रंगभूमि

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शहर अमीरों के रहने और क्रय-विक्रय का स्थान है। उसके बाहर की भूमि उनके मनोरंजन और विनोद की जगह है। उसके मध्यि भाग में उनके लड़कों की पाठशालाएँ और उनके मुकद़मेबाजी के अखाड़े होते हैं, जहाँ न्याय के बहाने गरीबों का गला घोंटा जाता है। शहर के आस-पास गरीबों की बस्तियाँ होती हैं। बनारस में पाँड़ेपुर ऐसी ही बस्ती है। वहाँ न शहरी दीपकों की ज्योति पहुँचती है, न शहरी छिड़काव के छींटे, न शहरी जल-खेतों का प्रवाह। सड़क के किनारे छोटे-छोटे बनियों और हलवाइयों की दूकानें हैं, और उनके पीछे कई इक्केवाले, गाड़ीवान, ग्वाले और मजदूर रहते हैं। दो-चार घर बिगड़े सफेदपोशों के भी हैं, जिन्हें उनकी हीनावस्था ने शहर से निर्वासित कर दिया है। इन्हीं में एक गरीब और अंधा चमार रहता है, जिसे लोग सूरदास कहते हैं। भारतवर्ष में अंधे आदमियों के लिए न नाम की जरूरत होती है, न काम की। सूरदास उनका बना-बनाया नाम है, और भीख माँगना बना-बनाया काम है। उनके गुण और स्वभाव भी जगत्-प्रसिध्द हैं-गाने-बजाने में विशेष रुचि, हृदय में विशेष अनुराग, अध्याहत्मा और भक्ति में विशेष प्रेम, उनके स्वाभाविक लक्षण हैं। बाह्य दृष्टि बंद और अंतर्दृष्टि खुली हुई।

सूरदास एक बहुत ही क्षीणकाय, दुर्बल और सरल व्यक्ति था। उसे दैव ने कदाचित् भीख माँगने ही के लिए बनाया था। वह नित्यप्रति लाठी टेकता हुआ पक्की सड़क पर आ बैठता और राहगीरों की जान की खैर मनाता। 'दाता! भगवान् तुम्हारा कल्यान करें-' यही उसकी टेक थी, और इसी को वह बार-बार दुहराता था। कदाचित् वह इसे लोगों की दया-प्रेरणा का मंत्र समझता था। पैदल चलनेवालों को वह अपनी जगह पर बैठे-बैठे दुआएँ देता था। लेकिन जब कोई इक्का आ निकलता, तो वह उसके पीछे दौड़ने लगता, और बग्घियों के साथ तो उसके पैरों में पर लग जाते थे। किंतु हवा-गाड़ियों को वह अपनी शुभेच्छाओं से परे समझता था। अनुभव ने उसे शिक्षा दी थी कि हवागाड़ियाँ किसी की बातें नहीं सुनतीं। प्रात:काल से संध्या तक उसका समय शुभ कामनाओं ही में कटता था। यहाँ तक कि माघ-पूस की बदली और वायु तथा जेठ-वैशाख की लू-लपट में भी उसे नागा न होता था।

कार्तिक का महीना था। वायु में सुखद शीतलता आ गई थी। संध्या हो चुकी थी। सूरदास अपनी जगह पर मूर्तिवत् बैठा हुआ किसी इक्के या बग्घी के आशाप्रद शब्द पर कान लगाए था। सड़क के दोनों ओर पेड़ लगे हुए थे। गाड़ीवानों ने उनके नीचे गाड़ियाँ ढील दीं। उनके पछाईं बैल टाट के टुकड़ों पर खली और भूसा खाने लगे। गाड़ीवानों ने भी उपले जला दिए। कोई चादर पर आटा गूंधता था, कोई गोल-गोल बाटियाँ बनाकर उपलों पर सेंकता था। किसी को बरतनों की जरूरत न थी। सालन के लिए घुइएँ का भुरता काफी था। और इस दरिद्रता पर भी उन्हें कुछ चिंता नहीं थी, बैठे बाटियाँ सेंकते और गाते थे। बैलों के गले में बँधी हुई घंटियाँ मजीरों का काम दे रही थीं। गनेस गाड़ीवान ने सूरदास से पूछा-क्यों भगत, ब्याह करोगे?

सूरदास ने गर्दन हिलाकर कहा-कहीं है डौल?

गनेस-हाँ, है क्यों नहीं। एक गाँव में एक सुरिया है, तुम्हारी ही जात-बिरादरी की है, कहो तो बातचीत पक्की करूँ? तुम्हारी बरात में दो दिन मजे से बाटियाँ लगें।

सूरदास-कोई जगह बताते, जहाँ धन मिले, और इस भिखमंगी से पीछा छूटे। अभी अपने ही पेट की चिंता है, तब एक अंधी की और चिंता हो जाएगी। ऐसी बेड़ी पैर में नहीं डालता। बेड़ी ही है, तो सोने की तो हो।

गनेस-लाख रुपये की मेहरिया न पा जाओगे। रात को तुम्हारे पैर दबाएगी, सिर में तेल डालेगी, तो एक बार फिर जवान हो जाओगे। ये हड्डियाँ न दिखाई देंगी।

सूरदास-तो रोटियों का सहारा भी जाता रहेगा। ये हड्डियाँ देखकर ही तो लोगों को दया आ जाती है। मोटे आदमियों को भीख कौन देता है? उलटे और ताने मिलते हैं।

गनेस-अजी नहीं, वह तुम्हारी सेवा भी करेगी और तुम्हें भोजन भी देगी। बेचन साह के यहाँ तेलहन झाड़ेगी तो चार आने रोज पाएगी।

सूरदास-तब तो और भी दुर्गति होगी। घरवाली की कमाई खाकर किसी को मुँह दिखाने लायक भी न रहूँगा।

सहसा एक फिटन आती हुई सुनाई दी। सूरदास लाठी टेककर उठ खड़ा हुआ। यही उसकी कमाई का समय था। इसी समय शहर के रईस और महाजन हवा खाने आते थे। फिटन ज्यों ही सामने आई, सूरदास उसके पीछे 'दाता! भगवान् तुम्हारा कल्यान करें' कहता हुआ दौड़ा।

फिटन में सामने की गद्दी पर मि. जॉन सेवक और उनकी पत्नी मिसेज जॉन सेवक बैठी हुई थीं। दूसरी गद्दी पर उनका जवान लड़का प्रभु सेवक और छोटी बहन सोफ़िया सेवक थी। जॉन सेवक दुहरे बदन के गोरे-चिट्टे आदमी थे। बुढ़ापे में भी चेहरा लाल था। सिर और दाढ़ी के बाल खिचड़ी हो गए थे। पहनावा अंगरेजी था, जो उन पर खूब खिलता था। मुख आकृति से गरूर और आत्मविश्वास झलकता था। मिसेज सेवक को काल-गति ने अधिक सताया था। चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गई थीं, और उससे हृदय की संकीर्णता टपकती थी, जिसे सुनहरी ऐनक भी न छिपा सकती थी। प्रभु सेवक की मसें भीग रही थीं, छरहरा डील, इकहरा बदन, निस्तेज मुख, आँखों पर ऐनक, चेहरे पर गम्भीरता और विचार का गाढ़ा रंग नजर आता था। आँखों से करुणा की ज्योति-सी निकली पड़ती थी। वह प्रकृति-सौंदर्य का आनंद उठाता हुआ जान पड़ता था। मिस सोफ़िया बड़ी-बड़ी रसीली आँखोंवाली, लज्जाशील युवती थी। देह अति कोमल, मानो पंचभूतों की जगह पुष्पों से उसकी सृष्टि हुई हो। रूप अति सौम्य, मानो लज्जा और विनय मूर्तिमान हो गए हों। सिर से पाँव तक चेतना ही चेतना थी, जड़ का कहीं आभास तक न था।

सूरदास फिटन के पीछे दौड़ता चला आता था। इतनी दूर तक और इतने वेग से कोई मँजा हुआ खिलाड़ी भी न दौड़ सकता था। मिसेज सेवक ने नाक सिकोड़कर कहा-इस दुष्ट की चीख ने तो कान के परदे फाड़ डाले। क्या यह दौड़ता ही चला जाएगा?

मि. जॉन सेवक बोले-इस देश के सिर से यह बला न-जाने कब टलेगी? जिस देश में भीख माँगना लज्जा की बात न हो, यहाँ तक कि सर्वश्रेष्ठ जातियाँ भी जिसे अपनी जीवन-वृत्ति बना लें, जहाँ महात्माओं का एकमात्र यही आधार हो, उसके उध्दार में अभी शताब्दियों की देर है।

प्रभु सेवक-यहाँ यह प्रथा प्राचीन काल से चली आती है। वैदिक काल में राजाओं के लड़के भी गुरुकुलों में विद्या-लाभ करते समय भीख माँगकर अपना और अपने गुरु का पालन करते थे। ज्ञानियों और ऋषियों के लिए भी यह कोई अपमान की बात न थी, किंतु वे लोग माया-मोह से मुक्त रहकर ज्ञान-प्राप्ति के लिए दया का आश्रय लेते थे। उस प्रथा का अब अनुचित व्यवहार किया जा रहा है। मैंने यहाँ तक सुना है कि कितने ही ब्राह्मण, जो जमींदार हैं, घर से खाली हाथ मुकदमे लड़ने चलते हैं, दिन-भर कन्या के विवाह के बहाने या किसी सम्बंधी की मृत्यु का हीला करके भीख माँगते हैं, शाम को नाज बेचकर पैसे खड़े कर लेते हैं, पैसे जल्द रुपये बन जाते हैं, और अंत में कचहरी के कर्मचारियों और वकीलों की जेब में चले जाते हैं।

मिसेज़ सेवक-साईस, इस अंधे से कह दो, भाग जाए, पैसे नहीं हैं।

सोफ़िया-नहीं मामा, पैसे हों तो दे दीजिए। बेचारा आधो मील से दौड़ा आ रहा है, निराश हो जाएगा। उसकी आत्मा को कितना दु:ख होगा।

माँ-तो उससे किसने दौड़ने को कहा था? उसके पैरों में दर्द होता होगा।

सोफ़िया-नहीं, अच्छी मामा, कुछ दे दीजिए, बेचारा कितना हाँफ रहा है। प्रभु सेवक ने जेब से केस निकाला; किंतु ताँबे या निकिल का कोई टुकड़ा न निकला, और चाँदी का कोई सिक्का देने में माँ के नाराज होने का भय था। बहन से बोले-सोफी, खेद है, पैसे नहीं निकले। साईस, अंधे से कह दो, धीरे-धीरे गोदाम तक चला आए; वहाँ शायद पैसे मिल जाएँ।

किंतु सूरदास को इतना संतोष कहाँ? जानता था, गोदाम पर कोई भी मेरे लिए खड़ा न रहेगा; कहीं गाड़ी आगे बढ़ गई, तो इतनी मेहनत बेकार हो जाएगी। गाड़ी का पीछा न छोड़ा, पूरे एक मील तक दौड़ता चला गया। यहाँ तक कि गोदाम आ गया और फिटन रुकी। सब लोग उतर पड़े। सूरदास भी एक किनारे खड़ा हो गया, जैसे वृक्षों के बीच में ठूँठ खड़ा हो। हाँफते-हाँफते बेदम हो रहा था।

मि. जॉन सेवक ने यहाँ चमड़े की आढ़त खोल रखी थी। ताहिर अली नाम का एक व्यक्ति उसका गुमाश्ता था बरामदे में बैठा हुआ था। साहब को देखते ही उसने उठकर सलाम किया।

जॉन सेवक ने पूछा-कहिए खाँ साहब, चमड़े की आमदनी कैसी है?

ताहिर-हुजूर, अभी जैसी होनी चाहिए, वैसी तो नहीं है; मगर उम्मीद है कि आगे अच्छी होगी।

जॉन सेवक-कुछ दौड़-धूप कीजिए, एक जगह बैठे रहने से काम न चलेगा। आस-पास के देहातों में चक्कर लगाया कीजिए। मेरा इरादा है कि म्युनिसिपैलिटी के चेयरमैन साहब से मिलकर यहाँ एक शराब और ताड़ी की दूकान खुलवा दूँ। तब आस-पास के चमार यहाँ रोज आएँगे, और आपको उनसे मेल-जोल करने का मौका मिलेगा। आजकल इन छोटी-छोटी चालों के बगैर काम नहीं चलता। मुझी को देखिए, ऐसा शायद ही कोई दिन जाता होगा, जिस दिन शहर के दो-चार धनी-मानी पुरुषों से मेरी मुलाकात न होती हो। दस हजार की भी एक पालिसी मिल गई, तो कई दिनों की दौड़धूप ठिकाने लग जाती है।

ताहिर-हुजूर, मुझे खुद फिक्र है। क्या जानता नहीं हूँ कि मालिक को चार पैसे का नफा न होगा, तो वह यह काम करेगा ही क्यों? मगर हुजूर ने मेरी जो तनख्वाह मुकर्रर की है, उसमें गुजारा नहीं होता। बीस रुपये का तो गल्ला भी काफी नहीं होता, और सब जरूरतें अलग। अभी आपसे कुछ कहने की हिम्म्त तो नहीं पड़ती; मगर आपसे न कहूँ, तो किससे कहूँ?

जॉन सेवक-कुछ दिन काम कीजिए, तरक्की होगी न। कहाँ है आपका हिसाब-किताब लाइए, देखूँ।

यह कहते हुए जॉन सेवक बरामदे में एक टूटे हुए मोढ़े पर बैठ गए। मिसेज सेवक कुर्सी पर बैठीं। ताहिर अली ने हिसाब की बही सामने लाकर रख दी। साहब उसकी जाँच करने लगे। दो-चार पन्ने उलट-पलटकर देखने के बाद नाक सिकोड़कर बोले-अभी आपको हिसाब-किताब लिखने का सलीका नहीं है, उस पर आप कहते हैं, तरक्की कर दीजिए। हिसाब बिलकुल आईना होना चाहिए; यहाँ तो कुछ पता नहीं चलता कि आपने कितना माल खरीदा, और कितना माल रवाना किया। खरीदार को प्रति खाता एक आना दस्तूरी मिलती है, वह कहीं दर्ज ही नहीं है!

ताहिर-क्या उसे भी दर्ज कर दूँ?

जॉन सेवक-क्यों, वह मेरी आमदनी नहीं है?

ताहिर-मैंने तो समझा कि वह मेरा हक है।

जॉन सेवक-हरगिज नहीं, मैं आप पर गबन का मामला चला सकता हूँ। (त्योरियाँ बदलकर) मुलाजिमों का हक है! खूब! आपका हक तनख्वाह, इसके सिवा आपको कोई हक नहीं है।

ताहिर-हुजूर, अब आइंदा ऐसी गलती न होगी।

जॉन सेवक-अब तक आपने इस मद में जो रकम वसूल की है, वह आमदनी में दिखाइए। हिसाब-किताब के मामले में मैं जरा भी रिआयत नहीं करता।

ताहिर-हुजूर, बहुत छोटी रकम होगी।

जॉन सेवक-कुछ मुजायका नहीं, एक ही पाई सही; वह सब आपको भरनी पड़ेगी। अभी वह रकम छोटी है, कुछ दिनों में उसकी तादाद सैकड़ों तक पहुँच जाएगी। उस रकम से मैं यहाँ एक संडे-स्कूल खोलना चाहता हूँ। समझ गए? मेम साहब की यह बड़ी अभिलाषा है। अच्छा चलिए, वह जमीन कहाँ है जिसका आपने जिक्र किया था?

गोदाम के पीछे की ओर एक विस्तृत मैदान था। यहाँ आस-पास के जानवर चरने आया करते थे। जॉन सेवक यह जमीन लेकर यहाँ सिगरेट बनाने का एक कारखाना खोलना चाहते थे। प्रभु सेवक को इसी व्यवसाय की शिक्षा प्राप्त करने के लिए अमेरिका भेजा था। जॉन सेवक के साथ प्रभु सेवक और उनकी माता भी जमीन देखने चलीं। पिता और पुत्र ने मिलकर जमीन का विस्तार नापा। कहाँ कारखाना होगा, कहाँ गोदाम, कहाँ दफ्तर, कहाँ मैनेजर का बँगला, कहाँ श्रमजीवियों के कमरे, कहाँ कोयला रखने की जगह और कहाँ से पानी आएगा, इन विषयों पर दोनों आदमियों में देर तक बातें होती रहीं। अंत में मिस्टर सेवक ने ताहिर अली से पूछा-यह किसकी जमीन है?

ताहिर-हुजूर, यह तो ठीक नहीं मालूम, अभी चलकर यहाँ किसी से पूछ लूँगा, शायद नायकराम पंडा की हो।

साहब-आप उससे यह जमीन कितने में दिला सकते हैं?

ताहिर-मुझे तो इसमें भी शक है कि वह इसे बेचेगा भी।

जॉन सेवक-अजी, बेचेगा उसका बाप, उसकी क्या हस्ती है? रुपये के सत्तारह आने दीजिए, और आसमान के तारे मँगवा लीजिए। आप उसे मेरे पास भेज दीजिए, मैं उससे बातें कर लूँगा।

प्रभु सेवक-मुझे तो भय है कि यहाँ कच्चा माल मिलने में कठिनाई होगी। इधर लोग तम्बाकू की खेती कम करते हैं।

जॉन सेवक-कच्चा माल पैदा करना तुम्हारा काम होगा। किसान को ऊख या जौ-गेहूँ से कोई प्रेम नहीं होता। वह जिस जिन्स के पैदा करने में अपना लाभ देखेगा वही पैदा करेगा। इसकी कोई चिंता नहीं है। खाँ साहब, आप उस पण्डे को मेरे पास कल जरूर भेज दीजिएगा।

ताहिर-बहुत खूब, उसे कहूँगा।

जान सेवक-कहूँगा नहीं, उसे भेज दीजिएगा। अगर आपसे इतना भी न हो सका, तो मैं समझूँगा, आपको सौदा पटाने का जरा भी ज्ञान नहीं।

मिसेज सेवक-(अंगरेजी में) तुम्हें इस जगह पर कोई अनुभवी आदमी रखना चाहिए था।

जान सेवक-(अंगरेजी में) नहीं, मैं अनुभवी आदमियों से डरता हूँ। वे अपने अनुभव से अपना फायदा सोचते हैं, तुम्हें फायदा नहीं पहुँचाते। मैं ऐसे आदमियों से कोसों दूर रहता हूँ।

ये बातें करते हुए तीनों आदमी फिटन के पास गए। पीछे-पीछे ताहिर अली भी थे। यहाँ सोफ़िया खड़ी सूरदास से बातें कर रही थी। प्रभु सेवक को देखते ही बोली-'प्रभु, यह अंधा तो कोई ज्ञानी पुरुष जान पड़ता है, पूरा फिलासफर है।'

मिसेज़ सेवक-तू जहाँ जाती है, वहीं तुझे कोई-न-कोई ज्ञानी आदमी मिल जाता है। क्यों रे अंधे, तू भीख क्यों माँगता है? कोई काम क्यों नहीं करता?

सोफ़िया-(अंगरेजी में) मामा, यह अंधा निरा गँवार नहीं है।

सूरदास को सोफ़िया से सम्मान पाने के बाद ये अपमानपूर्ण शब्द बहुत बुरे मालूम हुए। अपना आदर करनेवाले के सामने अपना अपमान कई गुना असह्य हो जाता है। सिर उठाकर बोला-भगवान् ने जन्म दिया है, भगवान् की चाकरी करता हूँ। किसी दूसरे की ताबेदारी नहीं हो सकती।

मिसेज़ सेवक-तेरे भगवान् ने तुझे अंधा क्यों बना दिया? इसलिए कि तू भीख माँगता फिरे? तेरा भगवान् बड़ा अन्यायी है।

सोफ़िया-(अंगरेजी में) मामा, आप इसका अनादर क्यों कर रही हैं कि मुझे शर्म आती है।

सूरदास-भगवान् अन्यायी नहीं है, मेरे पूर्व-जन्म की कमाई ही ऐसी थी। जैसे कर्म किए हैं, वैसे फल भोग रहा हूँ। यह सब भगवान् की लीला है। वह बड़ा खिलाड़ी है। घरौंदे बनाता-बिगाड़ता रहता है। उसे किसी से बैर नहीं। वह क्यों किसी पर अन्याय करने लगा?

सोफ़िया-मैं अगर अंधी होती, तो खुदा को कभी माफ न करती।

सूरदास-मिस साहब, अपने पाप सबको आप भोगने पड़ते हैं, भगवान का इसमें कोई दोष नहीं।

सोफ़िया-मामा, यह रहस्य मेरी समझ में नहीं आता। अगर प्रभु ईसू ने अपने रुधिर से हमारे पापों का प्रायश्चित्त कर दिया, तो फिर ईसाई समान दशा में क्यों नहीं हैं? अन्य मतावलम्बियों की भाँति हमारी जाति में अमीर-गरीब, अच्छे-बुरे, लँगड़े-लूले, सभी तरह के लोग मौजूद हैं। इसका क्या कारण है?

मिसेज़ सेवक ने अभी कोई उत्तर न दिया था कि सूरदास बोल उठा-मिस साहब, अपने पापों का प्रायश्चित्त हमें आप करना पड़ता है। अगर आज मालूम हो जाए कि किसी ने हमारे पापों का भार अपने सिर ले लिया, तो संसार में अंधेर मच जाए।

मिसेज़ सेवक-सोफी, बड़े अफसोस की बात है कि इतनी मोटी-सी बात तेरी समझ में नहीं आती, हालाँकि रेवरेंड पिम ने स्वयं कई बार तेरी शंका का समाधान किया है।

प्रभु सेवक-(सूरदास से) तुम्हारे विचार में हम लोगों को वैरागी हो जाना चाहिए। क्यों?

सूरदास-हाँ जब तक हम वैरागी न होंगे, दु:ख से नहीं बच सकते।

जॉन सेवक-शरीर में भभूत मलकर भीख माँगना स्वयं सबसे बड़ा दु:ख है; यह हमें दु:खों से क्योंकर मुक्त कर सकता है?

सूरदास-साहब, वैरागी होने के लिए भभूत लगाने और भीख माँगने की जरूरत नहीं। हमारे महात्माओं ने तो भभूत लगाने ओर जटा बढ़ाने को पाखंड बताया है। वैराग तो मन से होता है। संसार में रहे, पर संसार का होकर न रहे। इसी को वैराग कहते हैं।

मिसेज़ सेवक-हिंदुओं ने ये बातें यूनान के ैजवपबे से सीखी हैं; किंतु यह नहीं समझते कि इनका व्यवहार में लाना कितना कठिन है। यह हो ही नहीं सकता कि आदमी पर दु:ख-सुख का असर न पड़े। इसी अंधे को अगर इस वक्त पैसे न मिलें, तो दिल में हजारों गालियाँ देगा।

जॉन सेवक-हाँ, इसे कुछ मत दो, देखो, क्या कहता है। अगर जरा भी भुन-भुनाया, तो हंटर से बातें करूँगा। सारा वैराग भूल जाएगा। माँगता है भीख धोले-धोले के लिए मीलों कुत्तों की तरह दौड़ता है, उस पर दावा यह है कि वैरागी हूँ। (कोचवान से) गाड़ी फेरो, क्लब होते हुए बँगले चलो।

सोफ़िया-मामा, कुछ तो जरूर दे दो, बेचारा आशा लगाकर इतनी दूर दौड़ा आया था।

प्रभु सेवक-ओहो, मुझे तो पैसे भुनाने की याद ही न रही।

जॉन सेवक-हरगिज नहीं, कुछ मत दो, मैं इसे वैराग का सबक देना चाहता हूँ।

गाड़ी चली। सूरदास निराशा की मूर्ति बना हुआ अंधी आँखों से गाड़ी की तरफ ताकता रहा, मानो उसे अब भी विश्वास न होता था कि कोई इतना निर्दयी हो सकता है। वह उपचेतना की दशा में कई कदम गाड़ी के पीछे-पीछे चला। सहसा सोफ़िया ने कहा-सूरदास, खेद है, मेरे पास इस समय पैसे नहीं हैं। फिर कभी आऊँगी, तो तुम्हें इतना निराश न होना पड़ेगा।

अंधे सूक्ष्मदर्शी होते हैं। सूरदास स्थिति को भलीभाँति समझ गया। हृदय को क्लेश तो हुआ, पर बेपरवाही से बोला-मिस साहब, इसकी क्या चिंता? भगवान् तुम्हारा कल्याण करें। तुम्हारी दया चाहिए, मेरे लिए यही बहुत है।

सोफ़िया ने माँ से कहा-मामा, देखा आपने, इसका मन जरा भी मैला नहीं हुआ।

प्रभु सेवक-हाँ, दु:खी तो नहीं मालूम होता।

जॉन सेवक-उसके दिल से पूछो।

मिसेज़ सेवक-गालियाँ दे रहा होगा।

गाड़ी अभी धीरे-धीरे चल रही थी। इतने में ताहिर अली ने पुकारा-हुजूर, यह जमीन पंडा की नहीं, सूरदास की है। यह कह रहे हैं।

साहब ने गाड़ी रुकवा दी, लज्जित नेत्रों से मिसेज सेवक को देखा, गाड़ी से उतरकर सूरदास के पास आए, और नम्र भाव से बोले-क्यों सूरदास, यह जमीन तुम्हारी है?

सूरदास-हाँ हुजूर, मेरी ही है। बाप-दादों की इतनी ही तो निशानी बच रही है।

जॉन सेवक-तब तो मेरा काम बन गया। मैं चिंता में था कि न-जाने कौन इसका मालिक है। उससे सौदा पटेगा भी या नहीं। जब तुम्हारी है, तो फिर कोई चिंता नहीं। तुम-जैसे त्यागी और सज्जन आदमी से ज्यादा झंझट न करना पड़ेगा। जब तुम्हारे पास इतनी जमीन है, तो तुमने यह भेष क्यों बना रखा है?

सूरदास-क्या करूँ हुजूर, भगवान् की जो इच्छा है, वह कर रहा हूँ।

जॉन सेवक-तो अब तुम्हारी विपत्ति कट जाएगी। बस, यह जमीन मुझे दे दो। उपकार का उपकार, और लाभ का लाभ। मैं तुम्हें मुँह-माँगा दाम दूँगा।

सूरदास-सरकार, पुरुखों की यही निशानी है, बेचकर उन्हें कौन मुँह दिखाऊँगा?

जॉन सेवक-यहीं सड़क पर एक कुआँ बनवा दूँगा। तुम्हारे पुरुखों का नाम चलता रहेगा।

सूरदास-साहब, इस जमीन से मुहल्लेवालों का बड़ा उपकार होता है। कहीं एक अंगुल-भर चरी नहीं है। आस-पास के सब ढोर यहीं चरने आते हैं। बेच दूँगा, तो ढोरों के लिए कोई ठिकाना न रह जाएगा।

जॉन सेवक-कितने रुपये साल चराई के पाते हो?

सूरदास-कुछ नहीं, मुझे भगवान् खाने-भर को यों ही दे देते हैं, तो किसी से चराई क्यों लूँ? किसी का और कुछ उपकार नहीं कर सकता, तो इतना ही सही।

जॉन सेवक-(आश्चर्य से) तुमने इतनी जमीन यों ही चराई के लिए छोड़ रखी है? सोफ़िया सत्य कहती थी कि तुम त्याग की मूर्ति हो। मैंने बड़ों-बड़ों में इतना त्याग नहीं देखा। तुम धन्य हो! लेकिन जब पशुओं पर इतनी दया करते हो, तो मनुष्यों को कैसे निराश करोगे? मैं यह जमीन लिए बिना तुम्हारा गला न छोडूगा

सूरदास-सरकार, यह जमीन मेरी है जरूर, लेकिन जब तक मुहल्लेवालों से पूछ न लूँ, कुछ कह नहीं सकता। आप इसे लेकर क्या करेंगे?

जॉन सेवक-यहाँ एक कारखाना खोलूँगा, जिससे देश और जाति की उन्नति होगी, गरीबों का उपकार होगा, हजारों आदमियों की रोटियाँ चलेंगी। इसका यश भी तुम्हीं को होगा।

सूरदास-हुजूर, मुहल्लेवालों से पूछे बिना मैं कुछ नहीं कह सकता।

जॉन सेवक-अच्छी बात है, पूछ लो। मैं फिर तुमसे मिलूँगा। इतना समझ रखो कि मेरे साथ सौदा करने में तुम्हें घाटा न होगा। तुम जिस तरह खुश होगे, उसी तरह खुश करूँगा। यह लो (जेब से पाँच रुपये निकालकर), मैंने तुम्हें मामूली भिखारी समझ लिया था, उस अपमान को क्षमा करो।

सूरदास-हुजूर, मैं रुपये लेकर क्या करूँगा? धर्म के नाते दो-चार पैसे दे दीजिए, तो आपका कल्याण मनाऊँगा। और किसी नाते से मैं रुपये न लूँगा।

जॉन सेवक-तुम्हें दो-चार पैसे क्या दूँ? इसे ले लो, धर्मार्थ ही समझो।

सूरदास-नहीं साहब, धर्म में आपका स्वार्थ मिल गया है, अब यह धर्म नहीं रहा।

जॉन सेवक ने बहुत आग्रह किया, किंतु सूरदास ने रुपये नहीं लिए। तब वह हारकर गाड़ी पर जा बैठे।

मिसेज़ सेवक ने पूछा-क्या बातें हुईं?

जॉन सेवक-है तो भिखारी, पर बड़ा घमंडी है। पाँच रुपये देता था, न लिए।

मिसेज़ सेवक-है कुछ आशा?

जॉन सेवक-जितना आसान समझता था, उतना आसान नहीं है। गाड़ी तेज हो गई।


31

भैरों के घर से लौटकर सूरदास अपनी झोंपड़ी में आकर सोचने लगा, क्या करूँ कि सहसा दयागिरि आ गए और बोले-सूरदास, आज तो लोग तुम्हारे ऊपर बहुत गरम हो रहे हैं, इसे घमंड हो गया है। तुम इस माया-जाल में क्यों पड़े हो। क्यों नहीं मेरे साथ कहीं तीर्थयात्रा करने चलते?

सूरदास-यही तो मैं भी सोच रहा हूँ। चलो, तो मैं भी निकल पडूँ।

दयागिरि-हाँ, चलो, तब मैं मंदिर का कुछ ठिकाना कर लूँ। यहाँ कोई नहीं, जो मेरे पीछे यहाँ दिया-बत्ती तक कर दे, भोग-भाग लगाना तो दूर रहा।

सूरदास-तुम्हें मंदिर से कभी छुट्टी न मिलेगी।

दयागिरि-भाई, यह भी नहीं होता कि मंदिर को यों ही निराधार छोड़कर चला जाऊँ, फिर न जाने कब लौटूँ, तब तक तो यहाँ घास जम जाएगा।

सूरदास-तो जब तुम आप ही अभी माया में फँसे हुए हो, तो मेरा उध्दार क्या करोगे?

दयागिरि-नहीं, अब जल्दी ही चलूँगा। जरा पूजा के लिए फूल लेता आऊँ।


दयागिरि चले गए तो सूरदास फिर सोच में पड़ा-संसार की भी क्या लीला है कि होम करते हाथ जलते हैं। मैं तो नेकी करने गया था,उसका यह फल मिला। मुहल्लेवालों को विश्वास आ गया। बुरी बातों पर लोगों को कितनी जल्दी विश्वास आ जाता है! मगर नेकी-बदी कभी छिपी नहीं रहती। कभी-न-कभी तो असली बात मालूम हो ही जाएगी। हार जीत तो जिंदगानी के साथ लगी हुई है, कभी जीतूँगा, तो कभी हारूँगा, इसकी चिंता ही क्या? अभी कल बड़े-बड़ों से जीता था, आज जीत में भी हार गया। यह तो खेल में हुआ ही करता है। वह बेचारी सुभागी कहाँ जाएगी? मुहल्लेवाले तो अब उसे यहाँ रहने न देंगे, और रहेगी किसके आधार पर? कोई अपना तो हो। मैके में भी कोई नहीं है। जवान औरत अकेली कहीं रह भी नहीं सकती। जमाना खराब आया हुआ है, उसकी आबरू कैसे बचेगी? भैरो को कितना चाहती है?समझती थी कि मैं उसे मारने गया हूँ; उसे सावधान रहने के लिए कितना जोर दे रही थी! वह तो इतना प्रेम करती है, और भैरों का कभी मुँह ही सीधा नहीं होता, अभागिनी है और क्या। कोई दूसरा आदमी होता, तो उसके चरन धो-धोकर पीता; पर भैरों को जब देखो, उस पर तलवार ही खींचे रहता है। मैं कहीं चला गया, तो उसका कोई पुछत्तार भी न रहेगा। मुहल्ले के लोग उसकी छीछालेदर होते देखेंगे, और हँसेंगे! कहीं-न-कहीं डूब मरेगी, कहाँ तक संतोष करेगी। इस आँखोंवाले अंधो भैरों को तनिक भी खयाल नहीं कि मैं इसे निकाल दँगा, तो कहाँ जाएगी। कल को मुसलमान या किरिसतान हो जाएगी, तो सारे शहर में हलचल पड़ जाएगी; पर अभी उसके आदमी को कोई समझानेवाला नहीं। कहीं भरतीवालों के हाथ पड़ गई, तो पता भी न लगेगा कि कहाँ गई। सभी लोग जानकर अनजान बनते हैं।


वह यही सोचता-विचारता सड़क की ओर चला गया कि सुभागी आकर बोली-सूरे, मैं कहाँ रहूँगी?

सूरदास ने कृत्रिाम उदासीनता से कहा-मैं क्या जानूँ, कहाँ रहोगी! अभी तू ही तो भैरों से कह रही थी कि लाठी लेकर जाओ। तू क्या यह समझती थी कि मैं भैरों को मारने गया हूँ?

सुभागी-हाँ, सूरे, झूठ क्यों बोलूँ? मुझे यह खटका तो हुआ था।

सूरदास-जब तेरी समझ में मैं इतना बुरा हूँ, तो फिर मुझसे क्यों बोलती है? अगर वह लाठी लेकर आता और मुझे मारने लगता, तो तू तमासा देखती और हँसती, क्यों तुझसे तो भैरों ही अच्छा कि लाठी-लबेद लेकर नहीं आया। जब तूने मुझसे बैर ठान रखा है, तो मैं तुझसे क्यों न बैर ठानूँ?

सुभागी-(रोती हुई) सूरे, तुम भी ऐसा कहोगे, तो यहाँ कौन है, जिसकी आड़ में मैं छिन-भर भी बैठूँगी। उसने अभी मारा है, मगर पेट नहीं भरा, कह रहा है कि जाकर पुलिस में लिखाए देता हूँ। मेरे कपड़े-लत्तो सब बाहर फेंक दिए हैं। इस झोंपड़ी के सिवा अब मुझे और कहीं सरन नहीं।

सूरदास-मुझे भी अपने साथ मुहल्ले से निकलवाएगी क्या?

सुभागी-तुम जहाँ जाओगे, मैं तुम्हारे साथ चलूँगी।

सूरदास-तब तो तू मुझे कहीं मुँह दिखाने लायक न रखेगी। सब यही कहेंगे कि अंधा उसे बहकाकर ले गया।

सुभागी-तुम तो बदनामी से बच जाओगे, लेकिन मेरी आबरू कैसे बचेगी? है कोई मुहल्ले में ऐसा, जो किसी की इज्जत-आबरू जाते देखे,तो उसकी बाँह पकड़ ले? यहाँ तो एक टुकड़ा रोटी भी माँगूँ, तो न मिले। तुम्हारे सिवा अब मेरे और कोई नहीं है। पहले मैं तुम्हें आदमी समझती थी, अब देवता समझती हूँ। चाहो तो रहने दो; नहीं तो कह दो, कहीं मुँह में कालिख लगाकर जा मरूँ।

सूरदास ने देर तक चिंता में मग्न रहने के बाद कहा-सुभागी, तू आप समझदार है, जैसा जी आए, कर। मुझे तेरा खिलाना-पहनाना भारी नहीं है। अभी शहर में इतना मान है कि जिसके द्वार पर खड़ा हो जाऊँगा, वह नाहीं न करेगा। लेकिन मेरा मन कहता है कि तेरे यहाँ रहने से कल्याण न होगा। हम दोनों ही बदनाम हो जाएँगे। मैं तुझे अपनी बहन समझता हूँ, लेकिन अंधा संसार तो किसी की नीयत नहीं देखता। अभी तूने देखा, लोग कैसी-कैसी बातें करते रहे। पहले भी गाली उठ चुकी है। जब तू खुल्लमखुल्ला मेरे घर में रहेगी, तब तो अनरथ ही हो जाएगा। लोग गरदन काटने पर उतारू हो जाएँगे। बता, क्या करूँ?

सुभागी-जो चाहो करो, पर मैं तुम्हें छोड़कर कहीं न जाऊँगी।

सूरदास-यही तेरी मरजी, तो यही सही। मैं सोच रहा था, कहीं चला जाऊँ। न आँखों देखूँगा, न पीर होगी; लेकिन तेरी बिपत देखकर अब जाने की इच्छा नहीं होती। आ, पड़ी रह। जैसी कुछ सिर पर आएगी देखी जाएगी। तुझे मँझधार में छोड़ देने से बदनाम होना अच्छा है।

यह कहकर सूरदास भीख माँगने चला गया। सुभागी झोंपड़ी में आ बैठी। देखा, तो उस मुख्तसर घर की मुख्तसर गृहस्थी इधर-उधर फैली हुई थी। कहीं लुटिया औंधी पड़ी थी, कहीं घड़े लुढ़के हुए थे। महीनों से अंदर सफाई न हुई थी, जमीन पर मानो धूल बैठी हुई थी। फूस के छप्पर में मकड़ियों ने जाले लगा लिए थे। एक चिड़िया का घोंसला भी बन गया था। सुभागी सारे दिन झोंपड़े की सफाई करती रही। शाम को वही घर जो 'बिन घरनी घर भूत का डेरा' को चरितार्थ कर रहा था, साफ-सुथरा, लिपा-पुता नजर आता था कि उसे देखकर देवतों को रहने के लिए जी ललचाए। भैरों तो अपनी दूकान में चला गया था, सुभागी घर जाकर अपनी गठरी उठा लाई। सूरदास संधया समय लौटा, तो सुभागी ने थोड़ा-सा चबेना उसे जल-पान करने को दिया, लुटिया में पानी लाकर रख दिया और अंचल से हवा करने लगी। सूरदास को अपने जीवन में कभी यह सुख और शांति न नसीब हुई थी। गृहस्थी के दुर्लभ आनंद का उसे पहली बार अनुभव हुआ। दिन-भर सड़क के किनारे लू और लपट में जलने के बाद यह सुख उसे स्वर्गोपम जान पड़ा। एक क्षण के लिए उसके मन में एक नई इच्छा अंकुरित हो आई। सोचने लगा-मैं कितना अभागा हूँ। काश, यह मेरी स्त्री होती, तो कितने आनंद से जीवन व्यतीत होता! अब तो भैरों ने इसे घर से निकाल ही दिया; मैं रख लूँ, तो इसमें कौन-सी बुराई है! इससे कहूँ कैसे, न जाने अपने दिल में क्या सोचे। मैं अंधा हूँ, तो क्या आदमी नहीं हूँ! बुरा तो न मानेगी? मुझसे इसे प्रेम न होता, तो मेरी इतना सेवा क्यों करती?

मनुष्य-मात्र को, जीव-मात्र को, प्रेम की लालसा रहती है। भोग-लिप्सु प्राणियां में यह वासना का प्रकट रूप है, सरल हृदयहीन प्राणियों में शांति-भोग का।

सुभागी ने सूरदास की पोटली खोली, तो उसमें गेहूँ का आटा निकला, थोड़ा-सा चावल, कुछ चने और तीन आने पैसे। सुभागी बनिये के यहाँ से दाल लाई और रोटियाँ बनाकर सूरदास को भोजन करने को बुलाया।

सूरदास-मिठुआ कहाँ है?

सुभागी-क्या जानूँ, कहीं खेलता होगा। दिन में एक बार पानी पीने आया था, मुझे देखकर चला गया।

सूरदास-तुझसे सरमाता होगा। देख, मैं उसे बुलाए लाता हूँ।

यह कहकर सूरदास बाहर जाकर मिठुआ को पुकारने लगा। मिठुआ और दिन जब जी चाहता, घर में जाकर दाना निकाल लाता, भुनवाकर खाता; आज सारे दिन भूखों मरा। इस वक्त मंदिर में प्रसाद के लालच में बैठा हुआ था। आवाज सुनते ही दौड़ा। दोनों खाने बैठे। सुभागी ने सूरदास के सामने चावल और रोटियाँ रख दीं और मिठुआ के सामने सिर्फ चावल। आटा बहुत कम था, केवल दो रोटियाँ बन सकी थीं।

सूरदास ने कहा-मिट्ठू, और रोटी लोगे?

मिटठ्-मुझे तो रोटी मिली ही नहीं।

सूरदास-तो मुझसे ले लो। मैं चावल ही खा लूँगा।

यह कहकर सूरदास ने दोनों रोटियाँ मिट्ठू को दे दीं। सुभागी क्रुध्द होकर मिट्ठू से बोली-दिन-भर साँड की तरह फिरते हो, कहीं मजूरी क्यों नहीं करते? इसी चक्कीघर में काम करो, तो पाँच-छ: आने रोज मिलें।

सूरदास-अभी वह कौन काम करने लायक है। इसी उमिर में मजूरी करने लगेगा, तो कलेजा टूट जाएगा!

सुभागी-मजूरों के लड़कों का कलेज इतना नरम नहीं होता। सभी तो काम करने जाते हैं, किसी का कलेजा नहीं टूटता।

सूरदास-जब उसका जी चाहेगा, आप काम करेगा।

सुभागी-जिसे बिना हाथ-पैर हिलाए खाने को मिल जाए, उसकी बला काम करने जाती है।

सूरदास-ऊँह, मुझे कौन किसी रिन-धन का सोच है। माँगकर लाता हूँ, खाता हूँ। जिस दिन पौरुख न चलेगा, उस दिन देखी जाएगी। उसकी चिंता अभी से क्यों करूँ?

सुभागी-मैं इसे काम पर भेजूँगी। देखूँ, कैसे नहीं जाता। यह मुटरमरदी है कि अंधा माँगे और आँखवाले मुसंडे बैठे खाएँ। सुनते हो मिट्ठू,कल से काम करना पड़ेगा।

मिट्ठू-तेरे कहने से न जाऊँगा; दादा कहेंगे तो जाऊँगा।

सुभागी-मूसल की तरह घूमना अच्छा लगता है? इतना नहीं सूझता कि अंधा आदमी तो माँगकर लाता है, और मैं चैन से खाता हूँ। जनम-भर कुमार ही बने रहोगे?

मिट्ठू-तुझसे क्या मतलब, मेरा जी चाहेगा, जाऊँगा, न जी चाहेगा, न जाऊँगा।

इसी तरह दोनों में देर तक वाद-विवाद हुआ, यहाँ तक कि मिठुआ झल्लाकर चौके से उठ गया। सूरदास ने बहुत मनाया, पर वह खाने न बैठा। आखिर सूरदास भी आधा ही भोजन करके उठ गया।

जब वह लेटा, तो गृहस्थी का एक दूसरा चित्र उसके सामने था। यहाँ न वह शांति थी, न वह सुषमा, न वह मनोल्लास। पहले ही दिन यह कलह आरम्भ हुआ, बिस्मिल्लाह ही गलत हुई, तो आगे कौन जाने, क्या होगा। उसे सुभागी की यह कठोरता अनुचित प्रतीत होती थी। जब तक मैं कमाने को तैयार हूँ, लड़के पर क्यों गृहस्थी का बोझ डालूँ? जब मर जाऊँगा, तो उसके सिर पर जैसी पड़ेगी, वैसी झेलेगा।

वह अंकुर, वह नन्ही-सी आकांक्षा, जो संधया समय उसके हृदय में उगी थी, इस ताप के झोंके से जल गई, अंकुर सूख गया।

सुभागी को नई चिंता सवार हुई-मिठुआ को काम पर कैसे लगाऊँ? मैं कुछ उसकी लौंडी तो हूँ नहीं कि उसकी थाली धोऊँ, उसका खाना पकाऊँ और वह मटर-गस करे। मुझे भी कोई बिठाकर न खिलाएगा। मैं खाऊँ ही क्यों? जब सब काम करेंगे, तो यह क्यों छैला बना घूमेगा!

प्रात:काल जब वह झोंपड़ी से घड़ा लेकर पानी भरने निकली, तो घीसू की माँ ने देखकर छाती पर हाथ रख लिया और बोली-क्यों री, आज रात तू यहीं रही थी क्या?

सुभागी ने कहा-हाँ रही तो, फिर!

जमुनी-अपना घर नहीं था।

सुभागी-अब लात खाने की बूता नहीं है।

जमुनी-तो तू दो-चार सिर कटाकर तब चैन लेगी? इस अंधो की भी मत मारी गई है कि जान-बूझकर साँप के मुँह में उँगली देता है। भैरों गला काट लेनेवाले आदमी हैं। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है, चली जा घर।

सुभागी-उस घर में तो अब पाँव न रखूँगी, चाहे कोई मार डाले। सूरे में इतनी दया तो है कि डूबते हुए की बाँह पकड़ ली; और दूसरा यहाँ कौन है?

जमुनी-जिस घर में कोई मेहरिया नहीं, वहाँ तेरा रहना अच्छा नहीं।

सुभागी-जानती हूँ, पर किसके घर जाऊँ? तुम्हारे घर आऊँ, रहने दोगी? जो कुछ करने को कहोगी, करूँगी, गोबर पाथूँगी, भैंसों को घास-चारा दूँगी, पानी डालूँगी, तुम्हारा आटा पिसूँगी। रखोगी?

जमुनी-न बाबा, यहाँ कौन बैठे-बिठाए रार मोल ले! अपना खिलाऊँ भी, उस पर बद्दू भी बनूँ।

सुभागी-रोज गाली-मार खाया करूँ?

जमुनी-अपना मरद है, मारता ही है, तो क्या घर छोड़कर कोई निकल जाता है?

सुभागी-क्यों बहुत बढ़-बढ़कर बात करती हो जमुनी! मिल गया है बैल, जिस कल चाहती हो, बैठाती हो। रात-दिन डंडा लिए सिर पर सवार रहता, तो देखती कि कैसे घर में रहती। अभी उस दिन दूध में पानी मिलाने के लिए मारने उठा था, तो चादर लेकर मैके भागी जाती थी। दूसरों को उपदेश करना सहज नहीं है। जब अपने सिर पड़ती है, तो आँखें खुल जाती हैं।


यह कहती हुई सुभागी कुएँ पर पानी भरने चली गई। यहाँ भी उसने टीकाकारों को ऐसा ही अक्खड़ जवाब दिया। पानी लाकर बर्तन धोये,चौका लगाया और सूरदास को सड़क पर पहुँचाने चली गई। अब तक वह लाठी से टटोलता हुआ अकेले ही चला जाता था, लेकिन सुभागी से यह न देखा गया। अंधा आदमी है, कहीं गिर पड़े तो, लड़के ही दिक करते हैं। मैं बैठी ही तो हूँ। उससे फिर किसी ने कुछ न पूछा। यह स्थिर हो गया कि सूरदास ने उसे घर डाल लिया। अब व्यंग्य, निंदा, उपहास की गुंजाइश न थी। हाँ, सूरदास सबकी नजरों में गिर गया। लोग कहते-रुपये न लौटा देता, तो क्या करता। डर होगा कि सुभागी एक दिन भैरों से कह ही देगी, मैं पहले ही से क्यों न चौकन्ना हो जाऊँ। मगर सुभागी क्यों अपने घर से रुपये उड़ा ले गई? वाह! इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है? भैरों उसे रुपये-पैसे नहीं देता। मालकिन तो बुढ़िया है। सोचा होगा, रुपये उड़ा लूँ, मेरे पास कुछ पूँजी तो हो जाएगी, अपने पास कहाँ। कौन जाने, दोनों में पहले ही से साठ-गाँठ रही हो। सूरे को भला आदमी समझकर उसके पास रख आई हो। या सूरदास ने रुपये उठवा लिए हों, फिर लौटा आया हो कि इस तरह मेरा भरम बना रहेगा। अंधो पेट के बड़े गहरे होते हैं, इन्हें बड़ी दूर की सूझती है।


इस भाँति कई दिनों तक गद्देबाजियाँ हुईं।

परंतु लोगों में किसी विषय पर बहुत दिनों तक आलोचना करते रहने की आदत नहीं होती। न उन्हें इतना अवकाश होता है कि इन बातों में सिर खपाएँ, न इतनी बुध्दि ही कि इन गुत्थियों को सुलझाएँ। मनुष्य स्वभावत: क्रियाशील होते हैं, उनमें विवेचन-शक्ति कहाँ? सुभागी से बोलने-चालने, उसके साथ उठने-बैठने में किसी को आपत्तिा न रही; न कोई उससे कुछ पूछता, न आवाजें कसता। हाँ, सूरदास की मान-प्रतिष्ठा गायब हो गई। पहले मुहल्ले-भर में उसकी धाक थी, लोगों को उसकी हैसियत से कहीं अधिक उस पर विश्वास था। उसका नाम अदब के साथ लिया जाता था। अब उसकी गणना भी सामान्य मनुष्यों में होने लगी, कोई विशेषता न रही।

किंतु भैरों के हृदय में सदैव यह काँटा खटका करता था। वह किसी भाँति इस सजीव अपमान का बदला लेना चाहता था। दूकान पर बहुत कम जाता। अफसरों से शिकायत भी की गई कि यह ठेकेदार दूकान नहीं खोलता, ताड़ी-सेवियों को निराश होकर जाना पड़ता है। मादक वस्तु-विभाग के कर्मचारियों ने भैरों को निकाल देने की धमकी भी दी; पर उसने कहा, मुझे दूकान का डर नहीं, आप लोग जिसे चाहें रख लें। पर वहाँ कोई दूसरा पासी न मिला और अफसरों ने एक दूकान टूट जाने के भय से कोई सख्ती करनी उचित न समझी।


धीरे-धीरे भैरों की सूरदास ही से नहीं, मुहल्ले-भर से अदावत हो गई। उसके विचार में मुहल्लेवालों का यह धर्म था कि मेरी हिमायत के लिए खड़े हो जाते और सूरे को कोई ऐसा दंड देते कि वह आजीवन याद रखता-ऐसे मुहल्ले में कोई क्या रहे, जहाँ न्याय और अन्याय एक ही भाव बिकते हैं। कुकर्मियों से कोई बोलता ही नहीं। सूरदास अकड़ता हुआ चला जाता है। यह चुड़ैल आँखों में काजल लगाए फिरा करती है। कोई इन दोनों के मुँह में कालिख नहीं लगाता। ऐसे गाँव में तो आग लगा देनी चाहिए। मगर किसी कारण उसकी क्रियात्मक शक्ति शिथिल पड़ गई थी। वह मार्ग में सुभागी को देख लेता, तो कतराकर निकल जाता। सूरदास को देखता तो ओठ चबाकर रह जाता। वार करने की हिम्मत न होती। वह अब कभी मंदिर में भजन गाने न जाता; मेलों-तमाशों से भी उसे अरुचि हो गई, नशे का चस्का आप-ही-आप छूट गया। अपमान की तीव्र वेदना निरंतर होती रहती। उसने सोचा था, सुभागी मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाएगी, मेरे कलंक का दाग मिट जाएगा। मगर वह अभी तक वहाँ उसकी छाती पर मूँग ही नहीं दल रही थी, बल्कि उसी पुरुष के साथ विलास कर रही थी, जो उसका प्रतिद्वंद्वी था। सबसे बढ़कर दु:ख उसे इस बात का था कि मुहल्ले के लोग उन दोनों के साथ पहले ही का-सा व्यवहार करते थे, कोई उन्हें न रगेदता था, न लताड़ता था। उसे अपना अपमान सामने बैठा मुँह चिढ़ाता हुआ मालूम होता था। अब उसे गाली-गलौज से तस्कीन न हो सकती थी। वह इस फिक्र में था कि इन दोनों का काम तमाम कर दूँ। इस तरह मारूँ कि एड़ियाँ रगड़-रगड़कर मरें, पानी की बूँद भी न मिले। लेकिन अकेला आदमी क्या कर सकता है? चारों ओर निगाह दौड़ाता, पर कहीं से सहायता मिलने की आशा न दिखाई देती। मुहल्ले में ऐसे जीवट का कोई आदमी न था। सोचते-सोचते उसे खयाल आया कि अंधो ने चतारी के राजा साहब को बहुत बदनाम किया था। कारखानेवाले साहब को भी बदनाम करता फिरता था। इन्हीं लोगों से चलकर फरियाद करूँ। अंधो से दिल में तो दोनों खार खाते ही होंगे, छोटे के मुँह लगना अपनी मर्यादा के विरुध्द समझकर चुप रह गए होंगे। मैं जो सामने खड़ा हो जाऊँगा, तो मेरी आड़ से वे जरूर निशाना मारेंगे। बड़े आदमी हैं, वहाँ तक पहुँचना मुश्किल है; लेकिन जो कहीं मेरी पहुँच हो गई और उन्होंने मेरी सुन ली, तो फिर इन बच्चा की ऐसी खबर लेंगे कि सारा अंधापन निकल जाएगा। (अंधोपन के सिवा यहाँ और रखा ही क्या था।)


कई दिनों तक वह इसी हैस-बैस में पड़ा रहा कि उन लोगों के पास कैसे पहुँचूँ। जाने की हिम्मत न पड़ती थी। कहीं उलटे मुझी को मार बैठें, निकलवा दें तो और भी भद्द हो। आखिर एक दिन दिल मजबूत करके वह राजा साहब के मकान पर गया, और साईस के द्वार पर जाकर खड़ा हो गया। साईस ने देखा, तो कर्कश कंठ से बोला-कौन हो! यहाँ क्या उचक्कों की तरह झाँक रहे हो?

भैरों ने बड़ी दीनता से कहा-भैया, डाँटो मत, गरीब-दुखी आदमी हूँ।

साईस-गरीब दुखियारे हो, तो किसी सेठ-साहूकार के घर जाते, यहाँ क्या रखा है?

भैरों-गरीब हूँ, लेकिन भिखमंगा नहीं हूँ। इज्जत-आबरू सभी की होती है। तुम्हारी ही बिरादरी में कोई किसी की बहू-बेटी को लेकर निकल जाए, तो क्या उसे पंचाइत यों ही छोड़ देगी? कुछ-न-कुछ दंड देगी ही। पंचाइत न देगी, तो अदालत-कचहरी से तो कुछ होगा।

साईस जात का चमार था, जहाँ ऐसी दुर्घटनाएँ आए दिन होती रहती हैं, और बिरादरी को उनकी बदौलत नशा-पानी का सामान हाथ आता रहता है। उसके घर में नित्य यही चर्चा रहती थी। इन बातों में उसे जितनी दिलचस्पी थी, उतनी और किसी बात से न हो सकती थी। बोला-आओ बैठो, चिलम पियो, कौन भाई हो?

भैरों-पासी हूँ, यहीं पाँडेपुर में रहता हूँ।

वह साईस के पास जा बैठा और दोनों में सायँ-सायँ बातें होने लगीं, मानो वहाँ कोई कान लगाए उनकी बातें सुन रहा हो। भैरों ने अपना सम्पूर्ण वृत्तांत सुनाया और कमर से एक रुपया निकालकर साईस के हाथ में रखता हुआ बोला-भाई, कोई ऐसी जुगुत निकालो कि राजा साहब के कानों में यह बात पड़ जाए। फिर तो मैं अपना सब हाल आप ही कह लूँगा। तुम्हारी दया से बोलने-चालने में ऐसा बुध्दू नहीं हूँ। दारोगा से तो कभी डरा ही नहीं।

साईस को रौप्य मुद्रा के दर्शन हुए, तो मगन हो गया। आज सबेरे-सबेरे अच्छी बोहनी हुई। बोला-मैं राजा साहब से तुम्हारी इत्ताला कराए देता हूँ। बुलाहट होगी, तो चले जाना। राजा साहब को घमंड तो छू ही नहीं गया। मगर देखना, बहुत देर न लगाना, नहीं तो मालिक चिढ़ जाएँगे। बस, जो कुछ कहना हो, साफ-साफ कह डालना। बड़े आदमियों को बातचीत करने की फुरसत नहीं रहती। मेरी तरह थोड़े ही हैं कि दिन-भर बैठे गप्पें लड़ाया करें।

यह कहकर वह चला गया। राजा साहब इस वक्त बाल बनवा रहे थे, जो उनका नित्य का नियम था। साईस ने पहुँचकर सलाम किया।

राजा-क्या कहते हो? मेरे पास तलब के लिए मत आया करो।

साईस-नहीं हुजूर, तलब के लिए नहीं आया था। वह जो सूरदास पाँडेपुर में रहता है।

राजा-अच्छा, वह दुष्ट अंधा!

साईस-हाँ हुजूर, वह एक औरत को निकाल ले गया है।

राजा-अच्छा! उसे तो लोग कहते थे, बड़ा भला आदमी है। अब यह स्वाँग रचने लगा!

साईस-हाँ हुजूर, उसका आदमी फरियाद करने आया है। हूकुम हो, तो लाऊँ।

राजा साहब ने सिर हिलाकर अनुमति दी और एक क्षण में भैरों दबकता हुआ आकर खड़ा हो गया।

राजा-तुम्हारी औरत है?

भैरों-हाँ हुजूर, अभी कुछ दिन पहले तो मेरी ही थी!

राजा-पहले से कुछ आमद-रफ्त थी?

भैरों-होगी सरकार, मुझे मालूम नहीं।

राजा-लेकर कहाँ चला गया?

भैरों-कहीं गया नहीं सरकार, अपने घर में है।

राजा-बड़ा ढीठ है। गाँववाले कुछ नहीं बोलते?

भैरों-कोई नहीं बोलता, हुजूर!

राजा-औरत को मारते बहुत हो?

भैरों-सरकार, औरत से भूल-चूक होती है, तो कौन नहीं मारता?

राजा-बहुत मारते हो कि कम?

भैरों-हुजूर, क्रोध में यह विचार कहाँ रहता है।

राजा-कैसी औरत है, सुंदर?

भैरों-हाँ, हुजूर, देखने-सुनने में बुरी नहीं है।

राजा-समझ में नहीं आता, सुंदर स्त्री ने अंधो को क्यों पसंद किया! ऐसा तो नहीं हुआ कि तुमने दाल में नमक ज्यादा हो जाने पर स्त्री को मारकर निकाल दिया हो और अंधो ने रख लिया हो?

भैरों-सरकार, औरत मेरे रुपये चुराकर सूरदास को दे आई। सबेरे सूरदास रुपये लौटा गया। मैंने चकमा देकर पूछा, तो उसने चोर को भी बता दिया। इस बात पर मारता न, तो क्या करता?

राजा-और कुछ हो, अंधा है दिल का साफ।

भैरों-हुजूर, नीयत का अच्छा नहीं।

यद्यपि महेंद्रकुमारसिंह बहुत न्यायशील थे और अपने कुत्सित मनोविचारों को प्रकट करने में बहुत सावधान रहते थे। ख्याति-प्रिय मनुष्य को प्राय: अपनी वाणी पर पूर्ण अधिकार होता है; पर वह सूरदास से इतने जले हुए थे, उसके हाथों इतनी मानसिक यातनाएँ पाई थीं कि इस समय अपने भावों को गुप्त न रख सके। बोले-अजी, उसने मुझे यहाँ इतना बदनाम किया कि घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया। क्लार्क साहब ने जरा उसे मुँह क्या लगा लिया कि सिर चढ़ गया। यों मैं किसी गरीब को सताना नहीं चाहता, लेकिन यह भी नहीं देख सकता कि वह भले आदमियों के बाल नोचे। इजलास तो मेरा ही है, तुम उस पर दावा कर दो। गवाह मिल जाएँगे न?

भैरों-हुजूर, सारा मुहल्ला जानता है।

राजा-सबों को पेश करो। यहाँ लोग उसके भक्त हो गए हैं। समझते हैं, वह कोई ऋषि है। मैं उसकी कलई खोल देना चाहता हूँ। इतने दिनों बाद यह अवसर मेरे हाथ आया है। मैंने अगर अब तक किसी से नीचा देखा, तो इसी अंधो से। उस पर न पुलिस का जोर था, न अदालत का। उसकी दीनता और दुर्बलता उसका कवच बनी हुई थी। यह मुकदमा उसके लिए वह गहरा गङ्ढा होगा, जिसमें से वह निकल न सकेगा। मुझे उसकी ओर से शंका थी, पर एक बार जहाँ परदा खुला कि मैं निश्ंचित हुआ। विष के दाँत टूट जाने पर साँप से कौन डरता है? हो सके, तो जल्दी ही मुकदमा दायर कर दो।

किसी बड़े आदमी को रोते देखकर हमें उससे स्नेह हो जाता है। उसे प्रभुत्व से मंडित देखकर हम थोड़ी देर के लिए भूल जाते हैं कि वह भी मनुष्य है। हम उसे साधारण मानवीय दुर्बलताओं से रहित समझते हैं। वह हमारे लिए एक कुतूहल का विषय होता है। हम समझते हैं,वह न जाने क्या खाता होगा, न जाने क्या पीता होगा, न जाने क्या सोचता होगा, उसके दिल में सदैव ऊँचे-ऊँचे विचार आते होंगे, छोटी-छोटी बातों की ओर तो उसका धयान ही न जाता होगा-कुतूहल का परिष्कृत रूप ही आदर है। भैरों को राजा साहब के सम्मुख जाते हुए भय लगता था, लेकिन अब उसे ज्ञात हुआ कि यह भी हमीं-जैसे मनुष्य हैं। मानो उसे आज एक नई बात मालूम हुई। जरा बेधड़क होकर बोला-हुजूर, है तो अंधा, लेकिन बड़ा घमंडी है। आपने आगे तो किसी को समझता ही नहीं। मुहल्लेवाले जरा सूरदास-सूरदास कह देते हैं, तो बस, फूल उठता है। समझता है, संसार में जो कुछ हूँ, मैं ही हूँ। हुजूर, उसकी ऐसी सजा कर दें कि चक्की पीसते-पीसते दिन जाएँ। तब उसकी सेखी किरकिरी होगी।

राजा साहब ने त्योरी बदली। देखा, यह गँवार अब ज्यादा बहकने लगा। बोले-अच्छा, अब जाओ।

भैरों दिल में समझ रहा था, मैंने राजा साहब को अपनी मुट्ठी में कर लिया। अगर उसे चले जाने का हुक्म न मिला होता, तो एक क्षण में उसका 'हुजूर' 'आप' हो जाता। संधया तक उसकी बातों का ताँता न टूटता। वह न जाने कितनी झूठी बातें गढ़ता। पर-निंदा का मनुष्य की जिह्ना पर कभी इतना प्रभुत्व नहीं होता, जितना सम्पन्न पुरुषों के सम्मुख। न जानें क्यों हम उनकी कृपा-दृष्टि के इतने अभिलाषी होते हैं! हम ऐसे मनुष्यों पर भी, जिनसे हमारा लेश मात्र भी वैमनस्य नहीं है, कटाक्ष करने लगते हैं। कोई स्वार्थ की इच्छा न रखते हुए भी हम उनका सम्मान प्राप्त करना चाहते हैं। उनका विश्वासपात्र बनने की हमें एक अनिवार्य आंतरिक प्रेरणा होती है। हमारी वाणी उस समय काबू से बाहर हो जाती है।

भैरों यहाँ से कुछ लज्जित होकर निकला, पर उसे अब इसमें संदेह न था कि मनोकामना पूरी हो गई। घर आकर उसने बजरंगी से कहा-तुम्हें गवाही करनी पड़ेगी। निकल न जाना।

बजरंगी-कैसी गवाही?

भैरों-यही मेरे मामले की। इस अंधो की हेकड़ी अब नहीं देखी जाती। इतने दिनों तक सबर किए बैठा रहा कि अब भी वह सुभागी को निकाल दे, उसका जहाँ जी चाहे, चली जाए, मेरी आँखों के सामने से दूर हो जाए। पर देखता हूँ, तो दिन-दिन उसकी पेंग बढ़ती ही जाती है। अंधा छैला बना जाता है। महीनों देह पर पानी नहीं पड़ता था, अब नित्य स्नान करता है। वह पानी लाती है, उसकी धोती छाँटती है,उसके सिर में तेल मलती है। यह अँधेर नहीं देखा जाता।

बजरंगी-अँधेर तो है ही, आँखों से देख रहा हूँ। सूरे को इतना छिछोरा न समझता था। पर मैं कहीं गवाही-साखी करने न जाऊँगा।

जमुनी-क्यों कचहरी में कोई तुम्हारे कान काट लेगा?

बजरंगी-अपना मन है, नहीं जाते।

जमुनी-अच्छा तुम्हारा मन है! भैरों, तुम मेरी गवाही लिखा दो। मैं चलकर गवाही दूँगी। साँच को आँच क्या?

बजरंगी-(हंसकर) तू कचहरी जाएगी?

जमुनी-क्या करूँगी जब मरदों की वहाँ जाते चूड़ियाँ मैली होती हैं, तो औरत ही जाएगी। किसी तरह उस कसबिन के मुँह में कालिख तो लगे।

बजरंगी-भैरों, बात यह है कि सूरे ने बुराई जरूर की, लेकिन तुम भी तो अनीत ही पर चलते थे। कोई अपने घर के आदमी को इतनी बेदरदी से नहीं मारता। फिर तुमने मारा ही नहीं, मारकर निकाल भी दिया। जब गाय की पगहिया न रहेगी तो वह दूसरों के खेत में जाएगी ही। इसमें उसका क्या दोस?

जमुनी-तुम इन्हें बकने दो भैरों, मैं तुम्हारी गवाही करूँगी।

बजरंगी-तू सोचती होगी, यह धमकी देने से मैं कचहरी जाऊँगा; यहाँ इतने बुध्दू नहीं हैं। और, सच्ची बात तो यह है कि सूरे लाख बुरा हो,मगर अब भी हम सबों से अच्छा है। रुपयों की थैली लौटा देना कोई छोटी बात नहीं।

जमुनी-बस चुप रहो, मैं तुम्हें खूब समझती हूँ। तुम भी जाकर चार गाल हँस-बोल आते हो न, क्या इतनी यारी भी न निभाओगे! सुभागी को सजा हो गई, तो तुम्हें भी तो नजर लड़ाने को कोई न रहेगा।

बजरंगी यह लांछन सुनकर तिलमिला उठा। जमुनी उसका आसन पहचानती थी, बोला-मुँह में कीड़े पड़ जाएँगे।

जमुनी-तो फिर गवाही देते क्यों कोर दबती है?

बजरंगी-लिखा दो भैरों, मेरा नाम, यह चुडैल मुझे जीने न देगी। मैं अगर हारता हूँ, तो इसी से। पीठ में अगर धूल लगाती है, तो यह। नहीं तो यहाँ कभी किसी से दबकर नहीं चले। जाओ, लिखा दो।

भैरों यहाँ से ठाकुरदीन के पास गया और वही प्रस्ताव किया। ठाकुरदीन ने कहा-हाँ-हाँ, मैं गवाही करने को तैयार हूँ। मेरा नाम सबसे पहले लिखा दो। अंधो को देखकर मेरी तो अब आँखें फूटती हैं। अब मुझे मालूम हो गया कि उसे जरूर कोई सिध्दि है; नहीं तो क्या सुभागी उसके पीछे यों दौड़ी-दौड़ी फिरती।

भैरों-चक्की पीसेे, तो बचा को मालूम हो जाएगा।

ठाकुरदीन-ना भैया, उसका अकबाल भारी है, वह कभी चक्की न पीसेगा, वहाँ से भी बेदाग लौट आएगा। हाँ, गवाही देना मेरा धरम है, वह मैं दे दूँगा। जो आदमी सिध्दि से दूसरों को अनभल करे, उसकी गरदन काट लेनी चाहिए। न जाने क्यों भगवान् संसार में चोरों और पापियों को जन्म देते हैं। यही समझ लो कि जब से मेरी चोरी हुई, कभी नींद-भर नहीं सोया। नित्य वही चिंता बनी रहती है। यही खटका लगा रहता है कि कहीं फिर न वही नौबत आ जाए। तुम तो एक हिसाब से मजे में रहे कि रुपये सब मिल गए, मैं तो कहीं का न रहा।

भैरों-तो तुम्हारी गवाही पक्की रही?

ठाकुरदीन-हाँ, एक बार नहीं, सौ बार पक्की। अरे, मेरा बस चलता, तो इसे खोदकर गाड़ देता। यों मुझसे सीधा कोई नहीं है, लेकिन दुष्टों के हक में मुझसे टेढ़ा भी कोई नहीं है। इनको सजा दिलाने के लिए मैं झूठी गवाही देने को भी तैयार हूँ। मुझे तो अचरज होता है कि इस अंधो को क्या हो गया। कहाँ तो धरम-करम का इतना विचार, इतना परोपकार, इतना सदाचार, और कहाँ यह कुकर्म!

भैरों यहाँ से जगधर के पास गया, जो अभी खेचा बेचकर लौटा था और धोती लेकर नहाने जा रहा था।

भैरों-तुम भी मेरे गवाह हो न?

जगधर-तुम हक-नाहक सूरे पर मुकदमा चला रहे हो। सूरे निरपराध हैं।

भैरों-कसम खाओगे?

जगधर-हाँ, जो कसम कहो, खा जाऊँ। तुमने सुभागी को अपने घर से निकाल दिया, सूरे ने उसे अपने घर में जगह दे दी। नहीं तो अब तक वह न जाने किस घाट लगी होती। जवान औरत है, सुंदर है, उसके सैकड़ों गाहक हैं। सूरे ने तो उसके साथ नेकी की कि उसे कहीं बहकने नहीं दिया। अगर तुम फिर उसे घर में लाकर रखना चाहो, और वह उसे आने न दे, तुमसे लड़ने पर तैयार हो जाए, तब मैं कहूँगा कि उसका कसूर है। मैंने अपने कानों से उसे सुभागी को समझाते सुना है। वह आती ही नहीं, तो बेचारा क्या करे?

भैरों समझ गया कि यह एक लोटे जल से प्रसन्न हो जानेवाले देवता नहीं, इसे कुछ भेंट करनी पड़ेगी। उसकी लोभी प्रकृत्तिा से वह परिचित था।

बोला-भाई, मुआमला इज्जत का है। ऐसी उड़नझाइयाँ न बताओ। पड़ोसी का हक बहुत कुछ होता है; पर मैं तुमसे बाहर नहीं हूँ, जो कुछ दस-बीस कहो, हाजिर है। पर गवाही तुम्हें देनी पड़ेगी।

जगधर-भैरों, मैं बहुत नीच हूँ, लेकिन इतना नीच नहीं कि जान-सुनकर किसी भले आदमी को बेकसूर फँसाऊँ।

भैरों ने बिगड़कर कहा-तो क्या समझते हो कि तुम्हारे ही नाम खुदाई लिख गई है? जिस बात को सारा गाँव कहेगा, उसे एक तुम न कहोगे, तो क्या बिगड़ जाएगा? टिवी के रोके आँधी नहीं रुक सकती।

जगधर-तो भाई, उसे पीसकर पी जाओ। मैं कब कहता हूँ कि मैं उसे बचा लूँगा। हाँ, मैं उसे पीसने में तुम्हारी मदद न करूँगा।

भैरों तो उधर गया, इधर वही स्वार्थी, लोभी, ईष्यालु, कुटिल जगधर उसके गवाहों को फोड़ने का प्रयत्न करने लगा। उसे सूरदास से इतनी भक्ति न थी, जितनी भैरों से ईष्या। भैरों अगर किसी सत्कर्म में भी उसकी सहायता माँगता, तो भी वह इतनी ही तत्परता से उसकी उपेक्षा करता।

उसने बजरंगी के पास जाकर कहा-क्यों बजरंगी, तुम भी भैरों की गवाही कर रहे हो?

बजरंगी-हाँ, जाता तो हूँ।

जगधर-तुमने अपनी आँखों कुछ देखा है।

बजरंगी-कैसी बातें करते हो, रोज की देखता हूँ, कोई बात छिपी थोड़े ही है।

जगधर-क्या देखते हो? यही न कि सुभागी सूरदास के झोंपड़े में रहती है? अगर कोई एक अनाथ औरत का पालन करे, तो बुराई है?अंधो आदमी के जीवट का बखान तो न करोगे कि जो काम किसी से न हो सका, वह उसने कर दिखाया, उलटे उससे और बैर साधते हो। जानते हो, सूरदास उसे घर से निकाल देगा, तो उसकी क्या गत होगी? मुहल्ले की आबरू पुतलीघर के मजदूरों के हाथ बिकेगी। देख लेना। मेरा कहना मानो, गवाही-साखी के फेर में न पड़ो, भलाई के बदले बुराई हो जाएगी। भैरों तो सुभागी से इसलिए जल रहा है कि उसने उसके चुराए हुए रुपये सूरदास को क्यों लौटा दिए। बस, सारी जलन इसी की है। हम बिना जाने-बूझे क्यों किसी की बुराई करें? हाँ, गवाही देने ही जाते हो, तो पहले खूब पता लगा लो कि दोनों कैसे रहते हैं...

बजरंगी-(जमुनी की तरफ इशारा करके) इसी से पूछो, यही अंतरजामी है, इसी ने मुझे मजबूर किया है।

जमुनी-हाँ, किया तो है, क्या अब भी दिल काँप रहा है?

जगधर-अदालत में जाकर गवाही देना क्या तुमने हँसी समझ ली है? गंगाजली उठानी पड़ती है, तुलसी-जल लेना पड़ता है, बेटे के सिर पर हाथ रखना पड़ता है। इसी से बाल-बच्चेवाले डरते हैं कि और कुछ!

जमुनी-सच कहो, ये सब कसमें भी खानी पड़ती हैं?

जगधर-बिना कसम खाए तो गवाही होती ही नहीं।

जमुनी-तो भैया, बाज आई ऐसी गवाहों से, कान पकड़ती हूँ। चूल्हे में जाए सूरा और भाड़ में जाए भैरों, कोई बुरे दिन काम न आएगा। तुम रहने दो।

बजरंगी-सूरदास को लकड़पन से देख रहे हैं, ऐसी आदत तो उसमें न थी।

जगधर-न थी, न है और न होगी। उसकी बड़ाई नहीं करता, पर उसे लाख रुपये भी दो, तो बुराई में हाथ न डालेगा। कोई दूसरा होता, तो गया हुआ धन पाकर चुपके से रख लेता, किसी को कानोंकान खबर भी न होती। वह तो जाकर सब रुपये दे आया। उसकी सफाई तो इतने ही से हो जाती है।

बजरंगी को तोड़कर जगधर ने ठाकुरदीन को घेरा। पूजा करके भोजन करने जा रहा था। जगधर की आवाज सुनकर बोला-बैठो, खाना खाकर आता हूँ।

जगधर-मेरी बात सुन लो, तो खाने बैठो। खाना कहीं भागा नहीं जाता है। तुम भी भैरों की गवाही देने जा रहे हो?

ठाकुरदीन-हाँ, जाता हूँ। भैरों ने न कहा होता, तो आप ही जाता। मुझसे यह अनीत नहीं देखी जाती। जमाना दूसरा है, नहीं नवाबी होती,तो ऐसे आदमी का सिर काट लिया जाता। किसी की बहू-बेटी को निकाल ले जाना कोई हँसी-ठट्ठा है?

जगधर-जान पड़ता है, देवतों की पूजा करते-करते तुम भी अंतरजामी हो गए हो। पूछता हूँ, किस बात की गवाही दोगे?

ठाकुरदीन-कोई लुका-छिपी बात है, सारा देस जानता है।

जगधर-सूरदास बड़ा गबरू जवान है, इसी से सुंदरी का मन उस पर लोट-पोट हो गया होगा, या उसके घर रुपये-पैसे, गहने-जेवर के ढेर लगे हुए हैं, इसी से औरत लोभ में पड़ गई होगी। भगवान् को देखा नहीं, लेकिन अकल से तो पहचानते हो। आखिर क्या देखकर सुभागी ने भैरों को छोड़ दिया और सूरे के घर पड़ गई?

ठाकुरदीन-कोई किसी के मन की बात क्या जाने, और औरत के मन की बात तो भगवान् भी नहीं जानते। देवता लोग तक उससे त्राह-त्राह करते हैं!

जगधर-अच्छा, तो जाओ, मगर यह कहे देता हूँ कि इसका फल भोगना पड़ेगा। किसी गरीब पर झूठा अपराध लगाने से बड़ा दूसरा पाप नहीं होता।

ठाकुरदीन-झूठा अपराध है?

जगधर-झूठा है, सरासर झूठा; रत्ती-भर भी सच नहीं। बेकस की वह हाय पड़ेगी कि जिंदगानी भर याद करोगे। जो आदमी अपना गया हुआ धन पाकर लौटा दे, वह इतना नीच नहीं हो सकता।

ठाकुरदीन-(हँसकर) यही तो अंधो की चाल है। कैसी दूर की सूझी है कि जो सुने, चक्कर में आ जाए।

जगधर-मैंने जता दिया, आगे तुम जानो, तुम्हारा काम जाने। रखोगे सुभागी को अपने घर में? मैं उसे सूरे के घर से लिवाए लाता हूँ,अगर फिर कभी सूरे को उससे बातें करते देखना, तो जो चाहना, सो करना। रखोगे?

ठाकुरदीन-मैं क्यों रखने लगा!

जगधर-तो अगर शिवजी ने संसार-भर का बिस माथे पर चढ़ा लिया, तो क्या बुरा किया? जिसके लिए कहीं ठिकाना नहीं था, उसे सूरे ने अपने घर में जगह दी। इस नेकी की उसे यह सजा मिलनी चाहिए? यही न्याय है? अगर तुम लोगों के दबाव में आकर सूरे ने सुभागी को घर से निकाल दिया और उसकी आबरू बिगड़ी, तो उसका पाप तुम्हारे सिर भी पड़ेगा। याद रखना।

ठाकुरदीन देवभीरु आत्मा था, दुविधा में पड़ गया। जगधर ने आसन पहचाना, इसी ढंग से दो-चार बातें और कीं। आखिर ठाकुरदीन गवाही देने से इनकार करने लगा। जगधर की ईष्या किसी साधु के उपदेश का काम कर गई। संधया होते-होते भैरों को मालूम हो गया कि मुहल्ले में कोई गवाह न मिलेगा। दाँत पीसकर रह गया। चिराग जल रहे थे। बाजार की और दूकानें बंद हो रही थीं। ताड़ी की दूकान खोलने का समय आ रहा था। ग्राहक जमा होते जाते थे। बुढ़िया चिखौने के लिए मटर के दालमोट और चटपटे पकौड़े बना रही थी, और भैरों द्वार पर बैठा हुआ जगधर को, मुहल्लेवालों को और सारे संसार को चौपालियाँ सुना रहा था-सब-के-सब नामरदे हैं, आँख के अंधो, जभी यह दुरदसा हो रही है। कहते हैं, सूखा क्यों पड़ता है, प्लेग क्यों आता है, हैजा क्यों फैलता है, जहाँ ऐसे-ऐसे बेईमान, पापी, दुष्ट बसेंगे, वहाँ और होगा ही क्या। भगवान इस देस को गारत क्यों नहीं कर देते, यही अचरज है। खैर, जिंदगानी है, तो हम और जगधर इसी जगह रहते हैं, देखी जाएगी।

क्रोध के आवेश में अपनी नेकियाँ बहुत याद आती हैं। भैरों उन उपकारों का वर्णन करने लगा, जो उसने जगधर के साथ किए थे-इसकी घरवाली मर रही थी। किसी ने बता दिया, ताजी ताड़ी पिए, तो बच जाए। मुँह-अंधोरे पेड़ पर चढ़ता था और ताजी ताड़ी उतारकर उस पिलाता था। कोई पाँच रुपये भी देता, तो उतने सबेरे पेड़ पर न चढ़ता। मटकों ताड़ी पिला दी होगी। तमाखू पीना होता है, तो यहीं आता है। रुपये-पैसे का काम लगता है, तो मैं ही काम आता हूँ, और मेरे साथ यह घाट! जमाना ही ऐसा है।

जगधर का घर मिला हुआ था। यह सब सुन रहा था और मुँह न खोलता था। वह सामने से वार करने में नहीं, पीछे से वार करने में कुशल था।

इतने में मिल का एक मिस्त्री, नीम-आस्तीन पहने, कोयले की भभूत लगाए और कोयले ही का-सा रंग, हाथ में हथौड़ा लिए, चमरौधा जूता डाटे, आकर बोला-चलते हो दुकान पर कि इसी झंझट में पड़े रहोगे? देर हो रही है, अभी साहब के बँगले पर जाना है।

भैरों-अजी जाओ, तुम्हें दुकान की पड़ी हुई है। यहाँ ऐसा जी जल रहा है कि गाँव में आग लगा दूँ।

मिस्त्री-क्या है क्या? किस बात पर बिगड़ रहे हो, मैं भी सुनूँ।

भैरों ने संक्षिप्त रूप से सारी कथा सुना दी और गाँववालों की कायरता और असज्जनता का दुखड़ा रोने लगा।

मिस्त्री-गाँववालों को मारो गोली। तुम्हें कितने गवाह चाहिए? जितने गवाह कहो, दे दूँ, एक-दो, दस-बीस। भले आदमी, पहले ही क्यों न कहा? आज ही ठीक-ठाक किए देता हूँ। बस, सबों को भर-भर पेट पिला देना।

भैरों की बाँछें खिल गईं, बोला-ताड़ी की कौन बात है, दूकान तुम्हारी है, जितनी चाहो, पियो; पर जरा मोतबर गवाह दिलाना।

मिस्त्री-अजी, कहो तो बाबू लोगों को हाजिर कर दूँ। बस, ऐसी पिला देना कि सब यहीं से गिरते हुए घर पहुँचें।

भैरों-अजी, कहो तो इतना पिला दूँ कि दो-चार लाशें उठ जाएँ।

यों बातें करते हुए दोनों दूकान पहुँचे। वहाँ 20-25 आदमी, जो इसी कारखाने के नौकर थे, बड़ी उत्कंठा से भैरों की राह देख रहे थे। भैरों ने तो पहुँचते ही ताड़ी नापनी शुरू कर की, और इधर मिस्त्री ने गवाहों को तैयार करना शुरू किया। कानों में बातें होने लगीं।

एक-मौका अच्छा है। अंधो के घर से निकलकर जाएगी कहाँ! भैरों अब उसे न रखेगा।

दूसरा-आखिर हमारे दिल-बहलाव का भी तो कोई सामान होना चाहिए।

तीसरा-भगवान् ने आप ही भेज दिया। बिल्ली के भागों छींका टूटा।

इधर तो यह मिसकौट हो रही थी, उधर सुभागी सूरदास से कह रही थी-तुम्हारे ऊपर दावा हो रहा है।

सूरदास ने घबराकर पूछा-कैसा दावा?

सुभागी-मुझे भगा लाने का। गवाह ठीक किए जा रहे हैं। गाँव का तो कोई आदमी नहीं मिला, लेकिन पुतलीघर के बहुत-से मजूरे तैयार हैं। मुझसे अभी जगधर कह रहे थे, पहले गाँव के सब आदमी गवाही देने जा रहे थे।

सूरदास-फिर रुक कैसे गए?

सुभागी-जगधर ने सबको समझा-बुझाकर रोक लिया।

सूरदास-जगधर बड़ा भलामानुस है, मुझ पर बड़ी दया करता रहता है।

सुभागी-तो अब क्या होगा?

सूरदास-दावा करने दे, डरने की कोई बात नहीं। तू यही कह देना कि मैं भैरों के साथ न रहूँगी। कोई कारन पूछे, तो साफ-साफ कर देना,वह मुझे मारता है।

सुभागी-लेकिन इसमें तुम्हारी बदनामी होगी।

सूरदास-बदनामी की चिंता नहीं, जब तक वह तुझे रखने को राजी न होगा, मैं तुझे जाने ही न दूँगा।

सुभागी-वह राजी भी होगा, तो उसके घर न जाऊँगी। वह मन का बड़ा मैला आदमी है, इसकी कसर जरूर निकालेगा। तुम्हारे घर से भी चली जाऊँगी।

सूरदास-मेरे घर क्यों चली जाएगी? मैं तो तुझे नहीं निकालता।

सुभागी-मेरे कारन तुम्हारी कितनी जगहँसाई होगी। मुहल्लेवालों का तो मुझे कोई डर न था। मैं जानती थी कि किसी को तुम्हारे ऊपर संदेह न होगा, और होगा भी, तो छिन-भर में दूर हो जाएगा। लेकिन ये पुतलीघर के उजव् मजूरे तुम्हें क्या जानें। भैरों के यहाँ सब-के-सब ताड़ी पीते हैं। वह उन्हें मिलाकर तुम्हारी आबरू बिगाड़ देगा। मैं यहाँ न रहूँगी, तो उसका कलेजा ठंडा हो जाएगा। बिस की गाँठ तो मैं हूँ।

सूरदास-जाएगी कहाँ?

सुभागी-जहाँ उसके मुँह में कालिख लगा सकूँ, जहाँ उसकी छाती पर मूँग दल सकूँ।

सूरदास-उसके मुँह मे कालिख लगेगी, तो मेरे मुँह में पहले ही न लग जाएगी, तू मेरी बहन ही तो है?

सुभागी-नहीं, मै तुम्हारी कोई नहीं हूँ। मुझे बहन-बेटी न बनाओ।

सूरदास-मैं कहे देता हूँ, इस घर से न जाना।

सुभागी-मैं अब तुम्हारे साथ रहकर तुम्हें बदनाम न करूँगी।

सूरदास-मुझे बदनामी कबूल है, लेकिन जब तक यह न मालूम हो जाए कि तू कहाँ जाएगी, तब तक मैं तुझे जाने ही न दूँगा।

भैरों ने रात तो किसी तरह काटी। प्रात:काल कचहरी दौड़ा। वहाँ अभी द्वार बंद थे, मेहतर झाड़ई लगा रहे थे, अतएव वह एक वृक्ष के नीचे धयान लगाकर बैठ गया। नौ बजे से अमले, बस्ते बगल में दबाए, आने लगे और भैरों दौड़-दौड़कर उन्हें सलाम करने लगा। ग्यारह बजे राजा साहब इजलास पर आए तो भैरों ने मुहर्रिर से लिखवाकर अपना इस्तगासा दायर कर दिया। संधया-समय घर आया, तो बफरने लगा-अब देखता हूँ, कौन माई का लाल इनकी हिमायत करता है। दोनों के मुँह में कालिख लगवाकर यहाँ से निकाल न दिया, तो बाप का नहीं।

पाँचवें दिन सूरदास और सुभागी के नाम सम्मन आ गया। तारीख पड़ गई। ज्यों-ज्यों पेशी का दिन निकट आता जाता था, सुभागी के होश उड़े जाते थे। बार-बार सूरदास से उलझती-तुम्हीं यह सब करा रहे हो, अपनी मिट्टी खराब कर रहे हो और अपने साथ मुझे भी घसीट रहे हो। मुझे चले जाने दिया होता, तो कोई तुमसे क्यों बैर ठानता? वहाँ भरी कचहरी में जाना, सबके सामने खड़ी होना, मुझे जहर ही-सा लग रहा है। मैं उसका मुँह न देखूँगी, चाहे अदालत मुझे मार ही डाले।

आखिर पेशी की नियत तिथि आ गई। मुहल्ले में इस मुकदमे की इतनी धूम थी कि लोगों ने अपने-अपने काम बंद कर दिए और अदालत में जा पहुँचे। मिल के श्रमजीवी सैकड़ों की संख्या में गए। शहर में सूरदास को कितने ही आदमी जान गए थे। उनकी दृष्टि में सूरदास निरपराध था। हजारों आदमी कुतूहल-वश अदालत में आए। प्रभु सेवक पहले ही पहुँच चुके थे, इंदु रानी और इंद्रदत्ता भी मुकदमा पेश होते-होते आ पहुँचे। अदालत में यों ही क्या कम भीड़ रहती है, और स्त्री का आना तो मंडप में वधू का आना है। अदालत में एक बारजा-सा लगा हुआ था। इजलास पर दो महाशय विराजमान थे-एक तो चतारी के राजा साहब, दूसरे एक मुसलमान, जिन्होंने योरपीय महासमर में रंगरूट भरती करने में बड़ा उत्साह दिखाया था। भैरों की तरफ से एक वकील भी था।

भैरों का बयान हुआ। गवाहों का बयान हुआ। तब उसके वकील ने उनसे अपना पक्ष-समर्थन करने के लिए जिरह की।

तब सूरदास का बयान हुआ। उसने कहा-मेरे साथ इधर कुछ दिनों से भैरों की घरवाली रहती है। मैं किसी को क्या खिलाऊँ-पिलाऊँगा,पालनेवाले भगवान् है। वह मेरे घर में रहती है अगर भैरों उसे रखना चाहे और वह रहना चाहे, तो आज ही चली जाए, यही तो मैं चाहता हूँ। इसीलिए मैंने उसे अपने यहाँ रखा है, नहीं तो न जाने कहाँ होती।

भैरों के वकील ने मुस्कराकर कहा-सूरदास, तुम बड़े उदार मालूम होते हो; लेकिन युवती सुंदरियों के प्रति उदारता का कोई महत्तव नहीं रहता।

सूरदास-इसी से न यह मुकदमा चला है। मैंने कोई बुराई नहीं की। हाँ, संसार जो चाहे, समझे। मैं तो भगवान को जानता हूँ। वही सबकी करनी को देखनेवाला है। अगर भैरों उसे अपने घर न रखेगा और न सरकार कोई ऐसी जगह बताइएगी, जहाँ यह औरत इज्जत-आबरू के साथ रह सके, तो मैं उसे अपने घर से निकलने न दूँगा। वह निकलना भी चाहेगी, तो न जाने दूँगा। इसने तो जब से इस मुकदमे की खबर सुनी है, यही कहा करती है कि मुझे जाने दो, पर मैं उसे जाने नहीं देता।

वकील-साफ-साफ क्यों नहीं कहते कि मैंने उसे रख लिया है।

सूरदास-हाँ, रख लिया है, जैसे भाई अपनी बहन को रख लेता है, बाप बेटी को रख लेता है। अगर सरकार ने उसे जबरदस्ती मेरे घर से निकाल दिया, तो उसकी आबरू की जिम्मेदारी उसी के सिर होगी।

सुभागी का बयान हुआ-भैरों मुझे बेकसूर मारता, गालियाँ देता। मैं उसके साथ न रहँगी। सूरदास भला आदमी है, इसीलिए उसके पास रहती हूँ। भैरों यह नहीं देख सकता; सूरदास के घर से मुझे निकालना चाहता है।

वकील-तू पहले भी सूरदास के घर जाती थी?

सुभागी-जभी अपने घर मार खाती थी, तभी जान बचाकर उसके घर भाग जाती थी। वह मेरे आड़े आ जाता था। मेरे कारन उसके घर में आग लगी, मार पड़ी, कौन-कौन-सी दुर्गत नहीं हुई। अदालत की कसर थी, वह भी पूरी हो गई।

राजा-भैरों, तुम अपनी औरत रखोगे?

भैरों-हाँ सरकार, रखूँगा।

राजा-मारोगे तो नहीं?

भैरों-कुचाल न चलेगी, तो क्यों मारूँगा।

राजा-सुभागी, तू अपने आदमी के घर क्यों नहीं जाती? वह तो कह रहा है, न मारूँगा।

सुभागी-उस पर मुझे विश्वास नहीं। आज ही मार-मारकर बेहाल कर देगा।

वकील-हुजूर, मुआमला साफ है, अब मजीद-सबूत की जरूरत नहीं रही। सूरदास पर जुर्म साबित हो गया।

अदालत ने फैसला सुना दिया-सूरदास पर 200 रु. जुर्माना और जुर्माना न अदा करे, तो छ: महीने की कड़ी कैद। सुभागी पर 100 रु. जुर्माना, जुर्माना न दे सकने पर तीन महीने की कड़ी कैद। रुपये वसूल हों तो भैरों को दिए जाएँ।

दर्शकों में इस फैसले पर आलोचना होने लगी।

एक-मुझे तो सूरदास बेकसूर मालूम होता है।

दूसरा-सब राजा साहब की करामात है। सूरदास ने जमीन के बारे में उन्हें बदनाम किया था न। यह उसी की कसर निकाली गई है। ये हमारे यश-मान-भोगी लीडरों के कृत्य हैं।

तीसरा-औरत चरबाँक नहीं मालूम होती?

चौथा-भरी अदालत में बातें कर रही है, चरबाँक नहीं, तो और क्या है?

पाँचवाँ-वह तो यही कहती है कि मैं भैरों के पास न रहूँगी।

सहसा सूरदास ने उच्च स्वर में कहा-मैं इस फैसले की अपील करूँगा।

वकील-इस फैसले की अपील नहीं हो सकती।

सूरदास-मेरी अपील पंचों से होगी। एक आदमी के कहने से मैं अपराधी नहीं हो सकता, चाहे वह कितना ही बड़ा आदमी हो। हाकिम ने सजा दे दी, सजा काट लूँगा; पर पंचों का फैसला भी सुन लेना चाहता हूँ।

यह कहकर उसने दर्शकों की ओर मुँह फेरा और मर्मस्पर्शी शब्दों में कहा-दुहाई है पंचो, आप इतने आदमी जमा हैं। आप लोगों ने भैरों और उसके गवाहों के बयान सुने, मेरा और सुभागी का बयान सुना, हाकिम का फैसला भी सुन लिया। आप लोगों से मेरी विनती है कि क्या आप भी मुझे अपराधी समझते हैं? क्या आपको विश्वास आ गया कि मैंने सुभागी को बहकाया और अब अपनी स्त्री बनाकर रखे हुए हूँ?अगर आपको विश्वास आ गया है, तो मैं इसी मैदान में सिर झुकाकर बैठता हूँ, आप लोग मुझे पाँच-पाँच लात मारें। अगर मैं लात खाते-खाते मर भी जाऊँ, तो मुझे दु:ख न होगा। ऐसे पापी का यही दंड है। कैद से क्या होगा! और अगर आपकी समझ में बेकसूर हूँ, तो पुकारकर कह दीजिए, हम तुझे निरपराध समझते हैं। फिर मैं कड़ी-से-कड़ी कैद भी हँसकर काट लूँगा।

अदालत के कमरे में सन्नाटा छा गया। राजा साहब, वकील, अमले, दर्शक, सब-के-सब चकित हो गए। किसी को होश न रहा कि इस समय क्या करना चाहिए। सिपाही दर्जनों थे, पर चित्र-लिखित-से खड़े थे। परिस्थिति ने एक विचित्र रूप धारण कर लिया था, जिसकी अदालत के इतिहास में कोई उपमा न थी। शत्रु ने ऐसा छापा मारा था कि उससे प्रतिपक्षी सेना का पूर्व-निश्चित क्रम भंग हो गया।

सबसे पहले राजा साहब सँभले। हुक्म दिया, इसे बाहर ले जाओ। सिपाहियों ने दोनो अभियुक्तों को घेर लिया और अदालत के बाहर ले चले। हजारों दर्शक पीछे-पीछे चले।

कुछ दूर चलकर सूरदास जमीन पर बैठ गया और बोला-मैं पंचों का हुकुम सुनकर तभी आगे जाऊँगा।

अदालत के बाहर अदालत की मर्यादा भंग होने का भय न था। कई हजार कंठों से धवनि उठी-तुम बेकसूर हो, हम सब तुम्हें बेकसूर समझते हैं।

इंद्रदत्ता-अदालत बेईमान है!

कई हजार आवाजों ने दुहराया-हाँ, अदालत बेईमान है!

इंद्रदत्ता-अदालत नहीं, दीनों की बलि-वेदी है।

कई हजार कंठों से प्रतिधवनि निकली-अमीरों के हाथ में अत्याचार का यंत्र है!

चौकीदारों ने देखा, प्रतिक्षण भीड़ बढ़ती और लोग उत्तोजित होते जाते हैं, तो लपककर एक बग्घीवाले को पकड़ा और दोनों को उसमें बैठाकर ले चले। लोगों ने कुछ दूर तक तो गाड़ी का पीछा किया, उसके बाद अपने-अपने घर लौट गए।

इधर भैरों अपने गवाहों के साथ घर चला, तो राह में अदालत के अरदली ने घेरा। उसे दो रुपये निकालकर दिए। दूकान में पहुँचते ही मटके खुल गए और ताड़ी के दौर चलने लगे। बुढ़िया पकौड़ियाँ और पूरियाँ पकाने लगी।

एक बोला-भैरों, यह बात ठीक नहीं, तुम भी बैठो, पियो और पिलाओ। हम-तुम बद-बदकर पिएँ।

दूसरा-आज इतनी पिऊँगा कि चाहे यहीं ढेर हो जाऊँ। भैरों, यह कुल्हड़ भर-भरकर क्या देते हो, हाँडी ही बढ़ा दो।

भैरों-अजी, मटके में मुँह डाल दो, हाँडी-कुल्हड़ की क्या बिसात है! आज मुद्दई का सिर नीचा हुआ है।

तीसरा-दोनों हिरासत में पड़े रो रहे होंगे। मगर भई, सूरदास को सजा हो गई, तो क्या, वह है बेकसूर।

भैरों-आ गए तुम भी उसके धोखे में। इसी स्वाँग की तो वह रोटी खाता है। देखो, बात-की-बात में कैसा हजारों आदमियों का मन फेर दिया।

चौथा-उसे किसी देवता का इष्ट है।

भैरों-इष्ट तो तब जानें कि जेहल से निकल आए।

पहला-मैं बद कर कहता हूँ, वह कल जरूर जेहल से निकल आएगा।

दूसरा-बुढ़िया, पकौड़ियाँ ला।

तीसरा-अबे, बहुत न पी, नहीं मर जाएगा। है कोई घर पर रोनेवाला?

चौथा-कुछ गाना हो, उतारो ढोल-मँजीरा।

सबों ने ढोल-मँजीरा सँभाला और खडे होकर गाने लगे :

छत्तीसी, क्या नैना झमकावै!

थोड़ी देर में एक बुङ्ढा मिस्त्री उठकर नाचने लगा। बुढ़िया से अब न रहा गया। उसने भी घूँघट निकाल लिया और नाचने लगी। शूद्रों में नृत्य और गान स्वाभाविक गुण हैं, सीखने की जरूरत नहीं। बुङ्ढा और बुढ़िया, दोनों अश्लील भाव से कमर हिला-हिलाकर थिरकने लगे। उनके अंगों की चपलता आश्चर्यजनक थी।

भैरों-मुहल्लेवाले समझते थे, मुझे गवाह ही न मिलेंगे।

एक-सब गीदड़ हैं, गीदड़।

भैरों-चलो, जरा सबों के मुँह में कालिख लगा आएँ।

सब-के-सब चिल्ला उठे-हाँ, हाँ, नाच होता चले।

एक क्षण में जुलूस चला। सब-के-सब नाचते-गाते, ढोल पीटते, ऊलजलूल बकते, हू-हा करते, लड़खड़ाते हुए चले। पहले बजरंगी का घर मिला। यहाँ सब रुक गए, और गाया:

ग्वालिन की गैया हिरानी, तब दूध मिलावै पानी।

रात ज्यादा भीग चुकी थी, बजरंगी के द्वार बंद थे। लोग यहाँ से ठाकुरदीन के द्वार पर पहुँचे और गाया :

तमोलिन के नैना रसीले, यारो से नजर मिलावै।

ठाकुरदीन भोजन कर रहा था, पर डर के मारे बाहर न निकला। जुलूस आगे बढ़ा, तो सूरदास की झोंपड़ी मिली।

भैरों बोला-बस, यहीं डट जाओ।

'ढोल ढीली पड़ गई।

'सेंको, सेंको; झोंपड़े में से फूस ले लो।'

एक आदमी ने थोड़ा-सा फूस निकाला, दूसरे ने और ज्यादा, तीसरे ने एक बोझ खींच लिया। फिर क्या था, नशे की सनक मशहूर ही है,एक ने जलता हुआ फूस झोंपड़ी पर डाल दिया और बोला-होली है, होली है! कई आदमियों ने कहा-होली है, होली है!

भैरों-यारो, यह तुम लोग लोगों ने बुरा किया। भाग चलो, नहीं तो धर लिए जाओगे।

भय नशे में भी हमारा पीछा नहीं छोड़ता। सब-के-सब भागे।

उधर ज्वाला प्रचंड हुई, तो मुहल्ले के लोग दौड़ पड़े। लेकिन फूस की आग किसके वश की थी! झोंपड़ा जल रहा था और लोग खड़े दु:ख और क्रोध की बातें कर रहे थे।

ठाकुरदीन-मैं तो भोजन पर बैठा, तभी सबों को आते देखा।

बजरंगी-ऐसा जी चाहता है कि जाकर भैरों को मारते-मारते बेदम कर दूँ।

जगधर-जब तक एक दफे अच्छी तरह मार न खा जाएगा, इसके सिर से भूत न उतरेगा।

बजरंगी-हाँ, अब यही होगा। घिसुआ, जरा लाठी तो निकाल ला। आज दो-चार खून हो जाएँगे, तभी आग बुझेगी!

जमुनी-तुम्हें क्या पड़ी है, चलकर लेटो। जो जैसा करेगा, उसका फल आप भगवान् से पाएगा।

बजरंगी-भगवान् चाहे फल दें या न दें, पर मैं तो अब नहीं मानता, जैसे देह में आग लगी हुई है।

जगधर-आग लगने की बात ही है। ऐसे पापी का तो सिर काट लेना भी पाप नहीं।

ठाकुरदीन-जगधर, आग पर तेल छिड़कना अच्छी बात नहीं। अगर तुमको भैरों से बैर है, तो आप जाकर उसे क्यों नहीं ललकारते, दूसरों को क्या उकसाते हो? यही चाहते हो कि ये दोनों लड़ मरें और मैं तमाशा देखूँ। हो बड़े नीच!

जगधर-अगर कोई बात कहना उकसाना है, तो लो, चुप रहूँगा।

ठाकुरदीन-हाँ, चुप रहना ही अच्छा है। तुम भी जाकर सोओ बजरंगी! भगवान् आप पापी को दंड देंगे। उन्होंने तो रावन-जैसे प्रतापी को न छोड़ा, यह किस खेत की मूली है! यह अँधेर उनसे भी न देखा जाएगा।

बजरंगी-मारे घमंड के पागल हो गया है। चलो जगधर, जरा इन सबों से दो-दो बातें कर लें।

जगधर-न भैया, मुझे साथ न ले जाओ। कौन जाने, वहाँ मार-पीट हो जाए, तो सारा इलजाम मेरे सिर जाए कि इसी ने लड़ा दिया। मैं तो आप झगड़े से कोसों दूर रहता हूँ।

इतने में मिठुआ दौड़ा हुआ आया। बजरंगी ने पूछा-कहाँ सोया था रे?

मिट्ठू-पंडाजी के दालान में तो। अरे, यह तो मेरी झोंपड़ी जल रही है! किसने आग लगाई?

ठाकुरदीन-इतनी देर में जागे हो। सुन नहीं रहे हो, गाना-बजाना हो रहा है?

मिट्ठू-भैरों ने लगाई है क्या! अच्छा बच्चा, समझूँगा।

जब लोग अपने-अपने घर लौट गए, तो मिठुआ धीरे-धीरे भैरों की दूकान की तरफ गया। महफिल उठ चुकी थी। अंधोरा छाया हुआ था। जाड़े की रात, पत्ता तक न खड़कता था। दूकान के द्वार पर उपले जल रहे थे। ताड़ीखानों में आग कभी नहीं बुझती, पारसी पुरोहित भी इतनी सावधानी से आग की रक्षा न करता होगा। मिठुआ ने एक जलता हुआ उपला उठाया और दूकान के छप्पर पर फेंक दिया। छप्पर में आग लग गई, तो मिठुआ बगटुट भागा और पंडाजी के दालान में मुँह ढाँपकर सो रहा, मानो उसे कुछ खबर ही नहीं। जरा देर में ज्वाला प्रचंड हुई, सारा मुहल्ला आलोकित हो गया, चिड़ियाँ वृक्षों पर से उड़-उड़कर भागने लगीं, पेड़ो की डालें हिलने लगीं, तालाब का पानी सुनहरा हो गया और बाँसों की गाँठें जोर-जोर से चिटकने लगीं। आधा घंटे तक लंकादहन होता रहा, पर यह सारा शोर वन्यरोदन के सदृश था। दूकान बस्ती से हटकर थी। भैरों नशे में बेसुध पड़ा था, बुढ़िया नाचते-नाचते थक गई थी। और कौन था, जो इस वक्त आग बुझाने जाता? अग्नि ने निर्विघ्न अपना काम समाप्त किया। मटके टूट गए, ताड़ी बह गई। जब जरा आग ठंडी हुई, तो कई कुत्तों ने आकर वहाँ विश्राम किया।

प्रात:काल भैरों उठा, तो दूकान सामने न दिखाई दी। दूकान और उसके घर के बीच के दो फरलाँग का अंतर था, पर कोई वृक्ष न होने के कारण दूकान साफ नजर आती थी। उसे विस्मय हुआ, दूकान कहाँ गई! जरा और आगे बढ़ा, तो राख का ढेर दिखाई दिया। पाँव-तले से मिट्टी निकल गई। दौड़ा। दूकान में ताड़ी के सिवा बिक्री के रुपये भी थे। ढोल-मँजीरा भी वहीं रखा रहता था। प्रत्येक वस्तु जलकर राख हो गई। मुहल्ले के लोग उधर तालाब में मुँह-हाथ धोने जाएा करते थे। सब आ पहुँचे। दूकान सड़क पर थी। पथिक भी खड़े हो गए। मेला लग गया।

भैरों ने रोकर कहा-मैं तो मिट्टी में मिल गया।

ठाकुरदीन-भगवान् की लीला है। उधर वह तमाशा दिखाया, इधर यह तमाशा दिखाया। धन्य हो महाराज!

बजरंगी-किसी मिस्त्री की सरारत होगी। क्यों भैरों, किसी से अदावत तो नहीं थी?

भैरों-अदावत सारे मुहल्ले से है, किससे नहीं है। मैं जानता हूँ, जिसकी यह बदमासी है। बँधवा न दिया, तो कहना। अभी एक को लिया है,अब दूसरे की बारी है।

जगधर दूर ही से आनंद ले रहा था। निकट न आया कि कहीं भैरों कुछ कह बैठे, तो बात बढ़ जाए। ऐसा हार्दिक आनंद उसे अपने जीवन में कभी न प्राप्त हुआ था।

इतने में मिल के कई मजदूर आ गए। काला मिस्त्री बोला-भाई, कोई माने या न माने, मैं तो यही कहूँगा कि अंधो को किसी का इष्ट है।

ठाकुरदीन-इष्ट क्यों नहीं है। मैं बराबर यही कहता आता हूँ। उससे जिसने बैर ठाना, उसने नीचा देखा।

भैरों-उसके इष्ट को मैं जानता हूँ। जरा थानेदार जा जाएँ, तो बता दूँ, कौन इष्ट है।

बजरंगी जलकर बोला-अपनी बेर कैसी सूझ रही है! क्या वह झोंपड़ा न था, जिसमें पहले आग लगी? ईंट का जवाब पत्थर मिलता ही है। जो किसी के लिए गढ़ा खोदेगा, उसके लिए कुआँ तैयार है। क्या उस झोंपड़े में आग लगाते समय समझे थे कि सूरदास का कोई है ही नहीं?

भैरों-उसके झोंपड़े में मैंने आग लगाई?

बजरंगी-और किसने लगाई?

भैरों-झूठे हो!

ठाकुरदीन-भैरों, क्यों सीनाजोरी करते हो! तुमने लगाई या तुम्हारे किसी यार ने लगाई, एक ही बात है। भगवान ने उसका बदला चुका दिया, तो रोते क्यों हो?

भैरों-सब किसी से समझ्रूगा।

ठाकुरदीन-यहाँ कोई तुम्हारा दबैल नहीं है।

भैरों ओठ चबाता हुआ चला गया। मानव-चरित्र कितना रहस्यमय है! हम दूसरों का अहित करते हुए जरा भी नहीं झिझकते, किंतु जब दूसरें के हाथों हमें कोई हानि पहुँचती है, तो हमारा खून खौलने लगता है।


32

सूरदास के मुकदमे का फैसला सुनने के बाद इंद्रदत्ता चले, तो रास्ते में प्रभु सेवक से मुलाकात हो गई। बातें होने लगी।

इंद्रदत्ता-तुम्हारा क्या विचार है, सूरदास निर्दोष है या नहीं?

प्रभु सेवक-सर्वथा निर्दोष। मैं तो आज उसकी साधुता पर कायल हो गया। फैसला सुनाने के वक्त तक मुझे विश्वास था कि अंधो ने जरूर इस औरत को बहकाया है, मगर उसके अंतिम शब्दों ने जादू का-सा असर किया। मैं तो इस विषय पर एक कविता लिखने का विचार कर रहा हूँ।

इंद्रदत्ता-केवल कविता लिख डालने से काम न चलेगा। राजा साहब की पीठ में धूल लगानी पड़ेगी। उन्हें यह संतोष न होने देना चाहिए कि मैंने अंधो से चक्की पिसवाई। वह समझ रहे होंगे कि अंधा रुपये कहाँ से लाएगा। दोनों पर 300 रुपये जुर्माना हुआ है, हमें किसी तरह से जुर्माना आज ही अदा करना चाहिए। सूरदास जेल से निकले, तो सारे शहर में उसका जुलूस निकालना चाहिए। इसके लिए 200 रुपये की और जरूरत होगी। कुल 500 रुपये हों, तो काम चल जाए। बोलो, देते हो?

प्रभु सेवक-जो उचित समझो, लिख लो।

इंद्रदत्ता-तुम 50 रुपये बिना कष्ट के दे सकते हो?

प्रभु सेवक-और तुमने अपने नाम कितना लिखा है?

इंद्रदत्ता-मेरी हैसियत 10 रुपये से अधिक देने की नहीं। रानी जाह्नवी से 100 रुपये ले लूँगा। कुँवर साहब ज्यादा नहीं, तो 10 रुपये दे ही देंगे। जो कुछ कमी रह जाएगी, वह दूसरों से माँग ली जाएगी। सम्भव है, डाक्टर गांगुली सब रुपये खुद ही दे दें, किसी से माँगना ही न पड़े।

प्रभु सेवक-सूरदास के मुहल्लेवालों से भी कुछ मिल जाएगा।

इंद्रदत्ता-उसे सारा शहर जानता है, उसके नाम पर दो-चार हजार रुपये मिल सकते हैं; पर इस छोटी-सी रकम के लिए मैं दूसरों को कष्ट नहीं देना चाहता।

यों बातें करते हुए दोनों आगे बढ़े कि सहसा इंदु अपनी फिटन पर आती हुई दिखाई दी। इंद्रदत्ता को देखकर रुक गई और बोली-तुम कब लौटे? मेरे यहाँ नहीं आए!

इंद्रदत्ता-आप आकाश पर हैं, मैं पाताल में हूँ, क्या बातें हों?

इंदु-आओ, बैठ जाओ, तुमसे बहुत-सी बातें करनी हैं।

इंद्रदत्ता फिटन पर जा बैठा। प्रभु सेवक ने जेब से 50 रुपये का एक नोट निकाला और चुपके से इंद्रदत्ता के हाथ में रखकर क्लब को चल दिए।

इंद्रदत्ता-अपने दोस्तों से भी कहना।

प्रभु सेवक-नहीं भाई, मैं इस काम का नहीं हूँ। मुझे माँगना नहीं आता! कोई देता भी होगा, तो मेरी सूरत देखकर मुट्ठी बंद कर लेगा।

इंद्रदत्ता-(इंदु से) आज तो यहाँ खूब तमाशा हुआ।

इंदु-मुझे तो ड्रामा का-सा आनंद मिला। सूरदास के विषय में तुम्हारा क्या खयाल है?

इंद्रदत्ता-मुझे तो वह निष्कपट, सच्चा, सरल मनुष्य मालूम होता है।

इंदु-बस-बस यही मेरा भी विचार है। मैं समझती हूँ, उसके साथ अन्याय हुआ। फैसला सुनाते वक्त तक मैं उसे अपराधी समझती थी, पर उसकी अपील ने मेरे विचार में कायापलट कर दी। मैं अब तक उसे मक्कार, धूर्त, रँगा हुआ सियार समझती थी। उन दिनों उसने हम लोगों को कितना बदनाम किया! तभी से मुझे उससे घृणा हो गई थी। मैं उसे मजा चखाना चाहती थी। लेकिन आज ज्ञात हुआ कि मैंने उसके चरित्र को समझने में भूल की। वह अपनी धुन का पक्का, निर्भीक, नि:स्पृह, सत्यनिष्ठ आदमी है, किसी से दबना नहीं जानता।

इंद्रदत्ता-तो इस सहानुभूति को क्रिया के रूप में भी लाइएगा? हम लोग आपस में चंदा करके जुर्माना अदा कर देना चाहते हैं। आप भी इस सत्कार्य में योग देंगी?

इंदु ने मुस्कराकर कहा-मैं मौखिक सहानुभूति ही काफी समझती हूँ।

इंद्रदत्ता-आप ऐसा कहेंगी, तो मेरा यह विचार पुष्ट हो जाएगा कि हमारे रईसों में नैतिक बल नहीं रहा। हमारे राव-रईस हर एक उचित और अनुचित कार्य में अधिकारियां की सहायता करते रहते हैं, इसीलिए जनता का उन पर से विश्वास उठ गया है। वह उन्हें अपना मित्र नहीं, शत्रु समझती है। मैं नहीं चाहता कि आपकी गणना भी उन्हीं रईसों में हो। कम-से-कम मैंने आपको अब तक उन रईसों से अलग समझा है।

इंदु ने गम्भीर भाव से कहा-इंद्रदत्ता, मैं ऐसा क्यों कर रही हूँ, इसका कारण तुम जानते हो। राजा साहब सुनेंगे, तो उन्हें कितना दु:ख होगा! मैं उनसे छिपकर कोई काम नहीं करना चाहती।

इंद्रदत्ता-राजा साहब से इस विषय में अभी मुझसे बातचीत नहीं हुई। लेकिन मुझे विश्वास है कि उनके भाव भी हमीं लोगों जैसे होंगे। उन्होंने इस वक्त कानूनी फैसला दिया है। सच्चा फैसला उनके हृदय ने किया होगा। कदाचित् उनकी तरह न्यायपद पर बैठकर मैं भी वही फैसला करता, जो उन्होंने किया है। लेकिन वह मेरे ईमान का फैसला नहीं, केवल कानून का विधान होता। मेरी उनसे घनिष्ठता नहीं है, नहीं तो उनसे भी कुछ-न-कुछ ले मरता। उनके लिए भागने का कोई रास्ता नहीं था।

इंदु-सम्भव है, राजा साहब के विषय में तुम्हारा अनुमान सत्य हो। मैं आज उनसे पूछूँगी।

इंद्रदत्ता-पूछिए, मुझे भय है कि राजा साहब इतनी आसानी से न खुलेंगे।

इंदु-तुम्हें भय है, और मुझे विश्वास है। लेकिन यह जानती हूँ कि हमारे मनोभाव समान दशाओं में एक-से होते हैं; इसलिए आपको इंतजार के कष्ट में नहीं डालना चाहती। यह लीजिए, यह मेरी तुच्छ भेंट है।

यह कहकर इंदु ने एक सावरेन निकालकर इंद्रदत्ता को दे दिया।

इंद्रदत्ता-इसे लेते हुए शंका होती है।

इंदु-किस बात की?

इंद्रदत्ता-कि कहीं राजा साहब के विचार कुछ और ही हों।

इंदु ने गर्व से सिर उठाकर कहा-इसकी कुछ परवा नहीं।

इंद्रदत्ता-हाँ, इस वक्त आपने रानियों की-सी बात कही। यह सावरेन सूरदास की नैतिक विजय का स्मारक है। आपको अनेक धन्यवाद! अब मुझे आज्ञा दीजिए। अभी बहुत चक्कर लगाना है। जुर्माने के अतिरिक्त और जो कुछ मिल जाए, उसे अभी नहीं छोड़ना चाहता।

इंद्रदत्ता उतरकर जाना ही चाहते थे कि इंदु ने जेब से दूसरा सावरेन निकालकर कहा-यह लो, शायद इससे तुम्हारे चक्कर में कुछ कमी हो जाए।

इंद्रदत्ता ने सावरेन जेब में रखा, और खुश-खुश चले। लेकिन इंदु कुछ चिंतित-सी हो गई। उसे विचार आया-कहीं राजा साहब वास्तव में सूरदास को अपराधी समझते हों, तो मुझे जरूर आड़े हाथों लेंगे। खैर, होगा, मैं इतना दबना भी नहीं चाहती। मेरा कर्तव्य है सत्कार्य में उनसे दबना। अगर कुविचार में पड़कर वह प्रजा पर अत्याचार करने लगे, तो मुझे उनसे मतभेद रखने का पूरा अधिकार है। बुरे कामों में उनसे दबना मनुष्य के पद से गिर जाना है। मैं पहले मनुष्य हूँ; पत्नी, माता, बहिन, बेटी पीछे।

इंदु इन्हीं विचारों में मग्न थी कि मि. जॉन सेवक और उनकी स्त्री मिल गई।

जॉन सेवक ने टोप उतारा। मिसेज सेवक बोलीं-हम लोग तो आप ही की तरफ जा रहे थे। इधर कई दिन से मुलाकात न हुई थी। जी लगा हुआ था। अच्छा हुआ, राह में मिल गईं।

इंदु-जी नहीं, मैं राह में नहीं मिली। यह देखिए, जाती हूँ; आप जहाँ जाती हैं, वहीं जाइए।

जॉन सेवक-मैं तो हमेशा प्रेम पसंद करता हूँ; यह आगे पार्क आता है। आज बैंड भी होगा, वहीं जा बैठें।

इंदु-वह प्रेम पक्षपात रहित तो नहीं है, लेकिन खैर!

पार्क में तीनों आदमी उतरे और कुर्सियों पर जा बैठे। इंदु ने पूछा-सोफिया का कोई पत्र आया था?

मिसेज सेवक-मैंने तो समझ लिया कि वह मर गई। मि. क्लार्क जैसा आदमी उसे न मिलेगा। जब तक यहाँ रही, टालमटोल करती रही। वहाँ जाकर विद्रोहियों से मिल बैठी। न जाने उसकी तकदीर में क्या है। क्लार्क से सम्बंध न होने का दु:ख मुझे हमेशा रुलाता रहेगा।

जॉन सेवक-मैं तुमसे हजार बार कह चुका, वह किसी से विवाह न करेगी। वह दाम्पत्य जीवन के लिए बनाई ही नहीं गई। वह आदर्शवादिनी है और आदर्शवादी सदैव आनंद के स्वप्न ही देखा करता है, उसे आनंद की प्राप्ति नहीं होती। अगर कभी विवाह करेगी भी, तो कुँवर विनयसिंह से।

मिसेज सेवक-तुम मेरे सामने कुँवर विनयसिंह का नाम न लिया करो। क्षमा कीजिएगा रानी इंदु, मुझे ऐसे बेजोड़ और अस्वाभाविक विवाह पसंद नहीं।

जॉन सेवक-पर ऐसे बेजोड़ और अस्वाभाविक विवाह कभी-कभी हो जाते हैं।

मिसेज सेवक-मैं तुमसे कहे देती हूँ, और रानी इंदु, आप गवाह रहिएगा कि सोफी की शादी कभी विनयसिंह से न होगी।

जॉन सेवक-आपका इस विषय में क्या विचार है रानी इंदु? दिल की बात कहिएगा।

इंदु-मैं समझती हूँ, लेडी सेवक का अनुमान सत्य है। विनय को सोफी से कितना ही प्रेम हो, पर वह माताजी की इतनी उपेक्षा न करेंगे। माताजी जैसी दुखी स्त्री आज संसार में न होगी। ऐसा मालूम होता है, उन्हें जीवन में अब कोई आशा ही नहीं रही। नित्य गुमसुम रहती हैं। अगर किसी ने भूलकर भी विनय का जिक्र छेड़ दिया, तो मारे क्रोध के उनकी त्योरियाँ बदल जाती हैं। अपने कमरे से विनय का चित्र उतरवा डाला है। उनके कमरे का द्वार बंद करा दिया है, न कभी आप उसमें जाती हैं, न और किसी को जाने देती हैं, और मिस सोफिया का नाम ले लेना तो उन्हें चुटकी काट लेने के बराबर है। पिताजी को भी स्वयंसेवकों की संस्था से अब कोई प्रेम नहीं रहा। जातीय कामों से उन्हें कुछ अरुचि हो गई है। अहा! आज बहुत अच्छी साइत में घर से चली थी। वह डॉक्टर गांगुली चले आ रहे हैं। कहिए, डॉक्टर साहब, शिमले से कब लौटे?

गांगुली-सरदी पड़ने लगी। अब वहाँ से सब कोई कूच हो गया। हम तो अभी आपकी माताजी के पास गया। कुँवर विनयसिंह के हाल पर उनको बड़ा दु:ख है।

जॉन सेवक-अबकी तो आपने काउंसिल में धूम मचा दी।


गांगुली-हाँ, अगर वहाँ भाषण करना, प्रश्न करना, बहस करना काम है, तो आप हमारा जितना बड़ाई करना चाहता है, करे; पर मैं उसे काम नहीं समझता, यह तो पानी चारना है। काम उसको कहना चाहिए, जिससे देश और जाति का कुछ उपकार हो। ऐसा तो हमने कोई काम नहीं किया। हमारा तो अब वहाँ मन नहीं लगता। पहले तो सब आदमी एक नहीं होता, और कभी हो ही गया, तो गवर्नमेंट हमारा प्रस्ताव खारिज कर देता है। हमारा मेहनत खराब जाता है। यह तो लड़कों का खेल है। हमको नए कानून से बड़ी आशा थी, पर तीन-चार साल उसका अनुभव करके देख लिया कि इससे कुछ नहीं होता। हम जहाँ तब था, वहीं अब भी है। मिलिटरी का खरच बढ़ता जाता है; उस पर कोई शंका प्रकट करे, तो सरकार बोलता है, आपको ऐसा बात नहीं करना चाहिए। बजट बनाने लगता है, तो हरएक आइटेम में दो-चार लाख ज्यादा लिख देता है। हम काउंसिल में जब जोर देता है, तो हमारा बात रखने के लिए वही फालतू रुपया निकाल देता है। मेम्बर खुशी के मारे फूल जाता है-हम जीत गया, हम जीत गया। पूछो, तुम क्या जीत गया? तुम क्या जीतेगा? तुम्हारे पास जीतने का साधन ही नहीं है, तुम कैसे जीत सकता है? कभी हमारे बहुत जोर देने पर किफायत किया जाता है, तो हमारे ही भाइयों का नुकसान होता है। जैसे अबकी हमने पुलिस विभाग में पाँच लाख काट दिया। मगर यह कमी बड़े-बड़े हाकिमों के भत्तो या तलब में नहीं किया गया। बिचारा चौकीदार, कांसटेबल, थानेदार का तलब घटावेगा, जगह तोड़ेगा। इससे अब किफायत का बात कहते हुए भी डर लगता है कि इससे हमारे ही भाइयों का गरदन कटता है। सारा काउंसिल जोर देता रहा कि बंगाल की बाढ़ के सताए हुए आदमियों के सहातार्थ 20 लाख मंजूर किया जाए; सारा काउंसिल कहता रहा कि मि. क्लार्क का उदयपुर से बदली कर दिया जाए, पर सरकार ने मंजूर नहीं किया। काउंसिल कुछ नहीं कर सकता। एक पत्ती तक नहीं तोड़ सकता। आदमी काउंसिल को बना सकता है, वही उसको बिगाड़ भी सकता है। भगवान् जिलाता है, तो भगवान ही मारता है। काउंसिल को सरकार बनाता है और वह सरकार के मुट्ठी में है। जब जाति द्वारा काउंसिल बनेगा, तब उससे देश का अकल्यान होगा। यह सब जानता है, पर कुछ न करने से कुछ करते रहना अच्छा है। मरना भी मरना है, और खाट पर पड़े रहना भी मरना है; लेकिन एक अवस्था में कोई आशा नहीं रहता, दूसरी अवस्था में कुछ आशा रहता है। बस, इतना ही अंतर है, और कुछ नहीं।


इंदु ने छेड़कर पूछा-जब आप जानते हैं कि वहाँ जाना व्यर्थ है, तो क्यों जाते हैं? क्या आप बाहर रहकर कुछ नहीं कर सकते?

गांगुली-(हँसकर) वही तो बात है इंदुरानी, हम खाट पर पड़ा है, हिल नहीं सकता, बात नहीं कर सकता, खा नहीं सकता; लेकिन बाबा,यमराज को देखकर हम तो उठ भागेगा, रोएगा कि महाराज, कुछ दिन और रहने दो। हमारा जिंदगी काउंसिल में गुजर गया, अब कोई दूसरा रास्ता नहीं दिखाई देता।

इंदु-मैं तो ऐसी जिंदगी से मर जाना बेहतर समझूँ। कम-से-कम यह तो आशा होगी कि कदाचित् आनेवाला जीवन इससे अच्छा हो।

गांगुली-(हँसकर) हमको कोई कह दे कि मरकर तुम फिर इसी देश में आएगा और फिर काउंसिल में जा सकेगा, तो हम यमराज से बोलेगा-बाबा, जल्दी कर। पर ऐसा तो कहता नहीं।

जॉन सेवक-मेरा विचार है कि नये चुनाव में व्यापार-भवन की ओर से खड़ा हो जाऊँ।

गांगुली-आप किस दल में रहेगा?

जॉन सेवक-मेरा कोई न दल है और न होगा। मैं इसी विचार और उद्देश्य से जाऊँगा कि स्वदेशी व्यापार की रक्षा कर सकूँ। मैं प्रयत्न करूँगा कि विदेशी वस्तुओं पर बड़ी कठोरता से कर लगाया जाए, इस नीति का पालन किए बिना हमारा व्यापार कभी सफल न होगा।

गांगुली-इंग्लैंड को क्या करेगा?

जॉन सेवक-उसके साथ भी अन्य देशों का-सा व्यवहार होना चाहिए। मैं इंग्लैंड की व्यावसायिक दासता का घोर विरोधी हूँ।

गांगुली-(घड़ी देखकर) बहुत अच्छी बात है, आप खड़ा हो। अभी हमको यहाँ से अकेला जाना पड़ता है तब दो आदमी साथ-साथ जाएगा। अच्छा, अब जाता है। कई आदमियों से मिलना है।

डॉक्टर गांगुली के बाद जॉन सेवक ने घर की राह ली। इंदु मकान पर पहुँची, तो राजा साहब बोले-तुम कहाँ रह गईं?

इंदु-रास्ते में डॉक्टर गांगुली और मि. जॉन सेवक मिल गए, बातें होने लगीं।

महेंद्र-गांगुली को साथ क्यों न लाईं?

इंदु-जल्दी में थे। आज तो इस अंधो ने कमाल कर दिया।

महेंद्र-एक ही धूर्त है। जो उसके स्वभाव से परिचित न होगा, जरूर धोखे में आ गया होगा। अपनी निर्दोषिता सिध्द करने के लिए इससे उत्ताम और कोई ढंग धयान ही में नहीं आ सकता। इसे चमत्कार कहना चाहिए। मानना पड़ेगा कि उसे मानव चरित्र का पूरा ज्ञान है। निरक्षर होकर भी आज उसने कितने ही शिक्षित और विचारशील आदमियों को अपना भक्त बना लिया। यहाँ लोग उसका जुर्माना अदा करने के लिए चंदा जमा कर रहे हैं। सुना है, जुलूस भी निकालना चाहते हैं। पर मेरा दृढ़ विश्वास है कि उसने उस औरत को बहकाया, और मुझे अफसोस है कि और कड़ी सजा क्यों न दी।

इंदु-तो आपने चंदा भी न दिया होगा?

महेंद्र-कभी-कभी तुम बेसिर-पैर की बातें करने लगती हो। चंदा कैसे देता, अपने मुँह में आप ही थप्पड़ मारता!

इंदु-लेकिन मैंने तो दिया है। मुझे...

महेंद्र-अगर तुमने दे दिया है, तो बुरा किया है।

इंदु-मुझे यह क्या मालूम था कि...

महेंद्र-व्यर्थ बातें न बनाओ। अपना नाम गुप्त रखने को तो कह दिया है?

इंदु-नहीं, मैंने कुछ नहीं कहा।

महेंद्र-तो तुमसे ज्यादा बेसमझ आदमी संसार में न होगा। तुमने इंद्रदत्ता को रुपये दिए होंगे। इंद्रदत्ता यों बहुत विनयशील और सहृदय युवक है, और मैं उसका दिल से आदर करता हूँ। लेकिन इस अवसर पर वह दूसरों से चंदा वसूल करने के लिए तुम्हारा नाम उछालता फिरेगा। जरा दिल से सोचो, लोग क्या समझेंगे। शोक है। अगर इस वक्त मैं दीवार से सिर नहीं टकरा लेता, तो समझ लो कि बड़े धैर्य से काम ले रहा हूँ। तुम्हारे हाथों मुझे सदैव अपमान ही मिला, और तुम्हारा यह कार्य तो मेरे मुख पर कालिमा का चिद्द है, जो कभी नहीं मिट सकता।


यह कहकर महेंद्रकुमार निराश होकर आरामकुर्सी पर लेट गए और छत की ओर ताकने लगे। उन्होंने दीवार से सिर न टकराने में चाहे असीम धैर्य से काम लिया या न लिया हो, पर इंदु ने अपने मनोभावों को दबाने में असीम धैर्य से जरूर काम लिया। जी में आता था कह दूँ, मैं आपकी गुलाम नहीं हूँ, मुझे यह बात सम्भव ही नहीं मालूम होती थी कि कोई ऐसा प्राणी भी हो सकता है, जिस पर ऐसी करुण अपील का कुछ असर न हो। मगर भय हुआ कि कहीं बात बढ़ न जाए। उसने चाहा कि कमरे में चली जाऊँ और निर्दय प्रारब्ध को, जिसने मेरी शांति में विघ्न डालने का ठेका-सा ले लिया है, पैरों-तले कुचल डालूँ और दिखा दूँ कि धैर्य और सहनशीलता से प्रारब्ध के कठोरतम आघातों का प्रतिकार किया जा सकता है, किंतु ज्यों ही वह द्वार की तरफ चली कि महेंद्रकुमार फिर तनकर बैठ गए और बोले-जाती कहाँ हो,क्या मेरी सूरत से भी घृणा हो गई? मैं तुमसे बहुत सफाई से पूछना चाहता हूँ कि तुम इतनी निरंकुशता से क्यों काम करती हो? मैं तुमसे कितनी बार कह चुका हूँ कि जिन बातों का सम्बंध मुझसे हो, वे मुझसे पूछे बिना न की जाएा करें। हाँ, अपनी निजी बातों में तुम स्वाधीन हो; मगर तुम्हारे ऊपर मेरी अनुनय-विनय का कोई असर क्यों नहीं होता? क्या तुमने कसम खा ली है कि मुझे बदनाम करके, मेरे सम्मान को धूल में मिलाकर, मेरी प्रतिष्ठा को पैरों से कुचलकर तभी दम लोगी?


इंदु ने गिड़गिड़ाकर कहा-ईश्वर के लिए इस वक्त मुझे कुछ कहने के लिए विवश न कीजिए। मुझसे भूल हुई या नहीं, इस पर मैं बहस नहीं करना चाहती, मैं माने लेती हूँ कि मुझसे भूल हुई और जरूर हुई। उसका प्रायश्चित्ता करने को तैयार हूँ। अगर अब भी आपका जी न भरा हो,तो लीजिए, बैठी जाती हूँ। आप जितनी देर तक और जो कुछ चाहें, कहें; मैं सिर न उठाऊँगी।

मगर क्रोध अत्यंत कठोर होता है। वह देखना चाहता है कि मेरा एक-एक वाक्य निशाने पर बैठता है या नहीं, वह मौन को सहन नहीं कर सकता। उसकी शक्ति अपार है। ऐसा कोई घातक-से-घातक शस्त्र नहीं है, जिससे बढ़कर काट करने वाले यंत्र उसकी शस्त्रशाला में न हो;लेकिन मौन वह मंत्र है, जिसके आगे उसकी सारी शक्ति विफल हो जाती है। मौन उसके लिए अजेय है। महेंद्रकुमार चिढ़कर बोले-इसका यह आशय है कि मुझे बकवास का रोग हो गया है और कभी-कभी उसका दौरा हो जाएा करता है?

इंदु-यह आप खुद कहते हैं।

इंदु से भूल हुई कि वह अपने वचन को निभा न सकी। क्रोध को एक चाबुक और मिला। महेंद्र ने आँखें निकालकर कहा-यह मैं नहीं कहता, तुम कहती हो। आखिर बात क्या है? मैं तुमसे जिज्ञासा-भाव से पूछ रहा हूँ कि तुम क्यों बार-बार वे ही काम करती हो, जिनसे मेरी निंदा और जग-हँसाई हो, मेरी मान-प्रतिष्ठा धूल में मिल जाए, मैं किसी को मुँह दिखाने लायक न रहूँ? मैं जानता हूँ, तुम जिद से ऐसा नहीं करतीं। मैं यहाँ तक कह सकता हूँ, तुम मेरे आदेशानुसार चलने का प्रयास भी करती हो। किंतु फिर भी जो यह अपवाद हो जाता है, उसका क्या कारण है? क्या यह बात तो नहीं कि पूर्वजन्म में हम और तुम एक दूसरे के शत्रु थे; या विधाता ने मेरी अभिलाषाओं और मंसूबों का सर्वनाश करने के लिए तुम्हें मेरे पल्ले बाँध दिया है? मैं बहुधा इसी विचार में पड़ा रहता हूँ, पर कुछ रहस्य नहीं खुलता।

इंदु-मुझे गुप्त ज्ञान रखने का तो दावा नहीं है। हाँ, अगर आपकी इच्छा हो, तो मैं जाकर इंद्रदत्ता को ताकीद कर दूँ कि मेरा नाम न जाहिर होने पाए।

महेंद्र-क्या बच्चों की-सी बातें करती हो; तुम्हें यह सोचना चाहिए था कि यह चंदा किस नीयत से जमा किया जा रहा है। इसका उद्देश्य है मेरे न्याय का अपमान करना, मेरी ख्याति की जड़ खोदना। अगर मैं अपने सेवक की डाँट-फटकार करूँ और तुम उसकी पीठ पर हाथ फेरो, तो मैं इसके सिवा और क्या समझ सकता हूँ कि तुम मुझे कलंकित करना चाहती हो? चंदा तो खैर होगा ही, मुझे उसके रोकने का अधिकार नहीं है-जब तुम्हारे ऊपर कोई वश नहीं है, तो दूसरों का क्या कहना-लेकिन मैं जुलूस कदापि न निकलने दूँगा। मैं उसे अपने हुक्म से बंद कर दूँगा। और अगर लोगों को ज्यादा तत्पर देख्रूगा, तो सैनिक-सहायता लेने में भी संकोच न करूँगा।

इंदु-आप जो उचित समझें, करें; मुझसे ये सब बातें क्यों कहते हैं?

महेंद्र-तुमसे इसलिए कहता हूँ कि तुम भी उस अंधो के भक्तों में हो। कौन कह सकता है कि तुमने उससे दीक्षा लेने का निश्चय नहीं किया है! आखिर रैदास भगत के चेले ऊँची जातों में भी तो हैं?

इंदु-मैं दीक्षा को मुक्ति का साधन नहीं समझती और शायद कभी दीक्षा न लूँगी। मगर हाँ; आप चाहे जितना बुरा समझें, दुर्भाग्यवश मुझे यह पूरा विश्वास हो गया है कि सूरदास निरपराध है। अगर यही उसकी भक्ति है, तो मैं अवश्य उसकी भक्त हूँ!

महेंद्र-तुम कल जुलूस में तो न जाओ?

इंदु-जाना तो चाहती थी, पर अब आपकी खातिर से न जाऊँगी। अपने सिर पर नंगी तलवार लटकते नहीं देख सकती।

महेंद्र-अच्छी बात है, इसके लिए तुम्हें अनेक धन्यवाद!

इंदु अपने कमरे में जाकर लेट गई। उसका चित्ता बहुत खिन्न हो रहा था। वह देर तक राजा साहब की बातों पर विचार करती रही, फिर आप-ही-आप बोली-भगवान्, यह जीवन असह्य हो गया है। या तो तुम इनके हृदय को उदार कर दो, या मुझे संसार से उठा लो। इंद्रदत्ता इस वक्त न जाने कहाँ होगा? क्यों न उसके पास एक रुक्का भेज दूँ कि खबरदार, मेरा नाम जाहिर न होने पाए! मैंने इनसे नाहक कह दिया कि चंदा दिया। क्या जानती थी कि यह गुल खिलेगा!

उसने तुरंत घंटी बजाई, नौकर अंदर आकर खड़ा हो गया। इंदु ने रुक्का लिखा-प्रिय इंद्र, मेरे चंदे को किसी पर जाहिर मत करना, नहीं तो मुझे बड़ा दु:ख होगा। मुझे बहुत विवश होकर ये शब्द लिखने पड़े हैं।

फिर रुक्के को नौकर को देकर बोली-इंद्रदत्ता बाबू का मकान जानता है?

नौकर-होई तो कहूँ सहरै मँ न? पूछ लेबै!

इंदु-शहर में तो शायद उम्र-भर उनके घर का पता न लगे।

नौकर-आप चिट्ठी तो दें, पता तो हम लगाउब, लगी न, का कही!

इंदु-ताँगा ले लेना, काम जल्दी का है।

नौकर-हमार गोड़ ताँगा से कम थोरे है। का हम कौनों ताँगा ससुर से कम चलित है!

इंदु-बाजार चौक से होते हुए मेरे घर तक जाना। बीस बिस्वे वह तुम्हें मेरे घर पर ही मिलेंगे। इंद्रदत्ता को देखा है? पहचानता है न?

नौकर-जेहका एक बार देख लेई, ओहका जनम-भर न भूली। इंदर बाबू का तो सैकरन बेर देखा है।

इंदु-किसी को यह खत मत दिखाना।

नौकर-कोऊ देखी कइस, पहले औकी आँखि न फोरि डारब?

इंदु ने रुक्का दिया और नौकर चला गया। तब वह फिर लेट गई और वे ही बातें सोचने लगी-मेरा यह अपमान इन्हीं के कारण हो रहा है। इंद्र अपने दिल में क्या सोचेगा। यही न कि राजा साहब ने इसे डाँटा होगा। मानो मैं लौंडी हूँ, जब चाहते हैं डाँट देते हैं। मुझे कोई काम करने की स्वाधीनता नहीं है। उन्हें अख्तयार है, जो चाहें, करें। मैं उनके इशारों पर चलने के लिए मजबूर हूँ। कितनी अधोगति है!

यह सोचते ही वह तेजी से उठी और घंटी बजाई। लौंडी आकर खड़ी हो गई। इंदु बोली-देख, भीखा चला तो नहीं गया? मैंने उसे एक रुक्का दिया है। जाकर उससे वह रुक्का माँग ला। अब न भेजूँगी। चला गया हो, तो किसी को साइकिल पर दौड़ा देना। चौक की तरफ मिल जाएगा।

लौंडी चली गई और जरा देर में भीखा को लिए हुए आ पहुँची। भीख बोला-जो छिन-भर और न जाता, तो हम घरमा न मिलित।

इंदु-काम तो तुमने जुर्माने का किया है कि इतना जरूरी खत और अभी तक घर में पड़े रहे। लेकिन इस वक्त यही अच्छा हुआ। वह रुक्का अब न जाएगा, मुझे दो।

उसने रुक्का लेकर फाड़ डाला। तब आज का समाचार-पत्र खोलकर देखने लगी। पहला ही शीर्षक था-'शास्त्रीजी की महत्तवपूर्ण वक्तृता'। इंदु ने पत्र को नीचे डाल दिया-यह महाशय तो शैतान से ज्यादा प्रसिध्द हो गए। जहाँ देखो, वहीं शास्त्री। ऐसे मनुष्य की योग्यता की चाहे जितनी प्रशंसा की जाए, पर उसका सम्मान नहीं किया जा सकता। शास्त्रीजी का नाम आते ही मुझे इसकी याद आ जाती है। जो आदमी जरा-जरा-से मतभेद पर सिर हो जाए, दाल में जरा-सा नमक ज्यादा हो जाने पर स्त्री को घर से निकाल दे, जिसे दूसरों के मनोभावों का जरा भी लिहाज न हो, जिसे जरा भी चिंता न हो कि मेरी बातों से किसी के दिल पर क्या असर होगा, वह भी कोई आदमी है! हो सकता है कि कल को कहने लगें, अपने पिता से मिलने मत जाओ। मानो, मैं इनके हाथों बिक गई!

दूसरे दिन प्रात:काल उसने गाड़ी तैयार कराई और दुशाला ओढ़कर घर से निकली। महेंद्रकुमार बाग में टहल रहे थे। यह उनका नित्य का नियम था। इंदु को जाते देखा, तो पूछा-इतने सबेरे कहाँ?

इंदु ने दूसरी ओर ताकते हुए कहा-जाती हूँ आपकी आज्ञा का पालन करने। इंद्रदत्ता से रुपये वापस लूँगी।

महेंद्र-इंदु, सच कहता हूँ, तुम मुझे पागल बना दोगी।

इंदु-आप मुझे कठपुतलियों की तरह नाचना चाहते हैं। कभी इधर, कभी उधर?

सहसा इंद्रदत्ता सामने से आते हुए दिखाई दिए। इंदु उनकी ओर लपककर चली, मानो अभिवादन करने जा रही है, और फाटक पर पहुँचकर बोली-इंद्रदत्ता, सच कहना, तुमने किसी से मेरे चंदे की चर्चा तो नहीं की?

इंद्रदत्ता सिटपिटा-सा गया, जैसे कोई आदमी दुकानदार को पैसे की जगह रुपया दे आए। बोला-आपने मुझे मना तो नहीं किया था?

इंदु-तुम झूठे हो, मैंने मना किया था।

इंद्रदत्ता-इंदुरानी, मुझे खूब याद है कि आपने मना नहीं किया था। हाँ, मुझे स्वयं बुध्दि से काम लेना चाहिए था। इतनी भूल जरूर मेरी है।

इंदु-(धीरे से) तुम महेंद्र से इतना कह सकते हो कि मैंने इनकी चर्चा किसी से नहीं की, मुझ पर तुम्हारी बड़ी कृपा होगी। बड़े नैतिक संकट में पड़ी हुई हूँ।

यह कहते-कहते इंदु की आँखें डबडबा आईं। इंद्रदत्ता वातावरण ताड़ गया! बोला-हाँ, कह दूँगा-आपकी खातिर से।

एक क्षण में इंद्रदत्ता राजा के पास जा पहुँचा। इंदु घर में चली गई।

महेंद्रकुमार ने पूछा-कहिए महाशय, इस वक्त कैसे कष्ट किया?

इंद्रदत्ता-मुझे तो कष्ट नहीं हुआ, आपको कष्ट देने आया हूँ। क्षमा कीजिएगा। यद्यपि यह नियम-विरुध्द है, पर मेरी आपसे प्रार्थना है कि सूरदास और सुभागी का जुर्मान आप इसी वक्त मुझसे ले लें और उन दोनों को रिहा करने का हुक्म दे दें। कचहरी अभी देर में खुलेगी। मैं इसे आपकी विशेष कृपा समझूँगा।

महेंद्रकुमार-हाँ, नियम-विरुध्द तो है, लेकिन तुम्हारा लिहाज करना पड़ता है। रुपये मुनीम को दे दो, मैं रिहाई का हुकम लिखे देता हूँ। कितने रुपये जमा किए?

इंद्रदत्ता-बस, शाम को चुने हुए सज्जनों के पास गया था। कोई पाँच सौ रुपये हो गए।

महेंद्रकुमार-तब तो तुम इस कला में निपुण हो। इंदुरानी का नाम देखकर न देनेवालों ने भी दिए होंगे।

इंद्रदत्ता-मैं इंदुरानी के नाम का इससे ज्यादा आदर करता हूँ। अगर उनका नाम दिखाता, तो पाँच सौ रुपये न लाता, पाँच हजार लाता।

महेंद्रकुमार-अगर यह सच है, तो तुमने मेरी आबरू रख ली।

इंद्रदत्ता-मुझे आपसे एक याचना और करनी है। कुछ लोग सूरदास को इज्जत के साथ उनके घर पहुँचाना चाहते हैं। सम्भव है, दो-चार सौ दर्शक जमा हो जाएँ। मैं आपसे इसका आज्ञा चाहता हूँ।

महेंद्रकुमार-जुलूस निकालने की आज्ञा नहीं दे सकता। शांति-भंग हो जाने की शंका है।

इंद्रदत्ता-मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि पत्ता तक न हिलेगा।

महेंद्रकुमार-यह असम्भव है।

इंद्रदत्ता-मैं इसकी जमानत दे सकता हूँ।

महेंद्रकुमार-यह नहीं हो सकता।

इंद्रदत्ता समझ गया कि राजा साहब से अब ज्यादा आग्रह करना व्यर्थ है। जाकर मुनीम को रुपये दिए और ताँगे की ओर चला। सहसा राजा साहब ने पूछा-जुलूस तो न निकलेगा न?

इंद्रदत्ता-निकलेगा। मैं रोकना चाहूँ, तो भी नहीं रोक सकता।

इंद्रदत्ता वहाँ से अपने मित्रों को सूचना देने के लिए चले। जुलूस का प्रबंध करने में घंटों की देर लग गई। इधर उनके जाते ही राजा साहब ने जेल के दारोगा को टेलीफोन कर दिया कि सूरदास और सुभागी को छोड़ दिया जाए और उन्हें बंद गाड़ी में बैठाकर उनके घर पहुँचा दिया जाए। जब इंद्रदत्ता सवारी, बाजे आदि लिए हुए जेल पहुँचे, तो मालूम हुआ, पिंजरा खाली है, चिड़ियाँ उड़ गईं। हाथ मलकर रह गए। उन्हीं पाँवों पाँडेपुर चले। देखा, तो सूरदास एक नीम के नीचे राख के ढेर के पास बैठा हुआ है। एक ओर सुभागी सिर झुकाए खड़ी है। इंद्रदत्ता को देखते ही जगधर और अन्य कई आदमी इधर-उधर से आकर जमा हो गए।

इंद्रदत्ता-सूरदास, तुमने तो बड़ी जल्दी की। वहाँ लोग तुम्हारा जुलूस निकालने की तैयारियाँ किए हुए थे। राजा साहब ने बाजी मार ली। अब बतलाओ, वे रुपये क्या हों, जो जुलूस के खर्च के लिए जमा किए गए थे?

सूरदास-अच्छा ही हुआ कि मैं यहाँ चुपके से आ गया, नहीं तो सहर-भर में घूमना पड़ता! जुलूस बड़े-बड़े आदमियों का निकालता है कि अंधो-भिखारियों का? आप लोगों ने जरीबाना देकर छुड़ा दिया, यही कौन कम धरम किया?

इंद्रदत्ता-अच्छा बताओ, ये रुपये क्या किए जाएँ? तुम्हें दे दूँ?

सूरदास-कितने रुपये होंगे?

इंद्रदत्ता-कोई तीन सौ होंगे।

सूरदास-बहुत हैं। इतने में भैरों की दूकान मजे में बन जाएगी।

जगधर को बुरा लगा, बोला-पहले अपनी झोंपड़ी की तो फिकर करो!

सूरदास-मैं इसी पेड़ के नीचे पड़ रहा करूँगा, या पंडाजी के दालान में।

जगधर-जिसकी दूकान जली है, वह बनवाएगा, तुम्हें क्या चिंता है?

सूरदास-जली तो है मेरे ही कारण!

जगधर-तुम्हारा घर भी तो जला है?

सूरदास-यह भी बनेगा, लेकिन पीछे से। दूकान न बनी, तो भैरों को कितना घाटा होगा! मेरी भीख तो एक दिन भी बंद न होगी!

जगधर-बहुत सराहने से भी आदमी का मन बिगड़ जाता है। तुम्हारी भलमनसी को लोग बखान करने लगे, तो अब तुम सोचते होगे कि ऐसा काम करूँ, जिसमें और बड़ाई हो। इस तरह दूसरों की ताली पर नाचना न चाहिए।

इंद्रदत्ता-सूरदास, तुम इन लोगों को बकने दो, तुम ज्ञानी हो, ज्ञान-पक्ष को मत छोड़ो। ये रुपये पास रखे जाता हूँ; जो इच्छा हो, करना।

इंद्रदत्ता चला गया, तो सुभागी ने सूरदास से कहा-उसकी दूकान बनवाने का नाम न लेना।

सूरदास-मेरे घर से पहले उसकी दूकान बनेगी। यह बदनामी सिर पर कौन ले कि सूरदास ने भैरों का घर जलवा दिया। मेरे मन में यह बात समा गई है कि हमीं में से किसी ने उसकी दूकान जलाई।

सुभागी-उससे तुम कितना ही दबो, पर वह तुम्हारा दुश्मन ही बना रहेगा। कुत्तो की पूँछ कभी सीधी नहीं होती।

सूरदास-तुम दोनों फिर एक हो जाओगे, तब तुझसे पूछँगा।

सुभागी-भगवान मार डालें, पर उसका मुँह न दिखावें।

सूरदास-मैं कहे देता हूँ, एक दिन तू भैरों के घर की देवी बनेगी।

सूरदास रुपये लिए हुए भैरों के घर की ओर चला। भैरों रपट करने जाना तो चाहता था; पर शंका हो रही थी कि कहीं सूरदास की झोंपड़ी की भी बात चली, तो क्या जवाब दँगा। बार-बार इरादा करके रुक जाता था। इतने में सूरदास को सामने आते देखा, तो हक्का-बक्का रह गया। विस्मित होकर बोला-अरे, क्या जरीबाना दे आया क्या?

बुढ़िया बोली-बेटा, इसे जरूर किसी देवता का इष्ट है, नहीं तो वहाँ से कैसे भाग आता!

सूरदास ने बढ़कर कहा-भैरों, मैं ईश्वर को बीच में डालकर कहता हूँ, मुझे कुछ नहीं मालूम कि तुम्हारी दूकान किसने जलाई। तुम मुझे चाहे जितना नीच समझो; पर मेरी जानकारी में यह बात कभी न होने पाती। हाँ, इतना कह सकता हूँ कि यह किसी मेरे हितू का काम है।

भैरों-पहले यह बताओ कि तुम छूट कैसे आए? मुझे तो यही बड़ा अचरज है।

सूरदास-भगवान् की इच्छा। सहर के कुछ धर्मात्मा आदमियों ने आपस में चंदा करके मेरा जरीबाना भी दे दिया और कोई तीन सौ रुपये जो बच रहे हैं, मुझे दे गए हैं। मैं तुमसे यह कहने आया हूँ कि तुम ये रुपये लेकर अपनी दूकान बनवा लो, जिसमें तुम्हारा हरज न हो। मैं सब रुपये ले आया हूँ।

भैरों भौंचक्का होकर उसकी ओर ताकने लगा, जैसे कोई आदमी आकाश से मोतियों की वर्षा होते देखे। उसे शंका हो रही थी कि इन्हें बटोरूँ या नहीं, इनमें कोई रहस्य तो नहीं है, इनमें कोई जहरीला कीड़ा तो नहीं छिपा हुआ है, कहीं इनको बटोरने से मुझ पर कोई आफत तो न आ जाएगी। उसके मन में प्रश्न उठा, यह अंधा सचमुच रुपये देने के लिए आया है, या मुझे ताना दे रहा है। जरा इसका मन टटोलना चाहिए,बोला-तुम अपने रुपये रखो, यहाँ कोई रुपयों के भूखे नहीं हैं! प्यासे मरते भी हों, तो दुश्मन के हाथ से पानी न पिएँ।

सूरदास-भैरों, हमारी-तुम्हारी दुसमनी कैसी? मैं तो किसी को अपना दुश्मन नहीं देखता। चार दिन की जिंदगानी के लिए क्या किसी से दुसमनी की जाए! तुमने मेरे साथ कोई बुराई नहीं की। तुम्हारी जगह मैं होता और समझता कि तुम मेरी घरवाली को बहकाए लिए जाते हो,तो मैं भी वहीं करता, जो तुमने किया। अपनी आबरू किसको प्यारी नहीं होती? जिसे अपनी आबरू प्यारी न हो, उसकी गिनती आदमियों में नहीं, पशुओं में है। मैं तुमसे सच कहता हूँ, तुम्हारे ही लिए मैंने ये रुपये लिए, नहीं तो मेरे लिए तो पेड़ की छाँह बहुत थी। मैं जानता हूँ,अभी तुम्हें मेरे ऊपर संदेह हो रहा है, लेकिन कभी-न-कभी तुम्हारा मन मेरी ओर से साफ हो जाएगा। ये रुपये लो और भगवान् का नाम लेकर दूकान बनवाने में हाथ लगा दो। कम पड़ेंगे, तो जिस भगवान् ने इतनी मदद की है, वही भगवान् और मदद भी करेंगे।

भैरों को इन वाक्यों में सहृदयता और सज्जनता की झलक दिखाई दी। सत्य विश्वासोत्पादक होता है। नरम होकर बोला-आओ, बैठो, चिलम पियो। कुछ बातें हों, तो समझ में आए। तुम्हारे मन का भेद ही नहीं खुलता। दुश्मन के साथ कोई भलाई नहीं करता। तुम मेरे साथ क्यों इतनी मेहरबानी करते हो?

सूरदास-तुमने मेरे साथ कौन-सी दुश्मनी की? तुमने वही किया, जो तुम्हारा धरम था! मैं रात-भर हिरासत में बैठा यही सोचता रहा कि तुम क्यों मेरे पीछे पड़े हुए हो, मैंने तुम्हारे साथ कोई बुराई नहीं की, तो मुझे मालूम हुआ कि तुम मेरे साथ कोई बुराई नहीं कर रहे हो। यही तुम्हारा धरम है। औरत के पीछे तो खून हो जाता है। तुमने नालिस ही कर दी, तो कौन बुरा काम किया! बस, अब तुमसे मेरी यही विनती है कि जिस तरह कल भरी अदालत में पंचों ने मुझे निरपराध कह दिया, उसी तरह तुम भी मेरी ओर से अपना मन साफ कर लो। मेरी इससे भी बड़ी दुर्गत हो, अगर मैंने तुम्हारे साथ कोई घाटा किया है। हाँ, मुझसे एक ही बात नहीं हो सकती। मैं सुभागी को अपने घर से निकाल नहीं सकता। डरता हूँ कि कोई आड़ न रहेगी, तो न जाने उसकी क्या दसा हो। मेरे यहाँ रहेगी, तो कौन जाने, कभी तुम्हीं उसे फिर रख लो।


भैरों का मलिन हृदय इस आंतरिक निर्मलता से प्रतिबिम्बित हो गया। आज पहली बार उसे सूरदास की नेकनीयती पर विश्वास हुआ। सोचा-अगर इसका दिल साफ न होता, तो मुझसे ऐसी बातें क्यों करता? मेरा कोई डर तो इसे है नहीं। मैं जो कुछ कर सकता था, कर चुका। इसके साथ तो सारा सहर है। सबों ने जरीबाना अदा कर दिया। ऊपर से कई सौ रुपए और दे गए। मुहल्ले में भी इसकी धाक फिर बैठ गई। चाहे तो बात-की-बात में मुझे बिगाड़ सकता है। नीयत साफ न होती, तो अब सुभागी के साथ आराम से रहता। अंधा है, अपाहिज है, भीख माँगता है; पर उसकी कितनी मरजाद है, बड़े-बडे आदमी आव-भगत करते हैं! मैं कितना अधम, नीच आदमी हूँ, पैसे के लिए रात-दिन दगा-फरेब करता रहता हूँ। कौन-सा पाप है, जो मैंने नहीं किया! इस बेचारे का घर जलाया, एक बार नहीं, दो बार इसके रुपये उठा ले गया। यह मेरे साथ नेकी ही करता चला आता है। सुभागी के बारे में मुझे सक-ही-सक था। अगर कुछ नीयत बद होती, तो इसका हाथ किसने पकड़ा था,सुभागी को खुले-खजाने रख लेता। अब तो अदालत-कचहरी का भी डर नहीं रहा। यह सोचता हुआ वह सूरदास के पास आकर बोला-सूरे, अब तक मैंने तुम्हारे साथ जो बुराई-भलाई की, उसे माफ करो। आज से अगर तुम्हारे साथ कोई बुराई करूँ, तो भगवान मुझसे समझें। ये रुपये मुझे मत दो, मेरे पास रुपये हैं। ये भी तुम्हारे ही रुपये हैं। दूकान बनवा लूँगा। सुभागी पर भी मुझे अब कोई संदेह नहीं रहा। मैं भगवान् को बीच में डालकर कहता हूँ, अब मैं कभी उसे कोई कड़ी बात तक न कहूँगा। मैं अब तक धोखे में पड़ा हुआ था। सुभागी मेरे यहाँ आने पर वह तुम्हारी बात को नाहीं तो न करेगी?


सूरदास-राजी ही है, बस उसे यही डर है कि तुम फिर मारने-पीटने लगोगे।

भैरों-सूरे, अब मैं उसे भी पहचान गया। मैं उसके जोग नहीं था। उसका ब्याह तो किसी धर्मात्मा आदमी से होना चाहिए था। (धीरे से) आज तुमसे कहता हूँ, पहली बार भी मैंने ही तुम्हारे घर में आग लगाई थी और तुम्हारे रुपये चुराए थे।

सूरदास-उन बातों को भूल जाओ भैरों! मुझे सब मालूम है। संसार में कौन है, जो कहे कि मैं गंगाजल हूँ। जब बडे-बड़े साधु-संन्यासी माया-मोह में फँसे हुए हैं, तो हमारी-तुम्हारी क्या बात है! हमारी बड़ी भूल यही है कि खेल को खेल की तरह नहीं खेलते। खेल में धाँधली करके कोई जीत ही जाए, तो क्या हाथ आएगा? खेलना तो इस तरह चाहिए कि निगाह जीत पर रहे; पर हार से घबराए नहीं, ईमान को न छोड़े। जीतकर इतना न इतराए कि अब कभी हार होगी ही नहीं। यह हार-जीत तो जिंदगानी के साथ है। हाँ, एक सलाह की बात कहता हूँ। तुम ताड़ी की दुकान छोड़कर कोई दूसरा रोजगार क्यों नहीं करते?

भैरों-जो कहो, वह करूँ। यह रोजगार खराब है। रात-दिन जुआरी, चोर, बदमाश आदमियों का ही साथ रहता है। उन्हीं की बातें सुनो, उन्हीं के ढंग सीखो। अब मुझे मालूम हो रहा है कि इसी रोजगार ने मुझे चौपट किया। बताओ, क्या करूँ?

सूरदास-लकड़ी का रोजगार क्यों नहीं कर लेते? बुरा नहीं है। आजकल यहाँ परदेसी बहुत आएँगे, बिक्री भी अच्छी होगी। जहाँ ताड़ी की दूकान थी, वहीं एक बाड़ा बनवा दो और इन रुपयों से लकड़ी का काम करना शुरू कर दो।

भैरों-बहुत अच्छी बात है। मगर ये रुपये अपने ही पास रखो। मेरे मन का क्या ठिकाना!

रुपये पाकर कोई और बुराई न कर बैठूँ। मेरे-जैसे आदमी को तो कभी आधो पेट के सिवा भोजन न मिलना चाहिए। पैसे हाथ में आए, और सनक सवार हुई।

सूरदास-मेरे घर न द्वार, रखूँगा कहाँ?

भैरों-इससे तुम अपना घर बनवा लो।

सूरदास-तुम्हें लकड़ी की दुकान से नफा हो, तो बनवा देना।

भैरों-सुभागी को समझा दो।

सूरदास-समझा दूँगा।

सूरदास चला गया। भैरों घर गया, तो बुढ़िया बोली-तुझसे मेल करने आया था न?

भैरों-हाँ, क्यों न मेल करेगा, मैं बड़ा लाट हूँ न! बुढ़ापे में तुझे और कुछ नहीं सूझता। यह आदमी नहीं, साधु है!


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