखिर सब के सब भाग खड़े हुए, कोई कलकत्ता गया, कोई रंगून। अपने बाल बच्चों को भी लेते गये। अब यह हाल है कि हाथों से बर्तन-तक धोने पड़ते हैं।


प्रेमशंकर– आप लोग इन गरीबों को इतना सताते क्यों हैं? अभी तहसीलदार साहब लश्कर वालों की सारी बेइन्साफियों का इलजाम आपके ही सिर मढ़ रहे थे।


गौस खाँ– हुजूर तो फरिस्ते हैं, लेकिन हमारे छोटे सरकार का ऐसा ही हुक्म है। आजकल खतों में बार-बार ताकीद करते हैं कि गाँव में एक भी दखलदार असामी न रहने पाये। हुजूर का नमक खाता हूँ तो हुजूर के हुक्म की तामील करना मेरा फर्ज है, वरना खुदाताला को क्या मुँह दिखलाऊँगा। इसीलिए मुझे इन बेकसों पर सभी तरह की सख्तियाँ करनी पड़ती हैं। कहीं मुकदमें खड़े कर दिये। कहीं बेगार में फँसा दिया, कहीं आपस में लड़ा दिया। कानून का हुक्म है कि आदमियों को लगान देते ही पाई-पाई की रसीद दी जाय, लेकिन मैं सिर्फ उन्हीं लोगों को रसीद देता हूँ जो जरा चालाक हैं, गँवारों को यों ही टाल देता हूँ। छोटे सरकार का बकाया पर इतना जोर है कि पाई भी बाकी रहे तो नालिश कर दो। कितने ही असामी तो नालिश से तंग आकर निकल भागे। मेरे लिए तो जैसे छोटे सरकार हैं वैसे हुजूर भी हैं। आपसे क्या छिपाऊँ? इस तरह की धाँधलियों में हम लोगों का भी गुजर बसर हो जाता है, नहीं तो इस थोड़ी-सी आमदनी से गुजर होना मुश्किल था।


इतने में बिसेसर, मनोहर, कादिर खाँ आदि भी आ गये और आज का वृत्तान्त कहने लगे। मनोहर दूध लाये। कल्लू ने दही पहुँचाया। सभी प्रेमशंकर के सेवा-सत्कार में तत्पर थे। जब वह भोजन करके लेटे तो लोगों ने आपस में सलाह की कि बाबू साहब को रामायण सुनायी जाय। बिसेसर शाह अपने घर से ढोल-मजीरा लाये। कादिर ने ढोल लिया। मजीरे बजने लगे और रामायण का गान होने लगा, प्रेमशंकर को हिन्दी भाषा का अभ्यास न था और शायद ही कोई चौपाई उनकी समझ में आती थी, पर वह इन देहातियों के विशुद्ध धर्मानुराग का आनन्द उठा रहे थे। कितने निष्कपट, सरल-हृदय, साधु लोग हैं। इतने कष्ट झेलते हैं, इतना अपमान सहते हैं, लेकिन मनोमालिन्य का कहीं नाम नहीं। इस समय सभी आमोद के नशे में चूर हो रहे हैं।


रामायण समाप्त हुई तो कल्लू बोला, कादिर चाचा, अब तुम्हारी कुछ हो जाये।


कादिर ने बजाते हुए कहा, गा तो रहे हो, क्या इतनी जल्दी थक गये।


मनोहर– नहीं भैया, अब वह अपनी कोई अच्छी-सी चीज सुना दो। बहुत दिन हुए नहीं सुना, फिर न जाने कब बैठक हो। सरकार, ऐसा गायक इधर कई गाँव में नहीं है।


कादिर– मेरे गँवारू गाने में सरकार को क्या मजा आयेगा।


प्रेमशंकर– नहीं-नहीं, मैं तुम्हारा गाना बड़े शौक से सुनूँगा।


कादिर– हुजूर, गाते क्या हैं रो लेते हैं; आपका हुक्म कैसे टालें?


यह कहकर कादिर खाँ ने ढोल का स्वर मिलाया और यह भजन गाने लगा–


मैं अपने राम को रिझाऊँ।

जंगल जाऊँ न बिरछा छेड़ूँ न कोई डार सताऊँ।

पात-पात में है अविनासी, वाही में दरस कराऊँ।

मैं अपने राम को रिझाऊँ।

ओखद खाऊँ न बूटी लाऊँ, ना कोई बैद बुलाऊँ।

पूरन बैद मिले अविनासी, ताहि को नबज दिखाऊँ।

मैं अपने राम को रिझाऊँ


कादिर के गले में यद्यपि लोच और माधुर्य न था, पर ताल और स्वर ठीक था। कादिर इस विद्या में चतुर था। प्रेमशंकर भजन सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। इसका एक-एक शब्द भक्ति और उद्गार में डूबा हुआ था। व्यवसायी गायकों की नीरसता और शुष्कता की जगह अनुरागमय, भाव-रस परिपूर्ण था।


गाना समाप्त हुआ तो एक नकल की ठहरी। कल्लू इस कला में निपुण था। कादिर मियाँ राजा बने, कल्लू मंत्री बिसेसर साह सेठ बन गये। डपटसिंह ने एक चादर ओढ़ ली और रानी बन बैठे। राजकुमार की कमी थी। लोग सोचने लगे कि यह भाग किसे दिया जाय। प्रेमशंकर ने हँसकर कहा कोई हरज न हो तो मुझे राजकुमार बना दो। यह सुनकर सब-के-सब फूल उठे। नकल शुरू हो गयी।


पहला अंक


राजा– हाय! हाय! बैद्यों ने जबाव दिया, हकीमों ने जवाब दिया, डाकदरों ने जवाब दिया, किसी ने रोग को न पहचाना। सब-के-सब लुटेरे थे। अब जिन्दगानी की कोई आशा नहीं। यह सारा राज-पाट छूटता है। मेरे पीछे परजा पर न क्या बीतेगा! राजकुमार अल्हड़ नादान है, उसकी संगत अच्छी नहीं है। (प्रेमशंकर की ओर कटाक्ष से देखकर) किसानों से मेल रखता है। उसके पीछे सरकारी आदमियों से रार करता है। जिन दीन-दुखी रोगियों की परछाईं से भी डाक दर लोग डरते हैं, उनकी दवा-दारू करता है। उसे अपनी जान का, धन का तनिक भी लोभ नहीं है। यह इतना बड़ा राज कैसे सँभालेगा? अत्याचारियों को कैसे दण्ड देगा? हाय, मेरी प्यारी रानी, जिससे मैंने अभी महीने भर हुए ब्याह किया है, मेरे बिना कैसे जियेगी? कौन उससे प्रेम करेगा? हाय!


रानी– स्वामी जी, मैं इस सोग में मर जाऊँगी। यह उजले सनके-से बाल, यह पोपला मुँह कहाँ देखूँगी (कटाक्ष भाव) किसको गोद में लूँगी? किससे ठुनकूँगी? अब मैं किसी तरह न बचूँगी।


राजा की साँस उखड़ जाती है, आंखें पथरा जाती हैं, नाड़ी छूट जाती है। रानी छाती पीटकर रोने लगती है। दरबार में हाहाकार मच जाता है।


राजा के कानों में आकाशवाणी होती है– हम तुझे एक घण्टे की मोहलत देते हैं, अगर मुझे तीन मनुष्य ऐसे मिल जायँ जो दिल से तेरे जीने की इच्छा रखते हों तो तू अमर हो जायेगा।


राजा सचेत हो जाता है, उसके मुखारबिन्दु पर जीवन-ज्योति झलकने लगती है। वह प्रसन्नमुख उठ बैठता है और आप-ही- आप कहता है, अब मैं अमर हो गया, अकण्टक राज्य करूँगा, शत्रुओं का नाश कर दूँगा। मेरे राज्य में ऐसा कौन प्राणी है जो हृदय में से मेरे जीने की इच्छा न रखता हो। तीन नहीं, तीन लाख आदमी बात-बात में निकल आयेंगे।


दूसरा अंक


(राजा एक साधारण नागिरक के रूप में आप-ही-आप)


समय कम है, ऐसे तीन सज्जनों के पास चलना चाहिए जो मेरे भक्त थे। पहले सेठ के पास चलूँ। वह परोपकार के प्रत्येक काम में मेरी सहायता करता था। मैंने उसकी कितनी बार रक्षा की है और उसे कितना लाभ पहुँचाया है। यह सेठ जी का घर आ गया। सेठ जी, सेठजी, जरा बाहर आओ।


सेठ– क्या है? इतनी रात गये कौन काम है?


राजा– कुछ नहीं; अपने स्वर्गवासी राजा का यश गाकर उनकी आत्मा को शान्ति देना चाहता हूँ। कैसे धर्मात्मा, प्रजा-प्रिय, पुरुष थे! उनका परलोक हो जाने से सारे देश में अन्धकार-सा छा गया है। प्रजा उनको कभी न भूलेगी। आपसे तो उनकी बड़ी मैत्री थी, आपको तो और भी दुःख हो रहा होगा?


सेठ– मुझे उनके राज्य में कौन-सा सुख था कि अब दुःख होगा? मर गये, अच्छा हुआ। उसकी बदौलत लाखों रुपये साधु सन्तों को खिलाने पड़ते थे।


राजा– (मन में) हाय! इस सेठ पर मुझे कितना भरोसा था। यह मेरे इशारे पर लाखों रुपये दान कर दिया करता था। सच कहा है; बनिये किसी के मित्र नहीं होते। मैं जन्म भर इसके साथ रहा, पर इसे पहचान न सका। अब चलूँ मन्त्री के पास, वह बड़ा स्वामि-भक्त सज्जन पुरुष हैं। उसके साथ मैंने बड़े-बड़े सलूक किये हैं। यह उसका भवन आ गया। शायद अभी दरबार से आ रहा है। मंत्रीजी, कहिए क्या राज दरबार से आ रहे हैं? इस समय तो दरबार में शोक मनाया जा रहा होगा। ऐसे धर्मात्मा राजा की मृत्यु पर जितना शोक किया जाय, वह थोड़ा है। अब फिर ऐसा राजा न होगा। आपको तो बहुत ही दुःख हो रहा होगा।


मन्त्री– मुझे उनसे कौन-सा सुख मिलता था कि अब दुःख होगा? मर गये, अच्छा हुआ। उनके मारे साँस लेने की भी छुट्टी न मिलती थी। प्रजा के पीछे आप-आप मरते थे, मुझे भी मारते थे! रात-दिन कमर कसे खड़े रहना पड़ता था।


राजा– (आप-ही-आप) हाय! इस परम हितैषी सेवक ने भी भी धोखा दिया। मेरी आँख बन्द होते ही सारा संसार मेरा बैरी हो गया। ऐसे-ऐसे आदमी धोखा दे रहे हैं जो मेरे पसीने की जगह लोहूँ बहाने को तैयार रहते थे। तीन आदमी भी ऐसे नहीं, जिन्हें मेरा जीना पसन्द हो। जब दोनों निकल गये तो दूसरों से क्या आशा रखूँ? अब रानी के पास जाता हूँ वह साध्वी सती स्त्री है। उसकी जितनी ही सखियाँ हैं सभी मुझ पर प्राण देती थीं। वहाँ मेरी इच्छा अवश्य पूरी होगी। अब केवल थोड़ा सा समय और रह गया है।– यह राजभवन आ गया। रानी अकेली मन मारे शोक में बैठी हुई है। महारानी जी, अब धीरज से काम लीजिए, आपके स्वामी ऐसे प्रतापी थे कि संसार में सदा उनका लोग यश गाया करेंगे। देह हत्या करके वह अमर हो गये।


रानी– अमर नहीं, पत्थर हो गये। उनसे संसार को चाहे जो सुख मिला हो, मुझे तो कोई सुख न मिला! उनके साथ बैठते लज्जा आती थी। मैं उनका क्या यश गाऊँ? मैं तो उसी दिन विधवा हो गई जिस दिन उनसे विवाह हुआ। वह जीते थे तब भी राँड़ थी, मर गये तब भी राँड हूँ। देखो तो कुँवर साहब कैसे सजीले, बाँके जवान हैं। मेरे योग्य यह थे, न कि वैसा खूसट बुड्ढा, जिसके मुँह में दाँत तक नहीं थे।


यह सुनते ही राजा एक लम्बी साँस लेता है और मूर्छित होकर गिर पड़ता है।


(अभिनय समाप्त होता है)


प्रेमशंकर को इन गँवारों के अभिनय-कौशल पर विस्मय हुआ? बनावट का कहीं नाम न था। प्रत्येक व्यक्ति ने अपना-अपना भाग स्वाभाविक रीति से पूरा किया। यद्यपि न परदे थे न कपड़े थे, न कोई दूसरा सामान, तथापि अभिनय रोचक और मनोरंजक था।


सवेरे प्रेमशंकर टहलते हुए-पड़ाव की ओर चले तो देखा कि लश्कर कूच की तैयारी कर रहा है। खेमे उखड़ रहे हैं। गाड़ियों पर असबाब लद रहा है। साहब बहादुर की मोटर तैयार है और बिसेसर शाह तहसीलदार के सामने कागज का एक पुलिन्दा लिये खड़े हैं। तेली, तमोली, बूचड़ आदि भी एक पेड़ के नीचे अभियुक्तों की भाँति दाम वसूल करने के लिए बैठे हुए हैं। प्रेमशंकर ने तहसीलदार से हाथ मिलाया और बैठकर तमाशा देखने लगे।


तहसीलदार– कहाँ है, गाड़ीवान लोग? बुलाओ, रसद का हिसाब करें। इस पर एक गाड़ीवान ने कहा, हुजूर यहाँ रसद मिला है कि हमारी जान मारी गयी है! आटे में इस बेईमानी बनिये ने न जाने क्या मिला दिया है कि उसी दिन से पेट में दर्द हो रहा है। घी में तेल मिलाया था, उस पर हिसाब करने को कहता है। अभी साहब से कह दें तो बच्चू को लेने-के-देने पड़ जायँ।


अर्दली के कई चपरासी बोले, यह बनिया गोली मार देने के लायक है। ऐसा खराब आटा उम्र भर नहीं खाया। न जाने क्या चीज मिला दी है कि हजम ही नहीं होता। घी ऐसा बदबू करता था कि दाल खाते न बनती थी इस पर तो जुर्माना होना चाहिए। उल्टे हिसाब करने को कहता है।


एक कान्सटेबिल महाशय ने कहा, हम इसे खूब जानते हैं, छटा हुआ है। चीनी दी तो उसमें आधी बालू, घी में आधी घुइयाँ, आटे में आधा चोकर, दाल में आधा कूड़ा! इसे तो ऐसी जगह मारे जहाँ पानी न मिले।


कई साईस बोले, घोड़ों को जो दाना दिया है वह बिल्कुल घुना हुआ, आधा चना आधा चोकर। घोड़ों ने सूँघा तक नहीं। साहब से कह दें तो अभी हंटर पड़ने लगें।


तहसीलदार– ये सब शिकायतें पहले क्यों नहीं कीं?


कई आदमी– हुजूर रोज तो हाय-हाय कर रहे हैं!


तहसीलदार– (प्रेमशंकर की ओर देखकर) मुझसे किसी ने भी नहीं कहा। अब यह सब कुछ नहीं सुनूंगा। जिसके जिम्मे जो कुछ निकले, कौड़ी-कौड़ी दे दो। साहजी, अपना हिसाब निकालो।


बिसेसर– मौल बख्श अर्दली आटा, ऽ3 घी ऽ।। चावल ऽ2, दाल ऽ1, मसाला ऽ।, तमाखू ऽ।, कथ्या-सुपारी 2 छटाँग, चीनी 5 छटाँक कुल 3 ) रुपये।


तहसीलदार– कहाँ है मौला बख्श। दाम देकर रसीद लो।


एक अर्दली– इस नाम का हमारे यहाँ कोई आदमी नहीं है।


बिसेसर– हैं क्यों नहीं? लम्बे-लम्बे हैं, छोटी दाढ़ी है, मुँह पर शीतला का दाग है, सामने के दो-तीन दाँत टूटे हुए हैं।


कई अर्दली– इस हुलिया का यहाँ कोई आदमी ही नहीं है। पहचान हममें से कौन है?


बिसेसर– कहीं चल दिये होंगे और क्या?


तहसीलदार– अच्छा दूसरा नाम बोलो।


बिसेसर– धन्नू, अहीर, चावल ऽ3, आटा ऽ2, घी ऽ1, खली ऽ4, दाना और चोकर ऽ8, तमाखू– कुल दो रुपये।


तहसीलदार– कहाँ है धन्नू अहीर? निकाल रुपये।


एक अर्दली– वह तो पहर रात रहे साहब का ढेरा लादकर चला गया।


तहसीलदार– हिसाब नहीं चुकाया और चल दिया। अच्छा नाजिरजी उसका नाम लिख लीजिए। कहाँ जाते हैं बच्चू? एक-एक पाई वसूल कर लूँगा।


प्रेमशंकर– यह लश्कर वालों की बड़ी ज्यादती है।


तहसीलदार– कुछ न पूछिए, कम्बख्त खा-खाकर चल देते हैं, बदनामी बेचारे तहसीलदार की होती है।


बिसेसर साह ने फिर ऐसा ही ब्यौरा पढ़ सुनाया। यह जयराम चपरासी का पुर्जा था। जयराम उपस्थित थे। आगे बढ़कर बोले, क्यों रे घी ऽ।। लिया था कि आधा पाव?


बिसेसर– कागद में तो ऽ।। लिखा हुआ है।


जयराम– झूठ लिखा है, सोलहों आने झूठ।


तहसीलदार– अच्छा आधा पाव का दाम दो, या कुछ भी नहीं देना चाहते?


यह झमेला नौ-दस बजे तक रहा। एक तिहाई से अधिक आदमी बिना हिसाब चुकाये ही प्रस्थान कर चुके थे। एक चौथाई से अधिक आदमी लापता हो गये। आधे आदमी मौजूद थे, लेकिन उन्हें भी हिसाब के ठीक होने में सन्देह था। ऐसे दस ही पाँच सज्जन निकले जिन्होंने खरे दाम चुका दियें हों। जब सब चिटें समाप्त हो गयीं तो बिसेसर साह ने उन्हें लाकर तहसीलदार के सामने पटक दिया और बोला– मैं और किसी को नहीं जानता, एक हुजूर को जानता हूँ और हुजूर के हुक्म से मैंने रसद दी है।


तहसीलदार– मैं क्या अपनी गिरह से दूँगा?


बिसेसर– हुजूर जैसे चाहे दें या दिला दें। 200) में यह 70) मिले हैं। मैं टके का आदमी इतना धक्का कैसे उठाऊँगा? महाजन मेरा घर बिकवा लेगा।


तहसीलदार– अच्छी बात है, तुम्हारे दाम मिलेंगे। नाजिर जी, आप चपरासियों को लेकर जाइए,। इसके बही-खाता उठा लाइए और खुद इसकी सलाना आमदनी का हिसाब कीजिए। देखिए, अभी कलई खुली जाती है। मैं इसके सब रुपए दूँगा, पर इसी से लेकर। बच्चू, दो हजार रुपये साल नफा करते हो, उस पर एक बार 100 का घाटा हुआ तो दम निकल गया?


कहाँ तो बिसेसर साह इतने गर्म हो रहे थे, कहाँ यह धमकी सुनते ही भीगी बिल्ली बन गये। बोले, हाँ हुजूर, सब हिसाब-किताब जाँच लें। इस गाँव में ऐसा कौन रोजगार है कि दो हजार का नफा हो जायेगा? खाने भर को मिल जाये यही बहुत है।


तहसीलदार– और यह आस-पास के देहातों का अनाज किसके घर में भरा जाता है? तुम समझते हो कि हाकिमों को खबर नहीं होती। यहाँ इतना बतला सकते हैं कि आज तुम्हारे घर में क्या पक रहा है? यह रिआयत इसी दिन के लिए करते हैं, कुछ तुम्हारी सूरत देखने के लिए नहीं।


बिसेसर साह चुपके से सरक गये। तेली-तमोली ने भी देखा कि यहाँ मिलता-जुलता तो कुछ नहीं दीखता, उल्टे और पलेथन लगने का भय है तो उन्होंने भी अपनी-अपनी राह ली। तहसीलदार ने प्रेमशंकर की ओर देखकर कहा, देखा आपने, टैक्स के नाम में इन सबों की जान निकल जाती है। मैं जानता हूँ कि इसकी सालाना आमदानी ज्यादा-से-ज्यादा 1000 होगी। लेकिन चाहे इस तरह कितना ही नुकसान बरदाश्त कर लें, अपने बही-खाते न दिखायेंगे। यह इनकी आदत है।


प्रेमशंकर– खैर, यह तो अपनी चाल-बाजी की बदौलत नुकसान से बच गया, मगर और बेचारे तो मुफ्त में पिस गये, उस पर जलील हुए वह अलग।


तहसीलदार– जनाब, इसकी दवा मेरे पास नहीं है। जब तक कौम को आप लोग एक सिरे से जगा न देंगे, इस तरह के हथकण्डों का बन्द होना मुश्किल है। जहाँ दिलों में इतनी खुदगरजी समाई हुई है और जहाँ रिआया इतनी कच्ची वहाँ किसी तरह की इसलाह नहीं हो सकती। (मुस्कुराकर) हम लोग एक तौर पर आपके मददगार हैं। रियाया को सताकर, पीसकर मजबूत बनाते हैं और आप जैसे कौमी हमदर्दों के लिए मैदान साफ करते हैं।


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