हमारे देश में सिनेमा मनोरंजन का एक बड़ा ही सशक्त माध्यम है। जीवन में आए तनावों को कम करने में यह एक प्रभावशाली भूमिका निभाता है, इसीलिए भारतीय समाज में सिनेमा को एक विशेष स्थान प्राप्त है। जिसे प्रकाशित करने पर हमारे सामने भारत की संस्कृति, सभ्यता, इतिहास, भाषा आदि उभरकर सामने आते हैं। क्योंकि ये सब भारतीय सिनेमा में किसी न किसी रूप में समाहित होते हैं। “सिनेमा के पास सम्प्रेषण की जो सशक्त ताकत है, वह उसे अपेक्षाओं की भारी-भरकम सूची थमा देती है। यही कारण है कि सिनेमा से बस मनोरंजन की आशा नहीं की जाती बल्कि तमाम विमर्शों, सामाजिक, राजनीतिक, यथार्थों के प्रतिबिंब को ढूंढ़ने की चेष्टा भी उसमें अक्सर होती रहती है। कहा भी जाता है सिनेमा समाज का प्रतिबिंब है।”1
ल्यूमियर बन्धुओं के द्वारा भारत में पहली बार जब हिलती-डुलती तस्वीरों को दिखाया गया था। तब यह लोगों के लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं था। इसके बाद दादा साहब फाल्के ने भारतीय सिनेमा की पहली मूक फीचर फिल्म ‘राजा हरीश्चन्द्र’ को बनाकर भारतीय समाज में सिनेमा को स्थापित करने का कार्य किया। बाद में कई मूक फिल्में बनीं जिन्हें आवाज न होने के बावजूद देखने वालों की कतार लग जाती थी। इसके बाद जब सवाक् फिल्मों का दौर शुरू हुआ तब सिनेमा का जादू लोगों के सिर चढ़कर बोलने लगा। समय के साथ-साथ इसका स्वरूप भी बदलता गया। भारतीय सिनेमा के शुरूआती दौर में जो फिल्में बनती थीं, उनमें भारतीय संस्कृति की छाप स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है। इस समय अधिकतर फिल्में धार्मिक ही होती थीं, क्यों कि तब नैतिकता और धर्म-कर्म का बोलबाला था। इसीलिए इस समय की फिल्मों में भारतीय समाज के रीति-रिवाजों को बहुत विस्तार से दिखाया जाता था। आगे चलकर देशभक्ति के रंग में रंगी हुई फिल्मों का भी निर्माण हुआ। ये फिल्में स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानियों पर आधारित होती थीं। इन फिल्मों ने युवाओं में देश प्रेम की भावनाओं को जाग्रत करने का कार्य किया।
तीस के दशक में हमें सिनेमा का एक नया रूप देखने को मिलता है, जिसमें सामाजिक कुरीतियों का विरोध किया गया। इसके अंतर्गत बनने वाली कुछ प्रमुख फिल्में हैं- ‘दुनिया माने ना’, ‘आदमी’, ‘अछूत कन्या’, ‘दामले’, ‘संत तुकाराम’, ‘महबूब की बातें’, ‘एक ही रास्ता’, ‘औरत’ आदि। इनमें हमें सामाजिक अन्याय के खिलाफ विरोध देखने को मिलता है। इन फिल्मों का समाज पर सकारात्मक प्रभाव देखा गया। सन् 1950 के बाद रंगीन फिल्मों की शुरूआत हुई। ये फिल्में ज्यादातर प्रेम संबंधों पर आधारित होती थीं। जिनमें ‘लैला मजनू’, ‘हीर-रांझा’, ‘सोनी-महिवाल’, ‘शीरी-फरहाद’ जैसी फिल्में शामिल हैं। इन फिल्मों ने युवाओं को विशेष रूप से प्रभावित किया।
आजादी के बाद समाज में तनाव की स्थिति उत्पन्न हो चुकी थी। बड़ी संख्या में गांव से शहरों की ओर पलायन शुरू हो गया। ये सभी लोग जीवन यापन के लिए संघर्ष कर रहे थे। इसी संघर्ष में मध्यम वर्ग का उदय हुआ। देश में अचानक आए इस परिवर्तन ने सब कुछ अस्त-व्यस्त कर दिया और इसका असर यह हुआ कि समाज में अराजकता फैल गई। युवा अपराध के दलदल में धंसने लगे। सन् 1960 से 1970 तक की फिल्मों में हमें यह उलझी हुई जिंदगी दिखाई देती है। इस समय बनने वाली अधिकतर फिल्मों में हिंसा, बलात्कार, पीड़ा और राजनीति देखने को मिलती है। इन फिल्मों में हमें समाज का कुरूप चेहरा दिखता है। इसके साथ ही यह संदेश भी देखने को मिलता है कि बुरे कामों का अंत सदैव बुरा ही होता है। चूंकि इस समय तक आते-आते सिनेमा ने पूरी तरह से लोगों को अपने रंग में रंग लिया था, इसलिए इसतरह की फिल्मों ने युवाओं में हीरो वाली छवि को उभारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इन फिल्मों के हीरो ‘एंग्री यंगमैन’ के रूप में नज़र आते थे। जो लोगों को अत्याचार के खिलाफ जगाते थे। इनका हमें समाज में सकारात्मक प्रभाव देखने को मिला। यहां तक आते-आते इतना तो स्पष्ट हो गया कि फिल्मों का उद्धेश्य सिर्फ मनोरंजन नहीं है। यह समाज की दिशा और दशा बदलने में भी एक अहम भूमिका निभाती है। इसी महत्व को देखते हुए डॉ॰ राही मासूम रजा लिखते हैं-
“फिल्म मात्र आनंद का एक साधन नहीं है। फिल्म मानसिक विकास का भी एक अत्यंत महत्वपूर्ण माध्यम है।”2
इसलिए यदि यह कहा जाए कि सिनेमा ने लोगों के अन्दर सही गलत की समझ विकसित करने का काम किया तो यह गलत नहीं होगा। चूंकि इसका दायरा अन्य माध्यमों से अधिक है, इसलिए इसका प्रभाव क्षेत्र भी अधिकतम है। इस दौर के बाद जिन फिल्मों का निर्माण हुआ उनके केन्द्र में व्यवसायिक दृष्टि ही नज़र आती है। हालांकि कई निर्देशकों के द्वारा कलात्मक फिल्मों को बनाने का प्रयास किया गया। परन्तु यह प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ पाई। “साठ का दशक बीतते-बीतते नई पीढ़ी के निर्देशक हिन्दी सिनेमा को बदलने के लिए छटपटा रहे थे। वैभवशाली सिनेमा का युग समाप्त हो चला था और सपनों की राख में भारतीय नव-यथार्थवाद का जन्म हो रहा था। पर दर्शकों की जो कंडीशनिंग हो चुकी थी वे इन समानांतर रेखाओं को जोड़ नहीं पाए। अत्यंत समर्थ निर्देशकों की नए कथ्य और शिल्प की फिल्में या तो क्षेत्रीय बाजारों में समेटकर रख दी गईं या फिर उनका सिनेमा प्रयोगवादी/कलावादी कह मुख्यधारा के दर्शकों द्वारा खारिज कर दिया गया। संभव है, वे समय से पहले आ गए थे।”3
सिनेमा से जुड़े बुद्धिजीवियों में यह छटपटाहट इसलिए भी थी कि वह समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाना चाहते थे। और यह तभी संभव था जब कलात्मक फिल्मों को बनाने का प्रयास किया जाए। लेकिन उनके इस प्रयास को दर्शकों ने नकार दिया। इन फिल्मों में प्रमुख थीं- उसकी रोटी, तीसरी कसम , मायादर्पण आदि। 90 के दशक में एक बार फिर हमें फिल्मों में प्रेम कहानियां दिखने लगीं। इन फिल्मों का कोई सामाजिक महत्व नज़र नहीं आता। इनके केन्द्र में सिर्फ मनोरंजन ही होता था। इसी बीच यथार्थवादी फिल्मों की भी शुरूआत हो गई। ‘द्रोहकाल’, ‘परिन्दा’, ‘दीक्षा’, ‘माया मेमसाब’, ‘रूदाली’, ‘तमन्ना’, ‘बेन्डिट क्वीन’, जैसी कई ऐसी फिल्में बनीं जिसमें समाज का यथार्थ रूप दिखाई दिया। इस तरह की फिल्मों के बनने का एक कारण यह भी था कि मार्क्सवादी विचार धारा साहित्य के साथ-साथ सिनेमा में भी पैर पसार रही थी। कई निर्देशक इससे प्रभावित होकर फिल्में बना रहे थे और इन्हें ‘यथार्थवादी फिल्म’ नाम दिया गया। एक तरह से कहा जा सकता है कि ये फिल्में दबे-कुचले लोगों की आवाज़ बनकर उभरीं। इनमें किसी भी प्रकार की कल्पना का कोई स्थान नहीं होता । ज्वलंत मुद्यों को ही फिल्म की कहानी का विषय बनाया जाता था और उन्हें इस उद्धेश्य से बनाया जाता था कि समाज में कुछ बदलाव लाया जा सके। एक खास वर्ग या समुदाय के प्रति लोगों का देखने का नजरिया बदला जाए। इन फिल्मों ने समाज से छुआ-छूत, भेद-भाव जैसी कई कुरीतियों को कम करने का कार्य किया। श्याम बेनेगल ने ‘मंथन’, ‘भूमिका’, ‘निशान्त’, ‘जुनून’, और ‘त्रिकाल’, जैसी कुछ ज्वलंत विषयों पर बोलती अच्छी फिल्मों को दर्शकों तक पहुंचाया। इसके अलावा प्रकाश झा की ‘दामुल’,सहित अपर्णा सेन की ‘36 चौरंगी लेन’, रमेश शर्मा की ‘नई दिल्ली टाइम्स’, केतन मेहता की ‘मिर्च-मसाला’, विजया मेहता की ‘राव साहेब’, उत्पलेन्द चक्रवर्ती की ‘देवशिशु’, प्रदीप कृष्ण की ‘मैसी साहब’, गुलज़ार की ‘इजाजत’, मुजफ्फर अली की ‘उमराव जान’, गौतम घोष की ‘दखल’, ‘पार’, बुद्धदेव दासगुप्त की ‘अन्नपूर्णा’, ‘अंधी गली’, गिरीश करनाड की ‘उत्सव’, तपन सिन्हा की ‘आज का रॉबिनहुड’, महेश भट्ट की फिल्म ‘अर्थ’ आदि नए रूझानों की फिल्में थीं। ये फिल्में चली आ रही परंपरा से बिल्कुल अलग थीं। इन्हीं के साथ-साथ कई ऐसी फिल्मों का भी निर्माण हुआ जिसमें कुरीतियों, अंधविश्वास और छुआछूत आदि के प्रति समाज को जागरूक करने का कार्य किया। स्वतन्त्रता संग्राम, विभाजन की त्रासदी, युद्ध, डाकू,माफिया ये कुछ ऐसे विषय थे, जिनपर उस समय विशेष रूप से फिल्मों का निर्माण हुआ। उदाहरण स्वरूप हम ‘बॉम्बे’, ‘सत्या’, ‘क्या कहना’ जैसी फिल्मों को देख सकते हैं। जिन्होंने समाज और युवा वर्ग पर अच्छा खासा प्रभाव डाला था।
जैसे ही हमने 21वीं सदी में कदम रखा समाज के साथ-साथ फिल्में भी आधुनिक बन गईं। इसमें सबसे अधिक बदलाव स्त्रियों के प्रति समाज के द्रष्टिकोण में देखने को मिलता है। स्त्रियां अब वह अबला नारी नहीं रहीं। वह भी पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाते हुए आगे बढ़ने लगीं। फिल्मों में हमें जागरूक और अपने अधिकारों के प्रति सचेत स्त्रियां नज़र आने लगीं। ‘डोर’ की नायिका जीनत (गुल पनाग) परिवर्तन के इस दौर की एक ऐसी ही स्त्री है जो कहती है- “मैं भी तुम्हारी तरह एक औरत हूं, फर्क सिर्फ इतना है कि मैंने अपने फैसले खुद करना सीखा है। सही या गलत, अच्छा या बुरा फैसला मेरा है, किसी और का नहीं, क्योंकि ये जिन्दगी मेरी है, और मुझमें अपनी जिन्दगी जीने की अपने फैसलों का अंजाम निभाने की हिम्मत है।” फिल्मों में एक स्त्री के द्वारा इस तरह के संवाद समाज की अन्य स्त्रियों को भी जागरूक करने का कार्य करते हैं। इस समय हमें स्त्री-केन्द्रित फिल्मों की एक लम्बी फेहरिस्त दिखाई देती है। जिनमें प्रमुख हैं- ‘फिजा’, ‘सत्ता’, ‘चमेली’, ‘पिंजर’, ‘तहजीब’, ‘प्रोवोक्ड’, ‘फायर’, ‘वॉटर’, ‘डोर’,‘फैशन’, ‘उमराव जान’, ‘सात खून माफ’, ‘द डर्टी पिक्चर’, ‘हीरोइन’ ‘तनु वेडस् मनु’ आदि।
21वीं सदी में हमें सिनेमा के कई नकारात्मक प्रभाव भी देखने को मिलते हैं। जैसे आज की फिल्मों में अश्लीलता का स्तर दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। भूमंडलीकरण और व्यवसायिक दृष्टिकोण के प्रभाव से यह स्तर अपने चर्म पर पहुंच चुका है। “हॉलीवुड फिल्मी सितारों के अनुकरण हमारे सिनेमा में निरन्तर होते चले आ रहे हैं। यदि वहां चुम्बन और रति-मुद्राएं आम है तो हमारे यहां भी धड़ल्ले से आ चुकी है। अब तो स्थिति यह आ गई है कि सिनेमा अभिनेत्रियों में जबरदस्त प्रतिस्पर्द्धा है। कौन कितना ज्यादा उघाड़ (एक्सपोज) हो सकती है। प्रत्येक शुक्रवार को उद्घाटित होने वाली फिल्मों में कोई न कोई बाला है, जो नंगे होने के पिछले रिकॉर्ड को मात देती हुई अपना अलग कदम उठाती है।”4
यह अश्लीलता सिर्फ दृश्यों तक ही सीमित नहीं है। बल्कि गानों और नृत्यों में भी दिखाई देती है। इस तरह के गानों को ‘आइटम सांग’ का नाम दिया जाता है। बेशक इनका समाज पर नकारात्मक प्रभाव ही देखने को मिलता है। जिसे किसी भी स्थिति में उचित नहीं ठहराया जा सकता।
इसके अलावा हमें सामाजिक-सांस्कृतिक मायनों में भी कई बदलाव देखने को मिलते हैं। जिनका असर सिनेमा पर भी पड़ा है। उदाहरण स्वरूप हम ‘तनु वेड्स मनु’ फिल्म को देख सकते हैं। जहां तनु के रूप में बिंदास और बेवाक लड़की दिखाई देती है, जो अपनी ज़िन्दगी अपने उसूलों पर जीने में विश्वास रखती है। इस तरह हमारे सामने कई ऐसी फिल्में आती हैं, जिनमें समाज में व्याप्त रीतिरिवाजों और परंपराओं की धज्जियां उड़ाई गई हैं। हिन्दी सिनेमा के इस वर्तमान दौर पर गीतकार स्वानंद किरकिरे लिखते हैं- “इस समय हिन्दी सिनेमा में एक कमाल का वक्त आया हुआ है। एक निहायत बेबाक पीढ़ी उभरकर आई है। परंपरा से जुड़ी किसी भी चीज को लेकर इनमें किसी भी तरह का डर या खौफ न ही है और न ही कोई बोझ।”5
आज के समय में हमें कई सामाजिक विषयों को केन्द्र में रखी गई फिल्में भी देखने को मिलती हैं। इनमें जाति प्रथा, दहेज-प्रथा, भ्रष्टाचार आदि सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार किया गया। युवाओं को मोटिवेट करने के लिए कई ऐसी शख्सियत पर भी फिल्में बनीं ,जिनका जीवन दूसरों के लिए आदर्श बन गया। इनमें प्रमुख हैं- मंगल पाण्डेय, मैरी कॉम, भाग मिल्खा भाग आदि। इन फिल्मों ने युवाओं में जोश जाग्रत किया और उनमें सकारात्मक ऊर्जा का संचार हुआ।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भले ही सिनेमा का मुख्य उद्धेश्य मनोरंजन हो, लेकिन इसने भारतीय समाज पर कई सकारात्मक प्रभाव भी डाले हैं। जिनसे उन सभी बाधाओं का अंत हुआ जो समाज की प्रगति में बाधक बने हुए थे।
संदर्भ सूची
1.अभिषेक त्रिपाठी, बाजार के खेल के बीच सिनेमा विमर्श (अपनी माटी ई पत्रिका), अंक- सितंबर 2016
2. राही मासूम रज़ा, सिनेमा और संस्कृति पृष्ठ-42, वाणी प्रकाशन
3. हिन्दी सिनेमा के सौ साल, संपादक- राजेन्द्र यादव, वाणी प्रकाशन पृ॰14
4. पुष्पपाल सिंह; ‘भूमंडलीकरण और हिन्दी उपन्यास’, संस्करण : 2012, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ 52
5. समसामयिक सृजन, अक्टूबर-मार्च 2012-13, संपादक- महेन्द्र प्रजापति, पृष्ठ-20