कामायनी (संघर्ष सर्ग )

 

श्रद्धा का था स्वप्न

किंतु वह सत्य बना था,

इड़ा संकुचित उधर

प्रजा में क्षोभ घना था।


भौतिक-विप्लव देख

विकल वे थे घबराये,

राज-शरण में त्राण प्राप्त

करने को आये।


किंतु मिला अपमान

और व्यवहार बुरा था,

मनस्ताप से सब के

भीतर रोष भरा था।


क्षुब्ध निरखते वदन

इड़ा का पीला-पीला,

उधर प्रकृति की रुकी

नहीं थी तांड़व-लीला।


प्रागंण में थी भीड़ बढ़ रही

सब जुड़ आये,

प्रहरी-गण कर द्वार बंद

थे ध्यान लगाये।


रा्त्रि घनी-लालिमा-पटी

में दबी-लुकी-सी,

रह-रह होती प्रगट मेघ की

ज्योति झुकी सी।


मनु चिंतित से पड़े

शयन पर सोच रहे थे,

क्रोध और शंका के

श्वापद नोच रहे थे।


" मैं प्रजा बना कर

कितना तुष्ट हुआ था,

किंतु कौन कह सकता

इन पर रुष्ट हुआ था।


कितने जव से भर कर

इनका चक्र चलाया,

अलग-अलग ये एक

हुई पर इनकी छाया।


मैं नियमन के लिए

बुद्धि-बल से प्रयत्न कर,

इनको कर एकत्र,

चलाता नियम बना कर।


किंतु स्वयं भी क्या वह

सब कुछ मान चलूँ मैं,

तनिक न मैं स्वच्छंद,

स्वर्ण सा सदा गलूँ मैं


जो मेरी है सृष्टि

उसी से भीत रहूँ मैं,

क्या अधिकार नहीं कि

कभी अविनीत रहूँ मैं?


श्रद्धा का अधिकार

समर्पण दे न सका मैं,

प्रतिपल बढ़ता हुआ भला

कब वहाँ रुका मैं


इड़ा नियम-परतंत्र

चाहती मुझे बनाना,

निर्वाधित अधिकार

उसी ने एक न माना।


विश्व एक बन्धन

विहीन परिवर्त्तन तो है,

इसकी गति में रवि-

शशि-तारे ये सब जो हैं।


रूप बदलते रहते

वसुधा जलनिधि बनती,

उदधि बना मरूभूमि

जलधि में ज्वाला जलती


तरल अग्नि की दौड़

लगी है सब के भीतर,

गल कर बहते हिम-नग

सरिता-लीला रच कर।


यह स्फुलिग का नृत्य

एक पल आया बीता

टिकने कब मिला

किसी को यहाँ सुभीता?


कोटि-कोटि नक्षत्र

शून्य के महा-विवर में,

लास रास कर रहे

लटकते हुए अधर में।


उठती है पवनों के

स्तर में लहरें कितनी,

यह असंख्य चीत्कार

और परवशता इतनी।


यह नर्त्तन उन्मुक्त

विश्व का स्पंदन द्रुततर,

गतिमय होता चला

जा रहा अपने लय पर।


कभी-कभी हम वही

देखते पुनरावर्त्तन,

उसे मानते नियम

चल रहा जिससे जीवन।


रुदन हास बन किंतु

पलक में छलक रहे है,

शत-शत प्राण विमुक्ति

खोजते ललक रहे हैं।


जीवन में अभिशाप

शाप में ताप भरा है,

इस विनाश में सृष्टि-

कुंज हो रहा हरा है।


'विश्व बँधा है एक नियम से'

यह पुकार-सी,

फैली गयी है इसके मन में

दृढ़ प्रचार-सी।


नियम इन्होंने परखा

फिर सुख-साधन जाना,

वशी नियामक रहे,

न ऐसा मैंने माना।


मैं-चिर-बंधन-हीन

मृत्यु-सीमा-उल्लघंन-

करता सतत चलूँगा

यह मेरा है दृढ़ प्रण।


महानाश की सृष्टि बीच

जो क्षण हो अपना,

चेतनता की तुष्टि वही है

फिर सब सपना।"


प्रगति मन रूका

इक क्षण करवट लेकर,

देखा अविचल इड़ा खड़ी

फिर सब कुछ देकर


और कह रही "किंतु

नियामक नियम न माने,

तो फिर सब कुछ नष्ट

हुआ निश्चय जाने।"


"ऐं तुम फिर भी यहाँ

आज कैसे चल आयी,

क्या कुछ और उपद्रव

की है बात समायी-


मन में, यह सब आज हुआ है

जो कुछ इतना

क्या न हुई तुष्टि?

बच रहा है अब कितना?"


"मनु, सब शासन स्वत्त्व

तुम्हारा सतत निबाहें,

तुष्टि, चेतना का क्षण

अपना अन्य न चाहें


आह प्रजापति यह

न हुआ है, कभी न होगा,

निर्वाधित अधिकार

आज तक किसने भोगा?"


यह मनुष्य आकार

चेतना का है विकसित,

एक विश्व अपने

आवरणों में हैं निर्मित


चिति-केन्द्रों में जो

संघर्ष चला करता है,

द्वयता का जो भाव सदा

मन में भरता है-


वे विस्मृत पहचान

रहे से एक-एक को,

होते सतत समीप

मिलाते हैं अनेक को।


स्पर्धा में जो उत्तम

ठहरें वे रह जावें,

संसृति का कल्याण करें

शुभ मार्ग बतावें।


व्यक्ति चेतना इसीलिए

परतंत्र बनी-सी,

रागपूर्ण, पर द्वेष-पंक में

सतत सनी सी।


नियत मार्ग में पद-पद

पर है ठोकर खाती,

अपने लक्ष्य समीप

श्रांत हो चलती जाती।


यह जीवन उपयोग,

यही है बुद्धि-साधना,

पना जिसमें श्रेय

यही सुख की अ'राधना।


लोक सुखी हों आश्रय लें

यदि उस छाया में,

प्राण सदृश तो रमो

राष्ट्र की इस काया में।


देश कल्पना काल

परिधि में होती लय है,

काल खोजता महाचेतना

में निज क्षय है।


वह अनंत चेतन

नचता है उन्मद गति से,

तुम भी नाचो अपनी

द्वयता में-विस्मृति में।


क्षितिज पटी को उठा

बढो ब्रह्मांड विवर में,

गुंजारित घन नाद सुनो

इस विश्व कुहर में।


ताल-ताल पर चलो

नहीं लय छूटे जिसमें,

तुम न विवादी स्वर

छेडो अनजाने इसमें।


"अच्छा यह तो फिर न

तुम्हें समझाना है अब,

तुम कितनी प्रेरणामयी

हो जान चुका सब।


किंतु आज ही अभी

लौट कर फिर हो आयी,

कैसे यह साहस की

मन में बात समायी


आह प्रजापति होने का

अधिकार यही क्या

अभिलाषा मेरी अपूर्णा

ही सदा रहे क्या?


मैं सबको वितरित करता

ही सतत रहूँ क्या?

कुछ पाने का यह प्रयास

है पाप, सहूँ क्या?


तुमने भी प्रतिदिन दिया

कुछ कह सकती हो?

मुझे ज्ञान देकर ही

जीवित रह सकती हो?


जो मैं हूँ चाहता वही

जब मिला नहीं है,

तब लौटा लो व्यर्थ

बात जो अभी कही है।"


"इड़े मुझे वह वस्तु

चाहिये जो मैं चाहूँ,

तुम पर हो अधिकार,

प्रजापति न तो वृथा हूँ।


तुम्हें देखकर बंधन ही

अब टूट रहा सब,

शासन या अधिकार

चाहता हूँ न तनिक अब।


देखो यह दुर्धर्ष

प्रकृति का इतना कंपन

मेरे हृदय समक्ष क्षुद्र

है इसका स्पंदन


इस कठोर ने प्रलय

खेल है हँस कर खेला

किंतु आज कितना

कोमल हो रहा अकेला?


तुम कहती हो विश्व

एक लय है, मैं उसमें

लीन हो चलूँ? किंतु

धरा है क्या सुख इसमें।


क्रंदन का निज अलग

एक आकाश बना लूँ,

उस रोदन में अट्टाहास

हो तुमको पा लूँ।


फिर से जलनिधि उछल

बहे मर्य्यादा बाहर,

फिर झंझा हो वज्र-

प्रगति से भीतर बाहर,


फिर डगमड हो नाव

लहर ऊपर से भागे,

रवि-शशि-तारा

सावधान हों चौंके जागें,


किंतु पास ही रहो

बालिके मेरी हो, तुम,

मैं हूँ कुछ खिलवाड

नहीं जो अब खेलो तुम?"


आह न समझोगे क्या

मेरी अच्छी बातें,

तुम उत्तेजित होकर

अपना प्राप्य न पाते।


प्रजा क्षुब्ध हो शरण

माँगती उधर खडी है,

प्रकृति सतत आतंक

विकंपित घडी-घडी है।


साचधान, में शुभाकांक्षिणी

और कहूँ क्या

कहना था कह चुकी

और अब यहाँ रहूँ क्या"


"मायाविनि, बस पाली

तमने ऐसे छुट्टी,

लडके जैसे खेलों में

कर लेते खुट्टी।


मूर्तिमयी अभिशाप बनी

सी सम्मुख आयी,

तुमने ही संघर्ष

भूमिका मुझे दिखायी।


रूधिर भरी वेदियाँ

भयकरी उनमें ज्वाला,

विनयन का उपचार

तुम्हीं से सीख निकाला।


चार वर्ण बन गये

बँटा श्रम उनका अपना

शस्त्र यंत्र बन चले,

न देखा जिनका सपना।


आज शक्ति का खेल

खेलने में आतुर नर,

प्रकृति संग संघर्ष

निरंतर अब कैसा डर?


बाधा नियमों की न

पास में अब आने दो

इस हताश जीवन में

क्षण-सुख मिल जाने दो।


राष्ट्र-स्वामिनी, यह लो

सब कुछ वैभव अपना,

केवल तुमको सब उपाय से

कह लूँ अपना।


यह सारस्वत देश या कि

फिर ध्वंस हुआ सा

समझो, तुम हो अग्नि

और यह सभी धुआँ सा?"


"मैंने जो मनु, किया

उसे मत यों कह भूलो,

तुमको जितना मिला

उसी में यों मत फूलो।


प्रकृति संग संघर्ष

सिखाया तुमको मैंने,

तुमको केंद्र बनाकर

अनहित किया न मैंने


मैंने इस बिखरी-बिभूति

पर तुमको स्वामी,

सहज बनाया, तुम

अब जिसके अंतर्यामी।


किंतु आज अपराध

हमारा अलग खड़ा है,

हाँ में हाँ न मिलाऊँ

तो अपराध बडा है।


मनु देखो यह भ्रांत

निशा अब बीत रही है,

प्राची में नव-उषा

तमस् को जीत रही है।


अभी समय है मुझ पर

कुछ विश्वास करो तो।'

बनती है सब बात

तनिक तुम धैर्य धरो तो।"


और एक क्षण वह,

प्रमाद का फिर से आया,

इधर इडा ने द्वार ओर

निज पैर बढाया।


किंतु रोक ली गयी

भुजाओं की मनु की वह,

निस्सहाय ही दीन-दृष्टि

देखती रही वह।


"यह सारस्वत देश

तुम्हारा तुम हो रानी।

मुझको अपना अस्त्र

बना करती मनमानी।


यह छल चलने में अब

पंगु हुआ सा समझो,

मुझको भी अब मुक्त

जाल से अपने समझो।


शासन की यह प्रगति

सहज ही अभी रुकेगी,

क्योंकि दासता मुझसे

अब तो हो न सकेगी।


मैं शासक, मैं चिर स्वतंत्र,

तुम पर भी मेरा-

हो अधिकार असीम,

सफल हो जीवन मेरा।


छिन्न भिन्न अन्यथा

हुई जाती है पल में,

सकल व्यवस्था अभी

जाय डूबती अतल में।


देख रहा हूँ वसुधा का

अति-भय से कंपन,

और सुन रहा हूँ नभ का

यह निर्मम-क्रंदन


किंतु आज तुम

बंदी हो मेरी बाँहों में,

मेरी छाती में,"-फिर

सब डूबा आहों में


सिंहद्वार अरराया

जनता भीतर आयी,

"मेरी रानी" उसने

जो चीत्कार मचायी।


अपनी दुर्बलता में

मनु तब हाँफ रहे थे,

स्खलन विकंपित पद वे

अब भी काँप रहे थे।


सजग हुए मनु वज्र-

खचित ले राजदंड तब,

और पुकारा "तो सुन लो-

जो कहता हूँ अब।


"तुम्हें तृप्तिकर सुख के

साधन सकल बताया,

मैंने ही श्रम-भाग किया

फिर वर्ग बनाया।


अत्याचार प्रकृति-कृत

हम सब जो सहते हैं,

करते कुछ प्रतिकार

न अब हम चुप रहते हैं


आज न पशु हैं हम,

या गूँगे काननचारी,

यह उपकृति क्या

भूल गये तुम आज हमारी"


वे बोले सक्रोध मानसिक

भीषण दुख से,

"देखो पाप पुकार उठा

अपने ही सुख से


तुमने योगक्षेम से

अधिक संचय वाला,

लोभ सिखा कर इस

विचार-संकट में डाला।


हम संवेदनशील हो चले

यही मिला सुख,

कष्ट समझने लगे बनाकर

निज कृत्रिम दुख


प्रकृत-शक्ति तुमने यंत्रों

से सब की छीनी

शोषण कर जीवनी

बना दी जर्जर झीनी


और इड़ा पर यह क्या

अत्याचार किया है?

इसीलिये तू हम सब के

बल यहाँ जिया है?


आज बंदिनी मेरी

रानी इड़ा यहाँ है?

ओ यायावर अब

मेरा निस्तार कहाँ है?"


"तो फिर मैं हूँ आज

अकेला जीवन रभ में,

प्रकृति और उसके

पुतलों के दल भीषण में।


आज साहसिक का पौरुष

निज तन पर खेलें,

राजदंड को वज्र बना

सा सचमुच देखें।"


यों कह मनु ने अपना

भीषण अस्त्र सम्हाला,

देव 'आग' ने उगली

त्यों ही अपनी ज्वाला।


छूट चले नाराच धनुष

से तीक्ष्ण नुकीले,

टूट रहे नभ-धूमकेतु

अति नीले-पीले।


अंधड थ बढ रहा,

प्रजा दल सा झुंझलाता,

रण वर्षा में शस्त्रों सा

बिजली चमकाता।


किंतु क्रूर मनु वारण

करते उन बाणों को,

बढे कुचलते हुए खड्ग से

जन-प्राणों को।


तांडव में थी तीव्र प्रगति,

परमाणु विकल थे,

नियति विकर्षणमयी,

त्रास से सब व्याकुल थे।


मनु फिर रहे अलात-

चक्र से उस घन-तम में,

वह रक्तिम-उन्माद

नाचता कर निर्मम में।


उठ तुमुल रण-नाद,

भयानक हुई अवस्था,

बढा विपक्ष समूह

मौन पददलित व्यवस्था।


आहत पीछे हटे, स्तंभ से

टिक कर मनु ने,

श्वास लिया, टंकार किया

दुर्लक्ष्यी धनु ने।


बहते विकट अधीर

विषम उंचास-वात थे,

मरण-पर्व था, नेता

आकुलि औ' किलात थे।


ललकारा, "बस अब

इसको मत जाने देना"

किंतु सजग मनु पहुँच

गये कह "लेना लेना"।


"कायर, तुम दोनों ने ही

उत्पात मचाया,

अरे, समझकर जिनको

अपना था अपनाया।


तो फिर आओ देखो

कैसे होती है बलि,

रण यह यज्ञ, पुरोहित

ओ किलात औ' आकुलि।


और धराशायी थे

असुर-पुरोहित उस क्षण,

इड़ा अभी कहती जाती थी

"बस रोको रण।


भीषन जन संहार

आप ही तो होता है,

ओ पागल प्राणी तू

क्यों जीवन खोता है


क्यों इतना आतंक

ठहर जा ओ गर्वीले,

जीने दे सबको फिर

तू भी सुख से जी ले।"


किंतु सुन रहा कौण

धधकती वेदी ज्वाला,

सामूहिक-बलि का

निकला था पंथ निराला।


रक्तोन्मद मनु का न

हाथ अब भी रुकता था,

प्रजा-पक्ष का भी न

किंतु साहस झुकता था।


वहीं धर्षिता खड़ी

इड़ा सारस्वत-रानी,

वे प्रतिशोध अधीर,

रक्त बहता बन पानी।


धूंकेतु-सा चला

रुद्र-नाराच भयंकर,

लिये पूँछ में ज्वाला

अपनी अति प्रलयंकर।


अंतरिक्ष में महाशक्ति

हुंकार कर उठी

सब शस्त्रों की धारें

भीषण वेग भर उठीं।


और गिरीं मनु पर,

मुमूर्व वे गिरे वहीं पर,

रक्त नदी की बाढ-

फैलती थी उस भू पर।


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