लेखक का परिचय


सत्यदेव परिव्राजक

स्वामी सत्यदेव परिव्राजक का जन्म 1879 ई में लुधियाना (पंजाब) में एक थापर (खत्री) परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम सुख दयाल था। उनके पिता का नाम कुन्दन लाल था।
सुख दयाल की इन्ट्रैन्स तक की शिक्षा लाहौर के दयानन्द ऐंग्लो वैदिक कॉलेज से हुई। इसके बाद उन्होने अपना जीवन मानवता की सेवा एवं समाज-सुधार में लगाया। उन्होंने महानन्द से संस्कृत का गहन अध्ययन किया। वे धार्मिक मामलों में स्वामी रामतीर्थ से तथा राजनैतिक मामलों में लाला लाजपत राय एवं गोपाल कृष्ण गोखले से अत्यधिक प्रभावित थे। 
सन 1905 में स्वामी श्रद्धानन्द की सलाह पर वे उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका चले गए। वहाँ उन्होने एक वर्ष तक शिकागो विश्वविद्यालय में तथा उसके बाद ओरेगोन विश्वविद्यालय में अध्ययन किया। 1907 के अन्त में वे सीटिल चले गए जहाँ वे नवम्बर 1908 तक रहे। वहाँ उनकी भेंट 'लिबरेटर' नामक पत्र के सम्पादक ई एच जेम्स से हुई और वे इस पत्र के लिए लगातार लिखते रहे।

1910 में वे घूमते-घूमते वाशिंगटन और बर्कली पहुँचे। 1911 में पिट्सबर्ग होते हुए न्यूयॉर्क पहुँचे। जून 1911 में पेरिस पहुँचे। वहाँ से जेनेवा गए। फिर तूतीकोरीन आ गए जहाँ से प्रयागराज पहुँचे और अभ्युदय के सम्पादक के यहाँ रहे।

वर्ष 1913 में स्वामी सत्यदेव परिव्राजक अल्मोड़ा पहंचे और उन्होंने 'शुद्ध साहित्य समिति' की स्थापना की। दक्षिण भारत में प्रथम हिन्दी वर्ग सन 1918 ई में महात्मा गाँधी जी के सपुत्र देवदास गांधी ने शुरू किया। उनके साथ स्व. स्वामी सत्यदेव परिव्राजक भी दक्षिण के हिन्दी प्रचार के कार्य में लग गए।

अमेरिका से लौटकर स्वामी सत्यदेव परिव्राजक ने संन्यास ले लिया था। गांधी की प्रेरणा से दक्षिण भारत में हिंदी का प्रचार भी करते थे। जब अहमदाबाद में गांधी का आश्रम स्थापित हुआ तो वहां स्वामी सत्यदेव परिव्राजक जी का आगमन हुआ था। वे जब गांधी के आश्रम में पहुंचे तो उन्होंने गांधी से कहा कि वे आश्रम में दाखिल होना चाहते हैं। गांधी ने कहा- ‘अच्छी बात है। आश्रम तो आप जैसों के लिए ही है। किंतु आश्रमवासी बनने पर आपको ये गेरुए कपड़े उतारने पड़ेंगे।’ वे जब बहुत नाराज हुए तो गांधी ने उन्हें शांति से समझाया- ‘हमारे देश में गेरुए कपड़े देखते ही लोग भक्ति और सेवा करने लगते हैं। अब हमारा काम सेवा करने का है। लोगों की हम जैसे सेवा करना चाहते हैं, वैसी सेवा वे आपसे इन कपड़ों के कारण नहीं लेंगे। उलटे आपकी सेवा करने के लिए ही दौड़ पड़ेंगे। तो जो चीज हमारी सेवा के संकल्प में बाधक हो, उसे क्यों रखें? संन्यास तो मानसिक चीज है, संकल्प की वस्तु है। बाह्य पोशाक से उसका क्या संबंध है? गेरुआ छोड़ने से कोई संन्यास थोड़े ही छूटता है। कल उठकर अगर हम देहात में गए और वहां की टट्टियां साफ करने लगे तो गेरुए कपड़े के साथ कोई आपको वह काम नहीं करने देगा।’ सत्यदेव को बात तो समझ आई लेकिन वे गांधी की बात को मानने के लिए तैयार नहीं हुए। इस कारण उन्हें स्थायी रूप से आश्रम में रहने के लिए भी अनुमति नहीं प्राप्त हो सकी।

वर्ष 1934 में स्वामी सत्यदेव महाराज गंगा नहर के तट पर स्थित पंद्रह बीघा भूमि पर "सत्यज्ञान निकेतन" नामक आश्रम बनाकर रह रहे थे। इस भूमि पर अनेक वृक्ष और बगीचे मौजूद थे। उन्होंने चाहा कि उनके जीवनकाल में यह संस्था हिंदी के उत्थान के लिए काशी नागरी प्रचारिणी सभा के पास चली जाए। उन्होने प्रचारिणी सभा के तत्कालीन अध्यक्ष सुधाकर पांडे को उन्होंने यह कीमती भूमि सौंप दी। प्रचारिणी सभा ने यहां करीब एक हजार पुस्तकों का पुस्कालय भी स्थापित किया।

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