सेवासदन

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सदन को ऐसी ग्लानि हो रही थी, मानों उसने कोई बड़ा पाप किया हो। वह बार-बार अपने शब्दों पर विचार करता और यही निश्चय करता कि मैं बड़ा निर्दय हूं। प्रेमाभिलाषा ने उसे उन्मत्त कर दिया था।


वह सोचता, मुझे संसार का इतना भय क्यों है? संसार मुझे क्या दे देता है? क्या केवल झूठी बदनामी के भय से मैं उस रत्न को त्याग दूं, जो मालूम नहीं मेरे पूर्व जन्म की कितनी ही तपस्याओं का फल है? अगर अपने धर्म का पालन करने के लिए मेरे बंधुगण मुझे छोड़ दें तो क्या हानि है? लोक-निंदा का भय इसलिए है कि वह हमें बुरे कामों से बचाती है। अगर वह कर्त्तव्य मार्ग में बाधक हो, तो उससे डरना कायरता है। यदि हम किसी निरपराध पर झूठा अभियोग लगाएं, तो संसार हमको बदनाम नहीं करता, वह इस अकर्म में हमारी सहायता करता है, हमको गवाह और वकील देता है। हम किसी का धन दबा बैठें, किसी की जायदाद हड़प लें, तो संसार हमको कोई दंड नहीं देता, देता भी है तो बहुत कम, लेकिन ऐसे कुकर्मों के लिए हमें बदनाम करता है, हमारे माथे पर सदा के लिए कलंक का टीका लगा देता है। नहीं, लोक-निंदा का भय मुझसे यह अधर्म नहीं करा सकता, मैं उसे मंझधार में न डूबने दूंगा। संसार जो चाहे कहे, मुझसे यह अन्याय न होगा।


मैं मानता हूं कि माता-पिता की आज्ञा का पालन करना मेरा धर्म है। उन्होंने मुझे जन्म दिया है, मुझे पाला है। बाप की गोद में खेला हूं, मां का स्तन पीकर पला हूं। मैं उनके इशारे पर विष का प्याला पी सकता हूं, तलवार की धार पर चल सकता हूं, आग में कूद सकता हूं, किंतु उनके दुराग्रह पर भी मैं उस रमणी का तिरस्कार नहीं कर सकता, जिसकी रक्षा करना मेरा धर्म है। मां-बाप मुझसे अवश्य विमुख हो जाएंगे। संभव है, मुझे त्याग दें, मुझे मारा हुआ समझ लें, लेकिन कुछ दिनों के दुख के बाद उन्हें धैर्य हो जाएगा। वह मुझे भूल जाएंगे। काल उनके घाव को भर देगा।


हाय! मैं कैसा कठोर, कैसा पाषाण-हृदय हूं! वह रमणी जो किसी रनिवास को शोभा बन सकती है, मेरे सम्मुख एक दीन प्रार्थी के समान खड़ी रहे और मैं जरा भी न पसीजूं? वह ऐसा अवसर था कि मैं उसके चरणों पर सिर झुका देता और कर जोड़कर कहता, देवि! मेरे अपराध क्षमा करो! गंगा से जल लाता और उसके पैरों पर चढ़ाता, जैसे कोई उपासक अपनी इष्ट देवी को चढ़ाता है। पर मैं पत्थर की मूर्ति के सदृश खड़ा अपनी कुल-मर्यादा का बेसुरा राग अलापता रहा। हा मंदबुद्धि! मेरी बातों से उसका कोमल हृदय कितना दुःखी हुआ होगा। यह उसके मान करने से ही प्रकट होता है। उसने मुझे शुष्क, प्रेमविहीन, घमंडी और धूर्त्त समझा होगा, मेरी ओर आंख उठाकर देखा तक नहीं। वास्तव में मैं इसी योग्य हूं।


वह पश्चात्तापात्मक विचार कई दिन तक सदन के मर्मस्थल में दौड़ते रहे। अंत में उसने निश्चय किया कि मुझे अपना झोंपड़ा अलग बनाना चाहिए, अपने पैरों पर खड़ा होना चाहिए। इसके बिना निर्वाह नहीं हो सकता। मां-बाप के घर का द्वार अब मेरे लिए बंद है, खटखटाने से भी न खुलेगा। चचा मुझे आश्रय देंगे, लेकिन उनके यहां रहकर घर में बैर का बीज बोना अच्छा नहीं; माता-पिता समझेंगे कि यह मेरे लड़के को बिगाड़ रहे हैं। बस, मेरे लिए इसके सिवाय कोई और उपाय नहीं कि अपने लिए कोई राह निकालूं।


वह विचार करता कि चलकर अपनी लगाई हुई आग को बुझा आऊं, लेकिन चलने के समय उसकी हिम्मत जवाब दे देती। मन में प्रश्न उठता कि किस बिरते पर? घर कहां है?


सदन नित्य इसी चिंता में डूबा रहता कि इस सूत्र को कैसे सुलझाऊं? उसने सारे शहर की खाक छान डाली, कभी दफ्तरों की ओर जाता, कभी बड़े-बड़े कारखानों का चक्कर लगाता और दो-चार घंटे घूम-घामकर लौट आता। उसका जीवन अब तक सुख भोग में बीता था, उसने नम्रता और विनय का पाठ न पढ़ा था, अभिमान उसके रोम-रोम में भरा हुआ था। रास्ते चलता तो अकड़ता हुआ, अपने सामने किसी को कुछ नहीं समझता था। उसे संसार का कुछ अनुभव न था। वह नहीं जानता था कि इस दरबार में बहुत सिर झुकाने की आवश्यकता है। यहां उसी की प्रार्थना स्वीकृत होती है, जो पत्थर के निर्दय चौखटों पर माथा रगड़ना जानता है, जो उद्योगी है, निपुण है, नम्र है, जिसने किसी योगी के सदृश अपने मन को जीत लिया है, जो अन्याय के सामने झुक जाता है, अपमान को दूध के समान पी जाता है और जिसने आत्मभिमान को पैरों तले कुचल डाला है। वह न जानता था कि वही सद्गुण, जो मनुष्य को देवतुल्य बना देते हैं, इस क्षेत्र में निरादर की दृष्टि से देखे जाते है। वह ईमानदार था, सत्यवक्ता था, सरल था, जो कहता मुंह पर, लगी-लिपटी रखना न जानता था, पर वह नहीं जानता था कि इन गुणों का आत्मिक महत्त्व चाहे जो कुछ हो, संसार की दृष्टि में विद्या की कमी उनसे नहीं पूरी होती। सदन को अब बहुत पछतावा होता था कि मैंने अपना समय व्यर्थ खोया। कोई ऐसा काम न सीखा, जिससे संसार में निर्वाह होता। सदन को इस प्रकार भटकते हुए एक मास से अधिक हो गया और कोई काम हाथ न लगा।


इस निराशा ने धीरे-धीरे उसके हृदय में असंतोष का भाव जाग्रत कर दिया। उसे अपने माता-पिता पर, अपने चाचा पर, संसार पर और अपने आप पर क्रोध आता। अभी थोड़े ही दिन पहले वह स्वयं फिटन पर सैर करने निकलता था, लेकिन अब किसी फिटन को आते देखकर उसका रक्त खौलने लगता था। वह किसी फैशनेबुल मनुष्य को पैदल चलते पाता, तो अदबदाकर उससे कंधा मिलाकर चलता और मन में सोचता कि यह जरा भी नाक-भौं सिकोड़े तो इसकी खबर लूं। बहुधा वह कोचवानों के चिल्लाने की परवाह न करता। सबको छेड़कर लड़ना चाहता था। ये लोग गाड़ियों पर सैर करते हैं, कोट-पतलून डाटकर बन-ठनकर हवा खाने जाते हैं और मेरा कहीं ठिकाना नहीं।


घर पर जमींदारी होने के कारण सदन के सामने जीविका का प्रश्न कभी न आया था। इसीलिए उसने शिक्षा की ओर विशेष ध्यान न दिया था, पर अकस्मात् जो यह प्रश्न उसके सामने आ गया, तो उसे मालूम होने लगा कि इस विषय में सर्वथा असमर्थ हूं। यद्यपि उसने अंग्रेजी न पढ़ी थी, पर इधर उसने हिन्दी भाषा का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। वह शिक्षित समाज को मातृभाषा में अश्रद्धा रखने के कारण देश और जाति को विरोधी समझता था। उसे अपने सच्चरित्र होने पर भी घमंड था। जब से उसके लेख ‘जगत’ में प्रकाशित हुए थे, वह अंग्रेजी पढ़े-लिखे आदमियों को अनादर की दृष्टि से देखने लगा था। यह सब-के-सब स्वार्थसेवी हैं, इन्होंने केवल दीनों का गला दबाने के लिए, केवल अपना पेट पालने के लिए अंग्रेजी पढ़ी है, सब-के-सब फैशन के गुलाम हैं, जिनकी शिक्षा ने उन्हें अंग्रेजों का मुंह चिढ़ाना सिखा दिया है, जिनमें दया नहीं, धर्म नहीं, निज भाषा से प्रेम नहीं, चरित्र नहीं, आत्मबल नहीं, वे भी कुछ आदमी हैं? ऐसे ही विचार उसके मन में आया करते थे। लेकिन अब जो जीविका की समस्या उसके सामने आई, तो उसे ज्ञात हुआ कि मैं इनके साथ अन्याय कर रहा था। ये दया के पात्र हैं। मैं भाषा का पंडित नहीं लेकिन बहुतों से अच्छी भाषा जानता हूं। मेरा चरित्र उच्च न सही, पर बहुतों से अच्छा है। मेरे विचार उच्च न हों, पर नीच नहीं, लेकिन मेरे लिए सब दरवाजे बंद हैं। मैं या तो कहीं चपरासी हो सकता हूं या बहुत होगा तो कांस्टेबिल हो जाऊंगा। बस यही मेरा सामर्थ्य है। यह हमारे साथ कितना बड़ा अन्याय है, हम कैसे चरित्रवान हों, कितने ही बुद्धिमान हों, कितने ही विचारशील हों, पर अंग्रेजी भाषा का ज्ञान न होने से उनका कुछ मूल्य नहीं। हमसे अधम और कौन होगा कि इस अन्याय को चुपचाप सहते हैं। नहीं, बल्कि उस पर गर्व करते हैं। नहीं, मुझे नौकरी करने का विचार मन से निकाल देना चाहिए।


सदन की दशा इस समय उस मनुष्य की-सी थी, जो रात को जंगल में भटकता हुआ अंधेरी रात पर झुंझलाता है।


इसी निराशा और चिंता की दशा में एक दिन वह टहलता हुआ नदी के किनारे उस स्थान पर जा पहुंचा, जहां बहुत-सी नावें लगीं हुई थीं। नदी में छोटी-सी नावें इधर-उधर इठलाती फिरती थी। किसी-किसी नौका में सुरीली तानें सुनाई देती थीं। कई किश्तियों पर से मल्लाह लोग बोरे उतार रहे थे। सदन एक नाव पर जा बैठा। संध्या समय की शांतिदायिनी छटा और गंगातट के मनोरम काव्यमय दृश्य ने उसे वशीभूत कर लिया। वह सोचने लगा, यह कैसा आनंदमय जीवन है, ईश्वर मुझे भी ऐसी ही एक झोंपड़ी दे देता, तो मैं उसी पर संतोष करता, यहीं नदी तट पर विचरता, लहरों पर चलता और आनंद के राग गाता। शान्ता झोंपड़े के द्वार पर खड़ी मेरी राह देखती। कभी-कभी हम दोनों नाव पर बैठकर गंगा की सैर करते। उसकी रसिक कल्पना ने उस सरल, सुखमय-जीवन का ऐसा सुंदर चित्र खींचा, उस आनंदमय स्वप्न के देखने में वह ऐसा मग्न हुआ कि उसका चित्त व्याकुल हो गया। वहां की प्रत्येक वस्तु उस समय सुख, शांति और आनंद के रंग में डूबी हुई थी। वह उठा और मल्लाह से बोला– क्यों जी चौधरी, यहां कोई नाव बिकाऊ भी है।


मल्लाह बैठा हुक्का पी रहा था। सदन को देखते ही उठ खड़ा हुआ और उसे कई नावें दिखाई। सदन ने एक किश्ती पसंद की। मोल-तोल होने लगा। कितने ही और मल्लाह एकत्र हो गए। अंत में तीन सौ रुपए में नाव पक्की हो गई। यह भी तय हो गया कि जिसकी नाव है, वही उसे चलाने के लिए नौकर होगा।


सदन घर की ओर चला तो ऐसा प्रसन्न था, मानों अब उसे जीवन में किसी वस्तु की अभिलाषा नहीं है, मानों उसने किसी बड़े भारी संग्राम में विजय पाई है। सारी रात उसकी आंखों में नींद नहीं आई। वही नाव जो पाल खोले क्षितिज की ओर से चली आती थी, उसके नेत्रों के सामने नाचती रही, वही दृश्य उसे दिखाई देते रहे। उसकी कल्पना एक तट पर एक सुंदर, हरी-भरी लताओं से सजा हुआ झोपड़ा बनाया और शान्ता की मनोहारिणी मूर्ति आकर उसमें बैठी। झोंपड़ा प्रकाशमान हो गया। यहां तक कि आनंद कल्पना ने धीरे-धीरे नदी के किनारे एक सुंदर भवन बनाया, उसमें एक वाटिका लगवाई और सदन उसकी कुंजों में शान्ता के साथ विहार करने लगा। एक ओर नदी की कलकल ध्वनि थी, दूसरी ओर पक्षियों का कलवर गान। हमें जिससे प्रेम होता है, उसे सदा एक ही अवस्था में देखते हैं। हम उसे जिस अवस्था में स्मरण करते हैं, उसी समय के भाव, उसी समय के वस्त्राभूषण हमारे हृदय पर अंकित हो जाते हैं। सदन शान्ता को उसी अवस्था में देखता था, जब वह एक सादी साड़ी पहने, सिर झुकाए गंगातट पर खड़ी थी। वह चित्र उसकी आंखों से न उतरता था।


सदन को इस समय ऐसा मालूम होता था कि इस व्यवस्था में लाभ-ही-लाभ है। हानि की संभावना ही उसके ध्यान से बाहर थी। सबसे विचित्र बात यह थी कि अब तक उसने यह न सोचा था कि रुपए कहां से आएंगे?


प्रातःकाल होते ही उसे चिंता हुई कि रुपयों का प्रबंध करूं? किससे मांगूं और कौन देगा? मांगू किस बहाने से? चचा से कहूं? नहीं, उनके पास आजकल न होंगे। महीनों से कचहरी नहीं जाते और दादा से मांगना तो पत्थर से तेल निकालना है। क्या करूं? यदि इस समय न गया, तो चौधरी अपने मन में क्या कहेगा? वह छत पर इधर उधर टहलने लगा। अभिलाषाओं का वह विशाल भवन, अभी थोड़ी देर पहले उसकी कल्पना ने जिसका निर्माण किया था, देखते-देखते गिरने लगा। युवाकाल की आशा पुआल की आग है, जिसके जलने और बुझने में देर नहीं लगती।


अकस्मात् सदन को एक उपाय सूझ गया। वह जोर से खिलखिलाकर हंसा, जैसे कोई अपने शत्रु को भूमि पर गिराकर बेहंसी की हंसी हंसता है। वाह! मैं भी कैसा मूर्ख हूं। मेरे संदूक में मोहनमाला रखी हुई है। तीन सौ रुपए से अधिक की होगी। क्यों न उसे बेच डालूं? जब कोई मांगेगा; देखा जाएगा। कौन मांगता है और किसी ने मांगी भी, तो साफ-साफ कह दूंगा कि बेचकर खा गया। जो कुछ करना होगा, कर लेगा और अगर उस समय तक हाथ में कुछ रुपए आ गए, तो निकालकर फेंक दूंगा। उसने आकर संदूक से माला निकाली और सोचने लगा कि इसे कैसे बेचूं। बाजार में कोई गहना बेचना अपनी इज्जत बेचने से कम अपमान की बात नहीं है। इसी चिंता मैं बैठा था कि जीतन कहार कमरे में झाडू देने आया। सदन को मलिन देखकर बोला– भैया, आज उदास हो, आंखें चढ़ी हुई हैं, रात को सोए नहीं क्या?


सदन ने कहा– आज नींद आई। सिर पर एक चिंता सवार है।


जीतन– ऐसी कौन-सी चिंता है? मैं भी सुनूं।


सदन– तुमसे कहूं तो तुम अभी सारे घर में दोहाई मचाते फिरोगे।


जीतन– भैया, तुम्हीं लोगों की गुलामी में उमिर बीत गई। ऐसा पेट हल्का होता, तो एक दिन न चलता। इससे निसाखातिर रहो।


जिस प्रकार एक निर्धन किंतु शीलवान मनुष्य के मुंह से बड़ी कठिनता, बड़ी विवशता और बहुत लज्जा के साथ ‘नहीं’ शब्द निकलता है, उसी प्रकार सदन के मुंह से निकला– मेरे पास एक मोहनमाला है, इसे कहीं बेच दो। मुझे रुपयों का काम है।


जीतन– तो यह कौन बड़ा काम है, इसके लिए क्यों चिंता करते हो? मुदा रुपए क्या करोगे? मालकिन से क्यों नहीं मांग लेते हो? वह कभी नाहीं नहीं करेंगी। हां, मालिक से कहो तो न मिलेगा। इस घर में मालिक कुछ नहीं हैं, जो हैं वह मालकिन हैं।


सदन– मैं घर में किसी से नहीं मांगना चाहता।


जीतन ने माला लेकर देखी, उसे हाथों से तौला और शाम तक उसे बेच लाने की बात कहकर चला गया। मगर बाजार न जाकर वह सीधे अपनी कोठरी में गया, दोनों किवाड़ बंद कर लिए और अपनी खाट के नीचे की भूमि खोदने लगा थोड़ी देर में मिट्टी की एक हांडी निकल आई। यही उसकी सारे जन्म की कमाई थी, सारे जीवन की किफायत, कंजूसी, काट-कपट, बेईमानी, दलाली, गोलमाल, इसी हांडी के अंदर इन रुपयों के रूप में संचित थी। कदाचित् इसी कारण रुपयों के मुंह पर कालिमा भी लग गई थी। लेकिन जन्म भर के पापों का कितना संक्षिप्त फल था। पाप कितने सस्ते बिकते हैं।


जीतन ने रुपए गिनकर बीस-बीस रुपए की ढेरियां लगाई। कुल सत्रह ढेरियां लगाई। कुल सत्रह ढेरियां हुई। तब उसने तराजू पर माला को रुपयों से तौला। यह पच्चीस रुपए भर से कुछ अधिक थी। सोने की दर बाजार में चढ़ी हुई थीं, पर उसने एक रुपए भर के पच्चीस रुपए ही लगाए। फिर रुपयों की पच्चीस-पच्चीस की ढेरियां बनाईं। तेरह ढेरियां हुई और पंद्रह रुपए बच रहे। उसके कुल रुपए माला के मूल्य से दो सौ पिचासी रुपए कम थे। उसने मन में कहा, अब यह चीज हाथ से नहीं जाने पाएगी। कह दूंगा, माला तेरह ही भर थी! पंद्रह और बच जाएंगे। चलो मालारानी, तुम इस दरबे में आराम से बैठो।


हांडी फिर धरती के नीचे चली गई। पापों का आकार और भी सूक्ष्म हो गया। जीतन इस समय उछला पड़ता था। उसने बात-की-बात में दो सौ पिचासी रुपए पर हाथ मारा था। ऐसा सुअवसर उसे कभी नहीं मिला था। उसने सोचा, आज अवश्य किसी भले आदमी का मुंह देखकर उठा था। बिगड़ी हुई आंखों के सदृश बिगड़े हुए ईमान में प्रकाश-ज्योति प्रवेश नहीं करती।


दस बजे जीतन ने तीन सौ पच्चीस रुपए लाकर सदन के हाथों में दिए। सदन को मानो पड़ा हुआ धन मिला।


रुपए देकर जीतन ने निःस्वार्थ भाव से मुंह फेरा। सदन ने पांच रुपए निकालकर उसकी ओर बढ़ाए और बोला– ये लो, तमाकू-पान।


जीतन ने ऐसा मुंह बनाया, जैसा कोई वैष्णव मदिरा देखकर मुंह बनाता है, और बोला– भैया, तुम्हारा दिया तो खाता ही हूं, यह कहां पचेगा?


सदन– नहीं-नहीं, मैं खुशी से देता हूं। ले लो, कोई हरज नहीं है।


जीतन– नहीं भैया, यह न होगा। ऐसा करता तो अब तक तो चार पैसे का आदमी हो गया होता। नारायण तुम्हें बनाए रखें।


सदन को विश्वास हो गया कि यह बड़ा सच्चा आदमी है। इसके साथ अच्छा सलूक करूंगा।


संध्या समय सदन की नाव गंगा की लहरों पर इस भांति चल रही थी, जैसे आकाश में मेघ चलते हैं। लेकिन उसके चेहरे पर आनंद-विकास की जगह भविष्य की शंका झलक रही थी, जैसे कोई विद्यार्थी परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद चिंता में ग्रस्त हो जाता है। उसे अनुभव होता है कि वह बांध, जो संसार रूपी नदी की बाढ़ से मुझे बचाए हुए था, टूट गया है और मैं अथाह सागर में खड़ा हूं। सदन सोच रहा था कि मैंने नाव तो नदीं में डाल दी, लेकिन यह पार भी लगेगी? उसे अब मालूम हो रहा था कि वह पानी गहरा है, हवा तेज है और जीवन-यात्रा इतनी सरल नहीं है, जितनी मैं समझता था। लहरें यदि मीठे स्वरों में गाती हैं, तो भयंकर ध्वनि से गरजती है, हवा अगर लहरों को थपकियां देती है, तो कभी-कभी उन्हें उछाल भी देती है।


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प्रभाकर राव का क्रोध बहुत कुछ तो सदन के लेखों से ही शांत हो गया था और जब पद्मसिंह ने सदन के आग्रह से सुमन का पूरा वृत्तांत उन्हें लिख भेजा, तो वह सावधान हो गए।


म्युनिसपैलिटी में प्रस्ताव को पास हुए लगभग तीन मास बीत गए, पर उसकी तरमीम के विषय में तेगअली ने जो शंकाए प्रकट की थीं, वह निर्मूल प्रतीत हुईं। न दालमंडी के कोठों पर दुकानें ही सजीं और न वेश्याओं ने निकाह-बंधन से ही कोई विशेष प्रेम प्रकट किया! हां, कई कोठे खाली हो गए। उन वेश्याओं ने भावी निर्वासन के भय से दूसरी जगह रहने का प्रबंध कर लिया। किसी कानून का विरोध करने के लिए उससे अधिक संगठन की आवश्यकता होती है, जितनी उसके जारी करने के लिए। प्रभाकर राव का क्रोध शांत होने का यह एक और कारण था।


पद्मसिंह ने इस प्रस्ताव को वेश्याओं के प्रति घृणा से प्रेरित होकर हाथ में लिया था। पर अब इस विषय पर विचार करते-करते उनकी घृणा बहुत कुछ दया और क्षमा का रूप धारण कर चुकी। इन्हीं भावों ने उन्हें तरमीम से सहमत होने पर बाध्य किया था। सोचते, यह बेचारी अबलाएं अपनी इंद्रियों में, सुख-भोग में अपना सर्वस्व नाश कर रही हैं। विलास-प्रेम की लालसा ने उनकी आंखें बंद कर रखी हैं। इस अवस्था में उनके साथ दया और प्रेम की आवश्यकता है। इस अत्याचार से उनकी सुधारक शक्तियां और भी निर्बल हो जाएंगी और जिन आत्माओं का हम उपदेश से, प्रेम से, ज्ञान से, शिक्षा से उद्धार कर सकते हैं, वे सदा के लिए हमारे हाथ से निकल जाएंगी। हम लोग जो स्वयं माया-मोह के अंधकार में पड़े हुए हैं, उन्हें दंड देने का कोई अधिकार नहीं रखते। उनके कर्म ही उन्हें क्या कम दंड दे रहे हैं कि यह अत्याचार करके उनके जीवन को और भी दुखमय बना दें।


हमारे मन के विचार कर्म के पथदर्शन होते हैं। पद्मसिंह ने झिझक और संकोच को त्यागकर कर्मक्षेत्र में पैर रखा। वही पद्मसिंह जो सुमन के सामने भाग खड़े हुए थे, अब दिन दोपहर दालमंडी के कोठों पर बैठे दिखाई देने लगे। उन्हें अब लोकनिंदा का भय न था। मुझे लोग क्या कहेंगे, इसकी चिंता न थी। उनकी आत्मा बलवान हो गई थी, हृदय में सच्ची सेवा का भाव जाग्रत हो गया था। कच्चा फल पत्थर मारने से भी नहीं गिरता, किंतु पककर आप-ही-आप धरती की ओर आकर्षित हो जाता है। पद्मसिंह के अंतःकरण में सेवा का, प्रेम का भाव परिपक्व हो गया था।


विट्ठलदास इस विषय में उनसे पृथक हो गए। उन्हें जन्म की वेश्याओं के सुधार पर विश्वास न था। सैयद शफकतअली भी, जो इसके जन्मदाता थे, उनसे कन्नी काट गए और कुंवर साहब को तो अपने साहित्य, संगीत और सत्संग से ही अवकाश न मिलता था, केवल साधु गजाधर ने इस कार्य में पद्मसिंह का हाथ बंटाया। उस सदुद्योगी पुरुष में सेवा का भाव पूर्ण रूप से उदय हो चुका था।


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एक महीना बीत गया। सदन ने अपने इस नए धंधे की चर्चा घर में किसी से न की। वह नित्य सबेरे उठकर गंगा-स्नान के बहाने चला जाता। वहां से दस बजे घर आता। भोजन करके फिर चल देता और तब का गया-गया घड़ी रात गए, घर लौटता। अब उसकी नाव घाट पर की सब नावों से अधिक सजी हुई, दर्शनीय थी। उस पर दो-तीन मोढे रखे रहते थे और एक जाजिम बिछी रहती थी। इसलिए शहर के कितने ही रसिक, विनोदी मनुष्य उस पर सैर किया करते थे। सदन किराए के विषय में खुद बातचीत न करता। यह काम उसका नौकर झींगुर मल्लाह किया करता था। वह स्वयं तो कभी तट पर बैठा रहता तो कभी नाव पर जा बैठता था। वह अपने को बहुत समझाता कि काम करने में क्या शरम? मैंने कोई बुरा काम तो नहीं किया है, किसी का गुलाम तो नहीं हूं, कोई आंखें तो नहीं दिखा सकता। लेकिन जब वह किसी भले आदमी को अपनी ओर आते देखता, तो आप-ही-आप उसके कदम पीछे हट जाते और लज्जा से आंखें झुक जातीं। वह एक जमीदार का पुत्र था और एक वकील का भतीजा। उस उच्च पद से उतरकर मल्लाह का उद्यम करने में उसे स्वभावतः लज्जा आती थी, जो तर्क से किसी भांति न हटती। इस संकोच से उसकी बहुत हानि होती थी। जिस काम के लिए वह एक रुपया ले सकता था, उसी के लिए उसे आधे में ही राजी होना पड़ता था। ऊंची दुकान फीके पकवान होने पर भी बाजार में श्रेष्ठ होती है। यहां तो पकवान भी अच्छे थे, केवल एक चतुर सजीले दुकानदार की कमी थी। सदन इस बात को समझता था, पर संकोचवश कुछ कह न सकता था। तिस पर भी डेढ़-दो रुपए नित्य मिल जाते थे और वह समय निकट आता जाता था, जब गंगा-तट पर उसका झोंपड़ा बनेगा और आबाद होगा। वह अब अपने बल-बूते पर खड़े होने के योग्य होता जाता था। इस विचार से उसके आत्मसम्मान को अतिशय आनंद होता था। वह बहुधा रात-की-रात इन्हीं अभिलाषाओं की कल्पना में जागता रहता।


इसी समय म्युनिसिपैलिटी ने वेश्याओं के लिए शहर से हटकर मकान बनवाने का निश्चय किया, लाला भगतराम को इसका ठीका मिला। नदी के इस पार ऐसी जमीन न मिल सकी, जहां वह पजावे लगाते और चूने के भट्ठे बनाते। इसलिए उन्होंने नदी पार जमीन ली थी और वहीं सामान तैयार करते थे। उस पार ईटें, चूना आदि लाने के लिए उन्हें एक नाव की जरूरत हुई। नाव तय करने के लिए मल्लाहों के पास आए। सदन से भेंट हो गई। सदन ने अपनी नाव दिखाई, भगतराम ने उसे पसंद किया। झींगुर से मजूरी तय हुई, दो खेवे रोज लाने की बात ठहरी। भगतराम ने बयाना दिया और चले गए।


रुपए की चाट बुरी होती है। सदन अब वह उड़ाऊ, लुटाऊ युवक नहीं रहा। उसके सिर पर अब चिंताओं का बोझ है, कर्त्तव्य का ऋण है। वह इससे मुक्त होना चाहता है। उसकी निगाह एक-एक पैसे पर रहती है। उसे अब रुपए कमाने और घर बनवाने की धुन है। उस दिन वह घड़ी रात रहे, उठकर नदी किनारे चला आया और झींगुर को जगाकर नाव खुलवा दी। दिन निकलते-निकलते उस पार जा पहुंचा। लौटती बार उसने स्वयं डांड ले लिया और हंसते हुए दो-चार हाथ चलाए, लेकिन इतने से ही नाव की चाल बढ़ते देखकर उसने जोर-जोर से डांड चलाने शुरू कर दिए। नाव की गति दूनी हो गई। झींगुर पहले-पहले तो मुस्कराता रहा, लेकिन अब चकित हो गया।


आज से वह सदन का दबाव कुछ अधिक मानने लगा। उसे मालूम हो गया कि यह महाशय निरे मिट्टी के लौंदे नहीं हैं। काम पड़ने पर यह अकेले नाव को पार ले जा सकते हैं, और अब मेरा टर्राना उचित नहीं।


उस दिन दो खेवे हुए, दूसरे दिन एक ही हुआ। क्योंकि सदन को आने में देर हो गई। तीसरे दिन उसने नौ बजे रात को तीसरा खेवा पूरा किया, लेकिन पसीने से डूबा था। ऐसा थक गया था कि घर तक आना पहाड़ हो गया। इसी प्रकार दो मास तक लगातार उसने काम किया और इसमें उसे अच्छा लाभ हुआ। उसने दो मल्लाह और रख लिए थे।


सदन अब मल्लाहों का नेता था। उसका झोंपड़ा तैयार हो गया था। भीतर एक तख्ता था, दो पलंग, दो लैंप, कुछ मामूली बर्तन भी। एक कमरा बैठने का था, एक खाना पकाने का, एक सोने का। द्वार पर ईंटों का चबूतरा था। उसके इर्द-गिर्द गमले रखे हुए थे। दो गमलों में लताएं लगी हुई थीं, जो झोंपड़े के ऊपर चढ़ती जाती थीं। यह चबूतरा अब मल्लाहों का अड्डा था। वह बहुधा वहीं बैठे तंबाकू पीते। सदन ने उनके साथ बड़ा उपकार किया था। अफसरों से लिखा-पढ़ी करके उन्हें आए दिन बेगार से मुक्त करा दिया था। इस साहस के काम ने उसका सिक्का जमा दिया था। उसके पास अब कुछ रुपए भी जमा हो गए थे और वह मल्लाहों को बिना सूद के रुपए उधार देता था। अब उसे एक पैर-गाड़ी की फिक्र थी, शौकीन आदमियों के सैर के लिए वह एक सुंदर बजरा भी लेना चाहता था और हारमोनियम के लिए तो उसने पत्र डाल ही दिया। यह सब उस देवी के आगमन की तैयारियां थीं, जो एक क्षण के लिए भी उसके ध्यान से न उतरती थी।


सदन की अवस्था अब ऐसी थी कि वह गृहस्थी का बोझ उठा सके, लेकिन अपने चचा की सम्मति के बिना वह शान्ता को लाने का साहस न कर सकता था। वह घर पर पद्मसिंह के साथ भोजन करने बैठता, तो निश्चय कर लेता कि आज इस विषय को छेड़कर तय कर लूंगा। पर उसका इरादा कभी पूरा न होता, उसके मुंह से बात ही न निकलती।


यद्यपि उसने पद्मसिंह से इस व्यवसाय की चर्चा न की थी, पर उन्हें लाला भगतराम से सब हाल मालूम हो गया था। वह सदन की उद्योगशीलता पर बहुत प्रसन्न थे। वह चाहते थे कि एक-दो नावें और ठीक कर लीं जाएं और कारोबार बढ़ा लिया जाए। लेकिन जब सदन स्वयं कुछ नहीं कहता था, तो वह भी इस विषय में चुप रहना ही उचित समझते थे। वह पहले ही उसकी खातिर करते थे, अब कुछ आदर भी करने लगे और सुभद्रा तो उसे अपने लड़के के समान मानने लगी।


एक दिन, रात के समय सदन अपने झोंपड़े में बैठा हुआ नदी की तरफ देख रहा था। आज न जाने क्यों नाव के आने में देर हो रही थी। सामने लैंप जल रहा था। सदन के हाथ में एक समाचार-पत्र था, पर उसका ध्यान पढ़ने में न लगता था। नाव के न आने से उसे किसी अनिष्ट की शंका हो रही थी। उसने पत्र रख दिया और बाहर निकलकर तट पर आया। रेत पर चांदनी की सुनहरी चादर बिछी हुई थी और चांद की किरणें नदी के हिलते हुए जल पर ऐसी मालूम होती थीं, जैसे किसी झरने से निर्मल जल की धारा क्रमशः चौड़ी होती हुई निकलती है। झोंपड़े के सामने चबूतरे पर कई मल्लाह बैठे हुए बातें कर रहे थे कि अकस्मात् सदन ने दो स्त्रियों को शहर की ओर से आते देखा। उनमें से एक ने मल्लाहों से पूछा– हमें उस पार जाना है, नाव ले चलोगे?


सदन ने शब्द पहचाने। यह सुमनबाई थी। उसके हृदय में एक गुदगुदी-सी हुई, आंखों में एक नशा-सा आ गया। लपककर चबूतरे के पास आया और सुमन से बोला– बाईजी, तुम यहां कहां?


सुमन ने ध्यान से सदन को देखा, मानो उसे पहचानती ही नहीं। उसके साथ वाली स्त्री ने घूंघट निकाल लिया और लालटेन के प्रकाश से कई पग हटकर अंधेरे में चली गई। सुमन ने आश्चर्य से कहा– कौन? सदन?


मल्लाहों ने उठकर घेर लिया, लेकिन सदन ने कहा– तुम लोग इस समय यहां से चले जाओ। ये हमारे घर की स्त्रियां हैं, आज यहीं रहेंगी। इसके बाद वह सुमन से बोला– बाईजी, कुशल समाचार कहिए। क्या माजरा है?


सुमन– सब कुशल ही है, भाग्य में जो कुछ लिखा है, वही भोग रही हूँ। आज का पत्र तुमने अभी न पढ़ा होगा। प्रभाकर राव ने न जाने क्या छाप दिया कि आश्रम में हलचल मच गई। हम दोनों बहनें वहां एक दिन भी और रह जातीं, तो आश्रम बिल्कुल खाली हो जाता। वहां से निकल आने में कुशल थी। अब इतनी कृपा करो कि हमें उस पार ले जाने के लिए एक नाव ठीक कर दो। वहां से हम इक्का करके मुगलसराय चली जाएंगी। अमोला के लिए कोई-न-कोई गाड़ी मिल ही जाएगी। यहां से रात कोई गाड़ी नहीं जाती?


सदन– अब तो तुम अपने घर ही पहुँच गईं, अमोला क्यों जाओगी? तुम लोगों को कष्ट तो बहुत हुआ, पर इस समय तुम्हारे आने से मुझे जितना आनंद हुआ, यह वर्णन नहीं कर सकता। मैं स्वयं कई दिन से तुम्हारे पास आने का इरादा कर रहा था, लेकिन काम से छुट्टी ही नहीं मिलती। मैं तीन-चार महीने से मल्लाह का काम करने लगा हूं। यही तुम्हारा झोंपड़ा है, चलो अंदर चलो।


सुमन झोंपड़े में चली गई, लेकिन शान्ता वहीं अंधेरे में चुपचाप सिर झुकाए रो रही थी। जब से उसने सदनसिंह के मुंह से वे बातें सुनी थीं, उस दुखिया ने रो-रोकर दिन काटे थे। उसे बार-बार अपने मान करने का पछतावा होता था। वह सोचती, यदि मैं उस समय उनके पैरों पर गिर पड़ती, तो उन्हें मुझ पर अवश्य दया आ जाती। सदन की सूरत उसकी आंखों में फिरती और उसकी बातें उसके कानों में गूंजती। बातें कठोर थीं, लेकिन शान्ता को वह प्रेम-करुणा से भरी हुई प्रतीत होती थीं। उसने अपने मन को समझा लिया था कि यह सब मेरे कुदिन का फल है, सदन का कोई अपराध नहीं। वह वास्तव में विवश हैं। अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन करना उनका धर्म है। यह मेरी नीचता है कि मैं उन्हें धर्म के मार्ग से फेरना चाहती हूं। हा! मैंने अपने स्वामी से मान किया! मैंने अपने आराध्यदेव का निरादर किया, मैंने अपने कुटिल स्वार्थ के वश होकर उनका अपमान किया। ज्यों-ज्यों दिन बीतते थे, शान्ता की आत्मग्लानि बढ़ती थी। इस शोक, चिंता और विरह-पीड़ा से वह रमणी इस प्रकार सूख गई थी, जैसे जेठ महीने में नदी सूख जाती है।


सुमन झोंपड़े में चली गई, तो सदन धीरे-धीरे शान्ता के सामने आया और कांपते हुए स्वर से बोला– शान्ता।


यह कहते-कहते उसका गला रुंध गया।


शान्ता प्रेम से गद्गद् हो गई। उसका प्रेम उस विरत दशा को पहुंच गया, जब वह संकुचित स्वार्थ से मुक्त हो जाता है।


उसने मन में कहा, जीवन का क्या भरोसा है? मालूम नहीं, जीती रहूं या न रहूं, इनके दर्शन फिर हों या न हों, एक बार इनके चरणों पर सिर रखकर रोने की अभिलाषा क्यों रह जाए? इसका इससे उत्तम और कौन-सा अवसर मिलेगा? स्वामी! तुम एक बार अपने हाथों से उठाकर मेरे आंसू पोंछ दोगे, तो मेरा चित्त शांत हो जाएगा, मेरा जन्म सफल हो जाएगा। मैं जब तक जीऊंगी, इस सौभाग्य के स्मरण का आनंद उठाया करूंगी। मैं तो तुम्हारे दर्शनों की आशा ही त्याग चुकी थी, किंतु जब ईश्वर ने यह दिन दिखा दिया, तब अपनी मनोकामना क्यों न पूरी कर लूं? जीवनरूपी मरुभूमि में यह वृक्ष मिल गया है, तो इसकी छांह में बैठकर क्यों न अपने दग्ध हृदय को शीतल कर लूं।


यह सोचकर शान्ता रोती हुई सदन के पैरों पर गिर पड़ी, किंतु मुरझाया हुआ फूल हवा का झोंका लगते ही बिखर गया। सदन झुका कि उसे उठाकर छाती से लगा ले, चिपटा ले, लेकिन शान्ता की दशा देखकर उसका हृदय विकल हो गया। जब उसने उसे पहले-पहल नदी के किनारे देखा था, तब वह सौंदर्य की एक नई कोमल कली थी, पर आज वह एक सूखी हुई पीली पत्ती थी, जो बसंत ऋतु में गिर पड़ी है।


सदन का हृदय नदीं में चमकती हुई चन्द्र-किरणों के सदृश थरथराने लगा। उसने कांपते हुए हाथों से उस संज्ञाशून्य शरीर को उठा लिया। निराश अवस्था में उसने ईश्वर की शरण ली। रोते हुए बोला– प्रभो, मैंने बड़ा पाप किया है, मैंने एक कोमल संतप्त हृदय को बड़ी निर्दयता से कुचला है, पर इसका यह दंड़ असह्य है। इस अमूल्य रत्न को इतनी जल्दी मुझसे मत छीनो। तुम दयाराम हो, मुझ पर दया करो।


शान्ता को छाती से लगाए हुए सदन झोंपडी में गया और उसे पलंग पर लिटाकर, शोकातुर स्वर से बोला– सुमन, देखो, यह कैसी हुई जाती है। मैं डाक्टर के पास दौड़ा जाता हूं।


सुमन ने समीप आकर बहन को देखा। माथे पर पसीने की बूंदे आ गई थीं, आंखें पथराई हुईं। नाड़ी का कहीं पता नहीं। मुख वर्णहीन हो गया था। उसने तुरंत पंखा उठा लिया और झलने लगी। वह क्रोध जो शान्ता की दशा देख-देखकर महीनों से उसके दिल में जमा हो रहा था, फूट निकला। सदन की ओर तिरस्कारपूर्ण नेत्रों से देखकर बोली– यह तुम्हारे अत्याचार का फल है, यह तुम्हारी करनी है, तुम्हारे ही निर्दय हाथों ने इस फल को यों मसला है। तुमने अपने पैरों से इस पौधे को यों कुचला है। लो, अब तुम्हारा गला छूटा जाता है। सदन, जिस दिन से इस दुखिया ने तुम्हारी वह अभिमान भरी बातें सुनीं, इसके मुख पर हंसी नहीं आई, इसके आंसू कभी नहीं थमे। बहुत गला दबाने से दो-चार कौर खा लिया करती थी। और तुमने उसके साथ यह अत्याचार केवल इसलिए किया कि मैं उसकी बहन हूं, जिसके पैरों पर तुमने बरसों नाक रगड़ी है, जिसके तलुवे तुमने बरसों सहलाए हैं। जिसके प्रेम में तुम महीनों मतवाले हुए रहते थे। उस समय भी तो तुम अपने मां-बाप के आज्ञाकारी पुत्र थे या कोई और थे? उस समय भी तो तुम वही उच्च कुल के ब्राह्मण थे या कोई और थे? तब तुम्हारे दुष्कर्मों से खानदान की नाक न कटती थी? आज तुम आकाश के देवता बने फिरते हो। अंधेरे में जूठा खाने पर तैयार, पर उजाले में निमंत्रण भी स्वीकार नहीं। यह निरी धूर्त्तता है, दगाबाजी है। जैसा तुमने इस दुखिया के साथ किया है, उसका फल तुम्हें ईश्वर देंगे। इसे जो कुछ भुगतना था, वह भुगत चुकी। आज न मरी, कल मर जाएगी, लेकिन तुम इसे याद करके रोओगे। कोई और स्त्री होती, तो तुम्हारी बातें सुनकर फिर तुम्हारी ओर आंख उठाकर न देखती, तुम्हें कोसती, लेकिन यह अबला सदा तुम्हारे नाम पर मरती रही। लाओ, थोड़ा ठंडा पानी।


सदन अपराधी की भांति सिर झुकाए ये बातें सुनता रहा। इससे उसका हृदय कुछ हल्का हुआ। सुमन ने यदि उसे गालियां दी होतीं, तो और भी बोध होता। वह अपने को इस तिरस्कार के सर्वथा योग्य समझता था।


उसने ठंडे पानी का कटोरा सुमन को दिया और स्वयं पंखा झलने लगा। सुमन ने शान्ता के मुंह पर पानी के कई छींटे दिए। इस पर जब शान्ता ने आंखें न खोलीं, तब सदन बोला– जाकर डाक्टर को बुला लाऊं न?


सुमन– नहीं, घबराओ मत। ठंडक पहुंचते ही होश आ जाएगा। डाक्टर के पास इसकी दवा नहीं।


सदन को कुछ तसल्ली हुई, बोला– सुमन, चाहे तुम समझो कि मैं बात बना रहा हूं, लेकिन मैं तुमसे सत्य कहता हूं कि उसी मनहूस घड़ी से मेरी आत्मा को कभी शांति नहीं मिली। मैं बार-बार अपनी मूर्खता पर पछताता था। कई बार इरादा किया कि चलकर अपना अपराध क्षमा कराऊं, लेकिन यही विचार उठता कि किस बूते पर जाऊं? घरवालों से सहायता की कोई आशा न थी, और मुझे तो तुम जानती ही हो कि सदा कोतल घोड़ा बना रहा। बस, इसी चिंता में डूबा रहता था कि किसी प्रकार चार पैसे पैदा करूं और अपनी झोंपड़ी अलग बनाऊं। महीनों नौकरी की खोज में मारा-मारा फिरा, कहीं ठिकाना न लगा। अंत को मैंने गंगा-माता की शरण ली और अब ईश्वर की दया से मेरी नाव चल निकली है। अब मुझे किसी सहारे या मदद की आवश्यकता नहीं है। यह झोंपड़ी बना ली है, और विचार है कि कुछ रुपए और आ जाएं, तो उस पार किसी गांव में एक मकान बनवा लूं। क्योंकि, इनकी तबीयत कुछ संभलती मालूम होती है?


सुमन का क्रोध शांत हुआ। बोली– हां, अब कोई भय नहीं है, केवल मूर्च्छा थी। आंखें बंद हो गईं और होठों का नीलापन जाता रहा।


सदन को ऐसा आनंद हुआ कि यदि वहां ईश्वर की कोई मूर्ति होती, तो उसके पैरों पर सिर रख देता। बोला– सुमन, तुमने मेरे साथ जो उपकार किया है, उसको मैं सदा याद करता रहूंगा। अगर और कोई बात हो जाती, तो इस लाश के साथ मेरी लाश भी निकलती।


सुमन– यह कैसी बात मुंह से निकालते हो। परमात्मा चाहेंगे तो यह बिना दवा के अच्छी हो जाएगी और तुम दोनों बहुत दिनों तक सुख से रहोगे। तुम्हीं उसकी दवा हो। तुम्हारा प्रेम ही उसका जीवन है, तुम्हें पाकर अब उसे किसी वस्तु की लालसा नहीं है। लेकिन अगर तुमने भूलकर भी उसका अनादर या अपमान किया, तो फिर उसकी यही दशा हो जाएगी और तुम्हें हाथ मलना पड़ेगा।


इतने में शान्ता ने करवट बदली और पानी मांगा। सुमन ने पानी का गिलास उसके मुंह से लगा दिया। उसने दो-तीन घूंट पीया और फिर चारपाई पर लेट गई। वह विस्मित नेत्रों से इधर-उधर ताक रही थी, मानो उसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं है। वह चौंककर उठ बैठी और सुमन की ओर ताकती हुई बोली– क्यों, यही मेरा घर है न? हां-हां, यही है, और वह कहां हैं मेरे स्वामी, मेरे जीवन के आधार! उन्हें बुलाओ, आकर मुझे दर्शन दें, बहुत जलाया है, इस दाह को बुझाएं। मैं उनसे कुछ पूछूंगी। क्या नहीं आते? तो लो, मैं ही चलती हूं। आज मेरी उनसे तकरार होगी। नहीं, मैं उनसे तकरार न करूंगी, केवल यही कहूंगी कि अब मुझे छोड़कर कहीं मत जाओ। चाहे गले का हार बनाकर रखो, चाहे पैरों की बेड़ियां बनाकर रखो, पर अपने साथ रखो। वियोग-दुख अब नहीं सहा जाता। मैं जानती हूं कि तुम मुझसे प्रेम करते हो। अच्छा, न सही, तुम मुझे नहीं चाहते, मैं तुम्हें चाहती हूं। अच्छा, यह भी न सही, मैं भी तुम्हें नहीं चाहती, मेरा विवाह तो तुमसे हुआ है, नहीं, नहीं हुआ! अच्छा कुछ न सही, मैं तुमसे विवाह नहीं करती, लेकिन मैं तुम्हारे साथ रहूंगी और अगर तुमने आंख फेरी तो अच्छा न होगा। हां, अच्छा न होगा, मैं संसार में रोने के लिए नहीं आई हूं। प्यारे, रिसाओ मत। यही होगा, दो-चार आदमी हंसेंगे, ताने देंगे। मेरी खातिर उसे सह लेना। क्या मां-बाप छोड़ देंगे, कैसी बात कहते हो? मां-बाप अपने लड़के को नहीं छोड़ते। तुम देख लेना, मैं उन्हें खींच लाऊंगी, मैं अपनी सास के पैर धो-धो पीऊंगी, अपने ससुर के पैर दबाऊंगी, क्या उन्हें मुझ पर दया न आएगी? यह कहते-कहते शान्ता की आंखें फिर बंद हो गई।


सुमन ने सदन से कहा– अब सो रही है, सोने दो। एक नींद सो लेगी, तो उसका जी संभल जाएगा। रात अधिक बीत गई है, अब तुम भी घर जाओ, शर्माजी बैठे घबराते होंगे।


सदन– आज न जाऊंगा।


सुमन– नहीं-नहीं, वे लोग घबराएंगे। शान्ता अब अच्छी है, देखो, कैसे सुख से सोती है। इतने दिनों में आज ही मैंने उसे यों सोते देखा है। सदन नहीं माना, वहीं बरामदे में आकर चौकी पर लेट रहा और सोचने लगा।


49

बाबू विट्ठलदास न्यायप्रिय सरल मनुष्य थे, जिधर न्याय खींच ले जाता, उधर चले जाते थे। इसमें लेश-मात्र भी संकोच न होता था। जब उन्होंने पद्मसिंह को न्यायपथ से हटते देखा, तो उनका साथ छोड़ दिया और कई महीने तक उनके घर न आए, लेकिन प्रभाकर राव ने जब आश्रम पर आक्षेप करना शुरू किया और सुमनबाई के संबंध में कुछ गुप्त रहस्यों का उल्लेख किया, तो विट्ठलदास का उनसे भी बिगाड़ हो गया। अब सारे शहर में उनका कोई मित्र न था। अब उन्हें अनुभव हो रहा था कि ऐसी संस्था का अध्यक्ष होकर, जिसका अस्तित्व दूसरे की सहायता और सहानुभूति पर निर्भर है, मेरे लिए किसी पक्ष को ग्रहण करना अत्यंत अनुचित है। उन्हें अनुभव हो रहा था कि आश्रम का कुशल इसी में है कि मैं इससे पृथक् रहते हुए भी सबसे मिला रहूं। यही मार्ग मेरे लिए सबसे उत्तम है। संध्या का समय था। वे बैठे हुए सोच रहे थे कि प्रभाकर राव के आक्षेपों का क्या उत्तर दूं। बातें कुछ सच्ची हैं, सुमन वास्तव में वेश्या थी, मैं यह जानते हुए उसे आश्रम में लाया। मैंने प्रबंधकारिणी सभा में इसकी कोई चर्चा नहीं की, इसका कोई प्रस्ताव नहीं किया। मैंने वास्तव में आश्रम को अपनी निज की संस्था समझा। मेरा उद्देश्य चाहे कितना ही प्रशंसनीय हो, पर उसे गुप्त रखना सर्वथा अनुचित था।


विट्ठलदास अभी कुछ निश्चय नहीं करने पाए थे कि आश्रम की अध्यापिका ने आकर कहा– महाशय, आनंदी, राजकुमारी और गौरी घर जाने को तैयार बैठी हैं। मैंने कितना समझाया, पर वे मानती ही नहीं। विट्ठलदास ने झुंझलाकर कहा– कह दो, चली जाएं। मुझे इसका डर नहीं है। उनके लिए मैं सुमन और शान्ता को नहीं निकाल सकता।


अध्यापिका चली गई और विट्ठलदास फिर सोचने लगे। ये स्त्रियां अपने को क्या समझती हैं? क्या सुमन ऐसी गई-बीती है कि उनके साथ रह भी नहीं सकतीं? उनका कहना है कि आश्रम बदनाम हो रहा है और यहां रहने में हमारी बदनामी है। हां, जरूर बदनामी है। जाओ, मैं तुम्हें नहीं रोकता।


इसी समय डाकिया चिट्ठियां लेकर आया। विट्ठलदास के नाम पांच चिट्ठियां थीं।


एक में लिखा था कि मैं अपनी कन्या (विद्यावती) को आश्रम में रखना उचित नहीं समझता। मैं उसे लेने आऊंगा। दूसरे महाशय ने धमकाया था कि अगर वेश्याओं को आश्रम से न निकाला जाएगा, तो वह चंदा देना बंद कर देंगे। तीसरे पत्र का भी यही आशय था। शेष दोनों पत्रों को विट्ठलदास ने नहीं खोला। इन धमकियों ने उन्हें भयभीत नहीं किया, बल्कि हठ पर दृढ़ कर दिया। ये लोग समझते होंगे, मैं इनकी गीदड़-भभकियों से कांपने लगूंगा! यह नहीं समझते कि विट्ठलदास किसी की परवाह नहीं करता। आश्रम भले ही टूट जाए, शान्ता और सुमन को मैं कदापि अलग नहीं कर सकता। विट्ठलदास के अहंकार ने उनकी सद्बुद्धि को परास्त कर दिया। सदुत्साह और दुस्साहस दोनों का स्रोत एक ही है। भेद केवल उनके व्यवहार में है।


सुमन देख रही थी कि मेरे ही कारण यह भगदड़ मची हुई है। उसे दुख हो रहा था कि मैं यहां क्यों आई? उसने कितनी श्रद्धा से इन विधवाओं की सेवा की थी, पर उसका यह फल निकला! वह जानती थी, विट्ठलदास कभी उसे वहां से न जाने देंगे, इसलिए उसने निश्चय किया कि क्यों न मैं चुपके से चली जाऊं? तीन स्त्रियां चली गयी थीं, दो-तीन महिलाएं तैयारी कर रही थीं, और कई अन्य देवियों ने अपने-अपने घर पर पत्र भेजे थे। केवल वही चुपचाप बैठी थीं, जिनका कहीं ठिकाना नहीं था। पर वह भी सुमन से मुंह चुराती फिरती थीं। सुमन यह अपमान न सह सकी। उसने शान्ता से सलाह की। शान्ता बड़ी दुविधा में पड़ी। पद्मसिंह की आज्ञा के बिना वह आश्रम से निकलना अनुचित समझती थी। केवल यही नहीं कि आशा का पतला सूत उसे यहां बांधे हुए था, बल्कि इसे वह धर्म का बंधन समझती थी। वह सोचती थी, जब मैंने अपना सर्वस्व पद्मसिंह के हाथों में रख दिया, तब अब स्वेच्छा-पथ पर चलने का मुझे कोई अधिकार नहीं है। लेकिन जब सुमन ने निश्चित रूप से कह दिया कि तुम रहती हो तो रहो, मैं किसी भांति यहां न रहूंगी, शान्ता को वहां रहना असंभव-सा प्रतीत होने लगा। जंगल में भटकते हुए उस मनुष्य की भांति, जो किसी दूसरे को देखकर उसके साथ इसलिए हो लेता है कि एक से दो हो जाएंगे, शान्ता अपनी बहन के साथ चलने को तैयार हो गई।


सुमन ने पूछा– और जो पद्मसिंह नाराज हों?


शान्ता– उन्हें एक पत्र द्वारा समाचार लिख दूंगी।


सुमन– और जो सदनसिंह बिगड़ें?


शान्ता– जो दंड देंगे, सह लूंगी।


सुमन– खूब सोच लो, ऐसा न हो कि पीछे पछताना पड़े।


शान्ता– रहना तो मुझे यहीं चाहिए, पर तुम्हारे बिना मुझसे रहा न जाएगा। हां, यह बता दो कि कहां चलोगी?


सुमन– तुम्हें अमोला पहुंचा दूंगी।


शान्ता– और तुम?


सुमन– मेरे नारायण मालिक हैं। कहीं तीर्थ-यात्रा करने चली जाऊंगी।


दोनों बहनों में बहुत देर तक बातें हुई। फिर दोनों मिलकर रोईं। ज्योंही आज आठ बजे और विट्ठलदास भोजन करने के लिए अपने घर गए, दोनों बहनें सबकी आंख बचाकर चल खड़ी हुईं।


रात भर किसी को खबर न हुई। सबेरे चौकीदार ने आकर विट्ठलदास से यह समाचार कहा। वह घबराए और लपके हुए सुमन के कमरे में गए। सब चीजें पड़ी हुई थीं, केवल दोनों बहनों का पता न था। बेचारे बड़ी चिंता में पड़े। पद्मसिंह को कैसे मुंह दिखाऊंगा? उन्हें उस समय सुमन पर क्रोध आया। यह सब उसी की करतूत है, वही शान्ता को बहकाकर ले गई है। एकाएक उन्हें सुमन की चारपाई पर एक पत्र पड़ा हुआ दिखाई दिया। लपककर उठा लिया और पढ़ने लगे। यह पत्र सुमन ने चलते समय लिखकर रख दिया था। इसे पढ़कर विट्ठलदास को कुछ धैर्य हुआ। लेकिन इसके साथ ही उन्हें यह दुख हुआ कि सुमन के कारण मुझे नीचा देखना पड़ा। उन्होंने निश्चय कर लिया था कि मैं अपने धमकी देने वालों को नीचा दिखाऊंगा, पर यह अवसर उनके हाथ से निकल गया। अब लोग यही समझेंगे कि मैं डर गया। यह सोचकर उन्हें बहुत दुख हुआ।


आखिर वह कमरे से निकले। दरवाजे बंद किए और सीधे पद्मसिंह के घर पहुंचे।


शर्माजी ने यह समाचार सुना तो सन्नाटे में आ गए। बोले– अब क्या होगा?


विट्ठलदास– वे अमोला पहुंच गई होंगी।


शर्माजी– हां, संभव है।


विट्ठलदास– शान्ता इतनी दूर का सफर तो मजे में कर सकती है।


शर्माजी– हां, ऐसी नासमझ तो नहीं है।


विट्ठलदास– सुमन तो अमोला गई न होगी?


शर्माजी– कौन जाने, दोनों कहीं डूब मरी हों।


विट्ठलदास– एक तार भेजकर पूछ क्यों न लीजिए।


शर्माजी– कौन मुंह लेकर पूछूं? जब मुझसे इतना भी न हो सका कि शान्ता की रक्षा करता, तो अब उसके विषय में कुछ पूछ-ताछ करना मेरे लिए लज्जाजनक है। मुझे आपके ऊपर विश्वास था। अगर जानता होता कि आप ऐसी लापरवाही करेंगे, तो उसे मैंने अपने ही घर में रखा होता।


विट्ठलदास– आप तो ऐसी बातें कर रहे हैं, मानो मैंने जान-बूझकर उन्हें निकाल दिया हो।


शर्माजी– आप उन्हें तसल्ली देते रहते, तो वह कभी न जातीं। आपने मुझसे भी अब कहा है, जब अवसर हाथ से निकल गया।


विट्ठलदास– आप सारी जिम्मेदारी मुझी पर डालना चाहते हैं?


पद्मसिंह– और किस पर डालूं? आश्रम के संरक्षक आप ही हैं या कोई और?


विट्ठलदास– शान्ता को वहां रहते तीन महीने से अधिक हो गए, आप कभी भूलकर भी आश्रम की ओर गए? अगर आप कभी-कभी वहां जाकर उसका कुशल समाचार पूछते रहते, तो उसे धैर्य रहता। जब आपने उसकी कभी बात तक न पूछी, तो वह किस आधार पर वहां पड़ी रहती? मैं अपने दायित्व को स्वीकार करता हूं, पर आप भी दोष से नहीं बच सकते।


पद्मसिंह आजकल विट्ठलदास से चिढ़े हुए थे। उन्होंने उन्हीं के अनुरोध से वेश्या-सुधार के काम में हाथ डाला था, पर अंत में जब काम करने का अवसर पड़ा तो साफ निकल गए। उधर विट्ठलदास भी वेश्याओं के प्रति उनकी सहानुभूति देखकर उन्हें संदिग्ध दृष्टि से देखते थे। वह इस समय अपने-अपने हृदय की बात न कहकर एक-दूसरे पर दोषारोपण करने की चेष्टा कर रहे थे। पद्मसिंह उन्हें खूब आड़े हाथों लेना चाहते थे, पर यह प्रत्युत्तर पाकर उन्हें चुप हो जाना पड़ा। बोले– हां इतना दोष मेरा अवश्य है।


विट्ठलदास– नहीं, आपको दोष देना मेरा आशय नहीं है। दोष सब मेरा ही है। आपने जब उन्हें मेरे सुपुर्द कर दिया, तो आपका निश्चिंत हो जाना स्वाभाविक ही था।


शर्माजी– नहीं, वास्तव में यह सब मेरी कायरता और आलस्य का फल है। आप उन्हें जबर्दस्ती नहीं रोक सकते थे।


पद्मसिंह ने अपना दोष स्वीकार करके बाजी पलट दी थी। हम आप झुककर दूसरे को झुका सकते हैं, पर तनकर किसी को झुकाना कठिन है।


विट्ठलदास– शायद सदनसिंह को कुछ मालूम हो। जरा उन्हें बुलाइए।


शर्माजी– वह तो रात से ही गायब है। उसने गंगा के किनारे एक झोंपड़ा बनवा लिया है, कई मल्लाह लगा लिए हैं और एक नाव चलाता है। शायद रात वहीं रह गया।


विट्ठलदास– संभव है, दोनों बहनें वहीं पहुंच गई हों। कहिए, तो जाऊं?


शर्माजी– अजी नहीं, आप किस भ्रम में हैं। वह इतना लिबरल नहीं है। उनके साये से भागता है।


अकस्मात् सदन ने उनके कमरे में प्रवेश किया। पद्मसिंह ने पूछा– तुम रात कहां रह गए? सारी रात तुम्हारी राह देखी।


सदनसिंह ने धरती की ओर ताकते हुए कहा– मैं स्वयं लज्जित हूं। ऐसा काम पड़ गया कि मुझे विवश होकर रुकना पड़ा। इतना समय भी न मिला कि आकर कह जाता। मैंने आपसे शरम के मारे कभी चर्चा नहीं की, लेकिन इधर कई महीने से मैंने एक नाव चलाना शुरू किया है। वहीं नदी के किनारे एक झोंपड़ा बनवा लिया है। मेरा विचार है कि इस काम को जमकर करूं। इसलिए आपसे उस झोंपड़े में रहने की आज्ञा चाहता हूं।


शर्माजी– इसकी चर्चा तो लाला भगतराम ने एक बार मुझसे की थी, लेकिन खेद यह है कि तुमने अब तक मुझसे इसे छिपाया, नहीं तो मैं भी कुछ सहायता करता। खैर, मैं इसे बुरा नहीं समझता, बल्कि तुम्हें इस अवस्था में देखकर मुझे बड़ा आनन्द हो रहा है लेकिन मैं यह कभी न मानूंगा कि तुम अपना घर रहते हुए अपनी हांड़ी अलग चढ़ाओ। क्या एक नाव का और प्रबंध हो, तो अधिक लाभ हो सकता है?


सदन– जी हां, मैं स्वयं इसी फिक्र में हूं। लेकिन इसके लिए मेरा घाट पर रहना जरूरी है।


शर्माजी– भाई, यह शर्त तुम बुरी लगाते हो। शहर में रहकर तुम मुझसे अलग रहो, यह मुझे पसंद नहीं। इसमें चाहे तुम्हें कुछ हानि भी हो, लेकिन मैं न मानूंगा।


सदन– नहीं चचा, आप मेरी यह प्रार्थना स्वीकार कीजिए। मैं बहुत मजबूर होकर यह कह रहा हूं।


शर्माजी– ऐसी क्या बात है, जो तुम्हें मजबूर करती है? तुम्हें जो संकोच हो, वह साफ-साफ क्यों नहीं कहते?


सदन– मेरे इस घर में रहने से आपकी बदनामी होगी। मैंने अब अपने उस कर्त्तव्य का पालन करने का संकल्प कर लिया है, जिसे मैं कुछ दिनों तक अपने अज्ञान और कुछ समय तक अपनी कायरता और निंदा के भय से टालता आता था। मैं आपका लड़का हूं। जब मुझे कोई कष्ट होगा, तो आपका आश्रय लूंगा, कोई जरूरत पड़ेगी, तो आपको सुनाऊंगा, लेकिन रहूंगा अलग और मुझे विश्वास है कि मेरे इस प्रस्ताव को पसंद करेंगे।


विट्ठलदास बात की तह तक पहुंच गए। पूछा– कल सुमन और शान्ता से तुम्हारी मुलाकात नहीं हुई?


सदन के चेहरे पर लज्जा की लालिमा छा गई, जैसे किसी रमणी के मुख पर से घूंघट हट जाए। दबी जबान से बोला– जी हां।


पद्मसिंह बड़े धर्म-संकट में पड़े। न ‘हां’ कह सकते थे, न ‘नहीं’ कहते बनता था। अब तक वह शान्ता के संबंध में अपने को निर्दोष समझते थे। उन्होंने इस अन्याय का सारा भाग अपने भाई के सिर डाला था और सदन तो उनके विचार में काठ का पुतला था। लेकिन अब इस जाल में फंसकर वह भाग निकलने की चेष्टा करते थे। संसार का भय तो उन्हें नहीं था, भय था कि कहीं भैया यह न समझ लें कि यह सब मेरे सहारे से हुआ है, मैंने ही सदन को बिगाड़ा है। कहीं यह संदेह उनके मन में उत्पन्न हो गया, तो फिर कभी मुझे क्षमा न करेंगे।


पद्मसिंह कई मिनट तक इसी उलझन में पड़े रहे। अंत में वह बोले– सदन, यह समस्या इतनी कठिन है कि मैं अपने भरोसे पर कुछ नहीं कर सकता। भैया की राय लिए बिना ‘हां’ या ‘नहीं’ कैसे कहूं? तुम मेरे सिद्धान्त को जानते हो। मैं तुम्हारी प्रशंसा करता हूं और प्रसन्न हूं कि ईश्वर ने तुम्हें सद्बुद्धि दी। लेकिन मैं भाई साहब की इच्छा को सर्वोपरि समझता हूं। यह हो सकता है कि दोनों के अलग रहने का प्रबन्ध कर दिया जाए। जिसमें उन्हें कोई कष्ट न हो। बस, यहीं तक। इसके आगे मेरा कुछ सामर्थ्य नहीं है। भाई साहब की जो इच्छा हो, वही करो।


सदन– क्या आपको मालूम नहीं कि वह क्या उत्तर देंगे?


पद्मसिंह– हां, यह भी मालूम है।


सदन– तो उनसे पूछना व्यर्थ है। माता-पिता की आज्ञा से मैं अपनी जान दे सकता हूं, जो उन्हीं की दी हुई है, लेकिन किसी निरपराध की गर्दन पर तलवार नहीं चला सकता।


पद्मसिंह– तुम्हें इसमें क्या आपत्ति है कि दोनों बहनें एक अलग मकान में ठहरा दी जाएं?


सदन ने गर्म होकर कहा– ऐसा तो मैं तब करूंगा, जब मुझे छिपाना हो। मैं कोई पाप करने नहीं जा रहा हूं, जो उसे छिपाऊं? वह मेरे जीवन का परम कर्त्तव्य है, उसे गुप्त रखने की आवश्यकता नहीं है। अब वह विवाह के जो संस्कार नहीं पूरे हुए हैं, कल गंगा के किनारे पूरे किए जाएंगे। यदि आप वहां आने की कृपा करेंगे, तो मैं अपना सौभाग्य समझूंगा, नहीं तो ईश्वर के दरबार में गवाहों के बिना भी प्रतिज्ञा हो जाती है।


यह कहता हुआ सदन उठा और घर में चला गया। सुभद्रा ने कहा– वाह, खूब गायब होते हो। सारी रात जी लगा रहा। कहां रह गए थे?


सदन ने रात का वृत्तांत चाची से कहा। चाची से बातचीत करने में उसे वह झिझक न होती थी, जो शर्माजी से होती थी। सुभद्रा ने उसके साहस की बड़ी प्रशंसा की, बोली– मां-बाप के डर से कोई ब्याहता को थोड़े ही छोड़ देता है। दुनिया हंसेगी तो हंसा करे। उसके डर से अपने घर के प्राणी की जान ले लें? तुम्हारी अम्मा से डरती हूं, नहीं तो उसे यहीं रखती।


सदन ने कहा– मुझे अम्मा-दादा की परवाह नहीं है?


सुभद्रा– बहुत परवाह तो की। इतने दिनों तक बेचारी को घुला-घुला के मार डाला। कोई दूसरा लड़का होता, तो पहले दिन ही फटकार देता। तुम्हीं हो कि इतना सहते हो।


सुभद्रा, यही बातें यदि तुमने पवित्र भाव से कहीं होतीं, तो हम तुम्हारा कितना आदर करते! किन्तु तुम इस समय ईर्ष्या-द्वेष के वश में हो। तुम सदन को उभारकर अपनी जेठानी को नीचा दिखाना चाहती हो। तुम एक माता के पवित्र हृदय पर आघात करके उसका आनंद उठा रही हो।


सदन के चले जाने पर विट्ठलदास ने पद्मसिंह से कहा– यह तो आपके मन की बात हुई। आप इतना आगा-पीछा क्यों करते हैं? शर्माजी ने उत्तर नहीं दिया।


विट्ठलदास फिर बोले– यह प्रस्ताव आपको स्वयं करना चाहिए था, लेकिन आप अब उसे स्वीकार करने में संकोच कर रहे हैं।


शर्माजी ने इसका भी उत्तर नहीं दिया।


विट्ठलदास– अगर वह अपनी स्त्री के साथ अलग रहे तो क्या हानि है? आप न अपने साथ रखेंगे, न अलग रखने देंगे, यह कौन-सी नीति है?


पद्मसिंह ने व्यंग्य भाव से कहा– भाई साहब, जब अपने ऊपर पड़ती है, तभी आदमी जानता है। जैसे आप मुझे राह दिखा रहे हैं, इसी प्रकार मैं भी दूसरों को राह दिखाता रहता हूं। आप भी कभी वेश्याओं का उद्धार करने के लिए कैसी-लंबी-चौड़ी बातें करते थे, लेकिन जब काम का समय आया, तो कन्नी काट गए। इसी तरह दूसरों को भी समझ लीजिए। मैं सब कुछ कर सकता हूं, पर अपने भाई को नाराज नहीं कर सकता। मुझे कोई सिद्धांत इतना प्यारा नहीं है, जो मैं उनकी इच्छा पर न्योछावर न कर सकूं।


विट्ठलदास– मैंने आपसे कभी नहीं कहा कि जन्म की वेश्याओं को देवियां बना दूंगा। क्या आप समझते हैं कि उसी स्त्री में, जो अपने घर वालों के अन्याय या दुर्जनों के बहकाने से पतित हो जाती है और जन्म की वेश्याओं में कोई अंतर नहीं है? मेरे विचार में उनमें उतना ही अंतर है, जितना साध्य और असाध्य रोग में है। जो आग अभी लगी है और अंदर तक नहीं पहुंचने पाई, उसे आप शांत कर सकते हैं, लेकिन ज्वालामुखी पर्वत को शांत करने की चेष्टा पागल करे तो करे, बुद्धिमान् कभी नहीं कर सकता।


शर्माजी– कम-से-कम आपको मेरी सहायता तो करनी चाहिए थी। आप मगर एक घंटे के लिए मेरे साथ दालमंडी चलें, तो आपको मालूम हो जाएगा कि जिसे आप सब ज्वालामुखी पर्वत समझ बैठे हैं, वह केवल बुझी हुई आग का ढेर है। अच्छे और बुरे आदमी सब जगह होते हैं। वेश्याएं भी इस नियम से बाहर नहीं हैं। आपको यह देखकर आश्चर्य होगा कि उनमें धार्मिक श्रद्धा, पाप-जीवन से कितनी घृणा, अपने जीवनोद्धार की कितनी अभिलाषा है। मुझे स्वयं इस पर आश्चर्य होता है। उन्हें केवल एक सहारे की आवश्यकता है, जिसे पकड़कर वह बाहर निकल आएं। पहले तो वह मुझसे बात तक न करती थीं, लेकिन जब मैंने उन्हें समझाया कि मैंने वह प्रस्ताव तुम्हारे उपकार के लिए किया, जिसमें तुम दुराचारियों, दुष्टों और कुमार्गियों की पहुंच से बाहर रह सको, तो उन्हें मुझ पर कुछ-कुछ विश्वास होने लगा। नाम तो न बताऊंगा, लेकिन कई धनी वेश्याएं धन से मेरी सहायता करने को तैयार हैं। कई अपनी लड़कियों का विवाह करना चाहती हैं। लेकिन अभी उन औरतों की संख्या बहुत है, जो भोग-विलास के इस जीवन को छोड़ना नहीं चाहती हैं। मुझे आशा है कि स्वामी गजानन्द के उपदेश का कुछ-न-कुछ फल अवश्य होगा। खेद यही है कि कोई मेरी सहायता करने वाला नहीं है। हां, मजाक उड़ाने वाले ढेरों पड़े हैं। इस समय एक ऐसे अनाथालय की आवश्यकता है, जहां वेश्याओं की लड़कियां रखी जा सकें और उनकी शिक्षा का उत्तम प्रबंध हो। पर मेरी कौन सुनता है?


विट्ठलदास ने यें बातें बड़े ध्यान से सुनी। पद्मसिंह ने जो कुछ कहा था, वह उनका अनुभव था, और अनुभवपूर्ण बातें सदैव विश्वासोत्पादक हुआ करती हैं, विट्ठलदास को ज्ञात होने लगा कि मैं जिस कार्य को असाध्य समझाता था, वह वास्तव में ऐसा नहीं है। बोले– अनिरुद्धसिंह से आपने इस विषय में कुछ नहीं कहा?


शर्माजी– वहां लच्छेदार बातों और तीव्र समालोचनाओं के सिवा और क्या रखा है?


50

सदनसिंह का विवाह संस्कार हो गया। झोंपड़ा खूब सजाया गया था। वही मंडप का काम दे रहा था, लेकिन कोई भीड़-भाड़ न थी।


पद्मसिंह उस दिन घर चले गए और मदनसिंह से सब समाचार कहा। वह यह सुनते ही आग हो गए, बोले– मैं उस छोकरे का सिर काट लूंगा, वह अपने को समझता क्या है? भाभी ने कहा– मैं आज ही जाती हूं उसे समझाकर अपने साथ लिवा लाऊंगी! अभी नादान लड़का है। उस कुटनी सुमन की बातों में आ गया है। मेरा कहना वह कभी न टालेगा।


लेकिन मदनसिंह ने भामा को डांटा और धमकाकर कहा– अगर तुमने उधर जाने का नाम लिया, तो मैं अपना और तुम्हारा गला एक साथ घोंट दूंगा। वह आग में कूदता है, कूदने दो। ऐसा दूध पीता नादान बच्चा नहीं। यह सब उसकी जिद है। बच्चू को भीख मंगाकर न छोड़ूं तो कहना। सोचते होंगे, दादा मर जाएंगे तो आनंद करूंगा। मुंह धो रखें, यह कोई मौरूमी जायदाद नहीं है। यह मेरी अपनी कमाई है। सब-की-सब कृष्णापर्ण कर दूंगा। एक फूटी कौड़ी तो मिलेगी नहीं।


गांव में चारों ओर बतकहाव होने लगा। लाला बैजनाथ को निश्चय हो गया कि संसार से धर्म उठ गया। जब लोग ऐसे-ऐसे नीच कर्म करने लगे, तो धर्म कहां रहा? न हुई नवाबी, नहीं तो आज बच्चू की धज्जियां उड़ जातीं। अब देखें, कौन मुंह लेकर गांव में आते हैं?


पद्मसिंह रात को बहुत देर तक भाई के साथ बैठे रहे, लेकिन ज्योंही वह सदन का कुछ जिक्र छेड़ते, मदनसिंह उनकी ओर ऐसी आग्नेय दृष्टि से देखते कि उन्हें बोलने की हिम्मत न पड़ती। अंत में जब वह सोने चले, तो पद्मसिंह ने हताश होकर कहा– भैया, सदन आपसे अलग रहे, तब भी आपका लड़का ही कहलाएगा। वह जो कुछ नेकबद करेगा, उसकी बदनामी हम सब पर आएगी। जो लोग इस अवस्था को भली-भांति जानते हैं, वह चाहे हम लोगों को निर्दोष समझें, लेकिन जनता सदन में और हममें कोई भेद नहीं कर सकती, तो इससे क्या फायदा कि सांप भी न मरे और लाठी भी टूट जाए। एक ओर दो बुराइयां हैं– बदनामी भी होती है और लड़का भी हाथ से जाता है। दूसरी ओर एक ही बुराई है, बदनामी होगी, लेकिन लड़का अपने हाथ में रहेगा। इसलिए मुझे तो यही उचित जान पड़ता है कि हम लोग सदन को समझाएं और यदि वह किसी तरह न माने तो...


मदनसिंह ने बात काटकर कहा– तो उस चुड़ैल से उसका विवाह ठान दें? क्यों, यही न कहना चाहते हो? यह मुझसे न होगा। एक बार नहीं, हजार बार नहीं।


यह कहकर वह चुप हो गए। एक क्षण के बाद पद्मसिंह को लांछित कर बोले– आश्चर्य यह है कि यह सब तुम्हारे सामने हुआ और तुम्हें जरा भी खबर न हुई।


उसने नाव ली, झोंपड़ा बनाया, दोनों चुड़ैलों से सांठ-गांठ की और तुम आंखें बंद किए बैठे रहे। मैंने तो उसे तुम्हारे ही भरोसे भेजा था। यह क्या जानता था कि तुम कान में तेल डाले बैठे रहते हो। अगर तुमने जरा भी चतुराई से काम लिया होता, तो यह नौबत न आती। तुमने इन बातों की सूचना तक मुझे न दी, नहीं तो मैं स्वयं जाकर उसे किसी उपाय से बचा लाता। अब जब सारी गोटियां पिट गईं, सारा खेल बिगड़ गया, तो चले हो वहां से मुझसे सलाह लेने। मैं साफ-साफ कहता हूं कि तुम्हारी आनाकानी से मुझे तुम्हारे ऊपर भी संदेह होता है। तुमने जान-बूझकर उसे आग में गिरने दिया। मैंने तुम्हारे साथ बहुत बुराइयां की थीं, उनका तुमने बदला लिया। खैर, कल प्रातःकाल एक दान-पत्र लिख दो। तीन पाई जो मौरूमी जमीन है, उसे छोड़कर मैं अपनी सब जायदाद कृष्णार्पण करता हूं, यह न लिख सको तो वहां से लिखकर भेज देना। मैं दस्तखत कर दूंगा और उसकी रजिस्ट्री हो जाएगी।


यह कहकर मदनसिंह सोने चले गए। लेकिन पद्मसिंह के मर्म-स्थान पर ऐसा वार कर गए कि वह रात-भर तड़पते रहे। जिस अपराध से बचने के लिए उन्होंने अपने सिद्धांत की भी परवाह न की और अपने सहवर्गियों में बदनाम हुए, वह अपराध लग ही गया। इतना ही नहीं, भाई के हृदय में उनकी ओर से मैल पड़ गई। अब उन्हें अपनी भूल दिखाई दे रही थी। निःसंदेह अगर उन्होंने बुद्धिमानी से काम लिया होता, तो यह नौबत न आती। लेकिन इस वेदना में इस विचार से कुछ संतोष होता था कि जो कुछ हुआ सो हुआ, एक अबला का उद्धार तो हो गया।


प्रातःकाल जब वह घर से चलने लगे, तो भामा रोती हुई आई और बोली– भैया, इनका हठ तो देख रहे हो, लड़के की जान लेने पर उतारू हैं, लेकिन तुम जरा सोच समझकर काम करना। भूल-चूक तो बड़ों-बड़ों से हो जाती है, वह बेचारा तो अभी नादान लड़का है। तुम उसकी ओर से मन न मैला करना। उसे किसी की टेढ़ी निगाह भी सहन नहीं है। ऐसा न हो, कहीं देश-विदेश की राह ले, मैं तो कहीं की न रहूं। उसकी सुध लेते रहना। खाने-पीने की तकलीफ न होने पाए। यहां रहता था तो एक भैंस का दूध पी जाता था। उसे दाल में घी अच्छा नहीं लगता, लेकिन मैं उससे छिपाकर लौंदे-के-लौंदे दाल में डाल देती थी। अब इतना सेवा-जतन कौन करेगा? न जाने बेचारा कैसे होगा? यहां घर पर कोई खाने वाला नहीं, वहां वह इन्हीं चीजों के लिए तरसता होगा। क्यों भैया, क्या अपने हाथ से नाव चलाता है?


पद्मसिंह-नहीं, दो मल्लाह रख लिए हैं।


भामा– तब भी दिन-भर दौड़-धूप तो करनी ही पड़ती होगी, मजूर बिना देखे-भाले थोड़ी ही काम करते हैं। मेरा तो यहां कुछ बस नहीं है, उसे तुम्हें सौंपती हूं। उसे अनाथ समझकर खोज-खबर लेते रहना। मेरा रोआं-रोआं तुम्हें आशीर्वाद देगा। अब की कार्तिक-स्नान में मैं उसे जरूर देखने जाऊंगी। कह देना, तुम्हारी अम्मा तुम्हें बहुत याद करती थीं, बहुत रोती थीं, यह सुनकर उसे ढाढस हो जाएगा। उसका जी बड़ा कच्चा है। मुझे याद करके रोज रोता होगा। यह थोड़े-से रुपए हैं, लेते जाओ, उसके पास भिजवा देना।


पद्मसिंह– इसकी क्या जरूरत है? मैं तो वहां हूं ही, मेरे देखते उसे किसी बात की तकलीफ न होने पाएगी।


भामा– नहीं, भैया, लेते जाओ, क्या हुआ! इस हांड़ी में थोड़ा-सा घी है, यह भी भिजवा देना! बाजारू घी घर के घी को कहां पाता है, न वह सुगंध है, न वह स्वाद। उसे अमावट की चटनी बहुत अच्छी लगती है, मैं थोड़ी-सी अमावट भी रखे देती हूं। मीठे-मीठे आम चुनकर रस निकाला था। समझाकर कह देना, बेटा, कोई चिंता मत करो। जब तक तुम्हारी मां जीती है तुमको कोई कष्ट न होने पाएगा। मेरे तो वही एक अंधे की लकड़ी है। अच्छा है तो, बुरा है तो, अपना ही है। संसार की लाज से आंखों से चाहे दूर कर दूं। लेकिन मन से थोड़े ही दूर कर सकती हूं।


51

जैसे सुंदर भाव के समावेश से कविता में जान पड़ जाती है और सुंदर रंगों से चित्र में, उसी प्रकार दोनों बहनों के आने से झोंपड़ी में जान आ गई। अंधी आंखों में पुतलियां पड़ गई हैं।


मुर्झाई हुई कली शान्ता अब खिलकर अनुपम शोभा दिखा रही है। सूखी हुई नदी उमड़ पड़ी है। जैसे जेठ-बैसाख की तपन की मारी हुई गाय सावन में निखर जाती है और खेतों में किलोलें करने लगती है, उसी प्रकार विरह की सताई हुई रमणी अब निखर गई है, प्रेम में मग्न है।


नित्यप्रति प्रातःकाल इस झोंपड़े से दो तारे निकलते हैं और जाकर, गंगा में डूब जाते हैं। उनमें से एक बहुत दिव्य और द्रुतगामी है, दूसरा मध्यम और मंद। एक नदी में थिरकता है, दूसरा अपने वृत्त से बाह नहीं निकलता। प्रभात की सुनहरी किरणों में इन तारों का प्रकाश मंद नहीं होता, वे और भी जगमगा उठते हैं।


शान्ता गाती है, सुमन खाना पकाती है। शान्ता केशों को संवारती है, सुमन कपड़े सीती है। शान्ता भूखे मनुष्य के समान भोजन के थाल पर टूट पड़ती है, सुमन किसी रोगी के सदृश सोचती है कि मैं अच्छी हूंगी या नहीं।


सदन के स्वभाव में अब कायापलट हो गया है। वह प्रेम का आनंदभोग करने में तन्मय हो रहा है। वह अब दिन चढ़े उठता है, घंटों नहाता है, बाल संवारता है, कपड़े बदलता, सुगंध मलता है, नौ बजे से पहले अपनी बैठक में नहीं आता और आता भी है तो जमकर बैठता नहीं, उसका मन कहीं और रहता है। एक-एक पल में भीतर जाता है और अगर बाहर से बात करने में देर हो जाती है, तो उकताने लगता है। शान्ता ने उस पर वशीकरण मंत्र डाल दिया है।


सुमन घर का सारा काम भी करती है और बाहर का भी। वह घड़ी रात रहे उठती और स्नान-पूजा के बाद सदन के लिए जलपान बनाती है। फिर नदी के किनारे आकर नाव खुलवाती है। नौ बजे भोजन बनाने बैठ जाती है। ग्यारह बजे तक यहां से छुट्टी पाकर वह कोई-न-कोई काम करने लगती है। नौ बजे रात को जब लोग सोने चले जाते हैं, तो वह पढ़ने बैठ जाती है। तुलसी की विनय-पत्रिका और रामायण से उसे बहुत प्रेम है। कभी भक्तमाल पढ़ती है, कभी विवेकानंद के व्याख्यान और कभी रामतीर्थ के लेख। वह विदुषी स्त्रियों के जीवन-चरित्रों को बड़े चाव से पढ़ती है। मीरा पर उसे असीम श्रद्धा है। वह बहुधा ग्रंथ ही पढ़ती है। लेकिन ज्ञान की अपेक्षा भक्ति में उसे शांति मिलती है।


मल्लाहों की स्त्रियों में उसका बड़ा आदर है। वह उनके झगड़े चुकाती है। किसी के बच्चे के लिए कुर्त्ता-टोपी सीती है, किसी के लिए अंजन या घुट्टी बनाती है। उनमें कोई बीमार पड़ता है, तो उसके घर जाती है और दवा-दारू की फिक्र करती है। वह अपनी गिरी दीवार को उठा रही है। उस बस्ती के सभी नर-नारी उसकी प्रशंसा करते हैं और उसका यश गाते हैं, हां, अगर आदर नहीं है, तो अपने घर में। सुमन इस तरह जी तोड़कर घर का सारा बोझ संभाले हुए है, लेकिन सदन के मुंह से कृतज्ञता का एक शब्द भी नहीं निकलता। शान्ता भी उसके इस परिश्रम का कुछ मूल्य नहीं समझती। दोनों-के-दोनों उनकी ओर से निश्चिंत हैं, मानो वह घर की लौंडी है और चक्की में जुते रहना ही उसका धर्म है। कभी-कभी उसके सिर में दर्द होने लगता है, कभी-कभी दौड़-धूप से बुखार चढ़ जाता है, तब भी वह घर का सारा काम रीत्यानुसार करती रहती है। वह भी कभी-कभी एकांत में अपनी इस दीन दशा पर घंटों रोती रहती है, पर कोई ढाढस देने वाला, कोई आंसू पोंछने वाला नहीं?


सुमन स्वभाव से भी मानिनी, सगर्वा स्त्री थी। वह जहां कहीं रही थी, रानी बनकर रही थी। अपने पति के घर वह सब कष्ट झेलकर भी रानी थी। विलासनगर में वह जब तक रही, उसी का सिक्का चलता रहा। आश्रम में वह सेवा-धर्म पालन करके सर्वमान्य बनी हुई थी। इसलिए अब यहां इस हीनावस्था में रहना उसे असह्य था। अगर सदन कभी-कभी उसकी प्रशंसा कर दिया करता, कभी उससे सलाह लिया करता, उसे अपने घर की स्वामिनी समझा करता या शान्ता उसके पास बैठकर उसकी हां में हां मिलाती, उसका मन बहलाती, तो सुमन इससे भी अधिक परिश्रम करती और प्रसन्नचित्त रहती। लेकिन उन दोनों प्रेमियों को अपनी तरंग में और कुछ न सूझता था। निशाना मारते समय दृष्टि केवल एक ही वस्तु पर रहती है। प्रेमासक्त मनुष्य का भी यही होता है।


लेकिन शान्ता और सदन की यह उदासीनता प्रेम-लिप्सा के ही कारण थी, इसमें संदेह है। सदन इस प्रकार सुमन से बचता था, जैसे हम कुष्ठ-रोगी से बचते हैं, उस पर दया करते हुए भी उसके समीप जाने की हिम्मत नहीं रखते। शान्ता उस पर अविश्वास करती थी, उसके रूप-लावण्य से डरती थी। कुशल यही था कि सदन स्वयं सुमन से आंखें चुराता था, नहीं तो शान्ता इससे जल ही जाती। अतएव दोनों चाहते थे कि यह आस्तीन का सांप दूर हो जाए, लेकिन संकोचवश वह आपस में भी इस विषय को छेड़ने से डरते थे।


सुमन पर यह रहस्य शनैः शनैः खुलता जाता था।


एक बार जीतन कहार शर्माजी के यहां से सदन के लिए कुछ सौगात लाया था। इसके पहले भी वह कई बार आया था, लेकिन उसे देखते ही सुमन छिप जाया करती थी। अब की जीतन की निगाह उस पर पड़ गई। फिर क्या था, उसके पेट में चूहे दौड़ने लगे। वह पत्थर खाकर पचा सकता था, पर कोई बात पचाने की शक्ति उसमें न थी। मल्लाहों के चौधरी के पास चिलम पीने के बहाने गया और सारी रामकहानी सुना आया। अरे यह तो कस्बीन है, खसम ने घर से निकाल दिया, तो हमारे यहां खाना पकाने लगी, वहां से निकाली गई तो चौक में हरजाईपन करने लगी, अब देखता हूं तो यहां विराजमान है। चौधरी सन्नाटे में आ गया, मल्लाहिनों में भी इशारेबाजियां होने लगीं। उस दिन से कोई मल्लाह सदन के घर का पानी न पीता, उनकी स्त्रियों ने सुमन के पास आना-जाना छोड़ दिया। इसी तरह एक बार लाला भगतराम ईंटों की लदाई का हिसाब करने आए। प्यास मालूम हुई तो मल्लाह से पानी लाने को कहा। मल्लाह कुएं से पानी लाया। सदन के घर में बैठे हुए बाहर से पानी मंगाकर पीना सदन की छाती में छुरी मारने से कम न था।


अंत में दूसरा साल जाते-जाते यहां तक नौबत पहुंची कि सदन जरा-जरा-सी बात पर सुमन से झुंझला जाता और चाहे कोई लागू बात न कह, पर उसके मन के भाव झलक ही पड़ते थे।


सुमन को मालूम हो रहा था कि अब मेरा निर्वाह यहां न होगा। उसने समझा था कि यहां बहन-बहनोई के साथ जीवन समाप्त हो जाएगा। उनकी सेवा करूंगी, टुकड़ा खाऊंगी और एक कोने में पड़ी रहूंगी। इसके अतिरिक्त जीवन में अब उसे कोई लालसा नहीं थी, लेकिन हा शोक यह तख्ता भी उसके पैरों के नीचे से सरक गया और अब वह निर्दयी लहरों की गोद में थी।


लेकिन सुमन को अपनी परिस्थिति पर दुख चाहे कितना ही हुआ हो, उसे सदन या शान्ता से कोई शिकायत न थी। कुछ तो धार्मिक प्रेम और कुछ अपनी अवस्था के वास्तविक ज्ञान ने उसे अत्यंत नम्र, विनीत बना दिया था। वह बहुत सोचती थी कि वहां जाऊं, जहां अपनी जान-पहचान का कोई आदमी न हो, लेकिन उसे ऐसा कोई ठिकाना न दिखाई देता। अभी तक उसकी निर्बल आत्मा कोई अवलंब चाहती थी। बिना किसी सहारे संसार में रहने का विचार करके उसका कलेजा कांपने लगता था। वह अकेली असहाय, संसार-संग्राम में आने का साहस न कर सकती थी। जिस संग्राम में बड़े-बड़े, कुशल, धर्मशील, दृढ़ संकल्प मनुष्य मुंहकी खाते हैं, वहां मेरी क्या गति होगी। कौन मेरी रक्षा करेगा। कौन मुझे संभालेगा। निरादर होने पर भी यह शंका उसे यहां से निकलने न देती थी।


एक दिन सदन दस बजे कहीं से घूमकर आया और बोला– भोजन में अभी कितनी देर है, जल्दी करो मुझे पंडित उमानाथ से मिलने जाना है, चचा के यहां आए हुए हैं।


शान्ता ने पूछा– वह वहां कैसे आए?


सदन– अब यह मुझे क्या मालूम? अभी जीतन आकर कह गया कि वह आए हुए हैं और आज ही चले जाएंगे। यहां आना चाहते थे, लेकिन (सुमन की ओर इशारा करके) किसी कारण से नहीं आए।


शान्ता– तो जरा बैठ जाओ, यहां अभी एक घंटे की देर है।


सुमन ने झुंझलाकर कहा– देर क्या है, सब कुछ तो तैयार है। आसन बिछा दो, पानी रख दो, मैं थाली परोसती हूं।


शान्ता– अरे, तो जरा ठहर जाएंगे तो क्या होगा? कोई डाकगाड़ी छूटी जाती है? कच्चा-पका खाने का क्या काम?


सदन– मेरी समझ में नहीं आता कि दिन-भर क्या होता रहता है? जरा-सा भोजन बनाने में इतनी देर हो जाती है।


सदन जब भोजन करके चला गया, तब सुमन ने शान्ता से पूछा– क्यों शान्ता, सच बता, तुझे मेरा यहां रहना अच्छा नहीं लगता? तेरे मन में जो कुछ है, वह मैं जानती हूं, लेकिन तू जब तक अपने मुंह से मुझे दुत्कार न देगी, मैं जाने का नाम न लूंगी। मेरे लिए कहीं ठिकाना नहीं है।


शान्ता– बहन, कैसी बात कहती हो। तुम रहती हो तो घर संभला हुआ है, नहीं तो मेरे किए क्या होता?


सुमन– यह मुंह देखी बात मत करो, मैं ऐसी नादान नहीं हूं। मैं तुम दोनों को अपनी ओर से कुछ खिंचा हुआ पाती हूं।


शान्ता– तुम्हारी आंखों की क्या बात है, वह तो मन की बात देख लेती हैं।


सुमन– आंखें सीधी करके बोलो, जो मैं बोलती हूं, झूठ है?


शान्ता– जब तुम जानती हो, तो पूछती क्यों हो?


सुमन– इसलिए कि सब कुछ देखकर भी आंखों पर विश्वास नहीं आता। संसार मुझे कितना ही नीच समझे, मुझे उससे कोई शिकायत नहीं है। वह मेरे मन का हाल नहीं जानता, लेकिन तुम तो सब कुछ देखते हुए भी मुझे नीच समझती हो, इसका आश्चर्य है। मैं तुम्हारे साथ लगभग दो वर्ष से हूं, इतने दिनों में तुम्हें मेरे चरित्र का परिचय अच्छी तरह हो गया होगा।


शान्ता– नहीं बहन, मैं परमात्मा से कहती हूं, यह बात नहीं है। हमारे ऊपर इतना बड़ा कलंक मत लगाओ। तुमने मेरे साथ जो उपकार किए हैं वह मैं कभी न भूलूंगी।


लेकिन बात यह है कि उनकी बदनामी हो रही है। लोग मनमानी बातें उड़ाया करते हैं। वह (सदनसिंह) कहते थे कि सुभद्राजी यहां आने को तैयार थीं, लेकिन तुम्हारे रहने की बात सुनकर नहीं आईं और बहन, बुरा न मानना, जब संसार में यही प्रथा चल रही है, तो हम लोग क्या कर सकते हैं?


सुमन ने विवाद न किया। उसे आज्ञा मिल गई। अब केवल एक रुकावट थी। शान्ता थोड़े ही दिनों में बच्चे की मां बनने वाली थी। सुमन ने अपने मन को समझाया; इस समय छोड़कर जाऊंगी तो इसे कष्ट होगा। कुछ दिन और सह लूं। जहां इतने दिन काटे हैं, महीने-दो महीने और सही। मेरे ही कारण यह इस विपत्ति में फंसे हुए हैं। ऐसी अवस्था में इन्हें छोड़कर जाना मेरा धर्म नहीं है।


सुमन का यहां एक-एक दिन एक-एक साल की तरह कटता था, लेकिन सब्र किए पड़ी हुई थी।


पंखहीन पक्षी पिंजरबद्ध रहने में अपनी कुशल समझता है।


52

पंडित पद्मसिंह के चार-पांच मास के सदुद्योग का यह फल हुआ कि बीस-पच्चीस वेश्याओं ने अपनी लड़कियों को अनाथालय में भेजना स्वीकार कर लिया। तीन वेश्याओं ने अपनी सारी संपत्ति अनाथालय के निमित्त अर्पण कर दी, पांच वेश्याएं निकाह करने पर राजी हो गईं। सच्ची हिताकांक्षा कभी निष्फल नहीं होती। अगर समाज में विश्वास हो जाए कि आप उसके सच्चे सेवक हैं, आप उसका उद्धार करना चाहते हैं, आप निःस्वार्थ हैं, तो वह आपके पीछे चलने को तैयार हो जाता है। लेकिन यह विश्वास सच्चे सेवाभाव के बिना कभी प्राप्त नहीं होता। जब तक अंतःकरण दिव्य और उज्ज्वल न हो, वह प्रकाश का प्रतिबिंब दूसरों पर नहीं डाल सकता। पद्मसिंह में सेवाभाव का उदय हो गया था। हममें कितने ही ऐसे सज्जन हैं, जिनके मस्तिष्क में राष्ट्र की कोई सेवा करने का विचार उत्पन्न होता है, लेकिन बहुधा वह विचार ख्याति-लाभ की आकांक्षा से प्रेरित होता है, हम वह काम करना चाहते हैं, जिसमें हमारा नाम प्राणि-मात्र की जिह्वा पर हो, कोई ऐसा लेख अथवा ग्रंथ लिखना चाहते हैं, जिसकी लोग मुक्त कंठ से प्रशंसा करें, और प्रायः हमारे इस स्वार्थ का कुछ-न-कुछ बदला भी हमको मिल जाता है, लेकिन जनता के हृदय में हम-घर नहीं कर सकते। कोई मनुष्य, चाहे वह कितने ही दुख में हो, उस व्यक्ति के सामने अपना शोक प्रकट नहीं करना चाहता, जिसे वह अपना सच्चा मित्र समझता हो। पद्मसिंह को अब दालमंडी में जाने का बहुत अवसर मिलता था और वह वेश्याओं के जीवन का जितना भी अनुभव करते थे, उतना ही उन्हें दुख होता था। ऐसी-ऐसी सुकोमल रमणियों को भोग-विलास के लिए अपना सर्वस्व गंवाते देखकर उनका हृदय करुणा से विह्वल हो जाता था, उनकी आंखों से आंसू निकल पड़ते थे। उन्हें अब ज्ञात हो रहा था कि ये स्त्रियां विचारशून्य नहीं, भावशून्य नहीं, बुद्धिहीन नहीं, लेकिन माया के हाथों में पड़कर उनकी सारी सद्वृत्तियां उल्टे मार्ग पर जा रही हैं, तृष्णा ने उनकी आत्माओं को निर्बल, निश्चेष्ट बना दिया है। पद्मसिंह इस मायाजाल को तोड़ना चाहते थे, वह उन भूली हुई आत्माओं को सचेत किया चाहते थे, वह उनको इस अज्ञानावस्था से मुक्त किया चाहते थे, पर मायाजाल इतना दृढ़ था और अज्ञान-बंधन इतना पुष्ट और निद्रा इतनी गहरी थी कि पहले छह महीनों में उससे अधिक सफलता न हो सकी, जिसका ऊपर वर्णन किया जा चुका है। शराब के नशे में मनुष्य की जो दशा हो जाती वही दशा इन वेश्याओं की हो गई थी।


उधर प्रभाकर राव और उनके मित्रों ने उस प्रस्ताव के शेष भागों को फिर बोर्ड में उपस्थित किया। उन्होंने केवल पद्मसिंह से द्वेष हो जाने के कारण उन मंतव्यों का विरोध किया था, पर अब पद्मसिंह का वेश्यानुराग देखकर वह उन्हीं के बनाए हुए हथियारों से उन पर आघात कर बैठे। पद्मसिंह उस दिन बोर्ड नहीं गए, डॉक्टर श्यामाचरण नैनीताल गए हुए थे। अतएव वे दोनों मंतव्य निर्विघ्न पास हो गए।


बोर्ड की ओर से अलईपुर के निकट वेश्याओं के लिए मकान बनाए जा रहे थे। लाला भगतराम दत्तचित्त होकर काम कर रहे थे। कुछ कच्चे घर थे, कुछ पक्के, कुछ दुमंजिले, एक छोटा-सा औषधालय और एक पाठशाला भी बनाई जा रही थी। हाजी हाशिम ने एक मस्जिद बनवानी आरंभ की थी और सेठ चिम्मनलाल की ओर एक मंदिर बन रहा था। दीनानाथ तिवारी ने एक बाग की नींव डाल दी थी। आशा तो थी कि नियत समय के अंदर भगतराम काम समाप्त कर देंगे, मिस्टर दत्त और पंडित प्रभाकर राव तथा मिस्टर शाकिरबेग उन्हें चैन न लेने देते थे। लेकिन काम बहुत था, और बहुत जल्दी करने पर भी एक साल लग गया। बस इसी की देर थी। दूसरे दिन वेश्याओं को दालमंडी छोड़कर इस नए मकानों में आबाद होने का नोटिस दे दिया गया।


लोगों को शंका थी कि वेश्याओं की ओर से इसका विरोध होगा, पर उन्हें यह देखकर आमोदपूर्ण आश्चर्य हुआ कि वेश्याओं ने प्रसन्नतापूर्वक इस आज्ञा का पालन किया। सारी दालमंडी एक दिन में खाली हो गई। जहां निशि-वासर एक श्री-सी बरसती थी, वहां संध्या होते-होते सन्नाटा छा गया।


महबूबजान एक धन-संपन्न वेश्या थी। उसने अपना सर्वस्व अनाथालय के लिए दान कर दिया था। संध्या समय सब वेश्याएं उनके मकान में एकत्रित हुईं, वहां एक महती सभा हुई। शाहजादी ने कहा– बहनो, आज हमारी जिंदगी का एक नया दौर शुरू होता है। खुदाताला हमारे इरादे में बरकत दे और हमें नेक रास्ते पर ले जाए। हमने बहुत दिन बेशर्मी और जिल्लत की जिंदगी बसर की, बहुत दिन शैतान की कैद में रहीं। बहुत दिनों तक अपनी रूह (आत्मा) और ईमान का खून किया और बहुत दिनों तक मस्ती और ऐशपरस्ती में भूली रहीं। इस दालमंडी की जमीन हमारे गुनाहों से सियाह हो रही है। आज, खुदाबंद करीम ने हमारी हालत पर रहम करके कैदेगुनाह से निजात (मुक्ति) दी है, इसके लिए हमें उसका शुक्र करना चाहिए। इसमें शक नहीं कि हमारी कुछ बहनों को यहां से जलावतन होने का कलंक होता होगा, और इसमें भी शक नहीं है कि उन्हें आने वाले दिन तारीक नजर आते होंगे। उन बहनों से मेरा यही इल्तमास है कि खुदा ने रिज्क (जीविका) का दरवाजा किसी पर बंद नहीं किया है। आपके पास वह हुनर है कि उसके कदरदां हमेशा रहेंगे। लेकिन अगर हमको आइंदा तकलीफें भी हों तो हमको साबिर व शाकिर (शांत) रहना चाहिए। हमें आइंदा जितनी भी तकलीफें होंगी, उतना ही हमारे गुनाहों का बोझ हल्का होगा। मैं फिर से खुदा से दुआ करती हूं कि वह हमारे दिलों को अपनी रोशनी से रौशन करे और हमें राहे नेक पर लाने की तौफीक (सामर्थ्य) दे दे।


रामभोलीबाई बोली– हमें पद्मसिंह शर्मा को हृदय से धन्यवाद देना चाहिए, जिन्होंने हमको धर्म-मार्ग दिखाया है। उन्हें परमात्मा सदा सुखी रखे।


जोहरा जान बोली– मैं अपनी बहनों से यही कहना चाहती हूं कि वह आइंदा से हलाल-हराम का खयाल रखें। गाना-बजाना हमारे लिए हलाल है। इसी हुनर में कमाल हासिल करो। बदकार रईसों के शुहबत (कामातुरता) का खिलौना बनना छोड़ना चाहिए। बहुत दिनों तक गुनाह की गुलामी की। अब हमें अपने को आजाद करना चाहिए। हमको खुदा ने क्या इसलिए पैदा किया है कि अपना हुस्न, अपनी जवानी, अपनी रूह, अपना ईमान, अपनी गैरत, अपनी हया, हरामकार शुहबत-परस्त आदमियों की नजर करें? जब कोई मनचला नौजवान रईस हमारे ऊपर दीवाना होता जाता है, तो हमको कितनी खुशी होती है। हमारी नायिका फूली नहीं समाती। सफरदाई बगलें बजाने लगते हैं और हमें तो ऐसा मालूम होता है, गोया सोने की चिड़िया फंस गई, लेकिन बहनो, यह हमारी हिमाकत है। हमने उसे अपने दाम में नहीं फंसाया, बल्कि उसके दाम में खुद फंस गईं। उसने सोने और चांदी से हमको खरीद लिया। हम अपनी अस्मत (पवित्रता) जैसी बेबहा (अमूल्य) जिन्स खो बैठीं। आइंदा से हमारा वह वतीरा (ढंग) होना चाहिए कि अगर अपने में से किसी को बुराई करते देखें, तो उसी उक्त बिरादरी से खारिज कर दें।


सुन्दरबाई ने कहा– जोहरा बहन ने बहुत अच्छी तजबीज की है। मैं भी यही चाहती हूं। अगर हमारे यहां किसी की आमदरफ्त होने लगे, तो पहले यह देखना चाहिए कि वह कैसा आदमी है। अगर उसे हमसे मुहब्बत हो और अपना दिल भी उस पर आ जाए तो शादी करनी चाहिए। लेकिन अगर वह शादी न करके महज शुहबतपरस्ती के इरादे से आता हो, तो उसे फौरन दुत्कार देना चाहिए। हमें अपनी इज्जत कौड़ियों पर न बेचनी चाहिए।


रामप्यारी ने कहा– स्वामी गजानन्द ने हमें एक किताब दी है, जिसमें लिखा है कि सुंदरता हमारे पूर्व जन्म के कुछ अच्छे कर्मों का फल है, लेकिन हम अपने पूर्व जन्म की कमाई भी इस जन्म में नष्ट कर देती हैं। जो बहने जोहरा की बात को पसंद करती हों, वे हाथ उठा दें।


इस पर बीस-पच्चीस वेश्याओं ने हाथ उठाए।


रामप्यारी ने फिर कहा– जो इसें पसंद न करती हों, वह भी हाथ उठा दें। इस पर एक भी हाथ न उठा।


रामप्यारी– कोई हाथ न उठा। इसका यह आशय है कि हमने जोहरा की बात मान ली। आज का दिन मुबारक है।


वृद्धा महबूब जान बोली– मुझे कहते हुए यही डर लगता है कि तुम लोग कहोगी, सत्तर चूहे खाकर बिल्ली चली हज को, पर आज के सातवें दिन मैं सचमुच हज करने चली जाऊंगी। मेरी जिंदगी तो जैसे कटी वैसे कटी, पर इस वक्त तुम्हारी यह नीयत देखकर मुझे कितनी खुशी हो रही है, वह मैं जाहिर नहीं कर सकती। खुदा-ए-पाक तुम्हारे इरादों को पूरा करे।


कुछ वेश्याएं आपस मे कानाफूसी कर रही थीं। उनके चेहरों से मालूम होता था कि ये बातें उन्हें पसंद नहीं आती, लेकिन उन्हें कुछ बोलने का साहस न होता था छोटे विचार पवित्र भावों से सामने दब जाते हैं।


इसके बाद यह सभा समाप्त हुई और वेश्याओं ने पैदल अलईपुर की ओर प्रस्थान किया, जैसे यात्री किसी धाम का दर्शन करने जाते हैं।


दालमंडी में अंधेरा छाया हुआ था। न तबलों की थाप थी, न सारंगियों की अलाप, न मधुर स्वरों का गाना, न रसिकजनों का आना-जाना। अनाज कट जाने पर खेत की जो दशा हो जाती है, वही दालमंडी की हो रही थी।


53

पंडित मदनसिंह की कई महीने तक यह दशा थी कि जो कोई उनके पास आता, उसी से सदन की बुराई करते-कपूत है, भ्रष्ट है, शोहदा है, लुच्चा है, एक कानी कौड़ी तो दूंगा नहीं, भीख मांगता फिरेगा, तब आटे-दाल का भाव मालूम होगा। पद्मसिंह को दानपत्र लिखाने के लिए कई बार लिखा। भामा कभी सदन की चर्चा करती, तो उससे बिगड़ जाते, घर से निकल जाने की धमकी देते, कहते– जोगी हो जाऊंगा, संन्यासी हो जाऊंगा, लेकिन उस छोकरे का मुंह न देखूंगा।


इसके पश्चात् उनकी मानसिक अवस्था में एक परिवर्तन हुआ। उन्होंने सदन की चर्चा ही करनी छोड़ दी। यदि कोई उसकी बुराई करता, तो कुछ अनमने-से हो जाते, कहते, भाई, अब क्यों उसे कोसते हो? जैसे उसने किया, वैसा आप भुगतेगा। अच्छा है या बुरा, मेरे पास से तो दूर है। अपने चार पैसे कमाता है, खाता है, पड़ा है, पड़ा रहने दो। लाला बैजनाथ उनके बहुत मुंह लगे थे। एक दिन वह खबर लाए कि उमानाथ ने सदन को कई हजार रुपए दिए हैं, अब नदी पार मकान बना रहा है, एक बागीचा लगवा रहा है। चूना पीसने की एक कल ली है, खूब रुपया कमाता है और उड़ाता है। मदनसिंह ने झुंझलाकर कहा– तो क्या चाहते हो कि वह भीख मांगे, दूसरों की रोटियां तोड़े? उमानाथ उसे रुपया क्या देंगे, अभी एक का चंदे से ब्याह किया है, आप टके-टके को मोहताज हो रहे हैं। सदन ने जो कुछ किया होगा, अपनी कमाई से किया होगा। वह लाख बुरा हो, निकम्मा नहीं है। अभी जवान है शौकीन है, अगर कमाता है और उड़ाता है, तो किसी को क्यों बुरा लगे? तुम्हारे इस गांव के कितने ही लौंड़े है, जो एक पैसा भी नहीं कमाते, लेकिन घर से रुपए चुराकर ले जाते हैं और चमारिनों का पेट भरते हैं। सदन उनसे कहीं अच्छा है। मुंशी बैजनाथ लज्जित हो गए।


कुछ काल उपरांत मदनसिंह की मनोवृत्ति पर प्रतिक्रिया का आधिपत्य हुआ। सदन की सूरत आंखों में फिरने लगी, उसकी बातें याद आया करती, कहते, देखो तो कैसा निर्दयी है, मुझसे रूठने चला है, मानों मैं यह जगह, जमीन, माल असबाब सब अपने माथे पर लादकर ले जाऊंगा। एक बार यहां आते नहीं बनता, पैरों में मेंहदी रचाए बैठा है! पापी कहीं का, मुझसे घमंड करता है, कुढ़-कुढ़कर मर जाऊंगा, तो बैठा मेरे नाम को रोएगा, तब भले वहां से दौड़ा आएगा, अभी नहीं आते बनता, अच्छा देखें, तुम कहां भागकर जाते हो, वहीं से चलकर तुम्हारी खबर लेता हूं।


भोजन करके जब विश्राम करते, तो भामा से सदन की बातें करने लगते– यह लौंडा लड़कपन में भी जिद्दी था। जिस वस्तु के लिए अड़ जाता था, उसे लेकर ही छोड़ता था। तुम्हें याद आता होगा, एक बार मेरी पूजा की झोली के बस्ते के वास्ते कितना महनामथ मचाया और उसे लेकर ही चुप हुआ। बड़ा हठी है, देखो तो उसकी कठोरता। एक पत्र भी नहीं भेजता। चुपचाप कान में तेल डाले बैठा है, मानों हमलोग मर गए हैं। भामा ये बातें सुनती और रोती। मदनसिंह के आत्माभिमान ने पुत्र-प्रेम के आगे सिर झुका दिया था।


इस प्रकार एक वर्ष के ऊपर हो गया। मदनसिंह बार-बार सदन के पास जाने का विचार करते, पर उस विचार को कार्य रूप में न ला सकते। एक बार असबाब बंधवा चुके थे, पर थोड़ी देर पीछे उसे खुलवा दिया। एक बार स्टेशन से लौट आए। उनका हृदय मोह और अभिमान का खिलौना बना हुआ था।


अब गृहस्थी के कामों में उनका जी न लगता। खेतों में समय पर पानी नहीं दिया गया और फसल खराब हो गई। असामियों से लगान नहीं वसूल किया गया। वह बेचारे रुपए लेकर आते, लेकिन मदनसिंह को रुपया लेकर रसीद देना भारी था। कहते, भाई, अभी जाओ, फिर आना। गुड़ घर में धरा-धरा पसीज गया, उसे बेचने का प्रबंध न किया। भामा कुछ कहती तो झुंझलाकर कहते, चूल्हे में जाए घर और द्वार, जिसके लिए सब कुछ करता था, जब वही नहीं है तो यह गृहस्थी मेरे किस काम की है? अब उन्हें ज्ञात हुआ कि मेरा सारा जीवन, सारी धर्मनिष्ठा, सारी कर्मशीलता, सारा आनंद केवल एक आधार पर अवलंबित था और वह आधार सदन का था।


इधर कई दिनों से पद्मसिंह भी नहीं आए थे। एक बड़ा कार्य संपादन करने के उपरांत चित्त पर जो शिथिलता छा जाती है, वही अवस्था उनकी हो रही थी। मदनसिंह उनके पास भी पत्र न भेजते थे। हां, उनके पत्र आते तो बड़े शौक से पढ़ते, लेकिन सदन का कुछ समाचार न पाकर उदास हो जाते।


एक दिन मदनसिंह दरवाजे पर बैठे हुए प्रेमसागर पढ़ रहे थे। कृष्ण की बाल-लीला में उन्हें बच्चों का-सा आनंद आ रहा था। संध्या हो गई थी। सूझ न पड़ते थे, पर उनका मन ऐसा लगा हुआ था कि उठने की इच्छा न होती थी। अकस्मात् कुत्तों के भूंकने ने किसी नए आदमी के गांव में आने की सूचना दी। मदनसिंह की छाती धड़कने लगी। कहीं सदन तो नहीं आ रहा है। किताब बंद करके उठे, तो पद्मसिंह को आते देखा। पद्मसिंह ने उनके चरण छुए, फिर दोनों भाइयों में बातचीत होने लगी।


मदनसिंह– सब कुशल है?


पद्मसिंह– जी हां, ईश्वर की दया है।


मदनसिंह– भला, उस बेईमान की भी कुछ खोज-खबर मिली है?


पद्मसिंह– जी हां, अच्छी तरह है। दसवें-पांचवें दिन मेरे यहां आया करता है। मैं कभी-कभी हाल-चाल पुछवा लेता हूं। कोई चिंता की बात नहीं है।


मदनसिंह– भला, वह पापी कभी हमलोगों की भी चर्चा करता है या बिल्कुल मरा समझ लिया? क्या यहां न आने की कसम खा ली है? क्या यहां हमलोग मर जाएंगे, तभी आएगा? अगर उसकी यही इच्छा है, तो हमलोग कहीं चले जाएं। अपना घर संभाले। सुनता हूं, वहां मकान बनवा रहा है। वह तो वहां रहेगा? और यहां कौन रहेगा? वह मकान किसके लिए छोड़े देता है?


पद्मसिंह– जी नहीं, मकान-वकान कहीं नहीं बनवाता, यह आपसे किसी ने झूठ कह दिया। हां, चूने की कल खड़ी कर ली है और यह भी मालूम हुआ है कि नदी पार थोड़ी-सी जमीन भी लेना चाहता है।


मदनसिंह– तो उससे कह देना, पहले आकर इस घर में आग लगा जाए, तब वहां जगह-जमीन ले।


पद्मसिंह– यह आप क्या कहते हैं, वह केवल आपलोगों की अप्रसन्नता के भय से नहीं आता। आज उसे मालूम हो जाए कि आपने उसे क्षमा कर दिया, तो सिर के बल दौड़ा आए। मेरे पास आता है, तो घंटों आप ही की बातें करता रहता है। आपकी इच्छा हो, तो कल ही चला आए।


मदनसिंह– नहीं, मैं उसे बुलाता नहीं। हम उसके कौन होते है, जो यहां आएगा? लेकिन यहां आए तो कह देना, जरा पीठ मजबूत कर रखे। उसे देखते ही मेरे सिर पर शैतान सवार हो जाएगा और मैं डंडा लेकर पिल पड़ूंगा। मूर्ख मुझसे रूठने चला है। तब नहीं रूठा था, जब पूजा के समय पोथी पर लार टपकाता था, खाने की थाली के पास पेशाब करता था। उसके मारे कपड़े साफ न रहने पाते थे, उजले कपड़ों को तरस के रह जाता था। मुझे साफ कपड़े पहने देखना था, तो बदन से धूल-मिट्टी लपेटे आकर सिर पर सवार हो जाता। तब क्यों नहीं रूठा था? आज रूठने चला है। अब की पाऊं तो ऐसी कनेठी दूं कि छठी का दूध याद आ जाएगा।


दोनों भाई घर गए। भामा बैठी गाय को भूसा खिला रही थी और सदन की दोनों बहनें खाना पकाती थीं। भामा देवर को देखते ही खड़ी हो गई और बोली– भला, तुम्हारे दर्शन तो हुए। चार पग पर रहते हो और इतना भी नहीं होता कि महीने में एक बार तो जाकर देख आए– घर वाले मरे कि जीते हैं। कहो, कुशल से तो रहे?


पद्मसिंह– हां, सब तुम्हारा आशीर्वाद है। कहो, खाना क्या बन रहा है? मुझे इस वक्त खीर, हलुवा और मलाई खिलाओ, तो वह सुख-संवाद सुनाऊं कि फड़क जाओ। पोता मुबारक हो।


भामा के मलिन मुख पर आनंद की लालिमा छा गई और आंखों में पुतलियां पुष्प के समान खिल उठीं। बोली– चलो, घी-शक्कर के मटके में डूबा दूं, जितना खाते बने, खाओ।


मदनसिंह ने मुंह बनाकर कहा– यह तुमने बुरी खबर सुनाई। क्या ईश्वर के दरबार में उल्टा न्याय होता है? मेरा बेटा छिन जाए और उसे बेटा मिल जाए। अब वह एक से दो हो गया, मैं उससे कैसे जीत सकूंगा? हारना पड़ा। यह मुझे अवश्य खींच ले जाएगा। मेरे तो कदम अभी से उखड़ गए। सचमुच ईश्वर के यहां बुराई करने पर भलाई होती है। उल्टी बात है कि नहीं? लेकिन अब मुझे चिंता नहीं है। सदन जहां चाहे जाए, ईश्वर ने हमारी सुन ली। कै दिन का हुआ है?


पद्मसिंह– आज चौथा दिन है, मुझे छुट्टी नहीं मिली, नहीं तो पहले ही दिन आता।


मदनसिंह– क्या हुआ, छठी तक पहुंच जाएंगे, धूमधाम से छठी मनाएंगे। बस, कल चलो।


भामा फूली न समाती थी। हृदय पुलकित हो उठा था। जी चाहता था कि किसे क्या दे दूं, क्या लुटा दूं? जी चाहता था, घर में सोहर उठे, दरवाजे पर शहनाई बजे, पड़ोसिनें बुलाई जाएं। गाने-बजाने की मंगल ध्वनि से गांव गूंज उठे। उसे ऐसा ज्ञात हो रहा था, मानो आज संसार में कोई असाधारण बात हो गई है, मानो सारा संसार संतानहीन है और एक मैं ही पुत्र-पौत्रवती हूं।


एक मजदूर ने आकर कहा– भौजी, एक साधु द्वार पर आए हैं। भामा ने तुरंत इतनी जिन्स भेज दी, जो चार साधुओं के खाने से भी न चुकती।


ज्योंही लोग भोजन कर चुके, भामा अपनी दोनों लड़कियों के साथ ढोल लेकर बैठ गई और आधी रात गाती रही।


54

जिस प्रकार कोई मनुष्य लोभ के वश होकर आभूषण चुरा लेता है, पर विवेक होने पर उसे देखने में भी लज्जा आती है, उसी प्रकार सदन भी सुमन से बचता फिरता था। इतना ही नहीं, वह उसे नीची दृष्टि से देखता था और उसकी उपेक्षा करता था। दिन-भर काम करने के बाद संध्या को उसे अपना यह व्यवसाय बहुत अखरता, विशेषकर चूने के काम में उसे बड़ा परिश्रम करना पड़ता था। वह सोचता, इसी सुमन के कारण मैं यों घर से निकाला गया हूं। इसी ने मुझे यह बनवास दे रखा है। कैसे आराम से घर पर रहता था। न कोई चिंता थी, न कोई झंझट, चैन से खाता था और मौज करता था। इसी ने मेरे लिए सिर पर यह मुसीबत ढा दी। प्रेम की पहली उमंग में उसने उसका बनाया हुआ भोजन खा लिया था, पर अब उसे बड़ा पछतावा होता था। वह चाहता था कि किसी प्रकार इससे गला छूट जाए। यह वही सदन है, जो सुमन पर जान देता था, उसकी मुस्कान पर, मधुर बातों पर, कृपाकटाक्ष पर अपना जीवन तक न्योछावर करने को तैयार था। पर सुमन आज उसकी दृष्टि में इतनी गिर गई है। वह स्वयं अनुभव करके भी भूल जाता था कि मानव-प्रकृति कितनी चंचल है!


सदन ने इधर वर्षों से लिखना-पढ़ना छोड़ दिया था और जब से चूने की कल ली, तो वह दैनिक पत्र भी पढ़ने का अवकाश न पाता था। अब वह समझता था पढ़ना उन लोगों का काम है जिन्हें कोई काम नहीं है, जो सारे दिन-पड़े-पड़े मक्खियां मारा करते हैं। लेकिन उसे बालों को संवारने, हारमोनियम बजाने के लिए न मालूम कैसे अवकाश मिल जाता था।


कभी-कभी पिछली बातों का स्मरण करके वह मन में कहता, मैं उस समय कैसा मूर्ख था, इसी सुमन के पीछे लट्टू हो रहा था? वह अब अपने चरित्र पर घमंड करता था। नदी के तट पर वह नित्य स्त्रियों को देखा करता था, पर कभी उसके मन में कुभाव न पैदा होते थे। सदन इसे अपना चरित्रबल समझता था।


लेकिन जब गर्भिणी शान्ता के प्रसूति का समय निकट आया और वह बहुधा अपने कमरे में बंद, मलिन, शिथिल पड़ी रहने लगी, तो सदन को मालूम हुआ कि मैं बहुत धोखे में था। जिसे मैं चरित्रबल समझता था, वह वास्तव में मेरी तृष्णाओं के संतुष्ट होने का फलमात्र था। अब वह काम पर से लौटता, तो शान्ता मधुर मुस्कान के साथ उसका स्वागत न करती, वह अपनी चारपाई पर पड़ी रहती। कभी उसके सिर में दर्द होता, कभी शरीर में, कभी ताप चढ़ जाता, कभी मतली होने लगती, उसका मुखचंद्र कांतिहीन हो गया था, मालूम होता था शरीर में रक्त ही नहीं है। सदन को उसकी यह दशा देखकर दुख होता, यह घंटों उसके पास बैठकर उसका दिल बहलाता रहता, लेकिन उसके चेहरे से मालूम होता था कि उसे वहां बैठना अखर रहा है। वह किसी-न-किसी बहाने से जल्दी ही उठ जाता। उसकी विलास-तृष्णा ने मन को फिर चंचल करना शुरू किया, कुवासनाएं उठने लगीं। वह युवती मल्लाहिनों से हंसी करता, गंगातट पर जाता, तो नहाने वाली स्त्रियों को कुदृष्टि से देखता। यहां तक कि एक दिन इस वासना से विह्वल होकर वह दालमंडी की ओर चला। वह कई महीनों से इधर नहीं आया था। आठ बज गए थे। काम-भोग की प्रबल इच्छा उसे बढ़ाए लिए जाती थी। उसका ज्ञान और विवेक इस समय इस आवेग के नीचे दब गया था। वह कभी दो पग आगे चलता, कभी चुपचाप खड़ा होकर कुछ सोचता और पीछे फिरता, लेकिन दो-चार कदम चलकर वह फिर लौट पड़ता। इस समय उसकी दशा उस रोगी-सी हो रही थी, जो मीठे पदार्थ को सामने देखकर उस पर टूट पड़ता है और पथ्यापथ्य का विचार नहीं करता।


लेकिन जब वह दालमंडी में पहुंचा, तो गली में वह चहल-पहल न देखी, जो पहले दिखाई देती थी, पान वालों की दुकानें दो-चार थीं, लेकिन नानबाइयों और हलवाइयों की दुकानें बंद थीं। कोठों पर वेश्याएं झांकती हुई दिखाई न दीं, न सारंगी और तबले की ध्वनि सुनाई दी। अब उसे याद आया कि वेश्याएं यहां से चली गईं। उसका मन खिन्न हो गया। लेकिन एक क्षण में उसे एक विचित्र आनंद का अनुभव हुआ। उसने अपनी कामप्रवृत्ति पर विजय पा ली, मानो वह किसी कठोर सिपाही के हाथ से छूट गया। सिपाही उसे नीचे लिए जाता था, उसके पंजे से अपने को छुड़ा लेने का उसमें सामर्थ्य न था, पर थाने में पहुंचकर सिपाही ने देखा कि थाना बंद है, न थानेदार है, न कोई कांस्टेबिल, न चौकीदार। सदन को अब अपने मन की दुर्बलता पर लज्जा आई। उसे अपने मनोबल पर जो घमंड था, वह चूर-चूर हो गया।


वह लौटना चाहता था, पर जी में आया कि आया हूं, तो अच्छी तरह से सैर क्यों न कर लूं? आगे बढ़ा तो वह मकान दिखाई दिया, जिसमें सुमन रहती थी। वहां गाने की मधुर ध्वनि उसके कान में आई। उसने आश्चर्य से ऊपर देखा, तो एक बड़ा साइनबोर्ड दिखाई दिया। उस पर लिखा था ‘संगीत-पाठशाला’। सदन ऊपर चढ़ गया। इसी कमरे में वह महीनों सुमन के पास बैठा था। उसके मन में कितनी ही पुरानी स्मृतियां आने लगीं। वह एक बेंच पर बैठ गया और गाना सुनने लगा। बीस-पच्चीस मनुष्य बैठे हुए गाने-बजाने का अभ्यास कर रहे थे। कोई सितार बजाता था, कोई सारंगी, कोई तबला और एक वृद्ध पुरुष उन सबको बारी-बारी से सिखा रहा था। वह गान विद्या में निपुण मालूम होता था। सदन का गाना सुनने में ऐसा मन लगा कि वह पंद्रह मिनट तक वहां बैठा रहा। उसके मन में बड़ी उत्कंठा हुई कि मैं भी गाना सीखने आया करता, पर एक तो उसका मकान यहां से बहुत दूर था, दूसरे स्त्रियों को अकेली छोड़कर रात को आना कठिन था। वह उठना ही चाहता था कि इतने में उसी गायनाचार्य ने सितार पर यह गाना शुरू किया–


दयामयि भारत को अपनाओ।

तव वियोग से व्याकुल है मा, सत्वर धैर्य धराओ।

प्रिय लालन कहकर पुचकारो, हंसकर गले लगाओ।।

दयामयि भारत को अपनाओ।

सोये आर्य जाति के गौरव, जननि! फेर जगाओ।

दुखड़ा पराधीनता रूपी बेड़ी काट बहाओ।।

दयामयि भारत को अपनाओ।।


इस पद ने सदन के हृदय में उच्च भावों का स्रोत-सा खोल दिया। देशोपकार, जाति-सेवा तथा राष्ट्रीय गौरव की पवित्र भावनाएं उसके हृदय में गूंजने लगीं। यह बाह्य ध्वनि उसके अंतर में भी एक विशाल ध्वनि पैदा कर रही थी, जगज्जननी की दयामयी मूर्ति उसके हृदय-नेत्रों के सम्मुख खड़ी हो गई। एक दरिद्र, दुखी, दीन, क्षीण बालक दीन भाव से देवी की ओर ताक रहा था, और अपने दोनों हाथ उठाए, सजल आंखों से देखता हुआ कह रहा था, ‘दयामयि भारत को अपनाओ।’ उसने कल्पनाओं में अपने को दीन कृषकों की सेवा करते हुए देखा। वह जमींदारों के कारिंदों से विनय कर रहा था कि इन दीन जनों पर दया करो। कृषकगण उसके पैरों पर गिर पड़ते थे, उनकी स्त्रियां उसे आशीर्वाद दे रही थीं। स्वयं इस कल्पित बारात का दूल्हा बना हुआ सदन यहां से जाति-सेवा का संकल्प करके उठा और नीचे उतर आया। वह अपने विचारों में ऐसा लीन हो रहा था कि किसी से कुछ न बोला। थोड़ी ही दूर चला था कि उसे सुंदरबाई के भवन के सामने कुछ मनुष्य दिखाई दिए। उसने एक आदमी से पूछा, यह कैसा जमघट है? मालूम हुआ कि आज कुंवर अनिरुद्धसिंह यहां एक ‘कृषि सहायक सभा’ खोलने वाले हैं? सभा का उद्देश्य होगा, किसानों को जमींदारों के अत्याचारों से बचाना। सदन के मन में अभी-अभी कृषकों के प्रति जो सहानुभूति प्रकट हुई थी, वह मंद पड़ गई। वह जमींदार था और कृषकों पर दया करना चाहता था, पर उसे मंजूर न था कि कोई उसे दबाए और किसानों को भड़काकर जमींदारों के विरुद्ध खड़ा कर दे। उसने मन में कहा, ये लोग जमींदारों के सत्वों को मिटाना चाहते हैं। द्वेष-भाव से ही प्रेरित होकर इन लोगों ने यह संस्था खोलने का विचार किया है, तो हमलोगों को भी सतर्क हो जाना चाहिए, हमको अपनी रक्षा करनी चाहिए। मानव प्रकृति को दबाव से कितनी घृणा है? सदन ने यहां ठहरना व्यर्थ समझा, नौ बज गए थे। वह घर लौटा।


55

संध्या का समय है। आकाश पर लालिमा छाई हुई है और मंद वायु गंगा की लहरों पर क्रीड़ा कर रही है, उन्हें गुदगुदा रही है। वह अपने करुण नेत्रों से मुस्कराती है और कभी-कभी खिलखिलाकर हंस पड़ती है, तब उसके मोती के दांत चमक उठते हैं। सदन का रमणीय झोंपड़ा आज फूलों और लताओं से सजा हुआ है। दरवाजों पर मल्लाहों की भीड़ है। अंदर उनकी स्त्रियां बैठी सोहर गा रही हैं। आंगन में भट्ठी खुदी हुई है और बड़े-बड़े हंडे चढ़े हुए हैं। आज सदन के नवजात पुत्र की छठी है, यह उसी का उत्सव है।


लेकिन सदन बहुत उदास दिखाई देता है। वह सामने के चबूतरे पर बैठा हुआ गंगा की ओर देख रहा है। उसके हृदय में भी विचार की लहरें उठ रही हैं। ना! वे लोग न आएंगे। आना होता तो आज छह दिन बीत गए, आ न जाते? यदि मैं जानता कि वे न आएंगे, तो मैं चाचा से भी यह समाचार न कहता। उन्होंने मुझे मरा हुआ समझ लिया है, वे मुझसे कोई सरोकार नहीं रखना चाहते। मैं जीऊं या मरूं, उन्हें परवाह नहीं है। लोग ऐसे अवसर पर अपने शत्रुओं के घर भी जाते हैं। प्रेम से न आते, दिखावे के लिए आते, व्यवहार के तौर पर आते– मुझे मालूम तो हो जाता कि संसार में मेरा कोई है। अच्छा न आएं, इस काम से छुट्टी मिली, तो एक बार मैं स्वयं जाऊंगा और सदा के लिए निपटारा कर आऊंगा। लड़का कितना सुंदर है, कैसे लाल-लाल होंठ हैं। बिल्कुल मुझी को पड़ा है। हां, आंखें शान्ता की हैं। मेरी ओर कैसे ध्यान से टुक-टुक ताकता था। दादा को तो मैं नहीं कहता, लेकिन अम्मा उसे देखें तो एक बार गोद में अवश्य ही ले लें। एकाएक सदन के मन में यह विचार हुआ, अगर मैं मर जाऊं तो क्या हो? इस बालक का पालन कौन करेगा? कोई नहीं। नहीं, मैं मर जाऊं तो दादा को अवश्य उस पर दया आएगी। वह इतने निर्दय नहीं हो सकते। जरा देखूं। सेविंग बैंक में मेरे कितने रुपए हैं। अभी तक हजार भी पूरा नहीं। ज्यादा नहीं, अगर पचास रुपए महीना भी जमा करता जाऊं, तो साल भर में छह सौ रुपए हो जाएंगे। ज्योंही दो हजार पूरे हो जाएंगे, घर बनवाना शुरू कर दूंगा। दो कमरे सामने, पांच कमरे भीतर, दरवाजे पर मेहराबदार सायवान, पटाव के ऊपर दो कमरे हों तो मकान अच्छा हो। कुर्सी ऊंची रहने से घर की शोभा बढ़ जाती है, कम-से-कम पांच फुट की कुर्सी दूंगा।


सदन इन्हीं कल्पनाओं का आनंद ले रहा था। चारों ओर अंधेरा छाने लगा था कि इतने में उसने सड़क की ओर से एक गाड़ी आती देखी। उसकी दोनों लालटेनें बिल्ली की आंखों की तरह चमक रही थीं। कौन आ रहा है? चाचा साहब के सिवा और कौन होगा? मेरा और है ही कौन? इतने में गाड़ी निकट आ गई और उसमें से मदनसिंह उतरे। इस गाड़ी के पीछे एक और गाड़ी थी। सुभद्रा और भामा उसमें से उतरीं। सदन की दोनों बहनें भी थीं। जीतन कोचबक्स पर से उतरकर लालटेन दिखाने लगा। सदन इतने आदमियों को उतरते देखकर समझ गया कि घर के लोग आ गए, पर वह उनसे मिलने के लिए नहीं दौड़ा। वह समय बीत चुका था, जब वह उन्हें मनाने जाता। अब उसके मान करने का समय आ गया था। वह चबूतरे पर से उठकर झोंपड़े में चला गया, मानो उसने किसी को देखा ही नहीं। उसने मन में कहा, ये लोग समझते होंगे कि इनके बिना मैं बेहाल हुआ जाता हूं, पर उन्हें जैसे मेरी परवाह नहीं, उसी प्रकार मैं भी इनकी परवाह नहीं करता।


सदन झोंपड़े में जाकर ताक रहा था कि देखें ये लोग क्या करते हैं। इतने में उसने जीतन को दरवाजे पर आकर पुकारते हुए देखा। कई मल्लाह इधर-उधर से दौड़े। सदन बाहर निकल आया और दूर से ही अपनी माता को प्रणाम करके किनारे खड़ा हो गया।


मदनसिंह बोले– तुम तो इस तरह खड़े हो, मानों हमें पहचानते ही नहीं। मेरे न सही, पर माता के चरण छूकर आशीर्वाद तो ले लो।


सदन– मेरे छू लेने से आपका धर्म बिगड़ जाएगा।


मदनसिंह ने भाई की ओर देखकर कहा– देखते हो इसकी बात। मैं तो तुमसे कहता था कि वह हम लोगों को भूल गया होगा, लेकिन तुम खींच लाए। अपने माता-पिता को द्वार पर खड़े देखकर भी इसे दया नहीं आती।


भामा ने आगे बढ़कर कहा– बेटा सदन दादा के चरण छुओ, तुम बुद्धिमान होकर ऐसी बातें करते हो।


सदन अधिक मान न कर सका। आंखों में आंसू भरे पिता के चरणों पर गिर पड़ा। मदनसिंह रोने लगे।


इसके बाद वह माता के चरणों पर गिरा। भामा ने उठाकर छाती से लगा लिया और आशीर्वाद दिया।


प्रेम, भक्ति और क्षमा का कैसा मनोहर, कैसा दिव्य, कैसा आनंदमय दृश्य है। माता-पिता का हृदय प्रेम से पुलकित हो रहा है और पुत्र के हृदयसागर में भक्ति की तरंगें उठ रही हैं। इसी प्रेम और भक्ति की निर्मल ज्योति से हृदय की अंधेरी कोठरियां प्रकाशपूर्ण हो गई हैं। मिथ्याभिमान और लोक-लज्जा या भयरूपी कीट-पतंग वहां से निकल गए हैं। अब वहां न्याय, प्रेम और सद्व्यवहार का निवास है।


आनंद के मारे सदन के पैर जमीन पर नहीं पड़ते। वह अब मल्लाहों को कोई-न-कोई काम करने को हुक्म देकर दिखा रहा है कि मेरा वहां कितना रोब है। कोई चारपाई निकालने जाता है, कोई बाजार दौड़ा जाता है कि मदनसिंह फूले नहीं समाते और अपने भाई के कानों में कहते हैं, सदन तो बड़ा चतुर निकला। मैं तो समझता था, किसी तरह पड़ा दिन काट रहा होगा, पर यहां तो बड़ा ठाट है।


इधर भामा और सुभद्रा भीतर गईं। भामा चारों ओर चकित होकर देखती थी। कैसी सफाई है। सब चीजें ठिकाने से रखी हुई हैं! इसकी बहन गुणवान मालूम होती है।


वे सौरीगृह में गईं तो शान्ता ने अपनी दोनों सासों के चरण-स्पर्श किए। भामा ने बालक को गोद में ले लिया। उसे ऐसा मालूम हुआ, मानों वह कृष्ण का ही अवतार है। उसकी आंखों में आनंद के आंसू बहने लगे।


थोड़ी देर में उसने मदनसिंह से आकर कहा– और जो कुछ हो, पर तुमने बहू बड़ी रूपवती पाई है। गुलाब का फूल है और बालक तो साक्षात् भगवान् का अवतार ही है।


मदनसिंह– ऐसा तेजस्वी न होता, तो मदनसिंह को खींच कैसे लाता?


भामा– बहू बड़ी सुशील मालूम होती है।


मदनसिंह– तभी तो सदन ने उसके पीछे मां-बाप को त्याग दिया था। सब लोग अपनी-अपनी धुन में मग्न थे, पर किसी को सुधि न थी कि अभागिन सुमन कहां है?


सुमन गंगातट पर संध्या करने गई थी। जब वह लौटी तो उसे झोंपड़े के द्वार पर गाड़ियां खड़ी दिखाई दीं। दरवाजे पर कई आदमी बैठे थे। पद्मसिंह को पहचाना। समझ गई कि सदन के माता-पिता आ गए। वह आगे न बढ़ सकी। उसके पैरों में बेड़ी-सी पड़ गईं। उसे मालूम हो गया कि अब यहां मेरे लिए स्थान नहीं है, अब यहां से मेरा नाता टूटता है। वह मूर्तिवत खड़ी सोचने लगी कि कहां जाऊं?


इधर एक मास से शान्ता और सुमन में बहुत मनमुटाव हो गया था। वही शान्ता जो विधवा-आश्रम में दया और शांति की मूर्ति बनी हुई थी, अब सुमन को जलाने और रुलाने पर तत्पर रहती थी। उम्मीदवारी के दिनों में हम जितने विनयशील और कर्त्तव्य-परायण होते हैं, उतने ही अगर जगह पाने पर बने रहे, तो हम देवतुल्य हो जाएं। उस समय शान्ता को सहानुभूति की जरूरत थी, प्रेम की आकांक्षा ने उसके चित्त को उदार, कोमल, नम्र बना दिया था, पर अब अपना प्रेमरत्न पाकर किसी दरिद्र से धनी हो जाने वाले मनुष्य की भांति उसका हृदय कठोर हो गया था। उसे भय खाए जाता था कि सदन कहीं सुमन के जाल में न फंस जाए। सुमन के पूजा-पाठ, श्रद्धा-भक्ति का उसकी दृष्टि में कुछ भी मूल्य न था। वह इसे पाखंड समझती थी। सुमन सिर में तेल मलने या साफ कपड़ा पहनने के लिए तरस जाती थी, शान्ता इसे समझती थी। वह सुमन के आचार-व्यवहार को बड़ी तीव्र दृष्टि से देखती रहती थी। सदन से जो कुछ कहना होता, सुमन शान्ता से कहती। यहां तक कि शान्ता भोजन के समय भी रसोई में किसी-न-किसी बहाने आ बैठती थी। वह अपने प्रसवकाल के पहले सुमन को किसी भांति वहां से टालना चाहती थी, क्योंकि सौरीगृह में बंद होकर सुमन की देख-भाल न कर सकेगी। उसे और सब कष्ट सहना मंजूर था, पर यह दाह न सही जाती थी।


लेकिन सुमन सब कुछ देखते हुए भी न देखती थी, सब कुछ सुनते हुए भी कुछ न सुनती थी। नदी में डूबते हुए मनुष्य के समान वह इस तिनके के सहारे को ही छोड़ सकती थी। वह अपना जीवन मार्ग स्थिर न कर सकती थी, पर इस समय सदन के माता-पिता को यहां देखकर उसे यह सहारा छोड़ना पड़ा। इच्छा-शक्ति जो कुछ न कर सकती थी, वह इस अवस्था ने कर दिखाया।


वह पांव दबाती हुई धीरे-धीरे झोंपड़े के पिछवाड़े आई और कान लगाकर सुनने लगी कि देखूं ये लोग मेरी कुछ चर्चा तो नहीं कर रहे हैं। आध घंटे तक वह इसी प्रकार खड़ी रही। भामा और सुभद्रा इधर-उधर की बातें कर रही थीं। अंत में भामा ने कहा– क्या अब इसकी बहन यहां नहीं रहती?


सुभद्रा– रहती क्यों नहीं, वह कहां जाने वाली है?


भामा– दिखाई नहीं देती।


सुभद्रा– किसी काम से गई होगी। घर का सारा काम तो वही संभाले हुए है।


भामा– आए तो कह देना कि कहीं बाहर लेट रहे। सदन उसी का बनाया खाता होगा?


शान्ता सौरीगृह में से बोली– नहीं, अभी तक तो मैं ही बनाती रही हूं। आजकल वह अपने हाथ से बना लेते हैं।


भामा– तब भी घड़ा-बर्तन तो वह छूती ही रही होगी। यह घड़ा फिंकवा दो, बर्तन फिर से धुल जाएंगे।


सुभद्रा– बाहर कहां सोने की जगह है?


भामा– हो चाहे न हो, लेकिन यहां मैं उसे न सोने दूंगी। वैसी स्त्री का क्या विश्वास?


सुभद्रा– नहीं दीदी, वह अब वैसी नहीं है। वह बड़े नेम-धरम से रहती है।


भामा– चलो, वह बड़ी नेम-धरम से रहने वाली है। सात घाट का पानी पी के आज नेम वाली बनी है। देवता की मूरत टूटकर फिर नहीं जुड़ती। वह अब देवी बन जाए, तब भी मैं विश्वास न करूं।


सुमन इससे ज्यादा न सुन सकी। उसे ऐसा मालूम हुआ, मानो किसी ने लोहा लाल करके उसके हृदय में चुभा दिया। उल्टे पांव लौटी और उसी अंधकार में एक ओर चल पड़ी।


अंधेरा खूब छाया था, रास्ता भी अच्छी तरह न सूझता था, पर सुमन गिरती-पड़ती चली जाती थी, मालूम नहीं कहां, किधर? वह अपने होश में न थी। लाठी खाकर घबराए हुए के समान वह मूर्च्छावस्था में लुढ़कती जा रही थी। संभलना चाहती थी, पर संभल न सकती थी। यहां तक कि उसके पैरों में एक बड़ा-सा कांटा चुभ गया वह पैर पकड़कर बैठ गई। चलने की शक्ति न रही।


उसने बेहोशी के बाद होश में आने वाले मनुष्य के समान इधर-उधर चौंककर देखा। चारों ओर सन्नाटा था। गहरा अंधकार छाया हुआ था। केवल सियार अपना राग अलाप रहे थे। यहां मैं अकेली हूं, यह सोचकर सुमन के रोएं खड़े हो गए। अकेला-मन किसे कहते हैं, यह उसे आज मालूम हुआ। लेकिन यह जानते हुए भी कि यहां कोई नहीं हैं, मैं ही अकेली हूं, उसे अपने चारों ओर, नीचे-ऊपर नाना प्रकार के जीव आकाश में चलते हुए दिखाई देते थे। यहां तक कि उसने घबड़ाकर आंखें बंद कर लीं। निर्जनता कल्पना को अत्यंत रचनाशील बना देती है।


सुमन सोचने लगी, मैं कैसी अभागिन हूं और तो और, सगी बहन भी अब मेरी सूरत नहीं देखना चाहती। उसे कितना अपनाना चाहा, पर वह अपनी न हुई। मेरे सिर कलंक का टीका लग गया और वह अब धोने से नहीं धुल सकता। मैं उसको या किसी को दोष क्यों दूं? यह सब मेरे कर्मों का फल है। आह! एंड़ी में कैसी पीड़ा हो रही है, यह कांटा कैसे निकलेगा? भीतर उसका एक टुकड़ा टूट गया है। कैसा टपक रहा है, नहीं, मैं किसी को दोष नहीं दे सकती। बुरे कर्म तो मैंने किए हैं, उनका फल कौन भोगेगा? विलास-लालसा ने मेरी यह दुर्गति की। कैसी अंधी हो गई थी, केवल इंद्रियों के सुखभोग के लिए अपनी आत्मा का नाश कर बैठी। मुझे कष्ट अवश्य था। मैं गहने-कपड़े को तरसती थी, अच्छे भोजन को तरसती थी, प्रेम को तरसती थी। उस समय मुझे अपना जीवन दुखमय दिखाई देता था, पर वह अवस्था भी तो मेरे पूर्वजन्म के कर्मों का फल थी और क्या ऐसी स्त्रियां नहीं हैं, जो उससे कहीं अधिक कष्ट झेलकर भी अपनी आत्मा की रक्षा करती हैं? दमयंती पर कैसे-कैसे दुख पड़े, सीता को रामचन्द्र ने घर से निकाल दिया, वह बरसों जंगलों में नाना प्रकार के क्लेश उठाती रहीं, सावित्री ने कैसे-कैसे दुःख सहे, पर वह धर्म पर दृढ़ रहीं। उतनी दूर क्यों जाऊं मेरे ही पड़ोस में कितनी स्त्रियां रो-रोकर दिन काट रही थीं। अमोला में वह बेचारी अहीरिन कैसी विपत्ति झेल रही थी। उसका पति परदेश से बरसों न आता था, बेचारी उपवास करके पड़ी रहती थी। हाय, इतनी सुंदरता ने मेरी मिट्टी खराब की। मेरे सौन्दर्य के अभिमान ने मुझे यह दिन दिखाया।


हा प्रभो! तुम सुंदरता देकर मन को चंचल क्यों बना देते हो? मैंने सुंदर स्त्रियों को प्रायः चंचल ही पाया। कदाचित् ईश्वर इस युक्ति से हमारी आत्मा की परीक्षा करते हैं, अथवा जीवन-मार्ग में सुंदरता रूपी बाधा डालकर हमारी आत्मा को बलवान, पुष्ट बनाना चाहते हैं। सुंदरता रूपी आग में आत्मा को डालकर उसे चमकाना चाहते हैं। पर हां! अज्ञानवश हमें कुछ नहीं सूझता, यह आग हमें जला डालती है, यह हमें विचलित कर देती है।


यह कैसे बंद हो, न जाने किस चीज का कांटा था। जो कोई आके मुझे पकड़ ले तो यहां चिल्लाऊंगी, तो कौन सुनेगा? कुछ नहीं, यह न विलास-प्रेम का दोष है, न सुंदरता का दोष है, यह सब मेरे अज्ञान का दोष है, भगवान! मुझे ज्ञान दो! तुम्हीं अब मेरा उद्धार कर सकते हो। मैंने भूल की कि विधवाश्रम में गई। सदन के साथ रहकर भी मैंने भूल की। मनुष्यों से अपने उद्धार की आशा रखना व्यर्थ है। ये आप ही मेरी तरह अज्ञान में पड़े हुए हैं। ये मेरा उद्धार क्या करेंगे? मैं उसी की शरण में जाऊंगी। लेकिन कैसे जाऊं? कौन-सा मार्ग है, दो साल से धर्म-ग्रंथों को पढ़ती हूं, पर कुछ समझ में नहीं आता। ईश्वर, तुम्हें कैसे पाऊं? मुझे इस अंधकार से निकालो! तुम दिव्य हो, ज्ञानमय हो, तुम्हारे प्रकाश में संभव है, यह अंधकार विच्छिन्न हो जाए। यह पत्तियां क्यों खड़खड़ा रही हैं? कोई जानकर तो नहीं आता? नहीं, कोई अवश्य आता है।


सुमन खड़ी हो गई। उसका चित्त दृढ़ था। वह निर्भय हो गई थी।


सुमन बहुत देर तक इन्हीं विचारों में मग्न रही। इससे उसके हृदय को शांति न होती थी। आज तक उसने इस प्रकार कभी आत्म-विचार नहीं किया था। इस संकट में पड़कर उसकी सदिइच्छा जाग्रत हो गई थी।


रात बीत चुकी थी। वसंत की शीतल वायु चलने लगी। सुमन ने साड़ी समेट ली और घुटनों पर सिर रख लिया। उसे वह दिन याद आया, जब इसी ऋतु में इसी समय वह अपने पति के द्वार पर बैठी हुई सोच रही थी कि कहां जाऊं? उस समय वह विलास की आग में जल रही थी। आज भक्ति की शीतल छाया ने उसे आश्रय दिया था।


एकाएक उसकी आंखें झपक गईं। उसने देखा कि स्वामी गजानन्द मृगचर्म धारण किए उसके सामने खड़े दयापूर्ण नेत्रों से उसकी ओर ताक रहे हैं। सुमन उनके चरणों पर गिर पड़ी और दीन भाव से बोली– स्वामी! मेरा उद्धार कीजिए।


सुमन ने देखा कि स्वामीजी ने उसके सिर पर दया से हाथ फेरा और कहा– ईश्वर ने मुझे इसीलिए तुम्हारे पास भेजा है। बोलो, क्या चाहती हो, धन?


सुमन– नहीं, महाराज, धन की इच्छा नहीं।


स्वामी– भोग-विलास?


सुमन– महाराज, इसका नाम न लीजिए, मुझे ज्ञान दीजिए।


स्वामी– अच्छा तो सुनो, सतयुग में मनुष्य की मुक्ति ज्ञान से होती थी, त्रेता में सत्य से, द्वापर मंा भक्ति से, पर इस कलयुग में इसका केवल एक ही मार्ग है और वह है सेवा। इसी मार्ग पर चलो, तुम्हारा उद्घार होगा। जो लोग तुमसे भी दीन, दुखी, दलित हैं, उनकी शरण में जाओ और उनका आशीर्वाद तुम्हरा उद्धार करेगा। कलियुग में परमात्मा इसी दुखसागर में वास करते हैं।


सुमन की आंखें खुल गईं। उसने इधर-उधर देखा, उसे निश्चय था कि मैं जागती थी। इतनी जल्दी स्वामीजी कहां अदृश्य हो गए। अकस्मात् उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि सामने पेड़ों के नीचे स्वामीजी लालटेन लिए खड़े हैं। वह उठकर लंगडा़ती उनकी ओर चली। उसने अनुमान किया था कि वृक्ष समूह सौ गज के अंतर पर होगा, पर वह सौ के बदले दो सौ, तीन सौ, चार सौ गज चली गई और वह वृक्षपुंज और उनके नीचे स्वामीजी लालटेन लिए हुए उतनी ही दूर खड़े थे।


सुमन को भ्रम हुआ, मैं सो तो नहीं रही हूं? यह कोई स्वप्न तो नहीं है? इतना चलने पर भी वह उतनी ही दूर है। उसने जोर से चिल्लाकर कहा– महाराज, आती हूं, आप जरा ठहर जाइए।


उसके कानों में शब्द सुनाई दिए– चली आओ, मैं खड़ा हूं।


सुमन फिर चली, पर दो सौ कदम चलने पर वह थककर बैठ गई। वह वृक्षसमूह और स्वामीजी ज्यों-के-त्यों सामने सौ गज की दूरी पर खड़े थे।


भय से सुमन के रोएं खड़े हो गए। उसकी छाती धड़कने लगी और पैर थर-थर कांपने लगे। उसने चिल्लाना चाहा, पर आवाज न निकली।


सुमन ने सावधान होकर विचार करना चाहा कि यह क्या रहस्य है, मैं कोई प्रेत-लीला तो नहीं देख रही हूं, लेकिन कोई अज्ञात शक्ति उसे उधर खींचे लिए जाती थी, मानों इच्छा-शक्ति मन को छोड़कर उसी रहस्य के पीछे दौड़ी जाती है।


सुमन फिर चली। अब वह शहर के निकट आ गई थी। उसने देखा कि स्वामीजी एक छोटी-सी झोंपड़ी में चले गए और वृक्ष-समूह अदृश्य हो गया। सुमन ने समझा, यही उनकी कुटी है। उसे बड़ा धीरज हुआ। अब स्वामीजी से अवश्य भेंट होगी। उन्हीं से यह रहस्य खुलेगा।


उसने कुटी के द्वार पर जाकर कहा– स्वामीजी, मैं हूं सुमन!


यह कुटी गजानन्द की ही थी, पर वह सोए हुए थे। सुमन को कुछ जवाब न मिला।


सुमन ने साहस करके कुटी में झांका। आग जल रही थी और गजानन्द कंबल ओढे़ सो रहे थे। सुमन को अचंभा हुआ कि अभी तो चले आते हैं, इतनी जल्दी सो कैसे गए और वह लालटेन कहां चली गई? जोर से पुकारा– स्वामीजी!


गजानन्द उठ बैठे और विस्मित नेत्रों से सुमन को देखा। वह एक मिनट तक ध्यानपूर्वक उसे देखते रहे। तब बोले– कौन? सुमन!


सुमन– हां महाराज, मैं हूं।


गजानन्द– मैं अभी-अभी तुम्हें स्वप्न में देख रहा था।


सुमन ने चकित होकर कहा– आप तो अभी-अभी कुटी में आए हैं।


गजानन्द– नहीं मुझे सोए बहुत देर हुई, मैं तो कुटी से निकला नहीं। अभी स्वप्न में तुम्हीं को देख रहा था।


सुमन– और मैं आप ही के पीछे-पीछे गंगा किनारे से चली आ रही हूं। आप लालटेन लिए मेरे सामने चले आते थे।


गजानन्द ने मुस्कुराकर कहा– तुम्हें धोखा हुआ।


सुमन– धोखा होता, तो मैं बिना देखे-सुने यहां कैसे पहुंच जाती? मैं नदी किनारे अकेले सोच रही थी कि मेरा उद्धार कैसे होगा? मैं परमात्मा से विनय कर रही थी कि मुझ पर दया करो और अपनी शरण में लो। इतने में आप वहां पहुंचे और मुझे सेवाधर्म का उपेदश दिया। मैं आपसे कितनी ही बातें पूछना चाहती थी, पर आप अदृश्य हो गए। किंतु एक क्षण में मैंने आपको लालटेन लिए थोड़ी दूर पर खड़े देखा। बस, आपके पीछे दौड़ी। यह रहस्य मेरी समझ में नहीं आता। कृपा करके मुझे समझाइए।


गजानन्द– संभव है, ऐसा ही हुआ हो, पर ये बातें अभी तुम्हारी समझ में नहीं आएंगी।


सुमन– कोई देवता तो नहीं थे, जो आपका वेश धारण करके मुझे आपकी शरण में लाए हो?


गजानन्द– यह भी संभव है। तुमने जो कहा, वही मैं स्वप्न में देख रहा था और तुम्हें सेवाधर्म का उपेदश कर रहा था। सुमन, तुम मुझे भलीभांति जानती हो, तुमने मेरे हाथों बहुत दुख उठाए हैं, बहुत कष्ट सहे हैं। तुम जानती हो, मैं कितने नीच प्रकृति का अधम जीव हूं, लेकिन अपनी उन नीचताओं का स्मरण करता हूं, तो मेरा हृदय व्याकुल हो जाता है। तुम आदर के योग्य थीं, मैंने तुम्हारा निरादर किया। यह हमारी दुरवस्था का, हमारे दुखों का मूल कारण है। ईश्वर वह दिन कब लाएगा कि हमारी जाति में स्त्रियों का आदर होगा। स्त्री मैले-कुचैल, फटे-पुराने वस्त्र पहनकर आभूषण-विहीन होकर, आधे पेट सूखी रोटी खाकर, झोंपड़े में रहकर, मेहनत-मजदूरी कर, सब कष्टों को सहते हुए भी आनंद से जीवन व्यतीत कर सकती है। केवल घर में उसका आदर होना चाहिए, उससे प्रेम होना चाहिए। आदर या प्रेम-विहीन महिला महलों में भी सुख से नहीं रह सकती, पर मैं अज्ञान, अविद्या के अंधकार में पड़ा हुआ था। अपना उद्धार करने का साधन मेरे पास न था। न ज्ञान था, न विद्या थी, न भक्ति थी, न कर्म का सामर्थ्य था। मैंने अपने बंधुओं की सेवा करने का निश्चय किया। यही मार्ग मेरे लिए सबसे सरल था। तब से मैं यथाशक्ति इसी मार्ग पर चल रहा हूं और अब मुझे अनुभव हो रहा है कि आत्मोद्धार के मार्गों में केवल नाम का अंतर है। मुझे इस मार्ग पर चलकर शांति मिली है और मैं तुम्हारे लिए भी यही मार्ग सबसे उत्तम समझता हूं। मैंने तुम्हें आश्रम में देखा, सदन के घर में देखा, तुम सेवाव्रत में मग्न थीं। तुम्हारे लिए ईश्वर से यही प्रार्थना करता था। तुम्हारे हृदय में दया है, प्रेम है, सहानुभूति है और सेवाधर्म के यही मुख्य साधन हैं। तुम्हारे लिए उसका द्वार खुला है। वह तुम्हे अपनी ओर बुला रहा है। उसमें प्रवेश करो, ईश्वर तुम्हारा कल्याण करेंगे।


सुमन को गजानन्द के मुखारविंद पर एक विमल ज्योति का प्रकाश दिखाई दिया। उसके अंतःकरण में एक अद्भुत श्रद्धा और भक्ति का भाव उदय हुआ। उसने सोचा, इनकी आत्मा में कितनी दया और प्रेम है। हाय! मैंने ऐसे नर-रत्न का तिरस्कार किया। इनकी सेवा में रहती, तो मेरा जीवन सफल हो गया होता। बोली– महाराज, आप मेरे लिए ईश्वर रूप हैं, आपके ही द्वारा मेरा उद्घार हो सकता है। मैं अपना तन-मन आपकी सेवा में अर्पण करती हूं। यही प्रतिज्ञा एक बार मैंने की थी, पर अज्ञानतावश उसका पालन न कर सकी। वह प्रतिज्ञा मेरे हृदय से न निकली थी। आज मैं सच्चे मन से यह प्रतिज्ञा करती हूं। आपने मेरी बांह पकड़ी थी, अब यद्यपि मैं पतित हो गई हूं, पर आप अपनी उदारता से मुझे क्षमादान कीजिए और मुझे सन्मार्ग पर ले जाइए।


गजानन्द को इस समय सुमन के चेहरे पर प्रेम और पवित्रता की छटा दिखाई दी। वह व्याकुल हो गए। वह भाव, जिन्हें उन्होंने बरसों से दबा रखे थे, जाग्रत होने लगे। सुख और आनंद की नवीन भावनाएं उत्पन्न होने लगीं। उन्हें अपना जीवन शुष्क, नीरस, आनंदविहीन जान पड़ने लगा। वह इन कल्पनाओं से भयभीत हो गए। उन्हें शंका हुई कि यदि मेरे मन में यह विचार ठहर गए तो मेरा संयम, वैराग्य और सेवाव्रत इसके प्रवाह में तृण के समान बह जाएंगे। वह बोल उठे– तुम्हें मालूम है कि यहां एक अनाथालय खोला गया है?


सुमन– हां, इसकी कुछ चर्चा सुनी तो थी।


गजानन्द– इस अनाथालय में विशेषकर वही कन्याएं हैं, जिन्हें वेश्याओं ने हमें सौंपा है। कोई पचास कन्याए होंगी।


सुमन– यह आपके ही उपदेशों का फल है।


गजानन्द– नहीं, ऐसा नहीं है। इसका संपूर्ण श्रेय पंडित पद्मसिंह को है, मैं तो केवल उनका सेवक हूं। इस अनाथालय के लिए एक पवित्र आत्मा की आवश्यकता है और तुम्हीं वह आत्मा हो। मैंने बहुत ढूंढ़ा, पर कोई ऐसी महिला न मिली, जो यह काम प्रेम-भाव से करे, जो कन्याओं का माता की भांति पालन करे और अपने प्रेम से अकेली उनकी माताओं का स्थान पूरा कर दे, वह बीमार पड़े तो उनकी सेवा करे, उनके फोड़े-फुंसियां, मल-मूत्र देखकर घृणा न करे और अपने व्यवहार से उनमें धार्मिक भावों का संचार कर दे कि उनके पिछले कुसंस्कार मिट जाएं और उनका जीवन सुख से कटे। वात्सल्य के बिना यह उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। ईश्वर ने तुम्हें ज्ञान और विवेक दिया है, तुम्हारे हृदय में दया है, करुणा है, धर्म है और तुम्हीं इस कर्त्तव्य का भार संभाल सकती हो। मेरी प्रार्थना स्वीकार करोगी?


सुमन की आंखें सजल हो गईं। मेरे विषय में एक ज्ञानी महात्मा का यह विचार है, यह सोचकर उसका चित्त गद्गद् हो गया। उसे स्वप्न में भी ऐसी आशा न थी कि उस पर इतना विश्वास किया जाएगा और उसे सेवा का ऐसा महान गौरव प्राप्त होगा। उसे निश्चय हो गया कि परमात्मा ने गजानन्द को यह प्रेरणा दी है। अभी थोड़ी देर पहले वह किसी बालक को कीचड़ लपेटे देखती, तो उसकी ओर से मुंह फेर लेती, पर गजानन्द ने उस पर विश्वास करके उस घृणा को जीत लिया था, उसमें प्रेम-संचार कर दिया था। हम अपने ऊपर विश्वास करने वालों को कभी निराश नहीं करना चाहते और ऐसे बोझों को उठाने को तैयार हो जाते हैं जिन्हें हम असाध्य समझते थे। विश्वास से विश्वास उत्पन्न होता है। सुमन ने अत्यंत विनीत भाव से कहा– आपलोग मुझे इस योग्य समझते हैं, यह मेरा परम सौभाग्य है। मैं किसी के कुछ काम आ सकूं, किसी की सेवा कर सकूं, यह मेरी परम लालसा थी। आपके बताए हुए आदर्श तक मैं पहुंच न सकूंगी, पर यथाशक्ति मैं आपकी आज्ञा का पालन करूंगी। यह कहते-कहते सुमन चुप हो गई। उसका सिर झुक गया और आंखें डबडबा आईं। उसकी वाणी से जो कुछ न हो सकता, वह उसके मुख के भाव ने प्रकट कर दिया। मानों वह कह रही थी, यह आपकी असीम कृपा है, जो आप मुझ पर ऐसा विश्वास करते हैं! कहां मुझ जैसी नीच, दुश्चरित्रा और कहां यह महान पद। पर ईश्वर ने चाहा, तो आपको इस विश्वासदान के लिए पछताना न पडे़गा।


गजानन्द ने कहा– मुझे तुमसे ऐसी ही आशा थी। परमात्मा कल्याण करे।


यह कहकर गजानन्द उठ खड़े हुए। पौ फट रही थी, पपीहे की ध्वनि सुनाई दे रही थी। उन्होंने अपना कमंडल उठाया और गंगा-स्नान करने चले गए।


सुमन ने कुटी के बाहर निकलकर देखा, जैसे हम नींद से जागकर देखते हैं। समय कितना सुहावना है, कितना शांतिमय, कितना उत्साहपूर्ण! क्या उसका भविष्य भी ऐसा ही होगा? क्या उसके भविष्य-जीवन का भी प्रभात होगा? उसमें भी कभी ऊषा की झलक दिखाई देगी? कभी सूर्य का प्रकाश होगा। हां, होगा और यह सुहावना शांतिमय प्रभात आने वाले दिन रूपी जीवन का प्रभात है।


56

एक साल बीत गया। पंडित मदनसिंह पहले तीर्थ यात्रा पर उधार खाए बैठे थे। जान पड़ता था, सदन के घर आते ही एक दिन भी न ठहरेंगे, सीधे बद्रीनाथ पहुंचकर दम लेंगे, पर जब से सदन आ गया है, उन्होंने भूलकर भी तीर्थ-यात्रा का नाम नहीं लिया। पोते को गोद में लिए असामियों का हिसाब करते हैं, खेतों की निगरानी करते हैं। माया ने और भी जकड़ लिया है। हां, भामा अब कुछ निश्चिंत हो गई है। पड़ोसियों से वार्तालाप करने का कर्त्तव्य अपने सिर से नहीं हटाया। शेष कार्य उसने शान्ता पर छोड़ दिए हैं।


पंडित पद्मसिंह ने वकालत छोड़ दी। अब वह म्युनिसिपैलिटी के प्रधान कर्मचारी हैं। इस काम से उन्हें बहुत रुचि है। शहर दिनों-दिन उन्नति कर रहा है। साल के भीतर ही कई नई सड़कें, नए बाग तैयार हो गए हैं, अब उनका इरादा है इक्के और गाड़ी वालों के लिए शहर के बाहर एक मुहल्ला बनवा दें। शर्माजी के कई पहले के मित्र अब उनके विरोधी हो गए हैं और पहले के कितने ही विरोधियों से मेल हो गया है, किंतु महाशय विट्ठलदास पर उनकी श्रद्धा दिनोंदिन बढ़ती जाती है। वह बहुत चाहते हैं कि महाशय को म्युनिसिपैलिटी में कोई अधिकार दें, पर विट्ठलदास राजी नहीं होते। वह निःस्वार्थ कर्म की प्रतिज्ञा को नहीं तोड़ना चाहते। उनका विचार है कि अधिकारी बनकर वह इतना हित नहीं कर सकते, जितना पृथक रहकर कर सकते हैं। उनका विधवाश्रम इन दिनों बहुत उन्नति पर है और म्युनिसिपैलिटी से उसे विशेष सहायता मिलती है। आजकल वह कृषकों की सहायता के लिए एक कोष स्थापित करने का उद्योग कर रहे हैं, जिससे किसानों को बीज और रुपए नाममात्र सूद पर उधार दिए जा सकें, इस सत्कार्य में सदन बाबू विट्ठलदास का दाहिना हाथ बना हुआ है।


सदन का अपने गांव में मन नहीं लगा। वह शान्ता को वहां छोड़कर फिर गंगा किनारे के झोंपड़े में आ गया है और उस व्यवसाय को खूब बढ़ा रहा है। उसके पास अब पांच नावें हैं और सैकड़ों रुपए महीने का लाभ हो रहा है। वह अब एक स्टीमर मोल लेने का विचार कर रहा है।


स्वामी गजानन्द अधिकतर देहातों में रहते हैं। उन्होंने निर्धनों की कन्याओं का उद्धार करने के निमित्त अपना जीवन अर्पण कर दिया है। शहर में आते हैं, तो दो-एक दिन से अधिक नहीं ठहरते।


57

कार्तिक का महीना था। पद्मसिंह सुभद्रा को लेकर गंगा-स्नान कराने ले गए थे। लौटती बार वह अलईपुर की ओर से आ रहे थे। सुभद्रा गाड़ी की खिड़की से बाहर झांकती चली आती थी और सोचती थी कि यहाँ इस सन्नाटे में लोग कैसे रहते हैं। उनका मन कैसे लगता है। इतने में उसे एक सुंदर भवन दिखाई पड़ा, जिसके फाटक पर मोटे अक्षरों में लिखा था– सेवासदन।


सुभद्रा ने शर्माजी से पूछा– क्या यही सुमनबाई का सेवासदन है?


शर्माजी ने कुछ उदासीन भाव से कहा– हां।


वह पछता रहे थे कि इस रास्ते से क्यों आए? यह अब अवश्य ही इस आश्रम को देखेगी। मुझे भी जाना पड़ेगा, बुरे फंसे। शर्माजी ने अब तक एक बार भी सेवासदन का निरीक्षण नहीं किया था। गजानन्द ने कितनी ही बार चाहा कि उन्हें लाएं, पर वह कोई-न-कोई बहाना कर दिया करते थे। वह सब कुछ कर सकते थे, पर सुमन के सम्मुख आना उनके लिए कठिन था। उन्हें सुमन की वे बातें कभी न भूलती थीं, जो उसने कंगन देते समय पार्क में उनसे कहीं थीं। उस समय वह सुमन से इसलिए भागते थे कि उन्हें लज्जा आती थी। उनके चित्त से यह विचार कभी दूर न होता था कि वह स्त्री, जो इतनी साध्वी तथा सच्चरित्रा हो सकती है, केवल मेरे कुसंस्कारों के कारण कुमार्ग-गामिनी बनी– मैंने ही उसे कुएं में गिराया।


सुभद्रा ने कहा– जरा गाड़ी रोक लो, इसे देखूंगी।


पद्मसिंह– आज बहुत देर होगी, फिर कभी आ जाना।


सुभद्रा– साल भर से तो आ रही हूं, पर आज तक कभी न आ सकी। यहां से जाकर फिर न जाने कब फुर्सत हो?


पद्मसिंह– तुम आप ही नहीं आईं। कोई रोकता था?


सुभद्रा– भला, जब नहीं आई तब नहीं आई। अब तो आई हूं। अब क्यों नहीं चलते?


पद्मसिंह– चलने से मुझे इंकार थोड़े ही है, केवल देर हो जाने का भय है। नौ बजते होंगे।


सुभद्रा– यहां कौन बहुत देर लगेगी, दस मिनट मैं लौट आएंगे।


पद्मसिंह– तुम्हारी हठ करने की बुरी आदत है। कह दिया कि इस समय मुझे देर होगी, लेकिन मानती नहीं हो।


सुभद्रा– जरा घोड़े को तेज कर देना, कसर पूरी हो जाएगी।


पद्मसिंह– अच्छा तो तुम जाओ। अब से संध्या तक जब जी चाहे घर लौट आना। मैं चलता हूं। गाड़ी छोड़े जाता हूं। रास्ते में कोई सवारी किराए पर कर लूंगा।


सुभद्रा– तो इसकी क्या आवश्यकता है। तुम यहीं बैठे रहो, मैं अभी लौट आती हूं।


पद्मसिंह– (गाड़ी से उतरकर) मैं चलता हूं, तुम्हारा जब जी चाहे आना।


सुभद्रा इस हीले-हवाले का कारण समझ गई। उसने ‘जगत’ में कितनी ही बार ‘सेवासदन’ की प्रशंसा पढ़ी थी। पंडित प्रभाकर राव की इन दिनों सेवासदन पर बड़ी दया-दृष्टि थी। अतएव सुभद्रा को इस आश्रम से प्रेम-सा हो गया था और सुमन के प्रति उसके हृदय में भक्ति उत्पन्न हो गई थी। वह सुमन को इस नई अवस्था में देखना चाहती थी। उसको आश्चर्य होता था कि सुमन इतने नीचे गिरकर कैसे ऐसी विदुषी हो गई कि पत्रों में प्रशंसा उसकी छपती है। उसके जी में तो आया कि पंडितजी को खूब आड़े हाथों लेस, पर साईस खड़ा था, इसलिए कुछ न बोल सकी। गाड़ी से उतरकर आश्रम में दाखिल हुई।


वह ज्यों ही बरामदे में पहुंची कि एक स्त्री ने भीतर जाकर सुमन को उसके आने की सूचना दी और एक क्षण में सुभद्रा ने सुमन को आते देखा। वह उस केशहीना, आभूषण-विहीना सुमन को देखकर चकित हो गई। उसमें न वह कोमलता थी, न वह चपलता, न वह मुस्कराती हुई आंखें, न हंसते हुए होंठ। रूप-लावण्य की जगह पवित्रता की ज्योति झलक रही थी।


सुमन निकट आकर सुभद्रा के पैरों पर गिर पड़ी और सजल नयन होकर बोली– बहूजी, आज, मेरे धन्य भाग्य हैं कि आपको यहां देख रही हूं।


सुभद्रा की आंखें भर आई। उसने सुमन को उठाकर छाती से लगा लिया और गद्गद् स्वर में कहा– बाईजी, आने का तो बहुत जी चाहता था, पर आलस्यवश अब तक न आ सकी थी।


सुमन– शर्माजी भी हैं या आप अकेले ही आई हैं?


सुभद्रा– साथ तो थे, पर उन्हें देर हो गई थी, इसलिए वह दूसरी गाड़ी करके चले गए।


सुमन ने उदास होकर कहा– देर तो क्या होती थी, पर वह यहां आना ही नहीं चाहते। मेरा अभाग्य! दुख केवल यह है कि जिस आश्रम के वह स्वयं जन्मदाता है, उससे मेरे कारण उन्हें इतनी घृणा है। मेरी हृदय से अभिलाषा थी कि एक बार आप और वह दोनों यहां आते। आधी तो आज पूरी हुई, शेष भी कभी-न-कभी पूरी होगी ही। वह मेरे उद्धार का दिन होगा।


यह कहकर सुमन ने सुभद्रा को आश्रम दिखाना शुरू किया। भवन में पांच बड़े कमरे थे। पहले कमरे में लगभग तीस बालिकाएं बैठी हुई कुछ पढ़ रही थी। उनकी अवस्था बारह वर्ष से पंद्रह तक की थी। अध्यापिका ने सुभद्रा को देखते ही आकर उससे हाथ मिलाया। सुमन ने दोनों का परिचय कराया। सुभद्रा को यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि वह महिला मिस्टर रुस्तम भाई बैरिस्टर की सुयोग्य पत्नी हैं। नित्य दो घंटे के लिए आश्रम में आकर इन युवतियों को पढ़ाया करती थीं।


दूसरे कमरे मे भी इतनी कन्याएं थीं। उनकी अवस्था आठ से लेकर बारह वर्ष तक थी। उनमें कोई कपड़े काटती थी, कोई सीती थी और कोई अपने पास वाली लड़की को चिकोटी काटती थी। यहां कोई अध्यापिका न थी। एक बूढ़ा दर्जी काम कर रहा था। सुमन ने कन्याओं के तैयार किए हुए कुर्ते, जाकेट आदि सुभद्रा को दिखाई।


तीसरे कमरे में पंद्रह-बीस छोटी-छोटी बालिकाएं थी, कोई पांच वर्ष से अधिक की थी। इनमें कोई गुड़िया खेलती थी, कोई दीवार पर लटकती हुई तस्वीरें देखती थी। सुमन आप ही इस कक्षा की अध्यापिका थी।


सुभद्रा यहां से सामने वाले बगीचे में आकर इन्हीं लड़कियों के लगाए हुए फूल-पत्ते देखने लगी। कन्याएं वहां आलू-गोभी की क्यारियों में पानी दे रही थीं। उन्होंने सुभद्रा को सुंदर फूलों का एक गुलदस्ता भेंट किया।


भोजनालय में कई कन्याएं बैठी भोजन कर रही थीं। सुमन ने सुभद्रा को इन कन्याओं के बनाए हुए अचार-मुरब्बे आदि दिखाए।


सुभद्रा को यहां का सुप्रबंध, शांति और कन्याओं का शील-स्वभाव देखकर बड़ा आनंद हुआ। उसने मन में सोचा, सुमन इतने बड़े आश्रम को अकेले कैसे चलाती होगी, मुझसे तो कभी न हो सकता। कोई लड़की मलिन या उदास नहीं दिखाई देती।


सुमन ने कहा– मैंने यह भार अपने ऊपर ले तो लिया, पर मुझमें संभालने की शक्ति नहीं है। लोग जो सलाह देते हैं, वही मेरा आधार है। आपको भी जो कुछ त्रुटि दिखाई दे, वह कृपा करके बता दीजिए, इससे मेरा उपकार होगा।


सुभद्रा ने हंसकर कहा– बाईजी, मुझे लज्जति न करो। मैंने तो जो कुछ देखा है, उसी से चकित हो रही हूं, तुम्हें सलाह क्या दूंगी? बस, इतना ही कह सकती हूं कि ऐसा अच्छा प्रबंध विधवा-आश्रम का भी नहीं है।


सुमन– आप संकोच कर रही हैं।


सुभद्रा– नहीं, सत्य कहती हूं। मैंने जैसा सुना था, इसे उससे बढ़कर पाया! हां, यह तो बताओ, इन बालिकाओं की माताएं इन्हें देखने आती हैं या नहीं?


सुमन– आती हैं, पर मैं यथासाध्य इस मेल-मिलाप को रोकती हूं।


सुभद्रा– अच्छा, इनका विवाह कहां होगा?


सुमन-यह तो टेढ़ी खीर है। हमारा कर्त्तव्य यह है कि इन कन्याओं को चतुर गृहिणी बनने के योग्य बना दें। उनका आदर समाज करेगा या नहीं, मैं नहीं कह सकती।


सुभद्रा– बैरिस्टर साहब की पत्नी को इस काम में बड़ा प्रेम है।


सुमन– यह कहिए कि आश्रम की स्वामिनी वही हैं। मैं तो केवल उनकी आज्ञाओं का पालन करती हूं।


सुभद्रा– क्या कहूं, मैं किसी योग्य नहीं, नहीं तो मैं भी यहां कुछ काम किया करती।


सुमन– आते-आते तो आप आज आई हैं, उस पर शर्माजी को नाराज करके। शर्माजी फिर इधर आने तक न देंगे।


सुभद्रा– नहीं। अब की इतवार को मैं उन्हें अवश्य खींच लाऊंगी। बस, मैं लड़कियों को पान लगाना और खाना सिखाया करूंगी।


सुमन– (हंसकर) इस काम में आप कितनी ही लड़कियों को अपने से भी निपुण पाएंगी।


इतने में दस लड़कियां सुंदर वस्त्र पहने हुए आईं और सुभद्रा के सामने खड़ी होकर मधुर स्वर में गाने लगीं :


हे जगत पिता, जगत प्रभु, मुझे अपना प्रेम और प्यार दे।


तेरी भक्ति में लगे मन मेरा, विषय कामना को बिसार दे।


सुभद्रा यह गीत सुनकर बहुत प्रसन्न हुई और लड़कियों को पांच रुपए इनाम दिया।


जब वह चलने लगी, तो सुमन ने करुण स्वर में कहा– मैं इसी रविवार को आपकी राह देखूंगी।


सुभद्रा– मैं अवश्य आऊंगी।


सुमन– शान्ता तो कुशल से है?


सुभद्रा– हां, पत्र आया था। सदन तो यहां नहीं आए?


सुमन– नहीं, पर दो रुपए मासिक चंदा भेज दिया करते हैं।


सुभद्रा– अब आप बैठिए, मुझे आज्ञा दीजिए।


सुमन– आपके आने से मैं कृतार्थ हो गई। आपकी भक्ति, आपका प्रेम, आपकी कार्यकुशलता, किस-किसकी बड़ाई करूं। आप वास्तव में स्त्री-समाज का श्रृंगार हैं। (सजल नेत्रों से) मैं तो अपने को आपकी दासी समझती हूं। जब तक जीऊंगी, आप लोगों का यश मानती रहूंगी। मेरी बांह पकड़ी और मुझे डूबने से बचा लिया। परमात्मा आपलोगों का सदैव कल्याण करें।


।। समाप्त ।।


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