तितली

 द्वितीय खण्ड


1

पूस की चांदनी गांव के निर्जन प्रांत में हल्‍के, कुहासे के रूप में साकार हो रही थी। शीतल पवन जब घनी अमराइयों में हरहराहट उत्‍पन्न करता, तब स्‍पर्श न होने पर भी गाढ़े के कुरते पहनने वाले किसान अलावों की ओर खिसकने लगते। शैला खड़ी होकर एक ऐसे ही अलाव का दृश्‍य देख रही थी, जिसके चारों ओर छ: सात किसान बैठे हुए तमाखू पी रहे थे। गाढ़े की दोहर और कंबल उनमें से दो ही के पास थे और सब कुरते और इकहरी चद्दरों में 'हू-हा' कर रहे थे।


शैला जब महुए की छाया से हटकर उन लोगों के सामने आई तो, वे लोग अपनी बात-चीत बंद कर असमंजस में पड़े कि मेम साहब से क्‍या कहें। शैला को सभी पहचानते थे। उसने पूछा-यह अलाव किसका है ?


महंगू महतो का सरकार -एक सोलह बरस के लड़के ने कहा।


दूर से आते हुए मधुबन ने पूछा-क्‍या है रामजस ?


मधु भइया, यही मेम साहब पूछ रही थीं।- रामजस ने कहा।


मधुबन ने शैला को नमस्‍कार करते हुए कहा-क्‍या कोई काम है ? कहीं जाना हो तो मैं पहुंचा दूं।


नहीं-नहीं मधुबन ! मैं भी आगे के पास बैठना चाहती हूँ।


मधुबन पुआल का छोटा-सा बंडल ले आया। शैला बैठ गई। मधुबन को वहाँ पाकर उसके मन में जो हिचक थी, वह निकल गई।


महंगू के घर के सामने ही एक अलाव लगा था, महंगू वहाँ पर तमाखू-चिलम का प्रबंध रखता। दो-चार किसान, लड़के-बच्‍चे उस जगह प्राय: एकत्र रहते। महंगू की चिलम कभी ठंडी न होती। बुड्ढा पुराना किसान था। उस गांव के सब अच्‍छे टुकड़े उसकी जोत में थे। लड़के और पोते गृहस्‍थी करते थे, वह बैठा तमाखू पिया करता। उसने भी मेम साहब का नाम सुना था, शैला की दयालुता से परिचित था। उसकी सेवा और सत्‍कार के लिए मन-ही-मन कोई बात सोच रहा था।


सहसा शैला ने मधुबन से पूछा-मधुबन ! तुम जानते हो, बार्टली साहब की नील-कोठी यहाँ से कितनी दूर है ?


वह कल के लड़के हैं मेम साहब ! उन्‍हें क्‍या मालूम कि बार्टली साहब कौन थे, मुझसे पूछिए। मेरा रोआं-रोआं उन्‍हीं लोगों के अन्‍न का पला हुआ है-महंगू ने कहा।


अहा ! तब तुम उन्‍हें जानते हो ?


बार्टली को जानता हूँ। बड़े कठोर थे। दया तो उनके पास फटकती न थी-कहते-कहते अलाव के प्रकाश में बुड्ढे के मुख पर घृणाकी दो-तीन रेखाएं गहरी हो गई। फिर वह संभलकर कहने लगा - पर उनकी बहन जेन माया-ममता की मूर्ति थी। कितने ही बार्टली के सताए हुए लोग उन्‍हीं के रुपए से छुटकारा पाते, जिसे वह छिपाकर देती थीं। और, मुझ पर तो उनकी बड़ी दया रहती थी। मैं उनकी नौकरी कर चुका हूँ। मैं लड़कपन से ही उन्‍हीं की सेवा में रहता था। यह सब खेती-बारी गृहस्‍थी उन्‍हीं की दी हुई है। उनके जाने के समय मैं कितना रोया था !- कहते-कहते बुड्ढे की आंखों से पुराने आंसू बहने लगे।


शैला ने बात सुनने के लिए फिर कहा-तो तुम उनके पास नौकरी कर चुके हो ? अच्‍छा तो वही नील-कोठी -


अरे मेम साहब, वह नील कोठी अब काहे को है, वह तो है भुतही कोठी! अब उधर कोई जाता भी नहीं, गिर रही है। जेन के कई बच्‍चे वहीं मर गए हैं। वह अपने भाई से बार-बार कहती कि मैं देश जाऊंगी, पर बार्टली ने जाने न दिया। जब वह मरे, तभी जेन को यहाँ से जाने का अवसर मिला। मुझसे कहा था कि - महंगू, जब बाबा होगा, तो तुमको बुलाऊंगी उसे खेलाने के लिए, आ जाना,मैं दूसरे पर भरोसा नहीं करूंगी। - मुझे ऐसा ही मानती थीं। चली गईं, तब से उनका कोई पक्‍का समाचार नहीं मिला। पीछे एक साहब से, - जब वह यहाँ का बंदोबस्‍त करने आया था, सुना-कि जेन का पति स्मिथ साहब बड़ा पाजी है, उसने जेन का सब रुपया उड़ा डाला। वह बेचारी बड़ी दु:खी हैं। मैं यहाँ से क्‍या करता मेम साहब !


शैला चुपचाप सुन रही थी। उसके मन में आंधी उठ रही थी, किंतु मुख पर धैर्य की शीलता थी। उसने कहा-महंगू, मैं तुम्‍हारी मालकिन को जानती हूँ।


क्‍या अभी जीती हैं मेम साहब - बुड्ढे ने बड़े उल्‍लास से पूछा। उसके हाथ का हुक्‍का छूटते-छुटते बचा।


नहीं, वह तो मर गई। उनकी एक लड़की है।


अहा ! कितनी बड़ी होगी ! मैं एक बार देख तो पाता ?


अच्छा, जब समय आवेगा तो तुम देख लोगे। पहले यह तो बताओ कि मैं नील-कोठी देखना चाहती हूँ , इस समय कोई वहाँ मेरे साथ चल सकता है ?


सब किसान एक दूसरे का मुँह देखने लगे। भुतही कोठी में इस रात को कौन जाएगा। महंगू ने कहा - मैं बूढ़ा हूँ, रात को सूझता कम है।


मधुबन ने कहा-मेम साहब, मैं चल सकता हूँ।


साहस पाकर लड़के रामजस ने कहा-मैं भी चलूंगा भइया।


मधुबन ने कहा-तुम्‍हारी इच्‍छा !


कंधे पर अपनी लाठी रखे, मधुबन आगे, उसके पीछे शैला तब रामजस, तीनों उस चांदनी में पगडंडी से चलने लगे। चुपचाप कुछ दूर निकल जाने पर शैला ने पूछा-मधुबन, खेती से तुम्‍हारा काम चल जाता है ? तुम्‍हारे घर पर और कौन है ?


मेम साहब ! काम तो किसी तरह चलता ही है। दो-तीन बीघे की खेती ही क्‍या ? बहन है बेचारी, न जाने कैसे सब जुटा लेती है। आज-कल तो नहीं, हाँ जब मटर हो जाएगी, गांवों में कोल्‍हू चलने ही लगे हैं, तब फिर कोई चिंता नहीं।


तुम शिकार नहीं करते ?


कभी-कभी मछली पर बंसी डाल देता हूँ। और कौन शिकार करूं ?


बहन तुम्‍हारी यहीं रहती हैं ?


हाँ मेम साहब, उसी ने मुझे पाला है - कहते हुए मधुबन ने कहा-देखिए, यह गड्ढा है। संभलकर आइए। अब हम लोग कच्‍ची सड़क पर आ गए हैं।


अच्‍छा मधुबन। तुमने यह तो कहा ही नहीं कि तितली कहाँ है, दिखाई नहीं पड़ी। उस दिन जब रामनाथ उसको लिवा ले गया, तब से तो उसका पता न लगा। उसका क्‍या हाल है ?


सब कठोर हैं, निर्दय हैं - मन-ही-मन कहते हुए अन्‍यमनस्‍क भाव से मधुबन ने अपना कंधा हिला दिया ?


क्‍या मधुबन ! कहते क्‍यों नहीं।


उसी दिन से वह बेचारी पड़ी है। उधर सुना है कि तहसीलदार ने बेदखली कराने का पूरा प्रबंध कर लिया है ! मेम साहब, गरीब की कोई सुनता है ? आप ही कहिए न ! किसी ब्‍याह में रमुआ ने दस रुपए लिए। वह हल चलाता मर गया। जिसका ब्‍याह हुआ उस दस रुपए से, वह भी उन्‍हीं रुपयों में हल चलाने लगा। उसके भी लड़के यदि हल चलाने के डर से घबराकर कलकत्ता भाग जाएं, तो इसमें बाबाजी का क्‍या दोष है ?


कुछ नहीं -शैला ने कहा।


फिर आप तो जानती नहीं। यह तहसीलदार पहले मेरे यहाँ काम करता था। गुदाम वाले साहब से, एक बात पर उभाड़कर, मेरे पिताजी को लड़ा दिया। मुकदमे में जब मेरा सब साफ हो गया, तो जाकर यह धामपुर की छावनी में नौकरी करने लगा। इसको दानव की तरह लड़ने का चसका है, सो भी अदालत का ही। नहीं तो किसी एक दिन इसकी लड़ने की साध मिटा देता। मैं किसी दिन इसकी नस तोड़ दूं, तो मुझे चैन मिले। इसके कलेजे में कतरनी-से कीड़े दिन-रात कलबलाया करते हैं।


यह तहसीलदार तुम्‍हारे यहाँ ...अरे यह बात मैं क्रोध में कह गया मेम साहब, जो समय बीत गया, उसे सोच कर कया करूंगा। अब तो मैं एक साधारण किसान हूँ। शेरकोट का ...


चलते-चलते शैला ने कहा-क्‍या, शेरकोट न ! हाँ-तहसीलदार ने कहा था कि शेरकोट ही बैंक बनाने के लिए अच्‍छा स्‍थान है ! कहाँ है वह ?


मधुबन गुर्रा उठा भूखे भेड़िए की तरह। उस ठंडी रात में उसे अपना क्रोध दमन करने से पसीना हो गया। बोला नहीं।


शैला भी सामने एक ऊंचा-सा टीला देखकर अन्‍यमनस्‍क हो गई जो चांदनी रात में रहस्‍य के स्‍तूप-सा उदास बैठा था।


रामजस सहसा पीछे से चिल्‍ला उठा-अब तो पहुँच गए मधुबन भइया !


मधुबन ने गंभीरता से कहा-हूँ।


शैला चुपचाप टूटी हुई सीढ़ियों से चढ़ने लगी। उस नीरस रजनी में पुरानी कोठी, बहुत दिनों के बाद तीन नए आगंतुकों को देखकर, जैसे व्‍यंग्‍य की हंसी हंसने लगी। अभी ये लोग दालान में पहुँचने भी न पाए थे कि एक सियार उसमें से निकलकर भागा। हाँ, भयभीत मनुष्‍य पहले ही आक्रमण करता है। रामजस ने डरकर उस पर डंडा चलाया। किंतु वह निकल गया।


शैला ने कहा-मैं भीतर चलूंगी।


चलिए, पर अंधेरे में कोई जानवर ...


मधुबन चुप रहा। आगे उसके मन में शेरकोट में बैंक बनाने की बात आ गई। वह चुपचाप एक पत्‍थर पर बैठा गया। शैला भी भीतर न जाकर झील की ओर चली गई। पत्‍थरों की पुरानी चौकियां अभी वहाँ पड़ीं थीं। उन्‍हीं में से एक पर बैठकर वह सूखती हुई झील को देखने लगी। देखते-देखते उसके मन में विषाद और करुणा का भाव जागृत होकर उसे उदास बनाने लगा। शैला को दृढ़ विश्‍वास हो गया कि जिस पत्‍थर पर वह बैठी है, उसी पर उसकी माता जेन आकर बैठती थी। अज्ञात अतीत को जानने की भावना उसे अंधकार में पूर्व-परिचितों के समीप ले जाने का प्रयत्‍न करने लगी। जीवन में यह विचित्र श्रृंखला है। जिस दिन से उसे बार्टली और जेन का संबंध इस भूमि से विदित हुआ, उसी दिन से उसकी मानस-लहरियों में हलचल हुई। पहले उसके हृदय ने तर्क-वितर्क किया। फिर बाल्‍यकाल की सुनी हुई बातों ने उसे विश्‍वास दिलाया कि उसकी माता जेन ने अपने जीवन के सुखी दिनों को यहीं बिताया है। अवश्‍य उसकी माता भारत के एक नील-व्‍यवसायी की कन्‍या थी। फिर जब उसके संबंध में यहाँ प्रमाण भी मिलता है, तब उसे संदेह करने का कोई कारण नहीं। अज्ञात नियति की प्रेरणा उसे किस सूत्र से यहाँ खींच लाई है, यही उसके हृदय का प्रश्‍न था। वह सोचने लगी, यहाँ पर उसकी माता की कितनी सुखद स्‍मृतियां शून्‍य में विलीन हो गई। आह ! उसके दु:ख से भरे वे अंतिम दिन कितने प्‍यार से इन स्‍थलों को स्‍मरण करते रहे होंगे। इसी झील में छोटी-सी नाव पर उस अतीतकाल में वह कितनी बार घूमकर इसी कोठी में लौटकर चली आई होगी। उसे कल्‍पना की एकाग्रता ने माता के पैरों को चाप तक सुनवा दी। उसे मालूम हुआ कि उस खंडहर की सीढ़ियों पर सचमुच कोई चढ़ रहा है। वह घूमकर खड़ी हो गई, किंतु रामजस और मधुबन के अतिरिक्‍त कोई नहीं दिखाई दिया। वह फिर बैठ गई और दोनों हाथों से अपना मुँह ढंककर सिसकने लगी।


माता का प्‍यार उसकी स्‍मृति मात्र से ही उसे सहलाने लगा। उस भयावने खंडहर में माता का स्‍नेह जैसे बिखर रहा था। वह जीवन में पहिली बार इस अनुभूति से परिचित हुई। उसे विश्‍वास हो गया कि यही उसका जन्‍म-जन्‍म का आवास है, आज तक वह जो कुछ देख सकी थी, वह सब विदेश की यात्रा थी। आंखों के सामने दो खड़ी के मनोरंजन करने वाले दृश्‍य, सो भी उसमें कटुता की मात्रा ही अधिक थी, जो कष्‍ट झेलने वाली सहनशील मनोवृत्ति के निदर्शन थे। आज उसे वास्‍तविक विश्राम मिला। वह और भी बैठती, किंतु मधुबन ने कहा-रामजस, तुमको जाड़ा लग रहा है क्‍या ?


नहीं भइया, यही सोचता हूँ कि कहीं एक चिलम ...


पागल, यहाँ से गांव में जाकर लौटने में घंटों लग जाएंगे।


तो न सही-कहकर वह अपनी कमली मुट्टियों में दबाने लगा। शैला की एकग्रता भंग हो गई। उसने पूछा- मधुबन, क्‍या हम लोगों को चलना चाहिए ?


रात बहुत हो चली, वह देखिए, सातों तारे इतने ऊपर चढ़ आए हैं ! छावनी पहुँचते-पहुँचते हम लोगों को आधी रात हो जाएगी।


तब चलो-कहकर शैला निस्‍तब्‍ध टीले से नीचे उतरने लगी। मधुबन और रामजस उसके आगे और पीछे थे। वह यंत्र-चालित पुतली की तरह पथ अतिक्रम कर रही थी, और मन में सोच रही थी, अपने अतीत जीवन की घटनाएं। दुर्वृत्त पिता की अत्‍याचार-लीलाएं फिर माता जेन का छटपटाते हुए कष्‍टमय जीवन से छुट्टी पाना, उस प्रभाव की भीषणता में अनाथिनी होकर भिखमंगों और आवारों के दल में जाकर पेट भरने की आरंभिक शिक्षा, धीरे-धीरे उसका अभ्‍यास, फिर सहसा इन्‍द्रदेव से भेंट-संध्‍या के क्रमश: प्रकाशित होने वाले नक्षत्रों की तरह उसके शून्‍य, मलिन और उदास अंतस्‍तल के आकाश में प्रज्‍वलित होने लगे। वह सोचने लगी -


नियति दुस्‍तर समुद्र को पार कराती है, चिरकाल के अतीत को वर्तमान से क्षण-भर में जोड़ देती है, और अपरिचित मानवता-सिंधु में से उसी एक से परिचय करा देती है, जिससे जीवन की अग्रगामिनी धारा अपना पथ निर्दिष्‍ट करती है। कहाँ भारत, कहाँ मैं और कहाँ इन्‍द्रदेव ! और फिर तितली !- जिसके कारण मुझे अपनी माता की उदारता के स्‍वर्गीय संगीत सुनने को मिले, यह पावन प्रदेश देखने को मिला !


उसके मन में अनेक दुराशाएं जाग उठीं। आज तक वह संतुष्‍ट थी। अभावपूर्ण जीवन इन्‍द्रदेव की कृतज्ञता में आबद्ध और संतुष्‍ट था। किंतु इस दृश्‍य ने उसे कर्मक्षेत्र में उतरते के लिए एक स्‍पर्द्धामय आमंत्रण दिया। उसका सरल जीवन जैसे चतुर और सजग होने के लिए व्‍यस्‍त हो उठा।


वह कच्ची सड़क से धीरे-धीरे चली जा रही थी। पीछे से मोटर की आवाज सुन पड़ी। वह हटकर चलने लगी। किंतु मोटर उसके पास आकर रुक गई। भीतर से अनवरी ने पुकारा -मिस शैला हैं क्‍या ?


हाँ।


छावनी पर ही चल रही हैं न ? आइए न।


धन्‍यवाद। आप चलिए , मैं आती हूँ। - अन्‍यमनस्‍क भाव से शैला ने कह दिया पर अनवरी सहज में छोड़ने वाली नहीं। उसने अपने पास बैठे हुए कृष्‍णमोहन से धीरे-से कहा-यह तुम्‍हारी मामी हैं, उन्‍हें जाकर बुला लो।


शैला उस फुसफुसाहट को सुनने के लिए वहाँ ठहरी न थी। आगे बढ़कर कृष्‍ण्‍ामोहन ने नमस्‍कार करके कहा-आइए न।


शैला कृष्‍णमोहन का अनुरोध न टाल सकी। मोटर के प्रकाश में उसका प्‍यारा मुख अधिक आग्रहपूर्ण और विनीत दिखाई पड़ा।


शैला ने मधुबन से कहा-मधुबन, कल छावनी पर अवश्‍य आना। कृष्‍णमोहन के साथ शैला मोटर पर बैठ गई।


2

तहसीलदार ने कागजों पर बड़ी सरकार से हस्‍ताक्षर करा ही लिया, क्‍योंकि शैला की योजना के अनुसार किसानों का एक बैंक और एक होमियोपैथी का नि:शुल्‍क औषधालय सबसे पहले खुलना चाहिए। गांव का जो स्‍कूल है, उसे ही अधिक उन्‍नत बनाया जा सकता है। तीसरे दिन जहाँ बाजार लगता है, वहीं एक अच्‍छा-सा देहाती बाजार बसाना होगा, जिसमें करघे के कपड़े, अन्‍न, बिसाती-खाना और आवश्‍यक चीजें बिक सकें। गृहशिल्‍प को प्रोत्‍साहन देने के लिए वहीं से प्रयत्‍न किया जा सकता है। किसानों में खेतों के छोटे-छोटे टुकड़े बदलकर उनका एक जगह चक बनाना होगा, जिसमें खेती की सुविधा हो। इसके लिए जमींदार को अनेक तरह की सुविधाएं देनी होंगी।


यह सबसे पीछे होगा। बैंक पहले खुलना चाहिए। कलेक्‍टर ने इसके लिए विशेष आग्रह किया है।


तहसीलदार के सुझाने पर शैला ने शेरकोट को ही बैंक के लिए अधिक उपयुक्‍त लिख दिया था, किंतु मधुबन के पिता की जमींदारी नीलाम खरीद हुई थी श्‍यामदुलारी के नाम। वह हिस्‍सा अभी तक उन्‍हीं के नाम से खेवट में था। इसलिए श्‍यामदुलारी ने थोड़ी-सी गर्व की हंसी हंसते हुए हस्‍ताक्षर करने पर कहा, तहसीलदार ! अब तो मुझे इससे छुट्टी दो। इन्‍द्र से ही जो कुछ हो, लिखाया-पढ़ाया करो।


तहसीलदार ने चश्‍मे में से माधुरी की ओर देखकर कहा-सरकार, यह मैं कैसे कह सकता हूँ कि आप अपना अधिकार छोड़ दें। न मालूम क्‍या समझकर आपके नाम से बड़े सरकार ने यह हिस्‍सा खरीदा था। आप इसे जो चाहे कर सकती हैं। यदि आप किसी के नाम इसकी स्‍पष्‍ट लिखा-पढ़ी न करें, तो यह कानून के अनुसार बीबीरानी का हो सकता है। छोटे सरकार से तो इसका कोई संबंध...


श्‍यामदुलारी ने कड़ी निगाह से तहसीलदार को देखा। उसमें संकेत था उसे चुप करने के लिए, किंतु कूटनीति-चतुर व्‍यक्ति ने थोड़ी-सी संधि पाते ही, जो कुछ कहना था, कह डाला !


माधुरी इस आकस्मिक उद्घाटन से घबराकर दूसरी ओर देखने लगी थी ? वह मन में सोच रही थी, मुझे क्‍या करना चाहिए ?


माधुरी के जीवन में प्रेम नहीं, सरलता नहीं, स्निग्‍धता भी उतनी न थी। स्‍त्री के लिए जिस कोमल स्‍पर्श की अत्‍यंत आवश्‍यकता होती है, वह श्‍यामलाल से कभी मिला नहीं। तो भी मन को किसी तरह संतोष चाहिए। पिता के घर का अधिकार ही उसके लिए मन बहलाने का खिलौना था। वह भी जानती थी कि यह वास्‍तविक नहीं, तो भी जब कुछ नहीं मिलता तो मानव-हृदय कृत्रिम को ही वास्‍तविक बनाने की चेष्‍टा करता है। माधुरी भी अब तक यहीं कर रही थी।


चौबेजी कब चूकने वाले थे ! उन्‍होंने खांसकर कहना आंरभ किया - बडे़ सरकार सब समझते थे। विलायत भेजकर जो कुछ होने वाला था, वह सब अपनी दूर-दृष्टि से देख रहे थे। इसी से उन्‍होंने यह प्रबंध कर दिया था, तहसीलदार साहब ने इस समय उसको प्रकट कर दिया। यह अच्‍छा ही किया। आगे आपकी इच्‍छा।


श्‍यामदुलारी ऊब रही थी, क्‍योंकि सब कुछ जानते हुए भी वह नहीं चाहती थीं कि उनकी दोनों संतानों में भेद का बीजारोपण हो। इन स्‍वयंसेवक सम्‍मतिदाताओं से वह घबरा गई।


माधुरी ने इस क्षोभ को ताड़ लिया। उसने कहा-इस समय तो आपका काम हो ही गया, अब आप लोग जाइए।


तहसीलदार ने सिर झुकाकर विनयपूर्वक विदा ली। चौबेजी भी बाहर चले गए।


श्‍यामदुलारी ने मौन हो जाने से वहाँ का वातावरण कुंठित सा हो गया। माधुरी जैसे कुछ कहने में संकुचित थी। कुछ देर तक यही अवस्‍था बनी रही।


फिर सहसा माधुरी ने कहा-क्‍यों मां ! क्‍या सोच रही हो ? यह भला कौन-सी बात है इतनी सोचने-विचारने की ! ये लोग तो ऐसी व्‍यर्थ की बातें निकालने में बड़े चतुर हैं ही। तुमको तो यह काम पहले ही कर डालना चाहिए।


किंतु क्‍या कर डालना चाहिए, उसे माफ-माफ माधुरी ने भी अभी नहीं सोचा था। वह केवल मन बहलाने वाली कुछ बातें करना चाहती थी। किंतु श्‍यामदुलारी के सामने यह एक विचारणीय प्रश्‍न था। उन्‍होंने सिर उठाकर गहरी दृष्टि से देखते हुए पूछा-क्‍या ?


माधुरी क्षण-भर चुप रही, तो भी उसने साहस बटोरकर कहा-भाई साहब का नाम उस पर भी चढ़ावा दो, झगड़ा मिटे।


श्‍यामदुलारी ने सिर झुका लिया। वह सोचने लगीं। उनके सामने एक समस्‍या खड़ी हो गई थी।


समस्‍याएं तो जीवन में बहुत-सी रहती हैं, किंतु वे दूसरों के स्‍वार्थों और रुचि तथा कुरुचि के द्वारा कभी-कभी जैसे सजीव होकर जीवन के साथ लड़ने के लिए कमर कसे हुए दिखाई पड़ती हैं।


श्‍यामदुलारी के सामने उनका जीवन इन चतुर लोगों की कुशल कल्‍पना के द्वारा निस्‍सहाय वैधव्‍य के रुप में खड़ा हो गया।


दूसरी ओर थी वास्‍तविकता से वंचित माधुरी के कृत्रिम भावी जीवन की दीर्घकालव्‍यापिनी दु:ख रेखा। एक क्षण में ही नारी -हृदय ने अपनी जाति की सहानुभूति से अपने को आपाद-मस्‍तक ढंक लिया।


माधुरी की ओर देखते हुए श्‍यामदुलारी की आंखें छलछला उठीं। उन्‍हें मालूम हुआ कि माधुरी उस संपत्ति को इन्‍द्रदेव के नाम करने का घोर विरोध कर रही है। उसकी निस्‍सहाय अवस्‍था, उसके पति की हृदय-हीनता और कृष्‍णमोहन का भविष्‍य-सब उसकी ओर से श्‍यामदुलारी की वृद्धि को सहायता देने लगे।


माधुरी ने कहने को तो कह दिया ! परंतु फिर उसने आंख नहीं उठाई। सिर झुकाकर नीचे की ओर देखने लगी।


श्‍यामदुलारी ने कहा - माधुरी, अभी इसकी आवश्‍यकता नहीं है। तू सब बातों में टांग मत अड़ाया कर। मैं जैसे समझूंगी, करूंगी।


माधुरी इस मीठी झिड़की से मन-ही-मन प्रसन्‍न हुई। वह नहाने चली गई, सो भी रूठने का-सा अभिनय करते हुए। श्‍यामदुलारी मन-ही-मन हंसी।


3

सहसा एक दिन इन्‍द्रदेव को यह चेतना हुई कि वह जो कुछ पहले थे, अब नहीं रहे ! उन्‍हें पहले भी कुछ-कुछ ऐसा भान होता था कि परदे पर एक दूसरा चित्र तैयारी से आने वाला है, पर उसके इतना शीघ्र आने की संभावना न थी। शैला के लिए वह बार-बार सोचने लगे थे। उसकी क्‍या स्थिति होगी, यही वह अभी नहीं समझ पाते थे। कभी-कभी वह शैला के संसर्ग से अपने को मुक्‍त करने की भी चेष्‍टा करने लगते-यह भी विरक्ति के कारण नहीं, केवल उसका गौरव बनाने के लिए। उनके कुटुंब वालों के मन में शैला को वेश्‍या से अधिक समझने की कल्‍पना भी नहीं हो सकती थी। यह प्रच्‍छन्‍न व्‍यंग्‍य उन्‍हें व्‍यथित कर देता था।


उधर शैला भी इससे अपरिचित थी - ऐसी बात नहीं।तब भी इन्‍द्रदेव से अलग होने की कल्‍पना उसके मन में नहीं उठती थी। इसी बीच में उसने शहर में जाकर मिशनरी सोसाइटी से भी बातचीत की थी। उन लोगों ने स्‍कूल खोलकर शिक्षा देने के लिए उसे उकसाया।


किंतु उसने मिशनरी होना स्‍वीकार नहीं किया। इधर वह बाबा रामनाथ के यहाँ हितोपदेश पढ़ने भी पढ़ने भी जाती थी अर्थात् इन्‍द्रदेव और शैला दोनों ही अपने को बहलाने की चिंता में थे। वे इस उलझन को स्‍पष्‍ट करने के लिए क्‍या-क्‍या करने की बातें सोचते थे, पर एक-दूसरे से कहने में संकुचित ही नहीं, किंतु भवभीत भी थे, क्‍योंकि इन्‍द्रदेव के परिवार में परिवार में घटनाएं बड़े वेग से विकसित हो रही थीं। किंसी भी क्षण में विस्‍फोट होकर कलह प्रकट हो सकता था।


इमली के पेड़ के नीचे आरामकुर्सियों पर शैला और इन्‍द्रदेव बैठकर एक-दूसरे को चुपचाप देख रहे थे। प्रभात की उजली धूप टेबुल पर बिछे हुए रेशमी कपड़ों पर, रह-रहकर तड़प उठती थी, जिस पर धरे हुए फूलदान के गुलाबों में से एक भीनी महक उठकर उनके वातावरण को सुगंधपूर्ण कर रही थी।


इन्‍द्रदेव ने जैसे घबराकर कहा-शैला !


क्‍या !


तुम कुछ देख रही हो ?


सब कुछ। किंतु इतने विचारमूढ़ कयों हो रहे हो ? यही समझ में नहीं आता।


तुम्‍हारी वह कल्‍पना सफल होती नहीं दिखाई देती। इसी का मुझे दु:ख है।


किंतु अभी हम लोगों ने उसके लिए कुछ किया भी तो नहीं।


कर नहीं सकते।


यह मैं नहीं मानती।


तुमको कुछ मालूम है कि तुम्‍हारे संबंध में यहाँ कैसी बातें फैलाई जा रही हैं ?


हाँ ! मैं रात-रात को घूमा करती हूँ, जो भारतीय स्त्रियों के लिए ठीक नहीं। मैं रामनाथ के यहाँ संस्‍कृत पढ़ने जाती हूँ। यह भी बुरा करती हूँ। और, तुमको भी बिगाड़ रही हूँ। यही बात न ? अच्‍छा, इन बातों के किसी-किसी अंश पर देखती हूँ कि तुम भी अधिक ध्‍यान देने लगे हो। नहीं तो इतना सोचने-विचारने की क्‍या आवश्‍यकता थी ? मैं -


इतना ही नहीं। मैं अब इसलिए चिंतित हूँ कि अपना और तुम्‍हारा संबंध स्‍पष्‍ट कर दूं। यह ओछा अपवाद अधिक सहन नहीं किया जा सकता।


किंतु में अभी उस प्रश्‍न पर विचारने की आवश्‍यकता ही नहीं समझती !- शैला ने ईषत् हंसी से कहा।


क्‍यों ?


तुम्‍हारे संसर्ग से जो मैंने सीखा है, उसका पहला पाठ यही है कि दूसरे मुझको क्‍या कहते हैं, इस पर इतना ध्‍यान देने की आवश्‍यकता नहीं। पहले मुझे ही अपने विषय में सच्‍ची जानकारी होनी चाहिए। मैं चाहती हूँ कि तुम्‍हारी जमींदारी के दातव्‍य विभाग से जो खर्च स्‍वीकृत हुआ है, उसी में मैं अपना और औषधालय का काम चलाऊं। बैंक में भी कुछ काम कर सकूं, तो उससे भी कुछ मिल जाया करेगा। और मेरी स्‍वतंत्र स्थिति इन प्रवादों को स्‍वयं ही स्‍पष्‍ट कर देगी।


बात तो ठीक है - इन्‍द्रदेव ने कुछ सोचकर धीरे-से कहा।


पर इसके लिए तुमको एक प्रबंध कर देना पड़ेगा। पहले मैंने सोचा था कि गांव में कई जगह कर्म-केंद्र की सृष्टि हो सकती है। भिन्न-भिन्‍न शक्ति वाले अपने-अपने काम में जुट जाएंगे। किंतु अब मैं देखती हूँ कि इसमें बड़ी बाधा है, और में उन पर इस तरह नियंत्रण न कर सकूंगी। इसलिए बैंक और औषधालय, ग्रामसुधार और प्रचार-विभाग, सब एक ही स्‍थान पर हों।


तो ठीक है ! शेरकोट में ही सब विभागों के लिए कमरे बनवाने की व्‍यवस्‍था कर दो न !


किंतु इसमें मैं एक भूल कर गई हूँ। क्‍या उसके सुधारने का कोई उपाय नहीं है ?


भूल कैसी ?


कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो जान-बूझकर एक रहस्‍यपूर्ण घटना को जन्‍म देते हैं। स्‍वयं उसमें पड़ते हैं और दूसरों को भी फंसाते हैं। मैं भी शेरकोट को बैंक के लिए चुनने में कुछ इस तरह मूर्ख बनाई गई हूँ।


इन्‍द्रदेव ने हंसने हुए कहा-मैं देख रहा हूँ कि तुम अधिक भावनामयी होती जा रही हो। यह संदेह अच्‍छा नहीं। शेरकोट के लिए तो मां ने सब प्रबंध कर भी दिया है। अब फिर क्‍या हुआ ?


शेरकोट एक पुराने वंश की स्‍मृति है। उसे मिटा देना ठीक नहीं। अभी मधुबन नाम का एक युवक उसका मालिक है। तहसीलदार से उसकी कुछ अनबन है, इसलिए यह ...


मधुबन ! अच्‍छा मैं क्‍या कर सकता हूँ। तुम बैंक न भी बनवाओ, तो होता क्‍या है। अब तो वह बेचारा उस शेरकोट से निकाला ही जाएगा।


तुम एक बार मां से कहो न ! और नीलवाली कोठी की मरम्‍मत करा दो, इसमें रुपए भी कम लेंगे, और ....


नीलवाली कोठी ! आश्‍चर्य से इन्‍द्रदेव ने उसकी ओर देखा।


हाँ, क्‍यों ?


अरे वह तो भुतही कोठी कहीं जाती है।


जहाँ मनुष्‍य नहीं रहते वहीं तो भूत रह सकेंगे ? इन्‍द्रदेव ! मैं उस कोठी की बहुत प्‍यार करती हूँ।


कब से शैला ? - हंसते हुए इन्‍द्र ने उसका हाथ पकड़ लिया।


इन्‍द्र। तुम नहीं जानते। मेरी मां यहीं कुछ दिनों तक रह चुकी है।


इन्‍द्रदेव की आंखें जैसी बड़ी हो गई। उन्‍होंने कुर्सी से उठ खड़े होकर कहा-तुम क्‍या कह रही हो ?


बैठो और सुनो। मैं वही कह रही हूँ, जिसके मुझे सच होने का विश्‍वास हो रहा है। तुम इसके लिए कुछ करो। मुझे तुमसे दान लेने में तो कोई संकोच नहीं। आज तक तुम्‍हारे ही दान पर मैं जी रही हूँ, किंतु वहाँ रहने देकर मुझे सबसे बड़ी प्रसन्‍नता तुम दे सकते हो। और, मेरी जीविका का उपाय भी कर सकते हो।


शैला की इस दीनता से घबराकर इन्‍द्रदेव ने कुर्सी खींचकर बैठते हुए कहा- है।


शैला ! तुम काम-काज की इतनी बातें करने लगी हो कि मुझे आश्‍चर्य हो रहा है। जीवन में यह परिवर्तन सहसा होता है, किंतु यह क्‍या ! तुम मुझको एक बार ही कोई अन्‍य व्‍यक्ति क्‍यों समझ बैठी हो? मैं तुमको दान दूंगा ? कितने आश्‍चर्य की बात है !


यह सत्‍य है इन्‍द्रदेव ! इसे छिपाने से कोई लाभ नहीं। अवस्‍था ऐसी है कि अब मैं तुमसे अलग होने की कल्‍पना करके दुखी होती हूँ, किंतु थोड़ी दूर हटे बिना काम भी नहीं चलता। तुमको और अपने को समान अंतर पर रखकर, कुछ दिन परीक्षा लेकर, तब मन से पूछूंगी।


क्‍या पूछोगी शैला !


कि वह क्‍या चाहता है। तब तक के लिए यही प्रबंध रहना ठीक होगा। मुझे काम करना पड़ेगा, और काम किए बिना यहाँ रहना मेरे लिए असंभव है। अपनी रियासत में मुझे एक नौकरी और रहने की जगह देकर मेरे बोझ से तुम इस समय के लिए छुट्टी पा जाओ, और स्‍वतंत्र होकर कुछ अपने विषय में भी सोच लो।


शैला बड़ी गंभीरता से उनकी ओर देखते हुए फिर कहने लगी-हम लोगों के पश्चिमी जीवन का यह संस्‍कार है कि व्‍यक्ति को स्‍वावलंब पर खड़े होना चाहिए। तुम्‍हारे भारतीय हृदय में, जो कौटुंबिक कोमलता में पला है, परस्‍पर सहानुभूति की-सहायता की बड़ी आशाएं, परंपरागत संस्‍कृति के कारण, बलवती रहती हैं। किंतु मेरा जीवन कैसा रहा है, उसे तुमसे अधिक कौन जान सकता है ! मुझसे काम लो और बदले में कुछ दो।


अच्‍छा, यह सब मैं कर लूंगा, पर मधुबन के शेरकोट का क्‍या होगा ? मैं नहीं कहना चाहता। मां न जाने क्‍या मन में सोचेंगी। जबकि उन्‍होंने एक बार कह दिया, तब उसके प्रतिकूल जाना उनकी प्रकृति के विरुद्ध है। तो भी तुम स्‍वयं कहकर देख लो।


यह मैं नहीं पसंद करती इन्‍द्रदेव ! मैं चाहती हूँ कि जो कुछ कहना हो, अपनी माताजी से तुम्‍हीं कहो। दूसरों से वही बात सुनने, पर जिसे कि अपनों से सुनने की आशा करती है - मनुष्‍य के मन में एक ठेस लगती है। यह बात अपने घर में तुम आरंभ न करो।


देखो शैला। वह आरंभ हो चुकी है, अब उसे रोकने में असमर्थ हूँ। तब भी तुम कहती हो, तो मैं ही कहकर देखूंगा कि क्‍या होता है। अच्‍छा तो जाओ, तुम्‍हारे हितोपदेश के पाठ का यही समय है न ! वाह ! क्‍या अच्‍छा तुमने यह स्‍वांग बनाया है।


शैला ने स्निग्‍ध दृष्टि से इन्‍द्रदेव को देखकर कहा-यह स्‍वांग नहींहै, मैं तुम्‍हारे समीप आने का प्रयत्‍न कर रही हूँ - तुम्‍हारी संस्‍कृति का अध्‍ययन करके।


अनवरी को आते देखकर उल्‍लास से इन्‍द्रदेव ने कहा-शीला ! शेरकोट वाली बात अनवरी से ही मां तक पहुंचाई जा सकती है।


शैला प्रतिवाद करना ही चाहती थी कि अनवरी सामने आकर खड़ी हो गई। उसने कहा-आज कई दिन से आप उधर नहीं आई हैं। सरकार पूछ रही थीं कि…


अरे पहले बैठ तो जाइए -कुर्सी खिसकाते हुए शैला ने कहा, मैं तो स्‍वयं अभी चलने के लिए तैयार हो रही थी।


अच्‍छा -


हाँ, शरेकोट के बारे में रानी साहबा से मुझे कुछ कहना था। मेरे भ्रम से एक बड़ी बुरी बात हो रही है, उसे रोकने के लिए ...


क्‍या ?


मधुबन बेचारा अपनी झोंपड़ी से भी निकाल दिया जाएगा। उसके बाप-दादों की डीह है। मैंने बिना समझे बूझे बैंक के लिए वही जगह पसंद की। उस भूल को सुधारने के लिए मैं अभी ही आने वाली थी।


मधुबन ! हाँ, वहीं न, जो उस दिन रात को आपके साथ था, जब आप नील-कोठी से आ रही थीं ? उस पर तो आपको दया करनी ही चाहिए-कहकर अनवरी ने भेद-भरी दृष्टि से इन्‍द्रदेव की ओर देखा।


इन्‍द्रदेव कुर्सी छोड़ उठ खड़े हुए।


शैला ने निराशा दृष्टि से उनकी ओर देखते हुए कहा- तो इस मेरी दया में आपकी सहायता की भी आवश्‍यकता हो सकती है। चलिए।


4

क्‍यों बेटी ! तुमने सोच-विचार लिया ? - कोठरी के बाहर बैठे हुए रामनाथ ने पूछा।


भीतर से राजकुमारी ने कहा-बाबाजी, हम लोग इस समय ब्‍याह करने के लिए रुपए कहाँ से लावें ?


रुपयों से ब्‍याह नहीं होगा बेटी ! ब्‍याह होगा मधुबन से तिलली का। तुम इसे स्‍वीकार कर लो, और जो कुछ होगा मैं देख लूंगा। मैं अब बूढ़ा हुआ, तितली की तुम लोगों की स्‍नेह-छाया में दिए बिना मैं कैसे सुख से मरूंगा ?


अच्‍छा, पर एक बात और भी आपने समझ ली है ? क्‍या मधुबन, तितली के साथ गृहस्‍थी चलाने के लिए, दु:ख-सुख भोगने के लिए तैयार है ? वह अपनी सुध-बुध तो रखता ही नहीं। भला उसके गले एक बछिया बांधकर क्‍या आप ठीक करेंगे ?


सुनो बेटी, दस बीघा तितली के, और तुम लोगों के जो खेत हैं - सब मिलाकर एक छोटी-सी गृहस्‍थी अच्‍छी तरह चल सकेगी। फिर तुमको तो यही सब देखना है, करना है, सब सम्‍हाल लोगी। मधुबन भी पढ़ा-लिखा परिश्रमी लड़का है। लग-लपटकर अपना घर चला ही लेगा।


मधुबन से भी आप पूछ लीजिए। वह मेरी बात सुनता कब है। कई बार मैंने कहा कि अपना घर देख, वह हंस देता है, जैसे उसे इसकी चिंता ही नहीं। हम लोग न जाने कैसे अपना पेट भर लेते हैं। फिर पराई लड़की घर में ले आकर तो उसकी तरह नहीं चल सकता।


तुम भूलती हो बेटी ! पराई लड़की समझता तो मैं उसके ब्‍याह की यहाँ चर्चा न चलाता। मधुबन और तितली दोनों एक-दूसरे की अच्‍छी तरह पहचान गए हैं। और तितली पर तुमको दया ही नहीं करनी होगी, तुम उसे प्‍यार भी करोगी। उसे तुमने इधर देखा है ?


नहीं, अब तो वह बहुत दिन से इधर आती ही नहीं।


आज मेम साहब के साथ वह भी नहाने गई है। शैला का नाम तो तुमने सुना होगा ? वही जो यहाँ के जमींदार इन्‍द्रदेव के साथ विलायत से आई है। बड़ी अच्‍छी सुशील लड़की है। वह भी मेरे यहाँ संस्‍कृत पढ़ती है। तुम चलकर उन दोनों से बात भी कर लो और देख भी लो।


अच्‍छा, मैं अभी आती हूँ।


मैं भी चलता हूँ बैटी ! मधुबन उनके संग नहीं है। मल्‍लाह को तो सहेज दिया है। तो चलूं।


रामनाथ नहाने के घाट की ओर चले। राजकुमारी भी रामदीन की नानी के साथ गंगा की ओर चली।


अभी वह शेरकोट से बाहर निकलकर पथ पर आई थी कि सामने से चौबेजी दिखाई पड़े। राजकुमारी ने एक बार घूंघट खींचकर मुड़ते हुए निकल जाना चाहा। किंतु चौबे ने सामने आकर टोक ही दिया-भाभी हैं क्या ? अरे मैं तो पहचान ही न सका !


दुख में सब लोग पहचान लें, ऐसा तो नहीं होता। राजकुमारी ने अनखाते हुए कहा।


अरे नहीं-नहीं ! मैं भला भूल जाऊंगा ? नौकरी ठहरी। बराबर सोचता हूँ कि एक दिन शेरकोट चलूं, पर छुट्टी मिले तब तो। आज मैंने भी निश्‍चय कर लिया था कि भेंट करूंगा ही।


चौबेजी के मुँह पर एक स्निग्‍धता छा गई थी, वह मुस्कुराने की चेष्‍टा करने लगे।


किंतु मैं नहाने जा रही हूँ।


अच्‍छी बात है, मैं थोड़ी देर में आऊंगा। - कहकर चौबेजी दूसरी ओर चले गए, और राजकुमारी को पथ चलना दूभर हो गया !


कितने बरस पहले की बात है ! जब वह ससुराल में थी, विधवा होने पर भी बहुत-सादु:ख, मान-अपमान भरा समय वह बिता चुकी थी। वह ससुराल की गृहस्‍थी में बोझ-सी हो उठी थी। चचेरी सास के व्‍यंग्‍य से नित्‍य ही घड़ी-दो-घड़ी कोने में मुँह डालकर रोना पड़ता। सब कुछ सहकर भी वहीं खटना पड़ता।


ससुराल के पुरोहितों में चौबेजी का घराना था। चौबे प्राय: आते-जाते वैसे ही, जैसे घर के प्राणी, और गांव के सहज नाते से राजकुमारी के वह देवर होते-हंसने-बोलने की बाधा नहीं थी।


राजकुमारी के पति के सामने से ही यह व्‍यवहार था। विधवा होने पर भी वह छूटा नहीं। उस निराश और कष्‍ट के जीवन में भी कभी-कभी चौबे आकर हंसी की रेखा खींच देते। दोनों के हृदय में एक सहज स्निग्‍धता और सहानुभूति थी। दिन-दिन वहीं बढ़ने लगी। स्‍त्री का हृदय था, एक दुलार का प्रत्‍याशी, उसमें कोई मलिनता न थी।


चौबे भी अज्ञात भाव से उसी का अनुकरण कर हे थे। पर वह कुछ जैसे अंधकार में चल रहे थे। राजकुमारी फिर भी सावधान थी !


एक दिन सहसा नियमित गालियां सुनने के समय जब चौबे का नाम भी उसमें मिलकर भीषण अट्टहास कर उठा, तब राजकुमारी अपने मन में न जाने क्‍यों वास्‍तविकता को खोजने लगी। वह जैसे अपमान की ठोकर से अभिभूत होकर उसी ओर पूर्ण वेग से दौड़ने के लिए प्रस्‍तुत हुई, बदला लेने के लिए और अपनी असहाय अवस्‍था का अवलंब खोजने के लिए। किंतु वह पागलपन क्षणिक हो रहा। उसकी खीझ फल नहीं पा सकी। सहासा मधुबन को सम्‍हालने के लिए उसे शेरकोट चले आना पड़ा। वह भयानक आंधी क्षितिज में ही दिखलाई देकर रुक गई। चौबे नौकरी करने लगे राजा साहब के यहाँ, और राजकुमारी शेरकोट के झाडू और दीए में लगी - यह घटना वह संभव !! भूल गई थी, किंतु आज सहसा विस्‍मृत चित्र सामने आ गया।


राजकुमारी का मन अस्थिर हो गया। वह गंगाजी के नहाने के घाट तक बड़ी देर से पहुंची।


शैला और तितली नहाकर ऊपर खड़ी थीं। बाबा रामनाथ अभी संध्‍या कर रहे थे। राजकुमारी को देखते ही तितली ने नमस्‍कार किया और शैला से कहा- आप ही हैं, जिनकी बात बाबाजी कर रहे थे ?


शैला ने कहा- अच्‍छा! आप ही मधुबन की बहिन हैं ? जी।


में मधुबन के साथ पढ़ती हूँ। आप मेरी भी बहन हुई न ? शैला ने सरल प्रसन्‍नता से कहा।


राजकुमारी ने मेम के इस व्‍यवहार से चकित होकर कहा-मैं आपकी बहन होने योग्‍य हूँ ? यह आपकी बड़ाई है।


क्‍यों नहीं बहन ! तुम ऐसा क्‍यों सोचती हो ? आओ, इस जगह बैठ जाएं।


अच्‍छा होगा कि तुम भी स्‍नान कर लो, तब हम लोग साथ ही चलें।


नहीं, आपको विलंब होगा। - कहकर राजकुमारी विशाल वृक्ष के नीचे पड़े हुए पत्‍थर की ओर बढ़ी।


शैला और तितली भी उसी पर जाकर बैठीं।


राजकुमारी का हृदय स्निग्‍ध हो रहा था।उसने देखा, तितली अब वह चंचल लड़की न रही, जो पहले मधुबन के साथ खेलने आया करती थी। उसकी काली रजनी-सी उनींदी आंखें जैसे सदैव कोई गंभीर स्‍वप्‍न देखती रहती हैं। लंबा छरहरा अंग, गोरी-पतली उंगलियां, सहज उन्‍नत ललाट, कुछ खिंची हुई भौंहे और छोटा-सा पतले-पतले अधरोंवाला मुख-साधारण कृषक-बालिका से कुछ अलग अपनी सत्ता बता रहे थे। कानों के ऊपर से ही घूंघट था, जिससे लटें निकली पड़ती थीं। उसकी चौड़ी किनारे की धोती का चंपई रंग उसके शरीर में धुला जा रहा था। वह संध्‍या के निरभ्र गगन में विकसित होने वाली-अपने ही मधुर आलोक से तुष्‍ट-एक छोटी-सी तारिका थी।


राजकुमारी, स्‍त्री की दृष्टि से, उसे परखने लगी, और रामनाथ का प्रस्‍ताव मन-ही-मन दुहराने लगी।


शैला ने कहा-अच्‍छा, तुम कहीं आती-जाती नहीं हो बहन !


कहाँ जाऊं ?


तो मैं ही तुम्‍हारे यहाँ कभी-कभी आया करूंगा। अकेले घर में बैठे-बैठे कैसे तुम्‍हारा मन लगता है ?


बैठना ही तो नहीं है ! घर का काम कौन करता है ? इसी में दिन बीतता जा रहा है। देखिए, यह तितली पहले मधुबन के साथ कभी-कभी आ जाती थी, खेलती थी। अब तो सयानी हो गई है। क्‍यों री, अभी तो ब्‍याह भी नहीं हुआ, तू इतनी लजाती क्‍यों है ? घूमकर जब उसने तितली की ओर देखकर यह बात कही, तो उसके मुख पर एक सहज गंभीर मुस्‍कान-लज्‍जा के बादल में बिजली सी चमक उठी।


शैला ने उसकी ठोढ़ी पकड़कर कहा-यह तो अब यहीं आकर रहना चाहती है न, तुम इसको बुलाती नहीं हो, इसीलिए रुठी हुई है।


तितली को अपनी लज्‍जा प्रकट करने के लिए उठ जाना पड़ा। उसने कहा-क्‍यों नहीं आऊंगी।


बाबा रामनाथ ऊपर आ गए थे। उन्‍होंने कहा-अच्‍छा, तो अब चलना चाहिए।


फिर राजकुमारी की ओर देखकर कहा-तो बेटी, फिर किसी दिन आऊंगा।


राजकुमारी ने नमस्‍कार किया। वह नहाने के लिए नीचे उतरने लगी, और शैला तितली के साथ रामनाथ का अनुसरण करने लगी।


गंगा के शीतल जल में राजकुमारी देर तक नहाती रही, और सोचती थी अपने जीवन की अतीत घटनाएं। तितली के ब्‍याह के प्रसंग से और चौबे के आने-जाने से नई होकर वे उसकी आंखों के सामने अपना चित्र उन लहरों में खींच रही थीं। मधुबन की गृहस्‍थी का नशा उसे अब तक विस्‍मृति के अंधकार में डाले हुए था। वह सोच रही थी - कया वहीं सत्‍य था ? इतना दिन जो मैंने किया, वह भ्रम था ! मधुबन जब ब्‍याह कर लेगा, तब यहाँ मेरा क्‍या काम रह जाएगा ? गृहस्‍थी ! उसे चलाने के लिए तो तितली आ ही जाएगी। अहा ! तितली कितनी सुंदर है ! मधुबन प्रसन्‍न होगा। और मैं ...? अच्‍छा, तब तीर्थ करने चली जाऊंगी। उंह ! रुपया चाहिए उसके लिए-कहाँ से आवेगा ? अरे जब घूमना ही है, तो क्‍या रुपए की कमी रह जाएगी ? रुपया लेकर करूंगी ही क्‍या ? भीख मांगकर या परदेश में मजूरी करके पेट पालूंगी। परंतु आज इतने दिनों पर चौबे !


उसके हृदय में एक अनुभूति हुई, जिसे स्‍वयं स्‍पष्‍ट न समझ सकी। एक विकट हलचल होने लगी। वह जैसे उन चपल लहरों में झूमने लगी।


रामदीन की नानी ने कहा - चलो मालकिन, अभी रसोई का सारा काम पड़ा है, मधुबन बाबू आते होंगे।


राजकुमारी जल के बाहर खीझ से भरी निकली ! आज उसके प्रौढ़ वय में भी व्‍यय-विहीन पवित्र यौवन चंचल हो उठा था। चौबे ने उससे फिर मिलने के लिए कहा था। वह आकर लौट न जाए।


वह जल से निकलते ही घर पहुँचने के लिए व्‍यग्र हो उठी।


5

शेरकोट में पहुँचकर उसने अपनी चंचल मनोवृत्ति को भरपूर दबाने की चेष्‍टा की, और कुछ अंश तक वह सफल भी हुई, पर अब भी चौबे की राह देख रही थी। बहुत दिनों तक राजकुमारी के मन में यह कुतूहल उत्‍पन्‍न हुआ था कि चौबे के मन में वह बात अभी बनी हुई है या भूल गई। उसे जान लेने पर वह संतुष्‍ट हो जाएगी। बस, और कुछ नहीं। मधुबन ! नहीं, आज वह संध्‍या को घर लौटने के लिए कह गया है तो फिर, रसोई बनाने की भी आवश्‍यकता नहीं। वह स्थिर होकर प्रतीक्षा करने लगी।


किंतु ..बहुत दिनों पर चौबेजी आवेंगे, उनके लिए जलपान का कुछ प्रबंध होना चाहिए। राजकुमारी ने अपनी गृहस्‍थी के भंडार-घर में जितनी हाँडि़यां टटोलीं, सब सूनी मिलीं। उसकी खीझ बढ़ गई। फिर इस खोखली गृहस्‍थी का तो उसे अभी अनुभव भी न हुआ था।


आज माने वह शेरकोट अपनी अंतिम परीक्षा में असफल हुआ।


राजकुमारी का क्रोध उबल पड़ा 1 अपनी अग्निमयी आंखों को घुमाकर वह जिधर ही ले जाती थी, अभाव का क्षोखला मुँह विकृत रूप से परिचय देकर जैसे उसकी हंसी उड़ाने के लिए मौन हो जाता। वह पागल होकर बोली-यह भी कोई जीवन है।


क्‍या है भाभी ! मैं आ गया ! - कहते हुए चौबे ने घर में प्रवेश किया। राजकुमारी अपना घूंघट खींचते हुए काठ की चौकी दिखाकर बाली-बैठिए।


क्‍या कहूँ, तहसीलदार के यहाँ ठहर जाना पड़ा। उन्‍होंने बिना कुछ खिलाएं आने ही नहीं दिया। सो भाभी ! आज तो क्षमा करो, फिर किसी दिन आकर खा जाऊंगा। कुछ मेरे लिए बनाया तो नहीं ?


राजकुमारी रुद्ध कंठ से बोली-नहीं तो, आए बिना मैं कैसे क्‍या करती ! तो फिर कुछ तो ...


नहीं आज कुछ नहीं ! हाँ, और क्‍या समाचार है। कुछ सुनाओ। - कहकर चौबे ने एक बार सतृष्‍ण नेत्रों से उस दरिद्र विधवा की ओर देखा।


सुखदेव ! कितने दिनों पर मेरा समाचार पूछ रहे हो, मुझे भी स्‍मरण नहीं, सब भूल गई हूँ। कहने की कोई बात हो भी। क्‍या कहूँ।


भाभी ! मैं बड़ा अभागा हूँ। मैं तो घर से निकाला जाकर कष्‍टमय जीवन ही बीता रहा हूँ। तुम्‍हारे चले आने के बाद मैं कुछ ही दिनों तक घर पर रह सका। जो थोड़ा खेत बचा था उसे बंधक रखकर बड़े भाई के लिए एक स्‍त्री खरीदकर जब आई, तो मेरे लिए रोटी का प्रश्‍न सामने खड़ा होकर हंसने लगा। मैं नौकरी के बहाने परदेश चला। मेरा मन भी वहाँ लगता न था। गांव काटने दौड़ता था। कलकत्ता में किसी तरह एक थेटर की दरबानी मिली। मैं उसके साथ बराबर परदेश घूमने लगा। रसोई भी बनाता रहा। हाँ, बीच में उसके साथ बराबर परदेश घूमने लगा 1 रसोई भी बनाता रहा। हाँ, बीच में मैं संग होने से हारमोनियम सीखता रहा। फिर एक दिन बनारस में जब हमारी कंपनी खेल कर रही थी, राजा साहब से भेंट हो गई। जब उन्‍हें सब हाल मालूम हुआ, तो उन्‍होंने कहा-तुम चलो, मेरे यहाँ सुख से रहो। क्‍यों परदेश में मारे-मारे फिर रहे हो ? तब मैं राजा साहब का दरबारी बना। उन्‍हें कभी कोई अच्‍छी चीज बनाकर खिलाता, ठंडाई बनाता और कभी-कभी बाजा भी सुनाता। मेरे जीवन का कोई लक्ष्‍य न था। रुपया कमाने की इच्‍छा नहीं। दिन बीतने लगे। कभी-कभी, न जाने क्‍यों, तुमको स्‍मरण कर लेता। जैसे इस संसार में ...


राजकुमारी ने नस-नस में बिजली दौड़ने लगी थी। एक अभागे युवक का-जो सब ओर से ठुकराए जाने पर भी उसको स्‍मरण करता था। - रूप उसकी आंखों के सामने विराट होकर ममा के आलोक में झलक उठा। वह तन्‍मय होकर सुना रही थी, जैसे उसकी चेतना सहसा लौट आई। अपनी प्‍यास बढ़ाकर उसने पूछा-क्‍यों सुखदेव ! मुझे क्‍यों ?


न पूछो भाभी ! अपने दुख से जब ऊबकर मैं परदेस की किसी की कोठरी में गांव की बातें सोचकर आह कर बैठता था, तब मुझे तुम्‍हारा ध्‍यान बराबर हो आता। तुम्‍हारा दुख क्‍या मुझसे कम है ? और वाह रे निष्‍ठुर संसार ! मैं कुछ कर नहीं सकता था ? वह क्‍यों ?


सुखदेव ! बस करो। वह भूख समय पर कुछ न पाकर मर मिटी है। उसे जानने से कुछ लाथ नहीं। मुझे भी संसार में कोई पूछने वाला है, यह मैं नहीं जानती थी, और न जानना मेरे लिए अच्‍छा था। तुम सुखी हो। भगवान सबका भला करें।


भाभी ? ऐसा न कहो। दो दिन के जीवन में मनुष्‍य मनुष्‍य को यदि नहीं पूछता-स्‍नेह नहीं करता, तो फिर वह किसलिए उत्‍पन्‍न हुआ है। यह सत्‍य है कि सब ऐसे भाग्‍यशाली नहीं होते कि उन्‍हें कोई प्‍यार करे, पर यह तो हो सकता है कि वह स्‍वयं किसी को प्‍यार करे, किसी के दुख-सुख में हाथ बंटाकर अपना जन्‍म सार्थक कर ले।


सुखदेव नाटक में जैसे अभिनय कर रहा था।


राजकुमारी ने एक दीर्घ नि:श्‍वास लिया। वह नि:श्‍वास उस प्राचीन खंडहर में निराश होकर घूम आया था। वह सिर झुकाकर बैठी रही। सुखदेव की आंखों में आंसू झलकने लगे थे। वह दरबारी था, आया था कुछ काम साधने, परंतु प्रसंग ऐसा चल पड़ा कि उसे कुछ साफ-साफ होकर सामने आना पड़ा।


उसकी चतुरता का भाव परास्‍त हो गया था। अपने को सम्‍हालकर कहने लगा-तो फिर मैं अपनी बात न कहूँ ? अच्‍छा, जैसी तुम्‍हारी आज्ञा। एक विशेष काम से तुम्‍हारे पास आया हूँ। उसे तो सुन लोगी।


तुम जो कहोगे, सब सुनूंगी, सुखदेव !


तितली को तो जानती हो न !


जानती हूँ क्‍यों नहीं, अभी आते ही तो उससे भेंट हुई थी।


और हमारे मालिक कुंवर इन्‍द्रदेव को भी ?


क्‍यों नहीं।


यह भी जानती हो कि तुम लोगों के शेरकोट को छीनने का प्रबंध तहसीलदार ने कर लिया है ?


राजकुमारी अब अपना धैर्य न सम्‍हाल सकी, उसने चिढ़कर कहा-सब सुनती हूँ, जानती हूँ, तुम साफ-साफ अपनी बात कहो।


मैंने तहसीलदार को रोक दिया है। वहाँ रहकर अपनी आंखों के सामने तुम्‍हारा अनिष्‍ट होते मैं नहीं देख सकता था। किंतु एक काम तुम कर सकोगी ?


अपने को बहुत रोकते हुए राजकुमारी ने कहा-क्‍या ?


किसी तरह तितली से इन्‍द्रदेव का ब्‍याह करा दो और यह तुम्‍हारी किए होगा। और तुम लोगों से जो जमींदार के घर से बुराई है, वह भलाई में परिणत हो जाएगी। सब तरह का रीति-व्‍यवहार हो जाएगा। भाभी ! हम सब सुख से जीवन बिता सकेंगे।


राजकुमारी निश्‍चेष्‍ट होकर सुखदेव का मुँह देखने लगी, और वह बहुत-सी बात सोच रही थी। थोड़ी देर पर वह बोली-क्‍यों, मेम साहब क्‍या करेंगी ?


उसी को हटाने के लिए तो। तितली को छोड़कर और कोई ऐसी बालिका जाति की नहीं दिखाई पड़ती, जो इंद्रदेव से ब्‍याही जाए, क्‍योंकि विलायत से मेम ले आने का प्रवाद सब जगह फैल गया है।


कुछ देर तक राजकुमारी सिर नीचा कर सोचती रही। फिर उसने कहा-अच्‍छा, किसी दूसरे दिन इसका उत्तर दूंगी।


उस दिन चौबे विदा हुए। किंतु राजकुमारी के मन में भयानक हलचल हुई। संयम के प्रौढ़ भाव की प्राचीर के भीतर जिस चारित्र्य की रक्षा हुई थी, आज वह संधि खोजने लगा था। मानव-हृदय की वह दुर्बलता कही जाती है। किंतु जिस प्रकार चिररोगी स्‍वास्‍थ्‍य की संभावना से प्रेरित होकर पलंग के नीचे पैर रखकर अपनी शक्ति की परीक्षा लेता है, ठीक उसी तरह तो राजकुमारी के मन में कुतूहल हुआ था- अपनी शक्ति को जांचने का। वह किसी अंश तक सफल भी हुई, और उसी सफलता ने और भी चाट बढ़ा दी 1 राजकुमारी परखने लगी थी अपना-स्‍त्री का अवलंब, जिसके सबसे बड़े उपकरण हैं यौवन और सौंदर्य। आत्‍मगौरव, चारित्र्य और पवित्रता तक सबकी दृष्टि तो नहीं पहुँचती। अपनी सांसारिक विभूति और संपत्ति को सम्‍हालने की आवश्‍यकता रखने वाले किस प्राणी को, चिंता नहीं होती ?


शस्‍त्र कुंठित हो जाते हैं, तब उन पर शान चढ़ाना पड़ता है। किंतु राजकुमारी के सब अस्‍त्र निकम्‍मे नहीं थे। उनकी और परीक्षा लेने की लालसा उसके मन में बढ़ी।


उधर हृदय में एक संतोष भी उत्‍पन्‍न हो गया था। वह सोचने लगी थी कि मधुबन की गृहस्‍थी का बोझ उसी पर है। उसे मधुबन की कल्‍याण कामना के साथ उसकी व्‍यावहारिकता भी देखनी चाहिए। शेरकोट कैसे बचेगा, और तितली से ब्‍याह करके दरिद्र मधुबन कैसे सुखी हो सकेगा ? यदि तितली इंद्रदव की रानी हो जाती और राजकुमारी के प्रयत्‍न से, तो वह कितना ...


वह भविष्‍य की कल्‍पना से क्षण-भर के लिए पागल हो उठी। सब बातों में सुखदेव की सुखद स्‍मृति उसकी कल्‍पनाओं को और भी सुंदर बनाने लगी।


बुढि़या ने बहुत देर तक प्रतीक्षा की, पर जब राजकुमारी के उठने के, या रसोई-घर में आने के, उसके कोई लक्षण नहीं देखे तो उसे भी लाचार होकर वहाँ से टल जाना पड़ा। राजकुमारी ने अनुभूति भरी आंखों से अपनी अभाव की गृहस्‍थी को देखा और वि‍रक्ति से वहीं चटाई बिछाकर लेट गई।


धीरे-धीरे दिन ढलने लगा। पश्चिम में लाली दौड़ी, किंतु राजकुमारी आलस भरी भावना में डुबकी ले रही थी। उसने एक बार अंगड़ाई लेकर करारों में गंगा की अधखुली धारा को देखा। वह धीरे-धीरे बह रही थी। स्‍वप्‍न देखने की इच्‍छा से उसने आंखें बंद की।


मधुबन आया। उसने आज राजकुमारी को इस नई अवस्‍था में देखा। वह कई बरसों से बराबर, बिना किसी दिन की बीमारी के, सदा प्रस्‍तुत रहने के रूप में ही राजकुमारी हो देखता आता था। किंतु आज वह चौंक उठा। उसने पूछा-


राजो ! पड़ी क्‍यों हो ?


वह बोली नहीं। सुनकर भी जैसे न सुन सकी। मन-ही-मन सोच रही थी। ओह, इतने दिन बीत गए ! इतने बरस ! कभी दो घड़ी की भी छुट्टी नहीं। मैं क्‍यों जगाई जा रही हूँ इसीलिए न कि रसोई नहीं बनी है। तो मैं क्‍या रसोई-दारिन हूँ। आज नहीं बनी-न सही।


मधुबन दौड़कर बाहर आया। बुढि़या को खोजने लगा। वह भी नहीं दिखाई पड़ी। उसने फिर भीतर जाकर रसोई-घर देखा। कहीं धुएं या चूल्‍हा जलने का चिह्न नहीं। बरतनों को उलट-पलट कर देखा 1 भूख लग रही थी। उसे थोड़ा-सा चबेना मिला। उसे बैठकर मनोयोग से खाने लगा। मन-ही-मन सोचता था - आज बात क्‍या है ? डरता भी या कि राजकुमारी चिढ़ न जाय। उसने भी मन में स्थिर किया- आज यहाँ रहूँगा नहीं।


मधुबन का रुठने का मन हुआ। वह चुपचाप जल पीकर चला गया।


राजकुमारी ने सब जान-बूझकर-कहा हूँ। अभी यह हाल है तो तितली से ब्‍याह हो जाने पर तो धरती पर पैर ही न पड़ेंगे।


विरोध कभी-कभी बड़े मनोरंजक रूप में मनुष्‍य के पास धीरे से आता है और अपनी काल्‍पनिक सृष्टि में मनुष्‍य को अपना समर्थन करने के लिए बाध्‍य करता है - अवसर देता है-प्रमाण ढूंढ़ लाता है। और फिर, आंखों में लाली, मन में घृणा, लड़ने का उन्‍माद और उसका सुख-सब अपने-अपने कोनों से निकलकर उसके हाँ-में-हाँ मिलाने लगते हैं।


गोधूलि आई। अंधकार आया। दूर-दूर झोंपड़ियों में दीये जल उठे। शेरकोट का खंडहर भी सायं-सांय करने लगा। किंतु राजकुमारी आज उठती ही नहीं। वह अपने चारों ओर और भी अंधकार चाहती थी।


6

उजली धूप बनजरिया के चारों ओर, उसके छोटे-पौधों पर, फिसल रही थी। अभी सवेरा था, शरीर में उस कोमल धूप की तीव्र अनुभूति करती हुई तितली, अपने गोभी के छोटे-से खेत के पास, सिरिस के नीचे बैठी थी। झाड़ियों पर से ओस की बूंदें गिरने-गिरने को हो रही थीं। समीर में शीतलता थी।


उसकी आंखों में विश्‍वास कुतूहल बना हुआ संसार का सुंदर चित्र देख रहा था। किसी ने पुकारा -तितली ! उसने घूमकर देखा, शैला अपनी रेशमी साड़ी का अंचल हाथ में लिए खड़ी है।


तितली की प्रसन्‍नता चंचल हो उठी। वहीं खड़ी होकर उसने कहा- आओ बहन ! देखो न ! मेरी गोभी में फूल बैठने लगे हैं।


शैला हंसती हुई पास आकर देखने लगी। श्‍याम-हरित पत्रों में नन्‍हें-नन्हें उजले-उजले फूल ! उसने कहा-वाह ! लो, तुम भी इसी तरह फूलो-फलो।


आशीर्वाद की कृतज्ञता में सिर झुकाकर तितली ने कहा-कितना प्‍यार करती हो मुझे !


तुमको जो देखेगा, वही प्‍यार करेगा।


अच्‍छा ! उसने अप्रतिभ होकर कहा।


चलो, आज पाठ कब होगा ? अभी तो मधुबन भी नहीं दिखाई पड़ा।


मैं आज न पढूंगी।


क्‍यों ?


यों ही। और भी कई काम करना है।


शैला ने कहा- अच्‍छा, मैं भी आज न पढूंगी - बाबाजी से मिलकर चली जाऊंगी।


रामनाथ अभी उपासना करके अपने आसन पर बैठे थे 1 शैला उनके पास चटाई पर जाकर बैठ गई। रामनाथ ने पूछा-आज पाठ न होगा क्‍या ? मधुबन भी नहीं दिखाई पड़ रहा है, तितली भी नहीं !


आज यों ही मुझे कुछ बताइए।


पूछो।


हम लोगों के यहाँ जीवन को युद्ध मानते हैं, इसमें कितनी सचाई है। इसके विरुद्ध भारत में उदासीनता और त्‍याग का महत्‍व है ?


यह ठीक है कि तुम्‍हारे देश के लोगों ने जीवन को नहीं, किंतु स्‍थल और आकाश को भी लड़ने का क्षेत्र बना दिया है। जीवन को युद्ध मान लेने का यह अनिवार्य फल है। जहाँ स्‍वार्थ के अस्तित्‍व के लिए युद्ध होगा वहाँ तो यह होना ही चाहिए।


किंतु युद्ध का जीवन में कुछ भाग तो अवश्‍य ही है। भारतीय जनता में भी उसका अभाव नहीं।


पर यह दूसरे प्रकार का है। उसमें अपनी आत्‍मा के शत्रु आसुर भावों से युद्ध की शिक्षा है। प्राचीन ऋषियों ने बतलाया है कि भीतर जो काम का और जीवन का युद्ध चलता है, उसमें जीवन को विजयी बनाओ।


किंतु, मैं तो ऐसा समझती हूँ कि आपके वेदांत में जो जगत् को मिथ्‍या और भ्रम मान लेने का सिद्धांत है, वही यहाँ के मनुष्‍य को उदासीन बनाता है ? संसार को असत समझने वाला मनुष्‍य कैसे किसी काम को विश्‍वासपूर्वक कर सकता है।


मैं कहता हूँ कि वह वेदांत पिछले काल का सांप्रदायिक वेदांत है, जो तर्कों के आधार पर अन्‍य दार्शनिक को परास्‍त करने के लिए बना। सच्‍चा वेदांत व्‍यावहारिक है। वह जीवन-समुद्र आत्‍मा को उसकी संपूर्ण विभूतियों के साथ समझता है। भारतीय आत्‍मवाद के मूल में व्‍यक्तिवाद है, किंतु उसका रहस्‍य है समाजवाद की रूढ़ियों से व्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता की रक्षा करना। और, व्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता का अर्थ है व्‍यक्ति समता की प्रतिष्‍ठा, जिसमें समझौता अनिवार्य है। युद्ध का परिणाम मृत्‍यु है। जीवन से युद्ध का क्‍या संबंध, युद्ध तो विच्‍छेद है और जीवन में शुद्ध सहयोग है।


अच्‍छा, तो मैं मान लेती हूँ, परतु ...


सुनो, तुम्‍हारे ईसा के जीवन में और उनकी मृत्‍यु में इसी भारतीय संदेश की क्षीण प्रतिध्‍वनि है।


आपने ईसा की जीवनी भी पढ़ी है ?


क्‍यों नहीं ! किंतु तुम लोगों के इतिहास में तो उसका कोई सूक्ष्‍म निदर्शन नहीं मिलता, जिसके लिए ईसा ने प्राण दिए थे। आज सब लोग यही कहते हैं कि ईसाई -धर्म सेमिटिक है, किंतु तुम जानती हो कि यह सेमेटिक धर्म क्‍यों सेमेटिक जाति के द्वारा अस्‍वीकृत हुआ ? नहीं। वास्‍तव में यह विदेशी था, उनके लिए, वह आर्य-संदेश था। और कभी इस पर भी विचार किया है तुमने कि वह क्‍यों आर्य-जाति की शाखा में फूला-फला ? वह धर्म उसी जाति के आर्य-संस्‍कारों के साथ विकसित हुआ, क्‍योंकि तुम लोगों के जीवन में ग्रीस और रोम की आर्य-संस्‍कृति का प्रभाव सोलहो आने था ही, उसी का यह परिवर्तित रूप संसार की आंखों में चकाचौंध उत्‍पन्‍न कर रहा है। किंतु व्‍यक्तिगत पवित्रता को अधिक महत्‍व देने वाला वेदांत, आत्‍मशुद्धि का प्रचारक है। इसीलिए इसमें संघबद्ध प्रार्थनाओं की प्रधानता नहीं।


तो जीवन की अतृप्ति पर विजय पाना ही भारतीय जीवन का उद्देश्‍य है न ? फिर अपने लिए ...


अपने लिए ? अपने लिए क्‍यों नहीं!सब कुछ आत्‍मलाभ के लिए ही तो धर्म का आचरण है। उदास होकर इस भाव को ग्रहण करने से तो सारा जीवन भार हो जाएगा। इसके साथ प्रसन्‍नता और आनंदपूर्ण उत्‍साह चाहिए। और तब जीवन युद्ध न होकर समझौता, संधि या मेल बन जाता है। जहाँ परस्‍पर सहायता और सेवा की कल्‍पना होती है-झगड़ा लड़ाई नोच-खसोट नहीं।


शैला ने मन-ही-मन कहा-सही तो। उसका मुँह प्रसन्‍नता से चमकने लगा। फिर उसने कहा-आज मैं बहुत ही कृतज्ञ हुई, मेरी इच्‍छा है कि आप मुझे अपने धर्म के अनुसार दीक्षा दीजिए।


क्षण-भर सोच लेने के बाद रामनाथ ने पूछा-क्‍या अभी और विचार करने के लिए तुमको अवसर नहीं चाहिए ? दीक्षा तो मैं ...


नहीं, अब मझे कुछ सोचना-विचारना नहीं। मकर-संक्रांति किस दिन है। उसी दिन से मेरा अस्‍पताल खुलेगा। मैं समझती हूँ कि उसके पहले ही मुझे ...


अब कितने दिन हैं ? यही कोई एक सप्‍ताह तो और होगा। अच्‍छा उसी दिन प्रभात में तुम्‍हारी दीक्षा होगी। तब तक और इस पर विचार कर लो।


बाबा रामनाथ धार्मिक जनता के उस विभाग के प्रतिनिधि थे जो संसार के महत्‍वपूर्ण कर्मों पर अपनी ही सत्ता, अपना ही दायित्‍वपूर्ण अधिकार मानती है, और संसार को अपना आभारी समझती है। उनका दृढ़ विश्‍वास था कि विश्‍वास के अंधकार में आर्यों ने अपनी ज्ञान-ज्‍वाला प्रज्जवलित की थी। वह अपनी सफलता पर मन-ही-मन बहुत प्रसन्‍न थे।


मेरा निश्‍चय हो चुका। अच्‍छा तो आज मुझे छुट्टी दीजिए। अभी नीलवाली कोठी पर जाना होगा। मधुबन तो कई दिन से रात को भी वहीं रहता है। वह घर क्‍यों नहीं आता। आप पूछिएगा। - शैला ने कहा।


आज पूछ लूंगा-कहकर आसन से उठते हुए रामनाथ ने पुकारा-तितली !


आई ...


तितली ने आकर देखा कि रामनाथ आसन से उठ गए हैं और शैला बनजरिया से बाहर जाने के लिए हरियाली की पगडंडी पर चली आई है। उसने कहा-बहन तुम जाती हो क्‍या ?


हाँ, तुसे तो कहा ही नहीं। शेरकोट को बेदखल कराने का विचार माताजी ने मेरे कहने से छोड़ दिया है। मेरा सामान आ गया, मैं नील कोठी में रहने लगी हूँ। वहीं मेरा अस्‍पताल खुल जाएगा। ...क्‍यों, इधर मधुबन से तुमसे भेंट नहीं हुई क्‍या ?


तितली लज्जित-सी सिर नीचा किए बोली-नहीं, आज कई दिनों से भेंट नहीं हुई। - उसके हृदय में धड़कन होने लगी।


ठीक है, कोठी में काम की बड़ी जल्‍दी है। इसी से आजकल छुट्टी न मिलती होगी-अच्‍छा तो तितली, आज मैं मधुबन को तुम्‍हारे पास भेज दूंगी।- कहकर शैला मुस्‍कुराई।


नहीं-नहीं, आप क्‍या कर रही हैं। मैंने सुना है कि वह घर भी नहीं जाते। उन्‍हें ...


क्‍यों ? यह तो मैं भी जानती हूँ। -फिर चिंतित होकर शैला ने कहा-क्‍या राजकुमारी का कोई संदेश आया था ?


नहीं।- अभी तितली और कुछ कहना ही चाहती थी कि सामने से मधुबन आता दिखाई पड़ा। उसकी भवें तनी थीं। मुँह रूखा हो रहा था। शैला ने पूछा-क्‍यों मधुबन, आज-कल तुम घर क्‍यों नहीं जाते ?


जाऊंगा ! - विरक्‍त होकर उसने कहा।


कब ?


कई दिन का पाठ पिछड़ गया है। रोटी खाने के समय से जाऊंगा।


अच्‍छी बात है ! देखो, भूलना मत ! कहती हुई शैला चली गई, और अब सामने खड़ी रही मततली। उसके मन में कितनी बातें उठ रही थीं, किंतु जब से उसके ब्‍याह की बात चल पड़ी थी, वह लज्‍जा का अधिक अनुभव करने लगी थी। पहले तो वह मधुबन को झिड़क देती थी, रामनाथ से मधुबन के संबंध में कुछ उलटी-सीधी भी कहती पर न जाने अब वैसा साहब उसमें क्‍यों नहीं आता। वह जोर करके बिगड़ना चाहती थी, पर जैसे अधरों के कोनों में हंसी फूट उठती ! बड़े धैर्य से उसने कहा-आजकल तुमको रूठना कब से आ गया है।


मधुबन की इच्‍छा हुई कि वह हंसकर कह दे कि -जब से तुमसे ब्‍याह होने की बात चल पड़ी है,-पर वैसा न कहकर उसने कहा-हम लोग भला रूठना क्‍या जानें, यह तो तुम्‍हीं लोगों की विद्या है।


तो क्‍या मैं तुमसे रूठ रही हूँ? - चिढ़े हुए स्‍वर में तितली ने कहा।


आज न सही, दो दिन में रूठोगी। उस दिन रक्षा पाने के लिए आज से ही परिश्रम कर रहा हूँ ! नहीं तो सुख की रोटी किसे नहीं अच्‍छी लगती ?


तितली इस सहज हंसी से भी झल्‍ला उठी। उसने कहा-नहीं-नहीं, मेरे लिए किसी को कुछ करने की आवश्‍यकता नहीं।


तब तो प्राण बचे। अच्‍छा, पहले बताओ कि शेरकोट से कोई आया था ? रामदीन की नानी, वही आकर कह गई होगी। उसकी टांगें तोड़नी ही पड़ेंगी।


अरे राम ! उस बेचारी ने क्‍या किया है !


मधुबन और कुछ कहने जा रहा था कि रामनाथ ने उसे दूर से ही पुकारा-मधुबन !


दोनों ने घूमकर देखा कि बनजरिया के भीतर इंद्रदेव अपने घोड़े को पकड़े हुए धीरे-धीरे आ रहे हैं ! तितली संकुचित होती हुई झोंपड़ी की ओर जाने लगी और मधुबन ने नमस्‍कार किया।


किंतु दृष्टि में इंद्रदेव ने उस सरल ग्रामीण सौंदर्य को देखा। उन्‍हें कुतूहल हुआ। उस दिन बनजरिया के साथ तितली का नाम उनकी कचहरी में प्रतिध्‍वनित हो गया था। वही यह है ? उन्‍होंने मधुबन के नमस्‍कार का उत्तर देते हुए तितली से पूछा-मिस शैला अभी-अभी यहाँ आई थीं ?


हाँ, अभी ही नील-कोठी की ओर गई हैं ! तितली ने घूमकर मधुर स्‍वर से कहा। वह खड़ी हो गई।


इंद्रदेव ने समीप आते हुए रामनाथ को देखकर नमस्‍कार किया। रामनाथ इसके पहले से ही आशीर्वाद देने के लिए हाथ उठा चुके थे ? इंद्रदेव ने हंसकर पूछा-आपकी पाठशाला तो चल रही है ?


श्रीमानों की कृपा पर उसका जीवन है। मैं दरिद्र ब्राह्मण भला क्‍या कर सकता हूँ। छोटे-छोटे लड़के संध्‍या में पढ़ने आते हैं।


अच्‍छा, मैं इस पर फिर कभी विचार करूंगा। अभी तो नील-कोठी जा रहा हूँ। प्रणाम !


इंद्रदेव अपने घोड़े पर सवार होकर चले गए।


रामनाथ, मधुबन और तितली वहीं खड़े रहे।


रामनाथ ने पूछा-मधुबन, तुम आजकल कैसे हो रहे हो ?


मधुबन ने सिर झुका लिया।


रामनाथ ने कहा-मधुबन ! कुछ ही दिनों में एक नई घटना होने वाली है। वह अच्‍छी होगी या बुरी, नहीं कह सकता। किंतु उसके लिए हम सबको प्रस्‍तुत रहना चाहिए।


क्‍या ! -मधुबन ने सशंक होकर पूछा।


शैला की मैं हिंदू-धर्म की दीक्षा दूंगा। - स्थिर भाव से रामनाथ ने कहा। मधुबन ने उद्धिग्‍न होकर कहा-तो इसमें क्‍या कुछ अनिष्‍ट की संभावना है ?


विधाता का जैसा विधान होगा, वही होगा। किंतु ब्राह्मण का जो कर्तव्‍य है, वह करूंगा।


तो मेरे लिए क्‍या आज्ञा है ? मैं तो सब तरह प्रस्‍तुत हूँ।


हूँ, और उसी दिन तुम्‍हारा ब्‍याह भी होगा !


उसी दिन !-वह लज्जित होकर कह उठा। तितली चली गई।


क्‍यों, इसमें तुम्‍हें आश्‍चर्य किस बात का है ? राजकुमारी की स्‍वीकृति मुझे मिल ही जाएगी, इसकी मुझे पक्‍की आशा है।


जैसा आप कहिए।- उसने विनम्र होकर उत्तर दिया। किंतु मन-ही-मन बहुत-सी बातें सोचने लगा - तितली को लेकर घर-बार करना होगा। और भी क्‍या-क्‍या....


रामनाथ ने बाधा देकर कहा-आज पाठ न होगा। तुम कई दिन से घर नहीं गए हो, जाओ !


वह भी छुट्टी चाहता ही था। मन में नई-नई आशाएं, उमंग और लड़कपन के-से प्रसन्‍न विचार खेलने लगे। वह शेरकोट की ओर चल पड़ा।


रामनाथ स्थिर दृष्टि से आकाश की ओर देखने लगा। उसके मुँह पर स्‍फूर्ति थी, पर साथ में चिंता भी थी अउपने शुभ संकल्‍पों की-और उसमें बाधा पड़ने की संभावना थी। फिर वह क्षण-भर के लिए अपनी विजय निश्चित समझते हुए मुस्‍कुरा उठे। बनजरिया की हरियाली में वह टहलने लगे।


उसने मन में इस समय हलचल हो रही थी कि ब्‍याह किसी रीति से किया जाय। बारात तो आवेगी नहीं। मधुबन यह चाहेगा तो ? पर मैं व्‍यर्थ का उपद्रव बढ़ाना नहीं चाहता। तो भी उसके और तितली के लिए कपड़े तो चाहिए ही, और मंगल-सूचक कोई आभरण तितली के लिए ! अरे, मैंने अभी तक किया क्‍या ?


वह अपनी असावधानी पर झल्‍लाते हुए झोंपड़ी के भीतर कुछ ढूंढ़ने चले। किंतु पीछे फिर कर देखते हैं, तो राजकुमारी रामदीन की नानी के साथ खड़ी है। उन्‍होंने कहा-आओ, तुम्‍हारी प्रतीक्षा में था। बैठा।


राजकुमारी ने बैठते हुए कहा-मैं आज एक काम से आई हूँ।


मैं अभी-अभी तुम्‍हारे आने की बात सोच रहा था, क्‍योंकि अब कितने दिन रही गए हैं ?


नहीं बाबाजी! ब्‍याह तो नहीं होगा। उसने साहस से कह दिया।


क्‍यों ? नहीं क्‍यों होगा ? रामनाथ ने आश्‍चर्य से पूछा।


ऐसे निठल्‍ले से तितली का ब्‍याह करके उस लड़की को क्‍या भाड़ में झोंकना है। आज कई दिनों से वह घर भी नहीं आता। मैं मर-कुट कर गृहस्‍थी की काम चलाती हूँ। बाबाजी, इतने दिनों से आपने भी मुझे इसी गांव में देखा-सुना है। मैं अपने दु:ख के दिन किस तरह काट रही हूँ। कहते-कहते राजकुमारी की आंखों में आंसू भर आए।


रामनाथ हतबुद्धि से उस स्‍त्री का अभिनय देखने लगे, जो आज तक अपनी चरित्र-दृढ़ता की यश-पताका गांव-भर में ऊंची किए हुए थी !


राजकुमारी का, दारिद्रय में रहते हुए भी, कुलीनता का अनुशासन सब लोग जानते थे। किंतु सहसा आज यह कैसा परिवर्तन !


रामनाथ ने पूरे, बल से इस लीला का प्रत्‍याख्‍यान करने का मन में संकल्‍प कर लिया। बोले सुनो राजो, ब्‍याह तो होगा ही। जब बात चल चुकी है, तो उसे करना ही होगा। इसमें मैं किसी की बात नहीं सुनूंगा, तुम्‍हारी भी नहीं। क्‍या तुम्‍हारे ऊपर मेरा कुछ अधिकार नहीं है ? बेटी, आज ऐसी बात ! ना, सो नहीं, ब्‍याह तो होगा ही।


राजकुमारी तिलमिला उठी थी। उसने क्रोध से जलकर कहा-जैसा होगा ? आप नहीं जानते हैं कि जमींदार के घर के लोगों की आंख उस पर है।


इसका क्‍या अर्थ है राजकुमारी ? समझाकर कहो, यह पहेली कैसी?


पहेली नहीं बाबाजी, कुवंर इंद्रदेव से तितली का ब्‍याह होगा। और मैं कहती हूँ कि मैं करा दूंगी।


रामनाथ के सिर के बाल खड़े हो गए। यह क्‍या कह रही हो तुम ? तितली से इंद्रदेव का ब्‍याह ? असंभव है !


असंभव नहीं, मैं कहती हूँ न ! आप ही सोच लीजिए। तितली कितनी सुखी होगी !


पल-भर के लिए रामनाथ ने भूल की थी। वह एक सुख-स्‍वप्‍न था। उन्‍होंने सम्‍हालकर कहा-मैं तो मधुबन से ही उसका ब्‍याह निश्चित कर चुका हूँ।


तब दोनों को ही गांव छोड़ना पड़ेगा। और आत तो दो दिन के लिए अपने बल पर जो चाहे कर लेंगे, फिर तो आप जानते हैं कि बनजारिया और शेरकोट दोनों ही निकल जाएंगे और ...


रामनाथ चुप होकर विचारने लगे। फिर सहसा उत्तेजित-से बड़बड़ा उठे-तुम भूल करती हो राजो ! तितली को मधुबन के साथ परदेश जाना पड़े, यह भी मैं सह लूंगा, पर उसका ब्‍याह दूसरे से होने पर यह बचेगी नहीं।


राजकुमारी ने अब रूप बदला। बहुत तीखे स्‍वर से बोली-तो आप मधुबन का सर्वनाश करना चाहते हैं ! कीजिए, मैं स्‍त्री हूँ, क्‍या कर सकूंगी। वह आंखों में आंसू भरे उठ गई।


रामनाथ भी काठ की तरह चुपचाप बैठे नहीं रहे। वह अपनी पोटली टटोलने के लिए झोंपड़ी में चले गए।


जब रामनाथ झोंपड़ी में से कुछ हाथ में लिए बाहर निकले तो मधुबन दिखाई पड़ा। उसका मुँह क्रोध से तमतमा रहा था। कुछ कहना चाहता था, पर जैसे कहने की शक्ति छिन गई हो ! रामनाथ ने पूछा-क्‍या घर नहीं गए ?


गया था।


फिर तुरंत ही चले क्‍यों आए ?


वहाँ क्‍या करता ? देखिए, इधर मैं घर की कोई बात आपसे कहना चाहता था, परंतु डर से कह नहीं सका। राजो...वह कहते-कहते रुक गया।


कहो, कहो। चुप क्‍यों हो गए ?


मैं जब घर पहुंचा, तो मुझे मालूम हुआ कि वह चौबे आज मेरे घर आया था। उससे बातें करके राजो कहीं चली गई है। बाबाजी ...


ओह, तो तुम नहीं जानते। वह तो यहीं आई थी। अभी घर भी तो न पहुंची होगी।


यहाँ आई थी !


हाँ, कहने आई थी कि तितली का ब्‍याह मधुबन से न होकर जमींदार इंद्रदेव से होना अच्‍छा होगा।


यहाँ तक। मैंने तो समझा था कि...


पर तुम क्‍यों इस पर इतना क्रोध और आश्‍चर्य प्रकट करो ! ब्‍याह तो होगा ही !


मैं वह बात नहीं कह रहा था। मुझे तो तहसीलदार ही की नस ठीक करने की इच्‍छा थी। अब देखता हूँ कि इस चौबे को भी किसी दिन पाठ पढ़ाना होगा। वह लफंगा किस साहस पर मेरे घर पर आया था ! आप कहते हैं क्‍या ! मैं तो उसका खून भी पी जाऊंगा।


रामनाथ ने उसके बढ़ते हुए क्रोध को शांत करने की इच्‍छा से कहा-सुनो मधुंबन ! राजो फिर भी तो स्‍त्री है। उसे तुम्‍हारी भलाई का लोभ किसी ने दिया होगा। वह बेचारी उसी विचार से ...


नहीं बाबाजी। इसमें कुछ और भी रहस्‍य है। वह चाहे मैं अभी नहीं समझ सका हूँ ...। कहते-कहते मधुबन सिर नीचा करके गंभीर चिंता में निमग्‍न हो गया।


अंत में रामनाथ ने दृढ़ स्‍वर से कहा-पर तुमको तो आज ही शहर जाना होगा। यह लो रुपए सब वस्‍तुएं इसी सूची के अनुसार आ जानी चाहिए।


मधुबन ने हताश होकर रामनाथ की ओर देखा, फिर वह वृद्ध अविचल था।


मधुबन को शहर जाना पड़ा।


दूर से तितली सब सुनकर भी जैसे कुछ नहीं सुनना चाहती थी। उसे अपने ऊपर क्रोध आ रहा था। वह क्‍यों ऐसी विडंबना में पड़ गई ! उसको लेकर इतनी हलचल ! वह लाज में गड़ी जा रही थी।


7

शैला का छोटी कोठी से भी हट जाना रामदीन को बहुत बुरा लगा। वह माधुरी, श्‍यामदुलारी और इंद्रदेव से भी मन-ही-मन जलने लगा। लड़का ही तो था, उसे अपने साथ स्‍नेह से व्‍यवहार करने वाली शैला के प्रति तीव्र सहानुभूति हुई। वह बिना समझे-बूझे मलिया के कहने पर विश्‍वास कर बैठा कि शैला को छोटी कोठी से हटाने में गहरी चालबाजी है, अब वह इस गांव में भी नहीं रहने पावेगी, नील-कोठी भी कुछ ही दिनों की चहल-पहल है।


रामदीन रोष से भर उठा। वह कोठी का नौकर है। माधुरी ने कई हेर-फेर लगाकर उसे नील-कोठी जाने से रोकलिया। मेम साहब का साथ छोड़ना उसे अखर गया। शैला ने जाते-जाते उसे एक रुपया देकर कहा-रामदीन, तुम यहीं काम करो। फिर मैं मांजी से कहकर बुला लूंगी ! अच्‍छा न !


लड़के का विद्रोही मन इस सांत्‍वना से धैर्य न रख सका। वह रेने लगा। शैला के पास कोई उपाय न था। वह तो चली गई। किंतु, रामदीन उत्‍पाती जीव बन गया। दूसरे ही दिन उसने लैंप गिरा दिया। पानी भरने का तांबे का घड़ा लेकर गिर पड़ा। तरकारी धोने ले जाकर सब कीचड़ से भर लाया। मलिया को चिकोटी काटकर भागा। और, सबसे अधिक बुरा काम किया उसने माधुरी के सामने तरेर कर देखने का, जब उसको अनवरी को मुँह चिढ़ाने के लिए वह डांट रही थी।


उसका सारा उत्‍पात देखते-देखते इतना बढ़ा कि बड़ी कोठी में से कई चीजें खो जाने लगीं। माधुरी तो उधार खाए बैठी थी। अब अनवरी की चमड़े की छोटी-सी थैली भी गुम हो गई, तब तो रामदीन परी बे-भाव की पड़ी। चोरी के लिए वह अच्‍छी तरह पिटा, पर स्‍वीकार करने के लिए वह किसी भी तरह प्रस्‍तुत नहीं।


माधुरी ने स्‍वभाव के अनुसार उसे खूब पीटने के लिए चौबे से कहा। चौबेजी ने कहा-यह पाजी पीटने से नहीं मानेगा। इसे तो पुलिस में देना ही चाहिए। ऐसे लौंड़ों की दूसरी दवा ही नहीं।


माधुरी ने इंद्रदेव को बुलाकर उसका सब वृत्तांत कुछ नोन-मिर्च लगाकर सुनाते हुए पुलिस में भेजने के लिए कहा। इंद्रदेव ने सिर हिला दिया। वह गंभीर होकर सोचने लगे। बात क्‍या है ! शैला के यहाँ से जाते ही रामदीन को हो क्‍या गया !


इसमें भी आप सोच रहे हैं! भाई साहब, मैं कहती हूँ न, इसे पुलिस में अभी दीजिए, नहीं तो आगे चलकर यह पक्‍का चोर बनेगा और यह देहात इसके अत्‍याचार से लुट जाएगा।-माधुरी ने झल्‍लाकर कहा।


इंद्रदेव को माधुरी की इस भविष्‍यवाणी पर विश्‍वास नहीं हुआ। उन्‍होंने कहा-लड़कों को इतना कड़ा दंड देने से सुधार होने की संभावना तो बहुत ही कम होती है, उलटे उनके स्‍वभाव में उच्‍छृंखलता बढ़ती है। उसे न हो तो शैला के पास भेज दो। वहाँ ठीक रहेगा।


माधुरी आग हो गई-उन्‍हीं के साथ रहकर तो बिगड़ा है। फिर वहाँ न भेजूंगी। मैं कहती हूँ, भाई साहब, इसे पुलिस में भेजना ही होगा।


अनवरी ने भी दूसरी ओर से आकर क्रोध और उदासी से भरे स्‍वर में कहा-दूसरा कोई उपाय नहीं।


अनवरी का बेग गुप्‍त हो गया था, इस पर भी विश्‍वास करना ही पड़ा। इंद्रदेव को अपने घरेलू संबंध में इस तरह अनवरी का सब जगह बोल देना बहुत दिनों से खटक रहा था। किंतु आज वह सहज ही सीमा को पार कर गया। क्रोध से भरकर प्रतिवाद करने जाकर भी वह रुक गए। उन्‍होंने देखा कि हानि तो अनवरी की ही हुई है, यहाँ तो उसे बोलने का नैतिक अधिकार ही है।


रामदीन बुलाया गया। अनवरी पर जो क्रोध था उसे किसी पर निकालना ही चाहिए, और जब दुर्बल प्राणी सामने हो तो हृदय के संतोष के लिए अच्‍छा अवसर मिल जाता है। रामदीन ने सामने आते ही इंद्रदेव का रूप देखकर रोना आरंभ किया। उठा हुआ थप्‍पड़ रुक गया। इंद्रदेव ने डांटकर पूछा-क्‍यों बे, तूने मनीबेग चुरा लिया है।


मैंने नहीं चुराया। मुझे निकालने के लिए डॉक्‍टर साहब बहुत दिनों से लगी हुई हैं। एं-एं-एं ! एक दिन कहती भी थीं कि तुझे पुलिस में भेजे बिना मुझे चैन नहीं। दुहाई सरकार की, मेरा खेत छुड़ाकर मेरी नानी को भूखों मारने की भी धमकी देती थीं।


इंद्रदेव ने कड़ककर कहा-चुप बदमाश ! क्‍या तुमसे उनकी कोई बुराई है जो वह ऐसा करेंगी ?


मैं जो मेम साहब का काम करता हूँ ! मलिया भी कहती थी बीबी रानी मेम साहब को निकालकर छोड़ेंगी और तुमको भी ...हूँ-हूँ-ऊं-ऊं !


उसका स्‍वर तो ऊंचा हुआ, पर बीबी-रानी अपना नाम सुनकर क्षोभ और क्रोध से लाल हो गई। सुना न, इस पाजी का हौसला देखिए। यह कितनी झूठी-झूठी बातें भी बना सकता है। कहकर भी माधुरी रोने-रोने हो रही थी। आगे उसके लिए बोलना असंभव था। बात में सत्‍यांश था। वह क्रोध न करके अपनी सफाई देने की चेष्‍टा करने लगी। उसने कहा-बुलाओ तो मलिया को, कोई सुनता है कि नहीं !


इंद्रदेव ने विषय का भीषण आभास पाया। उन्‍होंने कहा-कोई काम नहीं। इस शैतान को पुलिस में देना ही होगा। मैं अभी भेजता हूँ।


रामदीन की नानी दौड़ी आई 1 उसके रोने-गाने पर भी इंद्रदेव को अपना मत बदलना ठीक न लगा। हाँ, उन्‍होंने रामदीन को चुनार के रिफार्मेटरी में भेजने के लिए मजिस्‍ट्रेट को चिट्टी लिख दी।


शैला के हटते ही उसका प्रभु भक्‍त बाल-सेवक इस तरह निकाला गया !


इन्‍द्रदेव ने देखा कि समस्‍या जटिल होती जा रही है। उसके मन में एक बार यह विचार आया कि वह वहाँ से जाकर कहीं पर अपनी बैरिस्‍टरी की प्रेक्टिस करने लगे परंतु शैला ! अभी तो उसके काम का आंरभ हो रहा है। वह क्‍या समझेगी। मेरी कायरता पर उसे कितनी लज्‍जा होगी। और मैं ही क्‍यों ऐसा करूं। रामदीन के लिए अपना घर तो बिगाडूंगा नहीं। पर यह चाल कब तक चलेगी।


एक छोटे-से घर में साम्राज्‍य की-सी नीति बरतने में उन्‍हें बड़ी पीड़ा होने लगी। अधिक न सोचकर वह बाहर घूमने चले गए।


शैला को रामदीन की बात तब मालूम हुई, जब वह मजिस्‍ट्रेट के इजलास पर पहुँच चुका था और पुलिस ने किसी तरह अपराध प्रमाणित कर दिया था ! साथ ही, इंद्रदेव-जैसे प्रतिष्ठित जमींदार का पत्र भी रिफार्मेटरी भेजने के लिए पहुँच गया था।


8

शैला का सब सामान नील-कोठी में चला गया था। वह छावनी में आई थी। कल के संबंध में कुछ इंद्रदेव से कहने, क्‍योंकि इंद्रदेव को उसके भावी धर्मपरिवर्तन की बात नहीं मालूम थी।


भीतर से कृष्‍णमोहन चिक हटाकर निकला। उसने हंसते हुए नमस्कार किया। शैला ने पूछा-बड़ी सरकार कहाँ है ?


पूजा पर।


और बीबी-रानी ?


मालूम नहीं-कहता हुआ कृष्‍णमोहन चला गया।


शैला लौटकर इंद्रदेव के कमरे के पास आई। आज उसे वही कमरा अपरिचित-सा दिखाई पड़ा ! मलिया को उधर से आते हुए देखकर शैला ने पूछा-इंद्रदेव कहाँ हैं ?


एक साहब आए हैं। उन्‍हीं के पास छोटी कोठी गए हैं ? आप बैठिए। में बीबी-रानी से कहती हूँ।


शैला कमरे के भीतर चली गई ? सब अस्‍त-व्‍यस्‍त ! किताबें बिखरी पड़ी थीं। कपड़े खूंटियों पर लदे हुए थे। फूलदान में कई दिन का गुलाब अपनी मुरझाई हुई दशा में पंखुरियां गिरा रहा था। गर्द की भी कमी नहीं। वह एक कुर्सी पर बैठ गई।


मलिया ने लैंप जला दिया। बैठे-बैठे कुछ पढ़ने की इच्‍छा से शैला ने इधर-उधर देखा। मेज पर जिल्‍द बंधी हुई एक छोटी-सी पुस्‍तक पड़ी थी। वह खोलकर देखने लगी।


किंतु वह पुस्तक न होकर इंद्रदेव की डायरी थी। उसे आश्‍चर्य हुआ-इंद्रदेव कब से डायरी लिखने लगे।


शैला इधर-उधर पन्‍ने उलटने लगी। कुतूहल बढ़ा। उसे पढ़ना ही पड़ा- सोमवार की आधी रात थी। लैंप के सामने पुस्‍तक उलटकर रखने जा रहा था। मुझे झपकी आने लगी थी। चिक के बाहर किसी की छाया का आभास मिला-मैं आंख मींचकर कहना ही चाहता था-'कौन' ? फिर न जाने क्‍यों चुप रहा। कुछ फुसफुसाहट हुई। दो स्त्रियां बातें करने लगी थीं। उन बातों में मेरी भी चर्चा रही। मुझे नींद आ रही थी। सुनता भी जाता था। वह कोई संदेश की बात थी। मैं पूरा सुनकर भी सो गया और नींद खुलने पर जितना ही मैं उन बातों का स्‍मरण करना चाहता, वे भूलने लगीं। मन में न जाने क्‍यों घबराहट हुई, किंतु उसे फिर से स्‍मरण करने का कोई उपाय नहीं। अनावश्‍यक बातें आज-कल मेरे सिर में चक्‍कर काटती रही है परंतु जिसकी आवश्‍यकता होती है, वे तो चेष्‍टा करने पर भी पास नहीं आतीं। मुझे कुछ विस्‍मरण का रोग हो गया है क्‍या ? तो मैं लिख लिया करूं।


मैं सब कुछ समीप होने पर चिंतित क्‍यों रहता हूँ। चिंता अनायास घेर लेती है। जान पड़ता है कि मेरा कौटुंबिक जीवन बहुत ही दयनीय है। ऊपर से तो कहीं भी कोई कभी नहीं दिखाई देती। फिर भी, मुझे धीरे-धीरे विश्‍वास हो चला है कि भारतीय सम्मिलित कुटुंब की योजना की कडि़यां चूर-चूर हो रही हैं। वह आर्थिक संगठन अब नहीं रहा, जिसमें कुल का एक प्रमुख सबके मस्तिष्‍क का संचालन करता हुआ रुचि की समता का भार ठीक रखता था। मैंने जो अध्‍ययन किया है उसके बल पर इतना तो कही सकता हूँ कि हिंदू समाज की बहुत-सी दुर्बलताएं इस खिचरी-कानून के कारण हैं। क्‍या इसका पुनर्निर्माण नहीं हो सकता। प्रत्येक प्राणी, अपनी व्‍यक्तिगत चेतना का उदय होने पर, एक कुटुंब में रहने के कारण अपने को प्रतिकूल परिस्थिति में देखता है 1 इसलिए सम्मिलित कुटुंब का जीवन दुखदाई हो रहा है।


सब जैसे - भीतर-भीतर विद्रोही ! मुँह पर कृत्रिमता और उस घड़ी की प्रतीक्षा में ठहरे हैं कि विस्‍फोट हो तो उछलकर चले जाएं।


माधुरी कितनी स्‍नेहमयी थी। मुझे उसकी दशा का जब स्‍मरण होता है, मन में वेदना होता है। मेरी बहन ! उसे कितना दुख है। किंतु जब देखता हूँ। कि वह मुझसे स्‍नेह और सांत्‍वना की आशा करने वाली निरीह प्राणी नहीं रह गई है, वह तो अपने लिए एक दृढ़ भूमिका चाहती है, और चाहती है, मेरा पतन, मुझी से विरोध मेरी प्रतिद्वंद्विता ! तब तो हृदय व्‍यथित हो जाता है। यह सब क्‍यों ? आर्थिक सुविधा के लिए !


और मां- जैसे उनके दोनों हाथ दो दुर्दांत व्‍यक्ति लूटने वाले-पकड़कर अपनी ओर खींच रहे हों, द्विविधा में पड़ी हुई, दोनों के लिए प्रसन्‍नता-दोनों को आशीर्वाद देने के लिए प्रस्‍तुत ! किंतु फिर भी झुकाव अधिक माधुरी की ओर ! माधुरी को प्रभुत्‍व चाहिए। प्रभुत्‍व का नशा, ओह कितना मादक है ! मैंने थोड़ी-सी पी है। किंतु मेरे घर की स्त्रियां तो इस एकाधिकार के वातावरण में मुझसे भी अधिक ! सम्मिलित कुटुंब कैसे चल सकता है ?


मुझे पुत्र-धर्म का निर्वाह करना है। मातृ-भक्ति, जो मुझमें सच्‍ची थी, कृत्रिम होती जा रही है। क्‍यों ? इसी खींचा-तानी से। अच्‍छा तो मैं क्‍यों इतना पतित होता जा रहा हूँ। मैंने बैरिस्‍टरी पास की हैं मैं तो अपने हाथ-पैर चला कर भी आनंद से रह सकता हूँ। किंतु यह आर्थिक व्‍यथा ही तो नहीं रही। इसमें अपने को जब दूसरों के विरोध का लक्ष्‍य बना हुआ पाता हूँ, तो मन की प्रतिक्रिया प्रबल हो उठती है। तब पुरुष के भीतर अतीतकाल से संचित अधिकार का संस्‍कार गरज उठता है।


और भी मेरे परिचय के संबंध में इन लोगों को इतना कुतूहल क्‍यों ? इतना विरोध क्‍यों ? मैं तो उसे स्‍पष्‍ट षड्यंत्र कहूँगा। तो ये लोग क्‍या चाहती हैं कि बच्‍चा बना हूँ।


यह तो हुई दूसरी बात। हाँ जी दूसरे, अपने कहाँ ? अच्‍छा, अब अपनी बात। मैं किसी माली की संकरी क्‍यारी का कोई छोटा-सा पौधा होना बुरा नहीं समझता, किंतु किसी की मुट्टी में गुच्‍छे का कोई सुगंधित फूल नहीं बनना चाहता। प्राचीन काल में घरों के भीतर तो इतने किवाड़ नहीं लगते थे। उतनी तो स्‍वतंत्रता थी। अब तो जगह-जगह ताले, कुण्डियां और अर्गलाएं ? मेरे लिए यह असह्य है।


बड़ी-बड़ी अभिलाषाएं लेकर मैं इंग्‍लैंड से लौटा था 1 यह सुधार करूंगा , वह करूंगा। किंतु मैं अपने वातावरण में घिरा हुआ बेबस हो रहा हूँ। हम लोगों का जातीय जीवन संशोधन के योग्‍य नहीं रहा। धर्म और संस्‍कृति। निराशा की सृष्टि है। इतिहास कहता है कि संशोधन के लिए इसमें सदैव प्रयत्‍न हुआ है। किंतु जातीय जीवन का क्षण बड़ा लंबा होता है न। जहाँ हम एक सुधार करते हुए उठने का प्रयत्‍न करते हैं, वहीं कहीं जनजान में रो-रुलाकर आंसुओं से फिसलन बनाते जाते हैं। जब हम लोग मंदिर के सुवर्ण-कलश का निर्माण करते हैं, तभी उसके साथ कितने पीड़ितों का हृदय-रक्‍त उसकी चमक बढ़ाने में सहायक होता है।


तो भी आदान-प्रदान, सुख-दुख का विनिमय-व्‍यापार, चलता ही रहता है। मैं सुख का अधिक भाग लूं और दुख दूसरे के हिस्‍से रहे, यही इच्‍छा बलवती होती है। व्‍यक्ति को छुट्टी नहीं मुझे क्‍या करना होगा ? मैं दुख का भी भाग लूं ?


और अनवरी -


बाहर से चंचल और भीतर से गहरे मनोयोग-पूर्वक प्रयत्‍न करने वाली चतुर स्‍त्री है। उस दिन शैला और मधुबन के संबंध में हंसी-हंसी से कितना गंभीर व्‍यंग्‍य कर गई। वह क्‍या चाहती है। हंसते-हंसते अपने यौवन से भरे हुए अंगों को, लोट-पोट होकर असावधानी से, दिखा देने का अभिनय करती है, और कान में आकर कुछ कहने के बहाने हंसकर लौट जाती है। वह धर्म-परिवर्तन की भी बातें करती है। उसे हिंदू आचार-विचार अच्‍छे लगते हैं। रहन-सहन, पहिनावा और खाना-पीना ठीक-ठीक। जैसे मेरे कुटुंब की स्त्रियां भी उसे अपने में मिला लेने में हिचकेंगी नहीं। यह मुझे कभी-कभी भी टटोलती है। पूछती है - 'क्‍या स्त्रियों को शैला की तरह स्‍वतंत्रता चाहिए ? अवरोध और अनुशासन नहीं ? मैं तो किसी से भी ब्‍याह कर लूं और वह इतनी स्‍वतंत्रता मुझे दे तो मैं ऊब जाऊंगी।' वह हंसी में कहती है। सब हंसने लगती हैं। सब लोगों को शैला पर कही हुई यह बात अच्‍छी लगती है। और मैं ? दबते-दबते मन में अनवरी का समर्थन क्‍यों करने लगता हूँ ? वह ढीठ अनवरी-मां से हंसी करती हुई पूछती है, मैं हिंदू हो जाऊं तो मुझे अपनी बहू बनाइएगा ?


मां हंस देती हैं।


दूसरे दिन रात को, जब लोग सो रहे थे, मैं ऊंघता हुआ विचार कर रहा था। फिर वैसा ही शब्द हुआ। मैंने पूछा-कौन ?


मैं हूँ- कहती हुई अनवरी भीतर चली गई 1 मेरा मन न जाने क्‍यों उद्धिग्‍न हो उठा।


पढ़ते-पढ़ते शैला ने घबराकर डायरी बंद कर दी। सोचने लगी-इन्‍द्रदेव कितनी मानसिक हलचल में पड़े हैं और यह अनवरी। केवल इंद्रदेव के परिवार से सहानुभूति के कारण वह मेरे विरुद्ध है, या इसमें कोई और रहस्‍य है ! क्‍या वह इंद्रदेव को चाहती है ?


क्षण-भर सोचने पर उसने कहा-नहीं, वह इंद्रदेव को प्‍यार कभी नहीं कर सकती। - फिर डायरी के पन्‍ने खोलकर पढ़ने लगी। उसने सोचा कि मुझे ऐसा न करना चाहिए , किंतु न जाने क्‍यों उसे पढ़ लेना वह अपना अधिकार समझती थी। हाँ, तो वह आगे पढ़ने लगी -


... वह मेरे सामने निर्भीक होकर बैठ गई। गंभीर रात्रि, भारतीय वातावरण, उसमें एक युवती का मेरे पास एकांत में बिना संकोच के हंसना-बोलना। शैला के लिए तो मेरे मन में कभी ऐसी भावना नहीं हुई। तब क्‍या मेरा मन चोरी कर रहा है ? नहीं, मैं उसे अपने मन से हटाता हूँ। अरे, उसे क्‍यों, अनवरी को ? नहीं। उसके प्रति अपने संदिग्‍धभाव को। मुझे वह छिछोरापन भला नहीं लगा। वह भी कहने लगी। - मैं संस्‍कृत पढूंगी, पूजा-पाठ करूंगी। कुंवर साहब ! मुझे हिंदू बनाइए न। किंतु उसमें इतनी बनावट थी कि मन में घृणा के भाव उठने लगे। किंतु मेरा पाखंड-पूर्ण मन...कितने चक्‍कर काटता है ?


शैला-सामने घुसती हुई चली जाने वाली सरल और साहसभरी युवती। फिर वह तितली-सी ग्रामीण बालिका क्‍यों बनने की चेष्‍टा कर रही है? क्‍या मेरी दृष्टि में उसका यह वास्‍तविक आकर्षक क्षीण नहीं हो जाएगा ? वह तितली बनकर मेरे हृदय में शैला नहीं बनी रहेगी। तब तो उस दिन तितली को ही जैसा मैंने देखा, वह कम सुंदर न थी।


अरे-अरे, मैं क्‍या चुनाव कर रहा हूँ। मुझे कौन-सी स्‍त्री चाहिए ! हाँ, प्रेम चतुर मनुष्‍य के लिए नहीं, वह तो शिशु से सरल हृदयों की वस्‍तु है। अधिकार मनुष्‍य चुनाव ही करता है, यदि परिस्थिति वैसी हो। मैं स्वीकार करता हूँ कि संसार की कुटिलता मुझे अपना साथी बना रही है। वह मित्र-भाव तो शैला का साथ न छोड़ेगा। किंतु मेरी निष्‍कपट भावना ... जैसे मुझसे खो गई है। मुझे संदेह होने लगा है कि शैला को वैसा ही प्‍यार करता हूँ, या नहीं !


मनुष्‍य का हृदय, शीलकाल की उस नदी के समान जब हो जाता है-जिसमें ऊपर का कुछ जल बरफ की कठोरता धारण कर लेता है, तब उसके गहन तल में प्रवेश करने का कोई उपाय नहीं। ऊपर-ऊपर भले ही वह पार की जा सकती है। आज प्रवंचनाओं की बरफ की मोटी चादर मेरे हृदय पर ओढ़ा दी गई है। मेरे भीतर का तरल जल बेकार हो गया है, किसी की प्‍यास नहीं बुझा सकता। कितनी विवशता है।


शैला ने डायरी रख दी।


इंद्रदेव आ गए, तब भी वह आंख मूंद कर बैठी रही। इंद्रदेव ने उसके सिर पर हाथ रखकर कहा-शैला ?


अरे, कब आ गए ? मैं कितनी देर बैठी हूँ !


मैं चला गया था मिस्‍टर वाट्सन से मिलने। कोआपरेटिव बैंक के संबंध में और चकबंदी के लिए वह आए हैं। कल ही तो तुम्‍हारा औषधालय खुलेगा। इस उत्‍सव में उनका आ जाना अच्‍छा हुआ। तुम्‍हारे अगले कामों में सहायता मिलेगी।


हाँ, पर मैं एक बात तुमसे पूछने आई हूँ।


वह क्‍या ?


कल मैं बाबा रामनाथ से हिंदू धर्म की दीक्षा लूंगी।


अच्‍छा ! यह खिलवाड़ तुम्‍हें कैसे सूझा ? मैंने तो ...


नहीं, तुम इस मेरे धर्म-परिवर्तन का कोई दूसरा अर्थ न निकालो। इसका कुछ भी बोझ तुम्‍हारे ऊपर नहीं है।


अवाक् होकर इंद्रदेव ने शैला की ओर देखा। वह शांत थी। इंद्रदेव ने साहस एकत्र करके कहा- तब जैसी तुम्‍हारी इच्‍छा !


तुम भी सवेरे ही बनजरिया में आना। आओगे न ? आऊंगा। किंतु मैं फिर पूछता हूँ कि-यह क्‍यों ?


प्रत्‍येक जाति में मनुष्‍य को बाल्‍यकाल ही में एक धर्म-संघ का सदस्‍य बना देने की मूर्खतापूर्ण प्रथा चली आ रही है। जब उसमें जिज्ञासा नहीं, प्रेरणा नहीं, तब उसके धर्म-ग्रहण करने का क्‍या तात्‍पर्य हो सकता है ? मैं आज तक नाम के लिए ईसाई थी। किंतु धर्म का रूप समझ कर उसे मैं अब ग्रहण करूंगी। चित्रपट पहले शुभ्र होना चाहिए, नहीं तो उस पर चित्र बदरंग और भद्दा होगा। मैं हृदय का चित्रपट साफ कर रही हूँ- अपने उपास्‍य का चित्र बनाने के लिए।


इंद्रदेव, उपास्‍य को जानने के लिए उद्धिग्‍न हो गए थे। वह पूछना ही चाहते थे कि बीच में टोककर शैला ने कहा-और मुझे क्षमा भी मांगनी है।


किसी बात की ?


मैं यहाँ बैठी थी, अनिच्‍छा से ही अकेले बैठे-बैठे तुम्‍हारी डायरी के कुछ पृष्‍ठ पढ़ लेने का अपराध मैंने किया है।


तब तुमने पढ़ लिया ? अच्‍छा ही हुआ। यह रोग मुझे बुरा लग रहा था-कहकर इंद्रदेव ने अपनी डायरी फाड़-डाली !


किंतु उपास्‍य को पूछने की बात उनके मन में दब गई।


दोनों ही हंसकर विदा हुए।


9

बनजरिया का रूप आज बदला हुआ है। झोंपड़ी के मुँह पर चूना, धूल-भरी धरा पर पानी का छिड़काव, और स्‍वच्‍छता से बना हुआ तोरण और कदली के खंभों से सजा हुआ छोटा-सा मंडप, जिसमें प्रज्जवलित अग्नि के चारों ओर बाबा रामनाथ, तितली, शैला और मधुबन बैठे हुए हवन-विधि पूरी कर रहे थे। दीक्षा हो चुकी थी।


रामनाथ के साथ शैला ने प्रार्थना की -


'असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्‍योतिर्गमय, मृत्‍योर्मामृतंगमय।'


एक दूरी पर सामने बैठे हुए मिस्‍टर वाट्सन, इंद्रदेव, अनवरी और सुखदेव चौबे चकित होकर यह दृश्‍य देख रहे थे। शैला सचमुच अपनी पीली रेशमी साड़ी में चंपा की कली-सी बहुत भली लग रही थी। उसके मस्‍तक पर रोली का अरुण बिंदु जैसे प्रमुख होकर अपनी ओर ध्‍यान आकर्षित कर रहा था। किंतु मधुबन और तितली भी पीले रेशमी पहने हुए थे। तितली के मुख पर सहज लज्‍जा और गौरव था। मधुबन का खुला हुआ दाहिना कंधा अपनी पुष्टि में बड़ा सुंदर दिखाई पड़ता था। उसका मुख हवन के धुएं से मंजे हुए तांबे के रंग का हो रहा था। छोटी-मूंछें कुछ ताव में चढ़ी थीं। किसी आने वाली प्रसन्‍नता की प्र‍तीक्षा में आंखें हंस रही थीं। यही गंवार मधुबन जैसे आज दूसरा हो गया था ! इंद्रदेव उसे आश्‍चर्य देख रहे थे और तितली अपनी सलज्‍ज कांति में जैसे शिशिर कणों से लदी हुई कुंदकली की मालिका-सी गंभीर सौंदर्य का सौरभ बिखेर रही थी। इंद्रदेव उसको भी परख लेते थे।


उधर मिस्‍टर वाट्सन शैला को कुतुहल से देख रहे थे। मन में सोचते थे कि 'यह कैसा है ?' शैला के चारों ओर जो भारतीय वायुमंडल हवन-धूम, फूलों और हरियाली की सुगंध में स्निग्‍ध हो रहा था, उसने वाट्सन के हृदय पर से विरोध का आवरण हटा दिया था, उसके सौंदर्य में वह श्रद्धा और मित्रता को आमंत्रित करने लगा। उन्‍होंने इंद्रदेव से पूछा-कुंवर साहब ! यह जो कुछ हो रहा है, उसमें आप विश्‍वास करते हैं न ?


इंद्रदेव ने अपने गौरव पर और भी रंग चढ़ाने के लिए उपेक्षा से मुस्कुराकर कहा-तनिक भी नहीं। हाँ, मिस शैला की प्रसन्‍नता के लिए उसके उत्‍साह में भाग लेना मेरे लिए आदर की बात है। मुझे इस गुरुडम में कोई कल्‍याण की बात समझ में नहीं आती। मनुष्‍य को अपने व्‍यक्तित्‍व में पूर्ण विकास करने की क्षमता होना चाहिए। उस बाहरी सहायता की आवश्‍यकता नहीं।


फिर मुस्कुराकर वाट्सन ने कहा-स्‍वतंत्र इंग्‍लैंड में रह आने के कारण आप वाट्सन को हौवा नहीं समझते, किंतु मैं अनुभव करता हूँ कि यहाँ के अन्‍य लोग मेरी कितनी धाक मानते हैं। उनके लिए मैं देवता हूँ या राक्षस, साधारण मनुष्‍य नहीं। यह विषमता क्‍या परिस्थितियों से उत्‍पन्‍न नहीं हुई है ?


इंद्रदेव को अपने सांपत्तिक आधार पर खड़ा करके जो वाट्सन ने व्‍यंग्‍य किया, वह उन्‍हें तीखा लगा। इंद्रदेव ने खीझकर कहा-मेरी सुविधाएं मुझे मनुष्‍य बनाने में समर्थ हुई हैं कि नहीं, यह तो मैं नहीं कह सकता, किंतु मेरी संपत्ति में जीवन को सब तरह की सुविधा मिलनी चाहिए। यह मैं नहीं मानता कि मनुष्‍य अपने संतोष से ही सम्राट् हो जाता है और अभिलाषाओं से दरिद्र। मानव-जीवन लालसाओं से बना हुआ सुंदर चित्र है। उसका रंग छीनकर उसे रेखा-चित्र बना देने से मुझे संतोष नहीं होगा। उसमें कहे जाने वाले पुण्‍य-पाप की सुवर्ण कालिमा, सुख-दुख की आलोक-छाया और लज्‍जा-प्रसन्‍नता की लाली-हरियाली उद्भासित हो। और चाहिए उसके लिए विस्‍तृत भूमिका, जिसमें रेखाएं उन्‍मुक्‍त होकर विकसित हों।


वाट्सन अपने अध्‍ययन और साहित्यिक विचारों के कारण ही शासन-विभाग से बदलकर प्रबंध में भेज दिए गए थे। उन्‍होंने इंद्रदेव का उत्तर देने के लिए मुँह खोला ही था कि शैला अपनी दीक्षा समाप्‍त करके प्रणाम करने आ गई। वाट्सन ने हंसकर कहा-मिस शैला, मैं तुमको बधाई देता हूँ। तुम्‍हारा और भी मानसिक विकास हो, इसके लिए आशीर्वाद भी।


इंद्रदेव कुछ कहने नहीं पाए थे कि अनवरी ने कहा-और मैं तो मिस शैला की चेली बनूंगी ! बहुत जल्‍द !


इंद्रदेव ने उसकी चपलता पर खीझकर कहा-उसके लिए-अभी बहुत देर है मिस अनवरी।


फिर उसने अपने हाथ का फलों का गुच्‍छा आशीर्वाद स्‍वरूप शैला की ओर बढ़ा दिया। शैला ने कृतज्ञतापूर्वक उसे लेकर माथे से लगा कि और इंद्रदेव के पास ही बैठ गई।


रामनाथ ने एक-एक माला सबको पहना दी और कह-आप लोगों से मेरी एक और भी प्रार्थना है। कुछ समय तो लगेगा, किंतु आप लोग भी ठहरकर मेरे शिष्‍य मधुबन और तितली के विवाह में आशीर्वाद देंगे तो मुझे अनुगृहीत करेंगे।


इंद्रदेव तो चुप रह। उनके मन में इस प्रसंग से न जाने क्‍यों विरक्ति हुई। अनवरी चुप रहने वाली न थी। उसने हंसकर कहा-वाह ! तब तो ब्‍याह की मिठाई खाकर ही जाऊंगी।


तितली और मधुबन अभी वेदी के पास बैठे थे, सुखदेव किसी की प्र‍तीक्षा में इधर-उधर देख रहे थे कि तहसीलदार की कुतरी हुई छोटी-छोटी मूंछ, कुछ फूले हुए तेल से चुपड़े गाल-जैसा कि उतरती हुई अवस्‍था के सुखी मनुष्‍यों का प्राय: दिखाई पड़ता है, नीचे का मोटा लटकता हुआ होंठ, बनावटी हंसी हंसने की चेष्‍टा में व्‍यस्‍त, पट्टेदार बालों पर तेल से भी पुरानी काली टोली, कुटिलता से भरी गोल-गोल आंखें किसी विकट भविष्‍य की सूचना दे रही थीं। उन्‍होंने लंबा सलाम करते हुए इंद्रदेव से कहा-मैं एक जरूरी काम से चला गया था। इसी से ...


इंद्रदेव को इस विवरण की आवश्‍यकता न थी। उन्‍होंने पूछा - नील-कोठी से आप हो आए ? वहाँ का प्रबंध सब ठीक है न।


हाँ-एक बात आपसे कहना चाहता हूँ।


इंद्रदेव उठकर तहसीलदार की बात सुनने लगे। उधर वेदी के पास ब्‍याह की विधि आरंभ हुई। शैला भी वहाँ चली गई थी। मधुबन आहुतियां दे रहा था और तितली निष्‍कंप दीप-शिखा-सी उसकी बगल में बैठी हुई थी।


सहसा दो स्त्रियां वहाँ आकर खड़ी हो गईं। आगे तो राजकुमारी थी। उसके पीछे कौन थी, यह अभी किसी को नहीं मालूम। राजकुमारी की आंखें जल रही थीं। उसने क्रोध से कहा, बाबाजी, किसी का घर बिगाड़ना अच्‍छा नहीं। मेरे मना करने पर भी आप ब्‍याह करा रहे हैं । किसी लड़के को फुसलाना आपको शोभा नहीं देता। दूसरी स्‍त्री चादर से घूंघट में से ही बिलखकर कहने लगी - क्‍या इस गांव में कोई किसी की सुनने वाला नहीं ? मेरी भतीजी का ब्‍याह मुझसे बिना पूछे करने वाला यह बाबा कौन होता है ? हे राम ? यह अंधेर !


मिस्‍टर वाट्सन उठकर खड़े हो गए। अनवरी के मुख पर व्‍यंग्‍यपूर्ण आश्‍चर्य था और सुखदेव के क्रोध का तो जैसे कुछ ठिकाना ही न था। उन्‍होंने चिल्‍लाकर कहा-सरकार, आप लोगों के रहते ऐसा अन्‍याय न होना चाहिए।


क्षण-भर के लिए मधुबन रुककर क्रोध से सुखदेव की ओर देखने लगा। वह आसन छोड़कर उठने ही वाला था। वह जैसे नींद से सपना देखकर बोलने का प्रयत्‍न करते हुए मनुष्‍य के समान अपने क्रोध से असमर्थ हो रहा था।


उधर रामनाथ ने चारों ओर देखकर गंभीर स्‍वर से कहा-शांत हो मधुबन ! अपना काम समाप्‍त करो। यह सब तो जो हो रहा है, उसे होने दो।


और तितली की दशा, ठीक गांव के समीप रेलवे लाइन के तार को पकड़े हुए उस बालक सी थी, जिसके सामने से डाक-गाड़ी भक्-भक् करती हुई निकल जाती है-सैकड़ों सिर खिड़कियों से निकले रहते हैं, पर पहचान में एक भी नहीं आते, न तो उनकी आकृति या वर्णरेखाओं का ही कुछ पता चलता है। वह अपनी सारी विडंबना को हटाकर अपनी दृढ़ता में खड़ी रहने का प्रयत्‍न करने लगी थी।


तो भी रामनाथ की आज्ञाओं का-आदेशों का अक्षरश:- पालन हो रहा था ! तहसीलदार और इंद्रदेव वापस चले आए थे। तहसीलदार ने कहा-बाबाजी ! आप यह काम अच्‍छा नहीं कर रहे हैं। तितली के घरवालों की संमति के बिना उसका ब्‍याह अपराध तो है ही, उसका कोई अर्थ भी नहीं।


इंद्रदेव को चुप देखकर रामनाथ ने कहा-क्‍या आपकी भी यही सम्मति है ?


हाँ-नहीं-उन लोगों से तो आपको पूछ लेना ...


किन लोगों से ? तितली की बुआ ! कहाँ थी वह - जब तितली मर रही थी पानी के बिना ? और फिर आपको भी विश्‍वास है कि यह तितली की बुआ ही है ? मैं भी इस गांव की सब बातें जानता हूँ। रह गई मधुबन की बात, सो अब वह लड़का नहीं है, उसे कोई भुलावा नहीं दे सकता।


रामनाथ ने फिर अपनी शेष विधि पूरी की। उधर दोनों स्त्रियां उछल-कूद मचा रही थीं।


अनवरी ने धीरे-वाट्सन से कहा- क्‍या आपको इसमें कुछ न बोलना चाहिए ?


कुछ सोचकर वाट्सन से कहा-नहीं, में इन बातों को अच्‍छी तरह जानता भी नहीं, और देखता हूँ तो दोनों ही अपना भला-बुरा समझने लायक हैं। फिर मैं क्‍यों ... ?


आह ! यह मेरा मतलब नहीं था। मैं तो प्राणी का प्राणी से जीवन भर के संबंध में बंध जाना दासता समझती हूँ, उसमें आगे चलकर दोनों के मन में मालिक बनने की विद्रोह भावना छिपी रहती है। विवाहित जीवनों में, अधिकार जमाने का प्रयत्‍न करते हुए स्‍त्री-पुरुष दोनों ही देखे जाते हैं। यह तो एक झगड़ा मोल लेना है।


ओहो ! तब आप एक सिद्धांत की बात कर रही थीं - वाट्सन ने मुस्कुराकर कहा।


कुछ भी हो, बाबाजी ! आपको इसमें समझ-बूझकर हाथ डालना चाहिए। न जाने किस भावना से प्रेरित होकर वेदी के पास ही खड़े हुए इंद्रदेव ने कहा। उनके मुख पर झुंझलाहट और संतोष की रेखाएं स्‍पष्‍ट हो उठीं।


रामनाथ ने उनको और तितली को देखते हुए कहा-कुंवर साहब ! मधुबन ही तितली के उपयुक्‍त वर हैं। मैं अपना दायित्‍व अच्‍छी तरह समझकर ही इसमें पड़ा हूँ। कम-से-कम जो लोग संबंध में यहाँ बातचीत कर रहे हैं, उनसे मेरा अधिक न्‍यायपूर्ण अधिकार है।


इंद्रदेव तिलमिला उठे। भीतर की बात वह नहीं समझ रहे थे, किंतु मन के ऊपर सतह पर तो यह आया कि यह बाबा प्रकारांतर से मेरा अपमान कर रहा है।


उधर से चौबे ने कहा-अधिकार ! यह कैसा हठीला मनुष्‍य है, जो इतने बड़े अफसर और जमींदार के सामने भी अपने को अधिकारी समझता है ! सरकार ! यह धर्म का ढोंग है। इसके भीतर बड़ी कतरनी है ! इसने सारे गांव में ऐसी बुरी हवा फैला दी है कि किसी दिन इसके लिए बहुत पछताना होगा, यदि समय रहते इसका उपाय न किया गया।


इंद्रदेव की कनपटी लाल हो उठी। वह क्रोध को दबाना चाहते थे शैला के कारण । परंतु उन्‍हें असह्य हो रहा था।


शैला ने खड़ी होकर-एक पल-भर रुक जाइए। क्‍यों मधुबन ! तुम पूरी तरह से विचार करके यह ब्‍याह कर रहे हो न ? कोई तुमको बहका तो नहीं रहा है ? इसमें तुम प्रसन्‍न हो ?


संपूर्ण चेतनता से मधुबन ने कहा-हाँ ?


और तुम तितली ?


मैं भी।


उसका नारीत्‍व अपने पूर्ण अभिमान में था।


अनवरी झल्‍ला उठी। सुखदेव दांत पीसकर उठ गए। तहसीलदार मन-ही-मन बुदबुदाने लगे। वाट्सन मुस्कुराकर रह गए। शैला ने गंभीर स्‍वर में इंद्रदेव से कहा-अब आप लोगों से यह नवविवाहित दंपती आशीर्वाद की आशा करता है। और मैं समझती हूँ कि यहाँ का काम हो चुका है। अब आप लोग नील-कोठी चलिए। अस्‍पताल खोलने का उत्‍सव भी इसी समय होगा और तितली के ब्‍याह का जलपान भी वहीं करना होगा। सब लोग मेरी ओर से निमंत्रित हैं।


इंद्रदेव ने सिर झुकाकर जैसे जब स्‍वीकार कर लिया। और वाट्सन ने हंसकर कहा-मिस शैला ! मैं तुमको धन्‍यवाद पहले ही से देता हूँ।


सिंदूर से भरी हुई तितली की मांग दमक उठी।


10

नील कोठी में अस्‍पताल खुल गया। बैंक के लिए भी प्रबंध हो गया। वहीं गांव की पाठशाला भी आ गई थी। वाट्सन ने चकबंदी की रिपोर्ट और नक्‍शा भी तैयार कर दिया और प्रांतीय सरकार से बुलावा आने पर वहीं लौट गए। साथ-ही-साथ अपने सौजन्‍य और स्‍नेह से धामपुर के बहुत-से लोगों के हृदयों में अपना स्‍थान भी बना गए। शैला उनके बनाए हुए नियमों पर साधक की तरह अभ्‍यास करने लगी।


अभी भी जमींदार के परिवार पर उस उत्‍सव की स्‍म‍ृति सजीव थी। किंतु श्‍यामदुलारी के मन में एक बात खटक रही थी। उनके दामाद बाबू श्‍यामलाल उस अवसर पर नहीं आए। इंद्रदेव ने उन्‍हें लिखा भी था, पर उनकी छुट्टी कहाँ ? पहले ही एक बोट पर गंगा-सागर चलने के लिए अपनी मित्र मंडली को उन्‍होंने निमंत्रित किया था। कुल आयोजन उन्‍हीं का था। चंदा तो सब लोगों का था, किंतु किसको ताश खेलना है, किसे संगीत के लिए बुलाना है और कौन व्‍यंग्‍य विनोद से जुए में हारे हुए लोगों को हंसा सकेगा, कौन अच्‍छी ठंडाई बनाता है, किसे बढ़िया भोजन पकाने की क्रिया मालूम है-यह तो सभी को नहीं मालूम था। श्‍यामलाल के चले आने से उनकी मित्र-मंडली गंगा-सागर का पुण्‍य न लूटती। वह आने नहीं पाई।


तहसीलदार और चौबेजी जल उठे थे। तितली के ब्‍याह से। जो जाल उनका था, वह छिन्‍न हो गया। शैला के स्‍थान पर जो पात्री चुनी गई थी, वह भी हाथ से निकल गई। उन्‍होंने श्‍यामदुलारी के मन में अनेक प्रकार से यह दुर्भावना भर दी कि इंद्रदेव चौपट हो रहे हैं और हम लोग कुछ नहीं कर सकते। शैला को घर से तो हटा दिया गया, पर वह एक पूरी शक्ति इकट्ठी करके उन्‍हीं की छाती पर जम गई।


श्‍यामदुलारी की खीझ बढ़ गई। उनके मन में यह धारणा हो रही थी कि इंद्रदेव चाहते, और भी दो-एक पत्र लिखते, तो श्‍यामलाल अवश्‍य आते। वह इंद्रदेव से उदासीन रहने लगी। घरेलू कामों में अनवरी मध्‍यस्‍थता करने लगी। कुटुंब में पारस्‍परिक उदासीनता का परिणाम यही होता है। श्‍यामदुलारी का माधुरी के प्रति अकारण पक्ष पक्षपात और इंद्रदेव पर संदेह, उनके कर्तव्‍य-ज्ञान को चबा रहा था।


कभी-कभी मनुष्‍य की यह मूर्खतापूर्ण इच्‍छा होती है कि जिनको हम स्‍नेह की दृष्टि से देखते हैं, उन्‍हें अन्‍य लोग भी उसी तरह प्‍यार करें। अपनी असंभव कल्‍पना को आहत होते देखकर वह झल्‍लाने लगता है।


श्‍यामदुलारी की इस दीनता की इंद्रदेव समझ रहे थे, पर यह कहें किस तरह। कहीं ऐसा न हो कि मन में छिपी हुई बात कह देने से मां और भी क्रोध का बैठें, क्‍योंकि उसको स्‍पष्‍ट करने के लिए इंद्रदेव को अपने प्रेमाधिकार से औरों की तुलना करनी पड़ती, यह और भी उन्‍हीं के लिए लज्‍जा की बात होगी। उनका साधारण स्‍नेह जितना एक आत्‍मीय पर होना चाहिए, उससे अधिक भाग तो इंद्रदेव अपना समझते थे। किंतु जब छिपाने की बात है, तो स्‍नेह की अधिकता का भागी कोई दूसरा ही है क्‍या ?


श्‍यामदुलारी अपने मन की बात अनवरी से कहलाने की चेष्‍टा क्‍यों करती हैं ? मां को अधिकार है कि वह बच्‍चे का, उसके दोषों पर, तिरस्‍कार करे। गुरुजनों का यह कर्तव्‍य छोड़कर बनावटी व्‍यवहार इंद्रदेव को खलने लगा, जिसके कारण उन्‍हें अपने को दूर हटाकर दूसरों को अपनाना पड़ा है। अनवरी आज इतनी अंतरंग बन गई है।


बड़ी कोठी में जैसे सब कुछ संदिग्‍ध हो उठा। अपना अवलंब खोजने के लिए जब इंद्रदेव ने हाथ बढ़ाया, तो वहाँ शैला भी नहीं ! सारा क्षोभ शैला को ही दोषी बनाकर इंद्रदेव को उत्तेजित करने लगा। इस समय शैला उनके समीप होती !


अनवरी से लड़ने के लिए छाती खोलकर भी अपने को निस्‍सहाय पाकर इंद्रदेव विवश थे। विराट् वट-वृक्ष के समान इंद्रदेव के संपन्‍न परिवार पर अनवरी छोटे-से नीम के पौधे की तरह उसी का रस चूसकर हरी-भरी हो रही थी। उसकी जड़ें वट को भेदकर नीचे घुसती जा रही थीं। सब अपराध शैला का ही था। वह क्‍यों हट गई। कभी-कभी अपने कामों के लिए ही वह आती, तब उससे इंद्रदेव की भेंट होती, किंतु वह किसानों की बात करने में इतनी तन्‍मय हो जाती कि इंद्रदेव को वह अपने प्रति उपेक्षा सी मालूम होती।


कभी-कभी घर के कोने से अपने और तितली के भावी संबंध की सूचना भी उन्‍होंने सुनी थी। तब उन्‍होंने हंसी में उड़ा दिया था। कहाँ वह और कहाँ तितली-एक ग्रामीण बालिका ! किंतु उस दिन ब्‍याह में जो तितली की निश्‍चय सौंदर्यमयी गंभीरता देखकर उन्‍हें एक अनुभूति हुई थी, उसे वह स्‍पष्‍ट न कर सके थे। हाँ, तो शैला ने उस ब्‍याह में भी योग दिया। क्‍या यह भी कोई सकारण घटना है ?


इंद्रदेव का मानसिक विप्लव बढ़ रहा था। उनके मन में निश्‍चय क्रोध धीरे-धीरे संचित होकर उदासीनता का रूप धारण करने लगा।


सायंकाल था खेतों की हरियाली पर कहीं-कहीं डूबती हुई किरणों की छाया अभी पड़ रही थी। प्रकाश डूब रहा था। प्रशांत गंगा का कछार शून्‍य हृदय खोले पड़ा था। करारे पर सरसों के खेत में बसंती चादर बिछी थी। नीचे शीतल बालू में कराकुल चिड़ियों का एक झुंड मौन होकर बैठा था।


कंधों से सरसों के फूलों के घनेपन को चीरते हुए इंद्रदेव ने उस स्‍पंदन-विहीन प्रकृति-खंड को आंदोलित कर दिया। भयभीत कराकुल झुंड-के-झुंड उड़कर उस धूमिल आकाश में मंडराने लगे।


इंद्रदेव के मस्‍तक पर कोई विचार नहीं था। एक सन्‍नाटा उसके भीतर और बाहर था। वह चुपचाप गंगा की विचित्र धारा को देखने लगे।


चौबेजी ने सहसा आकर कहा-बड़ी सरकार बुला रही हैं।


क्‍यों ?


यह तो मैं ..हाँ, बाबू श्‍यामलाल जी आए हैं, इसी के लिए बुलाया होगा।


तो मैं आता हूँ, अभी जल्‍दी क्‍या है ?


उसके लिए कौन-सा कमरा...?


हूँ, तो कह दो कि मां इसे अच्‍छी तरह समझती होंगी। मुझसे पूछने की क्‍या आवश्‍यकता ? न हो मेरे ही कमरे में, क्‍यों, ठीक होगा न ? न हो तो छोटी कोठी में, या जहाँ अच्‍छा समझें।


जैसा कहिए।


तब यही जाकर कह दो। मैं अभी ठहरकर आऊंगा


चौबे चले गए।


इंद्रदेव वहीं खड़े रहे। शैला को इस अंधकार के शैशव में वही देखने की कामना उत्तेजित हो रही थी, और वह आ भी गई। इंद्रदेव ने प्रसन्‍न होकर कहा-इस समय मैं जो भी चाहता, वह मिलता।


क्‍या चाहते थे ?


तुमको यहाँ देखना। देखा, आज यह कैसी संध्‍या है ! मैं तो लौटने का विचार कर रहा था।


और मैं कोठी से होती आ रही हूँ।


भला, आज कितने दिनों पर।


तुम अप्रसन्‍न हो इसके लिए न ! मैं क्‍या करूं। कहते-कहते शैला का चेहरा तमतमा गया। वह चुप हो गई।


कुछ कहो शैला ! तुम क्‍यों आने में संकोच करता हो ? मैं कहता हूँ कि तुम मुझे अपने शासन में रखो। किसी से डरने की आवश्‍यकता नहीं।


शैला ने दीर्घ नि:श्‍वास लेकर कहा-मैं तो शासन कर रही हूँ। और अभी अधिक तुम्‍हारे ऊपर अत्‍याचार करते हुए मैं कांप उठती हूँ ! इंद्र ! तुम कैसे दुबले हुए जा रहे हो ? तुम नहीं जानते कि मैं तुम्‍हारे अधिक क्षोभ का कारण नहीं बनना चाहिए। कोठी में अधिक जाने से अच्‍छा तो नहीं होता।


क्‍या अच्‍छा नहीं होता। कौन है जो तुमको रोकता। शैला ! तुम स्‍वयं नहीं आना चाहती हो। और मैं भी तुम्‍हारे पास आता हूँ तो गांव-भर का रोना मेरे सामने इकट्ठा करके धर देती हो। और मेरी कोई बात ही नहीं ! तुम कोठी पर ...


ठहरो, सुन लो, मैं अभी कोठी पर गई थी। वहाँ कोई बाबू आए है। तुम्‍हारे कमरे में बैठे थे। मिल अनवरी बातें कर रही थीं। मैं भीतर चली गई। पहले तो वह घबराकर उठ खड़े हुए। मेरा आदर किया। किंतु अनवरी ने जब मेरा परिचय दिया, तो उन्‍होंने बिल्‍कुल अशिष्‍टता का रूप धारण कर लिया। वह बीबी-रानी के पति हैं ?


शैला आगे कहते-कहते रुक गई, क्‍योंकि इंद्रदेव के स्‍वभाव से परिचित थी। इंद्रदेव ने पूछा-क्‍या कहा, कहो भी ?


बहुत-सी भद्दी बातें। उन्‍हें सुनकर तुम क्‍या करोगे ? मिस अनवरी तो कहने लगीं कि उन्‍ळें ऐसी हंसी करने का अधिकार है। मैं चुप हो रही। मुझे बहुत बुरा लगा। उठकर इधर चली आई।


इंद्रदेव ने भयानक विषधर की तरह श्‍वास फेंककर कहा-शैला ! जिस विचार से हम लोग देहात में चले आए थे, वह सफल न हो सका। मुझे अब यहाँ रहना पसंद नहीं। छोड़ो इस जंजाल को, चलो हम लोग किसी शहर में चलकर अपने परिचित जीवन-पथ पर सुख लें ! यह अभागा ....


शैला ने इंद्रदेव का मुँह बंद करते हुए कहा-मुझे यही रहने दी। कहती हूँ न, क्रोध से काम न चलेगा। और तुम भी क्‍या घर को छोड़कर दूसरी जगह सुखी हो सकोगे ? आह ! मेरी कितनी करुण कल्‍पना उस नील की कोठी में लगी-लिपटी है ! इंद्र ! तुमसे एक बार तो कह चुकी हूँ।


वह उदास होकर चुप हो गई। उस अपनी माता की स्‍मृति ने विचलित कर दिया।


इंद्रदेव को उसकी यह दुर्बलता मालूम थी। वह जानते थे कि शैला के चिर दुखी जीवन में यही एक सांत्‍वना थी। उन्‍होंने कहा-तो मैं अब यहाँ से चलने के लिए न कहूँगा। जिसमें तुम प्रसन्‍न रहो।


तुम कितने दयालु हो इंद्रदेव ! मैं तुम्‍हारी ऋणी हूँ !


तुम यह कहकर मुझे चोट पहुंचाती हो शैला ! में कहता हूँ कि इसकी एक ही दवा है। क्‍यों तुम रोक रही हो। हम दोनों एक-दूसरे की कमी पूरी कर लेंगे। शैला स्‍वीकार कर लो। कहते-कहते इंद्रदेव ने उस आर्द्रहृदया युवती के दोनों कोमल हाथों को अपने हाथों में दबा लिया।


शैला भी अपनी कोमल अनुभूतियों के आवेश में थी। गदगद कंठ से बोली-इंद्र ! मुझे अस्‍वीकार कब था ? मैं तो केवल समय चाहती हूँ। देखो, अभी आज ही वाट्सन का यह पत्र आया है, जिसमें मुझे उनके हृदय के स्‍नेह का आभास मिला है। किंतु मैं...


इंद्रदेव ने हाथ छोड़ दिया। वाट्सन ! उनके मन में द्वेषपूर्ण संदेह जल उठा।


तभी तो शैला ! तुम मुझको भुलावा देती आ रही हो।


ऐसा न कहो ! तुम तो पूरी बात भी नहीं सुनते।


इंद्रदेव के हृदय में उस निस्‍तब्‍ध संख्‍या के एकांत में सरसों के फूलों से निकली शीतल सुगंध की कितनी मादकता भर रही थी, एक क्षण में विलीन हो गई। उन्‍हें सामने अंधकार की मोटी-सी दीवार खड़ी दिखाई पड़ी।!


इंद्रदेव ने कहा- मैं स्‍वार्थी नहीं हूँ शैला ! तुम जिसमें सुखी रह सको।


वह कोठी की ओर चलने के लिए घूम पड़े। शैला चुपचाप वहीं खड़ी रही। इंद्रदेव ने पूछा-चलोगी न ?


हाँ, चलती हूँ - कहकर वह भी अनुसरण करने लगी।


इंद्रदेव के मन में साहस न होता था कि वह शैला के ऊपर अपने प्रेम का पूरा दबाव डाल सकें। उन्‍हें संदेह होने लगता था कि कहीं शैला यह न सकझे कि इंद्रदेव अपने उपकारों का बदला चाहते हैं।


इंद्रदेव एक जगह रुक गए और बोले-शैला, मैं अपने बहनोई साहब के लिए हुए अशिष्‍ट व्‍यवहार के लिए तुमसे क्षमा चाहता हूँ।


शैला ने कहा-तो यह मेरे डायरी पढ़ने की क्षमा-याचना का जवाब है ! मुझे तुमसे इतने शिष्‍टाचार की आशा नहीं। अच्‍छा अब मैं इधर से जाऊंगी। महौर महतो से एक नौकर के लिए कहा था। उससे भेंट कर लूंगी। नमस्‍कार !


शैला चल पड़ी। इंद्रदेव भी वहीं से घूम पड़े। एक बार उनकी इच्‍छा हुई कि बनजरिया में चलकर रामनाथ से कुछ बातचीत करें। अपने क्रोध से अस्‍त-व्‍यस्‍त हो रहे थे, उस दशा में श्‍यामलाल में सामना होना अच्‍छा न होगा-यही सोचकर रामनाथ की कुटी पर जब पहुंचे, तो देखा कि तितली एक छोटा-सा दीप जलाकर अपने अंचल से आड़ किए वहीं आ रही है, जहाँ रामनाथ बैठे हुए संख्‍या कर रहे थे। तितली ने दीपक रखकर उसको नमस्‍कार किया, फिर इंद्रदेव को और रामनाथ को नमस्‍कार करके आसन लाने के लिए कोठरी में चली गई।


रामनाथ ने इंद्रदेव को अपने कंबल पर बिठा लिया। पूछा-इस समय कैसे ?


यों ही इधर घूमते-घूमते चला आया।


आपका इस देहात में यश फैल रहा है। और सचमुच आपने दुखी किसानों के लिए बहुत-से उपकार करने का समारंभ किया है। मेरा हृदय प्रसन्‍न हो जाता है, क्‍योंकि विलायत से लौटकर अपने देश की संस्‍कृति और उसके धर्म की ओर उदासीनता आपने नहीं दिखाई। परमात्‍मा आप-जैसे श्रीमानों को सुखी रखे।


किंतु आप भूल कर रहे हैं। मैं तो अपने धर्म और संस्‍कृति से भीतर-ही-भीतर निराश हूँ। मैं सोचता हूँ कि मेरा सामाजिक बंधन इतना विश्रृंखला है कि उसमें मनुष्‍य केवल ढ़ोंगी बन सकता है। दरिद्र किसानों से अधिक-से-अधिक रस चूसकर एक धनी थोड़ा-सा दान-कहीं-कहीं दया और कभी-कभी छोटा-मोटा उपकार-करके, सहज ही में आप-जैसे निरीह लोगों का विश्‍वासपत्र बन सकता है। सुना है कि आप धर्म में प्राणिमात्र की समता देखते हैं, किंतु वास्‍तव में कितनी विषमता है। सब लोग जीवन में अभाव-ही-अभाव देख पाते। प्रेम का अभाव, स्‍नेह का अभाव, धन का अभाव, शरीर-रक्षा की साधारण आवश्‍यकताओं का अभाव, दुख और पीड़ा-यही तो चारों ओर दिखाई पड़ता है। जिसको हम धर्म या सदाचार कहते हैं, वह भी शांति नहीं देता। सबमें बनावट, सबमें छल-प्रपंच ! मैं कहता हूँ कि आप लोग इतने दुखी हैं कि थोड़ी-सी सहानुभूति मिलते ही कृतज्ञता नाम की दासता करने लग जाते हैं 1 इससे तो अच्‍छी है पश्चिम की आर्थिक या भौतिक समता, जिसमें ईश्‍वर के न रहने पर भी मनुष्‍य की सब तरह की सुविधाओं की योजना है।


मालूम होता है, आप इस समय किसी विशेष मानसिक हलचल में पड़कर उत्तेजित हो रहे हैं। मैं समझ रहा हूँ कि आप व्‍यावहारिक समता खोजते हैं, किंतु उसकी आधार-शिला तो जनता की सुख-समृद्धि ही है न ? जनता को अर्थ-प्रेम की शिक्षा देकर उसे पशु बनाने की चेष्‍टा अनर्थ करेगी। उसमें ईश्‍वर भाव का आत्‍मा का निवास न होता तो सब लोग उस दया, सहानुभूति और प्रेम के उद्गम से अपरिचित हो जाएंगे जिससे आपका व्‍यवहार टिकाऊ होगा। प्रकृति में विषमता तो स्‍पष्‍ट है। नियंत्रण के द्वारा उसमें व्‍यावहारिक समता का विकास न होगा। भारतीय आत्‍मवाद की मानसिक समता ही उसे स्‍थायी बना सकेगी। यांत्रिक सभ्‍यता पुरानी होते ही ढोली होकर बेकार हो जाएगी। उसमें प्राण बनाए रखने के लिए व्‍यावहारिक समता के ढांचे या शरीर में, भारतीय आत्मिक साम्‍य की आवश्‍यकता कब मानव-समाज समझ लेगा, यही विचारने की बात है। मैं मानता हूँ कि पश्चिम एक शरीर तैयार कर रहा है। किंतु उसमें प्राण देना पूर्व के अध्‍यात्‍मवादियों का काम है। यहीं पूर्व और पश्चिम का वास्‍तविक संगम होगा, जिससे मानवता का स्रोत प्रसन्‍न धार में बहा करेगा।


तब उस दिन की आशा में हम लोग निश्‍चेष्‍ट बैठे रहें ?


नहीं, मानवता की कल्‍याण-कामना में लगना चाहिए। आप जितना कर सकें, करते चलिए। इसीलिए न, मैं जितनी ही भलाई देख पाता हूँ, प्रसन्‍न होता हूँ। आपकी प्रशंसा में मैंने जो शब्‍द कहे थे बनावटी नहीं थे। मैं हृदय से आपको आशीर्वाद देता हूँ।


इंद्रदेव चुप थे, तितली दूर खड़ी थी। रामनाथ ने उसकी ओर देखकर कहा-क्‍यों बेटी, सरदी में क्‍यों खड़ी हो ? पूछ लो जो तुम्‍हें पूछना हो। संकोच किस बात का ?


बापू, दूध नहीं है। आपने लिए क्‍या ...?


अरे तो न सही, कौन एक रात में मैं मरा जाता हूँ।


इंद्रदेव ने अभाव की इस तीव्रता में भी प्रसन्‍न रहते हुए रामनाथ को देखा।


वह घराबकर उठ खड़े हुए। उनसे यह भी न कहते बन पड़ा कि मैं ही कुछ भेजता हूँ। चले गए।


इंद्रदेव को छावनी में पहुँचते-पहुँचते बहुत रात हो गई। वह आंगन से धीरे-धीरे कमरे की ओर बढ़ रहे थे। उनके कमरे में लैंप जल रहा था। हाथ में कुछ लिए हुए मलिया कमरे के भीतर जा रही थी। इंद्रदेव खम्‍भे की छाया में खड़े रह गए। मलिया भीतर पहुंची। दो मिनट बाद ही वह झनझनाती हुई बाहर निकल आई। वह अपनी विवशता पर केवल रो सकती थी, किंतु श्‍यामलाल का मदिरा -जड़ित कंठ अट्टहास कर उठा, और साथ-ही-साथ अनवरी की डांट सुनाई पड़ी-हरामजादी, झूठमूठ चिल्‍लाती है। सारा पान भी गिरा दिया और ...


इंद्रदेव अभी शैला की बात सुन आए थे। यहाँ आते ही उन्‍होंने यह भी देखा उनके रोम-रोम में क्रोध की ज्‍वाला निकलने लगी। उनकी इच्‍छा हुई कि श्‍यामलाल को उसकी अशिष्‍टता का, ससुराल में यथेष्‍ट अधिकार भोगने का फल दो घूंसे लगाकर दे दें। किंतु मां और माधुरी ! ओह ? जिनकी दृष्टि में इंद्रदेव से बढ़कर आवारा और गया-बीता दूसरा कोई नहीं।


वह लौट पड़े। उनके लिए एक क्षण भी वहाँ रुकना असह्य था। न जाने क्‍या हो जाए। मोटरखाने में आकर उन्‍होंने ड्राइवर से कहा-जल्‍दी चलो।


बेचारे ने यह भी न पूछा कि 'कहाँ' ? मोटर हार्न देती हुई चल पड़ी !


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निबंध | कवि और कविता | महावीर प्रसाद द्विवेदी | Nibandh | Kavi aur Kavita | Mahavir Prasad Dwivedi

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी निबंध - कवि और कविता यह बात सिद्ध समझी गई है कि कविता अभ्यास से नहीं आती। जिसमें कविता करने का स्वाभाविक माद्द...