हमारे देश में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की अवधारणा बहुत पहले से चली आ रही है। अर्थात हम लोग पूरे विश्व को एक परिवार मानते हैं। लेकिन यह अवधारणा सांस्कृतिक थी , इसमें व्यवसाय नहीं था। आज हम जिस वैश्वीकरण की बात करते हैं , उसके केन्द्र में व्यवसाय है। दरअसल भूमंडलीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें सम्पूर्ण विश्व के लोग मिलकर एक साथ कार्य करते हैं। कुछ विद्वानों के द्वारा भूमंडलीकरण को आर्थिक अवधारणा माना जाता है और कुछ इसे सांस्कृतिक आदान-प्रदान की प्रक्रिया मानते हैं। इसकी हमें विभिन्न परिभाषाएं मिलती हैं। काटो संस्थान के टॉम. जी. पामर भूमंडलीकरण को परिभाषित करते हुए कहते हैं – “सीमाओं के पार विनिमय पर राज्य प्रतिबंधों का ह्यस या विलोपन और इसके परिणामस्वरूप उत्पन्न हुआ उत्पादन और विनिमय का तीव्र एकीकृत और जटिल विश्व स्तरीय तंत्र है।” इसी प्रकार मेलकाम वाटर्स ने अपनी पुस्तक ‘ग्लोबलाइजेशन-1998’ में भूमंडलीकरण की परिभाषा दी है-”वैश्वीकरण एक सामाजिक प्रक्रिया है, जिसमें सामाजिक तथा सांस्कृतिक व्यवस्था पर जो भौगोलिक दबाव होते हैं, पीछे हट जाते हैं और लोग भी इस तथ्य से अवगत हो जाते हैं कि अब भूगोल की सीमाएं बेमतलब हैं।”
आज के समय यदि देखा जाए तो हम पाऐंगे कि भूमंडलीकरण शब्द काफी व्यापक हो गया है। इसके विस्तार से हमारा जीवन भी प्रभावित हो रहा है। मुख्य रूप से भूमंडलीकरण के तीन मुख्य घटक होते हैं- राजनीति, व्यापार और बाजार । अगर हम हिन्दी सिनेमा की बात करें तो इसमें पिछले कुछ वर्षों से राजनीति और व्यापार एक साथ चलते नजर आते हैं। भूमंडलीकरण ने सिनेमा को पूरी तरह से अपने आगोश में ले लिया है। यह भूमंडलीकरण का ही प्रभाव है कि आज फिल्मों की सफलता का निर्धारण बाजार करता है। आज उन फिल्मों को सफल नहीं माना जाता, जिनकी कहानी अच्छी हों या जो जनता में कोई सकारात्मक संदेश भेजें। बल्कि उन फिल्मों को सफल कहा जाता है, जो सौ करोड़ कमाती हैं। कलात्मक फिल्मों को कितने ही अवार्ड मिल जाएं या समीक्षकों की कितनी ही वाहवाही मिल जाए परन्तु वह तब तक सफल नहीं कहलाई जाएंगी जब तक उन पर पैसों की बारिश न हो जाए। यही कारण है कि इसके केन्द्र में सिर्फ मनोरंजन रह गया है और इसका कलात्मक पक्ष कहीं पीछे छूट गया है। प्रसिद्ध सिनेमा समीक्षक फिरोज रंगूनवाला इस पर कहते हैं-
“ व्यावसायिक फिल्में, जो मूलतः बॉक्स ऑफिस को देखकर बनती हैं, जो अपने विषय के जरिये कोई महत्वपूर्ण प्रभाव नहीं पैदा करतीं और दर्शकों में भावनाओं का उन्माद पैदा करने तक चुक जाती हैं। प्रायः सभी एशियाई देशों में जहां दर्शक इस बुनियादी समझ के साथ फिल्म देखना आरम्भ करते हैं कि ये फिल्में यथार्थ से परे पूरी तरह गप्प हैं अथवा इनमें अतिरंजकता है। इसलिए वे विषय को गंभीरता से नहीं लेते अगर वह पड़ोसी देश से पिछले युद्ध की कहानी हो तब भी नहीं।”
अर्थात सिनेमा में पूंजी ही सब कुछ हो गया है। बड़े-बड़े बैनर तले जो फिल्में बनती हैं उनका उद्धेश्य सिर्फ पूंजी कमाना ही है। इसके लिए वह किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। जो सामग्री दर्शकों को परोसी जाती हैं , उनमें सिर्फ चकाचौंध ही दिखती है। जिसमें दर्शक कुछ समय के लिए खो जाते है। एक तरह से हम कह सकते हैं कि इनमें आधुनिकता के नाम पर सिर्फ पश्चिम का अनुकरण है। कहीं कहीं यथार्थवादी चित्रण दिखता है । लेकिन ऐसी फिल्मों की संख्या बहुत कम है।
हिन्दी सिनेमा में बाजार के साथ-साथ राजनीति का भी हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है। कई ऐसी फिल्में बनी हैं जिनमें राजनीति का व्यवसायीकरण किया गया। इस तरह की फिल्मों में शामिल हैं – ‘अपहरण’, राजनीति, गुलाल, रंग दे बसंती, आन, सत्याग्रह, खट्टा-मीठा आदि । इनके माध्यम से सिनेमा के व्यवसाय और राजनीति के संबंध को उजागर किया गया है। भूमंडलीकरण ने फिल्म निर्माण के ढांचे को भी बहुत हद तक प्रभावित किया है। यदि हम पहले की फिल्मों को देखें तो पाएंगे कि ज्यादातर ग्रामीण परिवेश , या भारतीय संस्कृति के ही दर्शन होते थे। लेकिन अब देश के बाहर की लोकेशन , हाईप्रोफाइल लाइफस्टाइल, लग्जरी गाड़ियां , आलीशान घर, वेस्टर्न म्यूजिक सभी कुछ नजर आता है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि अब फिल्में अपने दर्शकों को सिर्फ अपने देश तक सीमित रखना नहीं चाहतीं। उनकी नजर पूरे विश्व पर है। इसी बजह से सिनेमा मूल समस्याओं को नजरअंदाज कर देता है। और जो कोई इन पर फिल्म बनाने का प्रयास भी करता है। उसे घाटा उठाना पड़ता है। भूमंडलीकरण के बाद के सालों में जो अच्छा सिनेमा हिंदुस्तान में बन रहा है, क्या उसे वृहत्तर समाज देख रहा है और जवाब है नहीं। होना तो यह चाहिए था कि प्रक्रिया तमाम क्षेत्रीय और हिंदी फिल्मों की उपलब्धता में वृद्धि करती, उसकी दर्शकों तक पहुंच बढ़ाती लेकिन ऐसी कितनी ही बेहतरीन फिल्में हैं जिन्हें या तो सही दर्शक नहीं मिला या वो अभी तक अपनी रिलीज का ही इन्तजार कर रही हैं।
इस वैश्वीकरण ने जीवन की रफ्तार बढ़ा दी है। बाजार ने लोगों के सामने कई विकल्प रख दिए हैं। इसी का परिणाम है कि नई पीढ़ी किताबों से हटकर डिजिटल उपकरणों की ओर आकर्षित हो रही है। साहित्य के पाठक तेजी से कम हो रहे हैं। वहीं फिल्मों के दर्शकों में इज़ाफा हो रहा है।
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि भूमंडलीकरण से सिनेमा पर सिर्फ नकारात्मक प्रभाव ही देखने को मिले हैं। इससे कई फायदे भी हुए हैं। जैसे आज हम यदि दूसरी भाषाओं की फिल्मों को देख पा रहे हैं तो यह इसी का परिणाम है। यह सभी फिल्में पहले एक दायरे में सिमट कर रह जाती थीं। लेकिन अब उन्हें एक वैश्विक पहचान मिल रही है। इसके साथ ही अन्य देश के लोग एक दूसरे की संस्कृति से परिचित हो रहे हैं। बैलगाड़ी पर सवार होकर सफर शुरू करने वाला भारतीय हिन्दी सिनेमा आज इस भूमंडलीकरण के दौर में जेट विमान पर सवार है। इसने देश के लगभग सभी कलारूपों को अपने में समाहित कर लिया है। गीत, संगीत, नृत्य, नौटंकी ,लीला, नटबाजी, जादू, मदारियों के खेल, शिल्पकला, चित्रकला, साहित्य सभी कलाओं को भारतीय सिनेमा ने एक नए रूप में ढालकर लोगों के सामने प्रस्तुत किया है।
भूमंडलीकरण ने हिन्दी सिनेमा को हिंसा प्रधान फिल्मों से छुटकारा दिलाने का कार्य भी किया है। इसने निर्माताओं को ऐसी फिल्में बनाने के लिए विवश कर दिया जो सामाजिक संवेदनाओं से ओत-प्रोत हों। यह भूमंडलीकरण का ही प्रभाव है कि साहित्य के साथ-साथ आज हिन्दी सिनेमा ने भी दलित, स्त्री, आदिवासी आदि विषयों को वृहद रूप से आत्मसात किया है। इसके साथ ही सांप्रदायिकता, आतंकवाद आदि के प्रभाव को भी अलग-अलग ढंग से प्रस्तुत किया है। निर्देशकों ने अपनी विचारधाराओं के द्वारा हिन्दी सिनेमा को तमाम साहित्यिक विमर्शों से जोड़ा और कई बेहतरीन फिल्में बनाईं । उदाहरण स्वरूप हम स्त्रीविमर्श पर बनी कुछ फिल्मों को देख सकते हैं। जिनमें ‘दिशा’, ‘तर्पण’, ‘गॉड मदर’, ‘वाटर’, ‘अर्थ’, ‘चांदनी बार’, ‘फैशन’, आदि शामिल हैं। इसी प्रकार दलित और आदिवासी जीवन की समस्याओं को केन्द्र में रखकर भी कई फिल्में बनीं जिनमें ‘बैंडिट क्वीन’, ‘दीक्षा’, ‘चमकू’, ‘रावण’, ‘डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर’, ‘जयभीम कामरेड’, चक्रव्यूह आदि शामिल हैं। इन फिल्मों ने न सिर्फ सिनेमा समाज में भी लोगों का नजरिया बदला। और कई क्रान्तिकारी परिवर्तन सामने आए।
भूमंडलीकरण के इस दौर में सब कुछ बदल गया है। जिनमें सिनेमा भी शामिल है। महानगरों में बड़े-बड़े मल्टीप्लेक्स खुल गये और छोटे शहरों के सिनेमा -घरों की स्थिति खराब होने लगी। उन्हें गोदामों में परिवर्तित कर दिया गया । व्यक्ति को देखने का नजरिया भी बदल गया । अब उसे इंसान के रूप में नहीं बल्कि उपभोक्ता के रूप में देखा जाने लगा। सिनेमा से भारतीय संस्कृति लगभग गायब सी हो गई। फिर भी कुछ ऐसी फिल्में देखने को मिलती हैं जो इसे चुनौती देती हुई दिखाई देती हैं। ये फिल्में हैं- ‘दिल वाले दुल्हनियां ले जाएंगे’, ‘हम आपके हैं कौन’, ‘स्वदेश’, ‘रंग दे बसन्ती’, ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’, ‘पान सिंह तोमर’, ‘पीपली लाइव’, लंचबॉक्स आदि। इनमें से ‘हम आपके हैं कौन’ फिल्म जब बनी थी । उस समय की फिल्मों में हिंसा की भरमार रहती थी। लेकिन यह इन सबसे बिल्कुल अलग थी। इसमें भारतीय संस्कृति के परम्परागत जीवन-मूल्यों को पारिवारिक पृष्ठभूमि में चित्रित किया गया था। रामगोपाल वर्मा की फिल्म ‘सत्या’ भी व्यवसायिक दबाव से मुक्त नज़र आती है। एक और फिल्म ‘स्वदेश’ में विदेशों की ओर भाग रहे नौजवानों को अपने देश की संस्कृति के साथ जुड़े रहने का आह्वान किया गया। इसके साथ ही देश के हालात से भी लोगों को परिचित कराया है। वहीं ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ माफिया राज को दिखाता है। यह कहानी उस दौर में शुरू होती है , जब अंग्रेजों ने कोयला खदानों को अपने कब्जे में ले रखा था। स्वतंत्रता के बाद यह माफियाओं के कब्जे में आ जाता है। और फिर शुरू होती है खूनी जंग। विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ गांधीवादी चिंतन को विश्व पटल पर ले गया। जिस तरह महात्मा गांधी ने अहिंसा के रास्ते पर चलकर देश को आजाद कराया था। उसी तरह वर्तमान समय में भी इस दर्शन का पालन कर उद्धेश्य की प्राप्ति की जा सकती है। फिल्म के एक सीन में महात्मा गांधी कहते हैं-
“ भई! मुझे तो बरसों पहले मार दिया गया था, लेकिन मेरे विचार तीन गोलियों से नहीं मरने वाले। ज़माने बदलते रहेंगे पर मेरे विचार किसी-न-किसी के भेजे में केमिकल लोचा करते रहेंगे। अब आपकी मर्जी चाहे तो मुझे तस्वीर बनाकर दीवार पर लटका दो या मेरे विचारों पे विचार करों।’ यही फिल्म का मूल भाव है।
ये सभी फिल्में वैश्विक मंच पर हमारे देश के अतीत को पहुंचाती हैं। वैश्वीकरण ने जीवन की रफ्तार को बढ़ा दिया है। बाजार ने लोगों के सामने इतने विकल्प रख दिए हैं कि उनका चुनाव करना कठिन हो गया है। इससे कहीं न कहीं उपभोक्ता और बाजार दोनों का फायदा हुआ है। सिनेमा भी इससे लाभान्वित हुआ है , इसमें कोई दो राय नहीं है।
सिनेमा के अन्दर यह ताकत होती है कि वह अधिक से अधिक लोगों को अपनी ओर खींच सकता है। यह साहित्य को आमलोगों के बीच पहुंचाने का एक माध्यम बन सकता है। इसलिए इस ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। यह भूमंडलीकरण का ही प्रभाव है कि सिनेमा से संबंधित डिजिटल उपकरण आसानी से और उचित दाम में उपलब्ध हो जाते हैं। इनकी सहायता से किसी फिल्म को बिना किसी तामझाम के बनाया जा सकता है। अब तो मोबाइल में भी यह सुविधा मौजूद है। यही कारण है कि वर्तमान समय में शॉर्ट फिल्मों का चलन बड़ी तेजी से बढ़ रहा है। इसके अलावा बड़े बजट की फिल्मों में कई बड़ी-बड़ी विदेशी कंपनियां जैसे- सोनी, फॉक्स, वॉल्ट डिज्नी आदि निवेश कर रही हैं। यानी तकनीकी स्तर पर आज का सिनेमा कहीं अधिक मजबूत हो गया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि भूमंडलीकरण ने हिन्दी सिनेमा को पूरे विश्व से जोड़ने का कार्य किया। लेकिन यहां पर सिनेमा के सामने यह चुनौती भी है कि उसे सिर्फ एक उत्पाद बनकर सीमित हो जाने से बचना होगा। अगर हम भूमंडलीकरण के नकारात्मक प्रभाव के कारण को खोजने का प्रयास करें ,तो पाएंगे कि इसकी सबसे बड़ी वजह स्वयं हम हैं। अंधानुकरण की प्रवृत्ति के चलते इस तरह की समस्याएं उत्पन्न हुईं। अगर हमें इनसे बचना है तो इनका साधन बनने के बजाय हमें इन्हें अपना साधन बनाना पड़ेगा। इससे आज जो भूमंडलीकरण हमारे सामने मुसीबतें लेकर आ रहा है , वह हमारा सबसे अच्छा सहयोगी साबित हो सकता है।