प्रेमाश्रम

 26.

प्रभात का समय था और कुआर का महीना। वर्षा समाप्त हो चुकी थी। देहातों में जिधर निकल जाइए, सड़े हुए सन की सुगन्ध उड़ती थी। कभी ज्येष्ठ को लज्जित करने वाली धूप होती थी, कभी सावन को सरमाने वाले बादल घिर आते थे। मच्छर और मलेरिया का प्रकोप था, नीम की छाल और गिलोय की बाहर थी। चरावर में दूर तक हरी-हरी घास लहरा रही थी। अभी किसी को उसे काटने का अवकाश न मिलता था। इसी समय बिन्दा महाराज और कर्तारसिंह लाठी कंधे पर रखे एक वृक्ष के नीचे आकर खड़े हो गये। कर्तार ने कहा, इस बुड्ढे को खुचड़ सूझती रहती है। भला बताओ, जो यहाँ मवेसी न चरने पायेंगे तो कहाँ जायेंगे और जो लोग सदा से चराते आये हैं, वे मानेंगे कैसे? एक बेर कोई इसकी मरम्मत कर देता तो यह आदत छूट जाती।


बिन्दा– हमका तो ई मौजा मा तीस बरसें होय गईं। तब से कारिन्दे पर चरावर कोऊँ न रोका। गाँव-भर के मवेशी मजे से चरत रहे।


कर्तार– उन्हें हुक्म देते क्या लगता है! जायगी तो हमारे माथे।


बिन्दा– हमार जी तो अस ऊब गया कि मन करत है छोड़-छाड़ के घर चला जाई। सुनित है मलिक अवैया हैं। बस, एक बेर उनसे भेंट होय जाय और अपने घर के राह लेई।


कर्तार– फ़ैजू दिन भर खाट पर पड़ा रहता है, उससे कुछ नहीं कहते। जब देखो, कर्तार को ही दौड़ाते हैं, मानो कर्तार उनके बाप का गुलाम है। और देखो, पीपल के नीचे जहाँ हम-तुम जल चढ़ाते हैं। वहाँ नमाज पढ़ते हैं; वहीं दतुअन-कुल्ली करते हैं, वहीं नहाते हैं। बताओं, धरम नष्ट भया की रहा? आप तो रोज कुरान पढ़ते हैं और मैं रामायण पढ़ने लगता हूँ तो कैसे डाँट के कहते हैं, क्या शोर मचा रखा है। अबकी असाढ़ में ३०० रु. नजराना मिला; मुझे एक पाई भेंट न हुई।


बिन्दा– हमका तो एक रुपया मिला रहै।


कर्तार– यह भी कोई मिलने में मिलना है! और सब कहीं चपरासियों को रुपये में आठ आने मिलते हैं। यह कुछ न दें तो चार आने तो दें, । लेना-देना दूर रहा उस पर आठों पहर सिर पर सवार। कल तुम कहीं गये थे। मुझसे बोले, कर्तार एक घड़ा पानी तो खींच लो। मैंने तुरन्त जवाब दिया, इसके नौकर नहीं है, फौजदारी करा लो, लाठी चलवा लो, अगर कदम पीछे हटायें तो कहो, लेकिन चिलम भरना, पानी खींचना हमारा काम नहीं है। इस पर आँखें बहुत लाल पीली की। एक दिन पीपल के नीचे दाली मूरतों को देखकर बोले, यह क्या ईंट-पत्थर जमा कर रखे हैं। मैंने तो ठान लिया है कि जहाँ अबकी कोई नजराना लेकर आया और मैंने हाथ पकड़ा कि चार आने इधर रखिए। जरा भी नरम-गरम हुए, मुँह से लाम-काफ निकाली और मैंने गरदन दबायी। फिर जो कुछ होगा देखा जायेगा। फैजू बोले, तो उनसे भी मैं समझूँगा। खूब- पड़े-पड़े रोटी-गोस उड़ा रहे हैं, सब निकाल दूँगा... वह देखो मवेशी इधर आ रहे हैं। बलराज तो नहीं है न?


बिन्दा– होबै करी तो कौनो डर हौ। अबकी अस जर आवा है कि ठठरी होय गवा है।


कर्तार– बड़े कस-बल का पट्ठा है। सुक्खू चौखरी का तालाब जहाँ बन रहा था वहीं एक दिन अखाड़े में उससे मेरी एक पकड़ हो गयी थी। मैं उसे पहले ही झपाटे में नीचे लाया; लेकिन ऐसा तड़प के नीचे से निकला कि झोकों में आ गया। सँभल ही न सका। बदन नहीं, लोहा है।


बिन्दा– निगाह का बड़ा सच्चा जवान है। क्या मजा कि कोऊ बिटिया-महरिया की ओर आँखें उठाके ताके।


कर्तार– वह देखो, फैजू और गौस खाँ भी इधर ही आ रहे हैं। आज कुशल नहीं दीखती।


बिन्दा– यह गायें-भैंसें तो मनोहर के जान पड़ते हैं। बिलासी लीने आवत है।


कर्तार ने उच्च स्वर में कहा, यह कौन मवेशी लिये आता है? यहाँ से निकाल ले जाव, सरकारी हुक्म नहीं है। इतने में बिलासी निकट आ गयी और बिन्दा महाराज की ओर निश्चिंत भाव से देखकर बोली, सुनत हौ महाराज ठाकुर की बात!


कर्तार– सरकारी हुक्म हो गया कि अब कोई जानवर यहाँ न चरने पाये।


बिलासी– कौन-सा सरकारी हुकुम? सरकार की जमीन नहीं है। महाराज, तुम्हें तो यहाँ एक युग बीत गया, कभी किसी ने चराई भी मना किया है?


बिन्दा– उस पुरानी बातन का न गाओ, अब ऐसे हुकुम भवा है। जानवर का और कौनो कैत ले जाव, नाहीं तो वह गौस खाँ आवत है, सभन का पकड़ के कानी हौद पठै दैहैं?


बिलासी– कानी हौद कैसे पठै दैहैं, कोई राहजनी है? हमारे मवेशी सदा से यहाँ चरते आये हैं और सदा यहीं चरेंगे। अच्छा सरकारी हुकुम है, आज कह दिया चरावर के छोड़ दो, कल कहेंगे अपना घर छोड़ो, पेड़ तले जाकर रहो। ऐसा कोई अन्धेर है!


इतने में गौस खाँ और फैजू भी आ पहुँचे। बिलासी के अन्तिम शब्द खाँ साहब के कान में पड़े। डपटकर बोले, अपने जानवरों को फौरन निकाल ले जा, वरना मवेशीखाना भेज दूँगा।


बिलासी– क्यों निकाल ले जाऊँ चरावर सारे गाँव का है। जब सारा गाँव छोड़ देगा तो हम भी छोड़ देंगे।


गौस खाँ– जानवरों को ले जाती है कि खड़ी-खड़ी कानून बघारती है?


बिलासी– तुम तो खाँ साहब, ऐसी घुड़की जमा रहे हो, जैसे मैं तुम्हारा दिया खाती हूँ।’


गौस खाँ– फैजू जबाँदराज औरत यों न मानेगी। घेर लो इसके जानवरों को और मवेशीखाने हाँक ले जाओ।


फैजू तो मवेशियों की तरफ लपका, पर कर्तार और बिन्दा महाराज धर्मसंकट में पड़े खड़े रहे। खाँ साहब ने उन्हे ललकारा- खड़े मुँह क्या देख रहे हो? घेर लो जानवरों को और हाँक ले जाओ। सरकारी हुक्म है या कोई मजाक है।


अब कर्तार और बिन्दा महाराज भी उठे और जानवरों को चारों ओर से घेरने का आयोजन करने लगे। मवेशियों ने चौकन्नी आँखों से देखा, कान खड़े किये और इधर-उधर बिदकने लगे। परिस्थिति को ताड़ गये। बिलासी ने कहा, मैं कहती हूँ इन्हें मत घेरो, नहीं तो ठीक न होगा।


किन्तु किसी ने उसकी धमकी पर ध्यान न दिया। थोड़ी देर में सब जानवर बीच में घिर गये। और कन्धे से कन्धा मिलाये, कनखियों से ताकते, तीनों चपरासियों के साथ धीरे-धीरे चले। बिलासी एक संदिग्ध दशा में मूर्तिवत खड़ी थी। जब जानवर कोई बीस कदम निकल गये तब वह उन्मत्त की भांति दौड़ी और हाँपते हुए बोली, मैं कहती हूँ इन्हें छोड़ दे, नहीं तो ठीक न होगा।


फैजू– हट जा रास्ते से। कुछ शामत तो नहीं आयी है।


बिलासी रास्ते में खड़ी हो गयी और बोला, ले कैसे जाओगे? दिल्लगी है?


गौस खाँ– न हटे तो इसकी मरम्मत कर दो।


बिलासी– कह देती हूँ, इन जानवरों के पीछे लोहू की नदी बह जायेगी। माथे गिर जायेंगे।


फैजू– हटती है या नहीं चुड़ैल?


बिलासी– तू हट जा दाढ़ीजार।


इतना उसके मुँह से निकलना था कि फैजू ने आगे बढ़कर बिलासी की गर्दन पकड़ी और उसे इतने जोर का झोंका दिया कि वह दो कदम पर जा गिरी उसकी आँखें तिलमिला गयी, मूर्छा-सी आ गयी। एक क्षण वह वहीं अचेत पड़ी रही, तब उठी और लँगडाती हुई उन पुरुषों से अपनी अपमान कथा कहने चली जो उसके मान-मर्यादा के रक्षक थे।


मनोहर और बलराज दोनों एक दूसरे गाँव में धान काटने गये थे। वह यहाँ से कोस भर पड़ता था। लखनपुर में धान के खेत न थे। इसलिए सभी लोग प्रायः उसी गाँव में धान बोते थे। बिलासी धान के मेड़ों पर चली जाती थी। कभी पैर इधर फिसलते, कभी उधर वह ऐसी उद्विग्न हो रही थी कि किसी प्रकार उड़कर वहाँ पहुँच जाऊँ। पर घुटनियों में चोट आ गयी थी। इसी लिए विवश थी। उसके रोम-रोम से अग्नि की ज्वाला निकल रही थी। अंग-अंग में यही ध्वनि निकलती थी– इनकी इतनी मजाल ।


उसे इस समय परिणाम और फल की लेशमात्र भी चिन्ता न थी। कौन मरेगा? किसका घर मिट्टी में मिलेगा? यह बातें उसके ध्यान में न भी आती थीं। वह संकल्प, विकल्प के बन्धन से मुक्त हो गयी थी।


लेकिन जब उस गाँव के समीप पहुँची और धान से लहराते हुए खेत दिखायी देने लगे तो पहली बार उसके मन में यह प्रश्न उठा, कि इसका फल क्या होगा? बलराज एक ही क्रोधी है, मनोहर उससे भी एक अंगुल आगे। मेरा रोना सुनते ही दोनों भभक उठेंगे। जान पर खेल जायेंगे, तब? किन्तु आहत हृदय ने उत्तर दिया; क्या हानि है? लड़कों के लिए आदमी क्या झींकता है। पति के लिये क्यों रोता है? इसी दिन के लिए तो? इस कलमुँह फैजू का मान मरदन तो हो जायेगा! गौस खाँ का घमंड तो चूर-चूर हो जायेगा।


तब भी, जब वह अपने खेतों के डाँडे पर पहुँची, मनोहर और बलराज नगर आने लगे तब उसके पैर आप ही रुकने लगे। यहाँ तक कि जब वह उनके पास पहुँची तब परिणाम चिन्ता ने उसे परास्त कर दिया। वह फूट-फूटकर रोने लगी। जानती थी और समझती थी कि यह आँसू की बूँदें आग की चिनगारियाँ हैं। पर आवेश पर अपना काबू न था! वह खेत के किनारे खड़ी हो गयी और मुँह ढाँपकर रोने लगी।


बलराज ने सशंक होकर पूछा– अम्मा क्या बात है? रोती क्यों है? क्या हुआ? यह सारा कपड़ा कैसे लोहूलुहान हो गया?


बिलासी ने साड़ी की ओर देखा तो वास्तव में रक्त के छींटे दिखायी दिये, घुटनियों से खून बह रहा था, उसका हृदय थर-थर काँपने लगा। इन छींटों को छिपाने के लिए वह इस समय अपने प्राण तक दे सकती थी। हाय! मेरे सिर पर कौन सा भूत सवार हो गया कि यहाँ दौड़ी आयी! मैं क्या जानती थी कि कहीं फूट-फाट भी गया है। अब गजब हो गया! मुझे चाहिए था कि धीरज धरे बैठी रहती। साँझ को जब यह लोग घर जाते और गाँव के सब आदमी जमा होते तो सारा वृत्तान्त कह देती। जैसी सबकी सलाह होती, वैसा किया जाता। इस अव्यवस्थित दशा में कोई शान्तिप्रद उत्तर न सोच सकी।


बलराज ने फिर पूछा– कुछ मुँह से बोलती क्यों नहीं? बस रोये जाती है। क्या हुआ, कुछ बता भी तो!


बिलासी– (सिसकते हुए) फैजू और गौस खाँ हमारी सब गायें-भैंसें कानी हौद हाँक ले गये।


बलराज– क्यों? क्या उनकी सीर में पड़ी थीं?


बिलासी– नहीं, कहते थे कि चरावर चराने की मनाही हो गयी है।


बलराज ने देखा कि माता की आँखें झुकी हुई हैं और मुख पर मर्माघात की आभा झलक रही है। उसने उग्रावस्था में स्थिति को उससे कहीं, भयंकर समझ लिया, जितनी वह वस्तुतः थी कुछ और पूछने की हिम्मत न पड़ी। आँखें रक्त-वर्ण हो गयीं। कंधे पर लट्ठ रख लिया और मनोहर से बोला, मैं ज़रा गाँव तक जाता हूँ।


मनोहर– क्या काम है?


बलराज– फैजू और गौस खाँ से दो-दो बातें करनी हैं।


मनोहर– ऐसी बात करने का यह मौका नहीं। अभी जाओगे तो बात बढ़ेगी और कुछ हाथ भी न लगेगा। चार आदमी तुम्हीं को बुरा कहेंगे। अपमान का बदला इस तरह नहीं लिया जाता।


मनोहर के हर शब्दों में इतना भयंकर संकल्प, इतना घातक निश्चय भर हुआ था कि बलराज अधिक आग्रह न कर सका। उसने लाठी रख दी और माँ से कहा, अभी घर जाओ। हम लोग आयेंगे तो देखा जायेगा।


मनोहर– नहीं, घर मत जाओ। यहीं बैठो। साँझ को सब जने साथ ही चलेंगे। वह कौन दौड़ा आ रहा है? बिन्दा महाराज हैं क्या?


बलराज– नहीं, कादिर दादा जान पड़ते हैं। हाँ, वहीं हैं। भागे चले जाते हैं। मालूम होता हैं गाँव में मारपीट हो गयी। दादा क्या है, कैसे दौड़े आते हो, कुशल तो है?


कादिर ने दम लेकर कहा, तुम्हारे ही पास तो दौड़े आते हैं। बिलासी रोती आयी है। मैं डरा तुम लोग गुस्से में न जाने क्या कर बैठो। चला कि राह में मिल जाओगे तो रोक लूँगा, पर तुम कहीं मिले ही नहीं। अब तो जो हो गया सो हो गया, आगे की खबर करो। आज से ज़मींदार ने चरावर रोक दी है। अन्धेर देखते हो?


मनोहर– हाँ, देख तो रहा हूँ। अन्धेर-ही-अन्धेर है।


कादिर– फिर अदालत जाना पड़ेगा।


मनोहर– चलो, मैं तैयार हूँ।


कादिर– हाँ, आज जाओ तो सलाह पक्की करके सवाल दे दें। अबकी हाईकोर्ट तक लड़ेंगे, चाहे घर बिक जाय। बस, हल पीछे चन्दा लगा लिया जाय।


मनोहर– हाँ, यही अच्छा होगा।


कादिर– मैं नवाज पढ़ता था, सुना बिलासी को चरावर में चपरासियों ने बुरा-भला कहा और वह रोती हुई इधर-उधर आयी है। समझ गया कि आज गजब हो गया। बारे तुमने सबर से काम लिया अल्लाह इसका सवाब तुमको देगा। तो मैं अब जाता हूँ, अपने चन्दे की बातचीत करता हूँ। जरा दिन रहते चले आना।


कादिर खाँ सावधान चले गये। यह न समझे कि यहाँ मन में कुछ और ठन गयी है। मनोहर के तुले हुए शब्दों को उन्होंने मानसिक धैर्य का द्योतक समझा।


मनोहर ऐसे उद्दीप्त उत्साह से अपने काम में दत्तचित्त था मानो उसकी युवावस्था का विकास हो गया है। धान के पोलों के ढेर लगते जाते थे। न आगे ताकता था, न पीछे, न किसी से कुछ बोलता था, न किसी की कुछ सुनता था, न हाथ थकते थे, न कमर दुखती थी। बलराज ने चिलम भरकर रख दी। तम्बाखू रखे-रखे जल गया। बिलासी खाँड का रस घोलकर सामने लायी। उसने उसकी ओर देखा तक नहीं, कुत्ता पी गया। कुआर की धूप थी, देह से चिनगारियाँ निकलती थीं, पसीने की धारें बहती थीं; किन्तु वह सिर तक न उठाता था। बलराज कभी खेत में आता, कभी पेड़ के नीचे जा बैठता, कभी चिलम पीता। एक ही अग्नि दोनों के हृदय में प्रज्वलित थी, एक ओर सुलगती हुई, दूसरी ओर दहकती हुई। एक ओर वायु के वेग से चंचल, दूसरी ओर निर्बलता से निश्चल। एक ही भावना दोनों के हृदय में थी, एक में उद्दाम-उच्छृंखल, दूसरे में गम्भीर और स्थिर।


दोपहर हुई। बिलासी ने आकर डरते-डरते कहा– चबेना कर लो।


मनोहर ने सिर झुकाये हुए जवाब दिया– चलो आते हैं।


एक घण्टे के बाद बिलासी फिर आकर बोली– चलो, चबेना कर लो, दिन ढल गया। क्या आज ही सब खेत काट लोगे?


मनोहर ने कठोर स्वर में कहा– हाँ, यही विचार है। कौन जाने, कल आये या न आये!


जैसे किसी भरे हुए घड़े में एक कंकर लग जाय और पानी बह निकले, उसी भाँति बिलासी के हृदय में एक चोट-सी लगी और आँसू बहने लगे। वह रह-रह कर हाथ मलती थी। हाय! न जाने इन्होंने मन में क्या ठान लिया है?


वह कई मिनट तक खड़ी रोती रही। परिणाम की भयावह विकराल मूर्ति उसके नेत्रों के सामने नाच रही थी। मुँह खोले उसे निगलने को दौड़ती थी और शोक! इस मूर्ति को उसने अपने हाथों रचा था। अन्त में वह मनोहर के सम्मुख बैठ गयी और उसकी ओर अत्यन्त दीन भाव से देखकर बोली, हाथ जोड़कर कहती हूँ, चलकर चबेना कर लो। तुम्हारे इस तरह से गुमसुम रहने से मेरा कलेजा दहल रहा था। तुमने क्या ठान ली है, बोलते क्यों नहीं?


मनोहर– जाकर चुपके से बैठो। जब मुझे भूख लगेगी तब खा लूँगा।


बिलासी– हाय राम! तुम क्या करने पर तुले हो?


मनोहर– करूँगा क्या? कुछ करने ही लायक होता तो आज यह बेइज्जती नहीं होती। जो कुछ तकदीर में है वह होगा।


यह कहकर वह फिर अपने कार्य में व्यस्त हो गया। कोई किसी से न बोला। बलराज टालमटोल करता रहा और बिलासी उदास बैठी कभी रोती और कभी अपने को कोसती, यहाँ तक कि सन्ध्या हो गयी। तीनों ने धान के गट्ठे गाड़ी पर लादे और लखनपुर चले। बलराज गाड़ी हाँकता था और मनोहर पीछे-पीछे उच्च स्वर से एक बिरहा गाता हुआ चला आता था। राह में कल्लू अहीर मिला, बोला, मनोहर काका आज बड़े मगन हो। मनोहर का गाना समाप्त हुआ तो उसने भी एक बिरहा गाया। दोनों साथ-साथ गाँव में पहुँचे तो एक हलचल-सी मची हुई थी। चारों ओर चरावर की ही चर्चा थी। कादिर के द्वार पर एक पंचायत सी बैठी हुई थी। लेकिन मनोहर पंचायत में न जाकर सीधा घर गया और जाते-ही-जाते भोजन माँगा। बहू ने रसोई तैयार कर रखी थी। इच्छापूर्ण भोजन करके नारियल पीने लगा। थोड़ी देर में बलराज भी पंचायत से लौटा। मनोहर ने पूछा, कहो क्या हुआ?


बलराज– कुछ नहीं, यह सलाह हुई है कि खाँ साहब को कुछ नजर-वजर दे कर मना लिया जाय। अदालत में सब लोग घबड़ाते हैं।


मनोहर– यह तो मैं पहले से ही समझ गया था। अच्छा जाकर चटपट खा-पी लो। आज मैं भी तुम्हारे साथ रखवाली करने चलूँगा। आँख लग जाय तो जगा लेना।


एक घंटे बाद दोनों खेत की ओर चलने को तैयार हुए, मनोहर ने पूछा, कुल्हाड़ा खूब चलता है न?


बलराज– हाँ, आज ही तो रगड़ा है।


मनोहर– तो उसे ले लो।


बलराज– मेरा कलेजा थर-थर काँप रहा है।


मनोहर– काँपने दो। तुम्हारे साथ मैं भी तो रहूँगा। तुम दो-एक हाथ चलाके वहाँ से लम्बे हो जाना और सब मैं देख लूँगा। इस तरह आके सो रहना, जैसे कुछ जानते ही नहीं। कोई कितना ही पूछे, डरावे धमकावे मुँह मत खोलना। मैं अकेले ही जाता, मुदा एक तो मुझे अच्छी तरह सूझता नहीं, कई दिनों से रतौंधी होती है, दूसरे हाथों में अब वह बल नहीं कि एक चोट में वारा-न्याय हो जाय।


मनोहर यह बातें ऐसी सावधानी से कह रहा था, मानो कोई साधारण घरेलू बातचीत हो। बलराज इसके प्रतिकूल इसके शंका और भय से आतुर हो रहा था। क्रोध के आवेश में वह आग में कूद सकता था, किन्तु इस पैशाचिक हत्याकाण्ड से उसके प्राण सूख जाते थे।


खेत में पहुँचकर दोनों मचान पर लेटे। अमावस की रात थी। आकाश पर कुछ बादल भी आये थे। चारों ओर घोर अन्धकार छाया हुआ था।


मनोहर तो लेटते ही खर्राटे लेने लगा, लेकिन बलराज पड़ा-पड़ा करवटें बदलता रहा। उसका हृदय नाना प्रकार की शंकाओं का अविरल स्रोत्र बना हुआ था।


दो घड़ी बीतने पर मनोहर जागा, बोला, बसराज सो गये क्या?


बलराज– नहीं, नींद नहीं आती।


मनोहर– अच्छा, तो अब राम का नाम लेकर तैयार हो जाओ। डरने या घबराने की कोई बात नहीं। अपने मरजाद की रक्षा करना मरदों का काम है। ऐसे अत्याचारों का हम और क्या जवाब दे सकते हैं? बेइज्जत होकर जीने से मर जाना अच्छा है। दिल को खूब सँभालो। अपना काम करके सीधे यहाँ चले आना। अंधेरी रात है। किसी की नजर भी नहीं पड़ सकती। थानेदार तुम्हें डरायेंगे, लेकिन खबरदार, डरना मत! बस गाँव के लोगों से मेल रक्खोगे तो कोई तुम्हारा बाल भी बाँका न कर सकेगा। दुखरन भगत अच्छा आदमी नहीं है, उससे चौकन्ने रहना। हाँ, कादिर भरोसे का आदमी है। उसकी बातों का बुरा मत मानना। मैं तो फिर लौटकर घर न आऊँगा। तुम्हीं घर के मालिक बनोगे, अब वह लड़कपन छोड़ देना, कोई चार बात कहे तो गम खाना। ऐसा कोई काम न करना कि बाप-दादे के नाम को कलंक लगे। अपनी घरवाली को सिर मत चढ़ाना। उसे समझाते रहना कि सास के कहने में रहे। मैं तो देखने न आऊँगा, लेकिन इसी तरह घर में रार मचता हो तो घर मिट्टी में मिल जायेगा।


बलराज ने अवरुद्ध कंठ से कहा, दादा मेरी इतनी बात मानो, इस बखत सबुर कर जाओ! मैं कल एक-एक की खोंपड़ी तोड़कर रख दूँगा।


मनोहर– हाँ, तुम्हें कोई मारे तो तुम संसार भर को मार गिराओ। फैजू और कर्तार क्या मिट्टी के लोंदे हैं? गौस खाँ भी पलटन में रह चुका है। तुम लकड़ी में उनसे पेश न पा सकोगे। वह देखो, हिरना निकल आया। महाबीर जी का नाम लेकर उठ खड़े हो। ऐसे कामों में आगा-पीछा अच्छा नहीं होता। गाँव के बाहर ही चलाना होगा, नहीं तो कुत्ते भूँकेंगे और जाग उठेंगे।


बलराज– मेरे तो हाथ-पैर काँप रहे हैं।


मनोहर– कोई परवा नहीं। कुल्हाड़ी हाथ में लोगे तो सब ठीक हो जायेगा। तुम मेरे बेटे हो, तुम्हारा कलेजा मजबूत है। तुम्हें अभी जो डर लग रहा है, वह ताप के पहले का जाड़ा है। तुमने कुल्हाड़ा कन्धे पर रक्खा, महाबीर का नाम लेकर उधर चले, तो तुम्हारी आँखों से चिनगारियाँ निकलने लगेंगी। सिर पर खून सवार हो जायेगा। बाज की तरह शिकार पर झपटोगे। फिर तो मैं तुम्हें मना भी करूँ तो न सुनोगे। वह देखो सियार बोलने लगे, आधी रात हो गयी। मेरा हाथ पकड़ लो और आगे-आगे चलो। जय महाबीर की!


27.


प्रेमशंकर की कृषिशाला अब नगर के रमणीय स्थानों की गणना में थी। यहाँ ऐसी सफाई और सजावट थी। कि प्रातः रसिकगण सैर करने आया करते। यद्यपि प्रेमशंकर केवल उसके प्रबन्धकर्ता थे, पर वस्तुतः असामियों की भक्ति और पूर्ण विश्वास ने उन्हें उसका स्वामी बना दिया था। अब अपनी इच्छानुसार नयी-नयी फसलें पैदा करते; नाना प्रकार की परीक्षाएँ करते, पर कोई जरा भी न बोलता। और बोलता ही क्यों, जब उनकी कोई परीक्षा असफल न होती थी! जिन खेतों में मुश्किल से पाँच-सात मन उपज होती थी, वहाँ अब पन्द्रह-बीस मन का औसत पड़ता था। उस पर बाग की आमदनी अलग थी। इन्हीं चार सालों में कलमी आम, बेर, नारंगी आदि के पेड़ों में फल लगने शुरू हो गये थे। शाक-भाजी की पैदावार घाटे में थी। प्रेमशंकर में व्यावसायिक संकीर्णता छू तक न गयी थी। जो सज्जन यहाँ आ जाते उन्हें फूल-फलों की डाली अवश्य भेंट की जाती थी। प्रेमशंकर की देखा-देखी हाजीपुर वालों ने भी अपने जीवन का कुछ ऐसा डौल कर लिया था कि उनकी सारी आवश्यकताएँ उसी बगीचे से पूरी हो जाती थीं। भूमि का आठवाँ भाग कपास के लिए अलग कर दिया गया था। अन्य प्रान्तों से उत्तम बीज मँगाकर बोये गये थे। गाँव के लोग स्वयं सूत कात लेते थे और गाँव का ही कोरी उसके कपड़े बुन देता था। नाम उसका मस्ता था। पहले वह जुआ खेला करता था और कई बार-चोरी में पकड़ा गया था। लेकिन अब उसने श्रम से गाँव में भले आदमियों में गिना जाता था। प्रेमशंकर के उद्योग से आसपास के गाँवों में भी कपास की खेती होने लगी थी और कितने ही कोरियों और जुलाहों के उजड़े हुए घर आबाद हो गये थे। देहातों के मुकदमेबाज ज़मींदार और किसान बहुधा इसी जगह ठहरा करते थे। यहाँ इन्हें ईंधन, शाक-भाजी, नमक-तेल के लिए पैसे खर्च करने पड़ते थे। प्रेमशंकर उनसे खूब बातें करते और उन्हें बगीचे की सैर कराते। साधु-सन्तों का तो मानों अखाड़ा ही था। दो-चार मूर्तियाँ नित्य ही पड़ी रहती थीं। न जाने उस भूमि में क्या बरकत थी कि इतनी आतिथ्य-सेवा करने पर भी किसी पदार्थ की कमी न थी। हाजीपुर वाले तो उन्हें देवता समझते थे और अपने भाग्य को सराहते थे कि ऐसे पुण्यात्मा ने हमें उबारने के लिए यहाँ निवास किया। उनके सदय, उदार, सरल स्वभाव ने मस्ता कोरी के अतिरिक्त गाँव के कई कुचरित्र मनुष्यों का उद्धार कर दिया था। भोला अहीर जिसके मारे खलियान में अनाज न बचता था, दमड़ी पासी जिसका पेशा ही लठैती था, अब गाँव के सबसे मेहनती और ईमानदार किसान थे।


प्रेमशंकर अक्सर कृषकों की आर्थिक दुरवस्था पर विचार किया करते थे। अन्य अर्थशास्त्रवेत्ताओं की भाँति वह कृषकों पर फजूलखर्ची, आलस्य, अशिक्षा या कृषि-विधान से अनभिज्ञता को दोष लगाकर इस प्रश्न को हल न करते थे। वह परोक्ष में कहा करते थे कि मैं कृषकों को शायद ही कोई ऐसी बात बता सकता हूँ जिसका उन्हें ज्ञान न हो। परिश्रमी तो इनसे अधिक कोई संसार में न होगा। मितव्ययिता में, आत्मसंयम में, गृह-प्रबन्ध में वे निपुण हैं। उनकी दरिद्रता का उत्तरदायित्व उन पर नहीं, बल्कि उन परिस्थितियों पर है जिनके अधीन उनका जीवन व्यतीत होता है। और यह परिस्थितियाँ क्या हैं? आपस की फूट, स्वार्थपरता और एक ऐसी संस्था का विकास, जो उनके पाँव की बेड़ी बनी हुई है। लेकिन जरा और विचार कीजिए तो यह तीनों कहानियाँ एक ही शाखा से फूटी हुई प्रतीत होंगी और यह वही संस्था है जिसका अस्तित्व कृषकों के रक्त पर अवलम्बित है। आपस में विरोध क्यों? दुरवस्थाओं के कारण, जिनकी इस वर्तमान शासन ने सृष्टि की है। परस्पर प्रेम और विश्वास क्यों नहीं है? इसलिए कि यह शासन इन सद्भावों को अपने लिए घातक समझता है और उन्हें पनपने नहीं देता। इस परस्पर विरोध का सबसे दुःखजनक फल क्या है? भूमि का क्रमशः अत्यन्त अल्प भागों में विभाजित हो जाना और लगान की अपरिमित वृद्धि। प्रेमशंकर इस शासन के सुधार को तो मानव शक्ति से परे समझते थे, लेकिन भूमि पर के बँटवारे को रोकना उन्हें साध्य जान पड़ता था और यद्यपि किसी आन्दोलन में अगुआ बनना उन्हें पसन्द न था। किन्तु इस विषय में वह इतने उत्सुक थे कि समाचार-पत्रों में अपने मन्तव्यों को प्रकट करने से न रुक सके। इससे उनका उद्देश्य केवल यह था कि कोई मुझसे अधिक अनुभवशील, कुशल और प्रतिभाशाली व्यक्ति इस प्रश्न को अपने हाथ में ले ले।


एक दिन वह कई सहृदय मित्रों के साथ बैठे हुए इसी विषय पर बातचीत कर रहे थे कि एक सज्जन ने कहा, यदि आपका विचार है कि यह प्रथा कानून से बन्द की जा सकती है तो आपकी भ्रान्ति है। इस विष-युक्त पौधे की जड़ें मनुष्य के हृदय में हैं और जब तक इसे हृदय से खोदकर न निकालिएगा यह इसी प्रकार फूलता-फलता रहेगा।


प्रेमशंकर– कानून में कुछ-न-कुछ सुधार तो हो ही सकता है!


इस पर उन महाशयों ने जोर देकर कहा, कदापि नहीं। बल्कि स्वार्थ प्रत्यक्ष रूप से स्फुटित होने का अवसर न पाकर और भी भयंकर रूप धारण कर लेगा।


इस पर एक किसान जो बँटवारे की दरख्वास्त करके कचहरी से लौटा था और आज यहीं ठहरा हुआ था, बोल उठा, कहूँ कुछ न होई। हम तो आपे लोगन के पीछे-पीछे चलित हैं। जब आपके लोगन में भाई-भाई में निबाह नाहीं होय सकत है तो हमार कस होई? आपका नारायण सब कुछ दिये हैं, मुदा आपे अपने भाई से अलग रहत हो।


ये उच्छृंखल शब्द प्रेमशंकर के हृदय में तीर के समान चुभ गये। सिर झुका लिया। मुखश्री मलीन हो गयी। मित्रों ने कृषक की ओर तिरस्कार-पूर्ण नेत्रों से देखा। यह एक जगत् व्यापार था। यह व्यक्तियों को खींचना नितान्त न्याय-विरुद्ध था, पर वह अक्खड़ देहाती सभ्यता के रहस्यों को क्या जानें? मुँह में जो बात आयी कह डाली। एक महाशय ने कहा, निरे गँवार हो, जरा भी तमीज नहीं।


दूसरे महाशय बोले, अगर इतना ही ज्ञान होता तो देहाती क्यों कहलाते? न अवसर का ध्यान, न औचित्य का विचार, जो कुछ ऊँटपटाँग मुँह में आया, बक डाला।


बेचारे किसान को अब मालूम हुआ कि मुँह से कोई अनुचित बात निकल गयी। लज्जित होकर बोला, साहब, मैं गँवार मनई। ई सब फेरफान का जानौं। जौन कुछ भूल चूक हो गयी होय माफ की जाय।


प्रेमशंकर– नहीं-नहीं, तुमने कोई अनुचित बात नहीं कही। मेरे लिए इस स्पष्ट कथन की आवश्यकता थी। तुमने अच्छी शिक्षा दे दी। कोई सन्देह नहीं कि शिक्षित जनों में भी विरोध और वैमनस्य का उतना ही प्रकोप है जितना अशिक्षित लोगों में है और मैं स्मयं इस विषय में दोषी हूँ। मुझे किसी को समझाने का अधिकार नहीं।


मित्रगण कुछ देर तक और बैठे रहे, लेकिन प्रेमशंकर कुछ ऐसे दब गये कि फिर जबान ही न खुली। अन्त में सब एक-एक करके चले गये।


सूर्यास्त हो रहा था। प्रेमशंकर घोर चिन्ता की दशा में अपने झोंपड़े के सामने टहल रहे थे। उनके सामने अब यह समस्या थी कि ज्ञानशंकर से कैसे मेल हो। वह जितना ही विचार करते थे उतना ही अपने को दोषी पाते थे। यह सब मेरी ही करनी है। जब असामियों से उनकी लड़ाई ठनी हुई थी तो मुझे उचित नहीं था कि असामियों का पक्ष ग्रहण करता। माना कि ज्ञानशंकर का अत्याचार था! ऐसी दशा में मुझे अलग रहना चाहिए था या उन्हें भ्रातृवत् समझाना चाहिए था। यह तो मुझसे न हुआ। उल्टे उन्हीं से लड़ बैठा। माना कि उनके और मेरे सिद्धान्तों में घोर अन्तर है, लेकिन सिद्धान्त-विरोध परस्पर भ्रातृ-प्रेम को क्यों दूषित करे? यह भी माना कि जब से मैं आया हूँ उन्होंने मेरी अवहेलना ही की है, यहाँ तक कि मुझे पत्नी-प्रेम से वंचित कर दिया, पर मैंने भी तो कभी उनसे मिले रहने की, उनसे कटु व्यवहार को भूल जाने की, उसकी अप्रिय बातों को सह लेने की चेष्टा नहीं की। वह मुझसे एक अंगुल खसके तो मैं उनसे हाथ भर हट गया। सिद्धान्त-प्रियता का यह आशय नहीं है कि आत्मीय जनों से विरोध कर लिया जाय। सिद्धान्तों को मनुष्यों से अधिक मान्य समझना अक्षम्य है। उनके हृदय को अपनी तरफ से साफ करने का यह अच्छा अवसर है।


सन्ध्या हो गयी थी। ज्ञानशंकर अपने सुरम्य बँगले के सामने मौलवी ईजाद हुसेन के साथ बैठे बातें कर रहे थे। मौलवी साहब ने सरकारी नौकरी में मनोनुकूल सफलता न देख इस्तीफा दे दिया था और कुछ दिनों से जाति-सेवा में लीन हो गये थे। उन्होंने ‘‘अंजुमन इत्तहाद’’ नाम की एक संस्था खोल, ली थी, जिसका उद्देश्य हिन्दू-मुसलमानों में परस्पर प्रेम और मैत्री बढ़ाना था। यह संस्था चन्दे से चलती थी और इसी हेतु से सैयद साहब यहाँ पधारे थे।


ज्ञानशंकर ने कहा, मुझे एक दिन-दिन का तजरबा हो रहा है कि ज़मींदारी करने के लिए बड़ी सख्ती की जरूरत है। ज़मींदार नजर-नजराना, हरी, बेगार, डाँड़-बाँध सब कुछ छोड़ सकता है, लेकिन लगान तो नहीं छोड़ सकता है। वह भी अब बगैर अदालती कार्यवाई के नहीं वसूल होता।


ईजाद हुसेन– जनाब बजा फरमाते हैं, लेकिन गुलाम ने ऐसे रईसों को भी देखा है जो कभी अदालत के दरवाजे तक न गये। जहाँ किसी असामी ने सरकशी की, उसकी मरम्मत कर दी और लुत्फ यह कि कभी डण्डे या हण्टर से काम नहीं लिया। गरमी में झुलसती हुई धूप और जाड़े में बर्फ का-सा ठण्डा पानी। बस, इसी लटके से उनकी सारी मालगुजारी वसूल हो जाती है। मई और जून की धूप जरा देर सिर पर लगी और असामी ने कमर ढीली की।


ज्ञानशंकर– मालूम नहीं, ऐसे आदमी कहाँ हैं? यहाँ तो ऐसे बदमाशों से पाला पड़ा है जो बात-बात पर अदालत का रास्ता लेते हैं। मेरे ही मौजे को देखिए, कैसा तूफान उठ गया और महज चरावर को रोक देने के पीछे।


इतने में डॉक्टर इर्फान अली बार-ए-ट्ला की मोटर आ पहुँची। ज्ञानशंकर ने उनका स्वागत किया।


डॉक्टर– अबकी आपने बड़ा इन्तजार कराया। मैं तो आपसे मिलने के लिए गोरखपुर आने वाला था।


ज्ञानशंकर– रियासत का काम इतना फैला हुआ है कि कितना ही समेटूँ, नहीं सिमटता।


डॉक्टर– आपको मालूम तो होगा, यहाँ युनिवर्सिटी में इकनोमिक्स की जगह खाली है। अब तो आप सिण्डिकेट में भी आ गये हैं।


ज्ञानशंकर– जी हाँ, सिण्डिकेट में तो लोगों ने जबरदस्ती धर घसीटा लेकिन यहाँ रियासत के कामों में फुर्सत कहाँ कि इधर तवज्जह करूँ। कुछ कागजात गये थे, लेकिन मुझे उनके देखने का मौका ही न मिला।


डॉक्टर– डॉक्टर दास के चले जाने से यह जगह खाली हो गयी है और मैं इसका उम्मीदवार हूँ।


ज्ञानशंकर ने आश्चर्य से कहा, आप!


डॉक्टर– जी हाँ, अब मैंने यही फैसला किया है। मेरी तबीयत रोज-ब-रोज वकालत से बेजार होती जाती है।


ज्ञानशंकर– आखिर क्यों? आपकी वकालत तो तीन-चार हजार से कम की नहीं। हुक्काम की खुशामद तो नहीं खलती? या काँसेन्स (आत्मा) का खयाल है?


डॉक्टर– जी नहीं, सिर्फ इसलिए कि इस पेशे में इन्सान की तबियत बेजा जरपरस्ती की तरफ मायल हो जाती है। कोई ‘वकील कितना ही हकशिनास क्यों न हो, उसे हमदर्दी और इन्सानियत से खुशी नहीं होती जो एक शरीफ आदमी को होनी चाहिए। इसके खिलाफ आपस की लड़ाइयों और दगाबाजियों से एक खास दिलचस्पी हो जाती है, वह एक दूसरी ही दुनिया में पहुँच जाता है, जो लतीफ जज़बात से खाली है। मैं महानों से इसी कशमकश में पड़ा हुआ हूँ और अब भी यह इरादा है कि जितनी जल्द मुमकिन हो इस पेशे को सलाम करूँ।


यही बातें हो रही थीं कि फैजू और कर्तार सिंह ने सामने आकर सलाम किया। ज्ञानशंकर ने पूछा, कहो खैरियत तो है।


फैजू– हुजूर, खैरियत क्या कहें! रात को किसी ने खाँ साहब को मार डाला।


ईजाद हुसेन और इर्फान अली चौंक पड़े, लेकिन ज्ञानशंकर लेश-मात्र भी विचलित न हुए, मानो उन्हें यह बात पहले ही मालूम थी। बोले, तुम लोग कहाँ थे? कहीं सैर-सपाटे करने चले दिये थे या अफीम की पिनक में पड़े हुए थे।


फैजू– हुजूर, थे तो चौपाल में ही, पर किसी को क्या खबर कि यह वारदात होगी?


ज्ञान– क्यों, खबर क्यों न थी? जो आदमी साँप को पैरों से कुचल रहा हो उसे यह मालूम होना चाहिए कि साँप के दाँत जहरीले होते हैं। ज़मींदारी करना साँप को नचाना है। वह सँपेरा अनाड़ी है जो साँप को काटने का मौका दे! खैर, कातिल का कुछ पता चला?


फैज– जी हाँ, वही मनोहर अहीर है। उसने सवेरे ही थाने में जा कर एकबाल कर दिया। दोपहर को थानेदार साहब आ गये और तहकीकात कर रहे हैं। खाँ साहब का तार हुजूर को मिल गया था? जिस दिन खाँ साहब ने चरावर को रोकने का हुक्म दिया उसी दिन गाँव वालों में एका हो गया। खाँ साहब ने घबड़ाकर हुजूर को तार दिया। मैं तीन बजे तारघर से लौटा तो गाँव में मुकदमा लड़ने के लिए चन्दे का गुट्ट हो रहा था। रात को यह वारदात हो गयी।


अकस्मात् प्रेमशंकर लाला प्रभाशंकर के साथ आ गए। ज्ञानशंकर को देखते ही प्रेमशंकर टूटकर उनसे गले मिले और पूछे, कब आए? सब कुशल है न?


ज्ञानशंकर ने रुखाई से उत्तर दिया, कुशल का हाल इन आदमियों से पूछिए जो अभी लखनपुर से आये हैं। गाँव वालों ने गौस खाँ का काम तमाम कर दिया।


प्रेमशंकर स्तम्भित हो गये। मुँह से निकला, अरे! यह कब?


ज्ञान– आज ही रात को।


प्रेम– बात क्या है?


ज्ञान– गाँव वालों की बदमाशी और सरकशी के सिवा और क्या बात हो सकती है। मैंने चरावर को रोकने का हुक्म दिया था। वहाँ एक बाग लगाने का विचार था। बस, इतना बहाना पाकर सब खून-खच्चर पर उद्यत हो गए।


प्रेम– कातिल का कुछ पता चला?


ज्ञान– अभी तो मनोहर ने थाने में जाकर एक बाल किया है।


प्रेम– मनोहर तो बड़ा सीधा, गम्भीर पुरुष है।


ज्ञान– (व्यंग्य से) जी हाँ, देवता था।


डॉक्टर साहब ने मार्मिक भाव से देखकर कहा, यह किसी एक आदमी का खेल हार्गिज नहीं है।


ज्ञान– वही मेरा भी ख्याल है। मनोहर की इतनी मजाल नहीं है कि वह अकेला यह काम कर सके। निस्सन्देह सारा गाँव मिला हुआ है। मनोहर को सबने तबेले का बन्दर बना रखा है। देखिए थानेदार की तहकीकात का क्या नतीजा होता है। कुछ भी हो, अब मैं इस मौजे को वीरान करके ही छोड़ूँगा। क्यों फैजू, तुम्हारा क्या खयाल है? मनोहर अकेले यह काम कर सकता है?


फैजू– नहीं हुजूर, साठ बरस का बुड्ढा भला क्या हिम्मत करता! और कोई चाहे उसका मददगार न हो, लेकिन उसका लड़का तो जरूर ही साथ रहा होगा।


कर्तार– वह बुड्ढा है तो क्या, बड़े जीवट का आदमी है। उसके सिवा गाँव में किसी का इतना कलेजा नहीं है।


ज्ञान– तुम गँवार आदमी हो, इन बातों को क्या समझो। तुम्हें भंग का गोला चाहिए। डॉक्टर साहब, मुआमले में मुद्दई तो सरकार होगी, लेकिन आप भी मेरी तरफ से पैरवी कीजिएगा। मैंने फैसला कर लिया है कि गाँव के किसी बालिग आदमी को बेदाग न छोड़ूँगा।


प्रेमशंकर ने दबी जबान से कहा, अगर तुम्हें विश्वास हो कि यह एक आदमी का काम है तो सारे गाँव को समेटना उचित नहीं। ऐसा न हो कि गेहूँ के साथ घुन भी पिस जाय।


ज्ञानशंकर क्रुद्ध होकर बोले, बहुत अच्छा हो अगर आप इस विषय में अपने सत्य और न्याय के नियमों का स्वाँग न रचें। यह इन्हीं की बरकत है कि आज इन दुष्टों को इतना साहस हुआ है। आप मुझे साफ-साफ कहने पर मजबूर कर रहे हैं। ये सब आपके ही बल पर कूद रहे हैं। आपने प्रत्येक अवसर पर मेरे विपक्ष में उनकी सहायता की है, उनसे भाईचारा किया है। और उनके सिर पर हाथ रखने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। आपके इसी भ्रातृ-भाव ने उनके सिर फिरा दिये। मेरा भय उनके दिल से जाता रहा। आपके सिद्धान्तों और विचारों का मैं आदर करता हूँ, लेकिन आप कड़वी नीम को दूध से सींच रहे हैं। और आशा करते हैं कि मीठे फल लगेंगे। ऐसे कुपात्रों के साथ ऊँचे नियमों का व्यवहार करना दीवाने के हाथ में मशाल दे देना है।


प्रेमशंकर ने फिर जबान न खोली और न सिर उठाया। लाला प्रभाशंकर को ये बातें ऐसी बुरी लगीं कि वह तुरन्त उठकर चले गये। लेकिन प्रेमशंकर आत्म-परीक्षा में मौन मूर्तिवत् बैठे रहे। दीन देहातियों के साथ साधारण सज्जनता का बर्ताव करने का परिणाम ऐसा भयंकर होगा यह एक बिलकुल नया अनुभव था। केवल एक आदमी की जान ही नहीं गयी, वरन् और भी कितने ही प्राणों के बलिदान होने की आशंका थी। भगवान् उन गरीबों पर दया करो। मैंने सच्चे हृदय से उनकी सेवा नहीं की। द्वेष का भाव मुझे प्रेरित करता रहा। मैं ज्ञानशंकर को नीचा दिखाना चाहता था। यह समस्या उसी द्वेष भाव का दंड है। क्या एक लखनपुर ही अपने ज़मींदार के अत्याचारों से पीड़ित था? ऐसा कौन-सा इलाका है कि ज़मींदार के हाथों रक्त के आँसू न बहा रहा हो। तो लखनपुर के ही प्रति मेरी इतनी सहानुभूति क्यों प्रचंड हो गयी और फिर ऐसे अत्याचार क्या इससे पहले न होते थे? यह तो आये दिन ही होता रहता था; लेकिन कभी असामियों को चूँ करने की हिम्मत न पड़ती थी। इस बार वह क्यों मार-काट पर उद्यत हो गये! इन शंकाओं का उन्हें एक ही उत्तर मिलता था। और वही उस उत्तरदायित्व के भार को और गुरुतर बना देता था। हाय! मैंने कितने प्राणों को अपनी ईर्ष्याग्नि के कुंड में झोंक दिया! अब मेरा कर्त्तव्य क्या है? क्या यह आग लगाकर दूर से खड़ा तमाशा देखूँ? यह सर्वथा निंद्य है। अब तो इन अभागों की यथा योग्य सहायता करनी ही पड़ेगी, चाहे ज्ञानशंकर को कितना ही बुरा लगे। इसके सिवा मेरे लिए कोई दूसरा मार्ग नहीं है।


प्रेमशंकर इन्हीं विचारों में डूबे हुए थे कि मायाशंकर ने आकर कहा, चाचा जी, अम्मा कहती हैं अब तो बहुत देर हो गयी, हाजीपुर में कैसे जाइएगा? यहीं भोजन कर लीजिए, और आज यहीं रह जाइए।


प्रेमशंकर शोकमय विचारों की तरंग में भूल गये कि अभी मुझे हाजीपुर लौटना है। माया को प्यार करके बोले, नहीं बेटा, मैं चला जाऊँगा, अभी ज्यादा रात नहीं गयी है। यहाँ रह जाऊँ, तो वहाँ बड़ा हर्ज होगा।


यह कहकर वह उठ खड़े हुए। ज्ञानशंकर की ओर करुण नेत्रों से देखा और बिना कुछ कहे ही चले गये। ज्ञानशंकर ने उनकी तरफ ताका भी नहीं।


उनके जाने के बाद डॉक्टर महोदय बोले, मैं तो इनकी बड़ी तारीफ सुना करता था पर पहली ही मुलाकात में तबीयत आसूदा हो गयी। कुछ क्रुद्ध से मालूम होते हैं।


ज्ञान– बड़े भाई हैं, उनकी शान मैं क्या कहूँ! कुछ दिनों अमेरिका क्या रह आये हैं गोया हक और इन्साफ का ठेका ले लिया है। हालाँकि अभी तक अमेरिका में भी यह खयालात अमल के मैदान से कोसों दूर हैं। दुनिया में इन ख्यालों के चर्चे हमेशा रहे हैं और हमेशा रहेंगे। देखना सिर्फ यह है कि यह कहाँ तक अमल में लाये जा सकते हैं। मैं खुद इन उसूलों का कायल हूँ, पर मेरे खयाल में अभी बहुत दिनों तक इस जमीन में यह बीज सरसब्ज नहीं हो सकता है।


इसके बाद कुछ देर इस दुर्घटना के सम्बन्ध में बातचीत होती रही। जब डॉक्टर साहब और ईजाद हुसेन चले गये तब ज्ञानशंकर घर में जाकर बोले, देखा भाई साहब ने लखनपुर में क्या गुल खिलाया? अभी खबर आयी है कि गौस खाँ को लोगों ने मारा डाला।


दोनों स्त्रियाँ हक्की-बक्की होकर एक-दूसरे का मुँह ताकने लगीं।


ज्ञानशंकर ने फिर कहा, वह वर्षों से वहाँ जा-जाकर असामियों से जाने क्या कहते थे, न जाने क्या सिखाते थे, जिसका यह नतीजा निकला है। मैंने जब इनके वहाँ आने-जाने की खबर पायी तो उसी वक्त मेरे कान खड़े हुए और मैंने इनसे विनय की थी कि आप गँवारों को अधिक सिर न चढ़ायें। उन्होंने मुझे भी वचन दिया कि उनसे कोई सम्बन्ध न रखूँगा। लेकिन अपने आगे किसी की समझते ही नहीं। मुझे भय है कि कहीं इस मामले में वह भी न फँस जायँ। पुलिवाले एक कट्टर होते हैं। वह किसी-न-किसी मोटे असामी को जरूर फाँसेंगें। गाँववालों पर जहाँ सख्ती की कि सब-के-सब खुल पड़ेंगे और सारा अपराध भाई साहब के सिर डाल देंगे।


श्रद्धा ने ज्ञानशंकर की ओर कातर नजरों से देखा और सिर झुका लिया। अपने मन के भावों को प्रकट न कर सकी। विद्या ने कहा, तुम जरा थानेदार के पास क्यों नहीं चले जाते? जैसे बने, उन्हें राजी कर लो।


ज्ञान– हाँ कुछ-न-कुछ तो करना ही पड़ेगा; लेकिन एक छोटे आदमी की खुशामद करना, उसके नखरे उठाना कितने अपमान की बात है! भाई साहब को ऐसा न समझता था।


श्रद्धा ने सिर झुकाये हुए सरोष स्वर में कहा, पुलिसवाले उन पर जो अपराध लगायें; वह ऐसे आदमी नहीं हैं कि गाँववालों को बहकाते फिरें, बल्कि अगर गाँववालों की नीयत उन्हें पहले मालूम हो जाती तो यह नौबत ही न आती। तुम्हें थानेदार की खुशामद करने की कोई जरूरत नहीं। वह अपनी रक्षा आप कर सकते हैं।


विद्या– मैं तुम्हें बराबर समझाती आती थी कि देहातियों से रार न बढ़ाओ। बिल्ली भी भागने को सह नहीं पाती तो शेर हो जाती है। लेकिन तुमने कभी कान ही न दिये।


ज्ञान– कैसी बेसिर पैर की बातें करती हो? मैं इन टकड़गदे किसानों से दबता फिरूँ? ज़मींदार न हुआ कोई चरकटा हुआ। उनकी मजाल थी कि मेरे मुकाबले में खडे़ होते? हाँ, जब अपने ही घर में आग लगाने वाले मौजूद हों, तो जो कुछ न हो जाय वह थोड़ा है। मैं एक नहीं सौ बार कहूँगा कि अगर भाई साहब ने इन्हें सिर न चढ़ाया होता तो आज इनके हौसले इतने न बढ़ते।


विद्या– (दबी जबान से) सारा शहर जिसकी पूजा करता है उसे तुम घर में आग लगानेवाले कहते हो?


ज्ञान– यही लोक-सम्मान तो सारे उपद्रवों का कारण है।


श्रद्धा और ज्यादा न सुन सकी। उठकर अपने कमरे में चली गयी। तब ज्ञानशंकर ने कहा, मुझे तो इनके फँसने में जरा सन्देह नहीं है।


विद्या– तुम अपनी ओर से उनके बचाने में कोई बात उठा न रखना, यह तुम्हारा धर्म है। आगे विधाता ने जो लिखा है वह तो होगा ही।


ज्ञान– भाभी की तबियत का कुछ और ही रंग दिखाई देता है।


विद्या– तुम उनका स्वभाव जानते नहीं। वह चाहे दादा जी के साये से भी भागें, पर उनके नाम पर जान देती हैं, हृदय से उनकी पूजा करती हैं।


ज्ञान– इधर भी चलती हैं, उधर भी।


विद्या– इधर लोक लाज से चलती हैं, हृदय उधर ही है।


ज्ञान– तो फिर मुझे कोई और ही उपाय सोचना पडे़गा।


विद्या– ईश्वर के लिए ऐसी बातें न किया करो।


28.


श्रद्घा की बातों से पहले तो ज्ञानशंकर को शंका हुई, लेकिन विचार करने पर यह शंका निवृत्त हो गयी, क्योंकि इस मामले में प्रेमशंकर का अभियुक्त हो जाना अवश्यम्भावी था। ऐसी अवस्था में श्रद्धा के निर्बल क्रोध से ज्ञानशंकर को कोई हानि न हो सकती थी।


ज्ञानशंकर ने निश्चय किया कि इस विषय में मुझे हाथ-पैर हिलाने की कोई जरूरत नहीं है। सारी व्यवस्था मेरे इच्छानुकूल है। थानेदार स्वार्थवश इस मामले को बढ़ायेगा, सारे गाँव को फँसाने की चेष्टा करेगा और उसका सफल होना असन्दिग्ध है गाँव में कितनी ही एका हो, पर कोई-न-कोई मुखबिर निकल ही आयेगा। थानेदार ने लखनपुर के जमींदारी दफ्तर की जाँच-पड़ताल अवश्य ही की होगी। वहाँ मेरे ऐसे दो-चार पत्र अवश्य ही निकल आयेंगे जिनसे गाँववालों के साथ भाई-साहब की सहानुभूति और सदिच्छा सिद्ध हो सके। मैंने अपने कई पत्रों में गौस खाँ को लिखा है कि भाई साहब का यह व्यवहार मुझे पसन्द नहीं। हाँ, एक बात हो सकती है, सम्भव है कि गाँववाले रिश्वत देकर अपना गला छुड़ा लें और थानेदार अकेले मनोहर का चालान करे। लेकिन ऐसे संगीन मामले में थानेदार को इतना साहस नहीं हो सकता। वह यथासाध्य इस घटना को महत्त्वपूर्ण सिद्ध करेगा। भाई साहब से अधिकारी वर्ग उनके निर्भय लोकवाद के कारण पहले से ही बदगुमान हो रहे हैं। सब-इन्स्पेक्टर उन्हें इस षड्यन्त्र का प्रेरक साबित करके अपना रंग जरूर जमायेगा। अभियोग सफल हो गया तो उसकी तरक्की भी होगी, पारितोषिक भी मिलेगा। गाँववाले कोई बड़ी रकम देने की सामर्थ्य नहीं रखते और थानेदार छोटी रकम के लिए अपनी आशाओं की मिट्टी में न मिलायेगा। बन्धु-विरोध का विचार मिथ्या है। संसार में सब अपने लिए जीते और मरते हैं, भावुकता के फेर में पड़कर अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारना हास्यजनक है।


ज्ञानशंकर का अनुमान अक्षरशः सत्य निकला। लखनपुर के प्रायः सभी बालिग आदमियों का चालान हुआ। बिसेसर साह को टैक्स की धमकी ने भेदिया बना दिया। जमींदारी दफ्तर का भी निरीक्षण हुआ। एक सप्ताह पीछे हाजीपुर में प्रेमशंकर की खाना तलाशी हुई और वह हिरासत में ले लिए गये।


सन्ध्या का समय था। ज्ञानशंकर मुन्नू को साथ लिये हवा खाने जा रहे थे कि डॉक्टर इर्फान ने यह समाचार कहा। ज्ञानशंकर के रोयें खड़े हो गये और आँखों में आँसू भर आये। एक क्षण के लिए बन्धु-प्रेम ने क्षुद्र भावों को दबा दिया लेकिन ज्यों ही जमानत का प्रश्न सामने आया, यह आवेग शान्त हो गया। घर में खबर हुई तो कुहराम मच गया। श्रद्धा मूर्छित हो गयी, बड़ी बहू तसल्ली देने आयीं। मुन्नू भी भीतर चला गया और माँ की गोद में सिर रखकर फूट-फूटकर रोने लगा।


प्रेमशंकर शहर से कुछ ऐसे अलग रहते थे कि उनका शहर के बड़े लोगों से बहुत कम परिचय था। वह रईसों से बहुत कम मिलते-जुलते थे। कुछ विद्वज्जनों ने पत्रों में कृषि सम्बन्धी लेख अवश्य देखे थे और उनकी योग्यता के कायल थे, किन्तु उन्हें झक्की समझते थे। उनके सच्चे शुभचिन्तकों में अधिकांश कालेज के नवयुवक, दफ्तरों के कर्मचारी या देहातों के लोग थे। उनके हिरासत में आने की खबर पाते ही हजारों आदमी एकत्र हो गये और प्रेमशंकर के पीछे-पीछे पुलिस स्टेशन तक गये; लेकिन उनमें कोई भी ऐसा न था, जो जमानत देने का प्रयत्न कर सकता।


लाला प्रभाशंकर ने सुना तो उन्मत्त की भाँति दौड़े हुए ज्ञानशंकर के पास जाकर बोले, बेटा, तुमने सुना ही होगा। कुल मर्यादा मिट्टी में मिल गयी। (रोकर) भैया की आत्मा को इस समय कितना दुःख हो रहा होगा। जिस मान-प्रतिष्ठा के लिए हमने जायदादें बर्बाद कर दी वह आज नष्ट हो गयी। हाय! भैया जीवन-पर्यन्त कभी अदालत के द्वार पर नहीं गये। घर में चोरियाँ हुईं, लेकिन कभी थानों में इत्तला तक न की कि तहकीकात होगी और पुलिस दरवाजे पर आयेगी। आज उन्हीं का प्रिय पुत्र...। क्यों बेटा, जमानत न होगी?


ज्ञानशंकर इस कातर अधीरता पर रुष्ट होकर बोले, मालूम नहीं हाकिमों की मर्जी पर है।


प्रभा– तो जाकर हाकिमों से मिलते क्यों नहीं? कुछ तुम्हें भी अपनी इज्जत की फिक्र है या नहीं?


ज्ञान– कहना बहुत आसान है, करना कठिन है।


प्रभा– भैया, कैसी बातें करते हो? यहाँ के हाकिमों में तुम्हारा कितना मान है? बड़े साहब तक तुम्हारी कितनी खातिर करते हैं यह लोग किस दिन काम आयेंगे? क्या इसके लिए कोई दूसरा अवसर आयेगा?


ज्ञान– अगर आपका यह आशय है कि मैं जाकर हाकिमों की खुशामत करूँ, उनसे रियायत की याचना करूँ तो यह मुझसे नहीं हो सकता। मैं उनके खोदे हुए गढ़े में नहीं गिरना चाहता। मैं किस दावे पर उनकी जमानत कर सकता हूँ, जब मैं जानता हूँ कि वह अपनी टेक नहीं छोड़ेंगे और मुझे भी अपने साथ ले डूबेंगे।


प्रभाशंकर ने लम्बी साँस भरकर कहा, हा भगवान! यह भाई भाइयों का हाल है! मुझे मालूम न था कि तुम्हारा हृदय इतना कठोर है। तुम्हारा सगा भाई आफत में पड़ा है और तुम्हारा कलेजा जरा भी नहीं पसीजता। खैर, कोई चिन्ता नहीं अगर मेरी सामर्थ्य से बाहर नहीं है तो मेरे भाई के पुत्र मेरे सामने यों अपमानित न हो पायेगा।


ज्ञानशंकर को अपने चाचा की दयार्द्रता पर क्रोध आ रहा था। वह समझते थे कि केवल मेरी अवहेलना करने के लिए यह इतने प्रगल्भ हो रहे हैं। इनकी इच्छा है कि मुझे भी अधिकारियों की दृष्टि में गिरा दें। लेकिन प्रभाशंकर बनावटी भावों के मनुष्य न थे। वह कुल-प्रतिष्ठा पर अपने प्राण तक समर्पण कर सकते थे। उनमें वह गौरव प्रेम था जो स्वयं उपवास करके आतिथ्य-सत्कार को अपना सौभाग्य समझता था, और जो अब, हा शो! इस देश से लुप्त हो गया है। धन उनके विचार में केवल मान-मर्यादा की रक्षा के लिए था, भोग-विलास और इन्द्रिय सेवा के लिए नहीं। उन्होंने तुरन्त जाकर कपड़े पहने, चोगा पहना, अमामा बाँधा और एक पुराने रईस के वेश में मैजिस्ट्रेट के पास जा पहुँचे। रात के आठ बजे चुके थे, इसकी जरा भी परवाह न की। साहब के सामने उन्होंने जितनी दीनता प्रकट की, जितने विनीत शब्दों में अपनी संकट-कथा सुनायी, जितनी नीच खुशामदकी, जिस भक्ति से हाथ बाँधकर खड़े हो गये, अमामा उतारकर साहब के पैरों पर रख दिया और रोने लगे, अपने कुल-मर्यादा की जो गाथा गायी और उसकी राज-भक्ति के जो प्रमाण दिये उसे एक नव शिक्षित युवक अत्यन्त लज्जा-जनक ही नहीं बल्कि हास्यापद समझता। लेकिन साहब पसीज गये। जमानत ले लेने का वादा किया पर रात हो जाने के कारण उस वक्त कोई कार्रवाही न हो सकी। प्रभाशंकर यहाँ से निराश लौटे। उनकी यह इच्छा कि प्रेमशंकर हिरासत में रात को न रहें पूरी न हो सकी। रात-भर चिन्ता में पड़े हुए करवटें बदलते रहे। भैया की आत्मा को कितना कष्ट हो रहा होगा? कई बार उन्हें ऐसा धोखा हुआ कि भैया द्वार पर खड़े रो रहे हैं। हाय! बेचारे प्रेमशंकर पर क्या बीत रही होगी। तंग अँधेरी दुर्गन्धयुक्त कोठरी में पड़ा होगा, आँखों में आँसू न थमते होंगे इस वक्त उससे कुछ न खाया गया होगा। वहाँ के सिपाही और चौकीदार उसे दिक कर रहे होंगे। मालूम नहीं, पुलिसवाले उसके साथ कैसा बर्ताव कर रहे हैं? न जाने उससे क्या कहलाना चाहते हों? इस विभाग में जाकर आदमी पशु हो जाता है। मेरा दयाशंकर कैसा सुशील लड़का था, जब से पुलिस में गया है मिजाज ही और हो गया। अपनी स्त्री तक की बात नहीं पूछता। अगर मुझपर कोई मामला आ पड़े तो मुझसे बिना रिश्वत लिये न रहे। प्रेमशंकर पुलिसवालों की बातों में न आता होगा और वह सब-के-सब उसे और भी कष्ट दे रहे होंगे। भैया इस पर जान देते थे। कितना प्यार करते थे, और आज इसकी यह दशा?


प्रातःकाल प्रभाशंकर फिर मैजिस्ट्रेट के बँगले पर गये। मालूम हुआ कि साहब शिकार खेलने चले गये हैं। वहाँ से पुलिस के सुपरिण्टेण्डेण्ट के पास गये। यह महाशय अभी निद्रा में मग्न थे। उनसे दस बजे के पहले भेंट होने की सम्भावना न थी। बेचारे यहाँ से भी निराश हुए और तीसरे पहर तक बे-दाना, बे-पानी, हैरान-परेशान, इधर-उधर दौड़ते रहे। कभी इस दफ्तर में जाते, कभी उस दफ्तर में। उन्हें आश्चर्य होता था कि दफ्तरों के छोटे कर्मचारों क्यों इतने बेमुरौवत और निर्दय होते हैं। सीधी बात करनी तो दूर रही, खोटी-खरी सुनाने में भी संकोच नहीं करते। अन्त में चार बजे मैजिस्ट्रेट ने जमानत मंजूर की लेकिन हजार- दो-हजार की नहीं पूरे दस हजार की वह भी नकद। प्रभाशंकर का दिल बैठ गया। एक बड़ी साँस लेकर वहाँ से उठे और धीरे-धीरे घर चले, मानों शरीर निर्जीव हो गया है। घर आकर वह चारपाई पर गिर पड़े और सोंचने लगे, दस हजार का प्रबन्ध कैसे करूँ? इतने रुपये मुझे विश्वास पर कौन देगा? तो क्या जायदाद रेहन रख दूँ? हाँ इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है। मगर घरवाले किसी तरह राजी न होंगे, घर में लड़ाई ठन जायगी। बहुत देर तक इसी हैस-बैस में पड़े रहे, भोजन का समय आ पहुँचा। बड़ी बहू बुलाने आयीं। प्रभाशंकर में उनकी ओर विनीत भाव से देखकर कहा, मुझे बिलकुल भूख नहीं है।


बड़ी बहू– कैसी भूख है जो लगती नहीं? कल रात नहीं खाया, दिन को नहीं खाया, क्या इस चिन्ता में प्राण दे दोगे? जिन्हें चिन्ता होनी चाहिए, जो उनका हिस्सा उड़ाते हैं, उनके माथे पर तो बल तक नहीं है और तुम दाना-पानी छोड़े बैठे हो! अपने साथ घर के प्राणियों को भी भूखों मार रहे हो। प्रभाशंकर ने सजल नेत्र होकर कहा, क्या करूँ, मेरी तो भूख-प्यास बन्द हो गयी है, कैसा सुशील, कितना कोमल प्रकृति कितना शान्तचित्त लड़का है। उसकी सूरत मेरी आँखों के सामने फिर रही है। भोजन कैसे करूँ? विदेश में था तो भूल गये थे, उसे खो बैठे थे, पर खोये रत्न को पाने के बाद उसे चोरों के हाथ में देखकर सब्र नहीं होता।


बड़ी बहू– लड़का तो ऐसा है कि भगवान् सबको दें। बिलकुल वही लड़कपन का स्वभाव है, वही भोलापन, वही मीठी बातें वही प्रेम। देखकर छाती फूल उठती है। घमण्ड तो छू तक नहीं गया। पर दाना-पानी छोड़ने से तो काम न चलेगा चलो कुछ थोड़ा-सा खा लो।


प्रभाशंकर– दस हजार नकद जमानत माँगी गयी है।


बड़ी बहू– ज्ञानू से कहते क्यों नहीं कि मीठा-मीठा गप्प, कड़वा-कड़वा थू। प्रेमू का आधा नफा क्या श्रद्धा के भोजन-वस्त्रों में ही खर्च हो जाता है?


प्रभाशंकर– उससे क्या कहूँ सुने भी? वह पश्चिमी सभ्यता का मारा हुआ है, जो लड़के को बालिग होते ही माता-पिता से अलग कर देती है। उसने वह शिक्षा पायी है जिसका मूल तत्त्व स्वार्थ है। उसमें अब दया, विनय सौजन्य कुछ भी नहीं रहा। वह अब केवल अपनी इच्छाओं का, इन्द्रियों का दास है।


बड़ी बहू– तो तुम इतने रुपये का क्या बन्दोबस्त करोगे?


प्रभाशंकर– क्या कहूँ किसी से ऋण लेना पड़ेगा।


बड़ी बहू– ऐसा जान पड़ता है कि थोड़ा-सा हिस्सा जो बचा हुआ है उसे भी अपने सामने ही ठिकाने लगा दोगे। यह तो कभी नहीं देखा कि जो रुपये एक बार लिये गये वह फिर दिये गये हों। बस, जमीन के ही माथे जाती है।


प्रभाशंकर– जमीन मेरी गुलाम है, मैं जमीन का गुलाम नहीं हूँ।


बड़ी बहू– मैं कर्ज न लेने दूँगी, जाने कैसा पड़े। कैसा न पड़े, अन्त में सब बोझ तो हमारे ही सिर पड़ेगा। लड़कों को कहीं बैठने का ठाँव भी न रहेगा।


प्रभाशंकर ने पत्नी की ओर कठोर दृष्टि से देखकर कहा, मैं तुमसे सलाह नहीं लेता हूँ और न तुमको इसका अधिकारी समझता हूँ। तुम उपकार को भूल जाओ, मैं नहीं भूल सकता। मेरा खून सफेद नहीं है। लड़कों की तकदीर में आराम लिखा होगा आराम करेंगे, तकलीफ लिखी होगी तकलीफ भोगेंगे। मैं उनकी तकदीर नहीं हूँ। आज दयाशंकर पर कोई बात आ पड़े तो गहने बेच डालने में भी किसी को इनकार न होगा। मैं प्रेमू को दयाशंकर से जौ भर भी कम नहीं समझता।


बड़ी बहू ने फिर भोजन करने के लिए अनुरोध किया और प्रभाशंकर फिर नहीं-नहीं करने लगे। अन्त में उसने कहा, आज कद्दू के कबाब बने हैं। मैं जानती कि तुम न खाओगे तो क्यों बनवाती?


प्रभाशंकर की उदासीनता लुप्त हो गयी। उत्सुक होकर बोले, किसने बनाये हैं?


बड़ी बहू– बहू ने।


प्रभा– अच्छा, तो थाली परसाओ। भूख तो नहीं है, पर दो-चार कौर खा ही लूँगा।


भोजन के पश्चात् प्रभाशंकर फिर उसी चिन्ता में मग्न हुए। रुपये कहाँ से लायें? बेचारे प्रेमशंकर को आज फिर हिरासत में रात काटनी पड़ी। बड़ी बहू ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया था कि मैं कर्ज न लेने दूँगी। और यहाँ कर्ज के सिवा और कोई तदवीर न थी। आज लाला जी फिर सारी रात जागते रहे। उन्होंने निश्चय कर लिया कि घरवाले चाहे जितना विरोध करें, पर मैं अपना कर्त्तव्य अवश्य पूरा करूँगा। भोर होते ही वह सेठ दीनानाथ के पास जा पहुँचे और अपनी विपत्ति-कथा कह सुनायी। सेठ जी से उनका पुराना व्यवहार था। उन्हीं की बदौलत सेठ जी ज़मींदार हो गये थे। मामला करने पर राजी हो गये। लिखा-पढ़ी हुई और दस बजते-बजते प्रभाशंकर के हाथों में दस हजार की थैली आ गयी। वह ऐसे प्रसन्न थे मानो कहीं पड़ा हुआ धन मिल गया हो। गद्गद होकर बोले, सेठ जी किन शब्दों में आपका धन्यवाद दूँ, आपने मेरे कुल की मर्यादा रख ली। भैया की आत्मा स्वर्ग में आपका यश गायेगी।


यहाँ से वह सीधे कचहरी गये और जमानत के रुपये दाखिल कर दिए। इस समय उनका हृदय ऐसा प्रफुल्लित था जैसे कोई बालक मेला देखने जा रहा हो। इस कल्पना से उनका कलेजा उछल पड़ता था कि भैया मेरी भक्ति पर कितने मुग्ध हो रहे होंगे!


11 बजे का समय था, मैजिस्ट्रेट के इजलास पर लखनपुर के अभियुक्त हाथों में हथकड़ियाँ पहने खड़े थे। शहर के सहस्रों मनुष्य इन विचित्र जीवधारियों को देखने के लिए एकत्र हो गये थे। सभी मनोहर को एक निगाह देखने के लिए उत्सुक हो रहे थे। कोई उसे धिक्कारता था, कोई कहता था अच्छा किया। अत्याचारियों के साथ ऐसा ही करना चाहिए। सामने एक वृक्ष के नीचे बिलासी मन मारे बैठी हुई थी। बलराज के चेहरे पर निर्भयता झलक रही थी। डपटसिंह और दुखरन भगत चिन्तित दीख पड़ते थे। कादिर खाँ धैर्य की मूर्ति बने हुए थे। लेकिन मनोहर लज्जा और पश्चात्ताप से उद्विग्न हो रहा था। वह अपने साथियों से आँख न मिला सकता था। मेरी ही बदौलत गाँव पर यह आफत आयी है, यह ख्याल उसके चित्त से एक क्षण के लिए भी न उतरता था। अभियुक्तों से जरा हटकर बिसेसर साह खड़े थे– ग्लानि की सजीव मूर्ति बने। पुलिस के कर्मचारी उन्हें इस प्रकार घेरे थे, जैसे किसी मदारी को बालक-वृन्द घेरे रहते हैं। सबसे पीछे प्रेमशंकर थे, गम्भीर और अदम्य। मैजिस्ट्रेट ने सूचना दी– प्रेमशंकर जमानत पर रिहा किये गये।


प्रेमशंकर ने सामने आकर कहा, मैं इस दया-दृष्टि के लिए आपका अनुगृहीत हूँ, लेकिन जब मेरे ये निरपराध भाई बेड़ियाँ पहने खड़े हैं तो मैं उनका साथ छोड़ना उचित नहीं समझता।


अदालत में हजारों ही आदमी खड़े थे। सब लोग प्रेमशंकर को विस्मित हो कर देखने लगे। प्रभाशंकर करुणा से गद्गद होकर बोले, बेटा मुझ पर दया करो। कुछ मेरी दौड़-धूप, कुछ अपनी कुल मर्यादा और कुछ अपने सम्बन्धियों के शाक-विलाप का ध्यान करो। तुम्हारे इस निश्चय से मेरा हृदय फटा जाता है।


प्रेमशंकर ने आँखों में आँसू भरे हुए कहा, चाचा जी, मैं आपके पितृवत प्रेम और सदिच्छा का हृदय से अनुगृहीत हूँ। मुझे आज ज्ञात हुआ कि मानव-हृदय कितना पवित्र कितना उदार, कितना वात्सल्यमय हो सकता है। पर मेरा साथ छूटने से इन बेचारों की हिम्मत टूट जायेगी, ये सब हताश हो जायँगे। इसलिए मेरा इनके साथ रहना परमावश्यक है। मुझे यहाँ कोई कष्ट नहीं है। मैं परमात्मा को धन्यवाद देता हूँ कि उसने मुझे इन दीनों को तसकीन और तसल्ली देने का अवसर प्रदान किया। मेरी आपसे एक और विनती है। मेरे लिए वकील की जरूरत नहीं है। मैं अपनी निर्दोषिता स्वयं सिद्ध कर सकता हूँ। हाँ, यदि हो सके तो आप इन बेजबानों के लिए कोई वकील ठीक कर लीजिएगा, नहीं तो संभव है कि इनके ऊपर अन्याय हो जाये।


लाला प्रभाशंकर हतोत्साह होकर इजलास के कमरे से बाहर निकल आये।


29.


इस मुकदमें ने सारे शहर मे हलचल मचा दी। जहाँ देखिए, यह चर्चा थी सभी लोग प्रेमशंकर के आत्म-बलिदान की प्रंशसा सौ-सौ मुँह से कर रहे थे।


यद्यपि प्रेमशंकर ने स्पष्ट कह दिया था कि मेरे लिए किसी वकील की जरूरत नहीं है, पर लाला प्रभाशंकर का जी न माना। उन्हें भय था कि वकील के बिना काम बिगड़ जायेगा। नहीं, यह कदापि नहीं हो सकता। कहीं मामला बिगड़ गया तो लोग यहीं कहेंगे कि लोभ के मारे वकील नहीं किया, उसी का फल है। अपने मन में यही पछतावा होगा। अतएव वह सारे शहर के नामी वकीलों के पास गये। लेकिन कोई भी इस मुकदमे की पैरवी करने पर तैयार न हुआ। किसी ने कहा, मुझे अवकाश नहीं है, किसी ने कोई और ही बहाना करके टाल दिया। सबको विश्वास था कि अधिकारी वर्ग प्रेमशंकर से कुपित हो रहे हैं, उनकी वकालत करना स्वार्थ-नीति के विरुद्ध है। प्रभाशंकर का यह प्रयास सफल न हुआ तो उन्होंने अन्य अभियुक्तों के लिए कोई प्रयत्न नहीं किया। उनकी सहानुभूति अपने परिवार तक ही सीमित थी।


अभियोग तैयार हो गया और मैजिस्ट्रेट के इजलाश में पेशियाँ होने लगीं। थानेदार का बयान हुआ, फैजू का बयान हुआ, तहसीलदार चपरासियों और चौकीदारों के इजहार लिए गये। आठवें दिन ज्ञानशंकर इजलास के सामने आकर खड़े हुए। प्रभाशंकर को ऐसा दुःख हुआ कि वह कमरे के बाहर चले गये और एक वृक्ष के नीचे बैठकर रोने लगे। सगे भाइयों में यह वैमनस्य! पुलिस का पक्ष सिद्ध करने के लिए एक भाई दूसरे भाई के विरुद्ध साक्षी बने! दर्शकों को भी कौतूहल हो रहा था कि देखें इनका क्या बयान होता है। सब टकटकी लगाये उनकी ओर ताक रहे थे। पुलिस को विश्वास था कि इनका बयान प्रेमशंकर के लिए ब्रह्मफाँस बन जायेगा, लेकिन उनको और उनसे अधिक दर्शकों को कितना विस्मय हुआ जब ज्ञानशंकर ने लखनपुर वालों पर अपने दिल का बुखार निकाला, प्रेमशंकर का नाम तक न लिया।


सरकारी वकील ने पूछा, आपको मालूम है कि प्रेमशंकर उस गाँव में अक्सर आया-जाया करते थे।


ज्ञान-उनका उस गाँव में आधा हिस्सा है।


वकील– आप जानते हैं कि जब इन्स्पेक्टर जनरल पुलिस का दौरा हुआ था तब प्रेमशंकर ने लखनपुरवालों की बेगार बन्द करने की कोशिश की थी और तहसीलदार से लड़ने पर आमादा हो गये थे?


ज्ञान– मुझे इसकी खबर नहीं।


वकील– आप यह तो जानते ही हैं कि जब आपने बेशी लगान का दावा किया था तब प्रेमशंकर ने गाँववालों को 500 रुपये मुकदमें की पैरवी करने के लिए दिये थे?


ज्ञान– मुझे इस विषय में कुछ नहीं मालूम है।


ज्ञानशंकर की गवाही हो गयी। सरकारी वकील का मुँह लटक गया। लेकिन दर्शक गण एक स्वर से कहने लगे, भाई फिर भी भाई ही है, चाहे एक दूसरे के खून का प्यासा क्यों न हो।


इसके बाद मिस्टर ज्वालासिंह इजलास पर आये। उन्होंने कहा, मैं यहाँ कई साल तक हाकिम बना रहा। लखनपुर मेरे ही इलाके में था। कई बार वहाँ दौरा करने गया। याद नहीं आता कि वहाँ गाँववालों से रसद या बेगार के बारे में उससे ज्यादा झंझट हुआ हो जितना दूसरे गाँव में होता है। मेरे इजलास में एक बार बाबू ज्ञानशंकर ने इजाफा लगान का दावा किया था, लेकिन मैंने उसे खारिज कर दिया था।


सरकारी वकील– आपको मालूम है कि उस मामले की पैरवी के लिए प्रेमशंकर ने लखनपुर वालों को 500 रुपये दिये थे।


ज्वालासिंह– मालूम है। लेकिन जहाँ तक मैं समझता हूँ, उनको यह रुपये किसी दूसरे आदमी ने गाँववालों की मदद के लिए दिये थे।


वकील– आपको यह तो मालूम ही होगा कि प्रेमशंकर की उस गाँव में बहुत आमदरफ्त रहती थी।


ज्वाला– हाँ, वह ताऊन या दूसरी बीमारियों के अवसर पर अक्सर वहाँ जाते थे। यह गवाही भी पूरी हो गयी। सरकारी वकील के सभी प्रश्न व्यर्थ सिद्ध हुए।


तब बिसेसर साह इजलास पर आये। उनका बयान बहुत विस्तृत क्रमबद्ध और सारगर्भित था, मानो किसी उपन्यासकार ने इस परिस्थिति की कल्पनापूर्ण रचना की हो। सबको आश्चर्य हो रहा था कि अपढ़ गँवार में इतना वाक-चातुर्य कहाँ से आ गया? उसके घटना-प्रकाश में इतनी वास्तविकता का रंग था कि उस पर विश्वास न करना कठिन था। गौस खाँ के साथ गाँववालों का शत्रु-भाव, बेगार के अवसरों पर उससे हुज्जत और तकरार, चरावर को रोक देने पर गाँववालों का उत्तेजित हो जाना, रात को सब आदमियों का मिलकर गौस खाँ का वध करने की तदवीरें सोचना, इन सब बातों की अत्यन्त विशद विवेचना की गयी थी। मुख्यतः षड्यन्त्र-रचना का वर्णन ऐसा मूर्तिमान और मार्मिक था कि उस पर चाणक्य भी मुग्ध हो जाता। रात को नौ बजे मनोहर ने आ कर कादिर खाँ से कहा, बैठे क्या हो? चरावर रोक दी, चुप लगाने से काम न चलेगा, इसका कुछ उपाय करो। कादिर खाँ चौकी पर बैठे नमाज पढ़ने के लिए वजू कर रहे थे, बोले बैठ जाओ, अकेले हम-तुम क्या बना लेगें? जब मुसल्लम गाँव की राय हो तभी कुछ हो सकता है, नहीं तो इसी तरह कारिन्दा हमको दबाता जायेगा। एक दिन खेत से भी बेदखल कर देगा, जाके दुखरन भगत को बुला लाओ। मनोहर दुखरन के घर गये। मैं भी मनोहर के साथ गया। दुखरन ने कहा, मेरे पैर में काँटा लग गया है, मैं चल नहीं सकता। खाँ साहब को यहीं बुला लाओ। मैं जाकर कादिर खाँ को बुला लाया। मनोहर, डपटसिंह और कल्लू को बुला लाये। कादिर खाँ ने कहा, हम लोग गँवार हैं, अपने मन में कोई बातें करेंगे तो न जाने चित्त पड़े या पट, चल कर बाबू प्रेमशंकर से सलाह लो। डपटसिंह बोले उनके पास जाने की क्या जरूरत है? मैं जा कर उन्हें बुला लाऊँगा। दूसरे दिन साँझ को बाबू प्रेमशंकर एक्के पर सवार हो आये। मैं दुकान बढ़ा रहा था। मनोहर ने आ कर कहा चलो बाबू साहब आये हैं। मैं मनोहर के साथ कादिर के घर गया। प्रेमशंकर ने कहा, ज्ञान बाबू मेरे भाई हैं तो क्या, ऐसे भाई की गर्दन काट लेनी चाहिए। कादिर ने कहा, हमारी उनसे कोई दुश्मनी नहीं है, हमारा बैर तो गौस खाँ से है। इस हत्यारे ने इस गाँव में हम लोगों का रहना मुश्किल कर दिया है। अब आप बताइए, हम क्या करें? मनोहर ने कहा, यह बेइज्जती नहीं सही जाती। प्रेमशंकर बोले, मर्द हो करके इतना अपमान क्यों सहते हो? एक हाथ में तो काम तमाम होता है। कादिर खाँ ने कहा, कर तो डालें, पर सारा गाँव बँध जायेगा। प्रेमशंकर बोले, ऐसी नादानी क्यों करो? सब मिल कर नाम किसी एक आदमी का ले लो। अकेले आदमी का यह काम भी नहीं है। तीन-तीन प्यादे हैं! गौस खाँ खुद बलवान आदमी है। कादिर खाँ बोले, जो कहीं सारा गाँव फँस जाय तो? प्रेमशंकर ने कहा ऐसा क्या अन्धेर है? वकील लोग किस मर्ज की दवा हैं? इसी बीच में मैं खाना खाने घर चला आया।


प्रेमशंकर रात को ही एक्के पर लौट गये। रात को 12-1 बजे मुझे कुछ खटका हुआ। घर के चारों ओर घूमने लगा कि इतने में कई आदमी जाते दिखायी दिये। मैं समझ गया कि हमारे ही साथी हैं। कादिर का नाम ले कर पुकारा। कादिर ने कहा, सामने से हट जाओ, टोंक मत मारो, चुपके से जाकर पड़ रहो। कादिर खाँ से अब न रहा गया। बिसेसर साह की ओर कठोर नेत्रों से देख कर कहा, बिसेसर ऊपर अल्लाह है, कुछ उनका भी डर है?


सरकारी वकील ने कहा, चुप रहो, नहीं तो गवाह पर बेजा दबाव डालने का दूसरा दफा लग जायेगा।


सन्ध्या का समय यह लोग हिरासत में बैठे हुए इधर-उधर की बातें कर रहें थे। मनोहर अलग एक कोठरी में रखा गया था। कादिर ने प्रेमशंकर से कहा, मालिक आप तो हक-नाहक इस आफत में फँसे। हम लोग ऐसे अभागे हैं कि जो हमारी मदद करता है उस पर भी आँच आ जाती है। इतनी उमिर गुजर गयी, सैकड़ों पढ़े-लिखे आदमियों को देखा, पर आपके सिवा और कोई ऐसा न मिला, जिसने हमारी गरदन पर छूरी न चलायी हो। विद्या की दुनिया बड़ाई करती है। हमें तो ऐसा जान पड़ता है कि विद्या पढ़कर आदमी और भी छली-कपटी हो जाता है। वह गरीब का गला रेतना सिखा देती है। आपको अल्लाह ने सच्ची विद्या दी थी। उसके पीछे लोग आपके भी दुश्मन हो गये।


दुखरन– यह सब मनोहर की करनी है। गाँव-भर को डूबा दिया।


बलराज– न जाने उनके सिर कौन सा भूत सवार हो गया? गुस्सा हमें भी आया था, लेकिन उनको तो जैसे नशा चढ़ जाय।


डपट– चरावर की बिसात ही क्या थी। उसके पीछे यह तूफान।


कादिर– यारो? ऐसी बातें न करो। बेचारे ने तुम लोगों के लिए, तुम्हारे हक की रक्षा करने के लिए यह सब कुछ किया। उसकी हिम्मत और जीवन की तारीफ तो नहीं करते और उसकी बुराई करते हो। हम सब-के-सब कायर हैं, वही एक मर्द है।


कल्लू– बिसेसर की मति ही उल्टी हो गयी।


दुखरन– बयान क्या देता है जैसे तोता पढ़ रहा है।


डपट– क्या जाने किसके लिए इतना डरता है? कोई आगे पीछे भी तो नहीं है।


कल्लू– अगर यहाँ से छूटा तो बच्चू के मुँह में कालिख लगा के गाँव भर में घुमाऊँगा।


डपट– ऐसा कंजूस है कि भिखमंगे को देखता है तो छुछूँदर की तरह घर में जाकर दबक जाता है।


कल्लू– सहुआइन उसकी भी नानी है। बिसेसर तो चाहे एक कौड़ी फेंक भी दे, वह अकेली दूकान पर रहती है तो गालियाँ छोड़ और कुछ नहीं देती। पैसे का सौदा लेने जाओ तो धेले का देती है। ऐसी डाँडी मारती है कि कोई परख ही नहीं सकता?


बलराज– क्यों कादिर दादा, कालेपानी जा कर लोग खेती-बारी करते हैं न?


कादिर– सुना है वहाँ ऊख बहुत होती है।


बलराज– तब तो चाँदी है। खूब ऊख बोयेंगे।


कल्लू– लेकिन दादा, तुम चौदह बरस थोड़े ही जियोगे। तुम्हारी कबर कालेपानी में ही बनेगी।


कादिर– हम तो लौट आना चाहते हैं, जिसमे अपनी हड़ावर यहीं दफन हो। वहाँ तुम लोग न जाने मिट्टी की क्या गत करो।


दुखरन– भाई, मरने-जीने की बात मत करो। मनाओ कि भगवान सबको जीता-जागता फिर अपने बाल-बच्चों में ले आये।


बलराज– कहते हैं, वहाँ पानी बहुत लगता है।


दुखरन– यह सब तुम्हारे बाप की करनी है, मारा, गाँव-भर का सत्यानश कर दिया। अकस्मात् कमरे का द्वार खुला और जेल के दारोगा ने आ कर कहा, बाबू प्रेमशंकर, आपके ऊपर से सरकार ने मुकदमा उठा लिया। आप बरी हो गये। आपके घरवाले बाहर खड़े हैं।


प्रेमशंकर को ग्रामीणों के सरल वार्तालाप में बड़ा आनन्द आ रहा था। चौंक पड़े। ज्ञानशंकर और ज्वालासिंह के बयान उनके अनुकूल हुए थे, लेकिन यह आशय न था कि वह इस आधार पर निर्दोष ठहराये जायँगे। वह तुरन्त ताड़ गये कि यह चचा साहब की करामात है, और वास्तव में था भी यही। प्रभाशंकर को जब वकीलों से कोई आशा न रही तो उन्होंने कौशल से काम लिया और दो-ढाई हजार रुपयों का बलिदान करके यह वरदान पाया था। रिश्वत, खुशामद, मिष्टालाप यह सभी उनकी दृष्टि में हिरासत से बचने के लिए क्षम्य था।


प्रेमशंकर ने जेलर से कहा, यदि नियमों के विरुद्ध न हो तो कम-से-कम मुझे रात भर और यहाँ रहने की आज्ञा दीजिए। जेलर ने विस्मित हो कर कहा, यह आप क्या कहते हैं? आपका स्वागत करने के लिए सैकड़ों आदमी बाहर खड़े हैं!


प्रेमशंकर ने विचार किया, इन गरीबों को मेरे यहाँ रहने की कितना ढाँढ़स था। कदाचित उन्हें आशा थी कि इनके साथ हम लोग भी बरी हो जायँगे। मेरे चले जाने से ये सब निराश हो जायँगे। उन्हें तसल्ली देते हुए बोले, भाइयों मुझे विवश हो कर तुम्हारा साथ छोड़ना पड़ रहा है, पर मेरा हृदय आपके ही साथ रहेगा। सम्भव है बाहर आ कर मैं आपकी कुछ सेवा कर सकूँ। मैं प्रति दिन आपसे मिलता रहूँगा।


साथियों से बिदा होकर ज्यों ही वह फाटक पर पहुँचे कि लाला प्रभाशंकर ने दौड़कर उन्हें छाती से लगा लिया। जेल के चपरासियों ने उन्हें चारों ओर, से घेर लिया और इनाम माँगने लगे। प्रभाशंकर ने हर एक को दो-दो रुपये दिये। बग्घी चलने ही वाली थी कि बाबू ज्वालासिंह अपनी मोटर साइकिल पर आ पहुँचे और प्रेमशंकर के गले लिपट गये। प्रेमशंकर ने पहले हाजीपुर जाकर फिर लौटने का निश्चय किया। ज्योंही बग्घी बगीचे में पहुँची, हलवाहे और माली सब दौड़े और प्रेमशंकर के चारों ओर खड़े हो गये।


प्रेम– क्यों जी, दमड़ी जुताई हो रही है न?


दमड़ी ने लज्जित होकर कहा, मालिक, औरों की तो नहीं कहता, पर मेरा मन काम करने में जरा भी नहीं लगता। यही चिन्ता लगी रहती थी कि आप न जाने कैसे होंगे (निकट आकर) भोला कल एक टोकरी आमरूद तोड़ कर बेच लाया है।


भोला– दमड़ी तुमने सरकार के कान में कुछ कहा तो ठीक न होगा। मुझे जानते हो कि नहीं? यहाँ जेहल से नहीं डरते! जो कुछ कहना हो मुँह पर बुरा-भला कहो।


दमड़ी– तो तुम नाहक जामे से बाहर हो गये। तुम्हें कोई कुछ थोड़े ही कहता है।


भोला– तुमने कानाफूसी की क्यों? मेरी बात न कही होगी, किसी और की कही होगी तुम कौन होते हो किसी की चुगली खानेवाले?


मस्ता कोरी ने समझाया– भोला, तुम खामखा झगड़ा करने लगते हो। तुमसे क्या मतलब? जिसके जी मैं आता है मालिक कहता है। तुम्हें क्यों बुरा लगता है।


भोला– चुगली खाने चले हैं, कुछ काम करें न धन्धा सारे दिन नशा खाये पड़े रहते हैं, इनका मुँह है कि दूसरों की शिकायत करें।


इतने में भवानीसिंह आ पहुँचे, जो मुखिया थे। यह विवाद सुना तो बोले– क्यों लड़े मरते हो यारो, क्या फिर दिन न मिलेगा? मालिक से कुशल-क्षेम पूछना तो दूर रहा, कुछ सेवा-टहल तो हो न सकी, लगे आपस में तकरार करने।


इस सामयिक चेतावनी ने सबको शान्त कर दिया। कोई दौड़कर झोंपड़े में झाडू लगाने लगा, किसी ने पलँग डाल दिया, कोई मोढ़े निकाल लाया, कोई दौड़ कर पानी लाया, कोई लालटेन जलाने लगा। भवानीसिंह अपने घर से दूध लाये। जब तीनों सज्जन जलपान करके आराम से बैठे तो ज्वालासिंह ने कहा, इन आदमियों से आप क्योंकर काम लेते हैं? मुझे तो सभी निकम्मे जान पड़ते हैं।


प्रेमशंकर– जी नहीं, यह सब लड़ते हैं तो क्या, खूब मन लगा कर काम करते हैं। दिन-भर के लिए जितना काम बता देता हूँ उतना दोपहर तक ही कर डालते हैं।


लाला प्रभाशंकर जी से डर रहे थे कि कहीं प्रेमशंकर अपने बरी हो जाने के विषय में कुछ पूछ न बैठें। वह इस रहस्य को गुप्त ही रखना चाहते थे। इसलिए वह ज्वालासिंह से बातें करने लगे। जब से इनकी बदली हो गयी थी, इन्हें शान्ति नसीब न हुई थी। ऊपर वाले नाराज, नीचे वाले नाराज, ज़मींदार नाराज। बात-बात पर जवाब तलब होते थे। एक बार मुअत्तल भी होना पड़ा था। कितना ही चाहा कि वहाँ से कहीं और भेज दिया जाऊँ, पर सफल न हुए। नौकरी से तंग आ गये थे और अब इस्तीफा देने का विचार कर रहे थे। प्रभाशंकर ने कहा, भूल कर भी इस्तीफा देने का इरादा न करना, यह कोई मामूली ओहदा नहीं है। इसी ओहदे के लिए बड़े-बड़े रईसों और अमीरों के माथे घिसे जाते हैं, और फिर भी कामना पूरी नहीं होती। यह सम्मान और अधिकार आपको और कहाँ प्राप्त हो सकता है?


ज्वाला– लेकिन इस सम्मान और अधिकार के लिए अपनी आत्मा का कितना हनन करना पड़ता है? अगर निःस्पृह भाव से अपना काम कीजिए तो बड़े-बड़े लोग पीछे पड़ जाते हैं। अपने सिद्धान्तों का स्वाधीनता से पालन कीजिए तो हाकिम लोग त्योरियाँ बदलते हैं। यहाँ उसी की सफलता होती है जो खुशामदी और चलता हुआ है, जिसे सिद्घान्तों की परवाह नहीं। मैंने तो आज तक किसी सहृदय पुरुष को फलते-फूलते नहीं देखा। बस, शतरंजबाजों की चाँदी है। मैंने अच्छी तरह आजमा कर देख लिया। यहाँ मेरा निर्वाह नहीं है। अब तो यही विचार है कि इस्तीफा देकर इस बगीचे में आ बसूँ और बाबू प्रेमशंकर के साथ जीवन व्यतीत करूँ, अगर इन्हें कोई आपत्ति न हो।


प्रेमशंकर– आप शौक से आइए, लेकिन खूब दृढ़ होकर आइएगा।


ज्वालासिंह– अगर कुछ कोर-कसर होगी तो यहाँ पूरी हो जायेगी।


प्रेमशंकर ने अपने आदमियों से खेती-बारी के सम्बन्ध में कुछ बातें की और 8 बजते-बजते लाला प्रभाशंकर के घर चले।


30.


रात के 10 बजे थे। ज्वालासिंह तो भोजन करके प्रभाशंकर के दीवानखाने में ही लेटे, लेकिन प्रेमशंकर को मच्छरों ने इतना तंग किया कि नींद न आयी। कुछ देर तक तो वह पंखा झलते रहे, अन्त को जब भीतर न रहा गया तो व्याकुल हो बाहर आकर सहन में टहलने लगे। सहन की दूसरी ओर ज्ञानशंकर का द्वार था। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। नीरवता ने प्रेमशंकर की विचार-ध्वनि को गुञ्जित कर दिया। सोचने लगे, मेरा जीवन कितना विचित्र है! श्रद्धा जैसी देवी को पाकर भी मैं दाम्पत्त-सुख से वंचित। सामने श्रद्धा का शयनगृह है, पर मैं उधर ताकने का साहस नहीं कर सकता। वह इस समय कोई धर्म-ग्रन्थ पढ़ रही होगी, पर मुझे उसकी कोमल वाणी सुनने का अधिकार नहीं।


आकस्मात् उन्हें ज्ञानशंकर के द्वार से कोई स्त्री निकलती हुई दिखायी दी। उन्होंने समझा मजूरनी होगी, काम-धन्धे से छुट्टी पा अपने घर जाती होगी लेकिन नहीं, यह सिर से पैर तक चादर ओढ़े हुए है। महरियाँ इतनी लज्जाशील नहीं होतीं। फिर यह कौन है? चाल तो श्रद्धा की-सी है, कद भी वही है। पर इतनी रात गये, इस अन्धकार में श्रद्धा कहाँ जायेगी? नहीं, कोई और होगी। मुझे भ्रम हो रहा है। इस रहस्य को खोलना चाहिए। यद्यपि प्रेमशंकर को एक अपरिचित और अकेली स्त्री के पीछे-पीछे भेदिया बनकर चलना सर्वथा अनुचित जान पड़ता था, इस गाँठ को खोलने की इच्छा प्रबल थी कि वह उसे रोक न सके।


कुछ दूर तक गली में चलने के बाद वह स्त्री सड़क पर आ पहुँची और दशाश्वमेध घाट की ओर चली। सड़क पर लालटेनें जल रही थीं। रास्ता बन्द न था, पर बहुत कम लोग चलते दिखायी देते थे। प्रेमशंकर को उस स्त्री की चाल से अब पूरा विश्वास हो गया। कि वह श्रद्धा है। उनके आश्चर्य की कोई सीमा न रही। यह इतनी रात गये इस तरफ कहाँ जाती है? उन्हें उस पर कोई सन्देह न हुआ। वे उसके पातिव्रत्य को अखंड और अविचल समझते थे। पर इस विश्वास से उनकी प्रश्नात्मक शंका को और भी उत्तेजित कर दिया। उसके पीछे-पीछे चलते रहे; यहाँ तक कि गंगातट की ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएँ आ पहुँची। गली में अँधेरा था, पर कहीं-कहीं खिड़कियों से प्रकाश ज्योति आ रही थी, मानों कोई सोता हुआ आदमी स्वप्न देख रहा हो। पग-पग पर साँड़ों का सामना होता था। कहीं-कहीं कुत्ते भूमि पर पड़ी हुई पत्तलों को चाट रहे थे। श्रद्धा सीढ़ियों से उतरकर गंगातट पर जा पहुँची। अब प्रेमशंकर को भय हुआ, कहीं इसने अपने मन में कुछ और तो नहीं ठानी है। उनका हृदय काँपने लगा। वह लपक कर सीढ़ियों से उतरे और श्रद्धा से केवल इतनी दूर खड़े हो गये कि तनिक खटक होते ही एक छलाँग में उसके पास जा पहुँचे। गंगा निद्रा में मग्न थीं। कहीं-कहीं जल-जन्तुओं के छपकने की आवाज आ जाती थी। सीढ़ियों पर कितने ही भिझुक पड़े सो रहे थे। प्रेमशंकर को इस समय असह्य ग्लानि-वेदना हो रही थी। यह मेरी क्रूरता– मेरी हृदय-शून्यता का फल है! मैंने अपने सिद्धान्त-प्रेम और आत्म-गौरव के घमण्ड में इसके विचारों की अवहेलना की, इसके मनोभावों को पैरों से कुचला, इसकी धर्मनिष्ठा को तुच्छ समझा। जब सारी बिरादरी मुझे दूध की मक्खी समझ रही है, जब मेरे विषय में नाना प्रकार के अपवाद फैले हुए हैं, जब मैं विधर्मी, नास्तिक और जातिच्युत समझा जा रहा हूँ, तब एक धार्मिक-वृत्ति की महिला का मुझसे विमुख हो जाना सर्वथा स्वाभाविक था। न जाने कितनी हृदय-वेदना, कितने आत्मिक कष्ट और मानसिक उत्ताप के बाद आज इस अबला ने ऐसा भयंकर संकल्प किया है।


श्रद्धा कई मिनट तक जलतट पर चुपचाप खड़ी रही। तब वह धीरे-धीरे पानी में उतरी। प्रेमशंकर ने देखा अब विलम्ब करने का अवसर नहीं है। उन्होंने एक छलाँग मारी और अन्तिम सीढ़ी पर खड़े हो कर श्रद्धा को जोर से पकड़ लिया। श्रद्धा चौंक पड़ी, सशंक होकर बोली– कौन है, दूर हट!


प्रेमशंकर ने सदोष नेत्रों से देख कर कहा, मैं हूँ अभागा प्रेमशंकर! श्रद्धा ने पति की ओर ध्यान से देखा भयभीत हो कर बोली, आप...यहाँ?


प्रेमशंकर– हाँ, आज अदालत ने मुझे बरी कर दिया। चचा साहब के यहाँ दावत थी। भोजन करके निकला तो तुम्हें आते देखा। साथ हो लिया। अब ईश्वर के लिए पानी से निकलो। मुझ पर दया करो।


श्रद्धा पानी से निकलकर जीने पर आयी और कर जोड़कर गंगा को देखती हुई बोली माता, तुमने मेरी विनती सुन ली, किस मुँह से तुम्हारा यश गाऊँ। इस अभागिन को तुमने तार दिया।


प्रेम– तुम अँधेरे में इतनी दूर कैसे चली आयी? डर नहीं लगा?


श्रद्धा– मैं तो यहाँ कई दिनों से आती हूँ, डर किस बात का?


प्रेम– क्या यहाँ के बदमाशों का हाल नहीं जानती?


श्रद्धा ने कमर से छुरा निकाल लिया और बोली, मेरी रक्षा के लिए यह काफी है। संसार में जब दूसरा कोई सहारा नहीं होता तो आदमी निर्भय हो जाता है।


प्रेम– घर के लोग तुम्हें यों आते देख कर अपने मन में क्या कहते होंगे?


श्रद्धा– जो चाहे समझें, किसी के मन पर मेरा क्या वश है? पहले लोकलाज का भय था । अब वह भय नहीं रहा, उसका मर्म जान गयी। वह रेशम का जाल है, देखने में सुन्दर, किन्तु कितना जटिल। वह बहुधा धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म बना देता है।


प्रेमशंकर का हृदय उछलने लगा, बोले, ईश्वर, मेरा क्या भाग्य-चन्द्र फिर उदित होगा? श्रद्धा, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ कि मेरी कितनी ही बार इच्छा हुई कि फिर अमेरिका लौट जाऊँ, किन्तु आशा का एक अत्यन्त सूक्ष्म काल्पनिक बन्धन पैरों में बेड़ियों का काम करता रहा। मैं सदैव अपने चारों ओर तुम्हारे प्रेम और सत्य व्रत को फैले हुए देखता हूँ। मेरे आत्मिक अन्धकार में यही ज्योति दीपक का काम देती है। मैं तुम्हारी सदिच्छाओं को किसी सधन वृक्ष की भाँति अपने ऊपर छाया डालते हुए अनुभव करता हूँ। मुझे तुम्हारी अकृपा में दया, तुम्हारी निष्ठुरता में हार्दिक स्नेह, तुम्हारी भक्ति में अनुराग छिपा हुआ दीखता है। अब मुझे ज्ञात हुआ है कि मेरे ही उद्धार के लिए तुम अनुष्ठान कर रही हो। यदि मेरा प्रेम निष्काम होता तो मैं इस आत्मिक संयोग पर ही सन्तोष करता, किन्तु मैं रूप और रस का दास हूँ, इच्छाओं और वासनाओं का गुलाम, मुझे इस आत्मनुराग से संतोष नहीं होता।


श्रद्धा– मेरे मन से वह शंका कभी दूर नहीं होती कि आपसे मेरा मिलना अधर्म है और अधर्म से मेरा हृदय काँप उठता है।


प्रेम– यह शंका कैसे शान्त होगी?


श्रद्धा– आप जान कर मुझसे क्यों पूछते हैं?


प्रेम– तुम्हारे मुँह से सुनना चाहता हूँ।


श्रद्धा– प्रायश्चित से।


प्रेम– वही प्रायश्चित जिसका विधान स्मृतियों में है?


श्रद्धा– हाँ, वही।


प्रेम– क्या तुम्हें विश्वास है कि कई नदियों में नहाने, कई लकड़ियों को जलाने से घृणित वस्तुओं के खाने से, ब्राह्मणों को खिलाने से मेरी अपवित्रता जाती रहेगी? खेद है कि तुम इतनी विवेकशील हो कर इतनी मिथ्यावादिनी हो?


श्रद्धा का एक हाथ प्रेमशंकर के हाथ में था। यह कथन सुनते ही उसने हाथ खींच लिया और दोनों अँगूठों से दोनों कान बन्द करते हुए बोली, ईश्वर के लिए मेरे सामने शास्त्रों की निन्दा मत करो। हमारे ऋषि-मुनियों ने शास्त्रों में जो कुछ लिख दिया है वह हमें मानना चाहिए। उनमें मीन-मेख निकालना हमारे लिए उचित नहीं। हमसें इतनी बुद्धि कहाँ है कि शास्त्रों के सभी आदेशों को समझ सकें? उनको मानने में ही हमारा कल्याण है।


प्रेम– मुझसे वह काम करने को कहती हो जो मेरे सिद्धान्त और विश्वास के सर्वथा विरुद्ध है। मेरा मन इसे कदापि स्वीकार नहीं करता कि विदेश-यात्रा कोई पाप है। ऐसी दशा में प्रायश्चित की शर्त लगा कर तुम मुझ पर बड़ा अन्याय कर रही हो।


श्रद्धा ने लम्बी साँस खींच कर कहा, आपके चित्त से अभी अहंकार नहीं मिटा। जब तक इसे न मिटाइएगा ऋषियों की बातें आपकी समझ में न आयेंगी।


यह कह कर वह सीढ़ियों पर चढ़ने लगी। प्रेमशंकर कुछ न बोल सके। उसको रोकने का भी साहस न हुआ। श्रद्धा देखते-देखते सामने गली में घुसी और अन्धकार में विलुप्त हो गयी।


प्रेमशंकर कई मिनट तक वहीं चुपचाप खड़े रहे, तब वह सहसा इस अर्द्ध चैतन्यावस्था से जागे, जैसे कोई रोगी देर तक मूर्च्छित रहने के बाद चौंक पड़े। अपनी अवस्था का ज्ञान हुआ। हा! अवसर हाथ से निकल गया। मैंने विचार को मनुष्य से उत्तम समझा। सिद्धान्त मनुष्य के लिए हैं, मनुष्य सिद्धान्तों के लिए नहीं है। मैं इतना भी न समझ सका! माना, प्रायश्चित पर मेरा विश्वास नहीं है, पर उससे दो प्राणियों का जीवन सुखमय हो सकता था। इस सिद्धान्त-प्रेम ने दोनों का ही सर्वनाश कर दिया। क्यों न चलकर श्रद्धा से कह दूँ कि मुझे प्रायश्चित करना अंगीकार है। अभी बहुत दूर नहीं गयी होगी। उसका विश्वास मिथ्या ही सही, पर कितना दृढ़, कितनी निःस्वार्थ पति-भक्ति है, कितनी अविचल धर्मनिष्ठा! प्रेमशंकर इन्हीं विचारों में डूबे हुए थे कि यकायक उन्होंने दो आदमियों को ऊपर से उतरते देखा। गहरे विचार के बाद मस्तिष्क को विश्राम की इच्छा होती है। वह उन दोनों मनुष्यों की ओर ध्यान से देखने लगे। यह कौन हैं? इस समय यहाँ क्या करने आये हैं? शनैः-शनैः वह दोनों नीचे आये और प्रेमशंकर से कुछ दूर खड़े हो गये। प्रेमशंकर ने उन दोनों की बातें सुनीं। आवाज पहचान गये। यह दोनों पद्यशंकर और तेजशंकर थे!


तेजशंकर ने कहा, तुम्हारी बुरी आदत है कि जिससे होता है उसी से इन बातों की चर्चा करने लगते हो। यह सब बातें गुप्त रखने की हैं। खोल देने से उसका असर जाता रहता है।


पद्य– मैंने तो किसी से नहीं कहा।


तेज– क्यों? आज ही बाबू ज्वालासिंह से कहने लगे कि हम लोग साधु हो जायेंगे। कई दिन हुए अम्माँ से वही बात कही थी। इस तरह बकते फिरने से क्या फायदा? हम लोग साधु होंगे अवश्य, पर अभी नहीं। अभी इस ‘बीसा’ को सिद्ध कर लो, घर में लाख-दो लाख रुपये रख दो। बस, निश्चिन्त होकर निकल खड़े हो। भैया घर की कुछ खोज-खबर लेते ही नहीं। हम लोग भी निकल जायें तो लाला जी इतने प्राणियों का पालन-पोषण कैसे करेंगे? इम्तहान तो मेरा न दिया जायेगा। कौन भूगोल-इतिहास रटता फिरे और मौट्रिक हो ही गये तो कौन राजा हो जायेंगे? बहुत होगा कहीं 15-20) के नौकर हो जायेंगे। तीन साल से फेल हो रहे हैं, अबकी तो यों ही कहीं पढ़ने को जगह न मिलेगी।


पद्य– अच्छा, अब किसी से कुछ न कहूँगा। यह मन्त्र सिद्ध हो जाये तो चचा साहब मुकदमा जीत जायेंगे न?


तेज– अभी देखा नहीं क्या? लाला जी बीस हजार जमानत देते थे, पर मैजिस्ट्रेट न लेता था। तीन दिन यहाँ आसन जमाया और आज वह बिलकुल बरी हो गये! एक कौड़ी भी जमानत न देनी पड़ी।


पद्य– चचा साहब बड़े अच्छे आदमी हैं। मुझे उनकी बहुत मुहब्बत लगती है। छोटे चचा की ओर ताकते हुए डर मालूम होता है।


तेज– उन्होंने बड़े चचा को फँसाया है। डरता हूँ, नहीं तो एक सप्ताह-भर आसन लगाऊं तो उनकी जान ही लेकर छोड़ूँ।


पद्म– मुझसे तो कभी बोलते ही नहीं। छोटी चाची का अदब करता हूँ, नहीं तो एक दिन माया को खूब पीटता।


तेज– अबकी तो माया भी गोरखपुर जा रहा है। वहीं पढ़ेगा।


पद्म– जब से मोटर आयी है माया का मिजाज ही नहीं मिलता। यहाँ कोई मोटर का भूखा नहीं है।


यों बातें करते हुए दोनों सीढ़ी पर बैठ गये। प्रेमशंकर उठकर उनके पास आये और कुछ कहना चाहते थे कि पद्मशंकर ने चौंककर जोर से चीख मारी और तेजशंकर खड़ा होकर कुछ बुदबुदाने और छू-छू करने लगा। प्रेमशंकर बोले, डरो मत मैं हूँ।


तेज– चचा साहब! आप यहाँ इस वक्त कैसे आये?


पद्म– मुझे तो ऐसी शंका हुई कि कोई प्रेत आ गया है।


प्रेम– तुम लोग इस पाखण्ड में पड़कर अपना समय व्यर्थ गँवा रहे हो। बड़े जोखिम का काम है और तत्त्व कुछ नहीं। इन मन्त्रों को जगाकर तुम जीवन में सफलता प्राप्त नहीं कर सकते। चित्त लगाकर पढ़ो, उद्योग करो। सच्चरित्र बनो। धन और कीर्ति का यही महामन्त्र है। यहाँ से उठो।


तीनों आदमी घर की ओर चले। रास्ते-भर प्रेमशंकर दोनों शिकारों को समझाते रहे। घर पहुँचकर वे फिर निद्रा देवी को आराधना करने लगे। मच्छरों की जगह जब उनके सामने एक बाधा आ खड़ी हुई। यह श्रद्धा का अन्तिम वाक्य था, ‘तुम्हारे चित्त से अभी अहंकार नहीं मिटा।’ प्रेमशंकर बड़ी निर्दयता से अपने कृत्यों का समीक्षण कर रहे थे। अपने अन्तःकरण के एक-एक परदे को खोलकर देख रहे थे और प्रतिक्षण उन्हें विश्वास होता जाता था कि मैं वास्तव में अहंकार का पुतला हूँ। वह अपने किसी काम को, किसी संकल्प को अहंकार-रहित न पाते थे। उनकी दया और दीन-भक्ति में भी अहंकार छिपा हुआ जान पड़ता था। उन्हें शंका हो रही थी, क्या सिद्धान्त-प्रेम अहंकार का दूसरा स्वरूप है। इसके विपरीत श्रद्धा की धर्मपरायणता में अहंकार की गन्ध तक न थी।


इतने में ज्वालासिंह ने आकर कहा, क्या सोते ही रहिएगा? सबेरा हो गया था।


प्रेमशंकर ने चौंककर द्वार की ओर देखा तो वास्तव में दिन निकल आया था। बोले मुझे तो मच्छरों के मारे नींद नहीं आयी! आँखें तक न झपकीं।


ज्वाला– और यहाँ एक ही करवट में भोर हो गया।


प्रेमशंकर उठकर हाथ-मुँह धोने लगे। आज उन्हें बहुत काम करना था। ज्वालासिंह भी स्नानादि से निवृत्त हुए। अभी दोनों आदमी कपड़े पहन ही रहे थे कि तेजशंकर जलपान के लिए ताजा हलुआ, सेब का मुरब्बा, तले हुए पिस्ते और बादाम तथा गर्म दूध लाया ज्वालासिंह ने कहा, आपके चचा साहब बड़े मेहमाँनवाज आदमी हैं। ऐसा जान पड़ता है कि आतिथ्य-सत्कार में उन्हें हार्दिक आनन्द आता है और एक हम हैं कि मेहमान की सूरत देखते ही मानो दब जाते हैं। उनका जो कुछ सत्कार करते हैं वह प्रथा-पालन के लिए, मन से यही चाहते हैं कि किसी तरह यह ब्याधि सिर से टले।


प्रेम– वे पवित्र आत्माएँ अब संसार से उठती जाती हैं। अब तो जिधर देखिए उधर स्वार्थ-सेवा का आधिपत्य है। चचा साहब जैसा भोजन करते हैं, वैसा अच्छे-अच्छे रईसों को भी मयस्सर नहीं होता। वह स्वयं पाक-शास्त्र में निपुण हैं। लेकिन खाने का इतना शौक नहीं है जितना खिलाने का। मेरा तो जी चाहता है कि अवकाश मिले तो यह विद्या उनसे सीखूँ।


दोनों मित्रों ने जलपान किया और लाला प्रभाशंकर से विदा होकर घर से निकले। ज्वालासिंह ने कहा, कोई वकील ठीक करना चाहिए।


प्रेम– हाँ, यही सबसे जरूरी काम है। देखें, कोई महाशय मिलते हैं या नहीं। चचा साहब को तो लोगों ने साफ जवाब दे दिया।


ज्वाला– डॉक्टर इर्फान अली से मेरा खूब परिचय है। आइए, पहले वहीं चलें।


प्रेम– वह तो शायद ही राजी हों। ज्ञानशंकर से उनकी बातचीत पहले ही हो चुकी है।


ज्वाला– अभी वकालतनामा तो दाखिल नहीं हुआ। ज्ञानशंकर ऐसे नादान नहीं हैं कि ख्वाहमख्वाह हजारों रुपयों का खर्च उठायें। उनकी जो इच्छा थी वह पुलिस के हाथों पूरी हुई जाती है। सारा लखनपुर चक्कर में फँस गया। अब उन्हें वकील रख कर क्या करना है?


डॉक्टर महोदय अपने बाग में टहल रहे थे। दोनों सज्जनों को देखते ही बढ़कर हाथ मिलाया और बँगले में ले गये।


डॉक्टर– (ज्वालासिंह से) आपसे तो एक मुद्दत के बाद मुलाकात हुई है। आजकल तो आप हरदोई में हैं न? आपके बयान ने तो पुलिसवालों की बोलती ही बन्द कर दी। मगर याद रखिए, इसका परिणाम आप को उठाना पड़ेगा।


ज्वाला– उसकी नौबत ही न आयेगी। इन दोरंगी चालों से नफरत हो गयी। इस्तीफा देने का फैसला कर चुका हूँ।


डॉक्टर– हालत ही ऐसी है कि खुद्दार आदमी उसे गवारा नहीं कर सकता। बस यहाँ उन लोगों की चाँदी है जिनके कान्शस मुरदा हो गये हैं। मेरे पेशे को लीजिए, कहा जाता है कि यह आजाद पेशा है। लेकिन लाला प्रभाशंकर को सारे शहर में (प्रेमशंकर की तरफ देख कर) आपकी पैरवी करने के लिए कोई वकील न मिला। मालूम नहीं, वह मेरे यहाँ तशरीफ क्यों नहीं लाये।


ज्वाला– उस गलती की तलाफी (प्रायश्चित) करने के लिए हम लोग हाजिर हुए हैं। गरीब किसानों पर आपको रहम करना पड़ेगा।


डॉक्टर– मैं इस ख़िदमत के लिए हाजिर हूँ। पुलिस से मेरी दुश्मनी है। ऐसे मुकदमों की मुझे तलाश रहती है। बस, यही मेरा आखिरी मुकदमा होगा। मुझे भी वकालत से नफरत हो गयी है। मैंने युनिवर्सिटी में दरख्वास्त दी है। मंजूर हो गयी तो बोरिया-बँधना समेटकर उधर की राह लूँगा।


31.


डाक्टर इर्फान अली की बातों से प्रभाशंकर को बड़ी तसकीन हुई। मेहनताने के सम्बन्ध में उनसे कुछ रिआयत चाहते थे, लेकिन संकोचवश कुछ न कह सकते थे। इतने में हमारे पूर्व-परिचित सैयद ईजाद हुसैन ने कमरे में प्रवेश किया और ज्वालासिंह को देखते ही सलाम करके उनके सामने खड़े हो गये। उनके साथ एक हिन्दू युवक और भी था जो चाल-ढाल से धनाढ्य जान पड़ता था।


ज्वालासिंह– बोले, आइए-आइए! मिजाज तो अच्छा है? आजकल किसकी पेशी में हैं?


ईजाद– जब से हुजूर तशरीफ ले गये, मैंने भी नौकरी को सलाम किया। जिन्दगी शिकमपर्वरी में गुजर जाती थी। इरादा हुआ कुछ दिन कौम की खिदमत करूँ। इसी गरज से ‘अंजुमन इत्तहाद’ खोल रखी है। उसका मकसद हिन्दू-मुसलमानों में मेल-जोल पैदा करना है। मैं इसे कौम का सबसे अहम (महत्त्वपूर्ण) मसला समझता हूँ। दोनों साहब अगर अंजुमन को अपने कदमों से मुमताज फरमायें तो मेरी खुशनसीबी ही है।


ज्वाला– आप वाकई कौम की सच्ची खिदमत कर रहे हैं।


ईजाद– शुक्र है, जनाब की जबान से यह कलाम निकला। यहाँ मुझे मियाँ ‘इत्तहाद’ कह कर मेरा मजाक उड़ाया जाता है। अंजुमन पर आवाजें कसी जाती हैं। मुझे खुदमतलब और खुदगरज कहा जाता है। यह सब जिल्लत उठाता हूँ। दोनों कौमों के बाहमी निफाक को देखता हूँ तो जिगर के टुकड़े हो जाते हैं। वह मुहब्बत और एखलास जिस पर कौम ही हस्ती कायम है, रोज-ब-रोज गायब होता जाता है। अगर एक हिन्दू इसलाम पर यकीन लाता है तो शोर मच जाता है कि हिन्दू कौम तबाह हुई जाती है। अगर एक हिन्दू कोई ऊँचा ओहदा पा जाता है तो मुसलमानों में हाय! हाय!’ की सदा उठने लगती है। कोई कहता है इसलाम गारत हुआ, कोई कहता है इसलाम की किश्ती भँवर में पड़ी। लाहौल बिला कूअत! मजहब रूहाना तसकीन और नजात का जरिया है, न कि दुनिया के कमाने का ढकोसला। इस बहामी कुदूरत को हमारे मुल्ला और पण्डित और भी भड़काते हैं। मेरी आवाज नक्कारखाने में तूती की सदा है, पर कौमी दर्द, कौमी गैरत चुप नहीं बैठने देती। गला फाड़-फाड़ चिल्लाता हूँ, कोई सुने या न सुने। अंजुमन में इस वक्त सौ मेम्बर हैं कोई सत्तर हिन्दू साहबान हैं और तीस मुलसमान। उनके इन्तजाम से एक कुतुबखाना और मदरसा चलता है। अंजुमन का इरादा है कि एक इत्तहादी इबादतगाह बनाया जाय, जिसके एक जानिब शिवाला हो और दूसरे जानिब मस्जिद। एक यतीमखाने की बुनियाद डाल दी गयी है। दोनों कौमों के यतीमों को दाखिल किया जाता है। मगर अभी तक इमारतें नहीं बन सकीं। यह सब इरादे रुपये के मुहताज हैं। फकीर ने तो अपना सब कुछ निसार कर दिया। अब कौम को अख्तियार है, उसे चलाये या बन्द कर दे। क्यों डॉक्टर साहब, मेरा हिब्बानामा आपने तैयार फरमाया?


इर्फान अली– कोई तातील आये तो इतमीनान से आपका काम करूँ।


प्रेमशंकर ने श्रद्धाभाव से कहा, सैयद साहब की जात कौम के लिए बर्कत है। अंजुमन के लिए 100) की हकीर रकम नजर करता हूँ और यतीमखाने के लिए 50 मन गेहूँ, 5 मन शक्कर और 20) रुपये माहवार।


ईजाद हुसेन– खुदा आपको सबाब अता करे। अगर इजाजत हो तो जनाब का नाम भी ट्रस्टियों में दाखिल कर लिया जाय।


प्रेमशंकर– मैं इस इज्जत के लायक नहीं हूँ।


ईजाद– नहीं जनाब, मेरी यह इल्तजा आपको कबूल करनी होगी। खुदा ने आपकी एक दर्दमन्द दिल अता किया है। क्यों नहीं, आप लाला जटाशंकर मरहूम के खलक हैं जिनकी गरीबपरवरी से सारा शहर मालामाल होता था। यतीम आपको दुआएँ देंगे और अंजुमन हमेशा आपकी ममनून रहेगी?


इर्फान अली ने ज्वालासिंह से पूछा, आपका कमाय यहाँ कब तक रहेगा।


ज्वाला– कुछ अर्ज नहीं कर सकता। आया तो इस इरादे से हूँ कि बाबू प्रेमशंकर की गुलामी में जिन्दगी गुजार दूँ। मुलाजमत से इस्तीफा देना तय कर चुका हूँ।


इर्फान अली– वल्लाह! आप दोनों साहब बड़े जिन्दादिल हैं। दुआ कीजिए कि खुदा मुझे भी कनाअत (सन्तोष) की दौलत अता करे और मैं भी आप लोगों की सोहबत में फैज उठाऊँ।


ज्वालासिंह ने मुस्करा कर कहा, हमारे मुलाजिमों को बरी करा दीजिए, तब हम शबोरोज आपके लिए दुआएँ करेंगे।


इर्फान अली हँस कर बोले, शर्त तो टेढ़ी है, मगर मंजूर है। डॉक्टर चोपड़ा का बयान अपने मुआफिक हो जाय तो बाजी अपनी है।


ईजाद– अब जरा इस गरीब की भी खबर लीजिए। मेरे मुहल्ले में रहते हैं। कपड़े की बड़ी दुकान है। इनके बड़े भाई इनसे बेरुखी से पेश आते हैं। इन्हें जेब खर्च के लिए कुछ नहीं देते। हिसाब भी नहीं दिखाते, सारा नफा खुद हजम कर जाते हैं। कल इन्हें बहुत सख्त सुस्त कहा। जब इनका आधा हिस्सा है, तो क्यों न अपने हिस्से का दावा करें। यह बालिग हैं, अपना फायदा नुकसान समझते हैं, भाई की रोटियों पर नहीं रहना चाहते। बोली, भाई मथुरादास, बारिस्टर साहब से कहो क्या कहते हो?


मथुरादास ने जमीन की तरफ देखा और ईजाद हुसेन की ओर कनखियों से ताकते हुए बोले– मैं यही चाहता हूँ कि भैया से आप मेरी राजी-खुशी करा दें। कल मैंने उन्हें गाली दे दी थी। अब वह कहते हैं, तू ही घर सँभाल, मुझसे कोई वास्ता नहीं। कुंजियाँ सब फेंक दी हैं और दुकान पर नहीं जाते।


ईजाद हुसेन ने मथुरादास की ओर वक्रदृष्टि से देखकर कहा, साफ-साफ अपना मतलब क्यों नहीं कहते? आप इनकी मन्शा समझ गये होंगे। अभी ना-तजुर्बेंकार आदमी, बातचीत करने की तमीज नहीं है, जभी तो रोज धक्के खाते हैं। इनकी मन्शा है कि आप दावा दायर करें, लेकिन यह मामले को तूल नहीं देना चाहते, सिर्फ अलदहा होना चाहते हैं क्यों ठीक है न?


मथुरादास– (सरल भाव से) जी हाँ, बस यही चाहता हूँ कि उनसे मेरी राजी-खुशी हो जाय।


मुंशी रमजानअली मुहर्रिर थे। ईजाद हुसेन मथुरादास को उनके कमरे में ले गये। वहाँ खासा दफ्तर था। कई आदमी बैठे लिख रहे थे। रमजान अली ने पूछा, कितने का दावा होगा?


ईजाद– यही कोई एक लाख का।


रमजान अली ने वकालातनामा लिखा। कोर्ट फीस, तलबाना, मेहनताना, नजराना आदि वसूल किये, जो मथुरादास ने ईजाद हुसेन की ओर अविश्वास की दृष्टि से देखते हुए दिये, जैसे कोई किसान पछता-पछता कर दक्षिणा के पैसे निकालता है। और तब दोनों सज्जनों ने घर की राह ली।


रास्ते में मथुरादास ने कहा, आपने जबरदस्ती मुझे भैया से लड़ा दिया। सैकड़ों रुपये की चपत पड़ गयी और अभी कोर्ट फीस बाकी ही है।


ईजाद हुसेन बोले, एहसान तो न मानोगे कि भाई की गुलामी से आजाद होने का इन्तजाम कर दिया। आधी दूकान के मालिक बनकर बैठोगे, उल्टे और शिकायत करते हो।


32.


डाक्टर प्रियनाथ चोपड़ा बहुत ही उदार, विचारशील और सहृदय सज्जन थे। चिकित्सा का अच्छा ज्ञान था और सबसे बड़ी बात यह है कि उनका स्वभाव अत्यन्त कोमल और नम्र था। अगर रोगियों के हिस्से की शाक-भाजी, दूध-मक्खन, उपले-ईधन का एक भाग उनके घर में पहुँच जाता था, तो यह केवल वहाँ की प्रथा थी। उनके पहले भी ऐसा ही व्यवहार होता था। उन्होंने इसमें हस्तक्षेप करने की जरूरत न समझी। इसलिए उन्हें कोई बदनाम कर सकता था और न उन्हें स्वयं ही इसमें कुछ दूषण दिखाई देता था। वह कम वेतन वाले कर्मचारियों से केवल आधी फीस लिया करते थे और रात की फीस भी मामूली ही रखी थी। उनके यहा सरकारी चिकित्सालय से मुफ्त दवा मिल जाती थी, इसलिए उनकी अन्य डाक्टरों से अधिक चलती थी। इन कारणों से उनकी आमदनी बहुत अच्छी हो गयी थी। तीन साल पहले वह यहाँ आये थे तो पैरगाड़ी पर चलते थे, अब एक फिटन थी। बच्चों को हवा खिलाने के लिए छोटी-छोटी सेजगाड़ियाँ थीं। फर्नीचर और फर्शें आदि अस्पताल के ही थे। नौकरों का वेतन भी गाँठ से न देना पड़ता था। पर इतनी मितव्ययिता पर भी वह अपनी अवस्था की तुलना जिले के सब-इन्जीनियर या कतिपय वकीलों से करते थे तो उन्हें विशेष आन्नद न होता था। यद्यपि उन्हें कभी-कभी ऐसे अवसर मिलते थे जो उनकी आर्थिक कामनाओं को सफल कर सकते थे, पर उनकी विचारशीलता भी उन्हें बहकने न देती थी। कॉलेज छोड़ने के बाद कई वर्ष तक उन्होंने निर्भीकता से अपने कर्तव्य का पालन किया था, लेकिन कई बार पुलिस के विरुद्ध गवाही देने पर मुँह की खानी पड़ी तो चेत गये। वह नित्य पुलिस का रुख देखकर अपनी नीति स्थिर किया करते थे तिस पर भी अपने निदानों को पुलिस की इच्छा के अधीन रखने में उन्हें मानसिक कष्ट होता था। अतएव जब गौस खाँ की लाश उनके पास निरीक्षण के लिए भेजी गयी तो वह बड़े असमंजस में पड़े। निदान कहता था कि यह एक व्यक्ति का काम है, एक ही वार में काम तमाम हुआ है, किन्तु पुलिस की धारणा थी कि यह एक गुट्टा का काम है। बेचारे बड़ी दुविधा में पड़े हुए थे। यह महत्त्वपूर्ण अभियोग था। पुलिस ने अपनी सफलता के लिए कोई बात न उठा रखी थी। उसका खंडन करना उससे वैर मोल लेना था और अनुभव से सिद्ध हो गया था कि यह बहुत महँगा सौदा है। गुनाह था मगर बेलज्जत। कई दिन तक इसी हैस-बैस में पड़े रहे, पर बुद्धि कुछ काम न करती थी। इसी बीच में एक दिन ज्ञानशंकर उनके पास रानी गायत्री देवी का एक पत्र और 500 रुपये पारितोषिक लेकर पहुँचे। रानी महोदय ने उनकी कीर्ति सुनकर अपनी गुण-ग्राहकता का परिचय दिया था। उनमें शिशुपालन पर एक पुस्तक लिखवाना चाहती थीं। इसके अतिरिक्त उन्हें अपना गृह चिकित्सक भी नियत किया था और प्रत्येक ‘विजिट’ के लिए 100 रुपये का वादा था। डॉक्टर साहब फूले न समाए। ज्ञानशंकर की ओर अनुग्रह पूर्ण नेत्रों से देखकर बोले, श्रीमती जी की इस उदार गुणग्रहकता का धन्यवाद देने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। आप मुझे अपना सेवक समझिए। यह सब आपकी कृपादृष्टि है, नहीं तो मेरे जैसे हजारों डॉक्टर पड़े हुए हैं। ज्ञानशंकर ने इसका यथोचित उत्तर दिया इसके बाद देश-काल सम्बन्धी विषयों पर वार्तालाप होने लगा। डॉक्टर साहब का दावा था कि मैं चिकित्सा में आई० एम० एस० वालों से कहीं कुशल हूँ और ऐसे असाध्य रोगियों का उद्धार कर चुका हूँ जिन्हें सर्वज्ञ आई० एम० एस० वालों ने जवाब दे दिया था। लेकिन फिर भी मुझे इस जीवन में इस पराधीनता से मुक्त होने की कोई आशा नहीं। मेरे भाग्य में विलायत के नव-शिक्षित युवकों की मातहती लिखी हुई है।


ज्ञानशंकर ने इसके उत्तर की देश में राजनीतिक परिस्थिति का उल्लेख किया। चलते समय उनसे बड़े निःस्वार्थ भाव से पूछा, लखनपुर के मामले में आपने क्या निश्चय किया? लाश तो आपके यहाँ आयी होगी?


प्रियनाथ– जी हाँ, लाश आयी थी। चिह्न से तो यह पूर्णतः सिद्ध होता है कि यह केवल एक आदमी का काम है, किन्तु पुलिस इसमें कई आदमियों को घसीटना चाहती है। आपसे क्या छिपाऊँ, पुलिस को असन्तुष्ट नहीं कर सकता, लेकिन यों निरपराधियों को फँसाते हुए आत्मा को घृणा होती है।


ज्ञानशंकर– सम्भव है आपने चिह्न से राय स्थिर की है वही मान्य हो, लेकिन वास्तव में यह हत्या कई आदमियों की साजिशों से हुई है। लखनपुर मेरा ही गाँव है।


प्रियनाथ– अच्छा, लखनपुर आपका ही गाँव है। तो यह कारिन्दा आपका नौकर था?


ज्ञान– जी हाँ, और बड़ा स्वामिभक्त, अपने काम में कुशल। गाँववालों को उससे केवल यही चिढ़ थी कि वह उनसे मिलता न था। प्रत्येक विषय में मेरे ही हानि-लाभ का विचार करता था। यह उसकी स्वामिभक्ति का दण्ड है। लेकिन मैं इस घटना को पुलिस की दृष्टि से नहीं देखता। हत्या हो गयी, एक ने की या कई आदमियों मिलकर की। मेरे लिए यह समस्या इससे कहीं जटिल है। प्रश्न ज़मींदार और किसानों का है। अगर हत्याकारियों को उचित दण्ड न दिया गया तो इस तरह की दुर्घटनाएँ आये दिन होने लगेंगी और जमींदारों को अपनी जान बचाना कठिन हो जायेगा।


प्रस्तुत प्रश्न को यह नया स्वरूप दे कर ज्ञानशंकर विदा हुए। यद्यपि हत्या के सम्बन्ध में डॉक्टर साहब की अब भी वही राय थी, लेकिन अब यह गुनाह बेलज्जत न था। 500 रुपये का पारितोषिक 100 रुपये फीस, साल में हजार-दस हजार मिलते रहने की आशा, उस पर पुलिस की खुशनूदी अलग। अब आगे-पीछे की जरूरत न थी। हाँ, अब अगर भय था तो डॉक्टर इर्फान अली की जिरहों का। डॉक्टर साहब की जिरह प्रसिद्ध थी। अतएव प्रियनाथ ने इस विषय के कई ग्रन्थों का अवलोकन किया और अपने पक्ष समर्थन के तत्त्व खोज निकाले। कितने ही बेगुनाहों की गर्दन पर छुरी फिर जायेगी, इसकी उन्हें एक क्षण के लिए भी चिन्ता न हुई। इस ओर उनका ध्यान ही न गया। ऐसे अवसरों पर हमारी दृष्टि कितनी संकीर्ण हो जाती है?


दिन के दस बजे थे। डॉक्टर महोदय ग्रन्थों की एक पोटली ले कर फिटन पर सवार हो कचहरी चले। उनका दिल धड़क रहा था। जिरह में उखड़ जाने की शंका लगी हुई थी। वहाँ पहुँचते ही मैजिस्ट्रेट ने उन्हें तलब किया। जब वह कटघरे के सामने आ कर खड़े हुए और अभियुक्तों को अपनी ओर दीन नेत्रों से ताकते देखा तो एक क्षण के लिए उनका चित्त अस्थिर हो गया। लेकिन यह एक क्षणिक आवेग था, आया और चला गया। उन्होंने बड़ी तात्त्विक गभीरता, मर्मज्ञतापूर्णभाव से इस हत्याकांड का विवेचन किया। चिह्नों से यह केवल एक आदमी का काम मालूम होता है। लेकिन हत्याकारियों ने बड़ी चालाकी से काम लिया है। इस विषय में वे बड़े सिद्धहस्त हैं। मृत्यु का कारण कुल्हाड़ी या गँड़ासे का आघात नहीं है, बल्कि गले का घोंटना है और कई आदमियों की सहायता के बिना गले का घोंटना असम्भव है। प्राणांत हो जाने पर एक वार से उसकी गर्दन काट ली गयी है। जिसमें यह एक ही व्यक्ति का कृत्य समझा जाय।


इर्फान अली की जिरह शुरू हुई।


‘आपने कौन सा इम्तहान पास किया है?’


‘मैं लाहौर का एल० एम० एस० और कलकत्ते का एम० बी० हूँ।


‘आपकी उम्र क्या है?’


‘चालीस वर्ष।’


‘आपका मकान कहाँ है?’


‘दिल्ली।’


‘आपकी शादी हुई है? अगर हुई है तो औलाद है या नहीं?’


‘मेरी शादी हो गयी है और कई औलादें हैं।’


‘उनकी परवरिश पर आपका कितना खर्च होता है?’


इर्फान अली यह प्रश्न ऐसे पांडित्यपूर्ण स्वाभिमान से पूछ रहे थे, मानों इन्हीं पर मुकदमें का दारोमदार है। प्रत्येक प्रश्न पर ज्वालासिंह की ओर गर्व के साथ देखते। मानों उनसे अपनी प्रखर नैयायिकता की प्रशंसा चाहते हैं। लेकिन इस अन्तिम प्रश्न पर मैजिस्ट्रेट ने एतराज किया, इस प्रश्न से आपका क्या अभिप्राय है।


इर्फान अली ने गर्व से कहा– अभी मेरा मन्शा जाहिर हुआ जाता है।


यह कहकर उन्होंने प्रियनाथ से जिरह शुरू की। बेचारे प्रियनाथ मन में सहमें जाते थे। मालूम नहीं यह महाशय मुझे किस जाल में फाँस रहे हैं।


इर्फान अली– आप मेरे आखिरी सवाल का जवाब दीजिए?


‘मेरे पास उसका कोई हिसाब नहीं है।


‘आपके यहाँ माहवार कितना दूध आता है और उसकी क्या कीमत पड़ती है?’


‘इसका हिसाब मेरे नौकर रखते हैं।’


‘घी पर माहवार क्या खर्च आता है?’


‘मैं अपने नौकर से पूछे बगैर इन गृह-सम्बन्धी प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सकता।’


इर्फान अली ने मैजिस्ट्रेट से कहा, मेरे सवालों के काबिल इत्मीनान जवाब मिलने चाहिए।


मैजिस्ट्रेट– मैं नहीं समझता कि इन, सवालों से आपकी मन्शा क्या है?


इर्फान अली– मेरी मन्शा गवाह की एखलाकी हालत का परदाफाश करना है। इन सवालों से मैं यह साबित कर देना चाहता हूँ कि वह बहुत ऊँचे वसूलों का आदमी नहीं है।


मैजिस्ट्रेट– मैं इन प्रश्नों को दर्ज करने से इन्कार करता हूँ।


इर्फान अली– तो मैं भी जिरह करने से इन्कार करता हूँ।


यह कह कर बारिस्टर साहब इजलास से बाहर निकल आये और ज्वालासिंह से बोले, आपने देखा, यह हजरत कितनी बेजा तरफदारी कर रहें हैं? वल्लाह! मैं डॉक्टर साहब के लत्ते उड़ा देता। यहाँ ऐसी-वैसी जिरह न करते। मैं साफ साबित कर देता कि जो आदमी छोटी-छोटी रकमों पर गिरता है वह ऐसे बड़े मामले में बेलौस नहीं रह सकता। कोई मुजायका नहीं। दीवानी में चलने दीजिए, वहाँ इनकी खबर लूँगा।


इसके एक घंटा पीछे मैजिस्ट्रेट ने फैसला सुना दिया– सब अभियुक्त सेशन सुपुर्द। संध्या हो गयी थी। ये विपत्ति के मारे फिर हवालात चले। सबों के मुख पर उदासी छायी हुई थी, प्रियनाथ के बयान ने उन्हें हताश कर दिया था। वह यह कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि ऐसा उच्च पदाधिकारी प्रलोभनों के फेर में पड़ कर असत्य की ओर जा सकता है। सभी गर्दन झुकाए चले जाते थे। अकेला मनोहर रो रहा था।


इतने में प्रियनाथ की फिटन सड़क से निकली। अभियुक्तों ने उन्हें अवहेलनापूर्ण नेत्रों से देखा। मानों कह रहे थे, ‘आपको हम दीन-दुखियों पर तनिक भी दया न आयी।’ डॉक्टर साहब ने भी उन्हें देखा, आँखों में ग्लानि का भाव झलक रहा था।


33.


जब मुकदमा सेशन सुपुर्द हो गया और ज्ञानशंकर को विश्वास हो गया कि अब अभियुक्तों का बचना कठिन है तब उन्होंने गौस खाँ की जगह पर फैजुल्लाह को नियुक्त किया और खुद गोरखपुर चले आए। यहाँ से गायत्री की कई चिट्ठियाँ गयी थीं। मायाशंकर को भी साथ लाये। विद्या ने बहुत कहा कि मेरा जी घबड़ायेगा, पर उन्होंने न माना।


इस एक महीने में ज्ञानशंकर ने वह समस्या हल कर ली जिस पर वह कई सालों से विचार कर रहे थे। उन्होंने वह मार्ग निर्धारित कर लिया था जिससे गायत्री देवी के हृदय तक पहुँच सकें। इस मार्ग की दो शाखाएँ थीं, एक विरोधात्मक और दूसरी विधानात्मक। ज्ञानशंकर ने यही दूसरा मार्ग ग्रहण करना निश्चय किया। गायत्री के धार्मिक भावों को हटाना, जो किसी गढ़ की दुर्भेद्य दीवारों की भाँति उसको वासनाओं से बचाए हुए थे, दुस्तर था। ज्ञानशंकर एक बार इस प्रयत्न में असफल हो चुके थे और कोई कारण न था कि उस साधन का आश्रय लेकर वह फिर असफल न हो। इसकी अपेक्षा दूसरा मार्ग सुगम और सुलभ था। उन धार्मिक भावों को हटाने के बदलें उन्हें और दृढ़ क्यों न कर दूँ! इमारत को विध्वंस करने के बदले उसी भित्ति पर क्यों न और रद्दे चढ़ा दूँ? पानी के बहाव का रुख पलटने की जगह धारा को और तेज क्यों न कर दूँ। उसको अपना बनाने के बदले क्यों न आप ही उसका हो जाऊँ?


ज्ञानशंकर ने गोरखपुर आ कर पहले से भी अधिक उत्साह और अध्यवसाय के काम करना शुरू किया। धर्मशाला का काम स्थगित हो गया था। अब की ठेकेदारों से काम न ले कर उन्होंने अपनी ही निगरानी में बनवाना शुरू किया। उसके सामने ही एक ठाकुरद्वारे का शिलारोपण भी कर दिया। वह नित्यप्रति प्रातःकाल मोटर पर सवार हो कर घर से निकल जाते और इलाके का चक्कर लगा कर सन्ध्या तक लौट आते। किसी कारिन्दे या कर्मचारी की मजाल न थी कि एक कौड़ी तक खा सके। किसी शहना या चपरासी की ताब न थी असामियों पर किसी प्रकार की सख्ती कर सके और न किसी असामी का दिल था कि लगान चुकाने में एक दिन का भी विलम्ब कर सके। सहकारी बैंक का काम भी चल निकला। किसान महाजनों के जाल से मुक्त होने लगे और उनमें यह सामर्थ्य होने लगी कि खरीदारों के भाव पर जिन्स न बेचकर अपने भाव पर बेच सकें। ज्ञानशंकर का यह सुप्रबन्ध और कार्यपटुता देख कर गायत्री की सदिच्छा श्रद्धा का रूप धारण करती जाती है। वह विविध रूप से प्रत्युपकार की चेष्टा करती। विद्या के लिए तरह-तरह की सौगात भेजती और मायाशंकर पर तो जान ही देती थी। उसकी सवारी के लिए दो टाँघन थे, पढ़ाने के लिए दो मास्टर। एक सुबह को आता था, दूसरा शाम को। उसकी टहल के लिए अलग दो नौकर थे। उसे अपने सामने बुला कर नाश्ता कराती थी। आप अच्छी-अच्छी चींजे बना कर उसे खिलाती, कहानियाँ सुनाती और उसकी कहानियाँ सुनती। उसे आये दिन इनाम देती रहती। मायाशंकर अपनी माँ को भूल गया। वह ऐसा समझदार, ऐसा मिष्टभाषी, ऐसा विनयशील, ऐसा सरल बालक था कि थोड़े ही दिनों में गायत्री उसे हृदय से प्यार करने लगी।


ज्ञानशंकर के जीवन में भी एक विशेष परिवर्तन हुआ। अब वह नित्य सन्ध्या समय भागवत की कथा सुना करते। दो-चार साधु-सन्त-जमा होते, मेल-जोल के दस-पाँच सज्जन आ जाते, मोहल्ले के दो-चार श्रद्धालु पुरुष आ बैठते और एक छोटी-मोटी धार्मिक सभा हो जाती। यहाँ कृष्ण भगवान् की चर्चा होती, उसकी प्रेम-कथाएँ सुनायी जातीं और कभी-कभी कीर्तन भी होता था। लोग प्रेम में मग्न हो कर रोने लगते और सबसे अधिक अश्रु-वर्षा ज्ञानशंकर की ही आँखों से होती थी। वह प्रेम के हाथों बिक गये थे।


एक दिन गायत्री ने कहा, अब तो आपके यहाँ नित्य कृष्ण-चर्चा होती है, पर्दे का प्रबन्ध हो जाय तो मैं भी आया करूँ। ज्ञानशंकर ने श्रद्धापूर्ण नेत्रों से गायत्री को देखकर कहा, यह सब आप ही के सत्संग का फल है। आपने ही मुझे यह भक्ति-मार्ग दिखाया है और मैं आपको ही अपना गुरु मानता हूँ। आज से कई मास पहले मैं माया-मोह में फँसा हुआ, इच्छाओं का दास, वासनाओं का गुलाम और सांसारिक बन्धनों में जकड़ा हुआ था। आपने मुझे बता दिया कि संसार में निर्लिप्त होकर क्योंकर रहना चाहिए। इतनी सम्पत्तिशानिली हो कर भी आप संन्यासिनी हैं। आपके जीवन ने मेरे लिए सदुपदेश का काम किया है।


गायत्री ज्ञानशंकर को विद्या और ज्ञान का अगाध सागर समझती थी। वह महान् पुरुष जिसकी लेखनी में यह सामर्थ्य हो कि मुझे रानी के पद से विभूषित करा दे, जिसकी वक्तृताओं को सुन कर बड़े-बड़े अँग्रेज उच्चाधिकारी दंग रह जायँ, जिसके सुप्रबन्ध की आज सारे जिले में धूम है, मेरा इतना भक्त हो, इस कल्पना से ही उसका गौरवशील हृदय विह्वल हो गया। ऐसे सम्मानों के अवसर पर उसे अपने स्वामी की याद आ जाती थी। विनीत भाव से बोली, बाबू जी यह सब भगवान् की दया है। उन्होंने आपको यह भक्ति प्रदान की है नहीं तो लोग यावज्जीवन धर्मोपदेश सुनते रह जाते हैं और फिर भी उनके ज्ञानचक्षु नहीं खुलते। कहीं स्वामी से आपकी भेंट हो गई होती तो आप उनके दर्शनमात्र से ही मुग्ध हो जाते। वह धर्म और प्रेम के अवतार थे। मैं जो कुछ हूँ उन्हीं की बनायी हुई हूँ। यथासाध्य उन्हीं की शिक्षाओं का पालन करती हूँ, नहीं तो मेरी गति कहाँ थी कि भक्तिरस का स्वाद पा सकती।


ज्ञानशंकर– मुझे भी यह खेद है कि उन महात्मा के दर्शनों से वंचित रह गया। जिसके सदुपदेश में यह महान शक्ति है वह स्वयं कितना प्रतिभाशील होगा! मैं कभी-कभी स्वप्न में उनके दर्शन से कृतार्थ हो जाता हूँ। कितनी सौम्य मूर्ति थी मुखारविन्द से प्रेम की ज्योति सी प्रसारित होती हुई जान पड़ती है। साक्षात कृष्ण भगवान के अवतार मालूम होते हैं।


दूसरे दिन से पर्दे का आयोजन हो गयी और गायत्री नित्य प्रति इन सत्संगों में भाग लेने लगीं। भक्तों की संख्या दिनों-दिन बढ़ने लगी। कीर्तन के समय लोग भावोन्मत्त होकर नाचने लगते। गायत्री के हृदय से भई यही प्रेम-तरंगें उठतीं। यहाँ तक कि ज्ञानशंकर भी स्थिर चित्त न रह सकते। कृष्ण के पवित्र प्रेम की लीलाएँ उनके चित्त को एक क्षण के लिए प्रेम से आभासित कर देती थी। और इस प्रकाश में उन्हें अपनी कुटिलता और क्षुद्रता अत्यन्त घृणोत्पादक दीख पड़ती। लेकिन सत्संग के समाप्त होते ही यह क्षणिक ज्योति फिर स्वार्थन्धकार में विलीन हो जाती थी। बालक कृष्ण की भोली-भाली क्रीड़ाएँ, उनकी वह मनोहर तोतली बातें, यशोदा का वह विलक्षण पुत्र-प्रेम, गोपियों को वह आत्माविस्मृति, प्रीति के वह भावमय रहस्य, वह अनुराग के उद्गार वह वंशी की मतवाली तान, वह यमुना तट के विहार की कथाएँ, लोगों को अतीव आनन्दप्रद आत्मिक उल्लास का अनुभव देती थीं। भूतवादियों की दृष्टि में ये कथाएँ कितनी ही लज्जास्पद क्यों न हों, पर उन भक्तों के अन्तःकरण इनके श्रवण-मात्र से ही गद्गद हो जाते थे। राधा और यशोदा का नाम आते ही आँखों से आँसू की झड़ी लग जाती थी। कृष्ण के नाम में क्या जादू है, इसका अनुभव हो जाता था।


एक बार वृन्दावन से रासलीला-मंडली आयी और महीने भर तक लीला करती रही। सारा शहर देखने को फट पड़ता था। ज्ञानशंकर प्रेम की मूर्ति बने हुए लोगों का आदर-सत्कार करते। छोटे-बड़े सबको खातिर से बैठाते। स्त्रियों के लिए विशेष प्रबन्ध कर दिया गया था। यहाँ गायत्री उनका स्वागत करती, उनके बच्चों को प्यार करती और मिठाई-मेवे बाँटती। जिस दिन कृष्ण के मथुरा गमन की लीला हुई, दर्शकों की इतनी भीड़ हुई कि साँस लेना मुश्किल था। यशोदा और नन्द की हृदय-विदारणी बातें सुन कर दर्शकों में कोहराम मच गया रोते-रोते कितने ही भक्तों की घिग्घी बँध गयी और गायत्री तो मुर्च्छित होकर गिर ही पड़ी। होश आने पर उसने अपने को अपने शयनगृह में पाया। कमरे में सन्नाटा छाया हुआ था, केवल ज्ञानशंकर उसे पंखा झल रहे थे। गायत्री पर इस समय आलसता छायी हुई थी। जब मनुष्य किसी थके हुए पथिक की भाँति अधीर हो कर छाँह की ओर दौड़ता है, उसका हृदय निर्मल, विशुद्ध प्रेम से परिपूर्ण हो जाता है। उसने ज्ञानशंकर को बैठ जाने का संकेत किया और तब शैशवोचित सरलता से उनकी गोद में सिर रखकर आकांक्षापूर्ण भाव से बोली, मुझे वृन्दावन ले चलो।


तीसरे दिन रासलीला समाप्त हुई। उसी दिन ज्ञानशंकर गायत्री को संग ले बड़े समारोह के साथ वृन्दावन चले।


34.


सेशन जज के इजलास में एक महीने से मुकदमा चल रहा है। अभियुक्त ने फिर सफाई दी। आज मनोहर का बयान था। इजलास में एक मेला सा लगा हुआ था। मनोहर ने बड़ी निर्भीक दृढ़ता के साथ सारी घटना आदि से अन्त तक बयान की और यदि जनता को अधिकार होता तो अभियुक्तों का बेदाग छूट जाना निश्चित था, किन्तु अदालत जाब्ते और नियमों के बन्धन में जकड़ी हुई थी। वह जान कर अनजान बनने पर बाध्य थी। मनोहर के अन्तिम वाक्य बड़े मार्मिक थे– सरकार, माजरा यही है जो मैंने आपसे अरज किया। मैंने गौस खाँ को इसी कुल्हाड़ी से और इन्हीं हाथों से मारा। कोई मेरा साथी, मेरा सलाहकार, मेरा मददगार नहीं था। अब आपको अख्तियार है, चाहे सारे गाँव को फाँसी पर चढ़ा दें, चाहे काले-पानी भेज दें, चाहे छोड़ दें। फैजू, बिसेसर, दारोगा ने जो कुछ कहा है, सब झूठ है। दारोगा जी की बात तो मैं नहीं चलाता, पर सरकार, फैजू और बिसेसर को अपने घर बुलायें और दिलासा दें कि पुलिस तुम्हारा कुछ न कर सकेगी तो मेरी सच-झूठ की परख हो जाय और मैं क्या कहूँ। उन लोगों का काठ का कलेजा होगा जो इतने गरीबों को बेकसूर फाँसी पर चढ़वाये देते हैं। भगवान, झूठ-सच सब देखते हैं। बिसेसर और फैजू की तो थोड़ी औकात है और दारोगा जी झूठ की रोटी खाते है, पर डाक्टर साहब इतने बड़े आदमी और ऐसे विद्वान कैसे झूठी गंगा में तैरने लगे, इसका मुझे अचरज है। इसके सिवा और क्या कहा जाय कि गरीबों का नसीब ही खोटा है कि बिना कसूर किये फाँसी पाते हैं। अब सरकार से और पंचों से यही विनती है कि तुम इस घड़ी न्याय के आसन पर बैठे हो, अपने इन्साफ से दूध का दूध और पानी का पानी कर दो।


अदालत उठी। यह दुखियारे हवालात चले। और सभों ने तो मन को समझ लिया था कि भाग्य में जो कुछ बदा है वह होकर रहेगा, पर दुखरन भगत की छाती पर साँप लोटता रहता था। उसे रह-रह कर उत्तेजना होती थी कि अवसर पाऊं तो मनोहर को खूब आड़े हाथों लूँ, किन्तु मजबूर था, क्योंकि मनोहर सबसे अलग रखा जाता था। हाँ, वह बलराज को ताना दे-देकर अपने चित्त की दाह को शान्त किया करता था। आज मनोहर का बयान सुन कर उसे और भी चिढ़ हुई। जब चिड़ियाँ खेत चुग गयी तो यह हाँक लगाने चले हैं। उस घड़ी अकल कहाँ चली थी। जब एक जरा सी बात पर कुल्हाड़ा बाँध कर घर से चले थे। इस समय मार्ग में उसे मनोहर पर अपना क्रोध उतारने का मौका मिल गया। बोला– आज क्या झूठ-मूठ बकवाद कर रहे थे। आदमी को तीर चलाने से पहले सोच लेना चाहिए कि वह किसको लगेगा। जब तीर कमान से निकल गया तो फिर पछताने से क्या होता है? तुम्हारे कारण सारा गाँव चौपट हो गया। अनाथ लड़कों और औरतों की कौन सुध लेनेवाला है? बेचारे रोटियों तो तरसते होंगे। तुमने सारे गाँव को मटियामेट कर दिया।


मनोहर को स्वयं आठों पहर यह शोक सताया करता था। गौस खाँ का वध करते समय उसे यही चिन्ता थी। इसलिए उसने खुद थाने में जाकर अपना अपराध स्वीकार कर लिया था। गाँव को आफत से बचाने के लिए जो कुछ हो सकता था वह उसने किया उसे दृढ़ विश्वास था कि चाहे मुझे दुष्कृत्य पर कितना ही पश्चत्ताप हो रहा हो, अन्य लोग मुझे क्षम्य ही न समझते होंगे, मुझसे सहानुभूति भी रखते होंगे। मुझे जलाने के लिए अन्दर की आग क्या कम है कि ऊपर से भी तेल छिड़का जाय। वह दुखरन की ये कटु बातें सुनकर बिलबिला उठा, जैसे पके हुए फोड़े में ठेस लग जाय। कुछ जवाब न दे सका।


आज अभियुक्तों के लिए प्रेमशंकर ने जेल के दारोगा की अनुमति से कुछ स्वादिष्ट भोजन बनवाकर भेजे थे। अपने उच्च सिद्धान्तों के विरुद्ध वह जेलखाने के छोटे-छोटे कर्मचारियों की भी खातिर और खुशामद किया करते थे, जिसमें वे अभियुक्तों पर कृपादृष्टि रखें। जीवन के अनुभवों ने उन्हें बता दिया था कि सिद्धान्तों की अपेक्षा मनुष्य अधिक आदरणीय वस्तु है। औरों ने तो इच्छा पूर्ण भोजन किया, लेकिन मनोहर इस समय हृदय ताप से विकल था। उन पदार्थों की रुचिवर्द्धक सुगन्धि भी उसकी क्षुधा को जागृत न कर सकी। आज वह शब्द उसके कानों में गूँज रहे थे। जो अब तक केवल हृदय में ही सुनायी देते थे– तुम्हारे कारण सारा गाँव मटियामेट हो गया, तुमने सारे गाँव को चौपट कर दिया। हाँ, यह कलंक मेरे माथे पर सदा के लिए लग गया, अब यह दाग कभी न छूटेगा। जो अभी बालक हैं वे मुझे गालियाँ दे रहे होंगे। उनके बच्चे मुझे गाँव का द्रोही समझेंगे। जब मरदों के यह विचार हैं, जो सब बातें जानते हैं, जिन्हें भली-भाँति मालूम है कि मैंने गाँव को बचाने के लिए अपनी ओर से कोई बात उठा नहीं रखी और जो अन्धेर हो रहा है वह समय का फेर है, तो भला स्त्रियाँ क्या कहती होंगी, जो बेसमझ होती हैं। बेचारी बिलासी गाँव में किसी को मुँह न दिखा सकती होगी। उसका घर से निकलना मुश्किल हो गया होगा और क्यों न कहें? उनके सिर बीत रही है तो कहेंगे क्यों न? अभी तो अगहनी घर में खाने को हो जायगी, लेकिन खेत तो बोये न गये होंगे। चैत में जब एक दाना भी न उपजेगा, बाल-बच्चे दाने को रोयेंगे तब उनकी क्या दशा होगी। मालूम होता है इस कम्बल में खटमल हो गये हैं, नोचे डालते हैं, और यह रोना साल-दो साल का नहीं है, कहीं सब काले पानी भेज दिये गये तो जन्म भर का रोना है। कादिर मियाँ का लड़का तो घर सँभाल लेगा, लेकिन और सब तो मिट्टी में मिल जायेंगे और यह सब मेरी करनी का फल है।


सोचते-सोचते मनोहर को झपकी आ गयी। उसने स्वप्न देखा कि एक चौड़े मैदान में हजारों आदमी जमा हैं। फाँसी खड़ी है और मुझे फाँसी पर चढ़ाया जा रहा है। हजारों आँखें मेरी ओर घृणा की दृष्टि से ताक रही हैं। चारों तरफ से यही ध्वनि आ रही है, इसी ने सारे गाँव को चौपट किया। फिर उसे ऐसी भावना हुई कि मर गया हूँ और कितने ही भूत-पिशाच मुझे चारों ओर से घेरे हुए हैं और कह रहे हैं कि इसी ने हमें दाने-दाने को तरसा कर मार डाला, यही पापी है, इसे पकड़ कर आग में झोंक दो। मनोहर के मुख से सहसा एक चीख निकल आयी। आँखें खुल गयीं। कमरा खूब अँधेरा था, लेकिन जागने पर भी वह पैशाचिक भयंकर मूर्तियाँ उसके चारों तरफ मँडराती हुई जान पड़ती थीं। मनोहर की छाती बड़े वेग से धड़क रही थी जी चाहता था, बाहर निकल भागूँ, किन्तु द्वार बन्द थे।


अकस्मात मनोहर के मन में यह विचार अंकुरित हुआ– क्या मैं यही सब कौतुक देखने और सुनने के लिए जियूँ? सारा गाँव, सारा देश मुझसे घृणा कर रहा है। बलराज भी मन में मुझे गालियाँ दे रहा होगा। उसने मुझे कितना समझाया, लेकिन मैंने एक न मानी। लोग कहते होंगे सारे गाँव को बँधवाकर अब यह मुस्टंडा बना हुआ है। इसे तनिक भी लज्जा नहीं, सिर पटक कर मर क्यों नहीं जाता! बलराज पर भी चारों ओर से बौछारें पड़ती होंगी, सुन-सुनकर कलेजा फटता होगा। अरे! भगवान, यह कैसा उजाला है? नहीं, उजाला नहीं है। किसी पिशाच की लाल-लाल आँखें हैं, मेरी ही तरफ लपकी आ रही हैं! या नारायण! क्या करूँ? मनोहर की पिंडलियां काँपने लगीं। यह लाल आँखें प्रतिक्षण उसके समीप आती-जाती थीं। वह न तो उधर देख ही सकता था और न उधर से आँख ही हटा सकता था, मानो किसी आसुरिक शक्ति ने उसके नेत्रों को बाँध दिया हो। एक क्षण के बाद मनोहर को एक ही जगह कई आँखें दिखायी देने लगीं, नहीं, प्रज्विलत, अग्निमय, रक्तयुक्त नेत्रों का एक समूह है! धड़ नहीं, सिर नहीं, कोई अंग नहीं, केवल विदग्ध आँखें ही हैं, जो मेरी तरफ टूटे हुए तारों की भाँति सर्राटा भरती चली आती हैं। एक पल और हुआ, यह नेत्र- समूह शरीर-युक्त होने लगा और गौस खाँ के आहत स्वरूप में बदल गया। यकायक बाहर धड़ाक की आवाज हुई। मनोहर बदहवास हो कर पीछे की दीवार की ओर भागा, लेकिन एक ही पग में दीवार से टकरा कर गिर पड़ा, सिर में चोट आयी। फिर उसे जान पड़ा कोई द्वार का ताला खोल रहा है। तब किसी ने पुकारा, ‘मनोहर! मनोहर! मनोहर ने आवाज पहचानी। जेल का दारोगा था। उसकी जान में जान आयी। कड़क कर बोला– हाँ साहब, जागता हूँ। पैशाचिक जगत से निकलकर वह फिर चैतन्य संसार में आया। उसे अब नेत्र समूह का रहस्य खुला। दारोगा की लालटेन की ज्योति थी जो किवाड़ की दरारों से कोठरी में आ रही थी। इसी साधारण-सी बात ने उसे इतना सशंक कर दिया था। दारोगा आज गश्त करने निकला था।


दारोगा के चले जाने के बाद मनोहर कुछ सावधान हो गया। शंकोत्पादक कल्पनाएँ शान्त हुईं, लेकिन अपने तिरस्कार और अपमान की चिन्ताओं ने फिर आ घेरा। सोचने लगा, एक वह हैं जो उजड़े हुए गाँवों को आबाद करते हैं और जिनका यश संसार गाता है। एक मैं हूँ, जिसने गाँव को उजाड़ दिया। अब कोई भोर के समय मेरा नाम न लेगा। ऐसा जान पड़ता है कि सभी डामिल जायँगे, एक भी न बचेगा। अभी न जाने कितने दिन यह मामला चलेगा। महीने भर लगे, दो महीने लग जायें। इतने दिनों तक मैं सब की आँखों में काँटे की तरह खटकता रहूँगा, सब मुझे कोसेंगे, गालियाँ दिया करेंगे। आज दुखरन ने कह ही सुनाया, कल कोई ताना देगा। कादिर खाँ को भी यह कैद अखरती ही होगी। और तो और, कहीं बलराज भी न खुल पड़े। हा! मुझे उसकी जवानी पर भी तरस न आया, मेरा लाल मेरे ही हाथों...मैं अपने जवान बेटे को अपने ही हाथों....हा भगवान! अब यह दुःख नहीं सहा जाता। फाँसी अभी न जाने कब होगी? कौन जाने कहीं सब के साथ मेरा भी डामिल हो जाय, तब तो मरते दम तक इन लोगों के जले-कटे वचन सुनने पड़ेंगे! बलराज, तुझे कैसे बचाऊँ? कौन जाने हाकिम यही फैसला करे कि यह जवान है, इसी ने कुल्हाड़ा मारा होगा। हा भगवान! तब क्या होगा? क्या अपनी ही आँखों से यह देखूँगा? नहीं, ऐसे जीने से मरना ही अच्छा है। नकटा जिया बुरे हवाल! बस, एक ही उपाय है– हाँ!


35.


फैजुल्लाह खाँ का गौस खाँ के पद पर नियुक्त होना गाँव के दुखियारों के घाव पर नमक छिड़कना था। पहले ही दिन से खींच-तान होने लगी और फैजू ने विरोधाग्नि को शान्त करने की जरूरत न समझी। अब वह मुसल्लम गाँव के सत्ताधारी शासक थे। उनका हुक्म कानून के तुल्य था। किसी को चूँ करने की मजाल न थी। गाँव का दूध-घी, उपले-लकड़ी घास-पयाल, कद्दू-कुम्हड़े, हल-बैल, सब उनके थे। जो अधिकार गौस खाँ को जीवन-पर्यन्त न प्राप्त हुए वह समय के उलट-फेर और सौभाग्य से फैजुल्लाह को पहले ही दिन से प्राप्त हो गये। अन्याय और स्वेच्छा के मैदान में अब उनके घोड़ों को किसी ठोकर का भय न था। पहले कर्तारसिंह की ओर से कुछ शंका थी, किन्तु उनकी नीति-कुशलता ने शीघ्र ही उसकी अभक्ति को परास्त कर दिया। वह अब उनका आज्ञाकारी सेवक, उनका परम शुभेच्छु था। वह अब गला फाड़-फाड़कर रामायण का पाठ करता। सारे गाँव के ईंट-पत्थर जमा करके चौपाल के सामने ढेर दिये और उन पर घड़ों पानी चढ़ाता। घंटों चन्दन रंगड़ता, घंटों भंग घोटता, कोई रोक-टोक करने वाला न था! फैजुल्लाह खाँ नित्य प्रातःकाल टाँघन पर सवार हो कर गाँव का चक्कर लगाते, कर्तार और बिन्दा महाराज लट्ठ लिये उनके पीछे-पीछे चलते। जो कुछ नोचे-खसोटे मिल जाता वह लेकर लौट आते थे। यों तो समस्त गाँव उनके अत्याचार से पीड़ित था, पर मनोहर के घर पर इन लोगों कि विशेष कृपा थी। पूस में ही बिलासी पर बकाया लगान की नालिश हुई और उसके सब जानवर कुर्क हो गये। फैजू को पूरा विश्वास था कि अब की चैत में किसी से मालगुजारी वसूल तो होगी नहीं तो सभों पर बेदखली के दावे कर दूँगा और एक ही हल्के में सबको समेट लूँगा। मुसल्लम गाँव को बेदखली कर दूँगा, आमदनी चटपट दूनी हो जायगी। पर इस दुष्कल्पना से उन्हें सन्तोष न होता था। डाँट-फटकार, गाली-गलौज के बिना रोब जमाना कठिन था। अतएव नियमपूर्वक इस नीति का सदुपयोग किया जाने लगा। बिलासी मारे डर के घर से निकलती ही न थी। उसकी रब्बी खेत में खड़ी सूख रही थी, पानी कौन दे? न बैल अपने थे और न किसी से माँगने का ही मुँह था।


एक दिन सन्ध्या समय बिलासी अपने द्वार पर बैठी रो रही थी। यही उसको मालूम था। मनोहर की आत्महत्या की खबर उसे कई दिन पहले मिल चुकी थी। उसे अपने सर्वनाश का इतना शोक न था जितना इस बात का कि कोई उसकी बात पूछने वाला न था। जिसे देखिए उसे जली-कटी सुनाता था। न कोई उसके घर आता, न जाता। यदि वह बैठे-बैठे उकता कर किसी के घर चली जाती, तो वहाँ भी उसका अपमान किया जाता। वह गाँव की नागिन समझी जाती थी, जिसके विष ने समस्त गाँव को काल का ग्रास बना दिया। और तो और उसकी बहू भी उसे ताने देती थी। सहसा उसने सुना सुक्खू चौधरी अपने मन्दिर में आकर बैठे हैं। वह तुरन्त मन्दिर की ओर चली। वह सहानुभूति की प्यासी थी। सुक्खू इन घटनाओं के विषय में क्या कहते हैं, यह जानने की उसे उत्कृष्ट इच्छा थी। उसे आशा थी कि सुक्खू अवश्य निष्पक्ष भाव से अपनी सम्मति प्रकट करेंगे। जब वह मन्दिर के निकट पहुँची तो गाँव कि कितनी ही नारियों और बालिकाओं को वहाँ जमा पाया। सुक्खू की दाढ़ी बढ़ी हुई थी, सिर पर एक कन्टोप था और शरीर पर एक रामनामी चादर। बहुत उदास और दुखी जान पड़ते थे। नारियाँ उसने गौस खाँ की हत्या की चर्चा कर रही थीं। मनोहर की खूब ले-दे हो रही थी। बिलासी मन्दिर के निकट पहुँच कर ठिठक गयी कि इतने में सुक्खू ने उसे देखा और बोले, आओ बिलासी आओ बैठो। मैं तो तुम्हारे पास आप ही आने वाला था।


बिलासी– तुम तो कुशल से रहे?        


सुक्खू– जीता हूँ, बस यही कुशल है। जेल से छूटा तो बद्रीनाथ चला गया। वहाँ से जगन्नाथ होता हुआ चला आता हूँ। बद्रीनाथ में एक महात्मा के दर्शन हो गये, उसने गुरुमन्त्र भी ले लिया। अब माँगता-खाता फिरता हूँ। गृहस्थी के जंजाल से छूट गया।


बिलासी ने डरते-डरते पूछा, यहाँ का हाल तो तुमने सुना ही होगा?


सुक्खू– हाँ, जब से आया हूँ वही चर्चा हो रही है और उसे सुनकर मुझे तुम पर ऐसी श्रद्घा हो गयी है कि तुम्हारी पूजा करने को जी चाहता है। तुम क्षत्राणी हो, अहीर की कन्या हो कर भी क्षत्राणी हो। तुमने वही किया जो क्षत्राणियाँ किया करती हैं। मनोहर भी क्षत्री है, उसने वही किया जो क्षत्री करते हैं। वह वीर आत्मा था। इस मन्दिर में अब उसकी समाधि बनेगी और उसकी पूजा होगी। इसमें अभी किसी देवता की स्थापना नहीं हुई है, अब उसी वीर-मूर्ति की स्थापना होगी। उसने गाँव की लाज रख ली, स्त्री की मर्जाद रख ली। यह सब क्षुद्र आत्माएँ बैठी उसे बुरा-भला कह रही हैं। कहती हैं, उसने गाँव का सर्वनाश कर दिया। इनमें लज्जा नहीं है, अपनी मर्यादा का कुछ गौरव नहीं है। उसने गाँव का सर्वनाश नहीं किया, उसे वीरगति दे दी, उसका उद्धार कर दिया! नारियों की रक्षा करना पुरुषों का धर्म है। मनोहर ने अपने धर्म का पालन किया। उसको बुरा वही कह सकता है जिसकी आत्मा मर गयी है, जो बेहया हो गया है। गाँव के दस-पाँच पुरुष फाँसी चढ़ जायें तो कोई चिन्ता नहीं, यहाँ एक-एक स्त्री के पीछे लाखों सिर कट गये हैं। सीता के पीछे रावण का राज्य विध्वंस हो गया। द्रौपदी के पीछे 18 लाख योद्धा मर मिटे। इज्जत के लिए दस-पाँच जाने चली जायें तो क्या बड़ी बात है! धन्य है मनोहर तेरे साहस को, तेरे पराक्रम को, तेरे कलेजे को।


सुक्खू का एक-एक शब्द वीर रस में डूबा हुआ है। बिलासी के हृदय में वह गुद-गुदी हो रही थी, जो अपनी सराहना सुनकर हो सकती है। जी चाहता था, सुक्खू के चरणों पर सिर रख दूँ, किन्तु अन्य स्त्रियाँ सुक्खू की ओर कुतूहल से ताक रही थीं कि यह क्या बकता है।


एक क्षण के बाद सुक्खू ने बिलासी से पूछा, खेती-बारी का क्या हाल है।


बिलासी के खेत सूख रहे थे, पर अपनी विपत्ति-कथा सुनाकर वह सुक्खू को दुखी नहीं करना चाहती थी। बोली, दादा, तुम्हारी दया से खेती अच्छी हो गयी है, कोई चिन्ता नहीं है।


कई और साधु आ गये जो सुक्खू के साथी जान पड़ते थे। उन्होंने धूनी जलायी और चरस के दम लगाने शुरू किये। गाँव के लोग भी एक-एक करके वहाँ से चलने लगे। जब बिलासी जाने लगी तो सुक्खू ने कहा, बिलासी मैं पहर रात रहे यहाँ से चला जाऊँगा, घूमता-घामता कई महीनों में आऊँगा। तब यहाँ मूर्ति की स्थापना होगी। हम उस यज्ञ के लिए भीख माँग कर रुपये जमा करते हैं। तुम्हें किसी बात की तकलीफ हो तो कहो।


बिलासी– नहीं दादा, तुम्हारी दया से कोई तकलीफ नहीं।


सूक्खू तो प्रातःकाल चले गये,पर बिलासी पर उनकी भावनापूर्ण बातों का गहरा असर पड़ा। अब वह किसी दलित दीन की भांति गाँववालों के व्यंग्य और लांछन न सुनती और न किसी को उस पर उतनी निर्भयता से आक्षेप करने का साहस ही होता था। इतना ही नहीं, बिलासी की बातचीत, चाल-ढाल से अब आत्म-गौरव टपकता था। कभी-कभी वह बढ़ कर बातें करने लगती, पड़ोसियों से कहती– लाज बेचकर अपनी चमड़ी को बचाओ, यहाँ इज्जत के पीछे जानें तक दे देते हैं। मैं विधवा हो गयी तो क्या, घर सत्यानाश हुआ तो क्या, किसी के सामने आँख तो नीची नहीं हुई। अपनी लाज तो रक्खी। पति की मृत्यु और पुत्र का वियोग अब उतना असह्य न था।


एक दिन उसने इतनी डींग मारी कि उसकी बहू से न रहा गया। चिढ़ कर बोली– अम्माँ ऐसी बातें करके घाव पर नमक न छिड़को। तुम सब सुख-विलास कर चुकी हो, अब विधवा हो गयी तो क्या? उन दुखियारियों से पूछो जिनकी अभी पहाड़-सी उमर पड़ी है, जिन्होंने अभी जिन्दगी का कुछ सुख नहीं जाना है। अपनी मरजाद सबको प्यारी होती है, पर उसके लिए जनम-भर का रँड़ापा सहना कठिन है। तुम्हें क्या, आज नहीं कल राँड़ होतीं! तुम्हारे भी खेलने-खाने के दिन होते तो देखती कि अपनी लाज को कितनी प्यारी समझती हो।


बिलासी तिलमिला उठी। उस दिन से बहू से बोलना छोड़ दिया, यहाँ तक कि बलराज की भी चर्चा न करती। जिस पुत्र पर जान देती थी, उसके नाम से भी घृणा करने लगी। बहू के इन अरुचिकर शब्दों ने उसके मातृ-स्नेह का अन्त कर दिया, जो 25 साल के जीवन का अवलम्बन और आधार बना हुआ था। कुछ दिनों तक तो उसने मौन रूप से अपना कोप प्रकट किया, किन्तु जब यह प्रयोग सफल होता दिखायी न पड़ा तो उसने बहू की निन्दा करनी शुरू की। गाँव में कितनी ही ऐसी वृद्धा महिलाएँ थीं जो अपनी बहुओं से जला करती थीं। उन्हें बिलासी से सहानुभूति हो गयी। शनैःशनैः यह कैफियत हुई कि बिलासी के बरोठे में सासों की नित्य बैठक होती और बहुओं के खूब दुखड़े रोये जाते। उधर बहुओं ने भी अपनी आत्मरक्षा के लिए एक सभा स्थापित की। इसकी बैठक नित्य दुखरन भगत के घर होती। बिलासी की बहू इस सभा की संचालिका थी। इस प्रकार दोनों में विरोध बढ़ने लगा। यहाँ की बातें किसी-न-किसी प्रकार वहाँ जा पहुँचती और वहाँ की बातें भी किन्हीं गुप्त दूतों द्वारा आ जातीं। उनके उत्तर दिये जाते, उत्तरों के प्रत्युत्तर मिलते और नित्य यही कार्यक्रम चलता रहता था। इस प्रश्नोत्तर में जो आकर्षण था, वह अपनी विपत्ति और विडम्बना पर आँसू बहाने में कहाँ था? इस व्यंग-संग्राम में एक सजीव आनन्द था। द्वेष की कानाफूसी शायद मधुर गान से भी अधिक शोकहारी होती है।


यहाँ तो यह हाल था, उधर फसल खेतों में सूख रही थी। मियाँ फैजुल्लाह सूखे को देख कर खिल जाते थे। देखते-देखते चैत का महीना आ गया। मालगुजारी का तकाजा होने लगा। गाँव के बचे हुए लोग अब चेते। वह भूल से गये थे कि मालगुजारी भी देनी है। दरिद्रता में मनुष्य प्रायः भाग्य पर आश्रित हो जाता है। फैजुल्लाह ने सख्ती करनी शुरू की। किसी को चौपाल के सामने धूप में खड़ा करते किसी को मुश्कें कस कर पिटवाते। दीन नारियों के साथ और भी पाशविक व्यवहार किया जाता। किसी की चूड़ियाँ तोड़ी जातीं, किसी के जूड़े नोचे जाते! इन अत्याचारों को रोकनेवाला अब कौन था? सत्याग्रह में अन्याय को दमन करने की शक्ति है, यह सिद्धान्त भ्रान्तिपूर्ण सिद्ध हो गया। फैजू जानता था कि पत्थर दबाने से तेल न निकलेगा। लेकिन इन अत्याचारों से उसका उद्देश्य गाँववालों का मान-मर्दन करना था। इन दुष्कृत्यों से उसकी पशुवृत्ति को असीम आनन्द मिलता था।


धीरे-धीरे जेठ भी गुजरा, लेकिन लगान की एक कौड़ी न वसूल हुई। खेत में अनाज होता तो कोई न कोई महाजन खड़ा हो जाता, लेकिन सूखी खेती को कौन पूछता है? अन्त में ज्ञानशंकर ने बेदखली दायर करने की ठान ली। इसी की देरी थी नालिश हो गयी, किन्तु गाँव में रुपयों का बन्दोबस्त न हो सका। उज्रदारी करने वाला भी कोई न निकला। सबको विश्वास था कि एकतरफा डिग्री होगी और सब के सब बेदखल हो जायेंगे। फैजू और कर्तार बगलें बजाते फिरते थे। अब मैदान मार लिया है। खाँ साहब गये तो क्या, गाँव साफ हो गया। कोई दाखिलकार असामी रहेगा ही नहीं, जितनी चाहें जमीन की दर बढ़ा सकते हैं। हजार की जगह दो हजार वसूल होंगे। इस कारगुजारी का सेहरा मेरे सिर बँधेगा। दूर-दूर तक मेरी धूम हो जायगी। इन कल्पनाओं से फैजू मियाँ फूलें नहीं समाते थे।


निदान फैसले की तारीख आ गयी। कर्तारसिंह ने मलमल का ढीला कुरता और गुलाबी पगड़ी निकाली, जूते में कड़वा तेल भरा, लाठी में तेल मला, बाल बनवाये और माथे पर भभूत लगायी। फैजुल्लाह खाँ ने चारजामे की मरम्मत करायी, अपनी काली अचकन और सफेद पगड़ी निकाली। बिन्दा महाराज ने भी धुली हुई गाढ़े की मिर्जई और गेरू में रँगी हुई धोती पहनी। बेगारों के सिरों पर कम्बल, टाट आदि लादे गये और तीनों आदमी कचहरी चलने को तैयार हुए। केवल खाँ साहब की नमाज की देर थी।


किन्तु गाँव में जरा भी हलचल न थी। मर्दों में कादिर के छोटे लड़के के सिवा और सभी नीच जातियों के लोग थे, जिन्हें मान- अपमान का ज्ञान ही न था; और वह बेचारा कानूनी बातों से अनभिज्ञ था। झपट के दिल में ऐसा हौल समाया हुआ था कि घर से बाहर ही न निकलते थे। रही स्त्रियाँ वे दीन अबलाएँ कानून का मर्म क्या जानें! आज भी नियमानुसर उनके दोनों अखाड़े जमे हुए थे। बूढ़ियाँ कहती थीं, खेत निकल जायें, हमारी बला से, हमें क्या करना है? आज मरे कल दूसरा दिन। रहे भई तो हमारे किस काम आयेंगे? इन रानियों का घमंड तो चूर हो जायेगा! यहाँ तक कि विलासी भी जो इस सारी विपत्ति-कथा की कैकेयी थी, आज निश्चित बैठी हुई थी। विपक्षी दल को आज सन्धि-प्रार्थना की इच्छा हो रही थी, लेकिन कुछ तो अभिमान और कुछ प्रार्थना की स्वीकृति की निराशा इच्छा को व्यक्त न होने देती थी।


आठ बजे खाँ साहब की नमाज पूरी हुई। इधर विन्दा महाराज ने चबेना खा कर तम्बाकू फाँका और कर्तारसिंह ने घोड़े को लाने का हुक्म दिया कि इतने में सुक्खू चौधरी सामने से आते दिखाई दिये। वही पहले का-सा वेश था, सिर पर कन्टोप, ललाट पर चन्दन, गले में चादर, हाथ में एक चिपटा। आकर चौपाल में जमीन पर बैठ गये। गाँव के लड़के जो उनके साथ दौड़ते आये थे। बाहर ही रुक गये। फैजू ने पूछा, चौधरी कहो, खैरयित से तो रहे? तुम्हें जेल से निकले कितना अरसा हुआ।


चौधरी ने कर्तार से चिलम ली, एक लम्बा दम लगाया। और मुँह से धुएँ को निकालते हुए बोले, आज बेदखली की तारीख है न।


कर्तार-कागद-पत्तर देखा जाय तो जान पड़े। यहाँ नित एक न एक मामला लगा ही रहता है। कहाँ तक कोई याद रखे।


चौधरी– बेचारों पर एक विपत्ति तो थी ही, यह एक और बला सवार हो गयी।


फैजू– मैं मजबूर हो गया। क्या करता? जाब्ते और कानून से बँध हुआ हूँ। चैत, बैशाख, जेठ– तीन महीने तक तकाजे करता रहा, इससे ज्यादा मेरे बस में और क्या था।


यह कहकर उन्होंने चौधरी की ओर इस अन्दाज से देखा, मानों वह शील और दया के पुतले हैं।


चौधरी– अगर आज सब रुपये वसूल हो जायें तो मुकदमा खारिज हो जायगा न?


फैजू ने विस्मित हो कर चौधरी को देखा और बोले, खर्चे का सवाल है।


चौधरी– अच्छा, बतलाइए आपके कुल कितने रुपये होते हैं? खर्च भी जोड़ लीजिए। कुछ रुपये भी निकाले और खाँ साहब की ओर परीक्षा भाव से देखने लगे। फैजू के होश उड़ गये, कर्तार के चेहरे का रंग उड़ गया, मानों घर से किसी के मरने की खबर आ गयी हो। बिन्दा महाराज ने ध्यान से रुपयों को देखा। उन्हें सन्देह हो रहा था कि यह कोई इन्द्रजाल न हो। किसी के मुँह से बात न निकलती थी। जिस आशालता को बरसों से पाल और सींच रहे थे वहाँ आँख के सामने एक पशु के विकराल मुख का ग्रास बनी जाती थी। इस अवसर के लिए उन लोगों ने कितनी आयोजनाएँ की थीं, कितनी कूटनीति से काम लिया था, कितने अत्याचार किए थे! और जब वह शुभ घड़ी आयी तो निर्दय भाग्य-विधाता उसे हाथों से छीन लेता था। गौस खाँ का खून रंग ला कर अब निष्फल हुआ जाता था। आखिर फैजू ने बड़े गम्भीर भाव से कहा, इसका फैसला तो अब अदालत के हाथ है।


अदालत का नाम लेकर वह चौधरी को भयभीत करना चाहते थे।


चौधरी– अच्छी बात है तो वहीं चलो।


कर्तार ने नैतिक सर्वज्ञता के भाव से कहा, पहले ये लोग मोहलत की दर्खास्त दें, उस दर्खास्त पर हमारी तरफ से उजरदारी होगी, इस पर हाकिम जो कुछ तजवीज करेगा वह होगा। हम लोग रुपये कैसे ले सकते हैं? जाब्ते के खिलाफ है।


बिन्दा महाराज के सम्मुख एक दूसरी समस्या उपस्थित थी– इसे इतने रुपये कहाँ मिल गये? अभी जेल से छूट कर आया है। गाँव वालों से फूटी कौड़ी भी न मिली होगी। इसके पास जो लेई-पूँजी थी। वह तालाब और मन्दिर बनवाने में खर्च हो गयी। अवश्य उसे कोई जड़ी-बूटी हाथ लग गई है, जिससे वह रुपये बना लेता है। साधुओं के हाथ में बड़े-बड़े करतब होते हैं।


फैजू समझ गये कि इस धाँधली से काम न चलेगा। कहीं इसने अदालत के सामन जाकर सब रुपये गिन दिये तो अपना-सा मुँह ले कर जाना पड़ेगा। निराश हो कर जूते उतार दिये और नालिश की पर्तें निकाल कर हिसाब जोड़ने लगे, उस पर अदालत का खर्च, अमलों की रिसवत वकील का हिसाब, मेहनताना, ज़मींदार का नजराना आदि और बढ़ाया तब बोले, कुल 1750 रुपये होते हैं।


चौधरी– फिर देख लीजिए, कोई रकम रह न गयी हो। मगर यह समझ लेना कि हिसाब से एक कौड़ी भी बेशी ली तो तुम्हारा भला न होगा?


बिन्दा महाराज ने सशंक हो कर कहा, खाँ साहब जरा फिर जोड़ लो।


कर्तार– सब जोड़ा-जोड़ाया है, रात-दिन यही किया करते हैं, लाओ निकालो 1750)।


चौधरी– 1750) लेना है तो अदालत में ही लेना, यहाँ तो मैं 1000 रुपये से बेसी न दूँगा।


फैजू– और अदालत का खर्च?


सहसा चौधरी ने अपना चिमटा उठाया और इतने जोर से फैजुल्लाह के सिर पर मारा कि वह जमीन पर गिर पड़ा। तब बोले, यही अदालत का खर्च है, जी चाहें और ले लो। बेईमान, पापी कहीं का! कारिन्दा बना फिरता है। कल का बनिया आज का सेठ! इतनी जल्दी आँखों में चरबी छा गयी। तू भी तो किसी ज़मींदार का असामी है। तेरा घर देख आया हूँ। तेरे माँ-बाप, भाई-बन्द सबका हाल देख आया हूँ। वहाँ उन सब का बेगार भरते-भरते कचूमर निकल जाया करता है। तूने चार अक्षर पढ़ लिये तो जमीन पर पाँव नहीं रखता। दीन-दुखियों को लूटता फिरता है। 8000 रुपये की नालिश है, 100) अदालत का खरच है। मैं कचहरी जाकर पेशकार से पूछ आया। उसके तू 1750) माँगता है! और क्यों रे ठाकुर तू भी इस तुरक के साथ पड़ कर अपने को भूल गया? चिल्ला-चिल्ला कर रामायण पढ़ता है, भागवत की कथा कहता है, ईट-पत्थर के देवता बना कर पूजता है। क्या पत्थर पूजते-पूजते तेरा हृदय भी पत्थर हो गया? यह चन्दन क्यों लगाता है? तुझे इसका क्या अधिकार है? तू धन के पीछे धरम को भूल गया? तुझे धन चाहिए? तेरे भाग्य में धन लिखा है तो यह थैली उठा ले। (यह कह कर चौधरी ने रुपयों की थैली कर्तार की ओर फेंकी) देख तो मेरे भाग्य में धन है या नहीं? तेरा मन इतना पापी हो गया है कि तू सोना भी छुए तो मिट्टी हो जायगा। थैली छू कर देख ले, अभी ठीकरी हुई जाती है।


कर्तार ने पहले बड़े धृष्ट अश्रद्धा के साथ बातें करना शुरू की थीं। वह यह दिखाना चाहता था, मैं साधुओं का भेष देख कर रोब में आने वाला आदमी नहीं हूँ, ऐसे भोले-भोले काठ के उल्लू कहीं और होंगे। पर चौधरी की यह हिम्मत देखकर और यह कठोपदेश सुनकर उसकी अभक्ति लुप्त हो गयी। उसे अब ज्ञान हुआ कि यह वह चौधरी नहीं है जो गौस खाँ की हाँ-में-हाँ मिलाया करता था, किन्तु बिना परीक्षा किए वह अब भी भक्ति-सूत्र में न बँधना चाहता था, यहाँ तक कि वह उसकी सिद्घि का परदा खोलकर उनकी खबर लेने पर उतारू था। उसने थैली को ध्यान से देखा, रुपयों से भरी हुई थी। तब उसने डरते-डरते थैली उठायी, किन्तु उसके छूते ही एक अत्यन्त विस्मयकारी दृश्य दिखायी दिया। रुपये ठीकरे हो गये! यह कोई मायालीला थी अथवा कोई जादू या सिद्धि कौन कह सकता है। मदारी का खेल था या नजरबन्दी का तमाशा, चौधरी ही जाने। रुपये की जगह साफ लाल-लाल ठीकरे झलक रहे थे। कर्तार के हाथ से थैली छूट कर गिर पड़ी। वह हाथ बाँध कर बड़े भक्ति-भाव से चौधरी के पैरों पर गिर पड़ा। और बोला, बाबा मेरा अपराध क्षमा कीजिए मैं अधम, पापी दुष्ट हूँ, मेरा उद्धार कीजिए। मैं अब आपकी ही सेवा में रहूँगा, मुझे इस लोभ के गड्ढे से निकालिए।


चौधरी– दीनों पर दया करो और वही पुण्य तुम्हें गड्ढे से निकालेगा। दया ही सब मन्त्रों का मूल है।


फैजू मियाँ गर्द झाड़ कर उठ बैठे थे। वृद्ध दुर्बल चौधरी उस समय उनकी आँखों में एक देव-सा दीख पड़ता था। यह चमत्कार देख कर वह भी दंग रह गये। अपनी खता माफ कराने लगे– बाबा जी क्या करें! जंजाल में फँस कर सभी कुछ करना पड़ता है। अहलकार, अमले, अफसर, अर्दली, चपरासी सभी की खातिर करनी पड़ती है। अगर यह चालें न चलें तो उनका पेट कैसे भरें? वहाँ एक दिन भी निबाह न हो। अब मुझे भी गुलामी में कबूल कीजिए।


कर्तार ने चिलम पर चरस रख कर चौधरी को दी। बिन्दा महाराज का संशय भी मिट चुका था। बोले, कुछ जलपान की इच्छा हो तो शर्बत बनाऊँ। फैजुल्लाह ने उनके बैठने को अपना कालीन बिछा दिया। चौधरी प्रसन्न हो गये। अपनी झोली से एक जड़ी निकाल कर दी और कहा, यह मिर्गी की आजमायी हुई दवा है। जनम की मिर्गी भी इससे जाती रहती है। इसे हिफाजत से रखना और देखो, आज ही मुकदमा उठा लेना। यह एक हजार के नोट हैं गिन लो। सब असामियों को अलग-अलग बाकी की रसीद दे देना। अब मैं जाता हूँ। कुछ दिनों में फिर आऊँगा।  


36.


प्रातःकाल ज्योंही मनोहर की आत्महत्या का समाचार विदित हुआ, जेल में हाहाकार मच गया। जेल के दारोगा, अमले, सिपाही, पहरेदार-सब के हाथों के तोते उड़ गये। जरा देर में पुलिस को खबर मिली, तुरन्त छोटे-बड़े अधिकारियों का दल आ पहुँचा। मौके की जाँच होने लगी, जेल कर्मचारियों के बयान लिखे जाने लगे। एक घंटे में सिविल सर्जन और डॉक्टर प्रियनाथ भी आ गये। मजिस्ट्रेट, कमिश्नर और सिटी मजिस्ट्रेट का आगमन हुआ। दिन-भर तहकीकात होती रही। दूसरे दिन भी यही जमघट रही और यही कार्यवाही होती रही, लेकिन साँप मर चुका था, उसकी बाँबी को लाठी से पीटना व्यर्थ था। हाँ, जेल-कर्मचारियों पर बन आयी, जेल दारोगा ६ महीने के लिए मुअत्तल कर दिये गये, रक्षकों पर कड़े जुर्माने हुए। जेल के नियमों में सुधार किया गया, खिड़कियों पर दोहरी छड़ें लगा दी गयीं। शेष अभियुक्तों के हाथों में हथकड़ियाँ न डाली गयी थीं, अब दोहरी हथकड़ियाँ डाल दी गयीं। प्रेमशंकर यह खबर पाते ही दौड़े हुए जेल आये, पर अधिकारियों ने उन्हें फाटक के सामने से ही भगा दिया। अब तक जेल कर्मचारियों ने उनके साथ सब प्रकार की रियायत की थी। अभियुक्तों से उनकी मुलाकात करा देते थे, उनके यहाँ से आया हुआ भोजन अभियुक्तों तक पहुँचा देते थे। पर आज उन सबका रुख बदला हुआ था। प्रेमशंकर जेल के सामने खड़े सोच रहे थे, अब क्या करूँ कि पुलिस का प्रधान अफसर जेल से निकला और उन्हें देख कर बोला, यह तुम्हारे ही उपदेशों का फल है, तुम्हीं ने शेष अपराधियों को बचाने के लिए यह आत्म-हत्या करायी है। जेल के दारोगा ने भी उनसे इसी तरह की बातें की। इन तिरस्कारों से प्रेमशंकर को बड़ा दुःख हुआ। जीवन उन्हें नये-नये अनुभवों की पाठशाला-सा जान पड़ता था। यह पहला ही अवसर था कि उनकी दयार्द्रता और सदिच्छा की अवहेलना की गयी। वह आध घंटे तक चिन्ता में डूबे वहीं खड़े रहे, तब अपने झोंपड़े की ओर चले, मानो अपने किसी प्रियबन्धु की दाह-क्रिया करके आ रहे हों।


घर पहुँच कर वह फिर उन्हीं विचारों में मग्न हुए। कुछ समझ में न आता था कि जीवन का क्या लक्ष्य बनाया जाय। क्षुद्र लौकिकता से चित्त को घृणा होती थी और उत्कृष्ट नियमों पर चलने के नतीजे उल्टे होते थे। उन्हें अपनी विवशता का ऐसा निराशाजनक अनुभव कभी न हुआ था। मानव-बुद्धि कितनी भ्रमयुक्त है, उसकी दृष्टि कितनी संकीर्ण! इसका ऐसा स्पष्ट प्रमाण कभी न मिला था। यद्यपि वह अहंकार को अपने पास न आने देते थे, पर वह किसी गुप्त मार्ग से उनके हृदयस्थल में पहुँच जाता था। अपने सदकार्यों तो सफल होते देख कर उनका चित्त उल्लसित हो जाता था और हृदय-कणों में किसी ओर से मन्द स्वरों में सुनायी देता था– मैंने कितना अच्छा काम किया! लेकिन ऐसे प्रत्येक अवसर पर ही क्षण के उपरान्त उन्हें कोई ऐसी चेतावनी मिल जाती थी, जो उनके अहंकार को चूर-चूर कर देती थी। मूर्ख! तुझे अपनी सिद्धान्त-प्रियता का अभिमान है! देख, वह कितने कच्चे हैं। तुझे अपनी बुद्धि और विद्या का घमंड है? देख, वह कितनी भ्रान्तिपूर्ण है। तुझे अपने ज्ञान और सदाचार का गरूर है! देख, वह कितना अपूर्ण और भ्रष्ट है। क्या तुम्हें निश्चय है कि तुम्हारी ही उत्तेजनाएँ गौस खाँ की हत्या का कारण नहीं हुई? तुम्हारे ही कटु उपदेशों ने मनोहर की जान नहीं ली? तुम्हारे ही वक्र नीति-पालन ने ज्ञानशंकर की श्रद्धा को तुमसे विमुख नहीं किया?


यह सोचते-सोचते उनका ध्यान अपनी आर्थिक कठिनाइयों की ओर गया। अभी न जाने यह मुकदमा कितने दिनों चलेगा। इर्फान अली कोई तीन हजार ले चुके और शायद अभी उनका इतना ही बाकी है। गन्ने तैयार हैं, लेकिन हजार रुपये से ज्यादा न ला सकेंगे। बेचारे गाँववालों को कहाँ तक दबाऊँ? फलों से जो कुछ मिला वह सब खर्च हो गया। किसी को अभी हिसाब तक नहीं दिखाया। न जाने यह सब अपने मन में क्या समझते हों। लखनपुर की कुछ खबर न ले सका। मालूम नहीं, उन दुखियों पर क्या बीत रही है।


अकस्मात भोला की स्त्री बुधिया आ कर बोली बाबू, दो दिन से घर में चूल्हा नहीं जला और आपका हलवाहा मेरी जान खाये जाता है। बताइये; मैं क्या करूँ? क्या चोरी करूँ? दिन भर चक्की पीसती हूँ और जो कुछ पाती हूँ, वह सब गृहस्थी में झोंक देती हूँ, तिस पर भी भरपेट दाना नसीब नहीं होता। आप उसके हाथ में तलब न दिया करें। सब जुए में उड़ा देता है। आप उसे न डाँटते हैं, न समझाते हैं। आप समझते हैं कि मजदूरी बढ़ाते ही वह ठीक हो जायेगा। आप उसे हजार का महीना भी दें तो उसके लिए पूरे न पड़ेंगे। आज से आप तलब मेरे हाथ में दिया करें!


प्रेमशंकर– जुआ खेलना तो उसने छोड़ दिया था?


बुधिया– वही दो-एक महीने नहीं खेला था। बीच-बीच में कभी छोड़ देता है, लेकिन उसकी तो लत पड़ गयी है। आप तलब मुझे दे दिया करें, फिर देखूँ कैसे खेलता है। आपका सीधा सुभाव है, जब माँगता है तभी निकाल कर दे देते हैं।


प्रेम– मुझसे तो वह यही कहता है कि मैंने जुआ छोड़ दिया। जब कभी रुपये माँगता है, तो सहज कहता है कि खाने को नहीं है। न दूँ तो क्या करूँ?


बुधिया– तभी तो उसके मिजाज नहीं मिलते। कुछ पेशगी तो नहीं ले गया है?


प्रेम– उसी से पूछो, ले गया होगा तो बतायेगा न।


बुधिया– आपके यहाँ हिसाब-किताब नहीं है क्या?


प्रेम– मुझे कुछ याद नहीं है।


बुधिया– आपको याद नहीं है तो वह बता चुका! शराबियों- जुआरियों के भी कहीं ईमान होता है?


प्रेम– क्यों, क्या शराब से ईमान धुल जाता है?


बुधिया– धुल नहीं जाता तो और क्या? देखिए, बुलाके आपके मुँह पर पूछती हूँ। या नारायण निगोड़ा तलब की तलब उड़ा देता है, उस पर पेशगी ले कर खेल डालता है। अब देखूँ, कहाँ से भरता है?


यह कह कर वह झल्लायी हुई गयी और जरा देर से भोला को साथ लिये आयी। भोला की आँखें लाल थीं। लज्जा से सिर झुकाये हुए था। बुधिया ने पूछा, बताओ तुमने बाबू जी से कितने रुपये पेशगी लिये हैं?


भोला– ने स्त्री की ओर सरोष नेत्रों से देख कर कहा– तू कौन होती है पूछने वाली? बाबू जी जानते नहीं क्या?


बुधिया– बाबूजी ही तो पूछते हैं, नहीं तो मुझे क्या पड़ी थी?


भोला– इनके मेरे ऊपर लाख आते हैं और मैं इनका जन्म भरका गुलाम हूँ।


बुधिया– देखा बाबूजी! कहती न थी, वह कुछ न बतायेगा? जुआरी कभी ईमान के सच्चे हुए हैं कि यही होगा?


भोला– तू समझती है कि मैं बातें बना रहा हूँ। बातें उनसे बनायी जाती हैं जो दिल के खोटे होते हैं, जो एक धेला दे कर पैसे का काम कराना चाहते हैं। देवताओं से बात नहीं बनायी जाती। यह जान इनकी है, यह तन इनका है, इशारा भर मिल जाय।


बुधिया– अरे जा, जालिए कहीं के! बाबू जी बीसों बार समझा के हार गये। तुझसे एक जुआ तो छोड़ा जाता नहीं, तू और क्या करेगा? जान पर खेलने वाले और होते हैं।


भोला– झूठी कहीं की, मैं कब जुआ खेलता हूँ?


प्रेम– सच कहना भोला, क्या तुम अब भी जुआ खेलते हो? तुम मुझसे कई बार कह चुके हो कि मैंने बिलकुल छोड़ दिया।


भोला का गला भर आया। नशे में हमारे मनोभाव अतिशयोक्तिपूर्ण हो जाते हैं। वह जोर से रोने लगा। जब ग्लानि का वेग कम हुआ तो सिसकियाँ लेता हुआ बोला– मालिक, यह आपका एक हुकूम है, जिसे मैंने टाला है। और कोई बात न टाली। आप मुझे यहीं बैठा कर सिर पर १०० जूते गिन कर लगायें, तब यह भूत उतरेगा। मैं रोज सोचता हूँ कि अब कभी न खेलूँगा, पर साँझ होते ही मुझे जैसे कोई ढकेल कर फड़ की ओर ले जाता है। हा! मैं आप से झूठ बोला, आप से कपट किया! भगवान् मेरी क्या गति करेंगे? यह कह कर वह फिर फूट-फूट कर रोने लगा!


लज्जा-भाव की यह पवित्रता देख कर प्रेमशंकर की आँखें भर आयीं। वह शराबी और जुआरी भोला, जिसे वह नीच समझते थे, ऐसा पवित्रात्मा, ऐसा निर्मल हृदय था! उन्होंने उसे गले लगा लिया, तुम रोते क्यों हो? मैं तुम्हें कुछ कहता थोड़े ही हूँ।


भोला– आपका कुछ न कहना ही तो मुझे मार डालता है मुझे गालियाँ दीजिए कोडे़ से मारिए, तब यह नशा उतरेगा। हम लातों के देवता बातों से नहीं मानते।


प्रेम– तुम्हारी तलब बुधिया को दे दिया करूँ?


भोला– जी हाँ, आज से मुझे एक कौड़ी भी न दिया करें।


प्रेम– (बुधिया से) लेकिन जो यह जुए से भी बुरी कोई आदत पकड़ ले तो?


बुधिया– जुएँ से बुरी चोरी है, जिस दिन इसे चोरी करते देखूँगी, जहर दे दूँगी। मुझे राँड़ बनना मंजूर है, चोर की लुगाई नहीं बन सकती।


उसने भोला का हाथ पकड़ कर घर चलने का इशारा किया और प्रेमशंकर के लिए एक जटिल समस्या छोड़ गयी।


37.


डा० इर्फान अली बैठे सोच रहे थे कि मनोहर की आत्महत्या का शेष अभियुक्तों पर क्या असर पड़ेगा? कानूनी ग्रन्थों का ढेर सामने रखा हुआ था। बीच में विचार करने लगते थे; मैंने यह मुकदमा नाहक लिया। रोज १०० रुपये का नुकसान हो रहा है और अभी मालूम नहीं कितने दिन लगेंगे। लाहौल! फिर रुपये की तरफ ध्यान गया। कितना ही चाहता हूँ कि दिल को इधर न आने दूँ, मगर ख्याल आ ही जाता है। वकालत छोड़ते भी नहीं बनती। ज्ञानशंकर से प्रोफेसरी के लिए कह तो आया हूँ, लेकिन जो सचमुच यह जगह मिल गयी तो टेढ़ी खीर होगी! मैं अब ज्यादा दिनों तक इस पेशे में रह नहीं सकता, और न सही तो सेहत के लिए जरूर ही छोड़ देना पड़ेगा। बस, यही चाहता हूँ कि घर बैठे १००० रुपये माहवारी रकम मिल जाया करे। अगर प्रोफेसरी से १००० रुपये भी मिले तो काफी होगा। नहीं, अभी छोड़ने का वक्त नहीं आया। ३ साल तक सख्त मेहनत करने के बाद अलबत्ता छोड़ने का इरादा कर सकता हूँ। लेकिन इन तीन वर्षों तक मुझे चाहिए कि रियासत और मुरौवत को बालायताक रख दूँ। सबसे पूरा मेहताना लूँ, वरना आजकल की तरह फँसता रहा तो जिन्दगी भर छुटकारा न होगा।


हाँ, तो आज इस मुकदमे में बहस होगी। उफ! अभी तक तैयार नहीं हो सका। गवाहों के बयानों पर निगाह डालने का भी मौका न मिला। खैर, कोई मुजायका नहीं है कुछ न कुछ बातें तो याद ही हैं। बहुत-कुछ उधर के वकील की तकरीर से सूझ जायेंगी। जरा नमक-मिर्च और मिला दूँगा, खासी बहस हो जायेगी। यह तो रोज का ही काम है,इसकी क्या फिक्र...


इतने में अमौली के राजा साहब की मोटर आ पहुँची। डॉक्टर साहब ने बाहर निकल कर राजा साहब का स्वागत किया। राजा साहब अँग्रेजी में कोरे, लेकिन अँग्रेजी रहन-सहन रीति-नीति में पारंगत थे। उनके कपड़े विलायत से सिल कर आते थे। लड़कों को पढ़ाने के लिए लेडियाँ नौकर थीं और रियायत का मैनेजर भी अंग्रेज था। राजा साहब का अधिकांश समय अंग्रेजी दूकानों की सैर में कटता था। टिकट और सिक्के जमा करने का शौक था। थिएटर जाने में कभी नागा न करते थे। कुछ दिनों से उनके मैनेजर ने रियासत की आमदनी पर हाथ लपकाना शुरू किया था। इसलिए उन्हें हटाना चाहते थे, किन्तु अँग्रेज अधिकारियों के भय से साहस न होता था। मैनेजर स्वयं राजा को कुछ न समझता था, आमदनी का हिसाब देना तो दूर रहा। राजा साहब इस मामले को दीवानी में लाने का विचार कर रहे थे। लेकिन मैनेजर साहब की जज से गहरी मैत्री थी, इसलिए अदालत के और वकीलों ने इस मुकदमें को हाथ में लेने से इनकार कर दिया था। निराश हो कर राजा साहब ने इर्फान अली की शरण ली थी। डॉक्टर साहब देर तक उनकी बातें सुनते रहे। बीच-बीच में तस्कीन देते थे। आप घबरायें नहीं। मैं मैनेजर साहब से एक-एक कौड़ी वसूल कर लूँगा। यहाँ के वकील दब्बू हैं, खुशामगी टट्टू– पेशे को बदनाम करने वाले। हमारा पेशा आजाद है। हक की हिमायत करना हमारा काम है, चाहे बादशाह से ही क्यों न मुकाबला करना पड़े। आप जरा भी तरद्दुद न करें। मैं सब बातें ऐसी खूबसूरती से तय कर दूँगा कि आप पर छींटा भी न आने पायेगा। अकस्मात तार के चपरासी ने आ कर डॉक्टर साहब को एक तार का लिफाफा दिया। ज्ञानशंकर ने एक मुकदमें की पैरवी करने के लिए 500) रुपये रोज पर बुलाया था।


डॉक्टर महोदय ने राजा साहब से कहा यह पेशा बड़ा मूजी है। कभी आराम से बैठना नसीब नहीं होता। रानी गायत्रीदेवी का तार है, गोरखपुर बुला रही हैं।


राजा– मैं अपने मुकदमें को मुलतवी नहीं कर सकता। मुमकिन है मैनेजर कोई और चाल खेल जाय।


डॉक्टर– आप मुतलक अन्देशा न करें, मैंने मुकदमे को हाथ में ले लिया। अपने दीवान साहब को भेज दीजिएगा, वकालतनामा तैयार हो जायेगा। मैं कागजात देखकर फौरन दावा दायर कर दूँगा। गोरखपुर गया तो आपके कागजात लेता जाऊँगा।


घड़ी में दस बजे खानसामा ने दस्तरखान बिछाया। भोजनालय इस दफ्तर के बगल ही में था। मसाले की सुगन्ध कमरे में फैल गयी, लेकिन डॉक्टर साहब अपना शिकार फंसाने में तल्लीन थे। भय होता था मैं भोजन करने चला जाऊँ और शिकार हाथ से निकल न जाय। लगभग आध घंटे तक वह राजा साहब से मुकदमे के सम्बन्ध में बातें करते रहे। राजा साहब के जाने के बाद वह दस्तरखान पर बैठे। खाना ठंडा हो गया था। दो-चार ही कौर खाने पाये थे कि 11 बज गये दस्तरखान से उठ बैठे। जल्दी-जल्दी कपड़े पहने और कचहरी चले। रास्ते में पछताते जाते थे कि भरपेट खाने भी नहीं पाया। आज पुलाव कैसा लजीज बना था। इस पेशे का बुरा हो, खाने की फुर्सत नहीं। हाँ, रानी को क्या जवाब दूँ? नीति तो यही है कि जब तक किसानों का मामला तय न हो जाय, कहीं न जाऊँ। लेकिन यह 500 रुपये रोज का नुकसान कैसे बर्दाश्त करूँ? फिर एक बड़ी रियासत से ताल्लुक हो रहा है। साल में सैकड़ों मुकदमें होते होंगे, सैकड़ों अपीले होती होंगी। वहाँ अपना रंग जरूर जमाना चाहिए। मुहर्रिर साहब सामने ही बैठे थे, पूछा– क्यों मुंशीजी, रानी साहब को क्या जवाब दूँ? आपके ख्याल में इस वक्त वहाँ मेरा जाना मुनासिब है?


मुहर्रिर– हुजूर किसी के ताबेदार नहीं हैं। शौक से जायें। सभी वकील यही करते हैं! ऐसे मौके को न छोड़ें।


डॉक्टर– बदनामी होती है।


मुहर्रिर– जरा भी नहीं। जब यही आम रिवाज है तो कौन किसे बदनाम कर सकता है।


इन शब्दों ने इर्फान अली की दुविधाओं को दूर कर दिया। औंधते को ठेलने का बहाना मिल गया। ज्यों ही मोटर कचहरी में पहुँची, प्रेमशंकर दौड़े हुए आये और बोले, मैं तो बड़ी चिन्ता में था। पेशी हो गई।


डॉक्टर– अमौली के राजा साहब आ गये, इससे जरा-देर हो गयी, खाना भी नहीं नसीब हुआ। इस पेशे की न जाने क्यों लोग इतनी तारीफ करते हैं? असल में इससे बदतर कोई पेशा नहीं। थोड़े दिनों में आदमी कोल्हू का बैल बन जाता है।


प्रेमशंकर– आप उधर कहाँ तशरीफ लिये जाते हैं?


डॉक्टर– जरा सब-जज के इजलास में एक बात पूछने। आप चले, मैं अभी आता हूँ।


प्रेम– सरकारी वकील ने बहस शुरू कर दी है।


डॉक्टर– कोई मुजायका नहीं, करने दीजिए। मैं उसका जवाब पहले ही तैयार कर चुका हूँ।


प्रेमशंकर उनके साथ सब-जज के इजलास तक गये। डॉक्टर साहब लगभग एक घंटे तक दफ्तरवालों से बातें करते रहे। अन्त में निकले तो बड़े संकोच भाव से बोले आप को यहाँ खड़े-खड़े बेहद तकलीफ हुई, मुआफ फरमाइएगा। मुझे यह कहते हुए आपसे बहुत नादिम होना पड़ता है कि मैं तीन-चार दिन इस मुकदमे की पैरवी न कर सकूँगा।


प्रेम– यह तो आपने बुरी खबर सुनायी। आप खुद अन्दाज कर सकते हैं कि ऐसे नाजुक मौके पर आपका न रहना कितना जुल्म है।


डॉक्टर– मजबूर हूँ, आपके भाई साहब ने तार से गोरखपुर बुलाया है।


प्रेम– इस खबर से मेरी तो रूह ही फना हो गयी। आप इन बेचारे किसानों को मझधार में छोड़े देते हैं। ख्याल फरमाइए इनकी क्या हालत होगी? यहाँ इतने तंग वक्त में कोई दूसरा वकील भी तो नहीं मिल सकता।


डॉक्टर– मुझे खुद निहायत अफसोस है। मगर जब तक दूकान है तब तक खरीदारों की खातिर करनी ही पड़ेगी। यह पेशा ऐसा मनहूस है कि इसमें आईन पर कायम रहना दुश्वार है। मुझे इन मुसीबतजदों का खुद ख्याल है, लेकिन मिस्टर ज्ञानशंकर को नाराज भी तो नहीं कर सकता। और जनाब, साफ बात तो यह है कि जब काफिर हुए तो शराब से क्यों तौबा करें? जब वकालत का सियाह जामा पहना तो उस पर शराफत का सुफेद दाग क्यों लगायें? जब लूटने पर आये तो दोनो हाथों से क्यों न समेटें? दिल में दौलत का अरमान क्यों रह जायें? बनियों को लोग ख्वामख्वाह लालची कहते हैं। इस लकब का हक हमको है। दौलत हमारा दीन है, ईमान है। यह न समझिए कि इस पेशे के जो लोग चोटी पर पहुँच गये हैं, वे ज्यादा रोशन ख्याल हैं। नहीं जनाब, वे बगुले भगत हैं। ऐसे खामोश बैठे रहते हैं, गोया दुनिया से कोई वास्ता नहीं लेकिन शिकार नजर आते ही आप उनकी झपट और फुरती देखकर दंग हो जायेंगे। जिस तरह कमाई बकरे को सिर्फ वजन के एतबार से देखता है उसी तरह हम इंसान को महज इस एतबार से देखते हैं कि वह, कहाँ तक आँख का अन्धा और गाँठ का पूरा है। लोग इसे आजाद पेशा कहते हैं, मैं इसे इन्तहा दरजे की गुलामी कहता हूँ। अभी चन्द महीने हुए मेरे भाई की शादी दरपेश थी। सादात के कस्बे में बारात गयी थी। तीन दिन बारात वहाँ मुकीम रही। मैं रोज सवेरे यहाँ चला आता था और रात की गाड़ी से लौट जाता था। सभी रस्में मेरी गैर-हाजिरी में अदा हुईं। एक दिन भी कचहरी का नागा नहीं किया। मैं अपनी इस हवस को मकरूह समझता हूँ। और जिन्दगी भर उस आदमी का शुक्रगुजार रहूँगा जो मुझे इस मर्ज से नजात दे दे।


यह कह कर डॉक्टर साहब मोटर पर आ बैठे और एक क्षण में घर पहुँच गये। एक बजे गाड़ी जाती थी। सफर का सामान होने लगा। दो चमड़े के सन्दूक, एक हैण्ड बेग, हैट रखने का सन्दूक, ऑफिस बक्स, भोजन सामग्रियों का सन्दूक आदि सभी सामान बग्घी पर लादा गया। प्रत्येक वस्तु पर डॉक्टर साहब का नाम लिखा हुआ था। समय बहुत कम था, डॉक्टर साहब घर में न गये। मोटर पर बैठना ही चाहते थे कि महरी ने आ कर कहा, हुजूर, जरा अन्दर चलें, बेगम साहिबा बुला रही हैं। मुनीरा को कई दस्त और कै आये हैं।


डॉक्टर साहब– तो जरा कपूर का अर्क क्यों नहीं पिला देती? खाने में कोई बदपरहेजी हुई होगी। चीखने-चिल्लाने की क्या जरूरत है?


महरी– हुजूर, दवा तो पिलायी है। जरा आप चल कर देख लें! बेगम साहिबा डॉक्टर बुलाने को कहती हैं।


इर्फान अली झल्लाये हुए अन्दर गये और बेगम से बोले, तुमने क्या जरा-सी बात का तूफान मचा रखा है?


बेगम– मुनीरा की हालत अच्छी नहीं मालूम होती। जरा चल कर देखो तो। उसके हाथ-पाँव अकड़े जाते हैं मुझे तो खौफ होता है, कहीं कालरा न हो।


इर्फान– यह सब तुम्हारा बहम है। सिर्फ खाने-पीने की बेएहतियाती है और कुछ नहीं। अर्क-काफूर दो-दो घंटे बाद पिलाती रहो। शाम तक सारी शिकायत दूर हो जायेगी। घबड़ाने की जरूरत नहीं। मैं इस ट्रेन से जरा गोरखपुर जा रहा हूँ। तीन-चार दिन में वापस आऊँगा। रोजाना खैरियत की इत्तला देती रहना। मैं रानी गायत्री के बँगले में ठहरूँगा।


बेगम ने उन्हें तिरस्कार भाव से देखकर कहा, लड़की की यह हालत है और आप इसे छोड़ चले जाते हैं। खुदा न करे उसकी हालत ज्यादा खराब हुई तो?


इर्फान– तो मैं रह कर क्या करूँगा? उसकी तीमारदारी तो मुझसे होगी ही नहीं और न बीमारी से मेरी दोस्ती है कि मेरे साथ रियायत करे।


बेगम– लड़की की जान को खुदा के हवाले करते हो, लेकिन रुपये खुदा के हवाले नहीं किये जाते! लाहौल बिलाकूबत आदमी में इन्सानियत न हो, औलाद की मुहब्बत तो हो! दौलत की हवस औलाद के लिए होती है। जब औलाद ही न रही, तो रुपयों का क्या अलाव लगेगा?


इर्फान– तुम अहमक हो, तुमसे कौन सिर-मगज करे?


यह कह कर वह बाहर चले आये, मोटर पर बैठे और स्टेशन की तरफ चल पड़े।


38.


सैयद ईजाद हुसेन का घर दारानगर की एक गली में था। बरामदे में दस-बारह वस्त्रविहीन बालक एक फटे हुए बोरिये पर बैठे करीमा और खालिकबारी की रट लगया करते थे। कभी-कभी जब वे उमंग में आ कर उच्च स्वर से अपने पाठ याद करने लगते तो कानों पड़ी आवाज न सुनायी देती। मालूम होता, बाजार लगा हुआ हो। इस हरबोंग में लौंडे गालियाँ बकते, एक-दूसरे को मुँह चिढ़ाते, चुटकियाँ काटते। यदि कोई लड़का शिकायत करता तो सब-के-सब मिल कर ऐसा कोलाहल मचाते कि उसकी आवाज ही दब जाती थी। बरामदे के मध्य में मौलवी साहब का तख्त था। उस पर एक दढ़ियल मौलवी लुंगी बाँधे, एक मैला-कुचैला तकिया लगाए अपना मदरिया पिया करते और इस कलरव में भी शान्तिपूर्वक झपकियाँ लेते रहते थे। उन्हें हुक्का पीने का रोग था। एक किनारे अँगीठी में उपले सुलगा करते थे और चिमटा पड़ा रहता था। चिलम भरना बालकों के मनोरंजन की मुख्य सामग्री थी। उनकी शिक्षोन्नति चाहे बहुत प्रशंसा के योग्य न हो, लेकिन गुरु-सेवा में सब के सब निपुण थे। यही सैयद ईजाद हुसेन का ‘‘इत्तहादी यतीमखाना’’ था।


किन्तु बरामदे के ऊपरवाले कमरे में कुछ और ही दृश्य था। साफ-सुथरा फर्श बिछा हुआ था, कालीन और मसनद भी करीने से सजे हुए थे। पानदान, खसदान, उगालदान आदि मौके से रखे हुए थे। एक कोने में नमाज पढ़ने की दरी बिछी हुई थी। तस्वीह खूँटी पर लटक रही थी। छत में झालरदार छतगीर थी, जिसकी शोभा रंगीन हाँडियों से और भी बढ़ गयी थी। दीवारें बड़ी-बड़ी तस्वीरों से अलंकृत थीं।


प्रातःकाल था। मिर्जा साहब मसनद लगाये हारमोनियन बजा रहे थे। उनके सम्मुख तीन छोटी-छोटी सुन्दर बालिकाएँ बैठी हुई डॉक्टर इकबाल की सुविख्यात रचना ‘शिवाजी’ के शे’रों को मधुर स्वर में गा रही थीं। ईजाद हुसेन स्वयं उनके साथ गा कर ताल-स्वर बताते जाते यह ‘‘इत्तहादी यतीमखाने’’ की लड़कियाँ बतायी जाती थीं, किन्तु वास्तव में एक, उन्हीं की पुत्री और दो भांजियाँ थीं। ‘‘इत्तहाद’ के प्रचार में यह त्रिमूर्ति लोगों को वशीभूत कर लेती थी। एक घंटे के अभ्यास के बाद मिर्जा साहब ने प्रसन्न हो सगर्व नेत्रों से लड़कियों को देखा और उन्हें छुट्टी दी। इसके बाद लड़कों की बारी आयी। किन्तु यह मकतबवाले, दुर्बल वस्त्रहीन बालक न थे। थे तो चार ही, पर चारों स्फूर्ति और सजीवता की मूर्ति थे। सुन्दर, सुकुमार सुवस्त्रित, चहकते हुए घर में से आए और फर्श पर बैठ गये मिर्जा साहब ने फिर हारमोनियम के स्वर मिलाये और लड़कों ने हक्कानी में एक ग़ज़ल गानी शुरू की, जो स्वयं मिर्जा साहब की सुरचना थी। इसमें हिन्दू-मुस्लिम एकता की एक सुन्दर वाटिका से उपमा दी गई थी और जनता से अत्यन्त करुण और प्रभावयुक्त शब्दों में प्रेरणा की गयी थी कि वह इस बाग को अपनाये, उसकी रमणीकता का आनन्द उठायें और द्वेष तथ वैमनस्य की कंटकमय झाड़िया में न उलझें। लड़कों के सुकोमल, ललित स्वरों में यह गजब ढाती थी। भावों को व्यक्त करने में भी यह बहुत चतुर थे। यह ‘इत्तहादी यतीमखाने’ के लड़के बताये जाते थे, किन्तु वास्तव में यह मिर्जा साहब की दोनों बहनों के पुत्र थे।


मिर्जा साहब अभी गानाभ्यास में मग्न थे कि इतने में एक आदमी नीचे से आया और सामने खड़ा हो कर बोला, लाला गोपालदास ने भेजा है और कहा है आज हिसाब चुकता न हो तो कल नालिश कर दी जायगी। कपड़े का व्यवहार महीने-दो-महीने का है और आपको कपड़े लिये तीन साल से ज्यादा हो गये।


मिर्जा साहब ने ऐसा मुँह बनाया, मानो समस्त संसार की चिन्ता-भार उन्हीं के सिर पर लदा हुआ हो और बोले, नालिश क्यों करेंगे? कह दो थोड़ा– सा जहर भेज दें, खा कर मर जाऊँ। किसी तरह दुनिया से नजात मिले। उन्हें तो खुदा ने लाखों दिये हैं, घर में रुपयों के ढेर लगे हुए हैं। उन्हें क्या खबर कि यहाँ जान पर क्या गुजर रही है? कुन्बा बड़ा, आमदनी का कोई जरिया नहीं, दुनिया चालाक हत्थे नहीं चढ़ती क्या करूँ! मगर इन्शा अल्लाह– एक महीने के अन्दर आ कर सब नया-पुराना हिसाब साफ कर दूँगा। अबकी मुझे वह चाल सूझी है जो कभी पट ही नहीं पड़ सकती। इन लड़कों की ग़ज़लें सुन कर मजलिसें फड़क उठेंगी। जा कर सेठ जी से कह दो, जहाँ इतने दिनों सब्र किया है, एक महीना और करें।


प्यादे ने हँस कर कहा, आप तो मिर्जा साहब, ऐसी बातें करके टाल देते हैं। और वहाँ मुझ पर लताड़ पड़ती है। मुनीम जी कहते हैं, तुम जाते ही न होगे या कुछ ले-दे के चले आते होगे!


मिर्जा साहब ने एक चवन्नी उसको भेंट की। उसके चले जाने के बाद उन्होंने मौलवी साहब को बुलाया और बोले, क्यों मियाँ अमजद, मैंने तुमसे ताकीद कर दी थी कि कोई आदमी ऊपर न आने पाये। इस प्यादे को क्यों आने दिया? मुँह में दही जमा हुआ था? इतना कहते न बनता था कि कहीं बाहर गये हुए हैं। अगर इस तरह तुम लोगों को आने दोगे तो सुबह से शाम तक ताँता लगा रहेगा। आखिर तुम किस मरज की दवा हो?


अमजद– मैं तो उससे बार-बार कहता रहा कि मियाँ कहीं बाहर गये हुए हैं, लेकिन वह जबरदस्ती जीने पर चढ़ आया। क्या करता, उससे क्या फौजदारी करता?


मिर्जा– बेशक उसे धक्का दे कर हटा देना चाहिए था।


अमजद– तो जनाब रूखी रोटी और पतली दाल में इतनी ताकत नहीं होती, उस पर दिमाग लौड़े चर जाते हैं। हाथा-पाई किस बूते पर करूँ? कभी सालन तक नसीब नहीं होता। दरवाजे पर पड़ा-पड़ा मसाले और प्याज की खुशबू लिया करता हूँ। सारा घर पुलाव और जरदे उड़ाता है। यहाँ खुश्क रोटियों पर ही बसर है। दस्तरखान पर खाने को तरस गया। रोज वही मिट्टी की प्याली सामने आ जाती है। मुझे भी तर माल खिलाइए। फिर देखूँ, कौन घर में कदम रखता है।


मिर्जा– लाहौल बिलाकूबत तुम हमेशा पेट का ही रोना रोते रहे। अरे मियाँ, खुदा का शुक्र करो कि बैठे-बैठे रोटियाँ तो तोड़ने को मिल जाती हैं, वरना इस वक्त कहीं फक-फक फाँय-फाँय करते होते।


अमजद– आपसे दिल की बात कहता हूँ तो आप गालियाँ देने लगते हैं। लीजिए, जाता हूँ, अब अगर सूरत दिखाऊँ तो समझिएगा कोई कमीना था। खुदा ने मुँह दिया तो रोजी भी देगा। इस सुदेशी के जमाने में मैं भूखा न मरूँगा।


यह कह मियाँ अमजद सजल नेत्र हो उतरने लगे, कि ईजाद हुसेन ने फिर बुलाया और नम्रता से बोले, आप तो बस-जरा-सी बात पर बिगड़ जाते हैं। देखते नहीं हो यहाँ घर में कितना खर्च है? औलाद की कसरत खुदा की मार है, उस पर रिश्तेदारों का बटोर टिडिडयों का दल है जो आन-की-आन दरख्त ठूँठ कर देता है। क्या करूँ? औलाद की परवरिश फर्ज ही है और रिश्तेदारों से बेमुरौवत करना अपनी आदत नहीं। इस जाल में फँस कर तरह-तरह की चालें चलता हूँ, तरह-तरह की स्वाँग भरता हूँ, फिर भी चूल नहीं बैठती। अब ताकीद कर दूँगा कि जो कुछ पके वह आपको जरूर मिले। देखिए, अब कोई ऊपर न आने पाये।


अमजद– मैंने तो कसम खा ली है।


ईजाद– अरे मियाँ कैसी बातें करते हो? ऐसी कसमें दिन में सैकड़ों बार खाया करते हैं। जाइए देखिए, फिर कोई शैतान आया है।


मियाँ अमजद नीचे आये तो सचमुच एक शैतान खड़ा था। ठिगना कद, उठा हुआ शरीर, श्याम वर्ण, तंजेब का नीचा कुरता पहने हुए। अमजद को देखते ही बोला, मिर्जा जी से कह दो वफाती आया है।


अमजद ने कड़ककर कहा– मिर्जा साहब कहीं बाहर तशरीफ ले गये हैं।


वफाती– मियाँ, क्यों झूठ बोलते हो? अभी गोपालदास का आदमी मिला था, कहता था ऊपर कमरे में बैठे हुए हैं। इतनी जल्दी क्या उठकर चले गये?


अमजद– उसने तुम्हें झाँसा दिया होगा। मिर्जा साहब कल से ही नही हैं।


वफाती– तो मैं जरा ऊपर जा कर देख ही न आऊँ?


अमजद– ऊपर जाने का हुक्म नहीं है बेगमात बैठी होंगी। यह कह कर वे जीने का द्वार रोक कर खड़े हो गये। वफाती ने उनका हाथ पकड़ कर अपनी ओर घसीट लिया और जीने पर चढ़ा। अमजद ने पीछे से उनको पकड़ लिया। वफाती ने झल्ला कर ऐसा झोंका दिया कि मिया अमजद गिरे और लुढ़कते हुए नीचे आ गये। लौड़ों ने जोर से कहकहा मारा। वफाती ने ऊपर जा कर देखा तो मिर्जा साहब साक्षात् मसनद लगाये विराजमान हैं। बोले, वाह मिर्जा जी वाह, आपका निराला हाल है कि घर में बैठे रहते हैं और नीचे मियाँ अमजद कहते हैं, बाहर गये हुए हैं। अब भी दाम दीजिएगा या हशर के दिन ही हिसाब होगा? दौड़ते-दौड़ते तो पैरों में छाले पड़ गये।


मिर्जा– वाह, इससे बेहतर क्या होगा! हश्र के दिन तुम्हारा कौड़ी-कौड़ी चुका दूँगा, उस वक्त जिन्दगी भर की कमाई पास रहेगी, कोई दिक्कत न होती।


वफाती-लाइए-लाइए, आज दिलवाइए, बरसों हो गये। आप यतीमखाने के नाम पर चारों तरफ से हजारों रुपये लाते हैं, मेरा क्यों नहीं देते?


मिर्जा– मियाँ, कैसी बातें करते हो? दुनिया न ऐसी अन्धी है, न ऐसी अहमक। अब लोगों के दिल पत्थर हो गये हैं। कोई पसीजता नहीं। अगर इस तरह रुपये बरसते तो तकाजों में ऐसा क्या मजा है जो तुम लोगों से नादिम कराती है। खुदा के लिए एक माह और सब्र करो। दिसम्बर का महीना आने दो। जिस तरह क्वार और कातिक हकीमों के फसल के दिन होते हैं, उसी तरह दिसम्बर में हमारी भी फसल तैयार होती है। हर एक शहर में जलसे होने लगते हैं। अबकी मैंने वह मन्त्र जगाया है जो कभी खाली जा ही नहीं सकता।


वफाती– इस तरह हीला-हवाला करते तो आपको बरसों हो गये। आज कुछ न कुछ पिछले हिसाब में तो दे दीजिए।


मिर्जा– आज तो अगर हलाल भी कर डालो तो लाश के सिवा और कुछ न पाओगे।


वफाती निराश हो कर चला गया। मिर्जा साहब ने अबकी जा कर जीने का द्वार भीतर से बन्द कर दिया और फिर हारमोनियम सँभाला कि अकस्मात् डाकिए ने पुकारा। मिर्जा साहब चिट्ठियों के लिए बहुत उत्सुक रहा करते थे। जा कर द्वार खोला और समाचार-पत्रों तथा चिट्ठियों का एक पुलिन्दा लिये प्रसन्न मुख ऊपर आये। पहला पत्र उनके पुत्र का था, जो प्रयाग में कानून पढ़ रहे थे। उन्होंने एक सूट और कानूनी पुस्तकों के लिए रुपये माँगे थे। मिर्जा से झुँझलाकर पत्र को पटक दिया। जब देखो, रुपयों का तकाजा, गोया यहाँ रुपये फलते हैं। दूसरा पत्र एक अनाथ बालक का था। मिर्जाजी ने उसे सावधानी से सन्दूक में रखा। तीसरा पत्र एक सेवा-समिति का था। उसने ‘इत्तहादी’ अनाथालय के लिए २० रुपये महीने की सहायता देने का निश्चय किया था। इस पत्र को पढ़ कर वे उछल पड़े और उसे कई बार आँखों से लगाया। इसके बाद समाचार-पत्रों की बारी आयी। लेकिन मिर्जा जी की निगाह लेखों या समाचारों पर न थी। वह केवल ‘इत्तहादी’ अनाथालय की प्रशंसा के इच्छुक थे। पर इस विषय में उन्हें बड़ी निराशा हुई। किसी पत्र में भी इसकी चर्चा न देख पड़ी। सहसा उनकी निगाह एक ऐसी खबर पर पड़ी कि वह खुशी के मारे फड़क उठे! गोरखपुर में सनातन धर्म-सभा का अधिवेशन होने वाला था। ज्ञानशंकर प्रबन्धक मन्त्री थे। विद्वज्जनों से प्रार्थना की गयी थी कि वह उत्सव में सम्मिलित हो कर उसकी शोभा बढ़ाये। मिर्जा साहब, यात्रा की तैयारी करने लगे।


39.


महाशय ज्ञानशंकर का धर्मानुराग इतना बढ़ा कि सांसारिक बातों से उन्हें अरुचि सी होने लगी, दुनिया से जी उचाट हो गया। वह अब भी रियासत का प्रबन्ध उतने ही परिश्रम और उत्साह से करते थे, लेकिन अब सख्ती की जगह नरमी से काम लेते थे। निर्दिष्ट लगान के अतिरिक्त प्रत्येक असामी से ठाकुरद्वारे और धर्मशाले का चन्दा भी लिया जाता था; पर इस रकम को वह इतनी नम्रता से वसूल करते थे कि किसी को शिकायत न होती थी। अब वह एखराज, इजाफा और बकाये के मुकदमें बहुत कम दायर करते। असामियों को बैंक से नाम-मात्र ब्याज ले कर रुपये देते और डेवढ़े-सवाई की जगह केवल अष्टांश वसूल करते। इन कामों से जितना अवकाश मिलता उसका अधिकांश ठाकुर द्वारे और धर्मशाले की निगरानी में व्यय करते। दूर-दूर से कुशल कारीगर बुलाये गये थे जो पच्चीकारी, गुलकारी, चित्रांकण, कटाव और जड़ाव की कलाओं में निपुण थे। जयपुर से संगमरमर की गाड़ियाँ भरी चली आती थीं। चुनार ग्वालियर आदि स्थानों से तरह-तरह के पत्थर माँगाये जाते थे। ज्ञानशंकर की परम इच्छा थी कि यह दोनों इमारतें अद्वितीय हों और गायत्री तो यहाँ तक तैयार थी कि रियासत की सारी आमदनी निर्माण कार्य के ही भेंट हो जाये तो चिंता नहीं। ‘मैं केवल सीर की आमदनी पर निर्वाह कर लूँगी।’ लेकिन ज्ञानशंकर आमदनी के ऐसे-ऐसे विधान ढूँढ़ निकालते थे कि इतना सब कुछ व्यय होने पर भी रियासत की वार्षिक आय में जरा भी कमी न होती थी। बड़े-बड़े ग्रामों में पाँच-छह बाजार लगवा दिये। दो-तीन नालों पर पुल बनवा दिये। कई जगह पानी को रोकने के लिए बाँध-बँधवा दिए। सिंचाई की कल मँगा कर किराये पर लगाने लगे। तेल निकालने का एक बड़ा कारखाना खोल दिया। इन आयोजनों से इलाके का नफा घटने के बदले कुछ और बढ़ गया। गायत्री तो उनकी कार्यपटुता की इतनी कायल हो गयी थी कि किसी विषय में जबान न खोलती।


ज्ञानशंकर के आहार-व्यवहार, रंग-ढंग में भी अब विशेष अन्तर दीख पड़ता था। सिर पर बड़े-बड़े केश थे, बूट की जगह प्रायः खड़ाऊँ, कोट के बदले एक ढीला-ढाला घुटनियों से नीचे तक का गेरूवे रंग में रँगा हुआ कुरता पहनते थे। यह पहनावा उनके सौम्य रूप पर बहुत खिलता था। उनके मुखारविन्द पर अब एक दिव्य ज्योति आभासित होती थी और बातों में अनुपम माधुर्यपूर्ण सरलता थी। अब तर्क और न्याय से उन्हें रुचि न थी। इस तरह बातें करते। मानों उन्हें दिव्य ज्ञान प्राप्त हो गया है। यदि कोई उनसे भक्ति या प्रेम के विषय में शंका करता तो वह उसका उत्तर एक मार्मिक मुस्कान से देते थे, जो हजारों दलीलों से अधिक प्रभावोत्पादक होती थी।


उनके दीवानखाने में अब कुरसियों और मेजों के स्थान पर एक साफ-सुथरा फर्श था, जिस पर मसनद और गावतकिये लगे हुए थे। सामने चन्दन के एक सुन्दर रत्नजटित सिंहासन पर कृष्ण की बाल मूर्ति विराजमान थी। कमरे में नित्य अगर की बत्तिया जला करती थीं। उसके अन्दर जाते ही सुगन्धि से चित्त प्रसन्न हो जाता था। उसकी स्वच्छता और सादगी हृदय को भक्ति-भाव से परिपूर्ण कर देती थी। वह श्रीवल्लभ सम्प्रदाय के अनुयायी थे। फूलों से, ललित गान से, सुरम्य दृश्यों से, काव्यमय भावों से उन्हें विशेष रुचि हो गयी थी, जो आध्यात्मिक विकास के लक्षण हैं। सौन्दर्योपासना ही उनके धर्म का प्रधान तत्त्व था। इस समय वह एक सितारिये से सितार बजाना सीखते थे और सितार पर सूर के पदों को सुना कर मस्त हो जाते थे।


गायत्री पर इस प्रेम-भक्ति का रंग भी और गाढ़ा चढ़ गया था। वह मीराबाई के सदृश कृष्ण की मूर्ति को स्नान कराती, वस्त्राभूषणों से सजाती, उनके लिए नाना प्रकार के स्वादिष्ट भोग बनाती और मूर्ति के सम्मुख अनुराग मग्न हो कर घण्टों कीर्तन किया करती। आधी रात तक उनकी क्रीड़ाएँ और लीलाएँ सुनती और सुनाती। अब उसने पर्दा करना छोड़ दिया था। साधु-सन्तों के साथ बैठ कर उनकी प्रेम और ज्ञान की बातें सुना करती। लेकिन इस सत्संग से शान्ति मिलने के बदले उसका हृदय सदैव एक तृष्णा, एक विरहमय कल्पना से विकल रहता था। उसकी हृदय-वीणा एक अज्ञात आकांक्षा से गूँजती रहती थी। वह स्वयं निश्चय न कर सकती थी कि क्या चाहती हूँ। वास्तव में वह राधा और कृष्ण के प्रेम तत्त्व को समझने में असमर्थ थी। उसकी भौतिक दृष्टि उस प्रेम के ऐन्द्रिक स्वरूप से आगे न बढ़ सकती थी और उसका हृदय इन प्रेम-सुख कल्पनाओं से तृप्त न होता था। वह उन भावों को अनुभव करना चाहती थी। विरह और वियोग, ताप और व्यथा मान और मानवता, रास और विहार, आमोद और प्रमोद का प्रत्यक्ष स्वरूप देखना चाहती थी। पहले पति-प्रेम उसका सर्वस्व था। नदी अपने पेटे में ही हलकोरे लिया करती थी। अब उसे उस प्रेम का स्वरूप कुछ मिटा हुआ, फीका, विकृत मालूम होता था। नदी उमड़ गयी थी। पति-भक्ति का वह बाँध जो कुल-मर्यादा और आत्मगौरव पर आरोपित था। इस प्रेमभक्ति की बाढ़ से टूट गया। भक्ति लौकिक बन्धनों को कब ध्यान में लाती है? वह अब उन भावनाओं और कल्पनाओं को बिना किसी आत्मिक संकोच के हृदय में स्थान देती थी, जिन्हें वह पहले अग्नि-ज्वाला समझा करती थी। उसे अब केवल कृष्ण क्रीड़ा के दर्शन मात्र से सन्तोष न होता था। वह स्वयं कोई-न-कोई रास रचना चाहती थी। वह उन मनोभावों को वाणी से, कर्म से, व्यवहार से व्यक्त करना चाहती थी, जो उसके हृदयस्थल में पक्षियों की भाँति अबाध्य रूप से उड़ा करते थे। और उसका कृष्ण कौन था; वह स्वयं उसे स्वीकार करने का साहस न कर सकती थी, पर उसका स्वरूप ज्ञानशंकर से बहुत मिलता था। वह अपने कृष्ण को इसी रूप में प्रकट देखती थी।


गायत्री का हृदय पहले भी उदार था। अब वह और भी दानशीला हो गयी थी। उसके यहाँ अब नित्य सदाव्रत चलता था और जितने साधु-सन्त आ जायें सबको इच्छापूर्वक भोजन-वस्त्र दिया जाता था। वह देश की धार्मिक और पारमार्थिक संस्थाओं की भी यथासाध्य सहायक करती रहती थी। अब उसे सनातन धर्म से विशेष अनुराग हो गया। अतएव अब की सनातन धर्म-मंडल की वार्षिकोत्सव गोरखपुर में होना निश्चय किया गया तब सभासदों ने बहुमत से रानी गायत्री को सभापति नियुक्त किया। यह पहला अवसर था कि यह सम्मान एक विदुषी महिला को प्राप्त हुआ। गायत्री को रानी की पदवी मिलने से भी इतनी खुशी न हुई थी जितनी इस सम्मान पद से हुई। उसने ज्ञानशंकर को, जो सभा के मंत्री थे बुलाया और अपने गहनों का संदूक दे कर बोली, इसमें ५० हजार के गहने हैं। मैं इन्हें सनातन धर्मसभा को समर्पण करती हूँ


समाचार-पत्रों में यह खबर छप गयी। तैयारियाँ होने लगीं। मंत्री जी का यह हाल कि दिन को दिन और रात को रात न समझते। ऐसा विशाल सभा भवन कदाचित ही पहले कभी न बना हो। मेहमानों के आगत-स्वागत का ऐसा उत्तम प्रबन्ध कभी न किया गया था। उपदेशकों के लिए ऐसे बहुमूल्य उपहार न रखे गये थे और न जनता ने कभी सभा से इतना अनुराग ही प्रकट किया था। स्वयंसेवकों के दल के दल भड़कीली वर्दियाँ पहने चारों तरफ दौड़ते फिरते थे। पंडाल के अहाते में सैकड़ों दूकानें सजी हुई नजर आती थीं। एक सरकस और दो नाटक समितियाँ बुलायी गयी थीं। सारे शहर में चहल-पहल देख पड़ती थी। बाजारों में भी विशेष सजावट और रौनक थी। सड़कों पर दोनों तरफ बन्दनवारें और पताकाएँ शोभायमान थीं।


जलसे के एक दिन पहले उपदेशकगण आने लगे। उनके लिए स्टेशन पर मोटरें खड़ी रहती थीं। इनमें कितने ही महानुभाव संन्यासी थे। वह तिलकधारी पंडितों को तुच्छ समझते थे और मोटर पर बैठने के लिए अग्रसर हो जाते थे। एक संन्यासी महात्मा, जो विद्यारत्न की पदवी से अलंकृत थे, मोटर न मिलने से इतने अप्रसन्न हुए कि बहुत आरजू-मिन्नत करने पर भी फिटन पर न बैठे। सभा भवन तक पैदल आये।


लेकिन जिस समारोह से सैयद ईजाद हुसेन का आगमन हुआ। वह और किसी को नसीब न हुआ। जिस समय वह पंडाल में पहुँचे, जलसा शुरू हो गया था और एक विद्वान पंडित जी विधवा-विवाह पर भाषण कर रहे थे। ऐसे निन्द्य विषय पर गम्भीरता से विचार करना अनुपयुक्त समझ कर वह इसकी खूब हँसी उड़ा रहे थे और यथोचित हास्य और व्यंग्य, धिक्कार और तिरस्कार से काम लेते थे।


‘‘सज्जनों, यह कोई कल्पित घटना नहीं मेरी आँखों देखी बात है। मेरे पड़ोस में एक बाबू साहब रहते हैं। एक दिन वह अपनी माता से विधवा-विवाह की प्रशंसा कर रहे थे। माताजी चुपचाप सुनती जाती थीं। जब बाबू साहब की वार्ता समाप्त हुई तो माता ने बड़े गम्भीर भाव से कहा, बेटा, मेरी एक विनती है, उसे मानो। क्यों मेरा भी किसी से पाणिग्रहण नहीं करा देते? देश भर की विधवाएँ सोहागिन हो जायँगी तो मुझसे क्योंकर रहा जायगा? श्रोताओं ने प्रसन्न होकर तालियाँ बजायीं, कहकहों से पंडाल गूँज उठा।’


इतने में सैयद ईजाद हुसेन ने पंडाल में प्रवेश किया। आगे-आगे चार लड़के कतार में थे, दो हिन्दू, दो मुसलमान। हिन्दू बालकों की धोतियाँ और कुरते पीले थे, मुसलमान बालकों के कुरते और पाजामे हरे। इनके पीछे चार लड़कियों की पंक्ति थी– दो हिन्दू और दो मुसलमान, उनके पहनावे में भी वही अन्तर था। सभों के हाथों में रंगीन झंडियाँ थीं, जिन पर उज्ज्वल अक्षरों में अंकित था– ‘इत्तहादी यतीम-खाना।’ इनके पीछे सैयद ईजाद हुसेन थे। गौर गर्ण, श्वेत केश, सिर पर हरा अमामा, काले कल्पाके का आबा, सुफेद तंजेब की अचकन, सलेमशाही जूते, सौम्य और प्रतिभा की प्रत्यक्ष मूर्ति थे। उनके हाथ में भी वैसी ही झंडी थी। उनके पीछे उनके सुपुत्र सैयद इर्शाद हुसेन थे– लम्बा कद, नाक पर सुनहरी ऐनक, अल्बर्ट फैसल की दाढ़ी तुर्की टोपी, नीची अचकन, सजीवता की प्रत्यक्ष मूर्ति मालूम होते थे। सबसे पीछे साजिन्दे थे। एक के हाथ में हारमोनियम था, दूसरे के हाथ में तबले, शेष दो आदमी करताल लिये हुए थे। इन सबों की वर्दी एक ही तरह की थी और उनकी टोपियों पर ‘अंजुमन इत्तहाद’ की मोहर लगी हुई थी। पंडाल में कई हजार आदमी जमा थे। सब-के-सब ‘इत्तहाद’ के प्रचारकों की ओर टकटकी बाँध कर देखने लगे। पंडित जी का रोचक व्याख्यान फीका पड़ गया। उन्होंने बहुत उछल-कूद की, अपनी सम्पूर्ण हास्य-शक्ति व्यय कर दी, अश्लील कवित्त सुनाये, एक भद्दी-सी गजल भी बेसुरे राग से गायी, पर रंग न जमा। समस्त श्रोतागण ‘इत्तहादियों’ पर आसक्त हो रहे थे। ईजाद हुसेन एक शान के साथ मंच पर जा पहुँचे। वहाँ कई संन्यासी, महात्मा, उपदेशक चाँदी की कुर्सियों पर बैठे हुए थे। सैयद साहब को सबने ईर्ष्यापूर्ण नेत्रों, से देखा और जगह से न हटे। केवल भक्त ज्ञानशंकर ही एक व्यक्ति थे जिन्होंने उनका सहर्ष स्वागत किया और मंच पर उनके लिए एक कुर्सी रखवा दी। लड़के और साजिन्दे मंच के नीचे बैठ गये। उपदेशकगण मन-ही-मन ऐसे कुढ़ रहे थे, मानो हंस समाज में कोई कौवा आ गया हो। दो-एक सहृदय महाशयों ने दबी जबान से फबतियाँ भी कसीं, पर ईजाद हुसेन के तेवर जरा भी मैले न हुए। वह इस अवहेलना के लिए तैयार थे। उनके चेहरे से वह शान्तिपूर्ण दृढ़ता झलक रही थी, जो कठिनाइयों की परवा नहीं करती और काँटों में भी राह निकाल लेती है।


पंडित जी ने अपना रंग जमते न देखा तो अपनी वक्तृता समाप्त कर दी और जगह पर आ बैठे। श्रोताओं ने समझा अब इत्तहादियों के राग सुनने में आयेंगे। सबने कुर्सियाँ आगे खिसकायीं और सावधान हो बैठे; किन्तु उपदेशक-समाज इसे कब पसन्द कर सकता था कि कोई मुसलमान उनसे बाजी ले जा? एक संन्यासी महात्मा ने चट अपना व्याख्यान न शुरू कर दिया। यह महाशय वेदान्त के पंडित और योगाभ्यासी थे। संस्कृत के उद्भट विद्वान थे। वह सदैव संस्कृत में ही बोलते थे। उनके विषय में किंवदन्ती थी कि संस्कृत ही उनकी मातृ-भाषा है। उनकी वक्तृता को लोग उसी शौक से सुनते थे, जैसे चंडूल का गाना सुनते हैं। किसी की भी समझ में कुछ न आता था, पर उनकी विद्वता और वाक्य प्रवाह का रोब लोगों पर छा जाता था। वह एक विचित्र जीव ही समझे जाते थे और यही उनकी बहुप्रियता का मन्त्र था। श्रोतागण कितने ही ऊबे हुए हों, उनके मंच पर आते ही उठने वाले बैठ जाते थे, जाने वाले थम जाते थे। महफिल जम जाती थी। इसी घमंड पर इस वक्त उन्होंने अपना भाषण आरम्भ किया पर आज उनका जादू भी न चला। इत्तहादियों ने उनका रंग भी फीका कर दिया? उन्होंने संस्कृत की झड़ी लगा दी, खूब तड़पे, खूब गरजे, पर यह भादों की नहीं, चैत की वर्षा थी। अन्त में वह भी थक कर बैठ रहे और अब किसी अन्य उपदेशक को खड़े होने का साहस न हुआ। इत्तहादियों ने मैदान मार लिया।


ज्ञानशंकर ने खड़े होकर कहा, अब इत्तहाद संस्था के संचालक सैयद ईजाद हुसेन अपनी अमृत वाणी सुनायेंगे। आप लोग ध्यानपूर्वक श्रवण करें।


सभा भवन में सन्नाटा छा गया। लोग सँभल बैठे। ईजाद हुसेन ने हारमोनियम उठा कर मेज पर रखा, साजिन्दों ने साज निकाले, अनाथ बालकवृन्द वृत्ताकार बैठे। सैयद इर्शाद हुसेन ने इत्तहाद सभा की नियमावली का पुलिन्दा निकाला। एक क्षण में ईश-वन्दना के मधुर स्वर पंडाल में गूँजने लगे। बालकों की ध्वनि में एक खास लोच होता है। उनका परस्पर स्वर में स्वर मिला कर गाना उस पर साजों का मेल, एक समाँ छा गया– सारी सभा मुग्ध हो गयी।


राग बन्द हो गये और सैयद ईजाद हुसेन ने बोलना शुरू किया–  प्यारे दोस्तो, आपको यह हैरत होगी कि हंसों में यह कौवा क्योंकर आ घुसा, औलिया की जमघट में यह भाँड कैसे पहुँचा?


यह मेरी तकदीर की खूबी है। उलमा फरमाते हैं, जिस्म हाजिम (अनित्य) है, रूह कदीम (नित्य) है। मेरा तर्जुबा बिलकुल बरअक्स (उल्टा) है। मेरे जाहिर में कोई तबदीली नहीं हुई। नाम वही है, लम्बी दाढ़ी वही है, लिबास-पोशाक वही है, पर मेरे रूह की काया पलट गयी। जाहिर से मुगालते में न आइए, दिल में बैठ कर देखिए, वहाँ मोटे गरूफ में लिखा हुआ है : ‘हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दुस्ताँ हमारा।’


लड़कों और साजिन्दों ने इकबाल की गजल अलापनी शुरू की। सभा लोट-पोट हो गयी। लोगों की आँखों से गौरव की किरणें-सी निकलने लगीं, कोई मूछों पर ताव देने लगा, किसी ने बेबसी की लम्बी साँस खींची, किसी ने अपनी भुजाओं पर निगाह डाली और कितने ही सहृदय सज्जनों की आँखें भर आयीं। विशेष करके इस मिसरे पर– ‘हम बुलबुले हैं इसकी, यह गुलिस्ताँ हमारा।’ तो सारी मजलिस तड़प उठी, लोगों ने कलेजे थाम लिये।, ‘वन्देमातरम्’ से भवन गूँज उठा। गाना बन्द होते ही फिर व्याख्यान शुरू हुआ–


‘भाइयों, मजहब दिल की तस्कीन के लिए है, दुनिया कमाने के लिए नहीं, मुल्की हकूम हासिल करने के लिए नहीं! वह आदमी जो मजहब की आड़ में दौलत और इज्जत हासिल करना चाहता है, अगर हिन्दू है जो मालिच्छ है, मुसलमान है तो काफिर है, हाँ काफिर है, मजदूर है, रूसियाह है।’’


करतल ध्वनि से पंडाल काँप उठा।


‘हम सत्तर पुश्तों से इसी सरजमीन का दाना खा रहे हैं, इसी सरजमीन के आब व गिल (पानी और मिट्टी) से हमारी शिरशिरी हुई है। तुफ है उस मुसलमान पर जो हिजाज और इराक को अपना वतन कहता है!


फिर तालियाँ बजीं। एक घंटे तक व्याख्यान हुआ। सैयाद ने सारी पर मानो मोहिनी डाल दी। उनकी गौरवयुक्त विनम्रता, उनकी निर्भीक यथार्थवादिता, उनकी स्वदेशाभिमान, उस पर उनके शब्द-प्रवाह, भावोत्कर्ष और राष्ट्रीय गाने ने लोगों को उन्मत्त कर दिया। हृदयों में जागृति की तरंगे उठने लगीं। कोई सोचता था, न हुए मेरे पास एक लाख रुपये, नहीं तो इसी दम लुटा देता। कोई मन में कहता था, बाल-बच्चों की चिंता न होती तो गले में झोली लटका कर जाति के लिए भिक्षा माँगता।


इस तरह जातीय भाव को उभारकर भूमि को पोली बना कर सैयद साहब मतलब पर आये, बीज डालना शुरू किया।


‘‘दोस्तो, अब मजहबपरवरी का जमाना नहीं रहा। पुरानी बातों को भूल जाइए। एक जमाना था कि आरियों ने यहाँ के असली बाशिन्दों पर सदियों तक हुकूमत की, आज वही शूद्र आरियों में घुले-मिले हुए हैं। दुश्मनों को अपने सलूक से दोस्त बना लेना आपके बुजुर्गों का जौहर था। वह जौहर आप में मौजूद है। आप बारहा हमसे गले मिलने के लिए बढ़े, लेकिन हम पिदरम सुलताबूद के जोश में हमेशा आप से दूर भागते रहे। लेकिन दोस्तो, हमारी बदगुमानी से नाराज न हो, तुम जिन्दा कौम हो। तुम्हारे दिल में दर्द है, हिम्मत है, फैयाजी है। हमारी तंगदिली को भूल जाइए। उसी बेगाना कौम का एक फर्द हकीर आज आपकी खिदमत में इत्तहाद का पैगाम लेकर हाजिर हुआ है, उसकी अर्ज कबूल कीजिए। यह फकीर इत्तहाद का सौदाई है, इत्तहाद का दीवाना है, उसका हौसला बढ़ाइए। इत्तहाद का यह नन्हा सा मुर्झाया हुआ पौधा आपकी तरफ भूखी-प्यासी नजरों से ताक रहा है। उसे अपने दरियादिली के उबलते हुए चश्मों से सैराब कर दीजिए। तब आप देखेंगे कि यह पौधा कितनी जल्द तनावर दरख्त हो जाता है और उसके मीठे फलों से कितनों की जबानें तर होती हैं। हमारे दिल में बड़े-बड़े हौसले हैं। बड़े-बड़े मनसूबे हैं। हम इत्तहाद की सदा से इस पाक जमीन के एक-एक गोशे को भर देना चाहते हैं। अब तक जो कुछ किया है आप ही ने किया है, आइन्दा जो कुछ करेंगे आप ही करेंगे। चन्दे की फिहरिस्त देखिए, वह आपके ही नामों से भरी हुई है और हक पूछिए तो आप ही उसके बानी हैं। रानी गायत्री कुँवर साहब की सखावत की एक वक्त सारी दुनिया में शोहरत है। भगत ज्ञानशंकर की कौमपरस्ती क्या पोशीदा है? वजीर ऐसा, बादशाह ऐसा! ऐसी पाक रूहें जिस कौम में हों वह खुशनसीब है। आज मैंने इस शहर की पाक जमीन पर कदम रखा तो बाशिन्दों के एखलाक और मुरौवत, मेहमानबाजी और खातिरदारी ने मुझे हैरत में डाल दिया। तहकीक करने से मालूम हुआ कि यह इसी मजहबी जोश की बरकत है, यह प्रेम के औतार सिरी किरिश्नजी की भगती का असर है जिसने लोगों को इन्सानियत के दर्जे से उठा कर फरिश्तों का हमसफर बना दिया है। हजरात, मैं अर्ज नहीं कर सकता कि मेरे दिल में सिरी किरिश्नजी की कितनी इज्जत है। इससे चाहे मेरी मुसलमानी पर ताने ही क्यों न दिए जायँ, पर मैं बेखौफ कहता हूँ कि वह रूहे पाक उलूहियत (ईश्वरत्व) के उस दर्जे पर पहुँची हुई थी जहाँ तक किसी नवी या पैगम्बर को पहुँचना नसीब न हुआ। आज इस सभा में सच्चे दिल से अंजुमन इत्तहाद को उसी रूहेपाक के नाम मानून (समर्पित) करता हूँ। मुझे उम्मीद ही नहीं, यकीन है कि उनके भगतों के सामने मेरा सवाल खाली न जायेगा! इत्तहादी यतीमखाने के बच्चे ओर बच्चियाँ आप ही की तरफ बेकस निगाहों से देख रही हैं। यह कौमी भिखारी आपके दरवाजे पर खड़ा दोआएँ दे रहा है। इस लम्बी दाढ़ी पर निगाह डालिए, इन सुफेद बालों की लाज रखिए।


फिर हारमोनियम बजा, तबले पर थाप पड़ी, करताल ने झंकार ली और ईजाद हुसेन की करुण-रस-पूर्ण गजल शुरू हुई। श्रोताओं के कलेजे मसोस उठे। चन्दे की अपील हुई तो रानी गायत्री की ओर से १००० रुपये की सूचना हुई, भक्त ज्ञानशंकर ने यतीमखाने के लिए एक गाय भेंट की, चारों तरफ से लोग चन्दा देने को लपके। इधर तो चन्दे की सूची चक्कर लगा रही थी, उधर इर्शाद हुसेन ने अंजुमन के पम्फलेट और तमगे बेचने शुरू किए। तमगे अतीव सुन्दर बने हुए थे। लोगों ने शौक से हाथों-हाथ लिये। एक क्षण में हजारों वक्षस्थलों पर यह तमगे चमकने लगे। हृदयों पर दोनों तरफ से इत्तहाद की छाप पड़ी गयी। कुल चन्दे का योग 5000 रुपये हुआ। ईजाद हुसेन का चेहरा फूल की तरह खिल उठा। उन्होंने लोगों को धन्यवाद देते हुए एक गजल गायी और आज की कार्यवाही समाप्त हुई रात के दस बजे थे।


जब ईजाद हुसेन भोजन करके लेटे और खमीरे का रस-पान करने लगे तब उनके सुपुत्र ने पूछा, इतनी उम्मीद तो आपको भी न थी।


ईजाद– हर्गिज नहीं। मैंने ज्यादा से ज्यादा 1000 रुपये का अन्दाज़ किया था, मगर आज मालूम हुआ कि ये सब कितने अहमक होते हैं। इसी अपील पर किसी इस्लामी जलसे में मुश्किल से 100 रुपये मिलते थे। इन बछिया के ताऊओं की खूब तारीफ कीजिए। हर्जोमलीह की हद तक हो तो मुजायका नहीं, फिर इनसे जितना चाहें वसूल कर लीजिए।


इर्शाद– आपकी तकरीर लाजवाब थी।


ईजाद– उसी पर जो जिन्दगी का दारोमदार है न किसी के नौकर, न गुलाम। बस, दुनिया में कामयाबी का नुस्खा है तो वह शतरंजबाजी है। आदमी जरा लस्सान (वाक्-चतुर) हो, जरा मर्दुमशनास हो और जरा गिरहबाज हो, बस उसकी चाँदी है। दौलत उसके घर की लौंडी है।


इर्शाद– सच फरमाइएगा अब्बा जान, क्या आपका कभी यह खयाल था कि यह सब दुनियासाजी है?


ईजाद– क्या मुझे मामूली आदमियों से भी गया-गुजरा समझते हो? यह दगाबाजी है, पर करूँ क्या? औलाद और खानदान की मुहब्बत अपनी नजात की फिकर से ज्यादा है।


40.


जलसा बड़ी सुन्दरता से समाप्त हुआ रानी गायत्री के व्याख्यान पर समस्त देश में वाह-वाह मच गयी। उसमें सनातन-धर्म संस्था का ऐतिहासिक दिग्दर्शन कराने के बाद उसकी उन्नति और पतन, उसके उद्धार और सुधार उसकी विरोधी तथा सहायक शक्तियों की बड़ी योग्यता से निरूपण किया गया था। संस्था की वर्तमान दशा और भावी लक्ष्य की बड़ी मार्मिक आलोचना की गयी थी। पत्रों में उस वक्तृता को पढ़ कर लोग चकित रह जाते थे और जिन्होंने उसे अपने कानों से सुना वे उसका स्वर्गीय आनन्द कभी न भूलेंगे। क्या वाक्य-शैली थी, कितनी सरल, कितनी मधुर, कितनी प्रभावशाली, कितनी भावमयी! वक्तृता क्या थी– एक मनोहर गान था!


तीन दिन बीत चुके थे। ज्ञानशंकर अपने भव्य-भवन में समाचार-पत्रों का एक दफ्तर सामने रखे बैठे हुए थे। आजकल उनका यही काम था कि पत्रों में जहाँ कहीं इस जलसे की आलोचना हुई तुरन्त काट कर रख लेते। गायत्री अब ज्ञानशंकर को देवतुल्य समझती थी। उन्हीं की बदौलत आज समस्त देश में उसकी सुकीर्ति की धूम मची हुई थी। उसके इस अतुल उपकार का एक ही उपहार था और वह प्रेमपूर्ण श्रद्धा थी।


सन्ध्या हो गयी थी कि अकस्मात् ज्ञानशंकर पत्रों की एक पोटली लिये हुए अन्दर गये और गायत्री से बोले, देखिए, रायसाहब ने यह नया शिगूफा छोड़ा।


गायत्री ने भौंहें चढ़ाकर कहा, मेरे सामने उनका नाम न लीजिए। मैंने उनकी कितनी चिरौरी की थी एक दिन के लिए जलसे में अवश्य आइए, पर उन्होंने जरा भी परवाह न की। पत्र का उत्तर तक न दिया। बाप हैं तो क्या, मैं उनके हाथों भी अपना अपमान नहीं सह सकती।


ज्ञान– मैंने तो समझा था, यह उनकी लापरवाही है, लेकिन इस पत्र से विदित होता है कि आजकल वह एक दूसरी ही धुन में हैं। शायद इसी कारण अवकाश न मिला हो।


गायत्री– क्या बात है, किसी अँगरेज से लड़ तो नहीं बैठे।


ज्ञान– नहीं, आजकल एक संगीत-सभा की तैयारी कर हैं।


गायत्री– उनके यहाँ तो बारहों मास संगीत-सभा होती रहती है।


ज्ञान नहीं, यह उत्सव बड़ी धूम-धाम से होगा। देश के समस्त गवैयों के नाम निमंत्रण-पत्र भेजे गये हैं। यूरोप से भी कोई जगद्विख्यात गायनाचार्य बुलाये जा रहे हैं। रईसों और अधिकारियों को दावत दी गयी है। एक सप्ताह तक जलसा होगा। यहाँ के संगीत-शास्त्र और पद्धति में सुधार करना उनका उदेश्य है।


गायत्री– हमारा संगीत-शास्त्र ऋषियों का रचा हुआ है। उसमें क्या कोई सुधार करेगा? इस भैरव और ध्रुपद के शब्द यशोदानन्दन की वंशी से निकलते थे, पहले कोई गा तो ले, सुधारना तो छोटा मुँह बड़ी बात है।


ज्ञान– राय साहब को कोई और चिन्ता तो है नहीं, एक स्वाँग रचते रहते हैं। कर्ज बढ़ता जाता है, रियासत बोझ से दबी जाती है, पर वह अपनी धुन में किसी की कब सुनते हैं! मेरा अनुमान है कि इस समय उन पर 3।। लाख देना है।


गायत्री– इतना धन-कृष्ण भगवान् की सेवा में खर्च करते तो परलोक बन जाता! चिट्ठियाँ तो खोलिए, जरूर कोई पत्र होगा।


ज्ञान– हाँ देखिए, यह लिफाफा उन्हीं का मालूम होता है। हाँ, उन्हीं का है! मुझे बुला रहे हैं और आपको भी बुला रहे हैं।


गायत्री– मैं जा चुकी। जब वह यहाँ आने में अपनी हेटी समझते हैं, तो मुझे क्या पड़ी है कि उनके जलसों-तमाशों में जाऊँ? हाँ, विद्या को चाहे पहुँचा दीजिए; मगर शर्त यह है कि आप दो दिन से ज्यादा वहाँ न ठहरें।


ज्ञान– इसके विषय में सोच कर निश्चय करूँगा। यह दो पत्र बरहाल और आम-गाँव के कारिन्दों के हैं। दोनों लिखते हैं। कि असामी सभा का चन्दा देने से इन्कार करते हैं।


गायत्री की त्योरियाँ बदल गयीं। प्रेम की देवी क्रोध की मूर्ति बन गयी। बोली, क्या देहातों, में भी वह हवा फैलने लगी? कारिन्दों को लिख दीजिए कि इन पाजियों के घर में आग लगवा दें और उन्हें कोड़ों से पिटवायें। उनका यह दिल कि मेरी आज्ञा का निरादर करें! देवकीनन्दन, तुम इन नर-पिशाचों को क्षमा करो! आप आज ही वहाँ आदमी रवाना करें! मैं यह अवज्ञा नहीं सह सकती। यह सब-के-सब कृतघ्न हैं। किसी दूसरे राज में होते तो आटे-दाल का भाव खुलता। मैं उनके साथ उतनी रिआयत करती हूँ, उनकी मदद के लिए तैयार रहती हूँ, इनके लिए नुकसान उठाती हूँ और उसका यह फल!


ज्ञान– यह मुंशी रामसनेही का पत्र है। लिखते हैं, ठाकुरद्वारे का काम तीन दिन से बन्द है। बेगारों को कितनी ताकीद की जाती है, मगर काम पर नहीं आते।


गायत्री– उन्हें मजूरी दी जाती है न?


ज्ञान– जी हाँ, लेकिन जमींदारी की दर से दी जाती है। जमींदारी शरह दो आने है, आम शरह छह आने है।


गायत्री– आप उचित समझें तो रामसनेही को लिख दीजिए कि चार आने के हिसाब से मजूरी दी जाये।


ज्ञान– लिख तो दूँ, वास्तव में दो आने में एक पेट भी नहीं भरता, लेकिन इन मूर्ख, उजड्ड गँवारों पर दया भी की जाय तो वह समझते हैं कि दब गये। कल को छह आने माँगने लगेंगे और फिर बात भी न सुनेंगे।


गायत्री– फिर लिख दीजिए कि बेगारों को जबरदस्ती पकड़वा लें। अगर न आये तो उन्हें गाँव से निकाल दीजिए। हम स्वयं दया– भाव से चाहे उनके साथ जो सलूक करें मगर यह कदापि नहीं हो सकता कि कोई असामी मेरे सामने हेकड़ी जतावे अपना रोब और भय बनाये रखना चाहिए।


ज्ञान– यह पत्र अमेलिया के बाजार से आया है। ठेकेदार लिखता है कि लोग गोले के भीतर गाड़ियाँ नहीं लाते। बाहर ही पेड़ों के नीचे अपना सौदा बेचते हैं। कहते हैं, हमारा जहाँ जी चाहेगा बैठेंगे। ऐसी दशा में ठीका रद्द कर दिया जाये अन्यथा मुझे बड़ी हानि होगी।


गायत्री– बाजार के बाहर भी तो मेरी ही जमीन है, वहाँ किसी को दूकान रखने का क्या अधिकार?


ज्ञान– कुछ नहीं, बदमाशी है। बाजारों में रुपये पीछे, एक पैसा बयाई देनी पड़ती है, तौल ठीक-ठीक होती है, कुछ धर्मार्थ कटौती देनी पड़ती है, बाहर मनमाना राज है!


गायत्री– यह क्या बात है कि जो काम जनता के सुभीते और आराम के लिए किये जाते हैं, उनका भी लोग विरोध करते हैं।


ज्ञान– कुछ नहीं, यह मानव प्रकृति है। मनुष्य को स्वभावतः दबाव से, रोकथाम से, चाहे वह उसी के उपकार के लिए क्यों न हो, चिढ़ ही होती है। किसान अपने मूर्ख पुरोहित के पैर धो-धो पियेगा, लेकिन कारिन्दा को, चाहे वह विद्वान ब्राह्मण ही क्यों न हो, सलाम करने में भी उसे संकोच होता है। यों चाहे वह दिन भर धूप में खड़ा रहे, लेकिन कारिन्दा या चपरासी को देख कर चारपाई से उठना उसे असह्य होता है। वह आठों पहर अपनी दीनता और विवशता के भार से दबा रहना नहीं चाहता। अपनी खुशी से नीम की पत्तियाँ चबायेगा, लेकिन जबरदस्ती दूध और शर्बत भी न पियेगा। यह जानते हुए भी हम उन पर सख्ती करने के लिए बाध्य हैं।


इतने में मायाशंकर एक पीताम्बर ओढ़े हुए ऊपर से उतरा। अभी उसकी उम्र चौदह वर्ष से अधिक न थी, किंतु मुख पर एक विलक्षण गम्भीरता और विचारशीलता झलक रही थी। जो इस अवस्था में बहुत कम देखने में आती है। ज्ञानशंकर ने पूछा, कहाँ चले मुन्नू?


माया ने तीव्र नेत्रों से देखते हुए कहा, घाट की तरफ सन्ध्या करने जाता हूँ।


ज्ञान– आज सर्दी बहुत है। यहीं बाग में क्यों नहीं कर लेते?


माया– वहाँ एकान्त में चित्त खूब एकाग्र हो जाता है।


वह चल गया तो ज्ञानशंकर ने कहा, इस लड़के का स्वभाव विचित्र है। समझ में ही नहीं आता। सवारियाँ सब तैयार है; पर पैदल ही जायगा। किसी को साथ भी नहीं लेता।


गायत्री– महरियाँ कहती हैं, अपना बिछावन तक किसी को नहीं छूने देते। वह बेचारियाँ इनका मुँह जोहा करती हैं, कि कोई काम करने को कहें, पर किसी से कुछ मतलब ही नहीं।


ज्ञान– इस उम्र में कभी-कभी यह सनक सवार हो जाया करती है। संसार का कुछ ज्ञान तो होता नहीं। पुस्तकों में जिन नियमों की सराहना की गयी है, उनके पालन करने को प्रस्तुत हो जाता है। लेकिन मुझे तो यह कुछ मन्दबुद्धि सा जान पड़ता है। इतना पढ़ा हुआ,पैसे की कदर ही नहीं जानता। अभी 100 रुपये दे दीजिये। तो शाम तक पास कौड़ी न रहेगी। न जाने कहाँ उड़ा देता है; किन्तु इसके साथ ही माँगता कभी नहीं। जब तक खुद न दीजिए, अपनी जबान से कभी न कहेगा।


गायत्री– मेरी समझ में तो यह पूर्व जन्म में कोई संन्यासी रहे होंगे।


ज्ञानशंकर ने आज ही गाड़ी से बनारस जाकर विद्या को साथ लेते हुए लखनऊ जाने का निश्चय किया। गायत्री बहुत कहने-सुनने पर भी राजी न हुई।



No comments:

Post a Comment

निबंध | कवि और कविता | महावीर प्रसाद द्विवेदी | Nibandh | Kavi aur Kavita | Mahavir Prasad Dwivedi

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी निबंध - कवि और कविता यह बात सिद्ध समझी गई है कि कविता अभ्यास से नहीं आती। जिसमें कविता करने का स्वाभाविक माद्द...