तितली

प्रथम खण्ड


 1


क्यों बेटी! मधुवा आज कितने पैसे ले आया?


नौ आने, बापू!


कुल नौ आने! और कुछ नहीं?


पाँच सेर आटा भी दे गया है। कहता था, एक रुपये का इतना ही मिला।


वाह रे समय-कहकर बुड्ढा एक बार चित होकर साँस लेने लगा।


कुतूहल से लड़की ने पूछा-कैसा समय बापू?


बुड्ढा चुप रहा।


यौवन के व्यंजन दिखायी देने से क्या हुआ, अब भी उसका मन दूध का धोया है। उसे लड़की कहना ही अधिक संगत होगा।


उसने फिर पूछा-कैसा समय बापू?


चिथड़ों से लिपटा हआ, लम्बा-चौड़ा, अस्थि-पंजर झनझना उठा खाँसकर उसने कहा-जिस भयानक अकाल का स्मरण करके आज भो रोंगटे खड़े हो जाते हैं, जिस पिशाच की अग्नि-क्रीड़ा में खेलती हुई तुझको मैंने पाया था, वही संवत ५५ का अकाल आज के सुकाल से भी सदय था-कोमल था। तब भी आठ सेर का अन्न बिकता था। आज पाँच सेर की बिक्री मे भी कहीं जूँ नहीं रेंगती, जैसे-सब धीरे-धीरे दम तोड़ रहे हैं! कोई अकाल कहकर चिल्लाता नहीं। ओह! मैं भूल रहा हूँ। कितने ह्रीं मनुष्य तभी से एक बार भोजन करने के अभ्यासी हो गये हैं। जाने दे, होगा कुछ बज्जो! जो सामने आवे, उसे झेलना चाहिए।


बज्जो, मटकी में डेढ़ पाव दूध, चार कंडों पर गरम कर रही थी। उफनाते हुए दूध को उतार कर उसने कुतूहल से पूछा-बापू! उस अकाल में तुमने मुझे पाया था! लो, दूध पीकर मुझे वह पूरी, कथा सुनाओ।बुड्ढे ने करवट बदलकर, दूध लेते हुए, बज्जो की आखों में खेलते हुए आश्चर्य कौ देखा। वह कुछ सोचता हुआ दूध पीने लगा।


थोड़ा-सा पीकर उसने पूछा-अरे तूने दूध अपने लिए रख लिया है?


बज्जो चुप रही। बुड्ढा खड़खड़ा उठा-'तू बड़ी पाजी है, रोटी किससे खायगी रे?


सिर झुकाये हुए, बज्जो ने कहा-नमक और तेल से मुझे रोटी 'अच्छी लगती है बापू!


बचा हुआ दूध पीकर बुड्ढा फिर कहने लगा-यही समय है, देखती है न! गायें डेढ़ पाव दूध देती है! मुझे तो आश्चर्य होता है कि उन सूखी ठठरियों में से इतना दूध भी कैसे निकलता है!


मधुवा दबे पाँव आकर उसी झोंपड़ी के एक कोने में खड़ा हो गया। बुड्ढे ने उसकी ओर देखकर पूछा-मधुवा, आज तू क्या-क्या ले गया था?


डेढ़ सेर घुमची, एक बोझा महुआ का पत्ता और एक खाँचा कंडा बाबाजी!  -मधुवा ने हाथ जोड़ कर कहा।


इन सबका दाम एक रुपया नौ आना ही मिला?


चार पैसे बन्धू को मंजूरी में दिये थे।


अभी दो सेर घुमची और होगी बापू! बहुत-सी फलियाँ बनबेरी के झुरमुट में हैं, झड़ जाने पर उन्हें बटोर लूंगी।---बज्जो ने कहा। बुड्ढा मुस्कराया। फिर उसने कहा-मधुवा! तू गायों को अच्छी तरह चराता नहीं बेटा! देख तो, धवली कितनी दुबली हो गयी है!


कहाँ चरावें, कुछ ऊसर-परती कहीं चरने के लिए बची भी है?-मधुवा ने कहा।


बज्जो अपनी भूरी लटों को हटाते हुए बोली-मधुवा गंगा में घंटो नहाता है बापू! गायें अपने मन से चरा करती हैं! यह जब बुलाता है, तभी सब चली आती हैं 1


बज्जो की बात न सुनते हुए बाबाजी ने कहा-तू ठीक कहता है मधुवा! पशुओं को खाते-खाते मनुष्य, पशुओं के भोजन की जगह भी खाने लगे। ओह! कितना इनका पेट बढ़ गया है! वाह रे समय !!


मधुवा बीच ही में बोल उठा-बज्जो, बनिया ने कहा है कि सरफोंका की पत्ती दे जाना, अब मैं जाता हूँ।


कहकर वह झोपड़ी के बाहर चला गया।


सन्धया गाँव की सीमा में धीरे-धीरे आने लगी। अन्धकार के साथ ही ठंड बढ़ चली। गंगा की कछार की झाड़ियों में सन्नाटा भरने लगा। नालों के करारों में चरवाहों के गीत गूँज रहे थे।


बज्जो दीप जलाने लगी। उस दरिद्र कुटीर के निर्मम अन्धकार में दीपक की ज्योति तारा-सी चमकने लगी।


बुड्ढे ने पुकारा-बज्जो


आयी-कहती हुई वह बुड्ढे की खाट के पास आ बैठी और उसका सिर सहलाने लगी। कुछ ठहरकर बोली-बापू! उस अकाल का हाल न सुनाओगे? तू सुनेगी बज्जो! क्या करेगी सुनकर बेटी? तू मेरी बेटी है और मैं तेरा बूढ़ा बाप! तेरे लिए इतना जान लेना बहुत है।


नहीं बापू! सुना दो मुझे वह अकाल की कहानी-बज्जो ने मचलते हुए कहा।


धाँय-धाय-धाँय...!!!


गंगा-तट बन्दूक के धड़ाके से मुखरित हो गया। बज्जो कुतूहल से झोंपडी के बाहर चली आयी।


वहाँ एक घिरा हुआ मैदान था। कई बीघा की समतल भूमि-जिसके चारों ओर, दस लट्ठे की चौड़ी, झाड़ियाँ की दीवार थी-जिसमें कितने ही सिरिस, महुआ, नीम और जामुन के वृक्ष थे-जिन पर घुमची, सतावर और करज्ज इत्यादि की लतरें झूल रही थीं। नीचे की भूमि में भटेस के चौड़े-चौड़े पत्तों की हरियाली थी। बीच-बीच में बनबेर ने भी अपनी कँटीली डालों को इन्हीं सबों से उलझा लिया था।


वह एक सघन झुरमुट था-जिसे बाहर से देखकर यह अनुमान करना कठिन' था कि इसकं भीतर इतना लम्बा-चौड़ा मैदान हो सकता है।


देहात के मुक्त आकाश में अन्धकार धीरे-धीरे फैल रहा था। अभी सूर्य की अस्तकालीन लालिमा आकाश के उच्च प्रदेश में स्थित पतले बादलों में गुलाबी आभा दे रही थी।


बज्जो, बन्दूक का शब्द सुनकर, बाहर तो आयी; परन्तु वह एकटक उसी गुलाबी आकाश को देखने लगी। काली रेखाओं-सी भयभीत कराकुल पक्षियों की पंक्तियाँ 'करररर-कर्र' करती हुई संध्या की उस शान्त चित्रपटी के अनुराग पर कालिमा फेरने लगी थीं।


हाय राम! इन काँटो में-कहाँ आ फँसा!


बज्जो कान लगाकर सुनने लगी।


फिर किसी ने कहा-नीचे करार की ओर उतरने में तो गिर जाने का डर है, इधर ये काँटेदार झाडियाँ!अब किधर जाऊँ?


बज्जो समझ गयी कि कोई शिकार खेलने वालों में से इधर आ गया है। उसके हृदय में विरक्ति हुई-उँह, शिकारी पर दया दिखाने की क्या आवश्यकता? भटकने दो।


वह घूम कर उसी मैदान में बैठी हुई एक श्यामा गौ को देखन लगी। बड़ा मधुर शब्द सुन पडा-चौबेजी! आप कहाँ हैं?


अब बज्जो को बाध्य होकर उधर जाना पड़ा। पहले काँटों में फँसने वाले व्यक्ति ने चिल्लाकर कहा-खड़ी रहिए; इधर नही-ऊँहूँ-ऊँ। उसी नीम के नीचे ठहरिए, मै आता हूँ! इधर बड़ा ऊँचा-नीचा है।


चौबेजी, यहाँ तो मिट्टी काटकर बड़ी अच्छी सीढ़ियाँ बनी है; मैं तौ उन्हीं से ऊपर आई हूँ।-रमणी के कोमल कंठ से यह सुन पड़ा।


बज्जो को उसकी मिठास ने अपनी ओर आकृप्ट किया। जंगली हिरन के समान कान उठाकर वह सुनने लगी।


झाड़ियों के रौदे जाने का शब्द हुआ। किर वही पहिला व्यक्ति बोल उठा- लीजिये, मैं तो किसी तरह आ पहुँचा, अब गिरा-तब गिरा, राम-राम! कैसी साँसत! सरकार से मैं कह रहा था कि मुझे न ले चलिए। मैं यहीं चूड़ा-मटर की खिचड़ी बनाऊँगा। पर आपने भी जब कहा, तब तो मुझे आना ही पड़ा। भला आप क्यों चली आई?


इन्द्रदेव ने कहा कि सुर्खाब इधर बडुत है, मैं उनके मुलायम पैरों के लिए आई। सच चौवेजी, लालच में मैं चली आई। किन्तु छर्रों से उनका मरना देखने में मुझे सुख तो न मिला। आह! कितना निधड़क वे गंगा के किनारे टहलते थे! उन पर विनचेस्टर-रिपीटर के छर्रों की चोट ! बिलकुल ठीक नहीं। मैं आज ही इन्द्रदेव का शिकार खेलने से रोकूँगी-आज ही।


अब किधर चला जाय?-उत्तर में किसी ने कहा।


चौबेजी ने डग बढ़ाकर कहा-मेरे पीछे-पीछे चली आइए।


किन्तु मिट्टी बह जाने से मोटी जड़ नीम की उभड़ आई थी, उसने ऐसी करारी ठोकर लगाई कि चौबेजी मुँह के बल गिरे।


रमणी चिल्ला उठी। उस धमाके और चिल्लाहट ने बज्जो को विचलित कर दिया। वह कँटीली झाड़ी को खीचकर अँधेरे में भी ठीक-ठीक उसी सीढ़ी के पास जाकर खड़ी हो गई, जिसके पास नीम का वृक्ष था।


उसने देखा कि चौबेजी बेतरह गिरे हैं। उनके घुटने में चोट आ गई है। वह स्वयं नहीं उठ सकते।


सुकुमारी सुन्दरी के बूते के बाहर की यह बात थी।


बज्जो ने भी हाथ लगा दिया। चौबेजी किसी तरह काँखते हुए उठे।


अन्धकार के साथ-साथ सर्दी बढ़ने लगी थी। बज्जो की सहायता से सुन्दरी, चौबेजी को लिवा ले चली; पर कहाँ? यह तो बज्जो ही जानती थी।


झोंपडी में बुड्ढा पुकार रहा था-बज्जो़ ! बज्जो !! बड़ी पगली है। कहाँ घूम रही है? बज्जो, चली आ !


झुरमुट में घुसते हुए चौबेजी तो कराहते थे, पर सुन्दरी उस वन-विहंगिनी की ओर आँखें गड़ाकर देख रही थी और अभ्यास के अनुसार धन्यवाद भी दे रही थी।


दूर से किसी की पुकार सुन पडी- शैला ! शैला !!


ये तीनों, झाड़ियों की दीवार पार करके, मैदान में आ गये थे।


बज्जो के सहारे चौबेजी को छोड़कर शैला फिरहरी की तरह घूम पड़ी। वह नीम के नीचे खड़ी होकर कहने लगी-इसी सीढ़ी से इन्द्रदेव-बहुत ठीक सीढ़ी है। हाँ, सँभालकर चले जाओ। चौबेजी का तो घुटना ही टूट गया है! हाँ, ठीक है, चले आओ! कहीं-कहीं जड़ें बुरी तरह से निकल आई है-उन्हें बचाकर आना।


नीचे से इन्द्रदेव ने कहा-सच कहना शैला ! क्या चौबे का घुटना टूट गया? ओहो, तो कैसे वह इतनी दूर चलेगा ! नहीं-नहीं, तुम हँसी करती हो।


ऊपर आकर देख लो, नहीं भी टूट सकता है!


नहीं भी टूट सकता है? वाह ! यह एक ही रही। अच्छा, लो, मैं आ ही पहुँचा।


एक लम्बा-सा युवक, कंधे पर बन्दूक रखे, ऊपर चढ़ रहा था। शैला, नीम के नीचे खड़ी, गंगा के करारे की ओर झाँक रही थी-यह इन्द्रदेव को सावधान करती थी-ठोकरों से और ठीक मार्ग से।


तब तक उस युवक ने हाथ बढ़ाया-दो हाथ मिले!


नीम के नीचे खड़े होकर, इन्द्रदेव ने शैला के कोमल हाथों को दबाकर कहा करारे की मिट्टी काट कर देहातियों नं कामचलाऊ सीढ़ियाँ अच्छी बना ली हैं। शैला! कितना सुन्दर दृश्य है! नीचे धीरे-धीरे गंगा बह रही है, अन्धकार से मिली हुई उस पार के वृक्षों की श्रेणी क्षितिज की कोर में गाढ़ी कालिमा की बेल बना रही है, और ऊपर...


पहले चलकर चौबेजी को देख लो, फिर दृश्य देखना।-बीच ही में रोककर शैला ने कहा।


अरे हाँ, यह तो मैं भूल ही गया था? चलो किधर चलूँ? यहाँ तो तुम्हीं पथ-प्रदर्शक हो।-कहकर इन्द्रदेव हँस पड़े।


दोनों, झोंपडियों के भीतर घुसे। एक अपरिचित बालिका के सहारे चौबेजी को कराहते देखकर इन्द्रदेव ने कहा-तो क्या सचमुच में यह मान लूँ कि तुम्हारा घुटना टूट गया? मैं इस पर कभी विश्वास नहीं कर सकता। चौबे, तुम्हारे घुटने 'टूटने वाली हड्डी' के बने ही नहीं!


सरकार, यही तो मैं भी सोचता हुआ चलने का प्रयत्न कर रहा हूँ। परन्तु


... आह। बड़ी पीड़ा है, मोच आ गई होगी। तो भी इस छोकरी के सहारे थोड़ी दूर चल सकूँगा। चलिए-। चौबेजी ने कहा।


अभी तक बज्जो से किसी ने न पूछा था कि तू कौन है, कहाँ रहती है, या हम लोगों को कहाँ लिवा जा रही है।


बज्जो ने स्वयं ही कहा-पास ही झोंपड़ी है। आप लोग वही तक चलिए; फिर जैसी इच्छा।


सब बज्जो के साथ मैदान के उस छोर पर जलने वाले दीपक के सम्मुख चले, जहां से ''बज्जो! बज्जो!!'' कहकर कोई पुकार रहा था। बज्जो ने कहा- आती हूँ!


झोंपड़ी के दूसरे भाग के पास पहुँचकर बज्जो क्षण-भर के लिए रुकी। चौवे जी को छप्पर के नीचे पड़ी हुई एक खाट पर बैठने का संकेत करके वह घूमी ही थी कि बुड्ढे ने कहा-बज्जो! कहाँ? है रे? अकाल की कहानी और अपनी कथा न सुनेगी? मुझे नींद आ रही है।


आ गई-कहती हुई बज्जो भीतर चली गई। बगल के छप्पर के नीचे इन्द्रदेव और शैला खड़े रहे! चौबेजी खाट पर वैठे थे, किन्तु कराहने की व्याकुलता दबाकर। एक लड़की के आश्रय में आकर इन्द्रदेव भी चकित सोच रहे थे-कहीं यह बुड्ढा हम लोगों के यहाँ आने से चिढ़ेगा तो नहीं।


सब चुपचाप थे।


बुड्ढे ने कहा-कहाँ रही तू बज्जो!


एक आदमी को चोट लगी थी, उसी...।


तो-तू क्या कर रही थी?


वह चल नहीं सकता था, उसी को सहारा देकर-


मरा नहीं, बच गया। गोली चलने का-शिकार खेलने का-आनन्द नहीं मिला! अच्छा, तो तू उनका उपकार करने गई थी। पगली! यह मैं मानता हूं कि मनुष्य को कभी-कभी अनिच्छा से भी कोई काम कर लेना पड़ता है; पर...


नहीं... जान-बूझ कर किसी उपकार-अपकार के चक्र में न पड़ना ही अच्छा है। बज्जो! पल भर की भावुकता मनुष्य के जीवन में कहाँ-से-कहाँ, खींच ले जाती है, तू अभी नहीं जानती। बैठ, ऐसी ही भावुकता को लेकर मुझे जो कुछ भोगना पड़ा है, वही सुनाने के लिए तो मैं तुझे खोज रहा था।


बापू... क्या है रे! बैठती क्यों नहीं?


वे लोग यहाँ आ गये हैं....


ओहो ! तू बड़ी पुण्यात्मा है... तो फिर लिवा ही आई है, तो उन्हें बिठा दे छप्पर में-और दूसरी जगह ही कौन है? और बज्जो! अतिथि को बिठा देने से ही नहीं काम चल जाता। दो-चार टिक्कर सेंकने की भी... समझी?


नहीं-नहीं, इसकी आवश्यकता नहीं-कहते हुए इन्द्रदेव बुड्ढे के सामने आ गये। बुड्ढे ने धुँधले प्रकाश में देखा-पूरा साहबी ठाट ! उसने कहा-आप साहब यहाँ....


तुम घबराओ मत, हम लोगों को छावनी तक पहुँच जाने पर किसी बात की असुविधा न रहेगी। चौबेजी को चोट आ गई है, वइ सवारी न मिलने पर रात भर, यहाँ पड़े रहेंगे। सवेरे देखा जायेगा। छावनी की पगडंडी पा जाने पर हम लोग स्वयं चले जायँगे। कोई....


इन्द्रदेव को रोककर बुड्ढे ने कहा-आप धामपुर की छावनी पर जाना चाहते हैं? जमींदार के मेहमान हैं न? बज्जो! मधवा को बुला दे, नहीं तू ही इन लोगों को बनजरिया के बाहर उत्तर वाली पगडंडी पर पहुँचा दे। मधुवा!! -ओ रे मधुवा !-चौबेजी को रहने दीजिए, कोई चिन्ता नहीं।


बज्जो ने कहा-रहने दो बापू। मैं ही जाती हूँ।


शैला ने चौबेजी से कहा-तो आप यहीं रहिये, मैं जाकर सवारी भेजती हूँ।


रात को झंझट बढ़ाने की आवश्यकता नहीं, बटुए में जलपान का सामान है कम्बल भी है। मैं इसी जगह रात भर में इसे सेंक-साँक कर ठीक कर लूँगा। आप लोग जाइए।-चौबे ने कहा।


इन्द्रदेव ने  पुकारा-शैला ! आओ, हम लोग चलें।


शैला उसी झोंपड़ी में आई। वहीं से बाहर निकलने का पथ था। बज्जो के पीछे दोनों झोंपड़ी से निकले।


लेटे हुए बुड्ढे ने देखा-इतनी गोरी, इतनी सुन्दर, लक्ष्मी-सी स्त्री इस जंगल-उजाड़ में कहाँ ! फिर सोचने लगा-चलो,दो तो गये। यदि वे भी यहीं रहते, तो खाट-कम्बल और सब सामान कहाँ से जुटता। अच्छा चौबेजी हैं तो ब्राह्मण, उनको कुछ अड़चन न होगी; पर इन साहबी ठाट के लोगों के लिए मेरी झोपड़ी में कहाँ.. ऊंह! गये, चलो, अच्छा हुआ। बज्जो आ जाय, तो उसकी चोट तेल लगाकर सेंक दे।


वुड्ढे को फिर खाँसी आने लगी। वह खाँसता हुआ इधर के विचारों से छुट्टी पाने की चेष्टा करने लगा।


उधर चौबेजी गोरसी में सुलगते हुए कंडों पर हाथ गरम करके घुटना सेंक रहे थे। इतने में बज्जो मधुवा के साथ लौट आई।


बापू! जो आये थे, जिन्हें मैं पहुँचाने गई थी, वही तो धामपुर के जमींदार हैं। लालटेन लेकर कई नौकर-चाकर उन्हें खोज रहे थे। पगडंडी पर ही उन लोगों से भेंट हुई। मधुवा के साथ मैं लौट आई। एक साँस में बज्जो कहने को तो कह गई, पर बुड्ढे की समझ में कुछ न आया। उसने कहा-मधुवा! उस शीशी में जो जड़ी का तेल है, उसे लगा कर ब्राह्मण का घुटना सेंक दे, उसे चोट आ गई है।


मधुवा तेल लेकर घुटना सेंकने चला।


बज्जो पुआल में कम्बल लेकर घुसी। कुछ पुआल और कुछ कम्बल से गले तक शरीर ढँक कर वह सोने का अभिनय करने लगी। पलकों पर ठंढ लगने से बीच-बीच में वह आँख खोलने-मूँदने का खिलवाड़ कर रही थी। जब आँखें बंद रहतीं, तब एक गोरा-गोरा मुँह-करुणा की मिठास से भरा हुआ गोल-मटोल नन्हा-सा मुँह-उसके सामने हँसने लगता। उसमे ममता का आकषण था। आँख खुलने पर वही पुरानी झोंपडी की छाजन! अत्यन्त विरोधी दृश्य!! दोनों ने उसके कुतूहल-पूर्ण हृदय के साथ छेड़छाड़ की, किन्तु विजय हुई आँख बन्द करने की। शैला के संगीत के समान सुन्दर शब्द उसकी हत्तन्त्री में झनझना उठे। शैला के समीप होने की-उसके हृदय में स्थान पाने की-बलवती वासना बज्जो के मन में जगी। वह सोते-सोते स्वप्न देखने लगी। स्वप्न देखते-देखते शैला के साथ खेलने लगी।


मधुवा से तेल मलबाते हुए चौबेजी ने पूछा-क्यों जी! तुम यहाँ कहाँ रहते हो? क्या काम करते हो? क्या तुम इस बुड्ढे के यहाँ नौकर हो? उसके लड़के तो नहीं मालूम पड़ते?


परन्तु मधुवा चुप था।


चौबेजी ने घबराकर कहा-बस करो, अब दर्द नहीं रहा। वाह-वाह।


यह तेल है या जादू। जाओ भाई, तुम भी सो रहो। नहीं-नहीं ठहरो तो, मुझे थोड़ा पानी पिला दो।


मधुवा चुपचाप उठा और पानी के लिए चला। तव चौबेजी ने धीरे से बटुआ खोलकर मिठाई निकाली, और खाने लगे। मधुवा इतने में न जाने कब लोटे में जल रखकर चला गया था।


और बज्जो सो गई थी। आज उसने नमक और तेल से अपनी रोटी भी नहीं खाई। आज पेट के बदले उसके हृदय में भूख लगी थी। शैला से मित्रता-शैला से मधुर परिचय-के लिए न-जाने कहाँ की साध उमड़ पडी थी। सपने-पर-सपने देख रही थी। उस स्वप्न की मिठास में उसके मुख पर प्रसन्नता की रेखा उस दरिद-कुटीर में नाच रही थी।


2

धामपुर एक वड़ा ताल्लुका है। उसमे चौदह गाँव हैं। गंगा के किनारे-किनारे उसका विस्तार दूर तक चला गया है। इन्द्रदेव यहीं के युवक जमींदार थे। पिता को राजा की उपाधि मिली थी।


बी० ए० पास करके जब इन्द्रदेव ने बैरिस्टरी के लिए विलायत-यात्रा की, तब पिता के मन में बड़ा उत्साह था।


किन्तु इन्द्रदेव धनी के लड़के थे। उन्हें पढ़ने-लिखने की उतनी आबश्यकता न थी, जितनी लन्दन का सामाजिक बनने की।


लन्दन-नगर में भी उन्हें पूर्व और पश्चिम का प्रत्यक्ष परिचय मिला। पूर्वी भाग में पश्चिमी जनता का जो साधारण समुदाय है, उतना ही विरोध पूर्ण है, जितना कि विस्तृत पूर्व और पश्चिम का। एक ओर सुगन्ध जल के फौवारे छूटते हैं, बिजली से गरम कमरो में जाते ही कपड़े उतार देने की आवश्यकता होती है; दूसरी ओर बरफ और पाले में दूकानों के चबूतरो के नीचे अर्ध-नग्न दरिद्रों का रात्रि-निवास।


इन्द्रदेव कभी-कभी उस पूर्वी भाग की सैर के लिए चले जाते थे।


एक शिशिर रजनी थी। इन्द्रदेव मित्रों के निमन्त्रण से लौटकर सड़क के किनारे, मुंह पर अत्यन्त शीतल पवन का तीखा अनुभव करते हुए, बिजली के प्रकाश में धीरे-धीरे अपने 'मेस' की ओर लौट रहे थे। पुल के नीचे पहुँच कर वह रुक गये। उन्होंने देखा-कितने ही अभागे, पुल की कमानी के नीचे अपना रात्रि-निवास बनाये हुए, आपस में लड़-झगड़ रहे है। एक रोटी पूरी ही खा जायगा।-इतना बड़ा अत्याचार न सह सकने के कारण जब तक स्त्री उसके हाथ से छीन लेने के लिए अपनी शराब की खुमारी से भरी आँखों को चढ़ाती ही रहती है तब तक लड़का उचक कर छीन लेता है। चटपट तमाचों का शब्द होना तुमुल युद्ध के आरम्भ होने की सूचना देता है। धील-धप्पड, गाली-गलौज बीच-वीच में फूहड़ हँसी भी सुनाई पड़ जाती है।


इन्द्रदेव चुपचाप वह दृश्य देख रहे थे और सोच रहे थे इतना अकूत धन विदेशों से ले आकर भी क्या इन साहसी उद्यगियों ने अपने देश को दरिद्रत का नाश किया? अन्य देशों की प्रकृति का रक्त इन लोगों की कितनी प्यास बुला सका है?


सहसा एक लम्बी-सी पतली-दुबली लड़की उनके पास आकर कुछ याचना की। इन्द्रदेव ने गहरी दृष्टि से उस विवर्ण मुख को देख कर पूछा-क्यों, तुम्हारे पिता-माता नहीं हैं?


पिता जेल में हैं, माता मर गई है।


और इतने अनाथालय?


उनमें जगह नहीं!


तुम्हारे कपड़ों से शराब की दुर्गन्ध आ रही है। क्या तुम.,.


'जैक' बहुत ज्यादा पी गया था, उसी ने कै कर दिया है। दूसरा कपड़ा नहीं जो बदलूँ बड़ी सरदी है-कहकर लड़की ने अपनी छाती के पास का कपड़ा मुट्ठियों में समेट लिया।


तुम नौकरी क्यों नहीं कर लेती?


रखता कौन है? हम लोगों को तो वे बदमाश, गिरह-कट आवारे समझते हैं। पास खड़े होने तो...


आगे उस लड़की के दाँत आपस में रगड़कर बजने लगे। यह स्पष्ट कुछ न कह सकी।


इन्द्रदेव ओंठ काटते हुए क्षण-भर विचार करने लगे। एक छोकरे ने आकर लड़की को धक्का देकर कहा-जो पाती, सब शराब पी जाती है। इसको देना-न देना सब बराबर है।


लड़की ने क्रोध से कहा-जैक! अपनी करनी मुझ पर क्यों लादता है? तू ही मांग ले; मैं जाती हूँ। वह घूमकर जाने के लिए तैयार थी कि इन्द्रदेव ने कहा-अच्छा सुनो तो, तुम पास के भोजनालय तक चलो, तुमको खाने के लिए, और मिल सका तो कोई भी दिलवा दूंगा।


छोकरा 'हो-हो-हो!' करके हँस पड़ा। बोला- जा न शैला। आज की रात तो गरमी से बिता लें, फिर कल देखा जायगा।


उसका अश्लील व्यंग्य इन्द्रदेव को व्यथित कर रहा था; किन्तु शैला ने कहा-चलिये।


दोनों चल पड़े। इन्द्रदेव आगे थे, पीछे शैला। लन्दन का विद्युत-प्रकाश निस्तब्ध होकर उन दोनों का निर्विकार पद-बिक्षेप देख रहा था। सहसा घूमकर इन्द्रदेव ने पूछा-तुम्हारा नाम 'शेला' है न?


'हाँ' कहकर फिर वह चुपचाप सिर नीचा किये अनुसरण करने लगी।


इन्द्रदेब ने फिर ठहरकर पूछा-कहाँ, चलोगी? भोजनालय में या हम लोगों के मेस में?


'जहाँ कहिए' कहकर वह चुपचाप चल रही थी। उसकी अविचल धीरता से मन-ही-मन कुढ़ते हुए इन्द्रदेव मेस की ओर ही चले।


उस मेस में तीन भारतीय छात्र थे। मकान वाली एक बुढ़िया थी। उसके किये सब काम होता न था। इन्द्रदेव ही उन छात्रों के प्रमुख थे। उनकी सम्मत से सब लोगों ने 'शैला' को परिचारिका-रूप में स्वीकार किया। और, जब शैला से पूछा गया, तो उसने अपनी स्वाभाविक उदार दृष्टि इन्द्रदेव के मुँह पर जमा-कर कहा-यदि आप कहते है तो मुझे स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है। भिखमंगिन होने से यह बुरा तो न होगा।


इन्द्रदेव अपने मित्रों के मुस्कराने पर भी मन-ही-मन सिहर उठे। बालिका के विश्वास पर उन्हें भय मासूम होने लगा। तब भी उन्होंने समस्त साहस बटोर कर कहा-शैला, कोई भय नहीं, तुम यहाँ स्वयं सुखी रहोगी और हम लोगों की भी सहायता करोगी।


मकान वाली बुढ़िया ने जब यह सुना, तो एक बार झल्लाई। उसने शैला के पास जाकर, उसकी ठोढ़ी पकड़कर, आँखें गड़ाकर, उसके मुँह को और फिर सारे अंग को इस तीखी चितवन से देखा, जैसे कोई सौदागर किसी जानवर को खरीदने से पहले उसे देखता हो।


किन्तु शैला के मुँह पर तो एक उदासीन धैर्य आसन जमाये था, जिसको कितनी ही कुटिल दृष्टि क्यों न हो, विचलित नहीं कर सकती।


बुढ़िया ने कहा-रह जा बेटी,ये लोग भी अच्छे आदमी हैं।


शैला उसी दिन से मेस में रहने लगी।


भारतीयों के साथ बैठकर वह प्राय: भारत के देहातों, पहाड़ी तथा प्राकृतिक दृश्यों के सम्बन्ध में इन्द्रदेव से कुतूहलपूर्ण प्रश्न किया करती।


बैरिस्टरी का डिप्लोमा मिलने के साथ ही इन्द्रदेव को पिता के मरने का शोक-समाचार मिला। उस समय शैला की सान्त्वना और स्नेहपूर्ण व्यवहार ने इन्द्रदेव के मन को बहुत-कुछ बहलाया। मकान वाली बुढ़िया उसे बहुत प्यार करती, इन्द्रदेव के सद्व्यवहार और चारित्र्य पर वह बहुत प्रसन्न थी। इन्द्रदेव ने जब शैला को भारत चलने के लिए उत्साहित किया, तो बुढ़िया ने समर्थन किया। इन्द्रदेव के साथ शैला भी भारत चली आई।


इन्द्रदेव ने शहर के महल में न रहकर धामपुर के बँगले में ही अभी रहने का प्रबन्ध किया।


अभी धामपुर आये इन्द्रदेव और शैला को दो सप्ताह से अधिक न हुए थे। इंगलैण्ड से ही इन्द्रदेव ने शैला को हिन्दी से खूब परिचित कराया। वह अच्छी हिन्दी बोलने लगी थी। देहाती किसानों के घर जाकर उनके साथ घरेलू बातें करने का चसका लग गया था। पुरानी खाट पर बैठकर वह बड़े मजे में उनसे बातें करती, साड़ी पहनने का उसने अभ्यास कर लिया था-और उसे फबती भी अच्छी।


शैला और इन्द्रदेव दोनों इस मनोविनोद से प्रसन्न थे। वे गंगा के किनारे- किनारे धीरे-धीरे बात करते चले जा रहे थे। क़षक-बालिकाएँ बरतन माँज रही थीं। मल्लाहों के लड़के अपने डोंगी पर वैठे हुए मछली फ़ँसाने की कटिया तोल रहे थे। दो-एक बड़ी-बड़ी नावें, माल से लदी हुई, गंगा के प्रशांत जल पर धीरे- धीरे सन्तरण कर रही थीं। वह प्रभात था!


शैला। बड़े कुतूहल से भारतीय वातावरण में नीले आकाश, उजली धूप और सहज ग्रामीण शान्ति का निरीक्षण कर रही थी।-वह बातें भी करती जाती थी। गंगा की लहर से सुन्दर कटे हुए-बालू-के नीचे करारों में पक्षियों के एक सुन्दर छोटे-से झुंड को विचरते देखकर उसने उनका नाम पूछा!


इन्द्रदेव ने कहा- ये सुर्खाब हैं, इनके परों, का तो तुम लोगों के यहाँ भी उपयोग होता है। देखो, ये कितने कोमल है।


यह कहकर इन्द्रदेव ने दो-तीन गिरे हुए परों को उठाकर शैला के हाथ में दे दिया।


'फ़ाइन'।-नहीं-नहीं, माफ करो इन्द्रदेव! अच्छा, इन्हें कहूँ? कोमल। सुन्दर !-कहती हुई,शैला ने हँस दिया।


शैला! इनके लिए मेरे देश में एक कहावत है। यहाँ कें कवियों ने अपनी कविता में इनका बड़ा करुण वर्णन किया है।-गम्भीरता से इन्द्रदेव ने कहा। क्या?


इन्हें चक्रवाक कहते हैं। इनके जोड़े दिन-भर तो साथ-साथ घूमते रहते हैं, किन्तु संध्या जब होती है, तभी ये अलग हो जाते हैं। फिर ये रात-भर नहीं मिलने पाते।


कोई रोक देता है क्या?


प्रकृति, कहा जाता है कि इनके लिए यही विधाता का विधान है।


ओह। बड़ी कठोरता है।-कहती हुई शैला एक क्षण के लिए अन्यमनस्क हो गई।


कुछ दूर चुपचाप चलने पर इन्द्रदेव ने कहा-शैला। हम लोग नीम के पास आ गये। देखो, यही सीढ़ी है; चलो देखें, चौबे क्या कर रहा है।


पालना-नहीं-नहीं-पालकी तो पहुँच गई होगी इन्द्रदेव। यह भी कोई सवारी है? तुम्हारे यहाँ रईस लोग इसी पर चढ़ते हैं-आदमियों पर। क्यों? बिना किसी बीमारी के। यह तो अच्छा तमाशा है !-कहकर शैला ने हँस दिया।


अब तो बीमारी से बदले डाक्टर ही यहाँ पालकी पर चढते हैं शैला! लो, पहले तुम्ही सीढ़ी पर चढ़ो।


दोनों सीढ़ी पर चढ़कर बातें करते हुए बनजरिया में पहुँचे। देखते हैं, तो चौबेजी अपने सामान से लैस खडे हैं।


शैला ने हँसकर पूछा-चौबेजी। आप तो पालकी पर जायँगे?


मुझे हुआ क्या है। रामदीन को आज बिना मारे मैं न छोड़ूँगा। सरकार! उसने बड़ा तंग किया। मुझे गोद में उठाकर पालकी पर बिठाना था। छावनी पर चलकर उस बदमाश छोकरे की खबर लूँगा।


बुरा क्या करता था? मेरे कहने से वह बेचारा तो तुम्हारी सेवा करना चाहता था और तुम चिढ़ते थे। अच्छा, चलो तुम पालकी में वैठो।-इन्द्रदेव ने कहा।


फिर वही-पालकी में बैठो। क्या मेरा ब्याह होगा?


ठहरो भी, तुम्हारा घुटना तो टूट गया है न। तुम चलोगे कैसे?


तेल क्या था, बिल्कुल जादू! मेम साहब ने जो दवा का वक्स मेरे बटुए में रख दिया था-वही, जिसमें साबूदाना की-सी गोलियां रहती हैं-मैंने खोल डाला। एक शीशी गोली खा डाली। न गुड तीता न मीठा-सच मानिये मेम साहब। आपकी दवा मेरे-जैसे उजड्डो के लिए नहीं। मेरा तो विश्वास है कि उस तेल ने मुझे रातभर में चंगा कर दिया। मैं अब पालकी पर न चढूंगा। गाँव-भर में मेरी दिल्लगी राम-राम!!


शैला हँस रही थी। इन्द्रदेव ने कहा-चौबे! होमियोपैथी में बीमारी की दवा नहीं होती, दवा की बीमारी होती है। क्यों शैला!


इन्द्रदेव! तुमने कभी इसका अनुभव नहीं किया है। नहीं तो इसकी हँसी न उड़ाते। अच्छा, चलो उस लड़की को तो बुलावें। वह कहाँ है? उसे कल कुछ इनाम नहीं दिया। बड़ी अच्छी लड़की है। झोंपड़ी में से टेकते हुए बुड्डा निकल आया। उसके पीछे बज्जो थी। शैला ने दौडकर उसका हाथ पकड़ लिया, और कहने लगी-ओह तुम रात को चली आई, मैं तो खोज रही थी। तुम बडी नेक...!


बज्जो आश्चर्य से उसका मुँह देख रही थी।


इन्द्रदेव ने कहा-बुड्ढे। तुम बहुत बीमार हो न?


हाँ सरकार। मुझे नहीं मालूम था, रात को आप...


उसका सोच मत करो। तुम कौन कहानी कह रहे थे रात को बज्जो को क्या सुना रहे थे? मुझको सुनाओगे, चलो छावनी पर।


सरकार; मैं बीमार हूँ। बुड्ढा हूँ। बीमार हूँ।


शैला ने कहा- ठीक इन्द्रदेव, अच्छा सोचा। इस बुड्डे की कहानी बड़ी अच्छी होगी। लिवा चलो इसे। बज्जो। तुम्हारी कहानी हम लोग भी सुनेगे। चलो।


इन्द्रदेव ने कहा अच्छा तो होगा।


चौबेजी ने कहा-अच्छा तो होगा सरकार। मैं भी मधुवा को साथ लिवा चलूंगा। शायद फिर घुटना टूटे, तेल मलवाना पड़े और इन गायों को भी हाँक ले चलूं, दूध भी-सब हँस पडे; परन्तु बुड्ढा बड़े संकट मे पड़ा। कुछ बोला नहीं, वह एकटक शैला का मुँह देख रहा था। एक अपरिचित! जिससे परिचय बढ़ाने के लिए मन चंचल हो उठे। माया-ममता से भरा-पूरा मुख।


बुड्ढा डरा नहीं, वह समीप होने की मानसिक चेष्टा करने लगा।


साहस बटोरकर उसने कहा-सरकार! जहाँ कहिये, वहीं चलूँ।


3

चारो ओर ऊँचे-ऊँचे खम्भो पर लम्बे-चौड़े दालान, जिनसे सटे हुए सुन्दर कमरों में सुखासन, उजली सेज, सुन्दर लैम्प, बड़े-बड़े शीशे, टेबिल पर फूलदान अलमारियों में सुनहली जिल्दों से मढ़ी हुई पुस्तकें-सभी कुछ उस छावनी में पर्याप्त है।


आस-पास, दफ्तर के लिए, नौकरों के लिए तथा और भी कितने ही आवश्यक कामों के लिए छोटे-मोटे घर बने है। शहर के मकान में न जाकर, इन्द्रदेव ने विलायत से लौटकर यहीं रहना जो पसन्द किया है, उसके कई कारणों में इस कोठी की सुन्दर भूमिका और आस-यास का रमणीय वातावरण भी है। शैला के लिए तो दूसरी जगह कदापि उपयुक्त न होती।


छावनी के उत्तर नाले के किनारे ऊंचे चौतरे की हरी-हरी दूबों से भरी हुई भूमि पर कुर्सी का सिरा पकड़े तन्मयता से वह नाले का गंगा में मिलना देख रही थी। उसका लम्बा और ढीला गाउन मधुर पवन से आन्दोलित हो रहा था। कुशल शिल्पी के हाथों से बनी हुई संगमरमर की सौन्दर्य-प्रतिमा-सी वह बड़ी भली मालूम हो रही थी।


दालान में चौबेजी उसके लिये चाय बना रहे थे। सायंकाल का सूर्य अब लाल बिम्ब-मात्र रह गया था, सो भी दूर की ऊँची हरियाली के नीचे जाना ही चाहता है। इन्द्रदेव अभी तक नहीं आये थे। चाय ले आने में चौबेजी और सुस्ती कर रहे थे। उनकी चाय शैला को बड़ी अच्छी लगी। वह चौबेजी के मसाले पर लट्टू थी।  रामदीन ने चाय की टेबिल लाकर धर दी। शैला की तन्मयता भंग हुई। उसने मुस्कराते हुए,इन्द्रदेव से कुछ मधुर सम्भाषण करने के लिए, मुंह फिराया; किन्तु इन्द्रदेव को न देखकर वह रामदीन से बोली-क्या अभी इन्द्रदेव नहीं आते है? नटखट रामदीन हंसी छिपाते हुए एक आँख का कोना दबाकर ओठ के कोने को ऊपर चढ़ा देता था। शैला उसे देखकर खूब हंसती, क्योकि रामदीन का कोई उत्तर बिना इस कुटिल हँसी के मिलना असम्भव था! उसने अभ्यास के अनुसार आधा हँसकर कहा-जी, आ रहे हैं सरकार! बड़ी सरकार के आने की...


बड़ी सरकार?


हां, बड़ी सरकार! वह भी आ रही हैं। कौन है वह?


बड़ी सरकार-.


देखो रामदीन,समझाकर कहो। हँसना पीछे।


बड़ी सरकार का अनुवाद करने में उसके सामने बड़ी बाधाएँ उपस्थित हुई; किन्तु उन सबको हटाकर उसने कह दिया- सरकार की मां आई हैं। उनके लिए गंगा-किनारे वाली छोटी कोठी साफ़ कराने का प्रबन्ध देखने गये हैं। वहाँ से आते ही होंगे।


आते ही होंगे? क्या अभी देर है?


रामदीन कुछ उत्तर देना चाहता था कि बनारसी साड़ी का आँचल कंधे पर से पीठ की ओर लटकाये; हाथ में छोटा-सा बेग लिये एक सुन्दरी वहाँ आकर खड़ी हो गई। शैला ने उसकी ओर गम्भीरता से देखा। उसने भी अधिक खोजने वाली आँखों से शैला को देखा।


दृष्टि-विनिमय में एक-दूसरे को पहचानने की चेष्टा होने लगी; किन्तु कोई बोलता न था।


शैला बड़ी असुविधा में पड़ी। वह अपरिचित से क्या बातचीत करे? उसने पूछा-आप क्या चाहती हैं?


आने वाली ने नम्र मुस्कान से कहा-मेरा नाम मिस अनवरी है। क्या किया जाय, जब कोई परिचय करानेवाला नहीं तो ऐसा करना ही पड़ता है। मैं कुंवर साहेब की मां को देखने के लिए आया करती हूँ। आपको मिस शैला समझ लूं?


जी-कहकर शैला ने कुर्सी बढ़ा दी और शीतल दृष्टि से उसे बैठने का संकेत किया।


उधर चौबेजी चाय ले आ रहे थे। शैला ने भी एक कुर्सी पर बैठते हुए कहा-आपके लिए भी...


अनवरी और शैला आमने-सामने वैठी हुई एक-दूसरे को परखने लगीं। अनवरी की सारी प्रगल्भता धीरे-धीरे लुप्त हो चली। जिस गर्मी से उसने अपना परिचय अपने-आप दे दिया था, वह चाय के गर्म प्याले के सामने ठंढी हो चली थी।


शैला ने चाय के छोटे-से पात्र से उठते हुए धुएँ कों देखते हुए कहा-कुंवर साहब की माँ भी सुना, आ गई हैं?


मुझे तो नहीं मालूम, मैं अपनी मोटर से यहाँ उतर पड़ी थी। उनके साथ ही आती, पर क्या करूं, देर हो गई। किसी को पूंछ आने के लिए भेजिएगा? मुझे तो आपसे सहायता मिलनी चाहिए मिस अनवरी-शैला ने हँसकर कहा-आपके कुंवर साहब आ जायँ, तो प्रबन्ध...


अरे शैला! यह कौन...


इन्द्रदेव! तुम अब तक क्या कर रहे थे-कहकर शैला ने मिस अनवरी की ओर संकेत करते हुए कहा-आप मिस अनवरी...


फिर अपने होंठ को गर्म चाय में डुबो दिया,जैसे उन्हें हँसने का दण्ड मिला हो। इन्द्रदेव ने अभिनन्दन करते हुए कहा-माँ जब से आई, तभी से पूछ रही हैं, उनकी रीढ़ में दर्द हो रहा है। आपसे उनसे भेंट नहीं हुई क्या?


जी नहीं; मैंने समझा,यहीं होगी। फिर जब यहाँ चाय मिलने का भरोसा था, तो थोड़ा यही ठहरना अच्छा हुआ-कहकर अनवरी मुस्कराने लगी।


इन्द्रदेव ने साधारण हँसी हँसते हुए कहा- अच्छी बात है,चाय पी लीजिये। चौबेजी आपको यहीं पहुंचा देंगे।


तीनों चुपचाप चाय पीने लगे। इन्द्रदेव न कहा-चौबे आज तुम्हारि गुजराती चाय बड़ी अच्छी रही। एक प्याला औंर ले आओ,औंर उसके साथ और भी कुछ...


चौबे सोहन-पापड़ी के टुकड़े और चायदानी लेकर जब आये, तो मिस अनवरी उठकर खड़ी हो गई।


इन्द्रदेव ने कहा-वाह, आप तो चली जा रही हैं। इसे भी तो चखिए।


शैला न मुस्कराते हुए कहा-बैठिए भी,आप तो यहाँ पर मेरी ही मेहमान होकर रह सकेंगी।


हाँ, इसको तो मैं भूल गई थी-कहकर अनवरी बैठ गईं।


चौबेजी ने सबको चाय दे दी, और अब वह प्रतीक्षा कर रहे थे कि जब अनवरी चलेगी। पर अनवरी तो वहां से उठने का नाम ही न लेती थी। वह कभी इन्द्रदेव और कभी शैला को देखती, फिर सन्ध्या की आने वाली कालिमा की प्रतीक्षा करती हुई नीले आकाश से आँख लड़ाने लगती।


उधर इन्द्रदेव इस बनावटी सन्नाटे से ऊब चले थे। सहसा चौबेजी ने कहा- सरकार! वह बुड्ढा आया है, उसकी कहानी कब सुनिएगा? मैं लालटेन लेता आऊँ?


फिर अनवरी की ओर देखते हुए कहने लगे-अभी आपको भी छोटी कोठी में पहुँचाना होगा।


अनवरी को जैसे धक्का लगा। वह चटपट उठकर खड़ी हो गई। चौबेजी उसे साथ लेकर चले।


इन्द्रदेव ने गहरी साँस लेकर कहा-शैला!


क्या इन्द्रदेव?


माँ से भेंट करोगी?


चलूं?


अच्छा, कल सवेरे!


इन्द्रदेव की माता श्यामदुलारी पुराने अभिजात-कुल की विधवा हैं। प्राय: बीमार रहा करती हैं। किन्तु मुख-मंडल पर गर्व की दीप्ति, आज्ञा देने की तत्परता और छिपी हुई सरल दया भी अंकित है? वह सरकार हैं। उनके आस-पास अनावश्यक गृहस्थी के नाम पर जुटाई गई अगणित सामग्री का बिखरा रहना आवश्यक है। आठ से कम दासियों से उनका काम चल ही नहीं सकता। दो पुजारी और ठाकुरजी का सम्भार अलग। इन सबके आज्ञा-पालन के लिए कहारों का पूरा दल। बहँगी पर गंगाजल और भोजन का सामान ढोते हुए कहारों का आना-जाना-श्यामदुलारी की आँखें सदैव देखना चाहती थीं।


बेटा विलायत से लौट आया है। एक दिन उनसे मिलकर उनकी चरण-रज लेकर वह छावनी में चला आया और यहीं रहने लगा।


लोग कहते हैं कि इन्द्रदेव के कानों में जब यह समाचार किसी मतलब से पहुँचा दिया गया कि चरण छूकर आपके चले आने पर माताजी ने फिर से स्नान किया, तो फिर वह मकान पर न ठहर सके।


किन्तु श्यामदुलारी की प्रकृति ही ऐसी है। उसने ऐसा किया हो, तो कोई आश्चर्य नहीं। तब भी श्यामदुलारी को तो यही विश्वास दिलाया गया कि-साथ में मेम नहीं आई है!


श्यामदुलारी अपने बेटे को सम्भालना चाहती थीं। बेटी माधुरी से पूछकर यही निश्चित हुआ कि सब लोग छावनी पर ही कुछ दिन चलकर रहें। वहीं इन्द्रदेव को सुधार लिया जायगा।


माधुरी घर की प्रबंधकर्त्री है। वह दक्ष, चिड़चिड़े स्वभाव की सुन्दर युवती है। माता श्यामदुलारी भी उसके अनुशासन को मानती हैं और भीतर-ही-भीतर दबती भी हैं।


माधुरी का पति उसकी खोज-खबर नहीं लेता। उसे लेने की आवश्यकता ही क्या? माधुरी धनी घर की लाड़ली बेटी है। इसलिए बाबू श्यामलाल को इस अवसर से लाभ उठाने की पूरी सुविधा है।


श्यामदुलारी, बेटी ओर दामाद दोनो को प्रसन्न रखने की चेष्टा में लगी रहती हैं। बहुत बुलाने पर कभी साल भर में बाबू श्यामलाल कलकत्ता से दो-तीन दिन के लिए चले आते हैं। उनका व्यवसाय न नष्ट हो जाय, इसलिए जल्द चले जाते हैं- अर्थात् रेस की टीप, बगीचों के जुए, स्टीमरों की पार्टियाँ - और भी कितने ही ऐसे काम हैं, जिनमें चूक जाने से बड़ी हानि उठाने की संभावना है।


माधुरी शासन करने की क्षमता रखती है। भाई इन्द्रदेव पढ़ते थे; इसलिए माता की रुग्णावस्था में घर-गृहस्थी का बोझ दूसरा कौन सम्हालता?


माधुरी की अभिभावकता में माता श्यामदुलारी सोती है- सपना देखती है। इसलिए माधुरी भी साथ ही आई हैं। चौकी पर मोटे-से गद्दे पर तकिया सहारे बैठी वह कुछ हिसाब देख रही थी। पेट्रोल-लैम्प के तीव्र प्रकाश में उसकी उठी हुई नाक की छाया दीवार पर बहुत लम्बी-सी दिखाई पड़ती है।


मलिया बडी नटखट छोकरी है। वह पान का डब्बा लिये हुए, उस छाया को देखकर, जोर से हँसना चाहती है; पर माधुरी के डर से अपने ओठों को दाँत से दबाये चुपचाप खड़ी है। मिस अनवरी की छाया से वह चौंक उठी। उसने चुलबुलेपन से कहा-मेम साहब, सलाम!


माधुरी ने सिर उठाकर देखा और कहा-आइए, हम लोग बड़ी देर से आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। माँ का दर्द तो वहुत बढ़ गया है।


माधुरी के पास ही बैठते हुए अनवरी ने-बीबी, तुमको देखने के लिए जी ललचाया रहता है, माँ को तो देखूंगी ही-कहकर उसके हाथों को दबा दिया। माधुरी ने झेंपकर कहा-आहा! तुम तो मेम और साहब दोनों ही हो न? अच्छा, यह तो बताओ, तुम्हारे ठहरने का क्या प्रबन्ध करूँ? आज रात को तो मोटर से शहर लौट जाने न दूँगी। अभी मां पूजा कर रही हैं, एक घंटे में  खाली होंगी, फिर घंटों उनको देखनें में लग जायगा। बजेगा दो और जाना है तीस मील! आज रात तो तुमको रहना ही होगा।


अनवरी ने मुस्कराते हुए कहा-सो तो बीबी, तुम्हारी भाभी ने मुझे न्योता ही दिया है।


माधुरी क्षण-भर के लिए चुप हो गई। फिर बोली-अनवरी, ऐसी दिल्लगी न करो, यह बात मुझे ही नहीं, घर भर को खटक रही है। लेकिन भाई साहब तो कहते हैं कि वह तुमारी दोस्त है।


हां-बीवी, दोस्ती नहीं तो क्या दुश्मनी से कोई इतना बड़ा...


माधुरी ने भीतर के कमरे की ओर देखते हुए उसके मुँह पर हाथ रख दिया, और धीरे-धीरे कहने लगी-प्यारी अनवरी! क्या इस चुड़ैल से छुटकारा पाने का कोई उपाय नहीं? हम लोग क्या करें? कोई बस नहीं चलता।


धीरे-धीरे सब हो जायगा। लेकिन तुम्हें बुरा न लगे, तो मैं एक बात पूछ लूँ। क्या?


कुँवर साहब इससे ब्याह कर ले, तो तुम्हारा क्या?


ऐसा न कहो अनवरी।


तुम्हारी माँ तो फिर तुमको ही...


उँह, तुम क्या बक रही हो!


अच्छा तो मैं कुछ दिन यहाँ रहूँ तो...


तो रहो न मेरी रानी।


4

हाथ-मुंह धोकर मुलायम तौलिये से हाथ पोंछती हुई अनवरी बड़े-से दर्पण के सामने खड़ी थी। शैला अपने सोफा पर बैठी हुई रेशमी रूमाल पर कोई नाम कसीदे से काढ़ रही थी। अनवरी सहसा चंचलता से पास जाकर उन अक्षरों को पढने लगी। शैला ने अपनी भोली त्राँखों को एक बार ऊपर: उठा था, सामने से सूर्योदय की पीली किरणों ने उन्हें धक्का दिया, वे फिर नीचे झुक गईं। अनवरी ने कहा-मिस शैला! क्या कुंवर साहब का नाम है?


जी-नीचा सिर किये हुए शैला ने कहा।


क्या आप रोज सबेरे एक रूमाल उनको देती हैं? यह तो अच्छी बोहनी है!-कहकर अनवरी खिलखिला उठी।


शैला को उसकी यह हँसी अच्छी न लगी। रात-भर उसे अच्छी नींद भी न आई थी। इन्द्रदेव ने अपनी माता से उसे मिलाने की जो उत्सुकता नहीं दिखलाई, उल्टे एक ढिलाई का आभास दिया, वही उसे खटक रहा था। अनवरी ने हँसी करके उसको चौंकाना चाहार किन्तु उसके हृदय में जैसे हँसने की सामग्री न थी?


इन्द्रदेव ने कमरे के भीतर प्रवेश करते हुए कहा-शैला! आज तुम टहलने नहीं जा सकीं? मुझ तो आज किसानों की बातों से छुट्टी न मिलेगी। दिन भी चढ़ रहा हैं। क्यों न मिस अनवरी को साथ लेकर घूम आओ!


अनवरी ने ठाट से उठकर कहा-आदाबअर्ज है कुँवर साहब! बड़ी खुशी से! चलिए न! आज कुँवर साहब का काम मैं ही करूँगी!


शैला इस प्रगल्भता से ऊपर न उठ सकी। इन्द्रदेव और अनवरी को आत्म-समर्पण करते हए उसने कहा-अच्छी बात है,चलिये। इन्द्रदेव बाहर चले गये। खेतों में अंकुरों की हरियाली फैली पड़ी थी। चौखूँटे,तिकोने, और भीवव कितने आकारों के टुकड़े, मिट्टी की मेड़ों से अलगाये हुए,चारों ओर समतल में फैले थे। वीच-बीच में आम, नीम और महुए के दो-एक पेड़ जैसे उनकी रखवाली के लिए खड़े थे। मिट्टी की सँकरी पगडंडी पर आगे शैला और पीछे- पीछे अनवरी चल रही थीं। दोनों चुपचाप पैर रखती हुई चली जा रही थीं। पगडंडी से थोड़ी दूर पर झोंपड़ी थी, जिस पर लौकी और कुंभडे की लतर बढ़ी थी। उसमें से कुछ बात करने का शब्द सुनाई पड़ रहा था। शैला उसी ओर मु़ड़ी। वह झोंपड़ी के पास जाकर खड़ी हो गई। उसने देखा, मधुवा अपनी टूटी खाट पर बैठा हुआ बज्जो से कुछ कह रहा है। बज्जो ने उत्तर में कहा-तब क्या करोंगे मधुबन ! अभी एक पानी चाहिए। तुम्हारा आलू सोराकर ऐसा ही रह जायगा? ढाई रुपये के बिना! महंगू महतो उधार हल नहीं देगे? मटर भी सूख जायेगी!


अरे आज मैं मधुबन कहाँ से बन गया रे बज्जो! पीट दूंगा जो मुझे मधुवा न कहेगी। मैं तुझे तितली कहकर न पुकारूंगा। सुना न? हल उधार नहीं मिलेगा, महतो ने साफ-साफ कह दिया है। दस बिस्से मटर और दस बिस्से आलू के लिए खेत मैंने अपनी जोत में रखकर बाकी दो बीघे जौ-गेहूँ बोने के लिए उसे साझे में दे दिया है। यह भी खेत नहीं मिला, इसी की उसे चिढ़ है। कहता है कि अभी मेरा हल खाली नहीं है।


तब तुमने इस एक बीघे को भी क्यों नहीं दे दिया!


मैंने सोचा कि शहर तो मैं जाया ही करता हूँ। नया आलू और मटर वहाँ अच्छे दामों पर बेचकर कुछ पैसे भी लूँगा और बज्जो! जाडे में इस झोपड़ी में बैठे-बैठे रात को उन्हें भून कर खाने में कम सुख तो नहीं है! अभी एक कम्बल लेना जरूरी है।


तो बापू से कहते क्यों नहीं? वह तुम्हें ढाई रुपया दे देंगे।


उनसे कुछ माँगूँगा, तो यही समझेंगे कि मधुवा मेरा कुछ काम कर देता है, उसी की मजूरी चाहता है। मुझे जो पढ़ाते हैं उसकी गुरु-दक्षिणा मैं उन्हें क्या देता हूँ? तितली! जो भगवान करेंगे, वही अच्छा होगा।


अच्छा तो मधुबन! जाती हूँ। अभी बापू छावनी से लौटकर नहीं आये। जी घबराता है।


यह कहकर जब वह लौटने लगी, तो मधुवन ने कहा-अच्छा,फिर आज से मैं रहा मधुबन और तुम तितली। यही न?


दोनों की आँखें? एक क्षण के लिए मिलीं-स्नेहपूर्ण आदान-प्रदान करने के लिए। मधुबन उठ खड़ा हुआ, तितली बाहर चली आई। उसने देखा, शैला और अनवरी चुपचाप खड़ी हैं! वह सकुच गई। शैला ने सहज मुस्कुराहट से कहा- तब तुम्हारा नाम तितली है क्यों?


हाँ-कहकर तितली ने सिर झुका लिया। आज जैसे उसे अकेले में मधुवन से बातें करते हुए समग्र संसार ने देखकर व्यंग में हँस दिया हो। वह संकोच में गड़ी जा रही थी। शैला ने उसकी ठोढी उठाकर कहा-लो यह पाँच रुपये तुम्हारे उस दिन की मजूरी के हैं।


मैं, मैं न लूंगी। बापू बिगड़ेंगे।


वह चंचल हो उठी। किन्तु शैला कब मानने वाली थी। उसने कहा- देखो इसमें ढाई रुपये तो मधुवन को दो दो, वह अपना खेत सींच ले और बाकी अपने पास रख लो। फिर कभी काम देगा।


अब मधुवन भी निकल आया था। वह विचार-विमूढ था, क्या कहे! तब तक तितली को रुपया न लेते देखकर शैला ने मधुबन के हाथ में रुपया रख दिया, और कहा-बाकी रुपया जब तितली माँगे तो दे देना। समझा न? मैं तुम लोगों को छावनी पर बुलाऊँ, तो चले आना।


दोनों चुप थे।


अनवरी अब तक तो चुप थी; किन्तु उसके हृदय ने इस सौहार्द को अधिक सहने से अस्वीकार कर दिया। उसने कहा-हो चुका,चलिये भी। धूप निकल आर्ड है।


शैला अनवरी के साथ घूम पड़ी। उसके हृदय में एक उल्लास था। जैंसे कोई धार्मिक मनुष्य अपना प्रात:कृत्य समाप्त कर चुका हो। दोनों धीरे-धीरे ग्राम-पथ पर चलने लगीं।


अनवरी ने धीरे से प्रसंग छेड़ दिया-मिस शैला! आपको इन दिहाती लोगों से बातचीत करने में बड़ा सुख मिलता है।


मिस अनवरी! सुख! अरे मुझे तो इनके पास जीवन का सच्चा स्वरुप मिलता है, जिसमें ठोस मेहनत, अटूट विश्वास और सन्तोष से भरी शांति हँसती-खेलती है। लन्दन की भीड़ से दबी हुई मनुष्यता में मैं ऊब उठी थी, और सबसे बड़ी बात तो यह है कि मैं दुख भी उठा चुकी हूँ। दुखी के साथ दुखी की सहानुभूति होना स्वाभाविक है। आपको यदि इस जीवन में सुख-ही-सुख मिला है तो...


नहीं-नहीं, हम लोगों को सुख-दुख जीवन से अलग होकर कभी दिखाई नहीं पड़ा। रुपयों की कमी ने मुझे पढ़ाया और मैं नर्स का काम करने लगी। जब अस्पताल का काम छोड़कर अपनी डाक्टरी का धन्धा मैंने फैलाया, तो मुझे रुपयों की कमी न रही। पर मुझे तो यही समझ पड़ता है कि मेहनत-मजूरी करते हुए अपने दिन बिता लेना, किसी के गले पड़ने से अच्छा है।


अनवरी यह कहते हुए शैला की ओर गहरी दृष्टि से देखने लगी। वह उसकी बगल में आ गई थी। सीधा व्यंग्य न खुल जाय, इसलिए उसने और भी कहा-हम मुसलमानों को तो मालिक की मर्जी पर अपने को छोड़ देना पड़ता है, फिर सुख-दुख की अलग-अलग परख करने की किसको पड़ी है।


शैला ने जैसे चौंककर कहा- तो क्या स्त्रियाँ अपने लिए कुछ भी नहीं कर सकतीं? उन्हें अपने लिए सोचने का अधिकार भी नहीं है?


बहुत करोगी मिस शैला, तो यही कि किसी को अपने काम का बना लोगी। जैसा सव जगह हम लोगों की जाति किया करती है। पर उसमें दुख होगा कि सुख, इसका निपटारा तो वही मालिक कर सकता है।


शैला न जाने कितनी बातें सोचती हुई चुप हो गई। वह केवल इस व्यंग्य पर विचार करती हुई चलने लगी। उत्तर देने के लिए उसका मन बेचैन था; पर अनवरी को उत्तर देने में उसे बहुत-सी बातें कहनी पड़ेंगी। वह क्या सब कहने लायक हैं? और यह प्रश्न भी उसके मन में आने लगा कि अनवरी कुछ अभिप्राय रखकर तो बात नहीं कर रही है। उसको भारतीय वायुमंडल का पूरा ज्ञान नहीं था। उसने देखा था केबल इन्द्रदेव को, जिसमें श्रद्धा और स्नेह का ही आभास मिला था। सन्देह का विक़ृत चित्र उसके सामने उपस्थित करके अपने मन में अनवरी क्या सोच रही है, यही धीरे-धीरे विचारती हुई वह छावनी की ओर लौटने लगी।


अनवरी ने सौहार्द बढ़ाने के लिए कुछ दूसरा प्रसंग छेड़ना चाहा; किन्तु वह सौजन्य के अनुरोध से संक्षिप्त उत्तर मात्र देती हुई छावनी पर पहुंची।


अभी इन्द्रदेव का दरबार लगा हुआ था। आरामकुर्सी पर लेटे हुए वह कोई कागज देख रहे थे। एक बड़ी-सी दरी बिछी थी। उस पर कुछ किसान बैठे थे। इन लोगों के जाते ही दो कुर्सियां और आ गइं। पर इन्द्रदेव ने अपने तहसीलदार से कहा- इस पोखरी का झगड़ा बिना पहले का कागज देखे समझ में नहीं आवेगा। इसे दूसरे दिन के लिए रखिए।


तहसीलदार इन्द्रदेव के बाप के साथ काम कर चुका था। वह इन्द्रदेव से काम लेना चाहता था। उसने कहा- लेकिन दो-एक कागज तो आज ही देख लीजिए, उनकी बेदखली जल्दी होनी चाहिए।


अच्छा, मैं चाय पीकर अभी आता हूं - कहकर इन्द्रदेव शैला और अनवरी के साथ कमरे में चले गये।


बुड्ढे से अब न रहा गया। उसने कहा, तहसीलदार साहब, मैं कल से यहाँ बैठा हूँ। मुझे क्यों तंग किया जा रहा है!


तहसीलदार ने चश्मे के भीतर से आँखें तरेरते हुए कहा-रामनाथ हो न? तंग किया जा रहा है! हूँ!  बैठो अभी। दस बीघे की जोत बिना लगान दिये हड़प किये बैठे हो और कहते हो, मुझे तंग किया जा रहा है।


क्या कहा? दस बीघे। अरे तहसीलदार साहब, क्या अब जंगल-परती में भी बैठने न दोगे? और वह तो न जाने कब से कृष्णार्पण लगी हुई वनजरिया है। वही तो बची है, और तो सब आप लोगो के पेट में चला गया। क्या उसे भी छीनना चाहते हो?


तहसीलदार चुपचाप उसे घूरने लगा।


इन्द्रदेव शैला के साथ बाहर चले आये। अनवरी के लिए देर से माधुरी की भेजी हुई लौंडी खड़ी थी। वह उसके साथ छोटी कोठी में चली गई। इन्द्रदेव ने बुड्ढे को देखकर तहसीलदार को संकेत किया।


तहसीलदार अभी बुड्ढे रामनाथ की बात नहीं छेड़ना चाहता था। किन्तु इन्द्रदेव के संकेत से उसे कहना ही पड़ा- इसका नाम रामनाथ है। यह बनजरिया पर कुछ लगान नहीं देता। एकरेज जो लगा है, वह भी नहीं देना चाहता। कहता है- कृष्णार्पण माफी पर लगान कैसा?


इन्द्रदेव ने रामनाथ को देखकर पूछा - क्यों, उस दिन हम लोग तुम्हारी ही झोंपड़ी पर गये थे?


हाँ सरकार।


तो एकरेज तो तुमको देना हो चाहिए। सरकारी मालगुजारी तो तुम्हारे लिए हम अपने आप से नहीं दे सकते।


तहसीलदार से न रहा गया, बीच ही में बोल उठा अभी तो यह भी नहीं मालूम कि यह बनजरिया का होता कौन है। पुराने कागजों में वह थी देबनन्दन के नाम। उसके मर जाने पर बनजरिया पड़ी रही। फिर इसने आकर उसमें आसन जमा लिया।


बुड्ढा झनझना उठा। उसने कहा- हम कौन हैं, इसको बताने के लिए थोड़ा समय चाहिए सरकार! क्या आप सुनेंगे?


शैला ने अपने संकेत ले उत्सुकता प्रकट की। किन्तु इन्द्रदेव ने कहा चलो, अभी माताजी के पास चलना है। फिर किसी दिन सुनूंगा। रामनाथ आज तुम जाओ, फिर मैं बुलाऊँगा, तब आना।


रामनाथ ने उठकर कहा- अच्छा सरकार।


चौबेजी वटुआ लिये हुए पान मुँह में दाबे आकर खड़े हो गये। उनके मुख पर एक विचित्र कुतूहल था। वह मन-ही-मन सोच रहे थे-आज शैला बड़ी सरकार के सामने जायगी। अनवरी भी वहीं हैं, और वहीं है बीबीरानी माधुरी! हे भगवान्!


शैला, इन्द्रदेव और चौबेजी छोटी कोठी की ओर चले।


मधुबन के हाथ में था रुपया और पैरों में फुरती, वह महंगू महतो के खेत पर जा रहा था। बीच में छावनी पर से लौटते हुए रामनाथ से भेंट हो गई। मधुबन के प्रणाम करने पर रामनाथ ने आशीर्वाद देकर पूछा- कहाँ जा रहे हो मधुबन?


आज पहला दिन है, बाबाजी ने उसे मधुवा न कहुकर मधुबन नाम से पुकारा। वह भीतर-ही-भीतर जैसे प्रसन्न हो उठा। अभी-अभी तितली से उसके हृदय की बातें हो चुकी थीं। उसकी तरी छाती में भरी थी। उसनें कहा- वाबाजी, रुपया देने जा रहा हूँ। महंगू से पुरवट के लिए कहा था-आलू और मटर सींचने के लिए। वह बहाना करता था, और हल भी उधार देने से मुकर गया। मेरा खेत भी जोतता है और मुझी से बढ़-बढ़कर बातें करता है।


रामनाथ ने कहा-भला रे, तू पुरवट के लिए तो रुपया देने जाता है- सिंचाई होंगी; पर हल क्या करेगा? आज-कल कौन-सा नया खेत जोतेगा?


मधुबन ने क्षण-भर सोचकर कहा-बाबाजी, तितली ने मुझसे चार पहर के लिए कहीं से हल उधार मांगा था। सिरिस के पेड़ के पास बनजरिया में बहुत दिनों से थोड़ा खेत बनाने का वह विचार कर रही है, जहाँ बरसात में बहुत-सी खाद भी हम लोगों ने डाल रखी थी। पिछाड़ होगी तो क्या, गोभी बोने का...?


धत पागल! तो इसके लिए इतने दिनों तक कानाफूसी करने की कौन-सी बात थी? मुझसे कहती! अच्छा, तो रुपया तुझे मिला?


हाँ बाबाजी, मेम साहब ने तितली को पाँच रुपया दिया था, वही तो मेरे पास है।


मेम साहब ने रुपया दिया था! बज्जो को? तू कहता क्या हैं!


हाँ, मेरे ही हाथ में तो दिया। वह तो लेती न थी। कहती थी, बापू बिगड़ेंगे! किसी दिन मेम साहब का उसने कोई काम कर दिया था, उसी की मजूरी बाबाजी! मेम साहब बड़ी अर्च्छी हैं।


रामनाथ चुप होकर सोचने लगा। उधर मधुबन चाहता था, बुड्ढा उसे छुट्टी दे। वह खड़ा-खड़ा ऊबने लगा। उत्साह उसे उकसाता था कि महँगू के पास पहुँचकर उसके आगे रुपये फेंक दे और अभी हल लाकर बज्जो का छोटा-सा गोभी का खेत बना दे। बुड्ढा न जाने कहाँ से छींक की तरह उसके मार्ग में बाँधा-सा आ पहुंचा।


रामनाथ सोच रहा था छावनी की बात! अभी-अभी तहसीलदार ने जो रूप दिखलाया था, वही उसके सामने नाचने लगा था। उसे जैसे बनजरिया की काया-पलट होने के साथ ही अपना भविष्य उत्तपातपूर्ण दिखाई देने लगा। तितली उसमें नया खेत बनाने जा रही है। तब भी न जाने क्या सोच कर उसने कहा- जाओ मधुबन, हल ले आओ।


मधुबन तो उछलता हुआ चला जा रहा था। किन्तु रामनाथ धीरे-धीरे बनजरिया की ओर चला।


तितली गायों को चराकर लौटा ले जा रही थी। मधुबन तो हल ले आने गया था। वह उनको अकेली कैसे छोड़ देती। धूप कड़ी हो चली थी। रामनाथ ने उसे दूर से देखा। तितली अब दूर से पूरी स्त्री-सी दिखाई पड़ती थी।


रामनाथ एक दूसरी बात सोचने लगा। बनजरिया के पास पहुँचकर उसने पुकारा- तितली!


उसने लौट कर प्रफुल्ल बदन से उत्तर दिया-'बापू!'


5

श्यामदुलारी आज न जाने कितनी बातें सोचकर बैठी थीं- लड़का ही तो है, उसे दो बात खरी-खोटी सुनाकर डाँट-डपटकर न रखने से काम नहीं चलेगा - पर विलायत हो आया है। बारिस्टरी पास कर चुका है। कहीं जवाब दे बैठा तो! अच्छा... आज वह मेम की छोकरी भी साथ आवेगी। इस निर्लज्जता का कोई ठिकाना है! कहीं ऐसा न हो कि साहब की वह कोई निकल आवे! तब उसे कुछ कहना तो ठीक न होगा। अभी दो महीने पहले कलेक्टर साहब जब मिलने  आये थे, तो उन्होंने कहा था-'रानी साहब, आपके ताल्लुके में नमूने के गाँव बसाने का बन्दोबस्त किया जायेगा। इसमें बड़ी-बड़ी खेतियाँ, किसानों के बंक और सहकार की संस्थाएँ खुलेंगी। सरकार भी मदद देगी। तब उसको कुछ कहना ठीक न होगा। माधुरी की क्या राय है? वह तो कहती है-'माँ, जाने दो, भाई साहब को कुछ मत कहो?' तो क्या वह अपने मन से बिगड़ता चला जायगा। सो नहीं हो सकता। अच्छा, जाने दो।


माधुरी के मन में अनवरी की बात रह-रहकर मरोर उठती थी। इन्द्रदेव क्या यह घर सम्हाल सकेंगे? यदि नहीं, तो मैं क्यों वनाने की चेष्टा करूँ।


उसके मन में तेरह बरस के कृष्णमोहन का ध्यान आ गया। थियासोफिकल स्कूल में वह पढ़ता है। पिता बाबू श्यामलाल उसकी ओर से निश्चिन्त थे। हाँ, उसके भविष्य की चिन्ता तो उसकी माता माधुरी को ही थी। तब भी वह जैसे अपने को धोखे में डालने के लिए कह बैठती-जैसा जिसके भाग्य में होगा, वही होकर रहेगा।


अनवरी इस कुटुम्ब की मानसिक हलचल में दत्तचित्त होकर उसका अध्ययन कर रही थी। न जाने क्यों, तीनों चुप होकर मन-ही-मन सोच रही थीं। पलँग पर श्यामदुलारी मोटी-सी तकिया के सहारे बैठीं थीं। चौकी पर चाँदनी बिछी थी। माधुरी और अनवरी वहीं बैठी हुई एक-दूसरे का मुहँ देख रही थी। तीन-चार कुर्सियाँ पड़ी थीं। छोटी कोठी का यह बाहरी कमरा था।


श्यामदुलारी यहीं पर सबसे बात करती, मिलती-जुलती थीं; क्योंकि उनका निज का प्रकोष्ठ तो देव-मन्दिर के समान पवित्र, अस्पृश्य और दुर्गम्य था? बिना स्नान किये-कपड़ा बदले, वहाँ कौन जा सकता था!


बाहर पैरों का शब्द सुनाई पड़ा। तीनों स्त्रियाँ सजग हो गई, माधुरी अपनी साड़ी का किनारा सँवारने लगी। अनवरी एक उँगली से कान के पास के बालों को ऊपर उठाने लगी। और, श्यामदुलारी थोड़ा खाँसने लगीं।


इन्द्रदेव शैला और चौबेजी के साथ, भीतर आये। माता को प्रणाम किया। श्यामदुलारी ने 'सुखी रहो' कहते हुए देखा कि वह गोरी मेम भी दोनों हाथों की पतली उँगलियों में बनारसी, साड़ी का सुनहला अंचल दबाये नमस्कार कर रही है।


अनवरी उठकर खड़ी हो गई। माधुरी चौकी पर ही थोड़ा खिसक गई। माता ने बैठने का संकेत किया। पर वह भीतर से शैला से बोलने के लिए उत्सुक थी। इन्द्रदेव ने कहा - अनवरी! माँ का दर्द अभी अच्छा नहीं हुआ। इसके लिए आप क्या कर रही हैं। क्यों माँ, अभी दर्द में कमी तो नहीं है?


है क्यों नहीं बेटा! तुमको देखकर दर्द दूर भाग जाता है।-श्यामदुलारी ने मधुरता से कहा।


तब तो भाई साहब, आप यहीं माँ के पास रहिए। दर्द पास न आवेगा।  -माधुरी ने कहा।


लेकिन बीबीरानी! और लोग क्या करेंगे? कुँवर साहब यहीं घर में बैठे रहेंगे, तो जो लोग मिलने-जुलने वाले हैं, वे कहाँ जायँगे! -अनवरी ने व्यंग से कहा।


यह बात श्यामदुलारी को अच्छी न लगी। उन्होंने कहा-मैं तो चाहती हूँ कि इन्द्र मेरी आँखो से ओझल न हो। वह करता ही क्या है मिस अनवरी! शिकार खेलने में ज्यादा मन लगाता है। क्यों, विलायत में इसकी बड़ी चाल है न! अच्छा बेटा! यह मेम साहब कौन हैं? इनका तो तुमने परिचय ही नहीं दिया। माँ, इंगलैण्ड में यही मेरा सब प्रबन्ध करती थीं मेरे खाने-पीने का, पढ़ने-लिखने का, कभी जब अस्वस्थ हो जाता तो डाक्टरों का, और रात-रात भर जागकर नियमपूर्वक दवा देने का काम यही करती थीं। इनका मैं चिर-ऋणी हूँ। इनकी इच्छा हुई कि मैं भारतवर्ष देखूँगी।


इसी से चली आई हैं न! अच्छा बेटा! इनको कोई कष्ट तो नहीं? हम लोग इनके शिष्टाचार से अपरिचित हैं। चौबेजी! आप ही न मेम साहब के लिए... ओ! इनका नाम क्या है, यह पूछना तो मैं भूल ही गई।


मेरा नाम 'शैला है माँ जी!- शैला की बोली घण्टी की तरह गूँज उठी! श्यामदुलारी के मन में ममता उमड़ आई। उन्होने कहा- चौबेजी! देखिए, इनको कोई कष्ट न होने पावे। इन्द्रदेव तो लड़का है, वह कभी काहे को इनकी सुविधा की खोज-खबर लेता होगा।


जी सरकार! मेम साहब बडी चतुर हैं। वह तो कुंवर साहब का प्रबन्ध स्वयं आदेश देकर कराती रहती हैं। हम लोग तो अभी सीख रहे हैं। बड़े सरकार के समय में जो व्यवस्था थी, उसी से तो अब काम नहीं चल सकता!


इन्द्रदेव घबरा गये थे। उन्हे कभी चौबे, कभी अनवरी पर क्रोध आता; पर वह बहाली देते रहे।


माधुरी ने कहा-अच्छा तो भाई साहब! अभी शहर चलने की इच्छा नहीं है क्या? अब तो यहाँ कड़ी दिहाती सर्दी पड़ेगी।


नहीं, अभी तो यही रहूंगा। क्यों माँ, यहाँ कोई कष्ट तो नहीं है?-इन्द्रदेव  ने पूछा।


अनवरी ने कहा- इस छोटी कोठी में साफ हवा कम आती है। और तो कोई... हाँ बीबीरानी, मैं यह तो कहना भूल ही गई थी कि मुझे आज शहर चला जाना चाहिए। कई रोगियों को आज ही तक के लिए दवा दे आई हूँ। मोटर तो मिल जायगी न?


ठहरिए, आप तो न जाने क्यों घबराई हैं। अभी तो माँ की दवा... माधुरी की बात पूरी न होने पाई कि अनवरी ने कहा- दवा खायँगी तो नहीं, यही लगाने की दवा है। लगाते रहिए, मुझे रोक कर क्या कीजिएगा। हाँ, यहाँ साफ हवा मिलनी चाहिए, इसके लिए आप सोचिए।


चौबेजी बीच में बोल उठे-तो बड़ी सरकार उस कोठी में रहे, खुले हुए कमरे और दालान उसमें तो हैं ही।


बोलने के लिए तो बोल गये; पर चौबेजी कई बातें सोचकर दाँत से अपनी जीभ दबाने लगे। उनकी इच्छा तो हुई कि अपने कान भी पकड लें; पर साहस न हुआ।


इन्द्रदेव चुप रहे। शैला ने कहा-माँ जी! बड़ी कोठी में चलिए। यहाँ न रहिए। - यह बेचारी भूल गई कि श्यामदुलारी उसके साथ कैसे रहेंगी।


श्यामदुलारी ने इन्द्रदेव का चेहरा देखा। वह उतरा हुआ तो नहीं था; किन्तु उस पर उत्साह भी न था। माधुरी ने शैला को स्वयं कहते हुए जब सुना, तो वह बोली-अच्छा तो है मां! मेम साहब और अनवरी बीबी इसमें आ जाएंगी। हम लोग वहीं चलकर रहें।


अनवरी ने कहा-मुझे एक दिन में लौट आने दीजिए।


श्यामदुलारी ने देखा कि काम तो हो चला है, अब इस बात को यहीं रोक देना चाहिए। वह बोली-बेटा! कलेक्टर साहब ने नमूने का गांव बसाने का जो नक्शा भेजा था, उसे तुमने देखा?


नहीं मां, अभी तो नहीं-शैला के पास वह है। इन्हें गांवों से बड़ा प्रेम है। मैंने इन्हीं के ऊपर यह भार छोड़ दिया है। इसके लिए यही एक योजना तैयार करने में लगी हैं।


श्यामदुलारी सावधान हो गईं। शैला ने कहा-मां जी, अभी तो मैं गांवों में जाकर यहां की बातें समझने लगी हूं। फिर भी बहुत-सी बातें अभी नहीं समझ सकी हूं। किसी दिन आपको अवकाश रहे, तो मैं नक्शा ले आऊं?


चौबे जी ने एक बार माधुरी की ओर देखा और माधुरी ने अनवरी को। तीनों का भीतर-ही-भीतर एक दल-सा बंध गया। इधर मां, बेटे की ओर होने लगी-और शैला, जो व्यवधान था, उसकी खाई में पुल बनाने लगी।


श्यामदुलारी का हृदय, बेटे का काम की बातों में मन लगाते देखकर, मिठास से भरने लगा। उन्होंने कहा-अच्छा; तो मैं अब पूजा करने जाती हूं। बीबी! मिस अनवरी को जाने दो, कल आ जाएंगी। हां, एक बात तो मैं भूल ही गई थी-मिस अनवरी, आप आने लगिए, तो कृष्णमोहन को छुट्टी दिलाकर साथ लिवाते आइएगा।


श्यामदुलारी ने माधुरी को भी प्रसन्न करने का उपाय निकाल ही लिया! अनवरी ने कहा-बहुत अच्छा।


शैला ने कहा-मैं आपके पास आकर कभी-कभी बैठा करूं, इसके लिए क्या आप मुझे आज्ञा देगीं मां जी!


क्यों नहीं; आपका घर है, चाहे जब चली आया करें। मुझे तो अपने देश की कहानी आपने सुनाई ही नहीं!


नहीं; मैं इसलिए आज्ञा मांगती थी कि मेरे आने से आपको कष्ट न हो। मुझे अलग कुर्सी पर बैठाया कीजिए। मैं आपको छुऊंगी नहीं शैला ने बड़ी सरलता से कहा।


श्यामदुलारी ने हंसकर कहा-वाह! यह तो मेरे सिर पर अच्छा कलंक है। क्या मैं किसी को छूती नहीं? आप आइए, मुझे आपकी बातें बड़ी मीठी लगती हैं।


इन्द्रदेव ने देखा कि उनके हृदय का बोझ टल गया-शैला ने मां के समीप पहुंचने का अपना पथ बना लिया। उन्होंने इसे अपनी विजय समझी। वह मन-ही-मन प्रसन्न हो रहे थे कि शैला ने उठते हुए नमस्कार करके कहा-मां जी, मुझसे भूल हो सकती है, अपराध नहीं। तब भी, आप लोगों की स्नेह-छाया में मुझे सुख की अधिक आशा है।


श्यामदुलारी का स्नेह-सिक्त हृदय भर उठा। एक दूर देश की बालिका कितना मधुर हृदय लिये उनके द्वार पर खड़ी है।


श्यामदुलारी स्नान करने चली गईं।


इन्द्रदेव के साथ शैला धीरे-धीरे बड़ी कोठी की ओर चली जा रही थी। मोटर के लिए चौबेजी गए थे, तब तक दालान में अनवरी से माधुरी कहने लगी-तुमने ठीक कहा था मिस अनवरी!


उसने माधुरी को अधिक खुलने का अवसर देते हुए कहा-मैंने क्या ठीक कहा था? यही, शैला के संबंध में...


अनवरी गंभीर बन गई। उसने कहा-बीबी रानी! तुम लोगों को इनसे कभी काम नहीं पड़ा है। ये सब जादूगर हैं। देखा न मां जी को कैसा अपनी ओर ढुलका लिया-मोम बन गई। क्या यूं ही सात समुद्र तेरह नदी पार करके यह आई है! और...


पर तुमने भी मिस अनवरी! शैला को अच्छा एक उखाड़ दिया! थोड़ा-सा तो वह सोचेगी, बंगले से हटना उसे अखरेगा। क्यों?-बीच ही में माधुरी ने कहा।


वह भी घुटी हुई है, कैसा पी गई! बीबी को कसक तो होगी ही! बीबी रानी, मैं तुमसे फिर कहती हूं तुम अपनी देखो। आपके भाई साहब तो नदी की बाढ़ में बह रहे हैं। मैं कल तो न आ सकूँगी। हां, जल्दी आने की...


नहीं-नहीं अनवरी! कल, कल तुमको अवश्य आना होगा। इस समय तुम्हारी सहायता की बड़ी आवश्यकता है। उस चुड़ैल को, जिस तरह हो, नीचा...


माधुरी आगे कुछ न कह सकी, उसका क्रोध कपोलों पर लाल हो रहा था।


मानव-स्वभाव है; वह अपने सुख को विस्तृत करना चाहता है। और भी, केवल अपने सुख से ही सुखी नहीं होता, कभी-कभी दूसरों को दुखी करके, अपमानित करके, अपने मान को, सुख को प्रतिष्ठित करता है।


माधुरी के मन में अनवरी के द्वारा जो आग जलाई गई है, वह कई रूप बदलकर उसके कोने-कोने में झुलसाने लगी है उसके मनमें लोभ तो जाग ही उठा था। अधिकारच्युत होने की आशंका ने उसे और भी संदिग्ध और प्रयत्नशील बना दिया। उसके गौरव की चांदनी शैला की उषा में फीकी पड़ेगी ही, इसकी दृढ़ संभावना थी, और अब वह युद्ध के लिए तत्पर थी। चौबेजी को खींचने के लिए उसने मन-ही-मन सोच लिया! एक सम्मिलित कुटुंब में राष्ट्रनीति ने अधिकार जमा लिया। स्व-पक्ष और पर-पक्ष का सृजन होने लगा।


चौबेजी कम चतुर न थे। माधरी को उन्होंने अधिक समीप समझा। ढले भी उसी ओर। मोटर लेकर जब वह आए, तो उन्होंने कहा—बीबी रानी। हम लोगों ने बड़े सरकार का समय और दरबार देखा है। अब यह सब नहीं देखा जाता। तुम्हीं बचाओगी तो यह राज बचेगा, नहीं तो गया। मैं अब उसके लिए चाय बनाना नहीं चाहता! मुझे जवाब मिल जाए, यही अच्छा है।


मोटर पर बैठते हुए अनवरी ने कहा—घबराइए मत चौबेजी, बीबी रानी आपके लिए कोई बात उठा न रखेंगी।


6

गंगा की लहरियों पर मध्यान्ह के सूर्य की किरणें नाच रही थीं। उन्हें अपने चंचल हाथों से अस्त-व्यस्त करती हुई, कमर-भर जल में खड़ी, मलिया छींटे उड़ा रही थी। करारे के ऊपर मल्लाहों की छोटी-सी बस्ती थी। सात घर मल्लाहों और तीन घर कहारों के थे। मलिया और रामदीन का घर भी वहीं था। दोपहर को छावनी से छुट्टी लेकर, दोनों ही अपने घर आए थे। रामदीन करारे से उतरता हआ कहने लगा-मलिया, मैं भी आया। मलिया हँसकर बोली—मैं तो जाती हूं। जाओगी क्यों? वाह?—कहते हुए रामदीन ‘धम' से गंगा में कूद पड़ा। थोड़ी दूर पर एक बुड्ढा मल्लाह बंसी डाले बैठा था, उसने क्रोध से कहा—देखो रामदीन, तुम छावनी के नौकर हो, इससे मैं डर न जाऊंगा। मछली न फंसी, तो तुम्हारी बुरी गत कर दूंगा।


तैरते हुए रामदीन ने कहा—अरे क्यों बिगड़ रहे हो दादा! आज कितने दिनों बाद छुट्टी मिली है। ऊधम मचाने अब कहां आता हूं।

तैरते हुए तीर की ओर लौटकर उसने मलिया के पास पहुंचने का ज्यों ही उपक्रम किया, वह गंगा से निकलने लगी। रामदीन ने कहा—अरे क्या मैं काट लूंगा? मलिया, ठहर न!

वह रुक गई। रामदीन ने धीरे से पास आकर पूछा—क्यों रे, तेरी सगाई पक्की हो गई? उसने कहा—धत! रामदीन ने कहा—तो आज मैं तेरे चाचा से कहूं कि... मलिया ने बीच ही में बात काटकर कहा—देखो, मुझे गाली दोगे तो.. .हां, कहे देती


क्या कहे देती है? क्या मुझे डराती है? अब तो मुझे तेरी बीबी रानी का डर नहीं। मलिया, तू जानती है छोटी कोठी में मेम साहब जब से आई हैं, तब से मैं ही उनका खाना बनाता हूं चौबेजी का काम भी मैं ही करता हूं? अब तो... मेम साहब के भरोसे कूद रहे हो न! देखो तो तुम्हारी मेम साहब की दुर्दशा चार दिन में होती है। बीबी रानी...


क्या...बकती है! चल, अपना काम देख! वह तो कहती थीं कि रामदीन, तुझको मैं सरकार से कहकर खेत दिलवा दूंगी। वहीं... । चल, अपना मुंह देख, मुझसे चला है सगाई करने! तीन ही दिन में छोटी कोठी से भी तेरी मेम साहब भागती हैं। तब लेना खेत! अरे तो क्या...


आगे रामदीन कुछ न बोल सका; क्योंकि एक गौर वर्ण की प्रौढ़ा स्त्री धोती लिये हुए उत्तर की ओर से धीरे-धीरे गंगा में उतर रही थी।

उसे देखते ही दोनों की सिट्टी भूल गई। दोनों ही गंगा जल में से निकलकर उसे अभिवादन करके भलेमानसों की तरह अपनी-अपनी धोती पहनने लगे। उस स्त्री के अंग पर कोई आभषण न था. और न तो कोई सधवा का चिन्ह! था केवल उज्ज्वलता का पवित्र तेज, जो उसकी मोटी-सी धोती के बाहर भी प्रकट था।


एक पत्थर पर अपनी धोती रखते हुए उसने घूमकर पूछा—क्यों रे रामदीन, तुझे कभी घंटे भर की भी छुट्टी नहीं मिलती? आज अठवारों हो गया, कोई सौदा ले आना है। तेरी नानी कहती थी, आज रामदीन आने वाला है। सो तू आज आने पर भी यहीं धमाचौकड़ी मचा रहा है? मालकिन! मैं नहाकर कोट में आ ही रहा था। यही मलिया बड़ी पाजी है, इसने धोती पर पानी के छींटे...सरकार...


रामदीन अपनी बनावटी बात को आगे न बढ़ा सका। बीच ही में मलिया अपनी सफाई देती हुई बोल उठी—इसकी छाती फट जाए, झूठा कहीं का! मालकिन, यह मुझको दे रहा है। इसका घमंड बढ़ गया है। मेम साहब का खानसामा बन गया है, तो चला है मुझसे सगाई करने!


मालकिन अपनी आती हुई हँसी को रोककर बोलीं वह देख , इसकी नानी आ रही है , उसी से कह दे। मलिया , सचमुच रामदीन पाजी हो गया है।

दोनों ने देखा , बुढ़िया रामदीन की नानी — तांबे का एक घड़ा लिये धीरे - धीरे आ रही है ।


मालकिन स्नान करने लगी। कभी - कभी स्नान करने के लिए वह इधर आ जाती , तो कई काम करती हुई जातीं । भाई मधुबन के लिए मछली लेना और मल्लाही -टोली की किसी प्रजा को सहेजकर गृहस्थी का और कोई काम करा लेना भी उनके नहाने का उद्देश्य होता ।


उनको देखते ही बूढ़े मल्लाह ने अपनी बंसी खींची । मछली फंस चुकी थी ।

वह स्नान करके सूर्य को प्रणाम करती हुई जब ऊपर आकर खड़ी हुईं तो मल्लाह ने मछली सामने लाकर रख दी । उन्होंने रामदीन से कहा — इसे लेता चल ।

मलिया ने बुढ़िया के स्नान कर लेने पर उसके लाए हुए घड़े को भर लिया । मालकिन की गीली धोती लेकर बुढ़िया उनके साथ हो गई ।


मल्लाह ने कहा — मालकिन , आज इस पाजी रामदीन को बिना मारे मैं न छोड़ता ।

आज कई दिन पर मैं मधुबन बाबू के लिए मछली फंसाने बैठा था , यह आकर ऊधम मचाने लगा । इसी की चाल से बड़ा - सा रोहू आकर निकल गया । आज लगा है छावनी की नौकरी करने, तो घमंड का ठिकाना ही नहीं । हम लोग आपकी प्रजा हैं मालकिन ! यह बूढ़ा इस बात को नहीं भूल सकता । अभी कल का लड़का — यह क्या जाने कि धामपुर के असली मालिक — चार आने के पुराने हिस्सेदार — कौन हैं । मालकिन , बेईमानी से वह सब चला गया, तो क्या हुआ ? हम लोग अपने मालिक को न पहचानेंगे?


मालकिन को उसका यह व्याख्यान अच्छा न लगा । उनके अच्छे दिनों का स्मरण करा देने की उस समय कोई आवश्यकता न थी । किंतु सीधा और बूढ़ा मल्लाह उस बिगड़े घर की बड़ाई में और कहता ही क्या ?


शेरकोट के कुलीन जमींदार मधुबन के पास अब तीन बीघे खेत और वही खंडहर - सा शेरकोट है, इसके अतिरिक्त और कुछ चाहे न बचा हो ; किंतु पुरानी गौरव - गाथाएं तो आज भी सजीव हैं । किसी समय शेरकोट के नाम से लोग सम्मान से सिर झुकाते थे।


मधुबन के लिए वंश- गौरव का अभिमान छोड़कर , मुकदमे में सब कुछ हारकर , जब उसके पिता मर गए , तो उसकी बड़ी विधवा बहन ने आकर भाई को संभाला था । उसकी ससुराल संपन्न थी ; किंतु विधवा राजकुमारी के दरिद्र भाई को कौन देखता! उसी ने शेरकोट के खंडहर में दीपक जलाने का काम अपने हाथों में लिया !


शेरकोट मल्लाही -टोले के समीप उत्तर की ओर बड़े- से ऊंचेटीले पर था । मल्लाही टोला और शेरकोट के बीच एक बड़ा - सा वट - वृक्ष था । वहीं दो - चार बड़े- बड़े पत्थर थे। उसी के नीचे स्नान करने का घाट था । मल्लाही-टोले में अब तो केवल दस घरों की बस्ती है । परंतु जब शेरकोट के अच्छे दिन थे, तो उसकी प्रजा से काम करने वालों से यह गांव भरा था ।


शेरकोट के विभव के साथ वहां की प्रजा धीरे - धीरे इधर - उधर जीविका की खोज में खिसकने लगी । मल्लाहों की जीविका तो गंगातट से ही थी ; वे कहां जाते ? उन्हीं के साथ दो-तीन कहारों के भी घर बच रहे—उस छोटी-सी बस्ती में।


कहीं-कहीं पुराने घरों की गिरी हुई भीतों के ढूह अपने दारिद्र्य -मंडित सिर को ऊंचा करने की चेष्टा में संलग्न थे, जिसके किसी सिरे पर टूटी हुई धरनें, उन घरों का सिर फोड़ने वाली लाठी की तरह, अड़ी पड़ी थीं!


उधर शेरकोट का छोटा-सा मिट्टी का ध्वस्त दुर्ग था! अब उसका नाममात्र है, और है उसके दो ओर नाले की खाई—एक और गंगा। एक पथ गांव में जाने के लिए था। घर सब गिर चुके थे। दो-तीन कोठरियों के साथ एकआँगन बच रहा था।


भारत का वह मध्यकाल था, जब प्रतिदिन आक्रमणों के भय से एक छोटे-से भूमिपति को भी दुर्ग की आवश्यकता होती थी। ऊंची-नीची होने के कारण, शेरकोट में अधिक भूमि होने पर भी, खेती के काम में नहीं आ सकती थी। तो भी राजकुमारी ने उसमें फल-फूल और साग-भाजी का आयोजन कर लिया था।


शेरकोट के खंडहर में घुसते हुए राजकुमारी ने बूढ़े मल्लाह को विदा किया। वह बूढ़ा मनुष्य कोट का कोई भी काम करने के लिए प्रस्तुत रहता। उसने जाते जाते कहामालकिन, जब कोई काम हो, कहलवा देना, हम लोग आपकी पुरानी प्रजा हैं, नमक खाया


उसकी इस सहानुभूति से राजकुमारी को रोमांच हो गया। उसने कहा—तुमसे न कहलवाऊंगी, तो काम कैसे चलेगा; और कब नहीं कहलवाया है?

बूढ़ा दोनों हाथों को अपने सिर से लगाकर लौट गया। रामदीन ने एक बार जैसे सांस ली। उसने कहा—तो मालकिन, कहिए, नौकरी छोड़

जो प्रेरणा उसे बूढ़े मल्लाह से मिली थी, वही उत्तेजित हो रही थी। राजकुमारी ने कहा—पागल! नौकरी छोड़ देगा, तो खेत छिन जाएगा। गांव में रहने पावेगा फिर? अब हम लोगों के वह दिन नहीं रहे कि तुमको नौकर रख लूंगी। मैंने तो इसलिए कहा था कि मधुबन ने कहीं पर खेत बनाया है; वही बाबाजी की बनजरिया में। कहता था कि 'बहन, एक भी मजूर नहीं मिला!' फिर बाबाजी और उसने मिलकर हल चलाया! सुनता है रे रामदीन, अब बड़े घर के लोग हल चलाने लगे, मजूर नहीं मिलते, बाबाजी तो यह सब बात मानते ही नहीं। उन्होंने मधुबन से भी हल चलवाया। वह कहते हैं कि 'हल चलाने से बड़े लोगों की जात नहीं चली जाती। अपना काम हम नहीं करेंगे, तो दूसरा कौन करेगा।' आज-कल इस देश में जो न हो जाए। कहां मधुबन का वंश, कहां हलचलाना! बाबाजी ने उसको पढ़ाया-लिखाया और भी न जाने क्या-क्या सिखाया। वह जाता है शहर यहां से बोझ लिवाकर सौदा बेचने! जब मैं कुछ कहती हूं; तो कहता है- 'बहन! वह सब रामकहानी के दिन बीत गए। काम करके खाने में लाज कैसी। किसी की चोरी करता हूं या भीख मांगता हूं?' धीरे-धीरे मजूर होता जा रहा है। मधुबन हल चलावे, यह कैसे सह सकती हूं। इसी से तो कहती हूं कि क्या दो घंटे जाकर तू उसका काम नहीं कर सकता था!


दोपहर को खाने-नहाने की छुट्टी तो किसी तरह मिलती है। कैसे क्या कहूं अभी न जाऊं तो रोटी भी रसोईदार इधर-उधर फेंक देगा। फिर दिन भर टापता रह जाऊंगा। मालकिन, पहले से कह दिया जाए, तो कोई उपाय भी निकाल लूं।

अच्छा, जा; कल आना तो मुझसे भेंट करके जाना; भूलना मत! समझा न? मधुबन मिले तो भेज दो।


रामदीन ने मछली रखते हुए सिर झुकाकर अभिवादन किया। फिर मलिया की ओर देखता हुआ वह चला गया। __रामदीन की नानी धूप में धोती फैलाकर रसोई-घर की ओर मछली लेकर गई। वह चौके में आग-पानी जुटाने लगी। मलिया मालकिन के पास बैठ गई थी। राजकुमारी ने उनसे पूछा–मलिया! तेरी ससुराल के लोग कभी पूछते हैं?


उसने कहा नहीं मालकिन, अब क्यों पूछने लगे। राजकुमारी ने कहा—तो रामदीन से तेरी सगाई कर दूं न? आओ मालकिन, इसीलिए मुझको... राजकुमारी उसकी इस लज्जित मूर्ति को देखकर रुक गईं। उन्होंने बात बदलने के लिए कहा—तो आज-कल तू वहां रात-दिन रहती है?


क्यों न रहूंगी। बीबीरानी माधुरी की तरेर-भरी आँखें देखकर ही छठी का दूध याद आता है। अरे बाप रे! मालकिन, वहां से जब घर आती हूं तो जैसे बाघ के मुंह से निकल आती हूं। इधर तो उनकी आँखें और भी चढ़ी रहती हैं। चौबे, जो पहले कुंवर साहब की रसोई बनाता था, आकर न मालूम क्या धीरे-धीरे फुसफुसा जाता है। बस फिर क्या पूछना! जिसकी दुर्दशा होनी हो वही सामने पड़ जाए।

क्यों रे, चौबे तो पहले तेरे कुंवर साहब के बड़े पक्षपाती थे। अब क्या हुआ जो...


छावनी की बातें अच्छी तरह सुनने के लिए राजकुमारी ने पूछा। कोई भी स्वार्थ न हो: किंत अन्य लोगों के कलह से थोड़ी देर मनोविनोद कर लेने की मात्रा मनष्य की साधारण मनोवृत्तियों में प्राय: मिलती है। राजकुमारी के कुतूहल की तृप्ति भी उससे क्यों न होती?

मलिया कहने लगी मालकिन! यह सब मैं क्या जानूं, पहले तो चौबेजी बड़े हंसमुख बने रहते थे। पर जब से बड़ी सरकार आई हैं; तब से चौबेजी इसी दरबार की ओर झुके रहते हैं। कंवर साहब से तो नहीं पर मेम साहब से वह चिढ़ते हैं। कहते हैं. उसकी रसोई बनाना हमारा काम नहीं है। बबिरिनिा से और भी न जाने क्या-क्या उसकी निंदा करते हैं। सुना था, एक दिन वह रसोई बना रहे थे, भूल से मेम साहब जूते पहने रसोई-घर में चली आईं, तभी से वह चिढ़ गए, पर कुछ कह नहीं सकते थे। जब बड़ी सरकार आ गईं, तो उन्होंने इधर ही अपना डेरा जमाया। अब तो वहछोटी कोठी जाकर, वहां क्या-क्या चाहिए —यही देख आते हैं

क्यों रे! क्या तेरे कुंवर साहब इस मेम से ब्याह करेंगे?

मैं क्या जाएं मालकिन! अब छुट्टी मिले। जाऊं, नहीं तो रसोईदार महाराज ही दोचार बात सुनावेंगे।


अच्छा, जा, अभी तो चाचा के पास जाएगी न? हां, इधर से होती हुई चली जाऊंगी—कहकर मलिया अपने घर चली। राजकुमारी से आकर रामदीन की नानी ने कहा—चलिए, अपनी रसोई देखिए। अभी मधुबन बाबू तो नहीं आए। राजकुमारी ने एक बार शेरकोट के उजड़े खंडहर की ओर देखा और धीरे-धीरे रसोईघर की ओर चलीं ।

रोटी सेंकते हुए राजकुमारी ने पूछा - बुढ़िया , तूने मलिया के चाचा से कभी कहा था ।


क्या मालकिन ?


रामदीन से मलिया की सगाई के लिए । अब कब तक तू अकेली रहेगी ? अपने पेट के लिए तो वह पाजी जुटा ले ; सगाई करके क्या करेगा मालकिन ! ब्याह होता मधुबन बाबू का ; हम लोगों को वह दिन आखों से देखने को मिलता... किसका रे बुढ़िया ! — कहते हुए मधुबन ने आते ही उसकी पीठ थपथपा दी ।


राजकुमारी ने कहा — रोटी खाने का अब समय हुआ है न ? मधु ! तुम कितना जलाते हो ।


बहन ! मैं अपने आलू और मटर का पानी बरा रहा था , आज मेरा खेत सिंच गया । कहकर वह हंस पड़ा । वह प्रसन्न था ; किंतु राजकुमारी अपने पिता के वंश का वह विगत वैभव सोच रही थी ; उनको हंसी न आई ।


7

गंगा की लहरियों पर मध्यान्ह के सूर्य की किरणें नाच रही थीं। उन्हें अपने चंचल हाथों से अस्त-व्यस्त करती हुई, कमर-भर जल में खड़ी, मलिया छींटे उड़ा रही थी। करारे के ऊपर मल्लाहों की छोटी-सी बस्ती थी। सात घर मल्लाहों और तीन घर कहारों के थे। मलिया और रामदीन का घर भी वहीं था। दोपहर को छावनी से छुट्टी लेकर, दोनों ही अपने घर आए थे। रामदीन करारे से उतरता हआ कहने लगा-मलिया, मैं भी आया। मलिया हँसकर बोली—मैं तो जाती हूं। जाओगी क्यों? वाह?—कहते हुए रामदीन ‘धम' से गंगा में कूद पड़ा। थोड़ी दूर पर एक बुड्ढा मल्लाह बंसी डाले बैठा था, उसने क्रोध से कहा—देखो रामदीन, तुम छावनी के नौकर हो, इससे मैं डर न जाऊंगा। मछली न फंसी, तो तुम्हारी बुरी गत कर दूंगा।


तैरते हुए रामदीन ने कहा—अरे क्यों बिगड़ रहे हो दादा! आज कितने दिनों बाद छुट्टी मिली है। ऊधम मचाने अब कहां आता हूं।

तैरते हुए तीर की ओर लौटकर उसने मलिया के पास पहुंचने का ज्यों ही उपक्रम किया, वह गंगा से निकलने लगी। रामदीन ने कहा—अरे क्या मैं काट लूंगा? मलिया, ठहर न!

वह रुक गई। रामदीन ने धीरे से पास आकर पूछा—क्यों रे, तेरी सगाई पक्की हो गई? उसने कहा—धत! रामदीन ने कहा—तो आज मैं तेरे चाचा से कहूं कि... मलिया ने बीच ही में बात काटकर कहा—देखो, मुझे गाली दोगे तो.. .हां, कहे देती


क्या कहे देती है? क्या मुझे डराती है? अब तो मुझे तेरी बीबी रानी का डर नहीं। मलिया, तू जानती है छोटी कोठी में मेम साहब जब से आई हैं, तब से मैं ही उनका खाना बनाता हूं चौबेजी का काम भी मैं ही करता हूं? अब तो... मेम साहब के भरोसे कूद रहे हो न! देखो तो तुम्हारी मेम साहब की दुर्दशा चार दिन में होती है। बीबी रानी...


क्या...बकती है! चल, अपना काम देख! वह तो कहती थीं कि रामदीन, तुझको मैं सरकार से कहकर खेत दिलवा दूंगी। वहीं... । चल, अपना मुंह देख, मुझसे चला है सगाई करने! तीन ही दिन में छोटी कोठी से भी तेरी मेम साहब भागती हैं। तब लेना खेत! अरे तो क्या...


आगे रामदीन कुछ न बोल सका; क्योंकि एक गौर वर्ण की प्रौढ़ा स्त्री धोती लिये हुए उत्तर की ओर से धीरे-धीरे गंगा में उतर रही थी।

उसे देखते ही दोनों की सिट्टी भूल गई। दोनों ही गंगा जल में से निकलकर उसे अभिवादन करके भलेमानसों की तरह अपनी-अपनी धोती पहनने लगे। उस स्त्री के अंग पर कोई आभषण न था. और न तो कोई सधवा का चिन्ह! था केवल उज्ज्वलता का पवित्र तेज, जो उसकी मोटी-सी धोती के बाहर भी प्रकट था।


एक पत्थर पर अपनी धोती रखते हुए उसने घूमकर पूछा—क्यों रे रामदीन, तुझे कभी घंटे भर की भी छुट्टी नहीं मिलती? आज अठवारों हो गया, कोई सौदा ले आना है। तेरी नानी कहती थी, आज रामदीन आने वाला है। सो तू आज आने पर भी यहीं धमाचौकड़ी मचा रहा है? मालकिन! मैं नहाकर कोट में आ ही रहा था। यही मलिया बड़ी पाजी है, इसने धोती पर पानी के छींटे...सरकार...


रामदीन अपनी बनावटी बात को आगे न बढ़ा सका। बीच ही में मलिया अपनी सफाई देती हुई बोल उठी—इसकी छाती फट जाए, झूठा कहीं का! मालकिन, यह मुझको दे रहा है। इसका घमंड बढ़ गया है। मेम साहब का खानसामा बन गया है, तो चला है मुझसे सगाई करने!


मालकिन अपनी आती हुई हँसी को रोककर बोलीं वह देख , इसकी नानी आ रही है , उसी से कह दे। मलिया , सचमुच रामदीन पाजी हो गया है।

दोनों ने देखा , बुढ़िया रामदीन की नानी — तांबे का एक घड़ा लिये धीरे - धीरे आ रही है ।


मालकिन स्नान करने लगी। कभी - कभी स्नान करने के लिए वह इधर आ जाती , तो कई काम करती हुई जातीं । भाई मधुबन के लिए मछली लेना और मल्लाही -टोली की किसी प्रजा को सहेजकर गृहस्थी का और कोई काम करा लेना भी उनके नहाने का उद्देश्य होता ।


उनको देखते ही बूढ़े मल्लाह ने अपनी बंसी खींची । मछली फंस चुकी थी ।

वह स्नान करके सूर्य को प्रणाम करती हुई जब ऊपर आकर खड़ी हुईं तो मल्लाह ने मछली सामने लाकर रख दी । उन्होंने रामदीन से कहा — इसे लेता चल ।

मलिया ने बुढ़िया के स्नान कर लेने पर उसके लाए हुए घड़े को भर लिया । मालकिन की गीली धोती लेकर बुढ़िया उनके साथ हो गई ।


मल्लाह ने कहा — मालकिन , आज इस पाजी रामदीन को बिना मारे मैं न छोड़ता ।

आज कई दिन पर मैं मधुबन बाबू के लिए मछली फंसाने बैठा था , यह आकर ऊधम मचाने लगा । इसी की चाल से बड़ा - सा रोहू आकर निकल गया । आज लगा है छावनी की नौकरी करने, तो घमंड का ठिकाना ही नहीं । हम लोग आपकी प्रजा हैं मालकिन ! यह बूढ़ा इस बात को नहीं भूल सकता । अभी कल का लड़का — यह क्या जाने कि धामपुर के असली मालिक — चार आने के पुराने हिस्सेदार — कौन हैं । मालकिन , बेईमानी से वह सब चला गया, तो क्या हुआ ? हम लोग अपने मालिक को न पहचानेंगे?


मालकिन को उसका यह व्याख्यान अच्छा न लगा । उनके अच्छे दिनों का स्मरण करा देने की उस समय कोई आवश्यकता न थी । किंतु सीधा और बूढ़ा मल्लाह उस बिगड़े घर की बड़ाई में और कहता ही क्या ?


शेरकोट के कुलीन जमींदार मधुबन के पास अब तीन बीघे खेत और वही खंडहर - सा शेरकोट है, इसके अतिरिक्त और कुछ चाहे न बचा हो ; किंतु पुरानी गौरव - गाथाएं तो आज भी सजीव हैं । किसी समय शेरकोट के नाम से लोग सम्मान से सिर झुकाते थे।


मधुबन के लिए वंश- गौरव का अभिमान छोड़कर , मुकदमे में सब कुछ हारकर , जब उसके पिता मर गए , तो उसकी बड़ी विधवा बहन ने आकर भाई को संभाला था । उसकी ससुराल संपन्न थी ; किंतु विधवा राजकुमारी के दरिद्र भाई को कौन देखता! उसी ने शेरकोट के खंडहर में दीपक जलाने का काम अपने हाथों में लिया !


शेरकोट मल्लाही -टोले के समीप उत्तर की ओर बड़े- से ऊंचेटीले पर था । मल्लाही टोला और शेरकोट के बीच एक बड़ा - सा वट - वृक्ष था । वहीं दो - चार बड़े- बड़े पत्थर थे। उसी के नीचे स्नान करने का घाट था । मल्लाही-टोले में अब तो केवल दस घरों की बस्ती है । परंतु जब शेरकोट के अच्छे दिन थे, तो उसकी प्रजा से काम करने वालों से यह गांव भरा था ।


शेरकोट के विभव के साथ वहां की प्रजा धीरे - धीरे इधर - उधर जीविका की खोज में खिसकने लगी । मल्लाहों की जीविका तो गंगातट से ही थी ; वे कहां जाते ? उन्हीं के साथ दो-तीन कहारों के भी घर बच रहे—उस छोटी-सी बस्ती में।


कहीं-कहीं पुराने घरों की गिरी हुई भीतों के ढूह अपने दारिद्र्य -मंडित सिर को ऊंचा करने की चेष्टा में संलग्न थे, जिसके किसी सिरे पर टूटी हुई धरनें, उन घरों का सिर फोड़ने वाली लाठी की तरह, अड़ी पड़ी थीं!


उधर शेरकोट का छोटा-सा मिट्टी का ध्वस्त दुर्ग था! अब उसका नाममात्र है, और है उसके दो ओर नाले की खाई—एक और गंगा। एक पथ गांव में जाने के लिए था। घर सब गिर चुके थे। दो-तीन कोठरियों के साथ एकआँगन बच रहा था।


भारत का वह मध्यकाल था, जब प्रतिदिन आक्रमणों के भय से एक छोटे-से भूमिपति को भी दुर्ग की आवश्यकता होती थी। ऊंची-नीची होने के कारण, शेरकोट में अधिक भूमि होने पर भी, खेती के काम में नहीं आ सकती थी। तो भी राजकुमारी ने उसमें फल-फूल और साग-भाजी का आयोजन कर लिया था।


शेरकोट के खंडहर में घुसते हुए राजकुमारी ने बूढ़े मल्लाह को विदा किया। वह बूढ़ा मनुष्य कोट का कोई भी काम करने के लिए प्रस्तुत रहता। उसने जाते जाते कहामालकिन, जब कोई काम हो, कहलवा देना, हम लोग आपकी पुरानी प्रजा हैं, नमक खाया


उसकी इस सहानुभूति से राजकुमारी को रोमांच हो गया। उसने कहा—तुमसे न कहलवाऊंगी, तो काम कैसे चलेगा; और कब नहीं कहलवाया है?

बूढ़ा दोनों हाथों को अपने सिर से लगाकर लौट गया। रामदीन ने एक बार जैसे सांस ली। उसने कहा—तो मालकिन, कहिए, नौकरी छोड़

जो प्रेरणा उसे बूढ़े मल्लाह से मिली थी, वही उत्तेजित हो रही थी। राजकुमारी ने कहा—पागल! नौकरी छोड़ देगा, तो खेत छिन जाएगा। गांव में रहने पावेगा फिर? अब हम लोगों के वह दिन नहीं रहे कि तुमको नौकर रख लूंगी। मैंने तो इसलिए कहा था कि मधुबन ने कहीं पर खेत बनाया है; वही बाबाजी की बनजरिया में। कहता था कि 'बहन, एक भी मजूर नहीं मिला!' फिर बाबाजी और उसने मिलकर हल चलाया! सुनता है रे रामदीन, अब बड़े घर के लोग हल चलाने लगे, मजूर नहीं मिलते, बाबाजी तो यह सब बात मानते ही नहीं। उन्होंने मधुबन से भी हल चलवाया। वह कहते हैं कि 'हल चलाने से बड़े लोगों की जात नहीं चली जाती। अपना काम हम नहीं करेंगे, तो दूसरा कौन करेगा।' आज-कल इस देश में जो न हो जाए। कहां मधुबन का वंश, कहां हलचलाना! बाबाजी ने उसको पढ़ाया-लिखाया और भी न जाने क्या-क्या सिखाया। वह जाता है शहर यहां से बोझ लिवाकर सौदा बेचने! जब मैं कुछ कहती हूं; तो कहता है- 'बहन! वह सब रामकहानी के दिन बीत गए। काम करके खाने में लाज कैसी। किसी की चोरी करता हूं या भीख मांगता हूं?' धीरे-धीरे मजूर होता जा रहा है। मधुबन हल चलावे, यह कैसे सह सकती हूं। इसी से तो कहती हूं कि क्या दो घंटे जाकर तू उसका काम नहीं कर सकता था!


दोपहर को खाने-नहाने की छुट्टी तो किसी तरह मिलती है। कैसे क्या कहूं अभी न जाऊं तो रोटी भी रसोईदार इधर-उधर फेंक देगा। फिर दिन भर टापता रह जाऊंगा। मालकिन, पहले से कह दिया जाए, तो कोई उपाय भी निकाल लूं।

अच्छा, जा; कल आना तो मुझसे भेंट करके जाना; भूलना मत! समझा न? मधुबन मिले तो भेज दो।


रामदीन ने मछली रखते हुए सिर झुकाकर अभिवादन किया। फिर मलिया की ओर देखता हुआ वह चला गया। __रामदीन की नानी धूप में धोती फैलाकर रसोई-घर की ओर मछली लेकर गई। वह चौके में आग-पानी जुटाने लगी। मलिया मालकिन के पास बैठ गई थी। राजकुमारी ने उनसे पूछा–मलिया! तेरी ससुराल के लोग कभी पूछते हैं?


उसने कहा नहीं मालकिन, अब क्यों पूछने लगे। राजकुमारी ने कहा—तो रामदीन से तेरी सगाई कर दूं न? आओ मालकिन, इसीलिए मुझको... राजकुमारी उसकी इस लज्जित मूर्ति को देखकर रुक गईं। उन्होंने बात बदलने के लिए कहा—तो आज-कल तू वहां रात-दिन रहती है?


क्यों न रहूंगी। बीबीरानी माधुरी की तरेर-भरी आँखें देखकर ही छठी का दूध याद आता है। अरे बाप रे! मालकिन, वहां से जब घर आती हूं तो जैसे बाघ के मुंह से निकल आती हूं। इधर तो उनकी आँखें और भी चढ़ी रहती हैं। चौबे, जो पहले कुंवर साहब की रसोई बनाता था, आकर न मालूम क्या धीरे-धीरे फुसफुसा जाता है। बस फिर क्या पूछना! जिसकी दुर्दशा होनी हो वही सामने पड़ जाए।

क्यों रे, चौबे तो पहले तेरे कुंवर साहब के बड़े पक्षपाती थे। अब क्या हुआ जो...


छावनी की बातें अच्छी तरह सुनने के लिए राजकुमारी ने पूछा। कोई भी स्वार्थ न हो: किंत अन्य लोगों के कलह से थोड़ी देर मनोविनोद कर लेने की मात्रा मनष्य की साधारण मनोवृत्तियों में प्राय: मिलती है। राजकुमारी के कुतूहल की तृप्ति भी उससे क्यों न होती?

मलिया कहने लगी मालकिन! यह सब मैं क्या जानूं, पहले तो चौबेजी बड़े हंसमुख बने रहते थे। पर जब से बड़ी सरकार आई हैं; तब से चौबेजी इसी दरबार की ओर झुके रहते हैं। कंवर साहब से तो नहीं पर मेम साहब से वह चिढ़ते हैं। कहते हैं. उसकी रसोई बनाना हमारा काम नहीं है। बबिरिनिा से और भी न जाने क्या-क्या उसकी निंदा करते हैं। सुना था, एक दिन वह रसोई बना रहे थे, भूल से मेम साहब जूते पहने रसोई-घर में चली आईं, तभी से वह चिढ़ गए, पर कुछ कह नहीं सकते थे। जब बड़ी सरकार आ गईं, तो उन्होंने इधर ही अपना डेरा जमाया। अब तो वहछोटी कोठी जाकर, वहां क्या-क्या चाहिए —यही देख आते हैं

क्यों रे! क्या तेरे कुंवर साहब इस मेम से ब्याह करेंगे?

मैं क्या जाएं मालकिन! अब छुट्टी मिले। जाऊं, नहीं तो रसोईदार महाराज ही दोचार बात सुनावेंगे।


अच्छा, जा, अभी तो चाचा के पास जाएगी न? हां, इधर से होती हुई चली जाऊंगी—कहकर मलिया अपने घर चली। राजकुमारी से आकर रामदीन की नानी ने कहा—चलिए, अपनी रसोई देखिए। अभी मधुबन बाबू तो नहीं आए। राजकुमारी ने एक बार शेरकोट के उजड़े खंडहर की ओर देखा और धीरे-धीरे रसोईघर की ओर चलीं ।

रोटी सेंकते हुए राजकुमारी ने पूछा - बुढ़िया , तूने मलिया के चाचा से कभी कहा था ।


क्या मालकिन ?


रामदीन से मलिया की सगाई के लिए । अब कब तक तू अकेली रहेगी ? अपने पेट के लिए तो वह पाजी जुटा ले ; सगाई करके क्या करेगा मालकिन ! ब्याह होता मधुबन बाबू का ; हम लोगों को वह दिन आखों से देखने को मिलता... किसका रे बुढ़िया ! — कहते हुए मधुबन ने आते ही उसकी पीठ थपथपा दी ।


राजकुमारी ने कहा — रोटी खाने का अब समय हुआ है न ? मधु ! तुम कितना जलाते हो ।


बहन ! मैं अपने आलू और मटर का पानी बरा रहा था , आज मेरा खेत सिंच गया । कहकर वह हंस पड़ा । वह प्रसन्न था ; किंतु राजकुमारी अपने पिता के वंश का वह विगत वैभव सोच रही थी ; उनको हंसी न आई ।


7

इन्द्रदेव की कचहरी में आज कुछ असाधारण उत्तेजना थी । चिकों के भीतर स्त्रियों का समूह, बाहर पास - पड़ोस के देहातियों का जमाव था । शैला भी अपनी कुर्सी पर अलग बैठी थीं ।


बनजरिया वाले बाबाजी अपनी कहानी सुनाने वाले थे, क्योंकि गोभी के लिए उसमें खेत बन गया था । उसी को लेकर तहसीलदार ने इन्द्रदेव को समझाया कि बनजरिया में बोने - जोतने का खेत है। उस पर एकरेज — या और भी जो कुछ कानून के वैध उपायों से देन लगाया जा सकता हो — लगाना ही चाहिए । और, इस बाबा को तो यहां से हटाना ही । होगा ; क्योंकि गांव के लोग इससे तंग आ गए हैं । यहसमाजी है, लडुकों को न जाने क्या क्या सिखाता है — ऊंची जाति के लड़के हल चलाने लगे हैं । नीचों को बराबर कलकत्ता बंबई कमाने जाने के लिए उकसाया करता है । इसके कारण लोगों को हलवाहों और मजूरों का मिलना असंभव हो गया है । तिस पर भी यह बनजरिया देवनन्दन के नाम की है। वह मर गया , अब लावारिस कानून के अनुसार यह जमींदार की है — इत्यादि ।


इन्द्रदेव ने सब सुनकर कहा कि बुड्ढे की बात भी सुन लेनी चाहिए । उससे कह भी दिया गया है। उसको बुलवाया जाए ।


आज इसीलिए रामनाथ आए हैं , और साथ में लिवाते आए हैं तितली को । तितली इस जन - समूह में संकुचित - सी एक खंभे की आड़ में आधी छिपी हुई बैठी है ।


इन्द्रदेव का संकेत पाकर रामनाथ ने कहना आरंभ किया

बार्टली साहब की नील - कोठी टूट चुकी थी । नील का काम बंद हो चला था । जैसा आज भी दिखाई देता है, तब भी उस गोदाम के हौज और पक्की नालियां अपना खाली मुंह खोले पड़ी रहती थीं , जिससे नीम की छाया में गाएं बैठकर विश्राम लेती थीं । पर बार्टली साहब को वह ऊंचे टीले का बंगला, जिसके नीचे बड़ा - सा ताल था , बहुत ही पसंद था । नील गोदाम बंद हो जाने पर भी उनका बहुत - सा रुपया दादनी में फंसा था ।


किसानों को नील बोना तो बंद कर देना पड़ा , पर रुपया देना ही पड़ता। अन्न की खेती से उतना रुपया कहां निकलता , इसलिए आस- पास के किसानों में बड़ी हलचल मची थी । बार्टली के किसान - आसामियों में एक देवनन्दन भी थे। मैं उनका आश्रित ब्राह्मण था । मुझे अन्न मिलता था और मैं काशी में जाकर पढ़ता था । काशी की उन दिनों की पंडित मंडली में स्वामी दयानन्द के आ जाने से हलचल मची हुई थी । दुर्गाकुंड के उस शास्त्रार्थ में मैं भी अपने गुरुजी के साथ दर्शक - रूप से था ; जिसमें स्वामीजी के साथ बनारसी चाल चली गई थी । ताली तो मैंने भी पीट दी थी । मैं क्वीन्स कॉलेज के एग्लो - संस्कृत -विभाग में पढ़ता था । मुझे वह नाटक अच्छा न लगा । उस निर्भीक संन्यासी की ओर मेरा मन आकर्षित हो गया । वहां से लौटकर गुरुजी से मेरी कहा - सुनी हो गई , और जब मैं स्वामीजी का पक्ष समर्थन करने लगा, तो गुरुजी ने मुझे नास्तिक कहकर फटकारा ।


देवनन्दन का पत्र भी मुझे मिल चुका था कि कई कारणों से अन्न देना वह बंद करते हैं । मैं अपनी गठरी पीठ पर लादे हुए झुंझलाहट से भरा नील -गोदाम के नीचे से अपने गांव में लौटा जा रहा था । देखा कि देवनन्दन को नील कोठी का पियादा काले खां पकड़े हुए ले जा रहा है । देवनन्दन सिंहपुर के प्रमुख किसान और आप ही लोगों के जाति -बांधव थे। उनकी यह दशा ! रोम - रोम उनके अन्न से पला था । मैं भी उनके साथ बार्टली के सामने जा पहुंचा।


उस समय कुर्सियों पर बैठे हुए बार्टली और उनकी बहन जेन आपस में कुछ बातें कर रहे थे।


जेन ने कहा — भाई! इधर जब से वह चले गए हैं , मेरी चिंता बढ़ रही है । न जाने क्यों , मुझे उन पर संदेह होने लगा है। मैं भी घर जाना चाहती हूं ।


तुम जानती हो कि मैंने स्मिथ का कभी अपमान नहीं किया , और सच तो यह है कि मैं उसको प्यार करता हूं। किंतु क्या करूं , उसका जैसा उग्र स्वभाव है, वह तो तुम जानती हो । मैं भला अभी काम छोड़कर कैसे चलूंगा! - बार्टली ने कहा ।


जब यह काम ही बंद हो गया , तब यहां रहने का क्या काम है। देखती हूं कि जो रुपया तुम्हारा निकल भी आता है, उसे यहां जमींदारी में फंसाते जा रहे हो । क्या तुम यहीं बसना चाहते हो ? — जेन ने कहा ।


तब तुम क्या चाहती हो । — बार्टली ने अन्यमनस्क भाव से पूर्व की धीरे - धीरे सूखने वाली झील को देखते हुए कहा ।


नील का काम बंद हो गया , पर अब हम लोगों को रुपए की कमी नहीं। जो कुछ हो , यहां से बेचकर इंग्लैंड लौट चलें । मेरा प्रसव- काल समीप है । मैं गांव के घर में ही जाकर रहना चाहती हूं । समझा न ? — जेन ने सरलता से कहा।


इतनी जल्दी! असंभव, अभी बहुत रुपया बाकी पड़ा है। ठहरो, मैं पहले इन लोगों से बात कर लूं । — बार्टली ने रूखे स्वर से कहा ।


देवनन्दन ने सलाम करते हुए कुछ कहना चाहा कि बीच ही में बात काटकर काले खां ने कहा—सरकार, बहुत कहने पर यह आया है।

देवनन्दन ने रोष-भरे नेत्रों से काले को देखा।

बार्टली ने कहा—रुपया देते हो कि तुम्हारा दूसरा...


जेन उठकर जाने लगी थी। बीच ही में देवनन्दन ने उसे हाथ जोड़ते हुए कहा- मेरी स्त्री को लड़का होने वाला है, और लड़की...


जेन आगे न सुन सकी। उसने कहा—बार्टली, जाने दो उसे, उसकी स्त्री का...


तुम चलो चाय के कमरे में, मैं अभी आता हूं।—कहते हुए बार्टली ने जेन को तीखी आखों से देखा। दुखी होकर जेन चली गई।

देवनन्दन की कोई विनती नहीं सुनी गई।


बार्टली ने कहा—काले खां, इसको यहीं कोठरी में बंद करो और तीन घंटे में रुपए न मिलें, तो बीस हंटर लगाकर तब मुझसे कहना।


बार्टली की ठोकर से जब देवनन्दन पृथ्वी चूमने लगा, तब वह चाय पीने चला गया।

मेरे हृदय में वह देवनन्दन का अपमान घाव कर गया।


मैं अब तक तो केवल वह दृश्य देख रहा था। किंतु क्षण-भर में मैंने अपना कर्तव्य निर्धारित कर लिया। मैंने कहा—काले खां, भूलना मत, मेरा नाम है रामनाथ। आज तुमने यदि देवनन्दन को मारा-पीटा, तो मैं तुम्हें जीता न छोडूंगा। मैं रुपए ले आता हूं।


क्रोध और आवेश में कहने को तो मैं यह कहकर गांव में चला आया: पर रुपए कहां से आते! मैं उन्हीं के पट्टीदार के पास पहुंचा; पर सूद का मोल-भाव होने लगा। उनकी स्थावर संपत्ति पर्याप्त न थी। हिंदुओं में परस्पर तनिक भी सहानुभूति नहीं! मैं जल उठा। मनुष्य, मनुष्य के दुख-सुख से सौदा करने लगता है और उसका मापदंड बन जाता है रुपया। मैंने कहा—अच्छा, अच्छा, धामपुर में मेरी कृष्णार्पण माफी है, उसे भी मैं रेहन कर दूंगा।


तहसीलदार साहब ने कहा कि इस बनजरिया के नंबर पर पहले देवनन्दन का नाम था, सो ठीक है। मैंने ही उसके संबंध में रेहन करके फिर इसी माफी को देवनन्दन के नाम बेच दिया। अब मेरे मन में गांव से घोर धृणा हो गई थी। मैं भ्रमण के लिए निकला। गांव पर मेरे लिए कोई बंधन नहीं रह गया। तीर्थों, नगरों और पहाड़ों में मैं घूमता था और गली, चौमुहानी, कुओं पर, तालाबों और घाटों के किनारे, मैं व्याख्यान देने लगा। मेरा विषय था हिंद-जाति का उदबोधन। मैं प्रायः उनकी धनलिप्सा: गह-प्रेम और छोटे-से-छोटे हिंद गृहस्थ की राजमनोवृत्ति की निंदा किया करता! आप देखते नहीं कि हिंदू की छोटी-सी गृहस्थी में कड़ा-करकट तक जुटा रखने की चाल है, और उन पर प्राण से बढ़कर मोह! दसपांच गहने, दो-चार बर्तन, उनको बीसों बार बंधक करना और घर में कलह करना, यही हिंदू-घरों में आए दिन के दृश्य हैं। जीवन का जैसे कोई लक्ष्य नहीं! पद-दलित रहते-रहते उनकी सामूहिक चेतना जैसे नष्ट हो गई है। अन्य जाति के लोग मिट्टी या चीनी के बरतन में उत्तम स्निग्ध भोजन करते हैं। हिंदू चांदी की थाली में भी सतू घोलकर पीता है। मेरी कटुता उत्तेजित हो जाती, तो और भी इसी तरह की बातें बकता। कभी तो पैसे मिलते और कहींकहीं धक्के भी। पर मेरे लिए दूसरा काम नहीं। इसी धुन में मैं कितने बरसों तक घूमता रहा। नर्मदा के तट से घूमकर मैं उज्जैन जा रहा था। अकस्मात् बिना किसी स्टेशन के गाड़ी खड़ी हो गई।

मैंने पूछा-क्या है?

साथ के यात्री लोग भी चकित थे। इतने में रेल के गार्ड ने कहा-भुखमरों की भीड़ रेलवे-लाइन पर खड़ी है।

मैं गाड़ी से उतरकर वह भीषण दृश्य देखने लगा।


संसार का नग्न चित्र, जिसमें पीड़ा का, दुःख का, तांडव नृत्य था। बिना वस्त्र के सैकड़ों नर-कंकाल, इंजिन के सामने लाइन पर खड़े-खड़े और गिरे हए, मुत्य की आशा में टक लगाए थे। मैं रो उठा। मेरे हृदय में अभाव की भीषणता, जो चिनगारी के रूप में थी, अब ज्वाला-सी धधकने लगी।


चतुर गार्ड ने झोली में चंदा के पैसे एकत्र करके कंगलों में बांट दिया और वे समीप के बाजार की ओर दौड़ पड़े। हां, दौड़े। उन अभागों को अन्न की आशा ने बल दिया। वे गिरतेपड़ते चले। मैं भी चला। उनके पीछे-पीछे यह देखते जाता था कि पेड़ों में पत्तियां नहीं बची हैं। टिड्डियां भी इस तरह उन्हें नहीं खा सकतीं; वे तो नस छोड़ देती हैं।


मैंने देखा कि वे भुखमरे बाजार में घुसे; किंतु मैं नहीं जा सका। बाजार के बाहर ही एक वृक्ष के बिना पत्तों वाली डालों के नीचे एक व्यक्ति पड़ा हुआ अपना हाथ मुंह तक ले जाता है और उसे चाटकर हटा लेता है। पास ही एक छोटा-सा जीव और भी निस्तब्ध पड़ा है। मैं दौड़कर अपने लोटे में दूध मोल ले आया। उसके गले में धीरे-धीरे टपकाने लगा। वह आख खोलकर पास ही पड़े हुए शिशु को देखने लगा। शिशु की ओर मेरा ध्यान नहीं गया था। मैं उसे दूध पिलाने लगा।


कहकर बुड्ढा रामनाथ एक बार ठहर गया। उसने चारों ओर देखकर अपनी आखों को उस खंभे की आड़ में ठहरा दिया, जहां तितली बैठी थी।

शैला रूमाल से अपनी औखें पोंछ रही थी, और सुनने वाली जनता चुपचाप स्तब्ध थी।


बुड्ढे ने फिर कहना आरंभ किया—आप लोगों को कष्ट होता है। दुख और दर्द की कहानी सुनाकर मैंने अवश्य आप लोगों का समय नष्ट किया। किंतु करता क्या! अच्छा, जाने दीजिए, मैं अब बहुत संक्षेप में कहता हूं-

हां, तो वह व्यक्ति थे देवनन्दन जिनकी समस्त भू-संपत्ति नीलाम हो गई। धूर-धूर बिक गई। दो संतानों का शरीरांत हो गया। तब उस बची हुई कन्या को लेकर स्त्री के साथ वह परदेश में भीख मांगने चले थे। उस अभागे को नहीं मालूम था कि वह किधर जा रहा था। उस समय अकाल था। कौन भीख देता? जिनके पास रुपया था, उन्हें अपनी चिंता थी। अस्तु, कुलीन वंश की सुकुमारी कुलवधू अधिक कष्ट न सह सकी, वह मर गई। तब देवनन्दन इस शिशु को लेकर घूमने लगे। वह भी मुमूर्ष हो रहा था।


उन्होंने बड़े कष्ट से मुझे पहचानकर केवल इतना कहा—रामनाथ, मैंने सब कुछ बेच दिया; पर तुम्हारा धामपुर का खेत नहीं बेचा है, और यह तितली तुम्हारी शरण में है। मैं तो चला।

हां, वह चल बसे। मैंने तितली को गोद में उठा लिया।


आगे बुड्ढा कुछ न कह सका; क्योंकि तितली सचमुच चीत्कार करती हुई मुर्छित हो गई थी और शैला उसके पास पहुंचकर उसे प्रफुल्लित करने में लग गई थी।


इन्द्रदेव आराम कुर्सी पर लेट गए थे, और सुनने वाले धीरे-धीरे खिसकने लगे।


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