Saturday, December 2, 2023

निबंध | कवि और कविता | महावीर प्रसाद द्विवेदी | Nibandh | Kavi aur Kavita | Mahavir Prasad Dwivedi


निबंध - कवि और कविता

यह बात सिद्ध समझी गई है कि कविता अभ्यास से नहीं आती। जिसमें कविता करने का स्वाभाविक माद्दा होता है वही कविता कर सकता है। देखा गया है कि जिस विषय पर बड़े-बड़े विद्वान अच्छी कविता नहीं कर सकते उसी पर अपढ़ और कम उम्र के लड़के कभी-कभी अच्छी कविता लिख देते हैं। इससे स्पष्ट है कि किसी-किसी में कविता लिखने की इस्तेदाद स्वाभाविक होती है, ईश्वरदत्त होती है। जो चीज ईश्वरदत्त है वह अवश्य लाभदायक होगी, वह निरर्थक नहीं हो सकती। उससे समाज को अवश्य कुछ न कुछ लाभ पहुँचता है।

कविता यदि यथार्थ में कविता है तो संभव नहीं कि उसे सुनकर सुननेवाले पर कुछ असर न हो। कविता से दुनिया में आज तक बहुत बड़े-बड़े काम हुए हैं। अच्छी कविता सुनकर कवितागत रस के अनुसार दुःख, शोक, क्रोध, करुणा, जोश आदि भाव पैदा हुए बिना नहीं रहते, और जैसा भाव पैदा होता है कार्य के रूप में फल भी वैसा ही होता है। हम लोगों में पुराने जमाने में भाट चारण आदि अपनी कविता ही की बदौलत वीरों में वीरता का संचार कर देते थे। पुराणादि में कारुणिक प्रसंगों का वर्णन सुनने और उत्तर रामचरित आदि दृश्य काव्यों का अभिनय देखने से जो अश्रुपात होने लगता है वह क्या है? वह अच्छी कविता ही का प्रभाव है।

रोम, इंगलैंड, अरब, फारस आदि देशों में इस बात के सैंकड़ों उदाहरण मौजूद हैं कि कवियों ने असंभव बातें समझ कर दिखाई हैं। जहाँ पस्तहिम्मती का दौर था, वहां गदर मचा दिया है। अतएव कविता एक असाधारण चीज़ है। परन्तु बिरले ही को सत्कवि होने का सौभाग्य प्राप्त होता है। जब तक ज्ञानबुद्धि नहीं होती, जब तक सभ्यता का ज़माना नहीं आता—तभी तक कविता की विशेष उन्नति होती है, क्योंकि ‘सभ्यता और कविता में परस्पर विरोध है' (लार्ड मैकाले की प्रसिद्ध उक्ति As Civilization advances Poetry declines) । सभ्यता और विद्या की वृद्धि होने से कविता का असर कम हो जाता है। कविता में कुछ न कुछ झूठ का अंश ज़रूर रहता है। असभ्य अथवा अर्द्धसभ्य लोगों को यह अंश कम खटकता है, शिक्षित और सभ्य लोगों को बहुत। तुलसीदास की रामायण खास-खास स्थलों का स्त्रियों पर जितना प्रभाव पड़ता है, उतना पढ़े-लिखे आदमियों पर नहीं। पुराने काव्यों को पढ़ने से लोगों का चित्त जितना पहले आकृष्ट होता था उतना अब नहीं होता। हज़ारों वर्ष से कविता का क्रम जारी है। जिन प्राकृतिक बातों का वर्णन अब तक बहुत कुछ हो चुका है, प्रायः उन्हीं बातों का वर्णन जो नए कवि होते हैं ये भी उलटफेर से करते हैं, इसी से अब कविता कम हृदयग्राहिणी होती है।

संसार में जो बात जैसी देख पड़े कवि को उसे वैसे ही वर्णन करनी चाहिए। उसके लिए, किसी तरह की रोक या पाबंदी का होना अच्छा नहीं। दबाव से कवि का जोश दब जाता है। उसके मन में जो भाव, आप ही आप पैदा होते हैं, उन्हें जब वह निडर होकर अपनी कविता में प्रगट करता है तभी उसका पूरा-पूरा असर लोगों पर पड़ता है। बनावट से, कविता बिगड़ जाती है। किसी राजा या व्यक्ति विशेष के गुणदोषों को देखकर कवि के मन में जो भाव उद्भूत हों, उन्हें यदि वे रोकटोक प्रकट कर दे तो उसको कविता हृदय-द्रावक हुए बिना न रहे। परंतु परतंत्रता या पुरस्कारप्राप्ति या और किसी तरह की रुकावट पैदा हो जाने से यदि उसे अपने मन की बात कहने का साहस नहीं होता तो कविता का रस ज़रूर कम हो जाता है। इस दशा में अच्छे कवियों की भी कविता नीरस, अतएव प्रभावहीन हो जाती है। सामाजिक और राजनैतिक विषयों में कटु होने से सच कहना भी जहाँ मना है, वहाँ इन विषयों पर कविता करने वाले कवियों की युक्तियों का प्रभाव क्षीण हुए बिना नहीं रहता। कवि के लिए कोई रोक न होनी चाहिए। अथवा जिस विषय में रोक हो उस विषय पर कविता ही न लिखनी चाहिए। नदी, तालाब, वन, पर्वत, फूल, पत्ती, गरमी, सरदी आदि ही के वर्णन से उसे संतोष करना उचित है। ख़ुशामद के जमाने में कविता की बुरी हालत होती है! जो कवि राजाओं, नवाबों या बादशाहों के आश्रय में रहते हैं, अथवा उनको ख़ुश करने के इरादे से कविता करते हैं, उनको ख़ुशामद करनी पड़ती है; वे अपने आश्रयदाताओं की इतनी प्रशंसा करते हैं, इतनी स्तुति करते हैं, कि उनकी उक्तियाँ असलियत से दूर जा पड़ती हैं। इससे कविता को बहुत हानि पहुँचती है। विशेष करके शिक्षित और सभ्य देशों में कवि का काम प्रभावोत्पादक रीति से यथार्थ घटनाओं का वर्णन करना है, आकाशकुसुमों के गुलदस्ते तैयार करना नहीं। अलंकारशास्त्र के आचार्यों ने अतिशयोक्ति एक अलंकार ज़रूर माना है; परंतु अभावोक्तियाँ भी क्या कोई अलंकार है? किसी कवि की बेसिरपैर की बातें सुनकर किस समझदार आदमी को आनंदप्राप्ति हो सकती है? जिस समाज के लोग अपनी झूठी प्रशंसा सुनकर प्रसन्न होते हैं वह समाज प्रशंसनीय नहीं समझा जाता।

कारणवश अमीरों की प्रशंसा करने अथवा किसी भी विषय की कविता में कवि-समुदाय के आजन्म लगे रहने से, कविता की सीमा कट-छँटकर बहुत थोड़ी रह जाती है। इसी तरह की कविता उर्दू में बहुत अधिक है। यदि यह कहें कि आशिकाना (शृंगारिक) कविता के सिवा और तरह की कविता उर्दू में है ही नहीं, तो बहुत बड़ी अत्युक्ति न होगी। किसी दीवान को उठाइए, आशिक-माशूकों के रंगीन रहस्यों से आप उसे प्रारंभ से अंत तक रँगा हुआ पाइएगा। इश्क़ भी यदि सच्चा हो तो कविता में कुछ असलियत आ सकती है। पर क्या कोई कह सकता है कि आशिकाना शेर कहने वाली का सारा रोना, कराहना, ठंडी साँस लेना, जीते जी अपनी कब्रों पर चिराग जलाना सब सच है? सब न सही, उनके प्रलापों का क्या थोड़ा सा भी अंश सच है? फिर इस तरह की कविता सैकड़ों वर्ष से होती आ रही है। अनेक कवि हो चुके, जिन्होंने इस विषय पर न मालूम क्या-क्या लिख डाला है। इस दशा में नए कवि अपनी कविता में नयापन कैसे ला सकते हैं? वही तुक, वही छंद, वही शब्द, वही उपमा, वही रूपक! इस पर भी लोग पुरानी लकीर को बस बार-बार पीटते जाते हैं। कवित्त, सवैए, घनाक्षरी, दोहे, सोरठे लिखने से बाज नहीं आते। नखसिख, नायिकाभेद, अलंकारशास्त्र पर पुस्तकों पर पुस्तकें लिखते चले जाते हैं! अपनी व्यर्थ, बनावटी बातों से देवी-देवताओं तक को बदनाम करने से नहीं संकुचते। फल इसका यह हुआ है कि असलियत काफ़ूर हो गई है।

कविता के बिगड़ने और उसकी सीमा परिमित हो जाने से साहित्य पर भारी आघात होता है। वह बरबाद हो जाता है। भाषा में दोष आ जाता है। जब कविता की प्रणाली बिगड़ जाती है तब उसका असर सारे ग्रंथकारों पर पड़ता है। यही क्यों, सर्वसाधारण की बोलचाल तक में कविता के दोष आ जाते हैं। जिन शब्दों, जिन भावों, जिन उक्तियों का प्रयोग कवि करते हैं उन्हीं का प्रयोग और लोग भी करने लगते हैं। भाषा और बोलचाल के संबंध में कवि ही प्रमाण माने जाते हैं। कवियों ही के प्रयुक्त शब्दों और मुहावरों को कोशकार अपने कोशों में रखते हैं। मतलब यह कि भाषा और बोलचाल का बनाना या बिगाड़ना प्रायः कवियों ही के हाथ में रहता है। जिस भाषा के कवि अपनी कविता में बुरे शब्द और बुरे भाव भरते रहते हैं, उस भाषा की उन्नति तो होती नहीं, उल्टा अवनति होती जाती है।

कविता-प्रणाली के बिगड़ जाने पर यदि कोई नए तरह की स्वाभाविक कविता करने लगता है तो लोग उसकी निंदा करते हैं। कुछ नासमझ और नादान आदमी कहते हैं, यह बड़ी भद्दी कविता है। कुछ कहते हैं, यह कविता ही नहीं। कुछ कहते हैं कि यह कविता तो ‘छंदप्रभाकर’ में दिए गए लक्षणों से च्युत है, अतएव यह निर्दोष नहीं। बात यह है कि वे जिसे अब तक कविता कहते आए हैं वही उनकी समझ में कविता है और सब कोरी काँव-काँव! इसी तरह की नुक्ता-चीनी से तंग आकर अँग्रेज़ी के प्रसिद्ध कवि गोल्डस्मिथ ने अपनी कविता को संबोधन करके उसकी सांत्वना की है। वह कहता है- कविते! यह बेकदरी का जमाना है। लोगों के चित्त का तेरी तरफ़ खिंचना तो दूर रहा, उल्टा सब कहीं तेरी निंदा होती है। तेरी बदौलत सभा समाजों और जलसों में मुझे लज्जित होना पड़ता है। पर जब मैं अकेला होता हूँ तब तुझ पर घमंड करता हूँ। याद रख, तेरी उत्पत्ति स्वाभाविक है। जो लोग अपने प्राकृतिक बल पर भरोसा रखते हैं वे निर्धन होकर भी आनंद से रह सकते हैं। पर अप्राकृतिक बल पर किया गया गर्व कुछ दिन बाद ज़रूर चूर्ण हो जाता है।

गोल्डस्मिथ ने इस विषय पर बहुत कुछ कहा है। इससे प्रकट है कि नई कविता-प्रणाली पर भृकुटी टेढ़ी करने वाले कवि प्रकांडों के कहने की कुछ भी परवा न करके अपने स्वीकृत पथ से ज़रा भी इधर-उधर होना उचित नहीं।

आजकल लोगों ने कविता और पद्य को एक ही चीज़ समझ रखा है। यह भ्रम है। कविता और पद्य में वही भेद है जो 'पोयटरी' (Poetry) और 'वर्स' (Verse) में है। किसी प्रभावोत्पादक और मनोरंजक लेख, बात या वक्तृता का नाम कविता है, और नियमानुसार तुली हुई सतरों का पद्य है। जिस पद्य के पढ़ने या सुनने से चित्त पर असर नहीं होता वह कविता नहीं। वह नपी-तुली शब्द-स्थापना मात्र है। गद्य और पद्य दोनों में कविता हो सकती है। तुकबंदी और अनुप्रास कविता के लिए अपरिहार्य नहीं। संस्कृत का प्रायः सारा पद्य-समूह बिना तुकबंदी का है। और संस्कृत से बढ़ कर कविता शायद ही किसी भाषा में हो। अरब में भी सैकड़ों अच्छे-अच्छे कवि हो गए हैं। वहाँ भी शुरू-शुरू में तुकबंदी का बिलकुल ख़्याल नहीं था। अँग्रेज़ी में भी अनुप्रास हीन बेतुकी कविता होती है। हाँ, एक बात ज़रूर है कि वज़न और क़ाफ़िए से कविता अधिक चित्ताकर्षक हो जाती है (Oscar Wilde तुकबंदी को A Spiritual element of thought and passion कहता है) । पर कविता के लिए ये बातें ऐसी हैं जैसे कि शरीर के लिए वस्त्राभरण। यदि कविता का प्रधान धर्म मनोरंजकता और प्रभावोत्पादकता उसमें न हो तो इनका होना निष्फल समझना चाहिए। पद्य के लिए क़ाफ़िए वग़ैरह की ज़रूरत है, कविता के लिए नहीं। कविता के लिए तो ये बातें एक प्रकार से उल्टा हानिकारक हैं। तुले हुए शब्दों में कविता करने और तुक, अनुप्रास आदि ढूँढ़ने से कवियों के विचार-स्वातंत्र्य में बड़ी बाधा आती है। पद्य के नियम कवि के लिए एक प्रकार की बेड़ियाँ हैं। उनसे जकड़ जाने से कवियों को अपने स्वाभाविक उद्यान में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। कवि का काम है कि वह अपने मनोभावों को स्वाधीनतापूर्वक प्रकट करे। पर क़ाफ़िया और वज़न उसकी स्वाधीनता में विघ्न डालते हैं। वे उसे अपने भावों को स्वतंत्रता से नहीं प्रकट करने देते। क़ाफ़िए और वज़न को पहले ढूँढ़कर कवि को अपने मनोभाव तदनुकूल गढ़ने पड़ते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि प्रधान बात अप्रधानता को प्राप्त हो जाती है और एक बहुत ही गौण बात प्रधानता के आसन पर जा बैठती है। फल यह होता है कि कवि की कविता का असर कम हो जाता है। जो बात एक असाधारण और निराले ढंग से शब्दों के द्वारा इस तरह प्रकट की जाए कि सुनने वालों पर उसका कुछ न कुछ असर ज़रूर पड़े, उसका नाम कविता है। आजकल हिंदी के पद्य रचयिताओं में कुछ ऐसे भी हैं जो अपने पद्यों को कालिदास, होमर और बाइरन की कविता से भी बढ़कर समझते हैं। कोई संपादक के ख़िलाफ़ नाटक, प्रहसन और व्यंग्यपूर्ण लेख प्रकाशित करके अपने जी की जलन शांत करते हैं।

कवि का सबसे बड़ा गुण नई-नई बातों का सूझना है। उसके लिए इमैजिनेशन (imagination) की बड़ी ज़रूरत है। जिसमें जितनी भी अधिक यह शक्ति होगी वह उतनी ही अच्छी कविता कर सकेगा। कविता के लिए उपज चाहिए। नए-नए भावों की उपज जिसके हृदय में नहीं होती वह कभी अच्छी कविता नहीं कर सकता। ये बातें प्रतिभा की बदौलत होती हैं, इसलिए संस्कृत वालों ने प्रतिभा को प्रधानता दी है। प्रतिभा ईश्वरदत्त होती है, अभ्यास से वह नहीं प्राप्त होती। इस शक्ति को कवि माँ के पेट से लेकर पैदा होता है। उसी की बदौलत वह भूत और भविष्यत् को हस्तामलकवत् देखता है। वर्तमान की तो कोई बात ही नहीं। इसी की कृपा से वह सांसारिक बातों को एक अजीब निराले ढंग से बयान ध्यान करता है, जिसे सुनकर सुनने वालों के हृदयोदधि में नाना प्रकार के सुख, दुःख, आश्चर्य आदि विकारों की लहरें उठने लगती हैं। कवि कभी-कभी ऐसी अद्भुत बातें कह देते हैं कि जो कवि नहीं हैं उनकी पहुँच वहाँ तक कभी हो ही नहीं सकती।

कवि का काम है कि वह प्रकृति विकास को ख़ूब ध्यान से देखे। प्रकृति की लीला का कोई ओर छोर नहीं। यह अनंत है। प्रकृति अद्भुत, अद्भुत खेल खेला करती है। एक छोटे से फूल में वह अजीब-अजीब कौशल दिखलाती है। वे साधारण आदमियों के ध्यान में नहीं आते। वे उनको समझ नहीं सकते, पर कवि अपनी सूक्ष्म दृष्टि से प्रकृति के कौशल अच्छी तरह से देख लेता है; उनका वर्णन भी वह करता है, उनसे नाना प्रकार की शिक्षा भी ग्रहण करता है और अपनी कविता के द्वारा संसार को लाभ पहुँचाता है। जिस कवि में प्राकृतिक दृश्य और प्रकृति के कौशल देखने और समझने का जितना ही अधिक ज्ञान होता है वह उतना ही बड़ा कवि भी होता है।

कवि-कुलगुरू कालिदास के विश्व-विख्यात काव्य रघुवंश तथा कविवर बिहारी लाल की सतसई से, विषय का, एक-एक प्रत्युदाहरण सुनिए-

इक्षुच्छायनिषादिन्यस्तस्य गोप्तुर्गुणोदयम्।
आकुमारकखोद्घातं शालिगोप्यो जगुर्यशः ।। -रघुवंश

रघु की दिग्विजय यात्रा के उपोद्घात में शरदृतु का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि ईख की छाया में बैठी हुई धान रखाने वाली स्त्रियाँ रघ का यश गाती थां। शरत् काल में जब धान के खेत पकते है, तब ईख इतनी-इतनी बड़ी हो जाती है कि उसकी छाया में हैठकर खेत रखा सकें। ईख और धान के खेत प्रायः पास ही पास हुआ करते हैं। कवि को ये सब बाते विदित थीं। श्लोक में इस दशा का-इस वास्तविक घटना का चित्र सा खींच दिया गया है। शलोक पढ़ते ही वह समाँ आँखों में फिरने लगता है।

महाराजाधिराज विक्रमादित्य के सखा राजसी ठाठ से रहने वाले कालिदास ने गरीब किसानों की, नगर से दूर जंगल में सम्बन्ध रखने वाली एक वास्तविक घटना का कैसा मनोहर चित्र उतारा है। यह उसके प्रकृति पर्यायलोचक होने का दृढ़ प्रमाण है। दूसरा प्रत्युदाहरण-

सन सूक्यौ बीत्यौ बनौ ऊखौ लई उखरि ।
हरी-हरी अरहर अजौं धर घर हर हिय नारि।।- सतसई

पहले सन सूखता है, फर बन-बाड़ी या कपास के खेत की बहार खत्म होती है। पुनः ईख उखड़ने की बारी आती है और इन सबसे पीछे हुँओं के साथ तक अरहर हरी-भरी खड़ी रहती है।

प्रकृति-पर्यालोचना के सिवा कवि को मानव-स्वभाव की अलोचना का भी अभ्यास करना चाहिए। मनुष्य अपने जीवन में अनेक प्रकार के सुख-दुख आदि का अनुभव करता है। उसकी दशा कभी एक सी नहीं रहती। अनेक प्रकार के विकार तरंग उसके मन में उठा ही करते हैं। इन विकारों की जाँच, ज्ञान और अनुभव करना सबका काम नहीं। केवल कवि ही इनके अनुभव कराने में समर्थ होता है। जिसे कभी पुत्र-शोक नहीं हुआ उसे उस शोक का यथार्थ ज्ञान होना संभव नहीं। पर यदि वह कवि है तो वह पुत्र-शोकाकुल पिता या माता की आत्मा में प्रवेश पा करके उसका अनुभव कर लेता है। उस अनुभव का वह इस तरह वर्णन करता है कि सुनने वाला तन्मनस्क होकर उस दुःख से अभिभूत हो जाता है। उसे ऐसा मालूम होने लगता है कि स्वयं उसी पर वह दुःख पड़ रहा है। जिस कवि को मनोविकारों और प्राकृतिक बातों का यथेष्ट ज्ञान नहीं होता वह कदापि अच्छा कवि नहीं हो सकता।

कविता को प्रभावोत्पादक बनाने के लिए उचित शब्द-स्थापना की भी बड़ी ज़रूरत है। किसी मनोविकार या दृश्य के वर्णन से ढूँढ़-ढूँढ़कर ऐसे शब्द रखने चाहिए जो सुनने वालों की आँखों के सामने वर्ण्य-विषय का एक चित्र सा खींच देता है। मनोभाव चाहे कैसा ही अच्छा क्यों न हो यदि वह तदनुकूल शब्दो में न प्रकट किया गया, तो उसका असर यदि ज्यादा नहीं रहता तो कम ज़रूर हो जाता है। इसीलिए कवि को चुन-चुनकर ऐसे शब्द रखना चाहिए और इस क्रम से रखना चाहिए, जिससे उसके मन का भाव पूरे तौर पर व्यक्त हो जाए। उसमें कसर न पड़े। मनोभाव शब्दों ही द्वारा व्यक्त होता है। अतएव संयुक्तिक शब्द-स्थापना के बिना कवि की कविता ताद्दृश हृदयहारिणी नहीं हो सकती। जो कवि अच्छी शब्द-स्थापना करना नहीं जानता, अथवा यों कहिए कि जिसके पास काफ़ी शब्दसमूह नहीं है, उसे कविता करने का परिश्रम ही न करना चाहिए। जो सुकवि हैं, उन्हें एक-एक शब्द की योग्यता ज्ञात रहती है। वे ख़ूब जानते हैं कि किस शब्द में क्या प्रभाव है। अतएव जिस शब्द में उनका भाव प्रकट करने की एक बाल भर भी कमी होती है उसका वे कभी प्रयोग नहीं करते।

अँग्रेज़ी के प्रसिद्ध कवि मिल्टन ने कविता के तीन गुण वर्णन किए हैं। उनकी राय है कि कविता सादी हो, जोश से भरी हो और असलियत से गिरी हुई न हो (Poetry should be simple, sensuous and impassioned)।

सादगी से यह मतलब नहीं कि सिर्फ़ शब्द-समूह ही सादा हो, किंतु विचार-परंपरा भी सादी हो। भाव और विचार ऐसे सूक्ष्म और छिपे हुए न हों कि उनका मतलब समझ में न आवे, या देर से समझ में आवे। यदि कविता में कोई ध्वनि हो तो इतनी दूर की न हो कि उसे समझने में गहरे विचार की ज़रूरत हो। कविता पढ़ने या सुननेवाले को ऐसी साफ़ सुथरी सड़क मिलनी चाहिए जिस पर कंकर, पत्थर, टीले, खंदक, काँटे और झाड़ियों का नाम न हो। वह ख़ूब साफ़ और हमवार हो जिससे उस पर चलनेवाला आराम से चला जाए। जिस तरह सड़क ज़रा भी ऊँची-नीची होने से पैरगाड़ी के सवार को दचके लगते हैं उसी तरह कविता की सड़क यदि थोड़ी सी नाहमवार हुई तो पढ़नेवाले के हृदय पर धक्का लगे बिना नहीं रहता। कवितारूपी सड़क के इधर-उधर स्वच्छ पानी के नदी नाले बहते हों; दोनों तरफ़ फल-फूलों से लदे हुए पेड़ हों, जगह-जगह पर विश्राम करने योग्य स्थान बने हों; प्राकृति-दृश्यों की नई-नई झाँकियाँ आँखों को लुभाती हों। दुनिया में आज तक जितने अच्छे-अच्छे कवि हुए हैं उनकी कविता ऐसी ही देखी गई है। अटपटे भाव और अटपटे शब्द-प्रयोग करनेवाले कवियों की कभी कद्र नहीं हुई। यदि कभी किसी की कुछ हुई भी है तो थोड़े ही दिन तक। ऐसे कवि विस्मृति के अंधकार में ऐसे छिप गए हैं कि इस समय उनका कोई नाम तक नहीं जानता। एक मात्र सूखा शब्द-झंकार ही जिन कवियों की करामात है उन्हें चाहिए कि वे एक़दम ही बोलना बंद कर दे (इस प्रकार के कवियों के लिए अँग्रेज़ी के प्रसिद्ध लेखक कारलाइल Carlyle की शिक्षा ध्यान देने योग्य है Why sing your bits of thought if you can contrive to speak them By your thought not by your mode of delivering it you must live or die)।

भाव चाहे कैसा ही ऊँचा क्यों न हो, पेचीदा न होना चाहिए। वह ऐसे शब्दों के द्वारा प्रकट किया जाना चाहिए जिनसे सब लोग परिचित हों। क्योंकि कविता की भाषा बोलचाल से जितनी ही अधिक दूर जा पड़ती है, उतनी ही उसकी सादगी कम हो जाती है। बोलचाल से मतलब उस भाषा से है जिसे ख़ास और आम सब बोलते हैं, विद्वान और अविद्वान दोनों जिसे काम में लाते हैं। इसी तरह कवि को मुहावरे का भी ख़्याल रखना चाहिए। जो मुहावरा-सर्वसम्मत है उसी का प्रयोग करना चाहिए। हिंदी और उर्दू में कुछ शब्द अन्यः भाषाओं के भी आ गए हैं। वे यदि बोलचाल के हैं तो उनका प्रयोग सदोष नहीं माना जा सकता। उन्हें त्याज्य नहीं समझना चाहिए। कोई-कोई ऐसे शब्दों को मूल रूप में लिखना ही सही समझते हैं। पर यह उनकी भूल है।

असलियत से यह मतलब नहीं कि कविता एक प्रकार का इतिहास समझा जाए और हर बात में सचाई का ख़्याल रखा जाए। यह नहीं कि सचाई की कसौटी पर कसने पर यदि कुछ भी कसर मालूम हो तो कविता का कवितापन जाता रहे। असलियत से सिर्फ़ इतना ही मतलब है कि कविता बेबुनियाद न हो। उसमें जो उक्ति हो वह मानवी मनोविकारों और प्राकृतिक नियमों के आधार पर कही गई हो। स्वाभाविकता से उसका लगाव न छूटा हो। कवि यदि अपनी या और किसी की तारीफ़ करने लगे और यदि वह उसे सचमुच ही सच समझे, अर्थात् उसकी भावना वैसी ही हो, तो वह भी असलियत से ख़ाली नहीं, फिर चाहे और लोग उसे उसका उल्टा ही क्यों न समझते हों। परंतु इन बातों में भी स्वाभाविकता से दूर न जाना चाहिए। क्योंकि स्वाभाविक अर्थात् नेचुरल (Natural) उक्तियाँ ही सुननेवाले के हृदय पर असर कर सकती हैं अस्वाभाविक नहीं। असलियत को लिए हुए कवि स्वतंत्रतापूर्वक जो चाहे कह सकता है। असल बात को, एक नए साँचे में ढालकर कुछ दूर तक इधर-उधर की उड़ान भी भर सकता है, पर असलियत के लगाव को वह नहीं छोड़ता। असलियत को हाथ से जाने देना मानो कविता को प्राय: निर्जीव कर डालना है। शब्द और अर्थ दोनों ही के संबंध में उसे स्वाभाविकता का अनुधावन करना चाहिए। जिस बात के कहने में लोग स्वाभाविक रीति पर जैसे और जिस क्रम से शब्द प्रयोग करते हैं वैसे ही कवि को भी करना चाहिए। कविता में उसे कोई बात ऐसी न कहनी चाहिए जो दुनिया में न होती हो। जो बातें हमेशा हुआ करती है अथवा जिन बातों का होना संभव है, वही स्वाभाविक हैं। अर्थ की स्वाभाविकता से मतलब ऐसी ही बातों से है।

जोश से यह मतलब है कि कवि जो कुछ कहे, इस तरह कहे मानो उसके प्रयुक्त शब्द आप ही आप उसके मुँह से निकल गए हैं। उनसे बनावट न ज़ाहिर हो। यह न मालूम हो कि कवि ने कोशिश करके ये बातें कहीं हैं, किंतु यह मालूम हो कि उसके हृदयगत भावों ने कविता के रूप में अपने को प्रकट कराने के लिए उसे विवश किया है। जो कवि है उसमें जोश स्वाभाविक होता है। वर्ण्यवस्तु को देखकर, किसी अदृश्य शक्ति की प्रेरणा से, वह उस पर कविता करने के लिए विवश सा हो जाता है। उसमें एक अलौकिक शक्ति पैदा हो जाती है। इसी शक्ति के बल से वह सजीव ही नहीं, निर्जीव चीज़ों तक का वर्णन ऐसे प्रभावोत्पादक ढंग से करता है कि यदि उन चीज़ों में बोलने की शक्ति होती तो ख़ुद वे भी उससे अच्छा वर्णन न कर सकतीं। जोश से यह भी मतलब नहीं कि कविता के शब्द ख़ूब ज़ोरदार और जोशीले हो। संभव है शब्द ज़ोरदार न हों पर जोश उसमें छिपा हुआ हो। धीमे शब्दों में भी जोश रह सकता है और पढ़ने या सुननेवाले के हृदय पर चोट कर सकता है। परंतु ऐसे शब्दों का कहना ऐसे वैसे कवि का काम नहीं। जो लोग मीठी छुरी में तलवार का काम लेना जानते हैं, वही धीमे शब्दों में जोश भर सकते हैं।

सादगी, असलियत और जोश, यदि ये तीनों गुण कविता में हों तो कहना ही क्या है। परंतु बहुधा अच्छी कविता में भी इनमें से एक-आध गुण की कमी पाई जाती है। कभी-कभी देखा जाता है कि कविता में केवल जोश रहता है, सादगी और असलियत नहीं। परंतु बिना असलियत के जोश का होना बहुत कठिन है। अतएव कवि को असलियत का सबसे अधिक ध्यान रखना चाहिए।

अच्छी कविता की सबसे बड़ी परीक्षा यह है कि उसे सुनते ही लोग बोल उठें कि सच कहा है। वही कवि सच्चे कवि हैं जिनकी कविता सुनकर लोगों के मुँह से सहसा यह उक्ति निकलती है। ऐसे कवि धन्य हैं, और जिस देश में ऐसे कवि पैदा होते हैं वह देश भी धन्य है। ऐसे ही कवियों की कविता चिरकाल तक जीवित रहती है।


 

Tuesday, November 21, 2023

लघु कथाएं | चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’| Laghu Kathayen | Chandradhar Sharma Guleri


लघु कथाएं

गालियां

एक गांव में बारात जीमने बैठी । उस समय स्त्रियां समधियों को गालियां गाती हैं, पर गालियां न गाई जाती देख नागरिक सुधारक बाराती को बड़ा हर्ष हुआ । वहग्राम के एक वृद्ध से कह बैठा, "बड़ी खुशी की बात है कि आपके यहाँ इतनीतरक्की हो गई है।"
बुड्ढा बोला, "हाँ साहब, तरक्की हो रही है । पहले गलियों में कहा जाता था.. फलाने की फलानी के साथ और अमुक की अमुक के साथ.. लोग-लुगाई सुनते थे, हँस देते थे । अब घर-घर में वे ही बातें सच्ची हो रही हैं । अब गालियां गाई जाती हैं तो चोरों की दाढ़ी में तिनके निकलते हैं । तभी तो आंदोलन होते हैं कि गालियां बंद करो, क्योंकि वे चुभती हैं ।"

जन्मांतर कथा

एक कहिल नामक कबाड़ी था, जो काठ की कावड़ कंधे पर लिए-लिए फिरता था। उसकी सिंहला नामक स्त्री थी। उसने पति से कहा कि देवाधिदेव-युगादिदेव की पूजा करो, जिनसे जन्मांतर में दारिद्रय-दुख न पावें। पति ने कहा-- तू धर्म-गहली (पगली) हुई है, पर सेवक मैं क्या कर सकता हूँ? तब स्त्री ने नदी-जल और फूल से पूजा की। उसी दिन वह विषूचिका (हैजा) से मर गई और जन्मांतर में राजकन्या और राजपत्नी हुई। अपने नए पति के साथ उसी दिन मंदिर में आई तो उसी पूर्व पति दरिद्र कबाड़िए को वहाँ देखकर मूर्च्छित हो गई। उसी समय जातिस्मर (जिसे अपने पूर्व जन्म का हाल याद हो)होकर उसने एक दोहे में कहा-- जंगल की पत्ती और नदी का जल सुलभ था तो भी तू नहीं लाया। हाय! तेरे तन पर कपड़ा भी नहीं है और मैं रानी हो गई।
कबाड़ी ने स्वीकार करके जन्मांतर कथा की पुष्टि की।

न्याय घंटा

दिल्ली में अनंगपाल नामी एक बड़ा राय था। उसके महल के द्वार पर पत्थर के दो सिंह थे। इन सिंहों के पास उसने एक घंटी लगवाई कि जो न्याय चाहें उसे बजा दें, जिस पर राय उसे बुलाता, पुकार सुनता और न्याय करता। एक दिन एक कौआ आकर घंटी पर बैठा और घंटी बजाने लगा। राय ने पूछा-- इसकी क्या पुकार है?
यह बात अनजानी नहीं है कि कौए सिंह के दाँतों में से माँस निकाल लिया करते हैं। पत्थर के सिंह शिकार नहीं करते तो कौए को अपनी नित्य जीविका कहाँ से मिले?
राय को निश्चय हुआ किकौए की भूख की पुकार सच्ची है क्योंकि वह पत्थर के सिंहों के पास आन बैठा था। राय ने आज्ञा दी कि कई भेड़े-बकरे मारे जाएँ, जिससे कौए को दिन का भोजन मिल जाए।

न्याय रथ

चौड़ (चैड़, चोल या गौड़) देश में गोवर्धन नामक राजा के यहाँ सभामंडप के सामने लोहे के स्तम्भ पर न्याय घंटा था, जिसे न्याय चाहने वाला बजा दिया करता। एक समय उसके एकमात्र पुत्र ने रथ पर चढ़कर जाते समय जान-बूझकर एक बछड़े को कुचल दिया। बछड़े की माता (गौ) ने सींग अड़ाकर घंटा बजा दिया। राजा ने सब हाल पूछकर अपने न्याय को कोटि पर पहुँचाना चाहा। दूसरे दिन सवेरे स्वयं रथ पर बैठ राह में अपने प्यारे इकलौते पुत्र को बैठाकर उस पर रथ चलाया और गौ को दिखा दिया।
राजा के सत्व और कुमार के भाग्य से कुमार मरा नहीं।

पाठशाला

पाठशाला का वार्षिकोत्सव था। मैं भी वहाँ बुलाया गया था। वहाँ के प्रधान अध्यापक का एकमात्र पुत्र, जिसकी अवस्था आठ वर्ष की थी, बड़े लाड़ से नुमाइश में मिस्टर हादी के कोल्हू की तरह दिखाया जा रहा था। उसका मुँह पीला था, आँखें सफ़ेद थीं, दृष्टि भूमि से उठती नहीं थी। प्रश्न पूछे जा रहे थे। उनका वह उत्तर दे रहा था। धर्म के दस लक्षण सुना गया, नौ रसों के उदाहरण दे गया। पानी के चार डिग्री के नीचे शीतलता में फैल जाने के कारण और उससे मछलियों की प्राण–रक्षा को समझा गया, चंद्रग्रहण का वैज्ञानिक समाधान दे गया, अभाव को पदार्थ मानने, न मानने का शास्त्रार्थ कर गया और इंग्लैंड के राजा आठवें हेनरी की स्त्रियों के नाम और पेशवाओं का कुर्सीनामा सुना गया।
यह पूछा गया कि तू क्या करेगा? बालक ने सिखा–सिखाया उत्तर दिया कि मैं यावज्जन्म लोकसेवा करूँगा। सभा ‘वाह वाह’ करती सुन रही थी, पिता का हृदय उल्लास से भर रहा था।
एक वृद्ध महाशय ने उसके सिर पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया और कहा कि जो तू ईनाम मांगे, वही दें। बालक कुछ सोचने लगा। पिता और अध्यापक इस चिंता में लगे कि देखें, यह पढ़ाई का पुतला कौन–सी पुस्तक मांगता है।
बालक के मुख पर विलक्षण रंगों का परिवर्तन हो रहा था, हृदय में कृत्रिम और स्वाभाविक भावों की लड़ाई की झलक आँखों में दीख रही थी। कुछ खाँसकर, गला साफ कर नकली परदे के हट जाने से स्वयं विस्मित होकर बालक ने धीरे से कहा, ‘‘लड्डू।’’
पिता और अध्यापक निराश हो गए। इतने समय तक मेरा वास घुट रहा था। अब मैंने सुख की सांस भरी। उन सबने बालक की प्रवृत्तियों का गला घोंटने में कुछ उठा नहीं रखा था, पर बालक बच गया। उसके बचने की आशा है, क्योंकि वह ‘लड्डू’ की पुकार जीवित वृक्ष के हरे पत्तों का मधुर मर्मर था, मरे काठ की आलमारी की सिर दुखानेवाली खड़खड़ाहट नहीं।

भूगोल

एक शिक्षक को अपने इंस्पेक्टर के दौरे का भय हुआ और वह क्लास को भूगोल रटाने लगा। कहने लगा कि पृथ्वी गोल है । यदि इंस्पेक्टर पूछे कि पृथ्वी का आकार कैसा है और तुम्हें याद न हो तो मैं सुंघनी की डिबिया दिखाऊंगा, उसे देखकर उत्तर देना। गुरु जी की डिबिया गोल थी ।
इंस्पेक्टर ने आकर वही प्रश्न एक विद्यार्थी से किया और उसने बड़ी उत्कंठा से की ओर देखा । गुरु ने जेब में से चौकोर डिबिया निकाली । भूल से दूसरी डिबिया आई थी । लड़का बोला, "बुधवार को पृथ्वी चौकौर होती है और बाकी सब दिन गोल ।"

विद्या से दुख

एक बहू पशु-पक्षियों की भाषा जानती थी। आधी रात को श्रृगाल को यह कहता सुनकर कि नदी का मुर्दा मुझे दे दे और उसके गहने ले ले, नदी पर वैसा करने गई। लौटती बार श्वसुर ने देख लिया। जाना कि यह अ-सती है। वह उसे पीहर पँहुचाने ले चला। मार्ग में करीर के पेड़ के पास से कौआ कहने लगा कि इस पेड़ के नीचे दस लाख की निधि है, निकाल ले और मुझे दही-सत्तू खिला। अपनी विद्या से दुख पाई वह कहती है-- मैंने जो एक दुर्नय (अविनय, कुनीति) किया, उससे घर से निकाली जा रही हूँ। अब यदि दूसरा करूंगी तो कभी भी अपने प्रिय से नहीं मिल सकूंगी अर्थात मार दी जाऊंगी।

 

निबंध । संपादकों के लिए स्कूल। महावीर प्रसाद द्विवेदी। Nibandh | Sampadko Ke Liye School | Mahavir Prasad Dwivedi


निबंध- संपादकों के लिए स्कूल

कुछ दिन हुए अख़बारों में यह चर्चा हुई थी कि अमेरिका में संपादकों के लिए स्कूल खुलने वाला है। इस स्कूल का बनना शुरू हो गया और इस वर्ष इसकी इमारत तो पूरी हो जाएगी। आशा है कि स्कूल इसी वर्ष ज़ारी भी हो जाए। अमेरिका के न्यू प्रांत में कोलंबिया नामक एक विश्वविद्यालय है। वही इस स्कूल को खोल रहा है। जैसे, क़ानून, डॉक्टरी, इंजीनियरी और कला-कौशल आदि के अलग-अलग स्कूल और कॉलेज हैं। और अलग-अलग होकर भी किसी विश्वविद्यालय से संबंध रखते हैं, वैसे ही संपादकीय विद्या सिखाने का यह स्कूल भी कोलंबिया के विश्वविद्यालय मे संबंध रखेगा। संसार में इस प्रकार का पहला स्कूल होगा।

और कोई देश ऐसा नहीं जिसमें अमेरिका के बराबर अख़बार निकलते हो। मासिक और साप्ताहिक अख़बारों को जाने दीजिए, केवल दैनिक अख़बार यहाँ से 2,000 से भी अधिक निकलते हैं। इतने दैनिक अख़बार दुनिया में कहीं नहीं निकलते। जहाँ अख़बारों का इतना आधिक्य है वहाँ अख़बार नवीसी का स्कूल खोलने की यदि ज़रूरत पड़े तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। अमेरिका में जैसे और व्यवसाय-रोजगार हैं—वैसे ही अख़बार लिखना भी एक व्यवसाय है। जो लोग इस व्यवसाय को करना चाहेंगे वे इस स्कूल में दो वर्ष तक रहकर संपादकीय विद्या सीखेंगे। जो लोग इस समय संपादन कर भी रहे हैं वे भी इस स्कूल में, कुछ काल तक रहकर, संपादन कला में कुशलता प्राप्त कर सकेंगे। इस स्कूल के लिए बीस लाख डॉलर धन एकत्र किया गया है; और पचास हज़ार डॉलर लगाकर इसकी इमारत बन रही है। हार्वर्ड विश्वविद्यालय के सभापति, इलियट साहब से पूछा गया था कि इस स्कूल में कौन-कौन से विषय सिखाए जाएँ। इलियट साहब ने विषयों की नामावली इस प्रकार दी है—

प्रबंध-विषय—दफ़्तर की स्थिति-स्थापकता, प्रकाशक के कर्त्तव्य; अख़बार का प्रचार, विज्ञापन-विभाग; संपादकीय और संवाददाताओं का विभाग; स्थानीय, बाहरी और विदेशी समाचार-विभाग, साहित्य और समालोचना-विभाग, राज-कर-विभाग, खेल-कूद और शारीरिक व्यायाम विभाग इन सब विभागों के विषय में अच्छी तरह से शिक्षा दी जाएगी और प्रत्येक विषय की छोटी से भी छोटी बातों पर व्याख्यान होंगे।

कला-कौशल (कारीगरी) विषय—छापना, स्याही, काग़ज़, इल्यक्ट्रो-टाइपिंग, स्टीरियो टाइपिंग, अक्षर-योजना, अक्षर ढालना, चित्रों की नक़ल उतारना, जिल्द बाँधना, काग़ज़ काटना और सीना इत्यादि।

क़ानून-विषय—स्वत्व-रक्षण (कॉपी राइट), विधि दीवानी और फ़ौजदारी, मानहानि-विधि; राजद्रोह-विषयक विधि, न्यायालय के काव्यों का समालोचना-संबंधी कर्त्तव्य; संपादक, प्रकाशक, लेखक और संवाददाताओं की ज़िम्मेदारी का विधान, संपादकीय कर्त्तव्याकर्त्तव्य अथवा नीतिविद्या। संपादकों की सर्वसाधारण के संबंध रखने वाली ज़िम्मेदारी का ज्ञान। समाचारों को प्रकाशित करने में समाचारपत्रों के संपादक और स्वामी के मत प्रदर्शन की सीमा मत प्रकट करने में संपादक, प्रकाशक और संवाददाता का परस्पर संबंध।

अख़बारों का इतिहास। अख़बारों की स्वतंत्रता इत्यादि।

फुटकर बातें—सर्वसम्मत से स्वीकार किए गए विराम-चिह्न, वर्ण-विचार, संक्षेप-चिह्न, शोधन-विधि आदि। पैराग्राफ़ और संपादकीय लेख लिखना, इतिहास, भूगोल, राजकर, राज्य स्थिति, देश व्यवस्था, गार्हस्थ्य-विधान और अर्थशास्त्र आदि के सिद्धांतों के अनुसार प्रस्तुत विषयों का विचार करना।

इलियट साहब का मत है कि संपादक के लिए इन सब बातों को जानना बहुत ज़रूरी है। सत्य की खोज में जो लोग रहते हैं, उनकी भी अपेक्षा संपादकों के लिए अधिक शिक्षा दरकार है। आजकल के संपादकों में सबसे बड़ी न्यूनता यह पाई जाती है कि वे सत्य को जानने में बहुधा असफ़ल होते हैं, उनमें इतनी योग्यता ही नहीं होती कि वे यथार्थ बात जान सकें। इतिहास के तत्त्व और दूसरे शास्त्रों के मूल सिद्धांतों को भली-भाँति न जानने के कारण संपादक लोग कभी-कभी बहुत बड़ी ग़लतियाँ कर बैठते हैं।

संपादकों के लिए एक और भी गुण दरकार होता है। वह है लेखन कौशल। इसका भी होना बहुत आवश्यक है। इसके बिना अख़बारों का आदर नहीं हो सकता। यह कौशल स्वाभाविक भी होता है और सीखने से भी आ सकता है। जिनमें लेखन-कला स्वभाव-सिद्ध नहीं होती उनको शिक्षण से सादृश लाभ नहीं होता। परंतु स्वभाव-सिद्ध लेखकों को शिक्षण मिलने से उनकी लेखन शक्ति और भी तीव्र हो जाती है।

इलियट साहब ने संपादक के लिए जिन-जिन विषयों का ज्ञान आवश्यक बतलाया है उनका विचार करके हम हिंदी के समाचार-पत्र और मासिक पुस्तकों के संपादकों को, अपनी योग्यता का अनुमान करने में बहुत बड़ी विषमता दृग्गोचर होती है। अमेरिका के समान सभ्य और शिक्षित देश में जब संपादकों को उनका व्यवसाय सिखलाने की ज़रूरत है, तब अर्द्धशिक्षित देशों की क्या कथा? इस दशा में बेचारा भारतवर्ष किस गिनती में है?

[जनवरी, 1904 में प्रकाशित]
[‘साहित्य-सीकर’ पुस्तक में संकलित]

 

निबंध। हिन्दी भाषा की उत्पत्ति। महावीर प्रसाद द्विवेदी। Nibandh | Hindi Bhasha Ki Utpatti | Mahavir Prasad Dwivedi


निबंध - हिन्दी भाषा की उत्पत्ति

भूमिका
कुछ समय से विचारशील जनों के मन में यह बात आने लगी है कि देश में एक भाषा और एक लिपि होने की बड़ी जरूरत है, और हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि ही इस योग्य है। हमारे मुसलमान भाई इसकी प्रतिकूलता करते हैं। वे विदेशी, फारसी लिपि और विदेशी भाषा के शब्दों से लबालब भरी हुई उर्दू को ही इस योग्य बतलाते हैं। परंतु वे हमसे प्रतिकूलता करते किस बात में नहीं? सामाजिक, धार्मिक, यहाँ तक कि राजनैतिक विषयों में भी उनका हिंदुओं से 36 का संबंध है। भाषा और लिपि के विषय में उनकी दलीलें ऐसी कुतर्कपूर्ण, ऐसी निर्बल, ऐसी सदोष और ऐसी हानिकारिणी हैं कि कोई भी न्यायनिष्ठ और स्वदेशीप्रेमी मनुष्य उनसे सहमत नहीं हो सकता। बंगाली, गुजराती, महाराष्ट्र और मदरासी तक जिस देवनागरी लिपि और और हिंदी भाषा को देशव्यापी होने योग्य समझते हैं वह अकेले मुट्ठी भर मुसलमानों के कहने से अयोग्य नहीं हो सकती। आबादी के हिसाब से मुसलमान इस देश में हैं ही कितने? फिर थोड़े हो कर भी जब वे निर्जीव दलीलों से फारसी लिपि और उर्दू भाषा की उत्तमता की घोषणा देंगे तब कौन उनकी बात सुनेगा? अतएव इस विषय में और कुछ कहने की जरूरत नहीं - पहले ही बहुत कहा जा चुका है। अनेक विद्वानों ने प्रबल प्रमाणों से हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि की योग्यता प्रमाणित कर दी है।

हिंदी भाषा की उत्पत्ति कहाँ से है? किन पूर्ववर्ती भाषाओं से वह निकली है? वे कब और कहाँ बोली जाती थीं? हिंदी को उसका वर्तमान रूप कब मिला? उर्दू में और उसमें क्या भेद है? इस समय इस देश में जो और भाषाएँ बोली जाती हैं उनका हिंदी से क्या संबंध है? उसके भेद कितने हैं? उसकी प्रांतिक बोलियाँ या उपशाखाएँ कितनी और कौन-कौन हैं? कितने आदमी इस समय उसे बोलते हैं? हिंदी के हितैषियों को इन सब बातों का जानना बहुत ही जरूरी है। और प्रांत वालों को तो इन बातों से अभिज्ञ करना हम लोगों का सबसे बड़ा कर्तव्य है। क्योंकि जब हम उनसे कहते हैं कि आप अपनी भाषा को प्रधानता न दे कर हमारी भाषा को दीजिए - उसी को देश-व्यापक भाषा बनाइए - तब उनसे अपनी भाषा का कुछ हाल भी तो बताना चाहिए। अपनी भाषा की उत्पत्ति, विकास और वर्तमान स्थिति का थोड़ा-सा भी हाल न बतला कर, अन्य प्रांत वालों से उसे कबूल कर लेने की प्रार्थना करना भी तो अच्छा नहीं लगता।

इन्हीं बातों का विचार करके हमने यह छोटी सी पुस्तक लिखी है। इसमें वर्तमान हिंदी की बातों की अपेक्षा उसकी पूर्ववर्तिनी भाषाओं ही की बातें अधिक हैं। हिंदी की उत्पत्ति के वर्णन में इस बात की जरूरत थी। बंगाले में भागीरथी के किनारे रहने वालों से यह कह देना काफी नहीं कि गंगा, हरद्वार से आई हैं या वहाँ उत्पन्न हुई हैं। नहीं, ठेठ गंगोत्तरी तक जाना होगा, और वहाँ से गंगा की उत्पत्ति का वर्णन करके क्रम-क्रम से हरद्वार, कानपुर, प्रयाग, काशी, पटना होते हुए बंगाले के आखात में पहुँचना होगा। इसी से हिंदी की उत्पत्ति लिखने में आदिम आर्यों की पुरानी से पुरानी भाषाओं का उल्लेख करके उनके क्रमविकास का हाल लिखना पड़ा है। ऐसा करने में पुरानी संस्कृत, वैदिक संस्कृत, परिमार्जित संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं का संक्षिप्त वर्णन देना पड़ा है। प्रसंगवश मराठी, गुजराती, बँगला, आसामी, पहाड़ी, पंजाबी आदि भाषाओं का भी उल्लेख करना पड़ा है और यह भी लिखना पड़ा है कि इन भाषाओं और उपभाषाओं के बोलने वालों की संख्या भारत में कितनी है।

इस पुस्तक के लिखने में हमने 1901 ईसवी की मुर्दमशुमारी की रिपोर्टों से भारत की भाषाओं की जाँच की रिपोर्टों से नए 'इंपीरियल गजे़टियर्स' से, और दो एक और किताबों से मदद ली है। पर इसके लिए हम डाक्टर ग्रियर्सन के सबसे अधिक ऋणी हैं। इस देश की भाषाओं की जाँच का काम जो गवर्नमेंट ने आपको सौंपा था वह बहुत कुछ हो चुका है। इस जाँच से कितनी ही नई-नई बातें मालूम हुई हैं। उनमें से मुख्य-मुख्य बातों का समावेश हमने इस निबंध में कर दिया है।

अब तक बहुत लोगों का ख्याल था कि हिंदी की जननी संस्कृत है। यह ठीक नहीं। हिंदी की उत्पत्ति अपभ्रंश भाषाओं से है और अपभ्रंश भाषाओं की उत्पत्ति प्राकृत से है। प्राकृत अपने पहले की पुरानी बोल-चाल की संस्कृत से निकली है और परिमार्जित संस्कृत भी (जिसे हम आज कल केवल 'संस्कृत' कहते हैं) किसी पुरानी बोल-चाल की संस्कृत से निकली है। आज तक की जाँच से यही सिद्ध हुआ है कि वर्तमान हिंदी की उत्पत्ति ठेठ संस्कृत से नहीं।

एक नई बात और जो मालूम हुई है वह यह है कि जो हिंदी बिहार में बोली जाती है उसका जन्म संबंध बँगला से अधिक है, हम लोगों की हिंदी से कम। बँगला और उड़िया भाषाओं की तरह बिहारी हिंदी का निकट संबंध मागध अपभ्रंश से है, पर हमारी पूर्वी हिंदी का अर्द्धमागध अपभ्रंश से। बिहारी हिंदी से पश्चिमी हिंदी का संबंध तो और भी दूर का है।

जिसे हम लोग उर्दू कहते हैं वह बागोबहार की भूमिका के आधार पर देहली के बाजार में उत्पन्न हुई भाषा बतलाई जाती है। पर डाक्टर ग्रियर्सन ने भाषाओं की जाँच से यह निश्चय किया है कि वह पहले भी विद्यमान थी और उसकी संतति मेरठ के आस-पास अब तक विद्यमान है। देहली के बाजार में मुसलमानों के संपर्क से अरबी, फारसी और कुछ तुर्की के शब्द मात्र उसमें आ मिले। बस इतना ही परिवर्तन उस समय उस में हुआ। तब से मुसलमान लोग जहाँ-जहाँ इस देश में गए उसी विदेशी-शब्द-मिश्रित भाषा को साथ लेते गए। उन्हीं के संयोग से हिंदुओं ने भी उसके प्रचार को बढ़ाया। किंबहुना यह कहना चाहिए कि हिंदुओं ने उसके प्रचार की विशेष वृद्धि की।

भाषाओं की जाँच से इसी तरह बहुत सी नई-नई बातें मालूम हुई हैं। यदि वे सब हिंदी जानने वालों के लिए सुलभ कर दी जायँ तो बड़ा उपकार हो। आशा है एक-आध हिंदी-प्रेमी इस विषय में एक बड़ी-सी पुस्तक लिख कर इस अभाव की पूर्ति कर देंगे।

जुही, कानपुर

महावीर प्रसाद द्विवेदी

17 जून 1907

पूर्ववर्ती काल
विषयारंभ

हिंदी भाषा की उत्पत्ति का पता लगाने, और उसका थोड़ा भी इतिहास लिखने में बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ हैं। क्योंकि इसके लिए पतेवार सामग्री कहीं नहीं मिलती। अधिकतर अनुमान ही के आधार पर इमारत खड़ी करनी पड़ती है। और यह सब का काम नहीं। इस विषय के विवेचन में पाश्चात्य पंडितों ने बड़ा परिश्रम किया है। उनकी खोज की बदौलत अब इतनी सामग्री इकट्ठी हो गई है कि उसकी सहायता से हिंदी की उत्पत्ति और विकास आदि का थोड़ा-बहुत पता लग सकता है। हिंदी की माता कौन है? मातामही कौन है? प्रमातामही कौन है? कौन कब पैदा हुई? कौन कितने दिन तक रही? हिंदी का कुटुंब कितना बड़ा है? उसकी इस समय हालत क्या है? इन सब बातों का पता लगाना - और फिर ऐतिहासिक पता, ऐसा वैसा नहीं - बहुत कठिन काम है। मैक्समूलर, काल्डवेल, बीम्स और हार्नली आदि विद्वानों ने इन विषयों पर बहुत कुछ लिखा है और बहुत सी अज्ञात बातें जानी हैं। पर खोज, विचार और अध्ययन से भाषाशास्त्र - विषयक नित नई बातें मालूम होती जाती हैं। इससे पुराने सिद्धांतों में परिवर्तन दरकार होता है। कोई-कोई सिद्धांत तो बिल्कुल ही असत्य साबित हो जाते हैं। अतएव भाषाशास्त्र की इमारत हमेशा ही गिरती रहती है और हमेशा ही उसकी मरम्मत हुआ करती है।

आजकल हिंदी की तरफ लोगों का ध्यान पहले की अपेक्षा कुछ अधिक गया है। सारे हिंदुस्तान में उसका प्रचार करने की चर्चा हो रही है। बंगाली, मदरासी, महाराष्ट्र, गुजराती सब लोग उसकी उपयुक्तता की तारीफ कर रहे हैं। ऐसे समय में इस बात के जानने की, हमारी समझ में, बड़ी जरूरत है कि हिंदी किस कहते हैं? हिंदुस्तानी किसे कहते हैं? उर्दू किसे कहते हैं? इनकी उत्पत्ति कैसे और कहाँ से हुई और इनकी पूर्ववर्ती भाषाओं ने कितने रूपांतरों के बाद इन्हें पैदा किया?

इन विषयों पर आज तक कितने ही लेख और छोटी-मोटी पुस्तकें निकल चुकी हैं। पर उनमें कही गई बहुत सी बातों के संशोधन की अब जरूरत है। इस देश की गवर्नमेंट जो यहाँ की भिन्न-भिन्न भाषाओं और बोलियों की परीक्षा करा कर उनका इतिहास आदि लिखा रही है उससे कितनी ही नई-नई बातें मालूम हुई हैं। यह काम प्रसिद्ध विद्वान डाक्टर ग्रियर्सन कर रहे हैं। 1901 ईसवी में जो मुर्दमुशमारी हुई थी उसकी रिपोर्ट में एक अध्याय इस देश की भाषाओं के विषय में भी है। यह अध्याय इन्हीं डाक्टर ग्रियर्सन साहब का लिखा हुआ है। इसके लिखे और प्रकाशित किए जाने के बाद, भाषाओं की जाँच से संबंध रखने वाली डाक्टर साहब ही की लिखी हुई कई किताबें निकली हैं। उनमें जो बातें हिंदी के विषय में लिखी हैं वे डाक्टर साहब के लिखे हुए मुर्दमशुमारी वाले भाषा-विषयक प्रकरण से मिलती हैं। इससे मालूम होता है कि भाषाओं की जाँच से हिंदी के विषय में जो बातें मालूम हुई हैं वे सब इस प्रकरण में आ गई हैं। इस निबंध के लिखने में डाक्टर ग्रियर्सन की इस पुस्तक से हमें बहुत सहायता मिली है। भाषाओं की जाँच से संबंध रखने वाली सब किताबें जब निकल चुकेंगी, तब डाक्टर साहब की भूमिका अलग पुस्तकाकार निकलेगी। संभव है उसमें कोई नई बातें देखने को मिलें। पर तब तक ठहरने की हम विशेष जरूरत नहीं समझते। क्योंकि इस विषय के सिद्धांत बड़े ही अनस्थिर हैं - बड़े ही परिवर्तनशील हैं। जो सिद्धांत आज दृढ़ समझा जाता है, कल किसी नई बात के मालूम होने पर, भ्रामक सिद्ध हो जाता है। इससे यदि वर्ष दो वर्ष ठहरने से कोई नई बातें मालूम भी हो जायँ, तो कौन कह सकता हैं, आगे चल कर किसी दिन वे भी न भ्रामक सिद्ध हो जायँगी। अतएव आगे की बातें आगे होती जायँगी। इस समय जो कुछ सामने है उसी के आधार पर हम इस विषय को थोड़े में लिखते हैं।

आदिम आर्यों का स्थान

हिंदुस्तान में सब मिला कर 147 भाषाएँ या बोलियाँ बोली जाती हैं। उनमें से हिंदी वह भाषा है जिसका संबंध एक ऐसी प्राचीन भाषा से है जिसे हमारे और यूरोप वालों के पूर्वज किसी समय बोलते थे। अर्थात् एक समय ऐसा था जब दोनों के पूर्वज एक ही साथ, या पास-पास रहते थे और एक ही भाषा बोलते थे। पर किस देश या किस प्रांत में वे पास-पास रहते थे, यह बतलाना सहज नहीं है। इस विषय पर कितने ही विद्वानों ने कितने ही तर्क किए हैं। किसी ने हिंदूकुश के आस-पास बताया, किसी ने काकेशस के आस-पास। किसी की राय हुई कि उत्तरी-पश्चिमी यूरप में ये लोग पास-पास रहते थे। किसी ने कहा नहीं, ये आरमीनियाँ में, या आक्सस नदी के किनारे, कहीं रहते थे। अब सब से पिछला अंदाज विद्वानों का यह है कि हमारे और यूरप वालों के आदि पुरखे दक्षिणी रूस के पहाड़ी प्रदेश में, जहाँ यूरप और एशिया की हद एक दूसरी से मिलती है वहाँ, रहते थे। वहाँ ये लोग पशु-पालन करते थे और चारे का जहाँ सुभीता होता था वहीं जा कर रहते थे। अपनी भेड़ें, बकरियाँ और गायें लिए ये घूमा करते थे। धीरे-धीरे कुछ लोग खेती भी करने लगे। और जब पास-पास रहने से गुजारा न हुआ तब उनमें से कुछ पश्चिम की ओर चल दिए, कुछ पूर्व की ओर। जो लोग पश्चिम की ओर गए उनसे ग्रीक, लैटिन, केल्टिक और टयूटानिक भाषा बोलने वाली जातियों की उत्पत्ति हुई। जो पूर्व को गए उनसे भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोलने वाली जातियाँ उत्पन्न हुई। उनमें से एक का नाम आर्य हुआ।

आर्य लोगों ने अपना स्थान कब छोड़ा, पता नहीं चलता। लेकिन छोड़ा जरूर, यह नि:संदेह है। बहुत करके उन्होंने कास्पियन सागर के उत्तर से प्रयाण किया और पूर्व की ओर बढ़ते गए। जब वे आक्सन और जक्जारटिस नदियों के किनारे आए, तब वहाँ ठहर गए। वह देश उनको बहुत पसंद आया। संभव है वे खीवा से उस प्रांत में ठहरे हों, जो औरों की अपेक्षा अधिक सरसब्ज है। एशिया में खीवा को ही आर्यों का सब से पुराना निवास-स्थान मानना चाहिए। वहाँ कुछ समय तक रह कर आर्य लोग पूर्वोक्त नदियों के किनारे-किनारे खोकंद और बदख्शाँ तक आए। वहाँ इनके दो भाग हो गए। एक पश्चिम की तरफ मर्व और पूर्वी फारिस को गया, दूसरा हिंदूकुश को लाँघ कर काबुल की तराई में होता हुआ हिंदुस्तान पहुँचा। जब तक इनके दो भाग नहीं हुए थे, ये लोग एक ही भाषा बोलते थे। पर दो भाग होने, अर्थात् एक के फारिस और दूसरे के हिंदुस्तान आने, से भाषा में भेद हो गया। फारिस वाली की भाषा ईरानी हो गई और हिंदुस्तान वालों की विशुद्ध 'आर्य'। 1901 की मुर्दमशुमारी के अनुसार ईरानी और आर्य-भाषा बोलने वालों की संख्या इस प्रकार थी -

ईरानी : 1,397,786

आर्य : 219,780,650

कुल : 221,178,436

इस लेख में उन ईरानियों की गिनती है जो हिंदुस्तानी की हद में रहते हैं। फारिस के ईरानियों से मतलब नहीं है। हिंदुस्तान की कुल आबादी 294,361,056 है। उसमें से ईरानी और आर्यों की भाषा बोलने वालों की संख्या मालूम हो गई। बाकी जो लोग बचे ये यूरप और अफ्रीका आदि की तथा कितनी ही अनार्य, भाषाएँ बोलते हैं। ईरानी और आर्य भाषाओं से यह मतलब नहीं कि इस नाम की कोई पृथक भाषाएँ हैं। नहीं, इनसे सिर्फ इतना ही मतलब है, कि जो भाषाएँ 22 करोड़ आदमी इस समय हिंदुस्तान में बोलते हैं वे पुरानी आर्य और ईरानी भाषाओं से उत्पन्न हुई हैं। ये दो शाखाएँ हैं। इन्हीं से और कितनी ही भाषाओं की उत्पत्ति हुई है।

ईरानी शाखा

खोकंद और बदख्शाँ तक सब आर्य साथ-साथ रहे। वहाँ से कुछ आर्य हिंदुस्तान की तरफ आए और कुछ फारिस की तरफ गए। इन फारिस की तरफ जाने वाले में से कुछ लोग काश्मीर के उत्तर, पामीर पहुँचे। ये लोग अब तक ईरानी भाषाएँ बोलते हैं। जो लोग फारिस की तरफ गए थे वे धीरे-धीरे मर्व, फारिस, अफगानिस्तान और बिलोचिस्तान में फैल गए। वहाँ इनकी भाषा के दो भेद हो गए। परजिक और मीडिक।

परजिक भाषा

परजिक भाषा का दूसरा नाम पुरानी फारसी है। ईसा के पाँच छ: सौ वर्ष पहले ही से इसका प्रचार फारिस में हो गया था। डारियस 'प्रथम' के समय के शिलालेख सब इसी भाषा में हैं। बहुत काल तक इसका प्रचार फारिस में रहा। यह फारिस के सब सूबों में बोली और लिखी जाती थी। ईसा के कोई 300 वर्ष बाद इसका रूपांतर पहलवी भाषा में हुआ। यह भाषा ईसा के 700 वर्ष बाद तक रही। आज कल फारिस में जो फारसी बोली जाती है, पहलवी से उसका वही संबंध है जो संबंध भारत की प्राकृत भाषाओं का यहाँ की हिंदी, बँगला, मराठी आदि वर्तमान भाषाओं से है। पहलवी के बाद फारिस की भाषा को वह रूप मिला जो कोई हजार ग्यारह सौ वर्ष से वहाँ अब तक प्रचलित है। यह वहाँ की वर्तमान फारसी है। मुसलमानी राज्य में इस भाषा का प्रचार हिंदुस्तान में भी बहुत समय तक रहा। हिंदू और मुसलमान दोनों इसे सीखते थे और बहुधा बोलते भी थे। कुछ लोगों की जन्म भाषा फारसी ही थी। हिंदुस्तान में अनेक ग्रंथ भी इस भाषा में लिखे गए। विद्वान मुसलमानों में अब भी फारसी का बड़ा आदर है। पर रंगून, देहली, लखनऊ आदि में पुराने शाही खानदान के जो मुसलमान बाकी हैं वही कभी-कभी फारसी बोलते हैं। या अफगानिस्तान और फारिस से आ कर जो लोग यहाँ बस गए हैं, अथवा जो लोग इन देशों से व्यापार के लिए यहाँ आते हैं - विशेष करके घोड़ों के व्यापारी - वे फारसी बोलते हैं। फारसी बोली और लोगों के मुँह से अब बहुत कम सुनने में आती है। यों तो फारसी जानने वाले उसे बोल लेते हैं, पर फारसी उनकी बोली नहीं। इससे वे विशुद्ध फारसी नहीं बोल सकते।

मुसलमानी राज्य में जो लोग फारिस और अफगानिस्तान आदि देशों से आ कर इस देश में बस गए थे और जिनकी संतति अब तक यहाँ वर्तमान है - वर्तमान है क्यों, बढ़ती जाती है - उनके पूर्वज ईरानियों के वंशज थे। अर्थात् वे लोग जो भाषा बोलते थे वह पुरानी ईरानी भाषा से उत्पन्न हुई थी। आर्यों ने अपनी जिस शाखा का साथ बदख्शाँ के आस-पास कहीं छोड़ा था, उसी शाखा के वंशधर, सैकड़ों वर्ष बाद, हिंदुस्तान में आ कर फिर आर्यों के वंशजों के साथ रहने लगे। इस तरह का संयोग एक बार और भी बहुत पहले हो चुका था। डाक्टर ग्रियर्सन लिखते हैं कि सिकंदर के समय में, और उसके बाद भी, सूर्योपासक पुराने ईरानियों के वंशज, धर्मोपदेश करने के लिए, इस देश में आए थे। इन में बहुत से शक (सीथियन : Scythians) लोग भी थे। इस बात को हुए कोई दो हजार वर्ष हुए। ये लोग इस देश में आ कर धीरे-धीरे यहाँ के ब्राह्मणों में मिल गए और अब तक शाकद्वीपीय ब्राह्मण कहलाते हैं।

जब मुसलमानों की प्रभुता फारिस में बढ़ी, और वहाँ के अग्निपूजक ईरानियों पर अत्याचार होने लगे, तब जरथुस्त्र के उपासक कुछ लोग इस देश में भाग आए और हिंदुस्तान के पश्चिम, गुजरात में रहने लगे। आज कल के पारसी उन्हीं की संतति हैं। पर, यद्यपि भारत के शाकद्वीपीय ब्राह्मण और पारसी ईरानियों के वंशज हैं तथापि न तो वे ईरान ही की कोई भाषा बोलते हैं और न उसकी कोई शाखा ही। इनको इस देश में रहते बहुत दिन हो गए हैं। इसलिए इनकी बोली यहीं की बोली हो गई है।

मीडिक भाषा

मीडिक भाषा-समूह में बहुत सी भाषाएँ और बोलियाँ शामिल हैं, ईरान के कितने ही हिस्सों में यह भाषा बोली जाती थी। ये सब हिस्से, सूबे, या प्रांत पास ही पास न थे। कोई-कोई एक दूसरे से बहुत दूर थे। मीडिया पुराने जमाने में फारिस का वह हिस्सा कहलाता था जिसे इस समय पश्चिमी फारिस कहते हैं। मीडिया ही की भाषा का नाम मीडिक है। पारसी लोगों का प्रसिद्ध धर्मग्रंथ अवस्ता इसी पुरानी मीडिक भाषा में है। बहुत लोग अब तक यह समझते थे कि अवस्ता ग्रंथ जेंद भाषा में है। उसका नाम जेंद-अवस्ता सुन कर यही भ्रम होता है। परंतु यह भूल है। इस भूल के कारण एक यूरोपीय पंडित महोदय हैं। उन्होंने भ्रम से अवस्ता की रचना जेंद भाषा में बतला दी। और लोगों ने बिना निश्चय किए ही इस मत को मान लिया। पर अब यह बात अच्छी तरह साबित कर दी गई है कि अवस्ता की भाषा जेंद नहीं। भाषा उसकी पुरानी मीडिक है। अवस्ता का अनुवाद और उस पर भाष्य ईरान की पुरानी भाषा पहलवी में है। इस अनुवाद और भाष्य का नाम जेंद है, भाषा का नहीं। वेदों के तरह अवस्ता के भी सब अंश एक ही साथ निर्माण नहीं हुए। कोई पहले हुआ है, कोई पीछे। उसका सब से पुराना भाग ईसा के कोई 600 वर्ष पहले का मालूम होता है। जैसे परजिक भाषा रूपांतर होते-होते पहलवी भाषा हो गई, वैसे मीडिक भाषा को कालांतर में कौन सा रूप प्राप्त हुआ, इसका पता नहीं चलता। परंतु वर्तमान काल की नई भाषाओं में उसके चिह्न विद्यमान हैं। अर्थात् इस समय भी कितनी ही भाषाएँ और बोलियाँ विद्यमान हैं जो पुरानी मीडिक, या उसके रूपांतर, से उत्पन्न हुई हैं। इनमें से गालचह, पश्तो, आरमुरी और बलोच मुख्य हैं। इनके सिवा कुर्दिश, मकरानी, मुंजानी आदि कितनी ही बोलियाँ भी इसी पुरानी मीडिक भाषा से संबंध रखती हैं। औरों की अपेक्षा पश्तो भाषा का साहित्य कुछ विशेष अच्छी दशा में है। उसमें बहुत सी उपयोगी और उत्तम पुस्तकें हैं। पर पश्तो बड़ी कर्णकटु भाषा है। कहावत मशहूर है कि अरबी विज्ञान है, तुर्की सुघरता है, फारसी शक्कर है, हिंदुस्तानी नमक है, और पश्तो गधे का रेंकना है।

पुरानी संस्कृत

आदिम आर्यों की जो शाखा ईरान की तरफ गई उसका और उसकी भाषाओं का संक्षिप्त वर्णन हो चुका। अब उन आर्यों का हाल सुनिए जो खोकंद और बदख्शाँ का पहाड़ी देश छोड़ कर दक्षिण की तरफ हिंदुस्तान में आए। आदिम आर्यों की क्यों दो शाखाएँ हो गईं? क्यों एक शाखा एक तरफ गई, दूसरी दूसरी तरफ - इसका ठीक उत्तर नहीं दिया जा सकता। संभव है धार्मिक मतभेद के कारण यह बात हुई हो। या ईरानी आर्यों की राज्य प्रणाली हमारे पुराने आर्यों को पसंद न आई हो। क्योंकि ईरानी लोग बहुत पुराने जमाने से ही अपने में से एक आदमी को राजा बना कर उसके अधीन रहने लगे थे। पर हिंदुस्तान की तरफ आने वाले आर्यों को यह बात पसंद न थी। अथवा आर्यों के विभक्त होने का इन दो में से एक ही कारण न हो। संभव है वे यों ही दक्षिण की तरफ आने को बढ़ते गए हों। क्योंकि जो जातियाँ अपने पशु-समूह को साथ लिए घूमा करती हैं वे स्थिर तो रहती नहीं। हमेशा ही स्थान परिवर्तन किया करती हैं। अतएव संभव है आर्य लोग अपनी तत्कालीन स्थिति के अनुसार हिंदुस्तान की तरफ यों ही चले आए हों। चाहे जिस कारण से हो, आए वे लोग इस तरफ जरूर और आ कर कंधार के आस-पास रहने लगे। वहाँ से वे काबुल की तराई में होते हुए पंजाब पहुँचे। पंजाब में आ कर उनकी एक जाति बनी। बदख्शाँ के पास वे लोग जो भाषा बोलते थे उसमें और उनकी तब की भाषा में अंतर हो गया। पंजाब मे आ कर बसने तक सैकड़ों वर्ष लगे होंगे। फिर भला क्यों न अंतर हो जाए? धीरे-धीरे उनकी भाषा को वह रूप प्राप्त हुआ जिसे हम पुरानी संस्कृत कह सकते हैं। यह भाषा उस समय पंजाब और पूर्वी अफगानिस्तान में बोली जाती थी।

आसुरी भाषा

आर्यों के पंजाब आने तक उनकी, और ईरानी शाखा के आर्यों की, भाषा परस्पर बहुत कुछ मिलती थी। पुरानी संस्कृत और मीडिक भाषा में परस्पर इतना सादृश्य है जिसे देख कर आश्चर्य होता है। जो लोग मीडिक भाषा बोलते थे उन्हीं का नाम असुर (अहुर) है। जब वे असुर हुए तब उनकी भाषा जरूर ही आसुरी हुई। वेदों और उन के बाद के संस्कृत-साहित्य को देखने से मालूम होता है कि देवोपासक आर्य सुरापान करते थे और असुरोपासक सुरापान के विरोधी थे। प्रमाण में वाल्मीकीय रामायण के बालकांड का 45वाँ सर्ग देखिए। जान पड़ता है सुरापान न करने ही से ईरान की तरफ जाने वाले आर्यों से हमारे पूर्वज आर्य घृणा करने लगे थे। उन से जुदा होने का भी शायद यही मुख्य कारण हो। पारसियों की अवस्ता में असुर उपास्य माने गए और सुर अर्थात् देवता घृणास्पद।

ऋग्वेद के बहुत पुराने अंशों में असुर और सुर (देव) दोनों पूज्य माने गए हैं। पर बाद के अंशों में कहीं-कहीं असुरों से घृणा की गई है। वेदों के उत्तर काल के साहित्य में तो असुर सर्वत्र ही हेय और निंद्य माने गए हैं।

'असु' शब्द का अर्थ है 'प्राण'। जो सप्राण या बलवान हो वही असुर है। बाबू महेशचंद्र घोष 'प्रवासी' में लिखते हैं कि 'असुर' शब्द ऋग्वेद में कोई 100 दफे आया है। उस में से केवल 11 स्थल ऐसे हैं जहाँ इस शब्द का अर्थ वेदशत्रु है। अन्यत्र सब कहीं सविता, पूषा, मित्र, वरुण, अग्नि, सोम और कहीं-कहीं श्रेष्ठ मनुष्यों के लिए भी 'असुर' शब्द प्रयोग किया गया है। उदाहरण के लिए ऋग्वेद के पहले मंडल का 35 वाँ, दूसरे का 27 वाँ, सातवें का दूसरा, और दसवें का 24 वाँ सूक्त देखिए। इस से स्पष्ट है कि बहुत पुराने जमाने में असुर शबद का अर्थ बुरा नहीं था। और चूँकि अवस्ता में असुर (अहुर) की उपासना है, और वह पारसियों का पूज्य ग्रंथ है, अतएव हमारे पारसी-बंधु असुरोपासक हुए। याद रहे ये लोग भी उन्हीं आर्यों के वंशज हैं जिन के वंशज पंजाब में आ कर बसे थे और जिन को हम लोग अपने पूज्य पूर्वज समझते हैं।

वैदिक देवताओं और याज्ञिक शब्दों की तुलना अवस्ता से करने पर यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि वेद और अवस्ता की भाषा बोलने वालों के पूर्वज किसी समय एक ही भाषा बोलते थे। प्रमाण -

वैदिक शब्द अवस्ता के शब्द

मित्र मिथ

अर्य्यमन् ऐर्य्यमन्

भग वघ

वायु वयु

दानव दानु

गाथा गाथा

मंत्र मंथ्र

होता जओता

आहुति आजुइति

संस्कृत और अवस्ता की भाषा में इतना सादृश्य है कि दोनों का मिलान करने से इस बात में जरा भी संदेह की जगह नहीं रह जाती कि किसी समय ये दोनों भाषाएँ एक ही थीं। शब्द, धातु, कृत, तद्धित, अव्यय इत्यादि सभी विषयों में विलक्षण सादृश्य है।

उदाहरण

संस्कृत अवस्ता की भाषा

नरं नरेम्

रथं रथेम्

देव दएव

गो गओ

कर्ण करेन

गव्य गाव्य

शत सत

पशु पसु

दात्र दाथ्र

पुत्रात् पुथ्रात्

दातरि दातरि

न: नो

मे मे

मम मम

त्वम् त्वम्

सा हा

अस्ति अस्ति

असि अहि

अस्मि अहमि

इह इध

कुत्र कुथ्र

कितने ही वैदिक छंद तक अवस्ता में तद्वत् पाए जाते हैं। इन उदाहरणों से साफ जाहिर है कि वैदिक आर्यों के पूर्वज किसी समय वही भाषा बोलते थे जो कि ईरानी आर्यों के पूर्वज बोलते थे। अन्यथा दोनों की भाषाओं में इतना सादृश्य कभी न होता। भाषा सादृश्य ही नहीं, किंतु अवस्ता को ध्यान-पूर्वक देखने से और भी कितनी ही बातों में विलक्षण सादृश्य देख पड़ता है। अतएव इस समय चाहे कोई जितना नाक भौंह सिकोड़े अवस्ता और वेद पुकार कर कह रहे हैं कि ईरानी और भारतवर्षीय आर्यों के पूर्वज किसी समय एक ही थे।

विशुद्ध संस्कृत का उत्पत्ति-स्थान

 इस विवेचन से मालूम हुआ कि आर्यों के पंजाब में आ कर बसने तक, अर्थात् उनकी भाषा को 'पुरानी संस्कृत' का रूप प्राप्त होने तक, उनकी और ईरान वालों की मीडिक भाषा में, परस्पर बहुत कुछ समता थी। पुरानी संस्कृत कोई विशेष व्यापक भाषा न थी। उसके कितने ही भेद थे। उसकी कई शाखाएँ थीं। भारतवर्ष की वर्तमान आर्य-भाषाएँ उन्हीं में से, एक न एक से, निकली हैं। विशुद्ध संस्कृत भी इन्हीं भाषाओं के किसी न किसी रूप से परिष्कृत हुई है।

असंस्कृत आर्य-भाषाएँ

चित्राल और गिलगिट आदि में कुछ ऐसी भाषाएँ बोली जाती हैं जो आर्यों ही की भाषाओं से उत्पन्न हुई हैं। पर वे संस्कृत से संबंध नहीं रखतीं। संस्कृत से उनका कोई संपर्क नहीं मालूम होता। जो लोग इन भाषाओं को बोलते हैं वे पंजाब में आ कर बसे हुए आर्यों की संतति नहीं मालूम होते। आर्य लोग, दक्षिण की तरफ, पंजाब में आ कर, फिर उत्तर की ओर काफिरिस्तान, गिलगिट, चित्राल और काश्मीर की उत्तरी तराइयों में नहीं गए। बहुत संभव है कि आर्यों का जो समूह अपने आदिम स्थान से चल कर दक्षिण की तरफ आया था, उसका कुछ अंश अलग हो कर, आक्सस नदी के किनारे-किनारे पामीर पहुँचा हो और वहाँ से गिलगिट और चित्राल आदि में बस गया हो। खोवार, वशगली, कलाशा, पशाई, लगमानी आदि भाषाएँ या बोलियाँ जो काश्मीर के उत्तरी प्रदेशों में बोली जाती हैं, उनका संस्कृत से कुछ भी लगाव नहीं है। इनमें कुछ साहित्य भी नहीं है। और न इनके लिखने की कोई लिपि ही अलग है। जहाँ तक खोज की गई है उस से यही मालूम होता है कि ये भाषाएँ संस्कृत से उत्पन्न नहीं हुईं। यहाँ संस्कृत से मतलब उस पुरानी संस्कृत से है जिसे पंजाब में रहने वाले आर्य बोलते थे।

लगमानी आदि असंस्कृत आर्य-भाषा बोलने वालों की संख्या इस देश में बहुत ही कम है। 1901 ईसवीं में वह सिर्फ 54,425 थी।

इस तरह आर्य-भाषाओं के दो भेद हुए। एक असंस्कृत आर्य-भाषाएँ, दूसरी संस्कृतोत्पन्न आर्य-भाषाएँ। ऊपर एक जगह आर्य-भाषाएँ बोलने वालों की संख्या जो दी गई है उसमें असंस्कृत आर्य-भाषाएँ बोलने वालों की संख्या शामिल है। उसे निकाल डालने से संस्कृतोत्पन्न आर्य-भाषाएँ बोलने वालों की संख्या 219,726,225 रह जाती है।

कुछ दिन हुए लंदन की रायल एशियाटिक सोसायटी ने एक पुस्तक प्रकाशित की है। उसमें उत्तर-पश्चिमी भारत की पिशाच-भाषाओं का वर्णन है। उसमें लिखा है कि असंस्कृत आर्य-भाषाएँ पुरानी पैशाची प्राकृत से निकली हैं। यहाँ उन्हीं पैशाची प्राकृतों से मतलब है जिनका वर्णन वररुचि ने किया है।

परवर्ती काल
पूर्वागत और नवागत आर्य

जो आर्य काबुल की पार्वत्य भूमि से पंजाब में आए वे सब एकदम ही नहीं आ गए। धीरे-धीरे आए। सैंकड़ों वर्ष तक वे आते गए। इसका पता वेदों में मिलता है। वेदों में बहुत सी बातें ऐसी हैं जो इस अनुमान को पुष्ट करती हैं। किसी समय कंधार में आर्य-समूह का राजा दिवोदास था। बाद में सुदास नाम का राजा नदी के किनारे पंजाब में हुआ। इस पिछले राजा के समय के आर्यों ने दिवोदास के बल, वीर्य और पराक्रम के गीत गाए हैं। इससे साबित होता है कि सुदास के समय दिवोदास को हुए कई पीढ़ियाँ हो चुकी थीं। आर्यों के पंजाब में अच्छी तरह बस जाने पर उनके कई फिरके - कई वर्ग - हो गए। संभव है इन फिरकों की एक दूसरे से बनती रही हो। इनकी बोली में तो फरक जरूर ही हो गया था। उस समय आर्यों का नया समूह पश्चिम से आता था और पहले आए हुए आर्यों को आगे हटा कर उनकी जगह खुद रहने लगता था।

उस समय के आर्य जो भाषा बोलते थे उसके नमूने वेदों में विद्यमान हैं। वेदों का मंत्र-भाग एक ही समय में नहीं बना। कुछ कभी बना है, कुछ कभी। उसकी रचना के समय में बड़ा अंतर है। फिर एक ही जगह उसकी रचना नहीं हुई। कुछ की रचना कंधार के पास हुई है, कुछ की पंजाब में, और कुछ की यमुना के किनारे। जिन आर्य ऋषियों ने वेदों का विभाग करके उनका संपादन किया, और उनको वह रूप दिया जिसमें उन्हें हम इस समय देखते हैं, उन्होंने रचना-काल और रचना-स्थान का विचार न करके जिस भाग को जहाँ उचित समझा रख दिया। इसी से रचना-काल के अनुसार भाषा की भिन्नता का पता सहज में नहीं लगता।

जैसा ऊपर कहा जा चुका है, सब आर्य एक ही साथ पंजाब में नहीं आए। धीरे-धीरे आए। डाक्टर हार्नली आदि विद्वानों का मत है कि हिंदुस्तान पर आर्यों की मुख्य-मुख्य दो चढ़ाइयाँ हुईं। जो आर्य, इस तरह, दो दफा करके पंजाब में आए उनकी भाषाओं का मूल यद्यपि एक ही था, तथापि उनमें अंतर जरूर था। अर्थात् दोनों यद्यपि एक ही मूल भाषा की शाखाएँ थीं, तथापि उनके बोलने वालों के अलग-अलग हो जाने से, उनमें भेद हो गया था। चाहे आर्यों का दो दफे में पंजाब आना माना जाय, चाहे थोड़ा-थोड़ा करके कई दफे में, बात एक ही है। वह यह कि सब आर्य एक दम नहीं आए। कुछ पहले आए, कुछ पीछे। और पहले और पीछे वालों की भाषाओं में फरक था। डाक्टर ग्रियर्सन का अनुमान है कि आर्यों का पिछला समूह शायद कोहिस्तान हो कर पंजाब आया। यदि यह अनुमान ठीक हो तो यह पिछला समूह उन्हीं आर्यों का वंशज होगा जिनके वंशज इस समय गिलगिट और चित्राल में रहते हैं और जो असंस्कृत आर्य-भाषाएँ बोलते हैं। संभव है ये सब आर्य आक्सस अर्थात् अमू नदी के किनारे-किनारे साथ ही रवाना हुए हों। उनका अगला भाग पंजाब पहुँच गया हो और पिछला गिलगिट और चित्राल ही में रह गया हो। जब ये लोग पंजाब पहुँचे तब तक पंजाब को इन्होंने पश्चिम से आए हुए आर्यों से आबाद पाया। ये पूर्ववर्ती आर्य जो भाषा बोलते थे वह परवर्ती आर्यों की भाषा से कुछ भिन्न थी। परवर्ती आर्य पूर्वी पंजाब की तरफ बढ़े और वहाँ से पूर्वागत आर्यों को हरा कर आप वहाँ बस गए। पूर्वागत आर्य भी उनसे कुछ दूर पर उनके आस-पास बने रहे। पूर्वागत आर्यों की जो भाषाएँ या बोलियाँ थीं, उनके साथ नवागत आर्यों की बोली को भी स्थान मिला। धीरे-धीरे सब भाषाएँ गड्ड-बड्ड हो गईं। कुछ समय बाद उन सब के योग से, या उनमें से कुछ के योग से, पुरानी संस्कृत की उत्पत्ति हुई।

मध्यदेश

परवर्ती आर्यों के फिरके, चाहे जहाँ से और चाहे जिस रास्ते आए हों, धीरे-धीरे वृद्धि उनकी जरूर हुई। जैसे-जैसे उनकी संख्या बढ़ती गई और वे फैलते गए वैसे ही वैसे पूर्ववर्ती आर्यों को वे सब तरफ दूर हटाते गए। संस्कृत साहित्य में एक प्रांत का नाम है 'मध्यदेश'। पुराने ग्रंथों में इसका बहुत दफे जिक्र आया है। वही आर्यों की विशुद्ध भूमि बतलाई गई है। वही उनका आदि स्थान माना गया है। उसकी चतुःसीमाएँ ये लिखी हैं। उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विंध्याचल, पूर्व में प्रयाग, पश्चिम में सरहिंद इस मध्य देश के एक छोर से दूसरे छोर तक सरस्वती नदी की पवित्र धारा बहती थी। वैदिक समय में उसी के किनारे नवागत आर्यों का अड्डा था।

संस्कृतोत्पन्न आर्य-भाषाओं की दो शाखाएँ

संस्कृत से संबंध रखने वाली जितनी भाषाएँ इस समय हिंदुस्तान में बोली जाती हैं उनकी दो शाखाएँ हैं। वे दो भागों में विभक्त हैं। एक शाखा तो ठीक उस प्रांत में बोली जाती है जिसका पुराना नाम मध्यदेश था। दूसरी शाखा इस मध्यदेश के तीन तरफ बोली जाती है। उससे निकली हुई भाषाओं का आरंभ काश्मीर में होता है। वहाँ से पश्चिमी पंजाब, सिंध और महाराष्ट्र देश में होती हुई वे मध्य भारत, उड़ीसा, बिहार, बंगाल और आसाम तक पहुँची हैं। गुजरात को हमने छोड़ दिया है, क्योंकि वहाँ की भाषा मध्य-देशीय शाखा से संबंध रखती है। इसका कारण यह है कि पुराने जमाने में गुजरात प्रांत मथुरा से जीता था। मथुरा के नवागत आर्यों ने गुजरात के पूर्वागत आर्यों को अपने अधीन कर लिया था। मथुरा मध्यदेश में था। और बहुत से नवागत आर्य गुजरात में जा कर रहने लगे थे। इसी से मध्यदेश की भाषा वहाँ प्रधान भाषा हो गई। हिंदुस्तान भर में एक यही प्रांत ऐसा है जिसके निवासियों ने अपने विजयी नवागत आर्यों की भाषा स्वीकार कर ली है।

अंतःशाखा और बहिःशाखा

परवर्ती नवागत आर्य जो मध्यदेश में बस गए थे उनकी भाषा का नाम सुभीते के लिए अंतःशाखा रखते हैं। और जो पूर्ववर्ती आर्य नवागतों के द्वारा बाहर निकाल दिए गए थे, अर्थात् दूर-दूर प्रांतों में जा कर जो रहने लगे थे, उनकी भाषा का नाम बहिःशाखा रखते हैं।

इन दोनों शाखाओं की भाषाओं के उच्चारण में फर्क है। प्रत्येक में कुछ न कुछ विशेषता है। जिन वर्णों का उच्चारण सिसकार के साथ करना पड़ता है उनको अंतःशाखा वाले बहुत कड़ी आवाज से बोलते हैं, यहाँ तक कि वह दंत्य 'स' हो जाता है। पर बहिःशाखा वाले वैसा नहीं करते। इसी से मध्यदेश वालों के 'कोस' शब्द को सिंध वालों ने 'कोहु' कर दिया है। पूर्व की तरह बंगाल में यह 'स', 'श' हो गया है। महाराष्ट्र में भी उसका कड़ापन बहुत कुछ कम हो गया है। आसाम में 'स' की आवाज गिरते-गिरते कुछ-कुछ 'च' की सी हो गई है। काश्मीर में तो उसकी कड़ी आवाज बिलकुल ही जाती रही है। वहाँ अंतःशाखा का 'स' बिगड़ कर 'ह' हो गया है।

संज्ञाओं में भी अंतर है। अंतःशाखा में जो भाषाएँ शामिल हैं उनकी मूल विभक्तियाँ प्राय: गिर गई हैं। धीरे-धीरे उनका लोप हो गया है। और उनकी जगह पर और ही छोटे-छोटे शब्द मूल शब्दों के साथ जुड़ गए हैं। उन्हीं से विभक्तियों का मतलब निकल जाता है। उदाहरण के लिए हिंदी की 'का' 'को' 'से' आदि विभक्तियाँ देखिए। ये जिस शब्द के अंत में आती हैं उस शब्द का उन्हें मूल अंश न समझना चाहिए। ये पृथक शब्द हैं और विभक्तिगत अपेक्षित अर्थ देने के लिए जोड़े जाते हैं। अतएव अंतःशाखा की भाषाओं को व्यवच्छेदक भाषाएँ कहना चाहिए। बहिःशाखा की भाषाएँ जिस समय पुरानी संस्कृत के रूप में थीं, संयोग्यात्मक थीं। 'का' 'को' 'से' आदि से जो अर्थ निकलता है उसके सूचक शब्द उनमें अलग न जोड़े जाते थे। इसके बाद उन्हें व्यवच्छेदक रूप प्राप्त हुआ। सिंधी और काश्मीरी भाषाएँ अब तक कुछ-कुछ इसी रूप में हैं। कुछ काल बाद फिर ये भाषाएँ संयोग्यात्मक हो गईं और व्यवच्छेदक अवस्था में जो विभक्तियाँ अलग हो गई थीं वे इनके मूल रूप में मिल गईं। बँगला में षष्ठी विभक्ति का चिह्न 'एर' इसका अच्छा उदाहरण है।

क्रियाओं में भी भेद है। बहिःशाखा की भाषाएँ पुरानी संस्कृत की किसी ऐसी एक या अधिक भाषाओं से निकली हैं जिनकी भूतकालिक (यथार्थ में भाववाच्य) क्रियाओं से सर्वनामात्मक कर्ता के अर्थ का भी बोध होता था। अर्थात् क्रिया और कर्ता एक ही में मिले होते थे। यह विशेषता बहिःशाखा की भाषाओं में भी पाई जाती है। उदाहरण के लिए बँगला का 'मारिलाम' देखिए। इसका अर्थ है 'मैंने मारा'। पर अंतःशाखा की भाषाएँ किसी ऐसी एक या अधिक भाषाओं से निकली हैं जिनमें इस तरह के क्रियापद नहीं प्रयुक्त होते थे। उदाहरण के लिए हिंदी का 'मारा' लीजिए। इस से यह नहीं ज्ञात होता कि किसने मारा? 'मैंने मारा', 'उसने मारा', 'उन्होंने मारा' जो चाहे समझ लीजिए। 'मारा' का रूप सब के लिए एक ही रहेगा। इससे साबित है कि ये बाहरी और भीतरी शाखाएँ जुदा-जुदा भाषाओं से निकली हैं। इनका उत्पत्ति-स्थान एक नहीं है।

विस्तार और सीमाएँ

भीतरी शाखा जिन प्रांतों में बोली जाती हैं उनकी उत्तरी सीमा हिमालय, पश्चिमी झीलम और पूर्वी वह देशांश रेखा है जो बनारस से हो कर जाती है। पर पूर्वी और पश्चिमी सीमाएँ निश्चित नहीं। उनके विषय में विवाद है। वहाँ भीतरी और बाहरी शाखाएँ परस्पर मिली हुई हैं और एक दूसरी की सीमा के भीतर भी कुछ दूर तक बोली जाती है। यदि इन दोनों सीमाओं का आकुंचन कर दिया जाय, अर्थात् वे हटा कर वहाँ कर दी जायँ जहाँ भीतरी शाखा में बाहरी का जरा भी मेल नहीं है, तो उसकी पूर्वी सीमा संयुक्त प्रांत में प्रयाग के याम्योत्तर और पश्चिमी पटियाले में सरहिंद के याम्योत्तर कहीं हो जाय। यहाँ इस शाखा की भाषाएँ सर्वथा विशुद्ध हैं। उनमें बाहरी शाखा की भाषाओं का कुछ भी संश्रव नहीं है। सरहिंद और झीलम के बीच की भाषा पंजाबी है। यह भाषा भीतरी शाखा से ही संबंध रखती है, पर इसमें बहुत शब्द ऐसे भी हैं जो इस शाखा से नहीं निकले। इस तरह के शब्दों की संख्या जैसे-जैसे पश्चिम को बढ़ते जाइए, अधिक होती जाती है। मालूम होता है कि इस प्रांत में पहले बाहरी शाखा के आर्य रहते थे। धीरे-धीरे भीतर शाखा के आर्यों का प्रभुत्व वहाँ बढ़ा और उन्हीं की भाषा वहाँ की प्रधान भाषा को गई। प्रयाग और बनारस के बीच, अर्थात् अवध, बघेलखंड और छत्तीसगढ़, की भाषा पूर्वी हिंदी है। इस भाषा में भीतरी और बाहरी दोनों शाखाओं के शब्द हैं। यह दोनों के योग से बनी है। अतएव इसे हम मध्यवर्ती शाखा कहते हैं। भीतरी शाखा की दक्षिणी सीमा नर्मदा का दक्षिणी तट है। इसमें किसी संदेह, विवाद या विसंवाद के लिए जगह नहीं। यह सीमा निर्विवाद है। पश्चिम में यह शाखा राजस्थानी भाषा का रूप प्राप्त करके सिंधी में, और पंजाबी का रूप प्राप्त करके लहँडा में मिल जाती है। लहँडा वह बोली है जो पंजाब के पश्चिम मुल्तान और भावलपुर आदि में बोली जाती है। गुजरात में भी इस भीतरी शाखा का प्राधान्य है। वहाँ उसने पूर्व-प्रचलित बाहरी शाखा की भाषा के अधिकार को छीन लिया है।

जिन भाषाओं का जिक्र ऊपर किया गया उन्हें छोड़ कर शेष जितनी संस्कृतोत्पन्न आर्य-भाषाएँ हैं सब बाहरी शाखा के अंतर्गत हैं।

संस्कृतोत्पन्न आर्य-भाषाओं के भेद

संस्कृत से (याद रखिए, पुरानी संस्कृत से मतलब है) उत्पन्न हुई जितनी आर्य-भाषाएँ हैं वे नीचे लिखे अनुसार शाखाओं, उपशाखाओं और भाषाओं में विभाजित की जा सकती हैं -

1. बाहरी शाखा। इसकी तीन उपशाखाएँ हैं - उत्तर-पश्चिमी, दक्षिणी और पूर्वी।

2. मध्यवर्ती शाखा।

3. भीतरी शाखा। इसकी दो उपशाखाएँ हैं - पश्चिमी और उत्तरी।

अब हम नीचे एक लेखा देते हैं जिससे यह मालूम हो जायगा कि प्रत्येक उपशाखा में कौन-कौन भाषाएँ हैं, और 1901 ईसवी की मर्दुमशुमारी के अनुसार, प्रत्येक उपशाखा और भाषा के बोलने वालों की संख्या कितनी है।

बाहरी शाखा

(क) उत्तरी-पश्चिमी उपशाखा : 7,352,305

1. काश्मीरी : 1,007,957

2. कोहिस्तानी : 36

3. लहँडा : 3,337,917

4. सिंधी : 3,006,395

(ख) दक्षिणी उपशाखा : 18,237,899

5. मराठी : 18,237,899

(ग) पूर्वी उपशाखा : 90,242,167

6. उड़िया : 9,687,429

7. बिहारी : 34,579,844

8. बँगला : 44,624,048

9. आसामी : 1,350,846

मध्यवर्ती शाखा

(घ) माध्यकि उपशाखा : 22,136,358

10. पूर्वी हिंदी : 22,136,358

भीतरी शाखा

(ड.) पश्चिमी उपशाखा : 78,632,099

11. पश्चिमी हिंदी : 40,714,925

12. राजस्थानी : 10,917,712

13. गुजराती : 9,928,501

14. पंजाबी : 17,070,961

(च) उत्तरी उपशाखा : 3,124,681

15. पश्चिमी पहाड़ी :1,710,029

16. मध्यवर्ती पहाड़ी :1,270,931

17. पूर्वी पहाड़ी : 143,721

: 218,725,509

इससे मालूम हुआ कि संस्कृतोत्पन्न आर्य-भाषाएँ तीन शाखाओं, छः उपशाखाओं और सत्रह भाषाओं में विभक्त हैं और 21 करोड़ से भी अधिक आदमी उन्हें बोलते हैं। इस देश की आबदी 294,361,056 अर्थात् कोई तीस करोड़ के लगभग है। उसमें से इक्कीस करोड़ आदमी ये भाषाएँ बोलते हैं, साढ़े पाँच करोड़ द्राविड़ भाषाएँ और शेष तीन करोड़ अनार्य विदेशी भाषाएँ। तामील, तैलगू, कनारी आदि द्राविड़-भाषाएँ मदरास प्रांत में बोली जाती हैं। उनकी उत्पत्ति संस्कृत से नहीं है। अतएव हिंदी की उत्पत्ति से उनका कोई संबंध नहीं। इसी से उनके विषय में यहाँ पर और कुछ नहीं लिखा जाता।

ऊपर के लेखे से संस्कृतोत्पन्न आर्य-भाषा बोलने वालों की संख्या 219,725,509 आती है। पर पहले अध्याय के अंत में लिखे के अनुसार उनकी संख्या 219,726,225 होती है। इन आँकड़ों में 716 का फर्क है। ये अंक उन लोगों की संख्या बतलाते हैं जिन्होंने अपनी भाषा विशुद्ध संस्कृत बतलाई है। ये 716 जन काशी के दिग्गज पंडित नहीं हैं, किंतु मदरास और माइसोर प्रांत के कुछ लोग हैं जो विशेष करके संस्कृत ही बोलते हैं। पूर्वोक्त लेखे के टोटल में इनको भी शामिल कर लेने से संस्कृतोत्पन्न आर्य-भाषा बोलने वालों की संख्या पूरी 219,726,225 हो जाती है।

मराठी और पूर्वी हिंदी में बहुत-सी बोलियाँ शामिल हैं। इन दोनों उपशाखाओं से संबंध रखने वाली बोलियाँ बहुत हैं, पर भाषाएँ इनके सिवा और कोई नहीं। इसी तरह उत्तरी उपशाखा में जो तीन भाषाएँ बतलाई गई हैं वे यथार्थ में भाषाएँ नहीं हैं। बहुत-सी मिलती-जुलती बोलियों के समूह जुदा-जुदा तीन भागों में विभक्त कर दिए गए हैं और प्रत्येक भाग का नाम भाषा पर रख दिया गया है। ये बोलियाँ हिंदुस्तान के उत्तर मंसूरी, नैनीताल, गढ़वाल और कुमायूँ आदि पहाड़ी जिलों में बोली जाती हैं।

प्राकृत-काल
आर्य लोगों की सबसे पुरानी भाषा के नमूने ऋग्वेद में हैं ऋग्वेद के मंत्रों का अधिकांश आर्यों ने अपनी रोजमर्रा की बोल-चाल की भाषा में निर्माण किया था। इसमें कोई संदेह नहीं। रामायण, महाभारत और कालिदास आदि के काव्य जिस परिमार्जित भाषा में हैं वह भाषा पीछे की हैं, वेदों के जमाने की नहीं। वेदों के अध्ययन, और उनके भिन्न-भिन्न स्थलों की भाषा के परस्पर मुकाबले, से इस बात का बहुत कुछ पता चलता है कि आर्य लोग कौन-सी भाषा या बोली बोलते थे।

प्राकृत के तीन भेद

अशोक का समय ईसा के 250 वर्ष पहले है और पतंजलि का 150 वर्ष पहले। अशोक के शिलालेखों और पतंजलि के ग्रंथों से मालूम होता है कि ईसवी सन के कोई तीन सौ वर्ष पहले उत्तरी भारत में एक ऐसी भाषा प्रचलित हो गई थी जिसमें भिन्न-भिन्न कई बोलियाँ शामिल थीं। वह पुरानी संस्कृत से निकली थी जो उस जमाने में बोली जाती थी जिस जमाने में कि वेद-मंत्रों की रचना हुई थी। अर्थात् जो पुरानी संस्कृत वैदिक जमाने में बोलचाल की भाषा थी उसी से यह नई भाषा पैदा हुई थी। इस भाषा के साथ-साथ एक परिमार्जित भाषा की भी उत्पत्ति हुई। यह परिमार्जित भाषा भी पुरानी संस्कृत की किसी उपशाखा या बोली से निकली थी। इस परिमार्जित भाषा का नाम हुआ 'संस्कृत' अर्थात् 'संस्कार की गई' - 'बनावटी' और उस नई भाषा का नाम हुआ 'प्राकृत' अर्थात् 'स्वभावसिद्ध' या 'स्वाभाविक'।

वेद-मंत्रों का कुछ भाग तो पुरानी संस्कृत में है और कुछ परिमार्जित संस्कृत में। इससे साबित है कि वेदों के जमाने में भी प्राकृत बोली जाती थी। इस वैदिक समय की प्राकृत का नाम पहली प्राकृत रक्खा जा सकता है। इसके बाद इस पुरानी प्राकृत का जो रूपांतरण शुरू हुआ तो उसकी कितनी ही भाषाएँ बन गईं। पहले भी पुरानी प्राकृत कोई एक भाषा न थी। उसके भी कई भेद थे। पर देशकालानुसार उसकी भेद-वृद्धि होती गई और धीरे-धीरे वर्तमान संस्कृतोत्पन्न आर्य-भाषाओं के रूप उसे प्राप्त हुए। इस मध्यवर्ती प्राकृत का नाम दूसरी प्राकृत रख सकते हैं। पहले तो संस्कृत की भी वृद्धि इस दूसरी प्राकृत के साथ ही साथ होती गई। पर वैयाकरणों ने व्याकरण की श्रृंखलाओं से संस्कृत की वर्द्धनशीलता रोक दी। इससे वह जहाँ की तहाँ ही रह गई, पर प्राकृत बढ़ कर दूसरे दरजे को पहुँची। उसका तीसरा विकास वे सब भाषाएँ हैं जो आज कोई 100 वर्ष से हिंदुस्तान में बोली जाती है। हिंदी भी इन्ही में से एक है। उदाहरण के लिए वेदों की बहुत पुरानी संस्कृत पहली प्राकृत, पाली दूसरी प्राकृत, और हिंदी तीसरी प्राकृत है।

प्राकृत भाषाओं के लक्षण

इसका निर्णय करना कठिन है कि कब से कब तक किस प्राकृत का प्रचार रहा और प्रत्येक का ठीक-ठीक लक्षण क्या है। दूसरी तरह की प्राकृत का शुरू-शुरू में कैसा रूप था, यह भी अच्छी तरह जानने का कोई मार्ग नहीं। वह उस समय की है जब उसे युवावस्था प्राप्त हो गई थी। फिर, दूसरी प्राकृत का रूपांतर तीसरी में इतना धीरे-धीरे हुआ कि दोनों के मिलाप के समय की भाषा देख कर यह बतलाना असंभव सा है कि कौन भाषा दूसरी के अधिक निकट है और कौन तीसरी के। परंतु प्रत्येक प्रकार की प्राकृत के मुख्य-मुख्य गुणधर्म बतलाना मुश्किल नहीं। प्रारंभ काल में प्राकृत काल का रूप संयोगात्मक था। व्यंजनों के मेल से बने हुए कर्णकटु शब्दों की उसमें प्रचुरता है। दूसरी अवस्था में उसका संयोगात्मक रूप तो बना हुआ है, पर कर्णकटुता उसकी कम हो गई है। यहाँ तक कि पीछे से वह बहुत ही ललित और श्रुति-मधुर हो गई है। यह बात दूसरे प्रकार की प्राकृत के पिछले साहित्य से और भी अधिक स्पष्ट है। इस अवस्था में स्वरों का प्रयोग बहुत बढ़ गया है और व्यंजनों का कम हो गया है। प्राकृत की तीसरी अवस्था में स्वरों की प्रचुरता कम हो गई है। दो-दो तीन-तीन स्वर, जो एक साथ लगातार आते थे, उनकी जगह नए-नए संयुक्त स्वर और विभक्तियाँ आने लगीं। इसका फल यह हुआ कि भाषा का संयोगात्मक रूप जाता रहा और उसे व्यवच्छेदक रूप प्राप्त हो गया। अर्थात् शब्दों के अंश एक से अधिक होने लगे। एक बात और भी हुई। वह यह कि नए-नए रूपों में संयुक्त व्यंजनों के प्रयोग की फिर प्रचुरता बढ़ी।

दूसरे प्रकार की प्राकृत

इस बात का ठीक-ठीक पता नहीं चलता कि शुरू-शुरू में दूसरे प्रकार की प्राकृत एक ही तरह से बोली जाती थी या कई तरह से। अर्थात् उससे संबंध रखने वाली कोई प्रांतिक बोलियाँ भी थीं या नहीं। परंतु इस बात का पक्का प्रमाण मिलता है कि वैदिक काल की प्राकृत के कई भेद जरूर थे। जुदा-जुदा प्रांतों के लोग उसे जुदा-जुदा तरह से बोलते थे। उसके कई आंतरिक रूप थे। जब वैदिक समय की प्राकृत में कई भेद थे तब बहुत संभव है कि आरंभ-काल में दूसरे प्रकार की प्राकृत के भी कई भेद रहे हों। उस समय इस भाषा का प्रचार सिंधु नदी से कोसी तक था। वह बहुत दूर-दूर तक बोली जाती थी। अतएव यह संभव नहीं कि इस इतने विस्तृत देश में सब लोग उसे एक ही तरह से बोलते रहे हों। बोली में जरूर भेद रहा होगा। जरूर वह कई प्रकार से बोली जाती रही होगी। अशोक के समय के शिलालेख और स्तंभलेख ईसा के कोई 250 वर्ष पहले के हैं। वे सब दो प्रकार की प्राकृत में हैं। एक पश्चिमी प्राकृत, दूसरी पूर्वी। यदि उस समय उसके ऐसे दो मुख्य भेद हो गए थे जिनमें अशोक को अपनी आज्ञाएँ तक लिखने की जरूरत पड़ी, तो बहुत संभव है, और भी कई छोटे-छोटे भेद उसके रहे हों, और उस समय के पहले भी उनका होना असंभव नहीं। बौद्धधर्म के प्रचार से इस दूसरी प्राकृत की बड़ी उन्नति हुई। इस धर्म के अध्यक्षों ने अपने धार्मिक ग्रंथ इसी भाषा में लिखे और वक्तृताएँ भी इसी भाषा में कीं। इससे इसका महत्व बढ़ गया। आज कल यह दूसरी प्राकृत, पाली भाषा के नाम से प्रसिद्ध है। पाली में प्राकृत का जो रूप था उसका धीरे-धीरे विकास होता गया, क्योंकि भाषाएँ वर्धनशील और परिवर्तन शील होती हैं। वे स्थिर नहीं रहतीं। कुछ समय बाद पाली के मागधी, शौरसेनी और महाराष्ट्री आदि कई भेद हो गए। आज कल इन्हीं भेदों को 'प्राकृत' कहने का रवाज हो गया है। पाली को प्रायः कोई प्राकृत नहीं कहता और न वैदिक समय की बोलचाल की भाषाओं ही को इस नाम से उल्लेख करता। प्राकृत कहने से आज कल इन्हीं मागधी आदि भाषाओं का बोध होता है।

साहित्य की प्राकृत

धार्मिक और राजनैतिक कारणों से प्राकृत की बड़ी उन्नति हुई। धार्मिक व्याख्यान उसमें दिए गए। धार्मिक ग्रंथ उसमें लिखे गए। काव्यों और नाटकों में उसका प्रयोग हुआ। प्राकृत में लिखे गए कितने ही काव्य-ग्रंथ अब तक इस देश में विद्यमान हैं और कितने ही धार्मिक ग्रंथ सिंहल और तिबत में अब तक पाए जाते हैं। नाटकों में भी प्राकृत का भी बहुत प्रयोग हुआ। प्राकृत के कितने ही व्याकरण बन गए। कोई एक हजार वर्ष से ही अधिक समय तक प्राकृत का प्रभुत्व भारतवर्ष में रहा। ठीक समय तो नहीं मालूम, पर लगभग 1000 ईसवी तक प्राकृत सजीव रही। तदनंतर उसके जीवन का अंत आया। उसका प्रचार, प्रयोग, सब बंद हुआ। वह मृत्यु को प्राप्त हो गई। इस प्राकृत की कई शाखाएँ थीं - इसके कई भेद थे। उनके विषय में जो कुछ हम जानते हैं वह प्राकृत के साहित्य की बदौलत। यदि इस भाषा के ग्रंथ न होते, और यदि इसका व्याकरण न बन गया होता, तो इससे संबंध रखने वाली बहुत कम बातें मालूम होतीं। पर खेद इस बात का है कि प्राकृत के जमाने में जो भाषाएँ बोली जाती थीं उनका हमें यथेष्ट ज्ञान नहीं। साहित्य की भाषा बोलचाल की भाषा नहीं हो सकती। प्राकृत-ग्रंथ जिस भाषा में लिखे गए हैं वह बोलने की भाषा न थी। बोलने की भाषा को खूब तोड़-मरोड़ कर लेखकों ने लिखा है। जो मुहाविरे या जो शब्द उन्हें ग्राम्य, शिष्टताविघातक, या किसी कारण से अग्राह्य मालूम हुए उनको उन्होंने छोड़ दिया और मनमानी रचना करके एक बनावटी भाषा पैदा कर दी। अतएव साहित्य की प्राकृत बोलचाल की प्राकृत नहीं। यद्यपि वह बोलचाल ही की प्राकृत के आधार पर बनी थी, तथापि दोनों में बहुत अंतर समझना चाहिए। इस अंतर को जान लेना कठिन काम है। साहित्य की प्राकृत, और उस समय की बोलचाल की प्राकृत का अंतर जानने का कोई मार्ग नहीं। हम सिर्फ इतना ही जानते हैं कि अशोक के समय में दो तरह की प्राकृत प्रचलित थी - एक पश्चिमी, दूसरी पूर्वी। इनमें से प्रत्येक का गुण-धर्म जुदा-जुदा है - प्रत्येक का लक्षण अलग-अलग है। पश्चिमी प्राकृत का मुख्य भेद शौरसेनी है। वह शूरसेन प्रदेश की भाषा थी। गंगा-यमुना के बीच के देश में, और उसके आस पास, उसका प्रचार था। पूर्वी प्राकृत का मुख्य भेद मागधी है। वह उस प्रांत की भाषा थी जो आज कल बिहार कहलाता है। इन दोनों देशों के बीच में एक और भी भाषा प्रचलित थी। वह शौरसेनी और मागधी के मेल से बनी थी और अर्द्ध-मागधी कहलाती थी। सुनते हैं, जैन-तीर्थं कर महावीर इसी अर्द्ध-मागधी में जैन-धर्म का उपदेश देते थे। पुराने जैन ग्रंथ भी इसी भाषा में हैं। अर्द्ध-मागधी की तरह की और भी भाषा प्रचलित थी। उसका नाम था महाराष्ट्री। उसका झुकाव मागधी की तरफ अधिक था, शौरसेनी की तरफ कम। वह बरार और उसके आस पास के जिलों की बोली थी। यही प्रदेश उस समय महाराष्ट्र कहलाता था। प्राकृत-काव्य विशेष करके इसी महाराष्ट्री भाषा में है।

अपभ्रंश-काल
अपभ्रंश भाषाओं की उत्पत्ति

दूसरे प्रकार की प्राकृत का विकास होते-होते उस भाषा की उत्पत्ति हुई जिसे 'साहित्यसंबंधी अपभ्रंश' कहते हैं। अपभ्रंश का अर्थ है - 'भ्रष्ट हुई' या 'बिगड़ी हुई' भाषा। भाषाशास्त्र के ज्ञाता जिसे 'विकास' कहते हैं उसे ही और लोग भ्रष्ट होना या बिगड़ना कहते हैं। धीरे-धीरे प्राकृत-भाषाएँ, लिखित भाषाएँ हो गईं। सैकड़ों पुस्तकें उनमें बन गईं। उनका व्याकरण बन गया। इससे वे बेचारी स्थिर हो गईं। उनकी अनस्थिरता- उनका विकास बंद हो गया। यह लिखित प्राकृत की बात हुई, कथित प्राकृत की नहीं। जो प्राकृत लोग बोलते थे उसका विकास बंद नहीं हुआ। वह बराबर विकसित होती, अथवा यों कहिए कि बिगड़ती गई। लिखित प्राकृत के आचार्यों और पंडितों ने इसी विकास-पूर्ण भाषा का अपभ्रंश नाम से उल्लेख किया है। उनके हिसाब से वह भाषा भ्रष्ट हो गई थी। सर्वसाधारण की भाषा होने के कारण अपभ्रंश का प्रचार बढ़ा और साहित्य की स्थिरीभूत प्राकृत का कम होता गया। धीरे-धीरे उसके जानने वाले दो ही चार रह गए। फल यह हुआ कि वह मृत भाषाओं की पदवी को पहुँच गई। उसका प्रचार बिल्कुल ही बंद हो गया। वह 'मर' गई। अब क्या हो? लोग लिखना पढ़ना जानते थे। मूर्ख थे ही नहीं। लिखने के लिए ग्रंथों की रचना के लिए कोई भाषा चाहिए जरूर थी। इससे वही अपभ्रंश काम में आने लगी। उसी में पुस्तकें लिखी जाने लगीं। इन पुस्तकों में से कुछ अब तक उपलब्ध हैं। इनकी भाषा उस समय की कथित भाषा का नमूना है। जिस तरह की भाषा में ये पुस्तकें हैं उसी तरह की भाषा उस समय बोली जाती थी। पर किस समय वह बोली जाती थी, इसका ठीक-ठीक पता नहीं चलता। जो प्रमाण मिले हैं उनसे सिर्फ इतना ही मालूम होता है कि छठे शतक में अपभ्रंश भाषा में कविता होती थी। ग्यारहवें शतक के आरंभ तक इस तरह की कविता के प्रमाण मिलते हैं। इस पिछले, अर्थात् ग्यारहवें, शतक में अपभ्रंश भाषाओं का प्रचार प्रायः बंद हो चुका था। वे भी मरण को प्राप्त हो चुकी थीं। तीसरे प्रकार की प्राकृत-भाषाओं के लिखित नमूने बारहवें शतक के अंत और तेरहवें के प्रारंभ से मिलते हैं। और लिखी जाने के पहले इन तीसरी तरह की प्राकृत भाषाओं का रूप जरूर स्थिर हो गया होगा। अतएव कह सकते हैं कि हिंदुस्तान की वर्तमान संस्कृतोत्पन्न भाषाओं का जन्म कोई 1000 ईसवी के लगभग हुआ।

अपभ्रंश भाषाओं के भेद

इस देश की वर्तमान भाषाओं के विकास की खोज के लिए हमें लिखित प्राकृतों के नहीं, किंतु लिखित अपभ्रंश भाषाओं के आधार पर विचार करना चाहिए। किसी-किसी ने परिमार्जित संस्कृत से वर्तमान भाषाओं की उत्पत्ति मानी है। यह भूल है। इस समय की बोल-चाल की भाषाएँ न संस्कृत से निकली हैं, न प्राकृत से, किंतु अपभ्रंश से। इसमें कोई संदेह नहीं कि संस्कृत और प्राकृत की सहायता से वर्तमान भाषाओं से संबंध रखने वाली अनेक बातें मालूम हो सकती हैं, पर ये भाषाएँ उनकी जड़ नहीं। जड़ के लिए तो अपभ्रंश भाषाएँ ढूँढ़नी होंगी।

लिखित साहित्य में सिर्फ एक ही अपभ्रंश भाषा का नमूना मिलता है। वह नागर अपभ्रंश है। उसका प्रचार बहुत करके पश्चिमी भारत में था। पर प्राकृत व्याकरणों में जो नियम दिए हुए हैं उनसे अन्यान्य अपभ्रंश भाषाओं के मुख्य-मुख्य लक्षण मालूम करना कठिन नहीं। यहाँ पर हम अपभ्रंश भाषाओं की सिर्फ नामावली देते हैं और यह बतलाते हैं कि कौन वर्तमान भाषा किस अपभ्रंश से निकली है।

बाहरी शाखा की अपभ्रंश भाषाएँ

सिंध नदी के अधोभाग के आसपास जो देश है उस में ब्राचड़ा नाम की अपभ्रंश भाषा बोली जाती थी। वर्तमान समय की सिंधी और लहँडा उसी से निकली हैं। लहँडा उस प्रांत की भाषा है जिसका पुराना नाम केकय देश है। संभव है केकय देश वालों की भाषा, पुराने जमाने में, कोई और ही रही हो। अथवा उस देश में असंस्कृत आर्य-भाषाएँ बोलने वाले कुछ लोग बस गए हों। अर्थात् उसमें संस्कृत और असंस्कृत दोनों तरह की आर्य-भाषाओं के शब्द मिल गए हों।

कोहिस्तानी और काश्मीरी भाषाएँ किस अपभ्रंश से निकली हैं, नहीं मालूम। जिस अपभ्रंश भाषा से ये निकली हैं वह ब्राचड़ा से बहुत कुछ समता रखती रही होगी।

नर्मदा के पार्वत्य में, अरब समुद्र से ले कर उड़ीसा तक, उत्तर दक्षिण दोनों तरफ, बहुत सी बोलियाँ बोली जाती रही होंगी। वैदर्भी अथवा दाक्षिणात्य नाम की अपभ्रंश भाषा से उनका बहुत कुछ संबंध रहा होगा। इस भाषा का प्रधान स्थल विदर्भ, अर्थात् वर्तमान बरार था। संस्कृत-साहित्य में इस प्रांत का नाम महाराष्ट्र है। वैदर्भी और उससे संबंध रखने वाली अन्य भाषाओं और बोलियों से वर्तमान मराठी की उत्पत्ति हो सकती है। पर मराठी के उस अपभ्रंश से निकलने के अधिक प्रमाण पाए जाते हैं जो महाराष्ट्र देश में बोली जाती थी। जिस प्राकृत भाषा का नाम महाराष्ट्री है वह साहित्य की प्राकृत है। पुस्तकें उसी में लिखी जाती थीं, पर वह बोली न जाती थी। बोलने की भाषा जुदा थी।

दाक्षिणात्य-भाषा-भाषी प्रदेश के पूर्व से ले कर बंगाल की खाड़ी तक ओडरी या उत्कली अपभ्रंश प्रचलित थी। वर्तमान उड़िया भाषा उसी से निकली है।

जिन प्रांतों में ओडरी भाषा बोली जाती थी उनके उत्तर, अधिकतर छोटा नागपुर, बिहार और संयुक्त प्रांतों के पूर्वी भाग में मागधी प्राकृत की अपभ्रंश, मागध भाषा, बोली जाती थी। इसका विस्तार बहुत बड़ा था। वर्तमान बिहारी भाषा उसी से उत्पन्न है। इस अपभ्रंश की एक बोली अब तक अपने पुराने नाम से मशहूर है। वह आजकल मगही कहलाती है। मगही शब्द मगधी का ही अपभ्रंश है। मागध अपभ्रंश की किसी समय यही प्रधान बोली थी। यह अपभ्रंश भाषा पुरानी पूर्वी प्राकृत की समकक्ष थी। ओडरी, गौड़ी और ढक्की भी उसी के विकास प्राप्त रूप थे। उनके ये रूप बिगड़ते-बिगड़ते या विकास होते-होते, हो गए थे। मगही गौड़ी, ढक्की और ओडरी इन चारों भाषाओं की आदि जननी वही पुरानी पूर्वी प्राकृत समझना चाहिए। उसी से मागधी का जन्म हुआ और मागधी से इन सब का।

मागधी के पूर्व गौड़ अथवा प्राच्य नाम की अपभ्रंश भाषा बोली जाती थी। उसका प्रधान अड्डा गौड़ देश अर्थात वर्तमान मालदा जिला था। इस अपभ्रंश ने दक्षिण और दक्षिण-पूर्व तक फैल कर वहाँ वर्तमान बँगला भाषा की उत्पत्ति की।

प्राच्य अपभ्रंश ने कुछ दूर और पूर्व जा कर, ढाका के आस-पास ढक्की अपभ्रंश की जड़ डाली। ढाका, सिलहट, कछार और मैमनसिंह जिलों में जो भाषा बोली जाती है वह उसी से उत्पन्न है।

इस प्राच्य या गौड़ अपभ्रंश ने हिंदुस्तान के पूर्व, गंगा के उत्तरी हिस्सों तक, कदम बढ़ाया। वहाँ उसने उत्तरी बंगाल और आसाम में पहुँच कर आसामी की सृष्टि की। उत्तरी और पूर्वी बंगाल की भाषाएँ या बोलियाँ मुख्य बंगाल की किसी भाषा या बोली से नहीं निकलीं। वे पूर्वोक्त गौड़ अपभ्रंश से उत्पन्न हुई हैं जो पश्चिम की तरफ बोली जाती थीं।

मागध अपभ्रंश उत्तर, दक्षिण और पूर्व तीन तरफ फैली हुई थी। उत्तर में उसकी एक शाखा ने उत्तरी बँगला और आसामी की उत्पत्ति की, दक्षिण में उड़िया की, पूर्व में ढक्की की और उत्तरी बँगला और उड़िया के बीच में बँगला की। ये भाषाएँ अपनी जनता से एक सा संबंध रखती हैं। यही कारण है जो उत्तरी बँगला सुदूर, दक्षिण में बोली जाने वाली उड़िया से, मुख्य बँगला भाषा की अपेक्षा अधिक संबंध रखती है - दोनों में परस्पर अधिक समता है।

जैसा कि लिखा जा चुका है पूर्वी और पश्चिमी प्राकृतों की मध्यवर्ती भी एक प्राकृत थी। उसका नाम था अर्द्धमागधी। उसी के अपभ्रंश से वर्तमान पूर्वी हिंदी की उत्पत्ति है। यह भाषा अवध, बघेलखंड और छत्तीसगढ़ में बोली जाती है।

भीतरी शाखा

यहाँ तक बाहरी शाखा की अपभ्रंश भाषाओं का जिक्र हुआ। अब रहीं भीतरी शाखा की अपभ्रंश भाषाएँ। उनमें से मुख्य अपभ्रंश नागर है। बहुत करके यह पश्चिमी भारत की भाषा थी जहाँ नागर ब्राह्मणों का अब तक बाहुल्य है। इस अपभ्रंश में कई बोलियाँ शामिल थीं, जो दक्षिणी भारत के उत्तर की तरफ प्रायः समग्र पश्चिमी भारत में, बोली जाती थीं। गंगा-यमुना के बीच के प्रांत का जो मध्यवर्ती भाग है उसमें नागर अपभ्रंश का एक रूप, शौरसेन, प्रचलित था। वर्तमान पश्चिमी हिंदी और पंजाबी उसी से निकली है। नागर अपभ्रंश का एक और भी रूपांतर था। उसका नाम था आवंती। यह अपभ्रंश भाषा उज्जैन प्रांत में बोली जाती थी। राजस्थानी इसी से उत्पन्न है। गौर्जरी भी इसका एक रूप-विशेष था। वर्तमान गुजराती की जड़ वही है। आवंती और गौर्जरी, मुख्य नागर अपभ्रंश से बहुत कुछ मिलती थीं।

पूर्वी पंजाब से नेपाल तक, हिंदुस्तान के उत्तर, पहाड़ी प्रांतों में, जो भाषाएँ बोली जाती हैं वे किस अपभ्रंश या प्राकृत से निकली हैं, ठीक-ठीक नहीं मालूम। पर वहाँ की भाषाएँ वर्तमान राजस्थानी से बहुत मिलती हैं। और जो लोग पहाड़ी भाषाएँ बोलते हैं उनमें से कितने ही यह दावा रखते हैं कि हमारे पूर्वज राजपूताना से आ कर यहाँ बसे थे। इससे जब तक और कोई प्रमाण न मिले तब तक इन पहाड़ी भाषाओं को भी राजपूताने की पुरानी आवंती से उत्पन्न मान लेना पड़ेगा।

आधुनिक काल
परिमार्जित संस्कृत

जैसा कि लिखा जा चुका है कि प्रारंभिक, किंवा पहली, प्राकृत से संबंध रखने वाली कई एक भाषाएँ या बोलियाँ थीं। उनका धीरे-धीरे विकास होता गया। भारत की वर्तमान भाषाएँ उसी विकास का फल हैं। परिमार्जित संस्कृत भी इसी पहली प्राकृत की किसी शाखा से उत्पन्न हुई है। जिस स्थिर और निश्चित अवस्था में उसे हम देखते हैं वह वैयाकरणों की कृपा का फल है। व्याकरण बनाने वालों ने नियमों की श्रृंखला से उसे ऐसा जकड़ दिया कि वह जहाँ की तहाँ रह गई। उसका विकास बंद हो गया। संस्कृत को नियमित करने के लिए कितने ही व्याकरण बने। उनमें से पाणिनि का व्याकरण सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इस व्याकरण ने संस्कृत को नियमित करने की पराकाष्ठा कर दी। उसने उसे बे-तरह स्थिर कर दिया। यह बात ईसा के कोई 300 वर्ष पहले हुई। धार्मिक ग्रंथ सब इसी में लिखे जाने लगे। और विषयों के भी विद्वत्तापूर्ण ग्रंथों की रचना इसी परिमार्जित संस्कृत में होने लगी। परंतु प्राकृत भाषाओं के वैयाकरणों ने संस्कृत के शब्दों और मुहावरों की कदर न की। प्राकृत व्याकरणों में उनके नियम न बनाए। प्राकृत के जो ग्रंथ उपलब्ध हैं उनमें भी संस्कृत के शब्द और मुहावरे नहीं पाए जाते। प्राकृत वालों ने संस्कृत का बहिष्कार सा किया और संस्कृत वालों ने प्राकृत का। प्राकृत और संस्कृत के व्याकरणों और ग्रंथों में तो पंडितों ने एक दूसरे के शब्दों, मुहावरों और नियमों को न स्वीकार किया। पर बोलने वालों ने इस बात की परवा न की। उच्च प्राकृत बोलने वाले बातचीत में संस्कृत शब्दों का प्रयोग करते थे। यह बात अब भी होती है, अर्थात् भारत की संस्कृतोत्पन्न वर्तमान भाषा बोलने वाले पुस्तकों ही में नहीं, किंतु बोलचाल में भी, संस्कृत-शब्दों का व्यवहार करते हैं। इन संस्कृत-शब्दों की, प्राकृत-काल में वही दशा हुई जो पुरानी प्राकृत से आए हुए शब्दों की हुई थी। वे बोलने वालों के मुँह में विकृत हो गए। बोलते-बोलते उनका रूप बिगड़ गया। यहाँ तक कि फिर वे एक तरह के प्राकृत हो गए।

परिमार्जित संस्कृत का शब्द-विभाग

जो शब्द संस्कृत से आ कर प्राकृत में मिल गए हैं वे 'तत्सम' शब्द कहलाते हैं। और मूल प्राकृत शब्द जो सीधे प्राकृत से आए हैं 'तद्भव' कहलाते हैं। पहले प्रकार के शब्द बिलकुल संस्कृत हैं। दूसरे प्रकार के प्रारंभिक प्राकृत से आए हैं, अथवा यों कहिए कि वे उस प्राकृत या प्राकृत की उस शाखा से आए हैं जिससे खुद संस्कृत की उत्पत्ति हुई हैं। इन दो तरह के शब्दों के सिवा एक तीसरी तरह के शब्द भी प्रचलित हो गए हैं। ये वे तत्सम शब्द हैं जो प्राकृत-भाषा-भाषियों के मुँह में बिगड़ते-बिगड़ते कुछ और ही रूप के हो गए हैं। इनको 'अर्द्ध-तत्सम' कह सकते हैं। 'तत्सम' शब्दों का स्वभाव 'अर्द्ध-तत्सम' होने का है। फल इसका यह हुआ है कि 'अर्द्ध-तत्सम' शब्द धीरे-धीरे इतने बिगड़ गए हैं कि उनका और 'तद्भव' शब्दों का भेद पहचानना मुश्किल हो गया है। दोनों प्रायः एक ही तरह के हो गए हैं। इस देश के वैयाकरणों ने कुछ शब्दों को, 'देश्य' संज्ञा भी दी है। परंतु ये शब्द भी प्रायः संस्कृत ही से निकले हैं, इससे इनको भी 'तद्भव' शब्द ही मानना चाहिए। कुछ द्राविड़ भाषा के भी शब्द परिमार्जित संस्कृत में आ कर मिल गए हैं। उनकी संख्या बहुत कम है। अधिक संख्या उन्हीं शब्दों की है जो पुरानी संस्कृत से आए हैं। यहाँ पुरानी संस्कृत से मतलब संस्कृत की उन पुरानी शाखाओं से है जो परिमार्जित संस्कृत की जननी नहीं हैं। पुरानी संस्कृत की जिस शाखा से परिमार्जित संस्कृत निकली है उसे छोड़ कर और शाखाओं से ये शब्द आए हैं। इनकी भी गिनती 'तद्भव' शब्दों में है।

हिंदी का शब्द-विभाग

हिंदी से मतलब यहाँ पर, पूर्वी और पश्चिमी दोनों तरह की हिंदी से है। शब्द-विभाग के संबंध में हिंदी का भी ठीक वही हाल है जो संस्कृत का है। अरबी, फारसी, तुर्की, अंग्रेजी और द्राविड़ भाषाओं के शब्दों को छोड़ कर शेष सारा शब्द-समूह, संस्कृत ही की तरह, तत्सम, अर्द्ध-तत्सम और तद्भव शब्दों में बँटा हुआ है। हिंदी में जितने तद्भव शब्द हैं या तो वे प्रारंभ की प्राकृतों से आए हैं, या दूसरी शाखा की प्राकृतों से होते हुए संस्कृत से आए हैं। परंतु ठीक-ठीक कहाँ ये आए हैं, इसके विचार की इस समय जरूरत नहीं। दूसरे दरजे की प्राकृत भाषाओं के जमाने में चाहे वहे तद्भव रहे हों, चाहे तत्सम, आधुनिक भाषाओं में वे विशुद्ध तद्भव हैं। क्योंकि आधुनिक भाषाएँ तीसरे दर्जें की प्राकृत हैं, और ये सब शब्द दूसरे दरजे की प्राकृतों से आए हैं। परंतु आज कल के तत्सम और अर्द्धतत्सम शब्द प्रायः परिमार्जित संस्कृत से लिए गए हैं। उदाहरण के लिए 'आज्ञा' शब्द को देखिए। वह विशुद्ध संस्कृत शब्द है। पर हिंदी में आता है। इससे तत्सम हुआ। इसका अर्द्धतत्सम रूप है 'अग्याँ'। इसे बहुधा अपढ़ और अच्छी हिंदी न जानने वाले लोग बोलते हैं। इसी का तद्भव शब्द 'आन' है। यह संस्कृत से नहीं, किंतु दूसरी शाखा की प्राकृत के 'आणा' शब्द का अपभ्रंश है। इसी तरह 'राजा' शब्द तत्सम है, 'राय' तद्भव। प्रत्येक शब्द के तत्सम, अर्द्धतत्सम और तद्भव रूप नहीं पाए जाते। किसी के तीनों रूप पाए जाते हैं। किसी के सिर्फ दो, किसी का सिर्फ एक ही। किसी-किसी शब्द के तत्सम और तद्भव दोनों रूप हिंदी में मिलते हैं। पर अर्थ उनके जुदा-जुदा हैं। संस्कृत 'वंश' शब्द को देखिए। उसका अर्थ 'कुटुंब' भी है और 'बाँस' भी। उसके अर्द्ध-तत्सम 'बंस' शब्द का अर्थ तो कुटुंब है, पर उस से दूसरा अर्थ नहीं निकलता। वह अर्थ उसके तद्भव शब्द 'बाँस' से निकलता है।

हिंदी पर संस्कृत का प्रभाव

हिंदी ही पर नहीं, किंतु हिंदुस्तान की प्रायः सभी वर्तमान भाषाओं पर, आज सैकड़ों वर्ष से संस्कृत का प्रभाव पड़ रहा है। संस्कृत के अनंत शब्द आधुनिक भाषाओं में मिल गए हैं। परंतु उसका प्रभाव सिर्फ वर्तमान भाषाओं के शब्द-समूह पर ही पड़ा है, व्याकरण पर नहीं। हिंदी-व्याकरण पर आप चाहे जितना ध्यान दीजिए, उसका चाहे विचार कीजिए, संस्कृत का प्रभाव आपको उसमें बहुत कम ढूँढ़े मिलेगा। संस्कृत शब्दों का प्रयोग तो हिंदी में बढ़ता जाता है, पर संस्कृत व्याकरण के नियमों के अनुसार हिंदी-व्याकरण में बहुत ही कम फेर-फार होते हैं। बहुत ही कम क्यों, यदि कोई कहे कि बिलकुल नहीं होते, तो भी अत्युक्ति न होगी। आचार, आहार, विचार, विहार, जल, फल, फल, कला, विद्या आदि सब तत्सम शब्द हैं। ये तद्वत हिंदी में लिख दिए जाते हैं। बहुत कम फेर फार होता है। और होता भी है तो विशेष कर के बहुवचन में जैसे आहारों, विचारों, कलाओं, विद्याओं आदि। यदि इन में विभक्तियाँ लगाई जाती हैं तो संस्कृत की तरह इनका रूपांतरण नहीं हो जाता। हिंदी में पुरुष और वचन के अनुसार क्रियाओं का रूप तो बदल जाता है, पर विभक्तियाँ लगने से संज्ञाओं के रूपों में बहुत कम अदल-बदल होता है। इसी के तत्सम शब्दों से क्रिया का काम नहीं निकलता। यदि ऐसे शब्दों को क्रिया का रूप देना होता है तो एक तद्भव शब्द और जोड़ना पड़ता है। 'दर्शन' शब्द तत्सम है। अब इससे यदि क्रिया का काम लेना हो तो 'करना' और जोड़ना पड़ेगा। अतएव सर्वसाधारण लक्षण यह है कि हिंदी में जितने नाम या संज्ञाएँ हैं सब या तो तत्सम हैं, या अर्द्धतत्सम हैं, या तद्भव हैं, पर क्रियाएँ जितनी हैं सब तद्भव हैं। यह स्थूल लक्षण है। इसमें कुछ अपवाद भी हैं, पर उनके कारण इस व्यापक लक्षण में बाधा नहीं आ सकती है।

जब से इस देश में छापेखाने खुले और शिक्षा की वृद्धि हुई तब से हिंदी में संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग बहुत अधिकता से होने लगा। संस्कृत के कठिन-कठिन शब्दों को हिंदी में लिखने की चाल सी पड़ गई। किसी-किसी पुस्तक के शब्द यदि गिने जायँ तो फीसदी 50 से भी अधिक संस्कृत के तत्सम शब्द निकलेंगे। बँगला में तो इस तरह के शब्दों की और भी भरमार है। किसी-किसी बँगला पुस्तक में फीसदी 88 शब्द विशुद्ध संस्कृत के देखे गए हैं। ये शब्द ऐसे नहीं कि इनकी जगह अपनी भाषा के सीधे-सादे बोलचाल के शब्द लिखे ही न जा सकते हों। नहीं, जो अर्थ इन संस्कृत शब्दों से निकलता है उसी अर्थ के देने वाले अपनी निज की भाषा के शब्द आसानी से मिल सकते हैं। पर कुछ चाल ही ऐसी पड़ गई है कि बोलचाल के शब्द लोगों को पसंद नहीं आते। वे यथा-संभव संस्कृत के मुश्किल-मुश्किल शब्द लिखना ही जरूरी समझते हैं। फल इसका यह हुआ है कि हिंदी दो तरह की हो गई है। एक तो वह जो सर्वसाधारण में बोली जाती है, दूसरी वह जो पुस्तकों, अखबारों और सामायिक पुस्तकों में लिखी जाती है। कुछ अखबारों के संपादक इस दोष को समझते हैं, इससे वे बहुधा बोलचाल ही की हिंदी लिखते हैं। उपन्यास की कुछ पुस्तकें भी सीधी-सादी भाषा में लिखी गई हैं। जिन अखबारों और पुस्तकों की भाषा सरल होती है उनका प्रचार भी औरों से अधिक होता है उनका प्रचार भी औरों से अधिक होता है। इस बात को जान कर भी लोग क्लिष्ट भाषा लिख कर भाषा-भेद बढ़ाना नहीं छोड़ते। इसका अफसोस है। कोई कारण नहीं कि जब तक बोलचाल की भाषा के शब्द मिलें, संस्कृत के कठिन तत्सम शब्द क्यों लिखे जायँ? घर शब्द क्या बुरा है जो 'गृह' लिखा जाय? कलम क्या बुरा है जो लेखनी लिखा जाय? ऊँचा क्या बुरा है जो 'उच्च' लिखा जाय? संस्कृत जानना हम लोगों का जरूर कर्तव्य है। पर उसके मेल से अपनी बोलचाल की हिंदी को दुर्बोध करना मुनासिब नहीं। पुस्तकें लिखने का सिर्फ इतना ही मतलब होता है कि जो कुछ उनमें लिखा गया है वह पढ़ने वालों की समझ में आ जाय। जितने ही अधिक लोग इन्हें पढ़ेंगे उतना ही अधिक लिखने का मतलब सिद्ध होगा। तब क्या जरूरत है कि भाषा क्लिष्ट करके पढ़ने वालों की संख्या कम की जाय? जो संस्कृत-भाषा हजारों वर्ष पहले बोली जाती थी उसे मिलाने की कोशिश कर के अपनी भाषा के स्वाभाविक विकास को रोकना बुद्धिमानी का काम नहीं। स्वतंत्रता सब के लिए एक सी लाभदायक है। कौन ऐसा आदमी है जिसे स्वतंत्रता प्यारी न हो? फिर क्यों हिंदी से संस्कृत की पराधीनता भोग कराई जाय? क्यों न वह स्वतंत्र कर दी जाय? संस्कृत, फारसी, अंगरेजी आदि भाषाओं के जो शब्द प्रचलित हो गए हैं उनका प्रयोग हिंदी में होना ही चाहिए। वे सब अब हिंदी के शब्द बन गए हैं। उनसे घृणा करना उचित नहीं।

डाक्टर ग्रियर्सन की राय है कि काशी के कुछ लोग हिंदी की क्लिष्टता को बहुत बढ़ा रहे हैं। वहाँ संस्कृत की चर्चा अधिक है। इस कारण संस्कृत का प्रभाव हिंदी पर पड़ता है। काशी में तो किसी-किसी को उच्च भाषा लिखने का अभिमान है। यह उनकी नादानी है। यदि हिंदी का कोई शब्द न मिले तो संस्कृत का शब्द लिखने में हानि नहीं, जान-बूझ कर भाषा को उच्च बनाना किसी के पैरों में कुल्हाड़ी मारना है। जिन भाषाओं से हिंदी की उत्पत्ति हुई है उनमें मन के सारे भावों के प्रकाशित करने की शक्ति थी। वह शक्ति हिंदी में बनी हुई है। उस का शब्द-समूह बहुत बड़ा है। पुरानी हिंदी में उत्तमोत्तम काव्य, अलंकार और वेदांत के ग्रंथ भरे पड़े हैं। कोई बात ऐसी नहीं, कोई भाव ऐसी नहीं, कोई विषय ऐसा नहीं जो विशुद्ध हिंदी शब्दों में न लिखा जा सकता हो। तिस पर भी बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ता है, कि कुछ लोग, कुछ वर्षों से, एक बनावटी क्लिष्ट भाषा लिखने लगे हैं। पढ़ने वालों की समझ में उनकी भाषा आवेगी या नहीं, इसकी उन्हें परवा नहीं रहती। सिर्फ अपनी विद्वत्ता दिखाने की उन्हें परवा रहती है। बस। कला-कौशल और विज्ञान आदि के पारिभाषिक शब्दों का भाव आदि संस्कृत-शब्दों में दिया जाय तो हर्ज नहीं। इस बात की शिकायत नहीं। शिकायत साधारण तौर पर सभी तरह की पुस्तकों में संस्कृत शब्द भर देने की है। इन्हीं बातों के ख्याल से गवर्नमेंट ने मदरसों की प्रारंभिक पुस्तकों की भाषा बोलचाल की कर दी है। अतएव हिंदी के प्रतिष्ठित लेखकों को भी चाहिए कि संस्कृत के क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग यथासंभव कम किया करें।

द्राविड़ भाषाओं का प्रभाव

प्राचीन आर्य जब भारतवर्ष में पहले पहल पधारे तब भारतवर्ष उजाड़ न था। आबाद था। जो लोग यहाँ रहते वे आर्यों की तरह सभ्य न थे। आर्यों ने धीरे-धीरे उनको आगे हटाया और उनके देश पर कब्जा कर लिया। प्राचीन आर्यों के ये प्रतिपक्षी वर्तमान द्राविड़ और मुंडा जाति के पूर्वज थे। उनमें और आर्यों में वैर-भाव रहने पर भी कुछ दिनों बाद सब पास-पास रहने लगे। परस्पर का भेद-भाव बहुत कम हो गया। आपस में शादी ब्याह तक होने लगे। परस्पर के रीति-रस्म बहुत-कुछ एक हो गए। इस निकट संपर्क के कारण द्राविड़ भाषा के बहुत से शब्द संस्कृतोत्पन्न आर्य-भाषाओं में आ गए। वे प्राकृत और अपभ्रंश से होते हुए वर्तमान हिंदी में भी आ पहुँचे हैं। यद्यपि उनका वह पूर्वरूप नहीं रहा, तथापि ढूँढ़ने से अब भी उनका पता चलता है। आदिम आर्य एशिया के जिस प्रांत से भारत में आए थे उस प्रांत में भारत की बहुत सी चीजें न होती थीं। इससे भारत में आ कर आर्यों ने उन चीजों के नाम द्राविड़ और मुंडा जाति के पूर्वजों से सीखे और उन्हें अपनी भाषा में मिला लिया। इसके सिवा कोई-कोई बातें ऐसी भी हैं जिन्हें आर्य लोग कई तरह से कह सकते थे। इस दशा में उनके कहने का जो तरीका द्राविड़ लोगों के कहने के तरीके से अधिक मिलता था उसी को वे अधिक पसंद करते थे। पुरानी संस्कृत का एक शब्द है 'कृते', जिसका अर्थ है 'लिए'। होते-होते इसका रूपांतर 'कहुँ' हुआ। वर्तमान 'को' इसी का अपभ्रंश है। इसका कारण यह है कि द्राविड़ भाषा में एक विभक्ति थी 'कु'। वह संप्रदान कारक के लिए थी और अब तक है। उसे देख कर पुराने आर्यों ने संप्रदान कारक के और चिह्नों को छोड़ कर 'कृते' के ही अपभ्रंश को पसंद किया। जिन लोगों का संपर्क द्राविड़ों के पूर्वजों से अधिक था उन्हीं पर उनकी भाषा का अधिक असर हुआ, औरों पर कम या बिल्कुल ही नहीं। यही कारण है कि आर्य-भाषाओं की कितनी ही शाखाओं में द्राविड़ भाषा के प्रभाव का बहुत ही कम असर देखा जाता है। किसी-किसी भाषा में तो बिल्कुल ही नहीं है।

भाषा-विकास के नियमों के वशीभूत हो कर कठोर वर्ण कोमल हो जाया करते हैं और बाद में बिल्कुल ही लोप हो जाते हैं। प्राचीन संस्कृत के 'चलति' (जाता है, चलता है) शब्द को देखिए। वह पहले तो 'चलति' हुआ, फिर 'चलई'। 'त' बिल्कुल ही जाता रहा। भाषा शास्त्र के एक व्यापक नियमानुसार यह परिवर्तन हुआ। पर कहीं-कहीं इस नियम के अपवाद पाए जाते हैं। उदाहरण के लिए संस्कृत 'शोक' शब्द को लीजिए। उसे 'सोअ' होना चाहिए था। पर 'सोअ' न हो कर 'सोग' हो गया। अर्थात् 'क' व्यंजन का रूपांतर 'ग' बना रहा। यह इसीलिए हुआ, क्योंकि द्राविड़ भाषा में इस तरह के व्यंजनों का बहुत प्राचुर्य है। अतएव सिद्ध है कि संस्कृतोत्पन्न आर्य-भाषाओं पर द्राविड़ भाषाओं का असर जरूर पड़ा। और उस असर के चिह्न हिंदी में भी पाए जाते हैं।

और भाषाओं का प्रभाव

मुसलमानों के संपर्क से फारसी के अनेक शब्द हिंदी में मिल गए हैं। साथ ही इसमें कितने ही शब्द अरबी के और थोड़े से तुर्की के भी आ मिले हैं पर ये अरबी और तुर्की के शब्द फारसी से हो कर आए हैं। अर्थात् फारसी बोलने वालों ने जिन अरबी और तुर्की शब्दों को अपनी भाषा में ले लिया था वही शब्द मुसलमानों के संयोग से हिंदुस्तान में प्रचलित हुए हैं। खास अरबी और तुर्की बोलने वालों के संयोग से हिंदी में नहीं आए। यद्यपि अरबी, तुर्की और फारसी के बहुत से शब्द हिंदी में मिल गए हैं, तथापि उनके कारण हिंदी के व्याकरण में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। इन विदेशी भाषाओं के शब्दों ने हिंदी की शब्द-संख्या जरूर बढ़ा दी है, पर व्याकरण पर उनका कुछ भी असर नहीं पड़ता। हाँ, इन शब्दों के कारण एक बात लिखने लायक जो हुई है वह यह है कि मुसलमान और फारसीदाँ हिंदू जब ऐसी हिंदी लिखते हैं, जिसमें फारसी, अरबी और तुर्की के शब्द अधिक होते हैं, तब उनके वाक्य-विन्यास का क्रम साधारण हिंदी से कुछ जुदा तरह का जरूर हो जाता है।

फारसी, अरबी और तुर्की के सिवा पोर्चुगीज, डच और अंगरेजी भाषा के भी कुछ शब्द हिंदी में आ मिले हैं। उनमें अंग्रेजी शब्दों की संख्या अधिक है। इसका कारण अंगरेजों का अधिक संपर्क है। यह संपर्क जैसे-जैसे बढ़ता जायगा तैसे-तैसे और भी अधिक अंगरेजी शब्दों के आ मिलने की संभावना है।

सारांश

यहाँ तक जो कुछ लिख गया उससे मालूम हुआ कि हमारे आदिम आर्यों की भाषा पुरानी संस्कृत थी। उसके कुछ नमूने ऋग्वेद में वर्तमान हैं। उसका विकास होते-होते कई प्रकार की प्राकृतें पैदा हो गईं। हमारी विशुद्ध संस्कृत किसी पुरानी प्राकृत से ही परिमार्जित हुई है। प्राकृतों के बाद अपभ्रंश भाषाओं की उत्पत्ति हुई और उनसे वर्तमान संस्कृतोत्पन्न भाषाओं की। हमारी वर्तमान हिंदी, अर्धमागधी और शौरसेनी अपभ्रंश से निकली है। अतएव जो लोग यह समझते हैं कि हिंदी की उत्पत्ति प्रत्यक्ष संस्कृत से है वे डाक्टर ग्रियर्सन की सम्मति के अनुसार भूलते हैं। डाक्टर साहब की राय सयुक्तिक जान पड़ती है। वे आज कई वर्षों से भाषाओं की खोज का काम कर रहे हैं। इस खोज में जो प्रमाण उनको मिले हैं उन्हीं के आधार पर उन्होंने अपनी राय कायम की है। एक बात तो बिल्कुल साफ है कि हिंदी में संस्कृत शब्दों की भरमार अभी कल से शुरू हुई है। परिमार्जित संस्कृत चाहे सर्वसाधारण की बोली कभी रही भी हो, पर उसके बाद हजारों वर्ष तक जो भाषाएँ इस देश में बोली गई होंगी उन्हीं से आज कल की भाषाओं और बोलियों की उत्पत्ति मानना अधिक संभवनीय जान पड़ता है। जिस परिमार्जित संस्कृत को कुछ ही लोग जानते थे उससे सर्वसाधारण की बोलियों और भाषाओं का उत्पन्न होना बहुत कम संभव मालूम होता है।

यह निबंध यद्यपि हिंदी ही की उत्पत्ति का दिग्दर्शन करने के लिए है तथापि प्रसंगवश और-और भाषाओं की उत्पत्ति और उनके बोलने वालों की संख्या आदि का भी उल्लेख कर दिया गया है। आशा है पाठकों को यह बात नागवार न होगी।


उपसंहार
आज तक कुछ लोगों का ख्याल था कि हिंदी की जननी संस्कृत है। यह बात भारत की भाषाओं की खोज से गलत साबित हो गई। जो उद्गम-स्थान परिमार्जित संस्कृत का है, हिंदी जिन भाषाओं से निकली है उनका भी वही है। इस बात को सुन कर बहुतों को आश्चर्य होगा। संभव है उन्हें यह बात ठीक न जँचे, पर जब तक इसके खिलाफ कोई सबूत न दिए जायँ, तब तक इस सिद्धांत को मानना ही पड़ेगा।

बिहारी भाषा

भाषाओं की जाँच से एक और भी नई बात मालूम हुई है। वह यह है कि बिहारी भाषा यद्यपि हिंदी से बहुत कुछ मिलती-जुलती है तथापि वह उसकी शाखा नहीं। वह बँगला से अधिक संबंध रखती है, हिंदी से कम। इसी से बिहारियों की गिनती हिंदी बोलने वालों में नहीं की गई। उसे एक निराली भाषा मानना पड़ा है। वह पूर्वी उपशाखा के अंतर्गत है और बँगला, उड़िया और आसामी की बहन है। पूर्वी हिंदी बिहारी की डाँड़ामेंड़ी है, पर पूर्वी हिंदी की तरह वह अर्द्धमागध अपभ्रंश से नहीं निकली। वह पुराने मागध अपभ्रंश से उत्पन्न हुई। बँगला देश के वासी 'स' को 'श' उच्चारण करते हैं। बिहारियों को भी ऐसा ही उच्चारण करना चाहिए था, क्योंकि उनकी भाषा का उत्पत्ति-स्थान वही है जो बंगालियों की भाषा का है। पर बिहारी ऐसा नहीं करते। इससे उनकी भाषा की उत्पत्ति के विषय में संदेह नहीं करना चाहिए। पूर्वी हिंदी बोलने वालों से बिहारियों का अधिक संपर्क रहा है और अब भी है। बिहारियों की भाषा यद्यपि बँगला की बहन है तथापि बंगाल की अपेक्षा संयुक्त प्रांत से ही उनका हेल-मेल अधिक रहा है। इसी से उच्चारण बंगालियों की 'श' वाली विशेषता बिहारियों की बोली से धीरे-धीरे जाती रही है। यद्यपि बिहारी 'स' को 'श' नहीं उच्चारण करते, तथापि 'स' को 'श' वे लिखते अब तक हैं। अब तक उनकी यह आदत नहीं छूटी।

बिहारी भाषा के अंतर्गत पाँच बोलियाँ हैं। उनके नाम और बोलने वालों की संख्या नीचे दी जाती है -

मैथिली 10, 387, 898

मगही 6,584,497

भुजपुरी 17, 367, 078

पूर्वी 236, 259

अज्ञात नाम 4,112

कुल 34, 579, 844

इस भाषा में विद्यापति ठाकुर बहुत प्रसिद्ध कवि हुए। और भी कितने ही कवि हुए हैं जिन्होंने नाटक और काव्य-ग्रंथों की रचना की है।

बिहारियों की प्रधान लिपि कैथी है।

पूर्वी हिंदी

अर्द्धमागधी प्राकृत के अपभ्रंश से पूर्वी हिंदी निकली है। जैन लोगों के प्रसिद्ध तीर्थंकर महावीर ने इसी अर्द्धमागधी में अपने अनुगामियों को उपदेश दिया था। इसी से जैन लोग इस भाषा को बहुत पवित्र मानते हैं। उनके बहुत से ग्रंथ इसी भाषा में हैं। तुलसीदास ने अपनी रामायण इसी पूर्वी हिंदी में लिखा है। इसके तीन भेद हैं। अथवा यों कहिए कि पूर्वी हिंदी में तीन बोलियाँ शामिल हैं। अवधी, बघेली, और छत्तीसगढ़ी। इनमें से अवधी भाषा में बहुत कुछ लिखा गया है। मलिक मुहम्मद जायसी और तुलसीदास इस भाषा के सबसे अधिक प्रसिद्ध कवि हुए। जिसे ब्रज-भाषा कहते हैं। उसका मुकाबला, कविता की अगर और किसी भाषा ने किया है तो अवधी ही ने किया है। रीवाँ दरबार के कुछ कवियों ने बघेली भाषा में भी पुस्तकें लिखी हैं, पर अवधी भाषा के पुस्तक-समूह के सामने वे दाल में नमक के बराबर भी नहीं हैं। छत्तीसगढी में तो साहित्य का प्रायः अभाव ही समझना चाहिए।

पश्चिमी हिंदी

 पूर्वी हिंदी तो मध्यवर्ती शाखा से निकली है अर्थात् बाहरी और भीतरी दोनों शाखाओं की भाषाओं के मेल से बनी है, पश्चिमी हिंदी की बात जुदा है। वह भीतरी शाखा से संबंध रखती है और राजस्थानी, गुजराती और पंजाबी की बहन है। इस भाषा के कई भेद हैं। उनमें से हिंदुस्तानी, ब्रज-भाषा, कन्नौजी, बुंदेली, बाँगरू और दक्षिणी मुख्य हैं। इनके बोलने वालों की संख्या इस प्रकार है।

हिंदुस्तानी (खास) 7,072,745

और तरह की हिंदुस्तानी जिसमें

फुटकर भाषाएँ शामिल हैं 5,921,384

ब्रजभाषा 8,380,724

कन्नौजी 5,082,006

बुंदेली 5,460,280

बाँगरू 2,505,158

दक्षिणी 6,292,628

कुल 40,714,925

याद रखिए यह वर्गीकरण डाक्टर ग्रियर्सन का किया हुआ है। इसमें कहीं उर्दू का नाम नहीं आया। हिंदी के जो दो बड़े-बड़े विभाग किए गए हैं उनमें से एक में भी उर्दू अलग भाषा या बोली नहीं मानी गई। जिसको लोग उर्दू कहते हैं उसके बोलने वालों की संख्या हिंदुस्तानी बोलने वालों में शामिल है। इस भाषा के विषय में कुछ विशेष बातें लिखनी हैं। इससे उसे आगे के लिए रख छोड़ते हैं।

ब्रज-भाषा

गंगा-यमुना के बीच के मध्यवर्ती प्रांत में, और उसके दक्षिण, देहली से इटावे तक, ब्रज-भाषा बोली जाती है। गुड़गाँवा और भरतपुर, करोली और ग्वालियर की रियासतों में भी ब्रजभाषा के बोलने वाले हैं। पुराने जमाने में शूरसेन देश के एक भाग का नाम था ब्रज। उसी के नामानुसार ब्रजभाषा का नाम हुआ है। इस भाषा के कवियों में सूरदास और बिहारी सबसे अधिक प्रसिद्ध हुए। अंगरेजी-विद्वानों की, विशेष कर के ग्रियर्सन साहब की, राय में सूरदास और तुलसीदास का परस्पर मुकाबला ही नहीं हो सकता, क्योंकि उनकी राय में तुलसीदास केवल कवि ही न थे, समाज-संशोधक भी थे। मनुष्य के मानसिक विकारों का जैसा अच्छा चित्र तुलसीदास ने अपनी कविता में खींचा है वैसा और किसी से नहीं खींचा गया।

कन्नौजी

कन्नौजी, ब्रजभाषा से बहुत कुछ मिलती जुलती है। इटावा से इलाहाबाद के पास तक, अंतर्वेद में इसका प्रचार है। अवध के हरदोई और उन्नाव जिलों में भी यही भाषा बोली जाती है। हरदोई में ज्यादा उन्नाव में कम। इस भाषा में कुछ भी साहित्य नहीं है। कोई 100 वर्ष हुए श्रीरामपुर के पादरियों ने बाइबल का एक अनुवाद इस प्रांतिक भाषा में प्रकाशित किया था। उसे देखने से मालूम होता है कि तब की और अब की भाषा में फर्क हो गया है। कितने ही शब्द जो पहले बोले जाते थे अब नहीं बोले जाते।

बुंदेली

बुंदेली बुंदेलखंड की बोली है। झाँसी, जालौन, हमीरपुर और ग्वालियर राज्य के पूर्वी प्रांत में यह बोली जाती है। मध्यप्रदेश के दमोह, सागर, सिउनी, नरसिंहपुर जिलों की भी बोली बुंदेली ही है। छिंदवाड़ा और हुशंगाबाद तक के कुछ हिस्सों में यह बोली जाती है। बाइबल के एक आध अनुवाद के सिवा इसमें भी कोई साहित्य नहीं है। ब्रजभाषा, कन्नौजी और बुंदेली आपस में एक दूसरे से बहुत कुछ मिलती जुलती हैं।

बाँगरू

हिसार, झींद, रोहतक, करनाल आदि जिलों की भाषा बाँगरू है। इन प्रांतों की बोलियों के हरियानी और जादू आदि भी नाम हैं, पर बाँगरू नाम अधिक सयुक्तिक और अधिक व्यापक है, क्योंकि बाँगरू में, अर्थात पंजाब के दक्षिण-पूर्व में जो ऊँचा और खुश्क देश है उसमें, यह बोली जाती है। देहली के आस-पास की भी यही भाषा है। पर करनाल के आगे यह नहीं बोली जाती। वहाँ से पंजाबी शुरू होती है।

दक्षिणी

दक्षिण के मुसलमान जो हिंदी बोलते हैं उसका नाम दक्षिणी हिंदी रक्खा गया है। इस हिंदी के बोलने वाले बंबई, बरोदा, बरार, मध्यप्रदेश, कोचीन, कुग, हैदराबाद, मदरास, माइसोर और ट्रावनकोर तक में पाए जाते हैं। ये लोग अपनी भाषा लिखते यद्यपि फारसी अक्षरों में हैं, तथापि फारसी शब्दों की भरमार नहीं करते। ये लोग मुझे या मुझ को की जगह 'मेरे को' बोलते हैं और कभी-कभी 'मैं खाना खाया' की तरह के 'ने' विहीन वाक्य प्रयोग करते हैं। दक्षिणी हिंदी बोलने वालों की संख्या थोड़ी नहीं है। कोई 63 लाख है। सुदूरवर्ती माइसोर, कुर्ग, मदरास और ट्रावनकोर तक में इस हिंदी को बोलने वाले हैं, और लाखों हैं।

हिंदुस्तानी

हिंदुस्तानी के दो भेद हैं। एक तो वह जो पश्चिमी हिंदी की शाखा है, दूसरी वह जो साहित्य में काम आती है। पहली गंगा-यमुना के बीच का जो देश है उसके उत्तर में, रुहेलखंड में, और अंबाला जिला के पूर्व में, बोली जाती है। यह पश्चिमी हिंदी की शाखा है। यही धीरे-धीरे पंजाबी में परिणत हो गई है। मेरठ के आस-पास और उसके कुछ उत्तर में यह भाषा अपने विशुद्ध रूप में बोली जाती है। वहाँ उसका वही रूप है जिसके अनुसार हिंदी (हिंदुस्तानी) का व्याकरण बना है। रुहेलखंड में यह धीरे-धीरे कन्नौजी में और अंबाले में पंजाबी में परिणत हो गई है। दूसरी वह है जिसे पढ़े लिखे आदमी बोलते हैं और जिसमें अखबार और किताबें लिखी जाती हैं। हिंदुस्तानी की उत्पत्ति और उसके प्रकारादि के विषय में आज तक भाषाशास्त्र के विद्वानों की जो राय थी वह भ्रांत साबित हुई है। मीर अम्मन ने अपने 'बागोबहार' की भूमिका में हिंदुस्तानी भाषा की उत्पत्ति के विषय में लिखा है कि यह अनेक भाषाओं के मेल से उत्पन्न हुई है। कई जातियों और कई देशों के आदमी जो देहली के बाजार में परस्पर मिलते-जुलते और बातचीत करते थे वही इस भाषा के उत्पादक हैं। यह बात अब तक ठीक मानी गई थी और डाक्टर ग्रियर्सन आदि सभी विद्वानों ने इस मत को कबूल कर लिया था। पर भाषाओं की जाँच पड़ताल से यह मत भ्रामक निकला। हिंदुस्तानी और कुछ नहीं, सिर्फ ऊपरी दोआब की स्वदेशी भाषा है। वह देहली की बाजारू बोली हरगिज नहीं। हाँ उसके स्वाभाविक रूप पर साहित्य-परिमार्जन का जिलो जरूर चढ़ाया गया है और कुछ गँवार मुहावरे उससे जरूर निकाल डाले गए हैं। बस उसके स्वाभाविक रूप में इतनी ही अस्वाभाविकता आई है। इस भाषा का 'हिंदुस्तानी' नाम उन लोगों का रखा हुआ नहीं है, यह साहब लोगों की कृपा का फल है। हम लोग तो इसे हिंदी ही कहते हैं। देहली के बाजार में तुर्क, अफगान और फारस वालों का हिंदुओं से संपर्क होने के पहले भी यह भाषा प्रचलित थी। पर उसका नाम उसी समय से हुआ। देहली में मुसलमानों के संयोग से हिंदी-भाषा का विकास जरूर बढ़ा। विकास ही नहीं, इसके प्रचार में भी वृद्धि हुई। इस देश में जहाँ-जहाँ मुगल बादशाहों के अधिकारी गए, वहाँ-वहाँ अपने साथ वे इस भाषा को भी लेते गए। अब इस समय इस भाषा का प्रचार इतना बढ़ गया है कि कोई प्रांत, कोई सूबा, कोई शहर ऐसा नहीं जहाँ इसके बोलने वाले न हों। बंगाली, मदरासी, गुजराती, महाराष्ट्र, नेपाली आदि लोगों की बोलियाँ जुदा-जुदा हैं। पर वे यदि हिंदी बोल नहीं सकते तो प्रायः समझ जरूर सकते हैं। उनमें से अधिकांश तो ऐसे हैं जो बोल भी सकते हैं। भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोलने वाले जब एक दूसरे से मिलते हैं तब वे अपने विचार हिंदी ही में प्रकट करते हैं। उस समय और कोई भाषा काम नहीं देती। उससे इसी को हिंदुस्तान की प्रधान भाषा मानना चाहिए। और यदि देश भर में कभी एक भाषा होगी तो यही होगी।

'हिंदुस्तानी' नाम यद्यपि अंगरेजों का दिया हुआ है तथापि है बहुत सार्थक। इससे हिंदुस्तान भर में बोली जाने वाली भाषा का बोध होता है। यह बहुत अच्छी बात है। इस नाम के अंतर्गत साहित्य की हिंदी, सर्वसाधारण हिंदी, दक्षिणी हिंदी और उर्दू सबका समावेश हो सकता है। अतएव हमारी समझ में इस नाम को स्वीकार कर लेना चाहिए।

उर्दू

उर्दू कोई जुदा भाषा नहीं। वह हिंदी ही का एक भेद है, अथवा यों कहिए कि हिंदुस्तानी की एक शाखा है। हिंदी और उर्दू में अंतर इतना ही है कि हिंदी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है और संस्कृत के शब्दों की उसमें अधिकता रहती है। उर्दू, फारसी लिपि में लिखी जाती है और उसमें फारसी, अरबी के शब्दों की अधिकता रहती है। 'उर्दू' शब्द 'उर्दू-ए-मुअल्ला' से निकला है जिसका अर्थ है 'शाही फौज का बाजार'। इसी से किसी-किसी का खयाल था कि यह भाषा देहली के बाजार ही की बदौलत बनी है। पर यह खयाल ठीक नहीं। भाषा पहले ही से विद्यमान थी और उसका विशुद्ध रूप अब भी मेरठ-प्रांत में बोला जाता है। बात सिर्फ यह हुई कि मुसलमान जब यह बोली बोलने लगे तब उन्होंने उसमें अरबी, फारसी के शब्द मिलाने शुरू कर दिए, जैसे कि आजकल संस्कृत जानने वाले हिंदी बोलने में आवश्यकता से जियादह, संस्कृत-शब्द काम में लाते हैं। उर्दू पश्चिमी हिंदुस्तानी के शहरों की बोली है। जिन मुसलमानों या हिंदुओं पर फारसी भाषा और सभ्यता की छाया पड़ गई है वे, अन्यत्र भी, उर्दू ही बोलते हैं। बस, और कोई यह भाषा नहीं बोलता। इसमें कोई संदेह नहीं कि बहुत से फारसी, अरबी के शब्द हिंदुस्तानी भाषा की सभी शाखाओं में आ गए हैं। अपढ़ देहातियों ही की बोली में नहीं, किंतु हिंदी के प्रसिद्ध-प्रसिद्ध लेखकों की परिमार्जित भाषा में भी अरबी फारसी के शब्द आते हैं। पर ऐसे शब्दों को अब विदेशी भाषा के शब्द न समझना चाहिए। वे अब हिंदुस्तानी हो गए हैं और छोटे-छोटे बच्चे और स्त्रियाँ तक उन्हें बोलती हैं। उनसे घृणा करना या उन्हें निकालने की कोशिश करना वैसी ही उपहासास्पद बात है जैसी कि हिंदी से संस्कृत के धन, वन, हार और संसार आदि शब्दों को निकालने की कोशिश करना है। अंगरेजी में हजारों शब्द ऐसे हैं जो लैटिन से आए हैं। यदि कोई उन्हें निकाल डालने की कोशिश करे तो कैसे हो सकता है?

उर्दू में यदि अरबी, फारसी के शब्दों की भरमार न की जाय तो उसमें और हिंदी में कुछ भी भेद न रहे। पर उर्दू वालों को फारसी, अरबी के शब्द लिखने और बोलने की जिद सी है। कोई-कोई लेखक इन वैदेशिक शब्दों के लिखने में सीमा के बाहर चले जाते हें। इनकी भाषा सर्वसाधारण को प्रायः वैसी ही मालूम होती है जैसी कि दक्षिणी अफरीका के जंगली आदिमियों को जानसन की अंगरेजी यदि सुनाई जाय तो मालूम हो। बड़े-बड़े वाक्य आप देखिए - में, ने, से, का, की, के, चला, मिला, हिला आदि के सिवा आप को एक भी हिंदुस्तानी शब्द उनमें न मिलेगा। व्याकरण भर हिंदुस्तानी, बाकी सब फारसी, अरबी शब्द। हमारी भाषा को शुरू-शुरू में हिंदुओं ने भी खूब बिगाड़ा है। फारसी पढ़-पढ़ कर वे मुसलमानी राज्य में मुलाजिम हुए और, फारसी, अरबी के शब्दों की भरमार करके अपनी भाषा का रूप बदला। मुसलमान तो बहुत समय पहले अपना सारा काम फारसी में ही करते थे। पर हिंदुओं ने शुरू ही से ऐसी भाषा का प्रचार किया। अब तो मुसलमान और फारसीदाँ हिंदू, दोनों ऊँचे दरजे की उर्दू लिख-लिख कर इन प्रांतों की भाषा पर एक अत्याचार कर रहे हैं।

हिंदी

'हिंदी' शब्द कई अर्थों का बोधक है। अंगरेज लोग इसके दो अर्थ लगाते हैं। कभी-कभी तो वे इसे उस भाषा का बोधक समझते हैं जिसे हम, हिंदी लिखने वाले, इन प्रांतों के लोग, हिंदी कहते हैं - अर्थात् वह भाषा जो 'हिंदुस्तानी' की शाखा है और जो देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। कभी-कभी वे इसे उस भाषा या बोली के अर्थ में प्रयोग करते हैं जो बंगाल और पंजाब के बीच के देहात में बोली जाती है। पर कोई-कोई मुसलमान इसे फारसी का शब्द मानते हैं और 'हिंद के निवासी' के अर्थ में बोलते हैं। हिंद (हिंदुस्तान) के रहने वालों को वे हिंदी कहते हैं। 'हिंदी' मुसलमान भी हो सकते हैं और हिंदू भी। अमीर खुसरो ने 'हिंदी' को इसी अर्थ में लिखा है। इस हिसाब से जितनी भाषाएँ इस देश में बोली जाती हैं सब हिंदी कही जा सकती हैं।

जिसे हम हिंदी या उच्च हिंदी कहते हैं वह देवनागराक्षर में लिखी जाती है। इसका प्रचार कोई सौ सवा सौ वर्ष के पहले न था। उसके पहले यदि किसी को देवनागरी में गद्य लिखना होता था तो वह अपने प्रांत की भाषा - अवधी, बघेली, बुंदेली या ब्रजभाषा आदि - में लिखता था। लल्लूलाल ने प्रेमसागर में पहले-पहले यह भाषा देवनागरी अक्षरों में लिखी, और उर्दू लिखने वाले जहाँ अरबी-फारसी के शब्द प्रयोग करते वहाँ उन्होंने अपने देश के शब्द प्रयोग किए। याद रहे, लल्लूलाल ने कोई भाषा नहीं ईजाद की। उनके प्रेमसागर की भाषा दोआब में पहले ही से बोली जाती थी। पर उसी का उन्होंने प्रेमसागर में प्रयोग किया और आवश्यकतानुसार संस्कृत के शब्द भी उसमें मिलाए। तभी से गद्य की वर्तमान हिंदी का प्रचार हुआ। गद्य पहले भी था। कितनी ही पुस्तकों की टीकाएँ आदि गद्य में लिखी गई थीं। पर वे सब प्रांतिक भाषाओं में थीं। लल्लूलाल ने वर्तमान हिंदी की नींव डाली और उसमें उन्हें कामयाबी हुई। यहाँ तक कि अब स्वप्न में भी किसी को गद्य लिखते समय अपने प्रांत की अवधी, बघेली या ब्रजभाषा याद नहीं आती। पद्य लिखने में वे चाहे उनका भले ही अब तक पिंड न छोड़ें।

हिंदी में एक बड़ा भारी दोष इस समय यह घुस रहा है कि उसमें अनावश्यक संस्कृत शब्दों की भरमार की जाती है। इसका उल्लेख हम एक जगह पहले भी कर आए हैं। इससे हिंदी और उर्दू का अंतर बढ़ता जाता है। यह न हो तो अच्छा। इन प्रांतों की गवर्नमेंट ने बड़ा अच्छा काम किया जो प्रारंभिक शिक्षा की पाठ्य पुस्तकों की भाषा एक कर दी। उर्दू और हिंदी दोनों में उसने कुछ फर्क नहीं रक्खा। फर्क सिर्फ लिपि का रक्खा है। अर्थात् कुछ पुस्तकें फारसी लिपि में छापी जाती हैं, कुछ नागरी में। यदि हम लोग हिंदी में संस्कृत के और मुसलमान उर्दू में अरबी फारसी के शब्द कम लिखें तो दोनों भाषाओं में बहुत थोड़ा भेद रह जाय और संभव है, किसी दिन दोनों समुदायों की लिपि और भाषा एक हो जायँ। इससे यह मतलब नहीं कि संस्कृत कोई न पढ़े। नहीं, हिंदू और मुसलमान जो चाहे शौक से संस्कृत, अरबी और फारसी पढ़ सकते हैं। पर समाचार-पत्रों, मासिक पुस्तकों और सर्वसाधारण के लिए उपयोगी पुस्तकों में जहाँ तक संस्कृत और अरबी-फारसी के शब्दों का कम प्रयोग हो अच्छा है। इससे पढ़ने और समझने वालों की संख्या बढ़ जायगी। जिससे बहुत लाभ होगा।

पद्य

'हिंदुस्तानी', अर्थात् वर्तमान बोलचाल की भाषा, के सबसे पुराने नमूने उर्दू की कविता में पाए जाते हैं। उर्दू क्यों उसे रेख्ता कहना चाहिए। सोलहवीं सदी के अंत में इस भाषा में कविता होने लगी। दक्षिण में इस कविता का आरंभ हुआ। कोई 100 वर्ष बाद औरंगाबाद के वली नामक शायर ने उसकी बड़ी उन्नति की। वह 'रेख्ता का पिता' कहलाया। धीरे-धीरे देहली में भी इस कविता का प्रचार हुआ। अठारहवीं सदी के अंत में सौदा और मीर तकी ने इस कविता में बड़ा नाम पाया। इसके बाद लखनऊ में भी इस भाषा के कितने ही नामी-नामी कवि हुए और कितने ही काव्य बने। और अब तक बराबर इस में कविता होती जाती हैं। खेद है, हिंदी में अभी कुछ ही दिन से बोलचाल की भाषा में कविता शुरू हुई है।

डाक्टर ग्रियर्सन की राय है कि गद्य की हिंदी, अर्थात् बोलचाल की भाषा, में अच्छी कविता नहीं हो सकती। दो एक आदमियों ने गद्य की भाषा में कविता लिखने की कोशिश भी की, पर उन्हें बे-तरह नाकामयाबी हुई और उपहास के सिवा उन्हें कुछ भी न मिला। इस पर हमारी प्रार्थना है कि डाक्टर साहब की राय सरासर गलत है। यदि दो एक आदमी गद्य की हिंदी में अच्छी कविता न लिख सके तो इससे यह कहाँ साबित हुआ कि कोई नहीं लिख सकता। डाक्टर साहब जब से विलायत गए हैं तब से इस देश के हिंदी-साहित्य से आपका संपर्क छूट सा गया है। अब उनको चाहिए कि अपनी पुरानी राय बदल दें। बोलचाल की भाषा में कितनी ही अच्छी-अच्छी कविताएँ निकल चुकी हैं और बराबर निकलती जाती हैं। जितने प्रसिद्ध-प्रसिद्ध समाचार पत्र और सामयिक पुस्तकें हिंदी की हैं उनमें अब बोलचाल की भाषा की अच्छी-अच्छी कविताएँ हमेशा ही प्रकाशित हुआ करती हैं। अब उर्दू और हिंदी प्रायः एक ही भाषा है और उर्दू में अच्छी कविता होती है तब कोई कारण नहीं कि हिंदी में न हो सके -

बात अनोखी चाहिए भाषा कोई हो।

गद्य

बोलचाल की भाषा की कविता में उर्दू - उर्दू क्यों हिंदुस्तानी - यद्यपि हिंदी से जेठी है, तथापि गद्य दोनों का साथ ही साथ उत्पन्न हुआ है। कलकत्ते के फोर्ट विलियम कालेज के लिए उर्दू और हिंदी की पुस्तकें एक ही साथ तैयार हुईं। लल्लूलाल का प्रेमसागर और मीर अम्मन का बागेबहार एक ही समय की रचना है। तथापि उर्दू भाषा और फारसी अक्षरों का प्रचार सरकारी कचहरियों और दफ्तरों में हो जाने से उर्दू ने हिंदी की अपेक्षा अधिक उन्नति की। कुछ दिनों से समय ने पलटा खाया है। वह हिंदी की भी थोड़ी बहुत अनुकूलता करने लगा है। हिंदी की उन्नति हो चली है। कितने ही अच्छे-अच्छे समाचार पत्र और मासिक पुस्तकें निकल रही हैं। पुस्तकें भी अच्छी-अच्छी प्रकाशित हो रही हैं। आशा है बहुत शीघ्र उसकी दशा सुधर जाय। हिंदी भाषा और नागरी लिपि में गुण इतने हैं कि बहुत ही थोड़े साहाय्य और उत्साह से वह अच्छी उन्नति कर सकती है।

लिपि

जिसे हिंदुस्तानी कहते हैं, अर्थात् जिस में फारसी, अरबी के क्लिष्ट शब्दों का जमघटा नहीं रहता, वह तो देवनागरी लिपि में लिखी जा सकती ही है। उसकी तो कुछ बात ही नहीं है जिसे उर्दू कहते हैं - जिसमें आज कल मुसलमान और उर्दूदाँ हिंदू अखबार और साधारण विषयों की पुस्तकें लिखते हैं - वह भी देवनागरी लिपि में लिखी जा सकती है। पर डाक्टर ग्रियर्सन की राय है कि वह नहीं लिखी जा सकती। खेद है, हमारी राय आप की राय से नहीं मिलती। कुछ दिन हुए इस विषय पर हम ने एक लेख सरस्वती में प्रकाशित किया है और यथाशक्ति इस बात को सप्रमाण साबित भी कर दिया है कि उर्दू के अखबारों और रिसालों की भाषा अच्छी तरह देवनागरी में लिखी जा सकती है, और लेख का मतलब समझने में किसी तरह की बाधा नहीं आती। मुसलमान लोग अपने अरबी फारसी के धार्मिक तथा अन्यान्य ग्रंथ आनंद से फारसी, अरबी लिपि में लिखें। उनके विषय किसी को कुछ नहीं कहना। कहना साधारण साहित्य के विषय में है जो देवनागरी लिपि में आसानी से लिखा जा सकता है। देवनागरी लिपि के जानने वालों की संख्या फारसी लिपि के जानने वालों की संख्या से कई गुना अधिक है। इस दशा में सारे भारत में फारसी लिपि का प्रचार होना सर्वथा असंभव और नागरी का सर्वथा संभव है। यदि मुसलमान सज्जन हिंदुस्तान को अपना देश मानते हों, यदि स्वदेश-प्रीति को भी कोई चीज समझते हों, यदि एक लिपि के प्रचार से देश को लाभ पहुँचना संभव जानते हों तो हठ, दुराग्रह और कुतर्क छोड़ कर उन्हें देवनागरी लिपि सीखनी चाहिए।

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